परिस्थिति के हाथों (मणिपुरी कहानी) : इबोहल सिंह काङ्जम
Paristhiti Ke Hathon (Manipuri Story) : Ibohal Singh Kangjam
आज यह समाज मुझे कितने गिरे हुए स्तर पर रख रहा है ! कितनी नीची दृष्टि
से देख रहा है! अगर सोचूँ तो हँसी आती है। इस समाज के सारे प्रतिष्ठित लोग मेरी
शरण- में आते हैं; मेरे पैर पकड़कर याचना करते हैं। इससे बीते हुए जीवन की तुलना
करूँ तो आश्चर्य होता है। विश्वास नहीं था कि मैं ऐसी हो जाऊँगी। मैंने इस पेशे को,
अपनी आत्मा और मन की इच्छा से नहीं अपनाया। अगर अधिक सोचती हूँ तो
स्वप्न-सा लगता है।
सचमुच न चाहते हुए भी परिस्थितिवश मैं इस अवस्था में पहुँच चुकी हूँ।
मेरी संगी-साथिनों, मुहल्ले की बहनों, चाची-ताइयों, किसी को भी विश्वास
नहीं रहा होगा कि मेरा जीवन ऐसा बन जाएगा। किन्तु उनके लिए अविश्वसनीय इस
राह पर मैं काफी आगे कदम बढ़ा चुकी हूँ। प्यार करने के बदले, लोगों की मुझे देखते
ही घृणा से थूकनेवाली स्थिति पर पहुँचकर भी, मेरे हृदय को दुःख और अनुताप का
अनुभव नहीं होता। ऐसे लोग तो मामूली आदमी हैं। उनसे बड़े अनेक प्रत्निष्ठित लोग,
बस, मेरा नाम जपते हैं, मेरे पीछे भागते हैं। स्थिति यह है कि अकेली होने के कारण,
मैं उन सब लोगों को इच्छा पूर्ण नहीं कर सकती।
लेकिन दूसरी ओर देखें तो ऐसे लोग मानव-समाज में रह रहे, हिंसक पशुओं
से भी खतरनाक प्राणी हैं। फिर भी समाज की लगाम तो उनके ही हाथ में है।
इतिहास के पन्ने पलटने पर मेरे जीवन की कहानी का एक अंश दिखाई पड़ता
है। इन थोड़े-से पन्नों को फाड़कर मैं विस्मृति की परतों में दबाना चाहती थी, लेकिन
पन्ने फाड़ने लायक नहीं निकले। इसी कारण बीच-बीच में मेरे जीवन में व्याकुलता
पैदा होती है। कभी-कभी आँखों के कोरों से आँसू की दो-एक बूँदें गिर जाती थीं।
कभी हृदय पत्थर से भी ज्यादा कठोर बन जाता है।
मेरा वर्तमान स्वरूप वास्तविक नहीं है! वह तो अचानक आई जीवन की
प्रचण्ड आंधी में कहीं खो गया है। आँधी में अन्धकार के बीच चमकी बिजली की
रोशनी में कुछ लोग मुझे मणि-मुक्ता से भी ज्यादा मूल्यवान समझ बैठते हैं, और कोई
कांच के टुकड़े से भी ज्यादा मूल्यहीन।
यह तो लोगों का अपना-अपना नजरिया है। खुद अपना मूल्य आँकना
मुश्किल होता है।
बचपन में ही मैं अपने माँ-बाप से बिछुड़ गई। चाचा और चाची ने मुझे
पाल-पोसकर बड़ा किया। जब युवावस्था को प्राप्त हुई तो चाचा और चाची ने एक
अमीर आदमी को मेरा हाथ देने की बात पक्की कर दी। परन्तु मैंने तो किसी और
के साथ हृदय का आदान-प्रदान कर लिया था। इसलिए मैं चाचा और चाची की
इच्छा के खिलाफ अपने प्रेमी के पास चली गई। चाचा और चाची बहुत क्रोधित हुए।
उन्होंने मेरा बहिष्कार कर दिया।
दूसरी ओर, ससुराल में भी मैं चैन से नहीं रह सकी। पता नहीं ऐसा क्यों
हुआ ! लगा कि सभी लोग मेरी अवहेलना करते हैं। मुझे प्यार करनेवाला, बस वही
था। किन्तु वह भी काल के मुँह में चला गया। मेरा हृदय विदीर्ण हो गया।
अपने प्रेमी के न रहने पर मैं उस घर में कब तक टिक सकती थी ! काफी
बर्दाश्ति करती थी, लेकिन यन्त्रणा असहनीय रूप से बढ़ जाने पर उन्हीं चाचा-चाची
के पास लौट आई, जिनके मुँह पर मैंने एक समय कालिख पोत दी थी। उन्होंने मुझे
रहने तो दिया, किन्तु बातें बहुत कम कीं।
मेरे वापस आने के कुछ दिन बाद चाचा गम्भीर रूप से बीमार पड़ गए। घर
का सारा सामान बेचकर, प्रयास करने पर भी, उन्हें नहीं बचाया जा सका। चाचा के
मरने के बाद, उस घर में चाची और मैं, हम दो ही रह गए। किन्तु चाची मुझसे बुरा
बर्ताव करने लगी। एक दिन भी, एक-मन होकर नहीं रही।
चाची भी कम उम्र की थी। चाचा से उसे कोई सन्तान नहीं हुई थी। चाचा की
बरसी के दो माह बाद, वह मैके चली गई। मैं अकेली रह गई।
मेरे जीवन में एक के बाद एक, जो मोड़ आए, उन्हें कहने का कोई लाभ नहीं
है। अकेलेपन की घुटन के साथ, शरीर की अनियन्त्रित तरंगों को सम्भालने का एक
और कष्ट खड़ा हो गया। मेरे शरीर की तरंगों के लालची, शमा की ओर परवाने की
तरह, मेरी ओर उड़ आने वाले अनेक थे। क्या अपने शरीर को दुकड़े-टुकड़े करके
मांस के उन लालचियों को खिलाना पड़ेगा? ऐसा करने-भर से ही उनके हृदय को
तृप्ति होगी? लेकिन वह भी ऐसे ही कैसे? शरीर की ये लहराती तरंगें मेरे लिए तो
पाप बन गईं।
अपने-आपको कैसे बचाऊँ? सोचा तो बहुत मुश्किल प्रतीत हुआ। यदि मैं
अपने को बचा नहीं सकी तो मुझे समाज में वस्त्रधारी पशु ही बनना पड़ेगा। मैंने सोचा
कि एक उपाय आजमाकर देखूँ: और वही किया भी। उन लोगों में से एक
विश्वसनीय व्यक्ति को मैंने चुनकर, उसे हृदय-सहित अपना सर्वस्व सौंप दिया।
लेकिन मैं उसके लालची मनोभाव को प्यार में नहीं बदलवा सकी। जब उसे पता
चला कि मेरा पाँव भारी हो गया है, वह इस डर से कि इसका बोझ उस पर पड़ेगा,
मुझे छोड़कर भाग गया। मांस का लालची वह मेरे शरीर को पूरा तो नहीं खा सका,
किन्तु खाया तबीयत से। साथ ही उसने मेरे विश्वास की हत्या भी कर डाली।
पहली आजमाइश में ही मैं इतनी बुरी तरह पराजित हुई थी कि फिर से
आजमाइश का उत्साह मुझमें नहीं रहा। पर सोचती थी कि आजमाइश में बुरी तरह
पराजित होने पर भी, अपने पेट में उसके द्वारा छोड़ी गई चीज अगर सही-सलामत
रही, तो जीवन शांतिपूर्वक बिता सकूँगी। लेकिन लगता है कि विधाता द्वारा मेरे
ललाट पर खींची गई दु:ख की लकीर काफी लम्बी थी। निवृत्त तो हुई, लेकिन मेरी
इच्छा के विपरीत घटा। जब मुझे चेतना आई तो वह दफना दिया गया था। दाई ने
बताया कि लड़का हुआ था।
मैं अकेले जीने के दु:ख का ऐसे ही सामना कर रही थी। साथ ही अनियन्त्रित
तरंगें भी लहरा रही थीं। एक दिन सन्ध्या का समय था, मैं तुलसी-चौरे पर धूप-दीप
जलाकर कमरे के बीच ही पहुँची कि तभी धम के साथ दरवाजा बन्द हुआ और
अरगला लगा दी गई। मुड़कर देखा तो एक पुरुष मेरी तरफ...। माथे पर पसीने की
बूँदें चुचुआ आईं। उसके बाद आगे क्या हुआ, मुझे कुछ भी नहीं मालूम। चेतना आई
तो कमरे के बीचो-बीच पड़ी थी। दरवाजा भी चौपट खुला हुआ था। जलाई हुई
ढिबरी भी बुझ गई थी।
मैं अपने पर विश्वास नहीं कर सकी। मैं यह भी नहीं जान सकी थी कि वह
स्वप्न में हुआ था या जागते हुए। शरीर के दर्द और हृदय की वेदना को सिसकते हुए
सहने के सिवा कोई उपाय नहीं था।
मेरे जीवन में दाने चुगने के लिए आए उन दो पुरुषों ने जो कुछ किया
था, उन्हीं के कृत्य के कारण पुरुष-जाति के प्रति मेरे मन में घृणा पैदा हो गई। मुझसे
सहानुभूति रखनेवाली चाची-ताइयाँ, तब मुझे एक अच्छा पुरुष चुनकर घर बसाने के
लिए कहती थीं। मुझे प्रत्येक पुरुष हिंस्र-पशु से भी ज्यादा खतरनाक दिखाई देता
था। यहाँ तक कि अपने पहले पति के प्रति भी मेरा विश्वास उठ गया था, क्योंकि
वह भी तो पुरुष था।
मेरे दु:ख की सीमा केवल कुछ दिनों में नहीं बाँधी जा सकती थी। केवल हवा
खाकर जी सकने वाला जीव तो नहीं हूँ। सोचती थी कि शायद खाना-पीना न मिलने
के कारण पेट पीठ से मिल गया है। उस अवस्था के बावजूद अनियन्त्रित तरंगें बिलाने
के लिए तैयार नहीं थीं।
मेरे दु:ख को देखकर मुहल्ले की राधे दीदी ने कुछ हमदर्दी जताई। जीविका
चलाने को कुछ समान लेकर उसके पास उसी की तरह फड़ लगाने के लिए कहा।
“कुछ नहीं है तो वह थोड़ी मदद करेगी' कहने पर मैंने उसकी बात मान ली कि मेरी
स्थिति कुछ संभल जाएगी। पान-वान, सिगरेट-बीड़ी और खाने-पीने के कुछ
सामान के साथ मैं भी उसके पास फड़ लगाने लगी। पर मुझे यह अच्छा नहीं लगता
था कि पुरुष-जात ही सामान खरीदने के लिए आती थी जिससे मैं घृणा करती थी।
अगल-बगल इतने फड़ थे, किन्तु अधिकांश पुरुष मुझसे ही सामान खरीदते थे। वे
खरीदकर तुरन्त ही नहीं चले जाते थे; उपेक्षापूर्वक न सुने जाने योग्य बक-बक करते
रहते थे। इसलिए मुझे फड़ लगाना अच्छा नहीं लगता था। मैंने राधे दीदी से कहा कि
मैं फड़ का काम छोड़ दूँगी। किन्तु उसने मुझे छोड़ने से रोक दिया। वह मुझे स्त्रियों
के, पुरुषों के तरह-तरह के किस्से, मेरे समाज से पलायन की इच्छा के निहित
कारण, औरत की ताकत और अनेक पुरुषों की चारित्रिक कमजोरियाँ-रोज बाजार
से घर लौटते समय सुनाती थी। राधे दीदी के किस्सों, घर लौटते समय रोज हमारा
पीछा करनेवाले पुरुषों की शाब्दिक छेड़-छाड़ और जीने की इच्छा-इन सब ने मेरे
स्वभाव को धीरे-धीरे बदल दिया। ऐसा प्रतीत हुआ कि अन्ततः पुरुषों से दूर भागने
की कोशिश करनेवाली मुझमें, उनके अत्यधिक संसर्ग में आने की इच्छा पैदा होने
लगी है।
अब मैंने फड़ बन्द कर दिया है। पैसा कमाने के लिए इधर-उधर भी नहीं
जाती। जीने के लिए साधनों की कमी नहीं है। मेरा जीवन-स्तर पहले से बहुत बदल
गया है। पहले की भांति मेरा घर सीलन और बदबूदार नहीं रहा। अच्छा घर चलाने
लायक, बढ़िया चीजों से भरा और खुशबूवाला घर, अब मेरा भी हो गया है।
आज के अपने बदले हुए जीवन को देखकर, मुझे खुद भी आश्चर्य होता है।
पुरुष सोचते हैं, वे मुझसे कठपुतली की तरह खेल रहे हैं। मैं कहती हूँ--मैं उन सब
को अपनी ऊँगलियों पर नचाकर खेल रही हूँ। लेकिन मेरे मन की यह बात चाहे ठीक
भी हो, तब भी मुझे आज का अपना यह जीवन पसन्द नहीं है। भरा-पूरा होने पर भी,
समाज की हेय दृष्टि के नीचे जो जीवन आज मैं जी रही हूँ, उससे तो न जीना ही
बेहतर है। किन्तु मेरे जीवन में बदलाव का कारण पुरुष ही हैं। पुरुष-जात ! इसने मुझे
इस अवस्था तक पहुँचाया; इस अवस्था में मैं उन्हें... ।
मैं, मैं वैसी ही हूँ। पर पहले से काफी बदल चुकी हूँ। बदलना अपरिहार्य था,
परिस्थिति के हाथों।
-लेखक द्वारा अनूदित