पारिश्रमिक का महत्त्व : तमिल लोक-कथा
Parishramik Ka Mahattv : Lok-Katha (Tamil)
उसके अधीनस्थ कर्मचारियों की मेज पर फाइलों के अंबार लगे हुए थे। कछुआ गति से रेंगता उनका काम देखकार उसे कोफ्त होती, किंतु वह विवश था। सेवेरे दस बजे ऑफिस का समय था, ग्यारह से पहले कोई नहीं आता। देरी के अनेक कारण प्रस्तुत कर देते। आकर आधा घंटा सुस्ताने, फिर शरीर में ऊर्जा का ईंधन के लिए कैंटीन की ओर चल देते। शाम को तीन बजे के बाद किसी कर्मचारी को तलब करो तो उत्तर मिलता, बाथरूम गया है और वह फिर दूसरे दिन ही लौटता बाथरूम से। यह परिदृश्य था सरकारी ऑफिस का।
किसी भी छोटी-मोटी बात को लेकर काम रोकना और प्रबंधकों से झगड़ना मासिक कार्यक्रम था। वर्ष में एक-दो बार बोनस, तनख्वाह अथवा अन्य सुविधा की माँग को लेकर हड़ताल करना या धमकी देना अतिरिक्त कार्य थे जिसमें कर्मचारीगण पूरी एकजुटता के साथ भाग लेते थे। जिस कार्य हेतु उन्हें नियुक्त किया जाना है, उसे भुलाकर या तो उनका ध्यान निजी कार्यों पर अधिक रहता था या वे प्रतीक्षा करते कि कोई मजबूरी का मारा उनके पास फरियादी बनकर आए और वे कुछ ले-देकर अहसान के लिए दस चक्कर कटवाकर उसका काम कर दें।
अभी एक दिन की बात है। एक प्रौढ़ स्त्री जो शायद विधवा एक गरीब थी, उसके दफ्तार में एक सर्टिफिकेट लेने के लिए आई। पहले तो उसे यह कहकर टाल दिया गया कि फाइल ऑडिट में गई है, एक हफ्ते बाद आना। एक हफ्ते बाद फाइल कंप्युटर विभाग में चली गई, कंप्युटर में दाखिल होने। लगता है, अंत में किसी ने उसे नेक सलाह दी होगी। तीसरी बार जब वह महिला आई तो आते ही अपने कर्मचारी की मेज पर दो सौ रुपए रखे और कहा कि वह बाहर बैठी है। सर्टिफिकेट तैयार हो जाए तो वह उसे बुला ले। और वास्तव में, आधा घंटा बाद प्रमाण-पत्र लेकर वह जा चुकी थी।
कर्मचारियों के आलस्यपूर्ण रवैए और उनकी लापबोई से वह तंग आ चुका था। किस प्रकार इस संस्कृति का अंत करे, जो दीमक की तरह इस देश के प्रशासन को खा रही है?
उसे एक लोककथा याद आई, जो उसने अपनी दादी से सुनी थी। वहाँ उसके कर्मचारी काम करने से जी चुराते हैं और करते भी हैं तो वही काम, जिसमें उन्हें ऊपर की आमदनी होती हो। जबकि कथा उस जमींदार को जो नोकर मिलता है, वह काम में फुर्तीला और खाली न बैठनेवाला है। कथा कुछ इस प्रकार है—
तमिलनाडु के एक प्रदेश में एक जमींदार था, जिसके पास सैकड़ों जमीन थी। उस जमीन की सिंचाई के लिए उसने बड़े-बड़े विशाल तालाब बनवा रखे थे। लेकिन वह जमींदार कंजूस किस्म का था। उसके हाथ से पैसा जल्दी नहीं छूटता था। इसी कारण उसकी जमीन की सिंचाई करने के लिए उसे मजदूर नहीं मिलते थे।
एक दिन एक संत महाराज उसके द्वार से गुजरे। उसे न मालिम कहाँ से सद्बुद्धि आ गई। उसने उन्हें रोककर अपने घर आतिथ्य ग्रहण करने का निवेदन किया। संत ने उसकी वाणी से प्रभावित होकर उसका निमंत्रण स्वीकार कर लिया। जमींदार ने संत की खूब सेवा की। विभिन्न तरह के मिष्टान्न एवं पक्वान्नों से भोजन करवाया तथा उनके विश्राम की व्यवस्था अत्यंत सेवा-भाव से की।
संत अति प्रसन्न हुए। जब वे चलने लगे तब जमींदार ने उन्हें अपनी समस्या बताई। संत ने उसे एक मंत्र दिया और कहा कि तीन माह तक रात-दिन का भेद किए बिना यदि वह उस मंत्र का जाम करेगा तो इसकी शक्ति से उसकी मनोकामना पूरी होगी।
जमींदार ने संपूर्ण मनोयोग से मंत्र जाप किया। तीन माह पूरे होते ही एक ब्रह्मराक्षस उसके सम्मुख प्रकट हुआ। उसने कहा, ‘स्वामी! मैं आपका भृत्य हूँ। दास हूँ। आप जो आज्ञा देंगे, उसे पूर्ण करना मेरा कर्तव्य ही नहीं, परम धर्म होगा।’
जमींदार की मनोकामना पूर्ण हो रही थी, यह सोचकर वह अति प्रसन्न हुआ। ‘लेकिन स्वामी’, ब्रह्मराक्षस ने कहा, ‘मैं क्षणांश भी खाली नहीं बैठ सकता और मेरा स्वभाव है कि जब मैं खाली बैठता हूँ, तो जो भी मेरे पास होता है, मैं उसका भक्षण कर जाता हूँ। फिर चाहे आप हो या कोई और।’
जमींदार उसे पाकर प्रसन्न हुआ और चिंतित भी। फिर उन्होंने सोचा, मेरे पास इतने बड़े-बड़े तालाब हैं, विशाल पैमाने पर फैली हुई जमीन है, इसमें काम करते-करते ही उसका जीवन बीत जाएगा। यही सोचकर उन्होंने कहा, ‘ठीक है, जाओ सभी तालाबों की पहले सफाई करो, उनकी मरम्मत करो और फिर उन्हें शुद्ध शीतल जल से भरो।’
राक्षस ने कहा, ‘जी।’ और चला गया।
जमींदार ने चैन की साँस ली। सोचा, कुछ महीनों तक तो अब यह राक्षस अपनी शक्ल नहीं दिखाएगा। सभी तालाब बरसात के पानी से काईग्रस्त है। उन्हें साफ करते-करते ही निढ़ाल हो जाएगा। फिर उन्हें पानी से भरना...!
पूरा दिन बीत गया। रात्रि को जमींदार सुखपूर्वक निद्रालीन था। किसी ने उसे जगाया। आँख खोली तो सामने ब्रह्मराक्षस खड़ा था, ‘तुम इतनी रात को! क्या बात है? मुझे क्यों जगाया?’
‘जी, आपकी आज्ञा का पालन हो गया है। तालाब स्वच्छ कर दिए गए। उनमें शुद्ध पानी आईने की तरह झिलमिला रहा है, आगे क्या हुक्म है?’
‘ठीक है। देखो दूर-दूर तक फैली वह सामने जो जमीन दिख रही है, सब मेरी है। ऐसा करो। पहले उसे साफ करो। बरसात से जंगली पौधे, घास-फूस उग रही है उस पर। फिर उसे खेती करने लायक बनाओ। जब यह काम हो जाए तो उस पर धान आदि की फसल उगाओ। और हाँ, सिंचाई का भी प्रबंध कर देना। ठीक है...?’
‘जी स्वामी’, ब्रह्मराक्षस ने कहा और चला गया। लेकिन जमींदार की नींद उड़ गई। उसने जैसा सोचा था वैसा नहीं था। इस ब्रह्मराक्षस के पास जादुई छड़ी है, जिसे घुमाते ही काम हो जाता है।
जमींदार ने अपनी चिंता पत्नी को बताई। पत्नी ने सोचा और कहा, ‘अब वह आपके पास आए तो उसे मेरे पास भेज देना। मैं कुछ उपाय सोचती हूँ।’ कहते हैं, स्त्रियों की बुद्धि बहुत तेज होती है।
मीलों फैली जमीन पर फसलें लहलहा उठीं। ब्रह्मराक्षस को उसने एक के बाद एक अनेक काम दिए, जिन्हें उसने तेजी के साथ पूरा कर दिया। अब ब्रह्मराक्षस पुन: जमींदार के सम्मुख काम की प्रतीक्षा में खड़ा था।
जमींदार ने कहा, ‘अपनी स्वामिनी के पास जाओ। उन्हें तुमसे कोई आवश्यक काम कराना है, वह काम पूरा हो जाए, तो फिर मेरे पास आना।’
ब्रह्मराक्षस जमींदार की पत्नी के पास पहुँचा। जमींदार की पत्नी के केश बहुत ही लंबे और घुँघराले थे। उस प्रदेश में ऐसे बाल किसी भी स्त्री के सिर पर शोभित नहीं थे। अपने सिर से उसने एक बाल तोड़कर राक्षस को दिया और कहा, ‘लो, इस बाल को ले जाओ और इसे बिल्कुल सीधा करके मुझे लौटाओ। यदि तुमने मेरा यह बाल सीधा कर दिया तो मैं दूसरे बाल भी दूँगी।’
ब्रह्मराक्षस ने न जाने कितने तरीके अपनाए। जब तक वह दो छोरों पर बँधा रहता, सीधा दिखता, लेकिन जैसे ही उसे खोलता, वह घुँघराला हो जाता। राक्षस परेशान हो उठा। कोई भी विधि काम न आई बाल टेढ़ा ही रहा। अचानक उसे ध्यान आया। गाँव में एक सुनार है। उसके पास भी पतले-पतले टेढ़े-मेढ़े सोने के तार है। उसने उस सुनार को उन तारों को आग की मिट्टी में तपाते देखा है। फिर सुनार उन्हें चिमटे से पकड़कर एक हथौड़ी से उस पर वार करता रहता है और तार बिल्कुल सीधे हो जाते हैं।
‘क्यों न मैं भी यही विधि अपनाऊँ?’ ब्रह्मराक्षस ने सोचा, किंतु यह क्या? बाल तो अग्नि पर रखते ही जल कर भस्म हो गया। अब मैं क्या करूँ? मालिक की पत्नी ने कहा था, बाल वापस लौटाना। कैसे लौटाऊँ? वह चिंतित हुआ और भयभीत भी। लाख उपाय सोचा, किंतु दिमाग ने काम करना मानो बंद कर दिया। अब उसे एक ही रास्ता नजर आया। वह अंतर्धान हो गया।
ब्रह्मराक्षस ऐसा सोचकर वहाँ से गायब हो गया। वह जमींदार को छोड़कर रफूचक्कर हो गया। एक नारी की चतुराई और बुद्धि ने जमींदार तथा उसके परिवार का जीवन बचा लिया। उन्होंने इससे यह सबक सीखा कि किसी से भी बेगार में कार्य नहीं कराना चाहिए। अचित पारिश्रामिक देकर ही काम कराना चाहिए।
कथा तो यहाँ समाप्त हो गई, लेकिन वह सोच रहा था कि इन कथाओं के जीवन-मूल्यों और आज के जीवन-मूल्यों में कितना अंतर आ गया है। जमींदार ने तो सबक सीखा कि उचित पारिश्रामिक देकर ही काम कराना चाहिए, लेकिन मेरे ऑफिस में अधिकतर सरकारी कार्यालयों में कर्मचारियों को जिस कार्य के लिए उच्चतम पारिश्रामिक और बेहतरीन सुविधाएँ उपलब्ध कराई जा रही हैं, वे उसे निष्ठा से न करके कितना बड़ा अन्याय एवं अहित कर रहे हैं, स्वयं अपना और इस देश का। काश! कोई सोचे।
और गहरी साँस ले सामने पड़ी कुरसी पर पाँव फैलाकर वह चिंतामग्न हो गया।
(साभार : डॉ. ए. भवानी)