परछाई (कहानी) : भगवान अटलानी

Parchhai (Hindi Story) : Bhagwan Atlani

मोना! आष्चर्य मिश्रित आह्‌लाद से उसकी धड़कनें झटका खाकर तेज तेज दौड़ने लगीं। मोना। हां, बिल्कुल मोना। शत प्रतिषत वही। वैसी ही भावुक, पनीली आंखें। वैसी ही खूबसूरत, तराषी फांक से होंठ। वैसा ही गोल चेहरा। गालों की हडि्‌डयां उसी मनमोहक अंदाज से उभरी हुईं। मस्तक तक घिर आये घने केष। बीच से निकली हुई मांग। नियोजित अनुषासन के विरूद्ध बगावत करती दो लटें।

अदाओं का अनियन्त्रित सैलाब उसे बरबस वहां ले गया। वह सिगरेट के तीखे धुएं से घिरा, छल्लों में लिपटा, अन्धेरे कमरे में बन्द आसमान को घूरता मनीष बन गया। मि. पारिख, चीफ सुपरिन्टेन्डेन्ट की कुर्सी, इज्जत आबरू अब उसे अपना नाम नहीं, अपने किसी मित्र का नाम महसूस होता था। ऐसे मित्र का नाम, जिसे समय की सलाखों ने पीट—पीटकर षिनाख्त खो देने पर मजबूर कर दिया हो। मि. पारिख की भूलभुलैया ने जिसे ग्रस लिया था, वही मनीष आज जीवित होकर मि. पारिख के सीने पर पांव रखता, स्मृतियों को रौंदता उसमें प्रवेष कर गया।

“यह मेरी वाइफ है सर, कीर्ति। और ये मेरे बॉस, मि. पारिख।”

मनीष से मि. पारिख तक की यात्रा तय करते हुये स्वप्निलता की धुंध उसकी आंखों में अटकी रह गई।

“लवली“, गुनगुनाते हुए उसे लगा, यह विषेषण भ्रामक सिद्ध हो सकता है।

“रियली लवली नेम—कीर्ति।”

रोजी फेस पाउडर का एक पूरा पैक कीर्ति के मुंह पर ढुलक गया। मुस्कराकर उसने अपना सिर झुका लिया।

मनीष फिर लौट आया।

“मोना, तुम इस तरह मत हंसा करो।”

“किस तरह?”

“इस तरह जैसे अभी अभी तुम हंसी थीं, निचले होंठ को दांतों से दबाकर।”

“क्यों?”

“मुझे डर लगता है।”

“क्यों भला? डर क्यों लगता है तुम्हें?”

“इतनी कारीगरी से तराषा हुआ होंठ कभी गलती से कट गया तो ........।”

गुलाबी होती लवें। झुकता हुआ चेहरा। दांतों से कस कर दबाया हुआ हंसता निचला होंठ।

“थैंक यू सर“, देसाई ने विनम्रता से झुकते हुए कहा।

“तुम्हारी मिसेज कहां की हैं देसाई?“ गोया मि. पारिख ने नहीं, मनीष ने पूछा।

“अहमदाबाद की हैं सर।”

गुम्बद से बोले गये शब्द की तरह ‘अहमदाबाद' मि. पारिख के मस्तिष्क में गूंजता रहा।

“अहमदाबाद में आपका घर कहां है, मिसेज देसाई?“ मि. पारिख ने सीधा कीर्ति को सम्बोधित किया।

“कांकरिया के निकट है।”

एक भूली बिसरी मीठी तान, बड़ी देर से रुके हुए किसी ठंडे झोंके की तरह मि. पारिख को सिहरा गई।

“तुम इतना चुप चुप क्यों रहती हो, मोना?“ मनीष ने पूछा।

“नहीं तो।”

“नहीं तो क्या होता है?“ मोना ने उलझन से मनीष को देखा।

“नहीं तो की जगह तुमने वह क्यों नहीं कहा कि नही ंतो, बोलती तो हूं।”

“जब नहीं तो बोलने से काम चलता है, फिर बोलती तो हूं कहने से क्या फायदा?”

“मैं फायदा नुकसान कुछ नहीं जानता। बस इतना जानता हूं कि तुम ज्यादा से ज्यादा बोलो और मैं ज्यादा से ज्यादा सुनूं।”

“ऐसा क्यों भला?”

“इसलिये कि तुम्हारे बोलते रहने से मुझे यों महसूस होता है जैसे कोई मधुर तान धीरे—धीरे मुझे लपेटती जा रही है और मैं मुग्ध सा बेसुध हुआ जा रहा हूं।”

आवाज, लहजा, उच्चारण का तरीका, स्वर का प्रभाव। वही। वही। सब कुछ वही है। घर भी अहमदाबाद में और कांकरिया ............।

“मालूम होता है सर, आप अहमदाबाद से काफी वाकिफ हैं।”

“हां, मैंने एम.ए. वहीं से किया है।”

मि. पारिख ने देखा, कतार बांधे कई चित्र सामने खड़े हैं। मनीष कॉलेज के पोर्च में से गुजर रहा है, मोना साथ है। मनीष कॉलेज की डिबेट में बोल रहा है, मोना सामने है। मनीष पढ रहा है, मेज पर मोना के तैयार किये हुए नोट्‌स हैं। मनीष कॉलेज जाने से पहले कपड़े निकालने के लिये वार्डरोब खोल रहा है, चन्दन की सन्दूकची में मोना का चित्र है। परीक्षा के दौरान प्रष्नों के उत्तर देने के लिये मनीष पैन निकालता है, उस पर मोना का नाम है। अचानक घने, लम्बे बालों की छत्र छाया में सांस लेता एक कोहरा चन्दन की वही वार्डरोबी महक लिये उसे अपने चारों ओर दूर—दूर तक फैलता अनुभव हुआ।

“अहमदाबाद क्या इतना अच्छा शहर है सर? कीर्ति तो जब देखिये, अहमदाबाद—अहमदाबाद करती रहती है।“ देसाई ने सिलसिला टूटने से बचाया।

“अच्छा शहर है?“ जिस शहर ने उसे इतना जबर्दस्त नासूर दिया, वह अच्छा शहर? जो शहर मोना को मार सकता है, वह अच्छा शहर नहीं हो सकता। हरगिज नहीं हो सकता। एक टीस मनीष की सीमा रेखाओं को पार करती हुई मि. पारिख के चेहरे को झुलसा गई।

मनीष को मर जाने दो पारिख। मर जाने दो। बड़ी मुष्किल से तो वह मरा है। तुम उसे फिर जिन्दा करने पर तुले हो।

“हां, अहमदाबाद वाकई अच्छा शहर है देसाई? वैसे मिसेज देसाई, आप तो अहमदाबाद से आई ही हैं, कांकरिया में अब कितना पानी है?”

“कांकरिया अब पूरी तरह बदल गया है।“ संक्षिप्त उत्तर। मधुर, मध्यम स्वर। मोना! मोना!! मोना!!!

“क्या? कांकरिया की पुरानी पहचान समाप्त हो गई है अब?”

मनीष घायल सा घिसटता हुआ समुद्र के सामने बिछी रेत पर पसर गया। कांकरिया, मोना, बोटिंग, हंसती गाती जिन्दगी और ..... और मौत। मोना की आकस्मिक, अनपेक्षित मृत्यु से फालिजग्रस्त वह अपने संत्रस्त हाथों से रेत खोद खोदकर शंख निकालता रहा। स्मृतियां पलट पलटकर समय की जुगाली करती रहीं।

चन्दन की सन्दूकची। मोना का चित्र। मोना के पत्र। समुद्र किनारे, रेत में से निकाला हुआ एक खूबसूरत शंख। मृत मोना को अर्घ्य चढाने की भावना से मनीष ने वह शंख चन्दन की सन्दूकची में रख दिया था और मोना का चित्र, यत्नपूर्वक संभलकर रखे गये उसके पत्र, शंख के संसर्ग में दीमक की चपेट में आ गये थे।

“क्या बात है सर, आपकी तबीयत तो ठीक है़़?“ मि. पारिख को झकझोरकर मनीष भाग गया।

“हां ........... ठीक है ........ ठीक है। दरअसल .......... ।“ वह थोड़ा रुककर शब्द तलाषता रहा, ”बैठे बैठे थोड़ी थकान आ गई है।”

“तो एक कप कॅाफी पी लें सर। उठो कीर्ति, कॉफी बना दो।”

“नहीं नहीं, देसाई।“ मि. पारिख ने जल्दी से कहा, ”आप बैठिये मिसेज देसाई। कॉफी—वॉफी रहने दीजिये।”

“एक कप ले लें सर, थकान तुरन्त दूर हो जायेगी।“ देसाई ने आग्रह किया।

“नहीं देसाई, अभी इच्छा नहीं है।”

अचानक मि. पारिख के मस्तिष्क में एक विचार कुलबुलाया, ”आप लोगाें का मैरिज एलबम होगा न, देसाई?”

“जी हां।“ देसाई ने फुर्ती से उठकर आलमारी खोली। एलबम के पृष्ठ खुलते रहे, बन्द होते रहे। मनीष मोना को ढूंढता रहा, साधता रहा।

“एलबम कैस लगा, सर?”

“अच्छा लगा। आप दोनों का एक पोज तो बहुत ही सुन्दर बन पड़ा है।“ मि. पारिख ने एलबम दुबारा हाथ में लेकर पृष्ठ पलटना चालू कर दिया।

“यह रहा।“ मि. पारिख ने एकटक उस फोटो को देखते हुए कहा, ”वैसे देसाई, तुम्हारे पास इस पोज की स्पेयर कॅापीज हैं क्या?”

पेयर में से एक फोटो अलग कराना बहुत आसान काम है। कीर्ति का फोटो। मोना का फोटो। यादों को सहारा मिलना चाहिये। यादों को सहारा मिल जाएगा।

“स्पेयर कापीज हैं तो नहीं, मगर कराई जा सकती हैं। यह बात कैसे पूछ रहे हैं सर?“ मि. पारिख जोर से हंसे, ”अरे भाई देसाई, ऐसे अच्छे फोटो की एक—एक कापी बतौर याददाष्त अपने दोस्तों को भी तो देनी चाहिये तुम्हें।”

देसाई ने आष्चर्यमय दृष्टि से मि. पारिख को देखा। फिर एलबम में से वह चित्र निकालकर उसने मि. पारिख की ओर बढाते हुए कहा, ”यह मेरी खुषकिस्मती होगी, सर।”

कुछ क्षण पूर्व अनायास कुलबुलाया विचार सफलता की गंध पाकर उछल पड़ा। इस पुलक को कुषलतापूर्वक दबाते हुए मि. पारिख ने जवाब दिया, ”नहीं देसाई, नहीं। मैं तो यों ही मजाक कर रहा था। एलबम में से भी कहीं फोटो निकाला जाता है।”

“नहीं सर, इस फोटो को तो अब आपको रखना ही होगा। इस बहाने मुझे और कीर्ति को कभी कभी आप याद तो कर लिया करेंगे।”

मि. पारिख, मनीष। मनीष, मि. पारिख। मोना, कीर्ति। कीर्ति, मोना। घुले मिले नाम, घुली मिली तस्वीरें। वह तस्वीर मोना की कहां होगी? जैसा कि देसाई कहता है, तस्वीर देखकर याद तो कीर्ति की आयेगी। मोना तो कीर्ति की परछाई भर लगेगी। मनीष को मोना की तस्वीर चाहिये, कीर्ति की नहीं। मोना, मोना है। कीर्ति उसका विकल्प नहीं बन सकती।

मि. पारिख को लगा, इस प्रसंग को चलाकर उन्होंने बहुत बड़ा अपराध कर दिया है। मनीष के साथ, मोना के साथ और इस अपराध के बोझ से उनकी कमर झुकती चली जा रही है।

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