पारस-पत्थर : डोगरी लोक-कथा

Paras-Patthar : Lok-Katha (Dogri/Jammu)

पुराने समय में एक राजा था, जो एक दिन शिकार पर चला गया। वह ‘दाछीगाम’ गाँव के पास था, जब उसने एक ‘हाँगुल’ (बारहसिंगा) देखा। वह इस हिरण के पीछे-पीछे कई मीलों तक गया, मगर हाँगुल जंगल में भाग गया और कहीं नहीं दिख रहा था। राजा को गुस्सा आया और निराशा भी हुई।

जब वह जंगल से वापिस अपने शिविर की तरफ आया तो झाड़ियों के पीछे से एक आवाज सुनाई दी। वहाँ देखा तो एक सुंदर स्त्री थी।

राजा ने पूछा, “कौन हो? इस जंगल में क्या कर रही हो?”

“ऐ राजा! मैं चीन के एक राजा की बेटी हूँ। मेरे पिता को युद्ध में बंदी बना लिया गया है। मेरे पिता के शत्रु मुझे भी बंदी न बना लें, इसलिए मैं वहाँ से भाग आई और भागते-भागते इस वन में पहुँची। आपने मेरी कहानी तो सुन ली, अब आप बताइए कि आप कौन हैं?”

“सुंदर नारी, मैं यहाँ का राजा हूँ। अच्छा ही हुआ कि मैं यहाँ से गुजर रहा था, नहीं तो यहाँ तुम्हें कोई भी पशु हानि पहुँचा सकता था।”

यह सुनकर वह स्त्री फिर से रोने लग गई।

“अब क्यों रो रही हो? मेरा शिविर पास में ही है। अब कोई खतरा नहीं है।”

“ऐ राजा! मैं इसलिए रो रही हूँ कि न मेरा पिता, न मेरी माँ, सब छूट गए और अपना देश भी छूट गया। यहाँ अपने देश से दूर अपने माता-पिता से दूर मैं क्या करूँगी। न घर न कोई साथी, क्या करूँगी, मैं इसीलिए रो रही हूँ।”

“तुम यह रोना बंद करो। हम तुम्हारी देखभाल करेंगे। चलो मेरे साथ।”

“एक शर्त पर।”

“कैसी शर्त?”

“आप मुझे अपनी पत्नी बनाओ। तभी मैं आपके साथ जा सकती हूँ। अगर आप मुझसे शादी करेंगे तो फिर मैं आपकी हर बात मान लूँगी।” सुंदर नारी ने कहा।

“ठीक है, चलो मेरे साथ।”

राजा ने उसके साथ विवाह किया और वे राजमहल में रहने लगे। राजा का प्रेम चीन से आई इस सुंदरी की ओर दिनोदिन बढ़ता गया। उसने इस सुंदर नारी के लिए डल झील के किनारे पर एक नया भवन बनवा दिया। ‘ईश्वर’ के पास बने इस नए महल में राजा ज्यादा से ज्यादा समय बिताता था और रनिवास की तरफ अब कम ही जाता था। मगर उसे क्या पता था कि नए भवन में रहने वाली नई रानी कितनी भयानक प्राणी थी। वह उस पर सारा प्यार न्योछावर करता था, मगर वह स्त्री उसे कोई भयानक बीमारी दिए जा रही थी। राजा के पेट में भयंकर दर्द उठने लगा। वे उस दर्द की पीड़ा से तड़पने लगते। हकीम लोग बुलाए गए, मगर बीमारी में कोई सुधार न हुआ। यहाँ तक कि अब यह लगने लगा कि इस अज्ञात बीमारी का कोई इलाज न होने के कारण राजा की मृत्यु भी हो सकती है। आखिर में एक जोगी वहाँ आया। वह हर रोज उड़ता हुआ आता था और ‘दूध-गंगा’ से पानी ले जाता था और ‘हारी-पर्वत’ से कुछ मिट्टी ले जाता था। वह यह पानी और मिट्टी फिर अपने गुरुजी को देता, जिनका यह शिष्य था।

जब जोगी ने एक नया भवन डल के पास देखा तो वह इसमें घुस आया। पवित्र पानी और पवित्र मिट्टी कमरे में एक तरफ रखकर पलंग पर लेट गया। यह राजा का पलंग था। सोते समय जोगी ने एक अनमोल मरहम का डिब्बा सिरहाने के नीचे रखा। थकान के कारण थोड़ी ही देर में जोगी को नींद आ गई। जब राजा आ गए तो उन्हें अपने पलंग पर एक जोगी को सोया हुआ देखकर आश्चर्य हुआ। परंतु राजा ने जोगी को जगाया नहीं। राजा वहीं पलंग के पास बैठे रहे। राजा ने पवित्र पानी का कमंडल, पवित्र मिट्टी और मरहम का डिब्बा देख लिया। मन में इन चीजों का कारण जानने की उत्सुकता हुई, मगर जोगी के जागने तक कुछ नहीं किया जा सकता था। इसलिए राजा ने ये तीनों चीजें छिपा लीं। थोड़ी देर में जोगी जाग गया तो सामने राजा को देखकर आश्चर्यचकित हो गया और फिर अपनी तीनों चीजें गायब देखकर भीगी बिल्ली सा बन गया। यह देखकर राजा ने कहा, “घबराओ नहीं, सारी चीजें यहीं है। पहले यह बताओ कि यहाँ क्यों और कैसे आए? जवाब मिल जाएगा तो मैं सारी चीजें वापिस कर दूँगा।” तब जोगी ने तीनों चीजें वापिस पाने के लिए राजा को सबकुछ बता दिया। राजा ने सभी वस्तुएँ लौटा दीं। जोगी ने झुककर प्रणाम किया और वहाँ से निकल गया। वह उड़ता हुआ जल्दी-से-जल्दी अपने गुरुजी के पास पहुँच गया। गुरु ने देरी से आने का कारण पूछा तो जोगी ने बताया कि वह डल के पास बने भवन में विश्राम के लिए रुका था और राजा से भी भेंट हो गई। यह भी बताया कि जब वह सो गया था तो सारी वस्तुएँ छिपा ली गई थी, मगर बाद में राजा ने सब लौटा दिया।

“एक अच्छा व्यक्ति! हमें राजा का कृतज्ञ होना चाहिए कि उन्होंने मरहम और बाकी चीजें लौटा दीं। मुझे उनके पास ले चलो।” गुरुजी ने कहा।

“जो आज्ञा।” यह कहकर जोगी अपने गुरुजी को राजा के पास ले गया। दोनों ने मरहम लगाई थी और उड़ते हुए राजा के पास पहुँच गए।

“ऐ राजन्! मेरे गुरुजी महान् ज्ञानी और ऋषि आपको आशीर्वाद और धन्यवाद देने आए हैं कि आपने वे सभी पवित्र वस्तुएँ मुझे लौटा दी थीं।”

दंडवत् करते हुए राजा ऋषि के सामने औंधे मुँह साष्टांग मुद्रा में बोले, “ऐ ऋषि महाराज! मुझ पर कृपा करें। मेरे पेट में ऐसी बीमारी हुई है, जिसका इलाज किसी भी वैद्य या हकीम के पास नहीं है। यदि आप मुझे इस बीमारी से बचा लें तो मैं जन्म-जन्मांतर तक आपका कृतज्ञ रहूँगा।”

“मुझे अपने शरीर की जाँच करने दीजिए।” ऋषि ने कहा।

“हाँ महाराज!”

राजा के शरीर की जाँच करते हुए ऋषि ने पूछा, “क्या आपने कुछ दिनों पहले विवाह किया है?”

“जी!”

राजा ने ऋषि को सारी कथा सुनाई कि कहाँ और कैसे चीन से आई हुई वह सुंदर स्त्री उन्हें मिली थी और कैसे उनका विवाह हुआ। कैसे यह नया भवन बना इत्यादि।

यह सुनकर ऋषि ने कहा, “ओ राजन्! आप सच में ही एक भयानक रोग से ग्रस्त हैं। कुछ दिनों तक ऐसे ही चलता रहा तो आपकी मृत्यु भी हो सकती है। परंतु अब आप सुरक्षित हैं। मैं आपकी रक्षा करूँगा। जैसा मैं कहूँ, वैसा कीजिएगा।”

“जी, गुरु महाराज!”

“आप अपने रसोइए से कहिए कि वह आपकी पत्नी के खाने में कुछ ज्यादा नमक डाल दे और जब वह रात को खाना खाए तो ध्यान रखें कि उसके कमरे या उसके आसपास कहीं भी पानी न हो। आप रातभर जागते रहिएगा और कल सुबह मुझे बताना कि रात को क्या हुआ था। डरिएगा नहीं। आपको कुछ नहीं होगा। मैं हूँ यहाँ।”

राजा ने ऋषि के निर्देशों का पूरी तरह से पालन किया। जैसा कि मालूम ही था, रात को सुंदर नारी प्यास के मारे इधर-उधर पानी ढूँढ़ने लगी। मगर कमरे में कहीं भी पानी नहीं था। फिर उसने अपने पति को देखा कि क्या वे सोए हुए ही हैं? जब उसे विश्वास हुआ कि पति सो रहे हैं तो उसने एक सर्प का रूप धारण किया और कमरे से बाहर आ गई। वह सीधे झील के पास गई और खूब सा पानी पिया। अपनी प्यास बुझाने के बाद जब वह कमरे में वापिस आ गई तो फिर से एक सुंदर नारी बन गई और पलंग पर सो गई। राजा ने यह सब देख लिया था और सुबह होते ही उसने यह सब ऋषि को बताया।

“मैं जानता था। यह एक स्त्री नहीं, बल्कि एक अति विषैली सर्पिणी है। यदि एक सौ वर्ष तक किसी सर्प या सर्पिणी पर मनुष्य की नजर न पड़े तो उसके सिर पर एक शिखर निकल आता है और वह एक ‘शाहमार’ बन जाता है। यदि उसके बाद भी उस पर किसी मनुष्य की नजर न पड़े तो वह अजगर बन जाता है। यदि तीन सौ वर्षों तक किसी मनुष्य की नजर न पड़े तो वे विह्वल नाग या नागिन बन जाते हैं। ऐसी विह्वल नागिन के पास प्रचंड शक्ति होती है। यह अपनी मर्जी से अपना रूप कभी भी किसी समय बदल सकती है और एक स्त्री का रूप धारण करती है, ताकि किसी पुरुष के साथ रह सके। राजन्! आपकी पत्नी भी ऐसी ही सर्पिणी है।”

“पहले इसके बारे में कोई ज्ञान प्राप्त हुआ होता तो मैं उसे उस वन से लेकर नहीं आता। क्या अब उससे बचने का कोई उपाय हो सकता है?”

“अवश्य! मगर आपको धीरज से काम लेना होगा।” ऋषि ने कहा।

“जी!”

“उसे यह आभास न हो कि कुछ किया जा रहा है। आप उससे वैसा ही बर्ताव करें, जैसा पहले से करते आए हैं। यदि उसे कुछ संदेह हुआ तो वह एक फुफकार में सारा नगर भस्म कर देगी। इसलिए सावधानी से रहें। इस बीच आप लाख का एक घर बनवाइए। उस पर सफेदी करवाइए, ताकि लाख की लाली छिप जाए। घर छोटा हो। इसमें चार कमरे हों और खाना खाने के लिए एक ऐसा भोजन कक्ष हो, जिसमें एक बड़ा सा तंदूर हो। तंदूर के ऊपर ढक्कन हो। इस लाख-घर के बनते ही आप कहना कि हकीम ने आपको चालीस दिनों तक सबसे दूर उस घर में अकेले रहने को कहा है। आपके पास कोई नहीं आएगा। सिवाय उस पत्नी के।

सबकुछ वैसा ही किया गया जैसा कि ऋषि ने कहा था। सुंदर स्त्री बड़ी प्रसन्न हुई कि उसके पति अकेले रहेंगे और केवल उसको ही उसके पास जाने की अनुमति होगी। वह उनकी सेवा करेगी, उसके साथ अकेले समय बिताएगी। ऐसा ही हुआ। वह घर के सभी काम खुद ही करती थी। ऋषि की सलाह से एक दिन राजा ने इस सुंदर नारी से तंदूर में कुछ बढ़िया सी नान बनाने को कहा। जब वह तंदूर में नान की रोटियाँ रख रही थी तो इस विषैली सर्पिणी से मुक्त होने के लिए राजा ने उसे तंदूर में धकेला और ढक्कन बंद कर दिया। उसके बाद राजा लाख-घर से बाहर आ गए और उनके सेवकों ने इस मकान में आग लगा दी।

तभी वहाँ ऋषि आ गए। “आपकी जान बच गई राजन्! ऐसी विषैली सर्पिणी से बचना बहुत कठिन था। अब आप अपने महल में जाइए और वहाँ शांति से रहिए। तीसरे दिन हम यहाँ, इसी स्थान पर दोबारा आएँगे।”

तीसरे दिन राजा और ऋषि उसी स्थान पर आ गए, जहाँ पर लाख का बनवाया हुआ मकान जलवाया गया था। वहाँ कुछ नहीं था सिवाय राख के।

“आप इस स्थान को ध्यान से देखो। यहाँ आपको कुछ मिलेगा।” ऋषि ने राजा से कहा।

“क्या?”

“एक छोटा सा चिकना गोलाकार कंकड़।”

थोड़ी देर ढूँढ़ने के बाद राजा ने कहा, “जी ऋषि महान्! यहाँ पर एक छोटा सा चमकता हुआ कंकड़ है।”

“अब यहाँ राख है और यह कंकड़ भी। आप अपने पास क्या रखोगे, राजन्?”

“यह कंकड़।” राजा ने उत्तर दिया।

“बहुत अच्छा। तब फिर मैं यह राख ले जाऊँगा।”

उसके बाद ऋषि ने सारी राख इकट्ठी करके एक पात्र में डाल दी और वह कंकड़ राजा को दे दिया। राजा अपने महल की तरफ गए और ऋषि भी वहाँ से चले गए।

कुछ ही दिनों में राजा का रोग ठीक हो गया।

वे पहले जैसे स्वस्थ हो गए और पहले की तरह ही फुर्ती से अपना काम करने लगे। सभी दरबारी और प्रजा प्रसन्न हो गई कि राजा ठीक हो गए।

ऋषि ने जो कंकड़ राजा को दिया था, वह संग-पारस में बदल गया। राजा बहुत देर तक उस पारस-पत्थर को देखते रहे और ऋषि के बारे में सोचते रहे। फिर उन्होंने अपने कुछ सेवकों को ऋषि और जोगी को ढूँढ़ने के लिए भेजा, ताकि वे उनका धन्यवाद कर सकें। परंतु ऋषि और जोगी को सेवक ढूँढ़ नहीं पाए। वे कहीं दूर निकल गए थे। राजा के देश की सीमाओं के बाहर। संभवतः हिमालय की किसी ऊँची गुफा में।

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