पर, राजा भूखा था (व्यंग्य) : हरिशंकर परसाई
Par, Raja Bhookha Tha (Hindi Satire) : Harishankar Parsai
स्वतंत्रता-दिवस के दिन शहर का काया पलट हो जाए तो आश्चर्य क्या? यह महान् राष्ट्रीय पर्व प्रतिदिन तो आता नहीं है! रंगीन झण्डियाँ, वंदनवार, फूल, रंग-बिरंगे बल्ब - सबने लक्ष्मी की अलक्ष्य प्रेरणा से वातावरण में सौंदर्य ला दिया था। पर इस सबमें मुझे वह सत्यता नहीं मिली जिसे देखने मैं निकला था। एक प्रकार का कोरापन था; हृदय का अभाव था। संभवतः इसलिए कि वे ‘अनेक’ जो सड़क पर से कौतूहलपूर्ण नेत्रों से देखते हुए चले जा रहे थे, उस 'एक' से जो दूकान पर बैठा हुआ गर्वदृष्टि से देख रहा था - इतने भिन्न थे ।
एक विशाल चाँदी-सोने की दूकान विशेष आकर्षण लिए थी। काँच के 'शो केस' में चाँदी, सोने, जवाहरात के बीच में गाँधीजी और नेताजी के चित्र सजे हुए थे । जिन्होंने सोने की श्रृंखला को तोड़ अपना स्थान दरिद्रों में बनाया उनको ही सोने के पिंजड़े में बंद कर दिया ! कृतघ्न देश! तूने राष्ट्रपिता का उपयोग आखिर विज्ञापन के लिए किया ! तूने 'गाँधी भंडार' नाम से मिठाई की दूकान खोली, तूने 'गाँधी स्टोर्स' खोल दिया; तूने 'गाँधी वस्त्रागार' खोल दिया जहाँ तू सत्य के देवता के नाम पर एक गज का पंद्रह गिरह नापता है !
एक जगह और देखा । दूकान के सामने की भूमि बाँसों के द्वारा घेर रखी थी जिससे दर्शक बहुमूल्य सजावट को समीप से न देख सकें। वहाँ केवल चुने हुए सेठ साहूकार, ऊँचे अफसरों की पहुँच थी। बाहर भूखा भिखारी पेट दिखाकर एक पैसा माँग रहा था; भीतर धनी सेठ रसगुल्ले खाने के आग्रह पर 'नहीं-नहीं' कह रहा था। पर वह घेरा ! एकाधिपत्य का लोभ सरलता से संवरणशील नहीं है। दूसरों का दृष्टि- अधिकार छीनकर संचय करना भी कितनी बड़ी निर्लज्जता है। क्या बेचारा दरिद्र पर - वैभव को देखकर प्रसन्न होने का अधिकारी भी नहीं। हजारों वर्ष पूर्व हमारे ही पूर्वज उपनिषदों में कह गए हैं, ' मा गृघः कस्यस्वित् धनम् ।' कितना अंतर है-तब और अब । धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र तो बंद पेटी से तब निकाले जाते हैं जब धन के स्वार्थों का समर्थन करना होता है ।
गाँधीजी का मूल्य भी रुपए-आने-पाई में होने लगा। 1001 रुपए गाँधी- स्मारक कोष में देकर 10001 रु. कमाने की इच्छा कौन नहीं रखता ? और 10 रु. देनेवाले लखपति का नाम अखबार में छप जाता है; पर 10 रु. देनेवाले उस बेचारे चपरासी का नाम कोई नहीं जानता जो एक-तिहाई वेतन देकर 10 दिन भूखा रहेगा। 'सबै सहायक सबल के ।'
तो स्वतंत्रता की खुशी में भरे पेट को और भरकर अजीर्ण उत्पन्न करने की अपेक्षा यह अच्छा होता कि उस मुँह में मिठाई पड़ जाती जिसने उसे कभी नहीं चखा। एक दिन के लिए गरीबों के मुहल्ले सज जाते; एक दिन के लिए उनके अंधकार में ही प्रकाश हो जाता; एक दिन वे ही स्वतंत्रता का अनुभव कर लेते ! इन्हीं के लिए तो गाँधीजी जिए और रे। पर मैं कह तो चुका हूँ कि गाँधी के नाम की दूकान खोलकर गाँधी के ही दरिद्रनारायण को लूटने का उपक्रम देशप्रेम का रूप धारण कर रहा है। गाँधी-गुण-गान के नाम पर दूकान पर सिनेमा की बदनाम -शुदा रागों पर पूज्य गाँधीजी के नाम के गाने माइक्रोफोन पर बजते ही हैं।
यदि कोई पूछे कि स्वराज्य किसका? तो हम सब कहेंगे- किसान का, मजदूर का, ग्रामीण का । परंतु क्या वास्तव में वह जानता है कि उसे राज्य मिल गया है; वह राजा हो गया है? उसकी राजनीति, साहित्य, संस्कृति, कला - पेट के बाहर कहीं भी नहीं है। स्वतंत्रता दिवस को उसके पास दीप है तो तेल कहाँ से लावे? फिर भी वह माँ स्वतंत्रता का स्वागत करता है। भूख की ज्वाला उसके पेट में निरंतर जलती है; अन्याय, शोषण की लपटें उसके आसपास उठ ही रही हैं— और इनके बीच वह स्वयं बत्ती बनकर जल रहा है । वह क्षुद्र टिमटिमाता हुआ मिट्टी का दीप क्या जलावे ! राजा की यह तपस्या धन्य है ! प्राचीन आर्य नरेशों की परंपरा के अनुसार यह नवीन राजा भी कुछ कम तपोबल संचय नहीं कर रहा है ।
तो राजा ने भूखे पेट स्वतंत्रता की वर्षगाँठ मनाई । राजकुमार और राजकुमारी अस्थियों का नंगा ढाँचा समेटे रानी से 'रोटी' की पुकार कर रहे थे। राजमहल में फूटा लोटा, एक मिट्टी का बर्तन - बस और कुछ नहीं था ।
झोंपड़ी का अंधकार महल के प्रकाश के मुख पर कालिख पोतने आ रहा था ।
15 अगस्त को राजा भूखा था !
प्रहरी, 29 अगस्त, 1948