पानी का दरख़्त (कहानी) : कृष्ण चन्दर
Pani Ka Darakht (Story in Hindi) : Krishen Chander
जहां हमारा गांव है इस के दोनों तरफ़ पहाड़ों के रूखे सूखे सिंगला ख़ी सिलसिले हैं।मशरिक़ी पहाड़ों का सिलसिला बिलकुल बेरेश-ओ-बुरूदत है।इस के अंदर नमक की कानें हैं।मग़रिबी पहाड़ी सिलसिले के चेहरे पर जंड,बहीकड़,अमलतास और कीकर के दरख़्त अगे हुए हैं ।इस की चट्टानें स्याह हैं लेकिन इन स्याह चटानों के अंदर मीठे पानी के दो बड़े क़ीमती चश्मे हैं, और उन दो पहाड़ी सिलसिलों के बीच में एक छोटी सी तलहटी पर हमारा गांव आबाद है।हमारे गांव में पानी बहुत कम है।जब से मैंने होश सँभाला है मैंने अपने गांव के आसमान को तपे हुए पाया है, यहां की ज़मीन को हाँपते हुए देखा है और गांव वालों के मेहनत करने वाले हाथों और चेहरों पर एक ऐसी तरसी हुई भूरी चमक देखी है जो सदीयों की ना-आसूदा प्यास से पैदा होती है।हमारे गांव के मकान और आस-पास की ज़मीन बिलकुल भूरी और ख़ुशक नज़र आती है।ज़मीन में बाजरे की फ़सल जो होती है इस का रंग भी भूरा बल्कि स्याही माइल होता है।यही हाल हमारे गांव के किसानों और उनके कपड़ों का है।सिर्फ हमारे गांव की औरतों का रंग सुनहरी है क्योंकि वो चश्मे से पानी लातें हैं।
बचपन ही से मेरी यादें पानी की यादें हैं। पानी का दर्द और इस का तबस्सुम उस का मिलना और खो जाना।ये सेना उस के फ़िराक़ की तमहीद और इस के विसाल की ताख़ीर से गूदा हुआ है।मुझे याद है जब में बहुत छोटा सा था दादी अम्मां के साथ गांव की तलहटी के नीचे बेहती हुई रवेल नदी के किनारे कपड़े धोने के लिए जाया करता था।दादी अम्मां कपड़े धोती थीं में उन्हें सुखाने के लिए नदी के किनारे चमकती हुई भूरी रेत पर डाल दिया करता था।इस नदी में पानी बहुत कम था।ये बड़ी दुबली पतली नदी थी।छरीरी और आहिस्ता ख़िराम जैसे हमारे सरदार पेन्दा ख़ान की लड़की बानो। मुझे इस नदी के साथ खेलने में इतना ही लुतफ़ आता था।जितना बानो के साथ खेलने में ।दोनों की मुस्कुराहट मीठी थी ,और मिठास की क़दर वही लोग जानते हैं जो मेरी तरह नमक की कान में काम करते हैं।मुझे याद है हमारी रवेल नदी साल में सिर्फ छः महीने बेहती थी,छः महीने के लिए सूख जाती। जब चीत का महीना जाने लगता तो नदी सूखना शुरू हो जाती और जब बैसाख ख़त्म होने लगता तो बिलकुल सूख जाती,और फिर उस की तह पर कहीं कहीं छोटे छोटे नीले पत्थर रह जाते या नरम नरम कीचड़ जिसमें चलने से यूं मालूम होता था जैसे रेशम के दुबैज़ ग़ालीचे पर घूम रहे हूँ ।चंद दिनों में ही नदी का कीचड़ भी सूख जाता और इस के चेहरे पर बारीक दुर्ज़ों और झुर्रियों का जाल फैल जाता ,किसी मेहनती किसान के चेहरे की तरह उस के होंटों पर ख़ुशक पपड़ीयाँ जम जातीं और ऐसा मालूम होता जैसे उस की गर्म गुदाज़ रेत ने साल-हा-साल से पानी की एक बूँद नहीं चखी।
मुझे याद है पहली बार जब मैंने नदी को इस तरह सूखते हुए पाया था तो बे-कल ,बेचैन और परेशान हो गया था,और रात सो भी ना सका था।इस रात दादी अम्मां मुझे बहुत देर तक गोद में लेकर अजीब अजीब कहानियां सुनाती रहें और सारी रात दादी अम्मां की गोद में लेटे लेटे मुझे रवेल नदी की बहुत सी प्यारी बातें याद आने लगीं उस का हौले हौले पत्थरों से ठुमकते हुए चलना,और पत्थरों के दरमयान से इस का ज़रा तेज़ होना और कतरा कर चलना,जैसे कभी कभी बानो ग़ुस्से में गली के मोड़ पर से तेज़ी से निकल जाती है और जहां दो पत्थर एक दूसरे के बहुत क़रीब हुए थे वहां में और बानो बाजरे की डंडियों की बनी हुई पनचक्की लटका देते थे और गीला आटा पिसाते थे।पनचक्की नदी की आहिस्ता ख़िरामी के बावजूद कैसे तेज़ तेज़ चक्कर लगा कर घूमती थी और अब ये नदी सूख गई।
इन सब बातों को याद कर के मैंने दादी अम्मां से पूछा: दादी अम्मां ये हमारी नदी कहाँ चली गई? ज़मीन के अंदर छिप गई।
क्यों? सूरज के डर से क्यों ?ये सूरज से क्यों डरती है?सूरज तो बहुत अच्छा है।
सूरज एक नहीं बेटा,दो सूरज हैं।एक तो सर्दीयों का सूरज है।वो बहुत अच्छा और मेहरबान होता है।दूसरा सूरज गरमीयों का है।ये बड़ा तेज़ चमकीला और ग़ुस्से वाला होता है, और ये दोनों बारी बारी हर साल हमारे गांव में आते हैं।जब तक तो सर्दीयों का सूरज रहता है हमारी नदी इस से बहुत ख़ुश रहती है,लेकिन जब गरमीयों का ज़ालिम सूरज आता है तो हमारी नदी के जिस्म से इस का लिबास उतारना शुरू करता है।हर-रोज़ कपड़े की एक तह उतरती चली जाती है और जब बैसाखी का आख़िरी दिन आता है तो नदी के जिस्म पर पानी की एक पतली सी चादर रह जाती है।इस रात को हमारी नदी श्रम के मारे ज़मीन पर छिप जाती है और इंतिज़ार करती है सर्दीयों के सूरज का जो उस के लिए अगले साल पानी की नई पोशाक लाएगा।
मैंने आँख झपकते हुए कहा:सच-मुच गरमीयों का सूरज तो बहुत बुरा है।
लो अब सो जाओ बेटा।
मगर मुझे नींद नहीं आ रही थी ।इस लिए मैंने एक और सवाल पूछा?दादी ये हमारे नमक के पहाड़ का पानी क्यों कड़वा है।हमारे गांव में बच्चे पानी के लिए बहुत सवाल करते थे।पानी उनके तख़य्युल को हमेशा उकसाता रहता है।दूसरे गांव में,जहां पानी बहुत होता है,वहां के लड़के शायद सोने के जज़ीरे ढूंडते होंगे या पुरसतान का रास्ता तलाश करते होंगे लेकिन हमारे गांव के बच्चे होश सँभालते ही पानी की तलाश में निकल पड़ते हैं।और तलहटी पर और पहाड़ी पर और दूर दूर तक पानी को ढ़ूढ़ने का खेल खेलते हैं मैंने भी अपने बचपन में पानी को ढ़ूंडा था और नमक के पहाड़ पर पानी के दो तीन नए चश्मे दरयाफ़त किए थे।मुझे आज तक याद है मैंने कितने चाव और ख़ुशी से पानी का पहला चशमा ढ़ूंडा था ,किस तरह काँपते हुए हाथों से मैंने चटानों के दरमयान से झिझकते हुए पानी को अपनी छोटी छोटी उंगलीयों का सहारा देकर बाहर बुलाया था और जब मैं पहली बार उसे ओक में लिया तो पानी मेरे हाथ में यूं काँप रहा था जैसे कोई गिरफ़्तार चिड़िया बच्चे के हाथों में काँपती है।फिर जब में उसे ओक में भर कर अपनी ज़बान तक ले गया तो मुझे याद है मेरी काँपती हुई ख़ुशी कैसे तल्ख़ बिच्छू में तबदील हो गई थी ।पानी ने ज़बान पर जाते ही बिच्छू की तरह डंक मारा और इस के ज़हर ने मेरी रूह को कड़वा कर दिया।मैंने पानी थूक दिया और फिर किसी नए चश्मे की तलाश में निकल खड़ा हुआ ,लेकिन नमक के पहाड़ पर मुझे आज तक मीठा चशमा ना मिला ।इस लिए जब नदी सूखने लगी तो मीठे चश्मे की याद ने मुझे बेचैन कर दिया ।और मैंने दादी अम्मां से पूछा:
दादी माँ ये नमक के पहाड़ का पानी कड़वा क्यों है?
दादी अम्मां ने कहा।ये तो एक दूसरी कहानी है। तो सुनाओ। नहीं अब सो जाओ। मैं चीख़ा:नहीं सुनाओ।
अच्छा बाबा सुनाती हूँ,मगर तुम अब चीख़ोगे नहीं।
नहीं
और ना ही बीच बीच में टोकोगे। नहीं
अच्छा तो सुनो।ये तुम इस तरफ़ नमक की पहाड़ी जो देखते हो ये पुराने ज़माने में एक औरत थी जो इस पहाड़ की बीवी थी ,जहां आजकल मीठे पानी का चशमा है।
फिर-फिर एक रोज़ देवों में बड़ी जंग छड़ी और ये सामने पहाड़ भी जो इस औरत का ख़ावंद था,जंग में भर्ती हो गया और बीवी को पीछे छोड़ गया और से कह गया कि वो उस के आने तक कहीं ना जाये ,ना किसी से बात करे,सिर्फ अपने घर का ख़्याल करे।
अच्छा हाँ ।फिर कई साल तक बीवी अपने देव ख़ावंद का इंतिज़ार करती रही लेकिन इस का ख़ावंद जंग से ना लौटा। आख़िर एक दिन उस के घर में एक सफ़ैद देव आया और इस पर आशिक़ हो गया।
आशिक़ क्या होता है। दादी अम्मां रुक गईं,बोलीं:तू ने फिर टोका।मैंने दिल में सोचा:दादी अम्मां अगर ख़फ़ा हो गईं तो बाक़ी कहानी सुनने को नहीं मिलेगी और कहानी अब दिलचस्प होती जा रही है इसलिए चुपके से सन लेना चाहिए आशिक़ का मतलब बाद में पूछ लेंगे।इसलिए मैंने जल्दी से सोच कर दादी माँ से कहा।अच्छा अच्छा ,दादी अम्मां आगे सुनाओ,अब नहीं टोकोंगा।
दादी अमान रखाई से इस तरह ख़फ़ा हो के बोलीं जैसे उन्हें कहानी का आगे आने वाला हिस्सा पसंद नहीं है।कहने लगीं:होना किया था,मग़रिबी पहाड़ी की बीवी बेवफ़ा निकली।जब उसे सफ़ैद देव ने झूट-मूट यक़ीन दिला दिया कि इस का पहला ख़ावंद देवों की जंग में मारा गया है तो उसने सफ़ैद देव से शादी कर ली।
देवों की जंग क्यों होती थी?मेरे मुँह से बे-इख़्तियार निकल गया।
तो ने फिर टोका।दादी अम्मां बहुत ख़फ़ा हो के बोलीं चल अब आगे नहीं सुनाऊँगी।नहीं दादी अम्मां मेरी अच्छी दादी अम्मां अच्छा अब बिलकुल नहीं टोकोंगा ।मैंने मिन्नत समाजत करते हुए कहा।
फिर-फिर एक दिन बहुत सालों के बाद एक बूढ़ा देव इस वादी में आया।ये उसी औरत का पहला ख़ावंद था।जब इस ने अपनी बीवी को सफ़ैद देव के साथ देखा तो उसे बहुत ग़ुस्सा आया और उसने कुलहाड़ा लेकर सफ़ैद देव और अपनी बीवी को क़तल कर दिया ।जब से इन दोनों देवओं को बड़े पैर की बददुआ मिली है और ये लोग सिल पत्थर हो गए। सामने वाले पहाड़ का पानी इसलिए मीठा है क्योंकि उसे अपनी बीवी से सच्ची मुहब्बत थी।इस के मुक़ाबिल पहाड़ का पानी खारा है और इस में नमक है क्योंकि वो औरत है और अपनी बेवफ़ाई पर हरवक़त रोती रहती है।और जब उस के आँसू ख़ुशक हो जाते हैं तो नमक के डले बन जाते हैं ,जिन्हें हर-रोज़ तुम्हारा बाप पहाड़ के अंदर खोद के निकालता है।
फिर-फिर कहानी ख़त्म।
कहानी ख़त्म हो गई और मैं भूल गया कि मैंने किया सवाल किया था।मुझे क्या जवाब मिला। मैंने कहानी सन ली,इतमीनान का सांस लिया और पलक झपकते ही सो गया।सोते सोते मेरी आँखों के सामने नमक की कान का मंज़र आया, जहां मेरे अब्बा काम करते थे,जहां जवान हो कर मुझे काम करना पड़ा और जहां पहली बार में अपनी अम्मां के साथ अपने अब्बा का खाना लेकर गया था।अफवा!कितनी बड़ी कान थी वो चारों तरफ़ नमक के पहाड़ नमक के सतून ,नमक के आईने नमक की दीवारों में लगे हुए थे।एक जगह नमक की आबी झील थी जिसके चारों तरफ़ नीलगूं दीवारें थीं और छत भी नमक की थी जिससे क़तरा-क़तरा कर के नमक का पानी रस्ता था और नीचे गिर कर झील बन गया था और यका-य़क मुझे ख़्याल आया ये उस औरत के आँसू में जो बड़े पैर की बददुआ से नमक का पहाड़ बन चुकी है।मेरे अब्बा इस झील को देखकर बोले:यहां इस क़दर पानी है फिर भी पानी कहीं नहीं मिलता।दिन-भर नमक की कान में काम करते करते सारे जिस्म पर नमक की पतली सी झिल्ली चढ़ जाती है जिसे खर्चो तो नमक चूरा चूरा हो कर गिरने लगता है। इस वक़्त किस क़दर वहशत होती है।जी चाहता है कहीं मीठे पानी की झील हो और आदमी इस में ग़ोते लगाता जाये।
पानी !पानी!
पानी सारे गांव में कहीं नहीं था। पानी नमक के पहाड़ पर भी नहीं था। पानी था तो सामने पहाड़ पर जिसकी मुहब्बत में बेवफ़ाई नहीं की थी।या पानी फिर रवेल नदी में था। लेकिन ये नदी भी छः महीने ग़ायब रहती थी और फिर आख़िर एक दिन ये बिलकुल ग़ायब हो गई और आज तक उस के नीले पत्थर और सूखी रेत और इस के किनारे किनारे चलने वाली औरतों के ना उमीद क़दम उस की राह तकते हैं।लेकिन ये मेरे बचपन की कहानी नहीं है,ये मेरे लड़कपन की कहानी है।जब हमारे गांव से बहुत दौरान पहाड़ी सिलसिलों के दूसरी तरफ़ सैंकड़ों मील लंबी जागीर के मालिक राजा अकबर अली ख़ान ने हमारे दिहात वालों की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ रवेल नदी का बहाव मोड़ कर अपनी जागीर की तरफ़ कर लिया और हमारी तलहटी को और आस-पास के बहुत सारे इलाक़े को सूखा ,बंजर और वीरान कर दिया। इस वक़्त नदी के किनारे हमारा गांव और इस वादी के और दूसरे बहुत से गांव परेशान हो गए।इस तरह हमारे लिए रवेल नदी मर गई और इस का पानी भी मर गया और हमारे लिए एक तल्ख़ याद छोड़ गया।मुझे याद है इस वक़्त गांव वालों ने दूसरे गांव वालों से मिलकर सरकार से अपनी खोई हुई नदी मांगी थी क्योंकि नदी तो घर की औरत की तरह है।वो घर में पानी देती है,खेतों में काम करती है,हमारे कपड़े धोती है जिस्म को साफ़ रखती है।नदी के गीत उस के बच्चे हैं।
जिन्हें वो लोरी देते हुए ,थपकते हुए मग़रिब के झूले की तरफ़ ले जाती है। पानी के बग़ैर हमारा गांव बिलकुल ऐसा है जैसे घर औरत के बग़ैर गांव वालों को बिलकुल ऐसा मालूम हुआ जैसे किसी ने उनके घर से उनकी लड़की अग़वा कर ली हो।वही गम,वही ग़ुस्सा था,वही तेवर थे,वही मरने मारने के अंदाज़ थे।लेकिन राजा अकबर अली ख़ां चकवाल के इलाक़े का सबसे बड़ा ज़मींदार था। हुकूमत के अफ़िसरों के साथ उस का गहिरा असर-ओ-रसूख़ था ।नमक की कान का ठेका भी इस के पास था।
नतीजा ये हुआ कि गांव वालों को उनकी नदी वापिस ना मिली,उल्टा हमारे बहुत से गांव वाले ,जो नमक की कान में काम करते थे, बाहर निकाल दिए गए।उनका क़सूर सिर्फ ये था कि उन्होंने अपने गांव के अग़वा शूदा पानी को वापिस बुलाने की जुरात की थी।मुझे याद है इस रोज़ अब्बा काँपते काँपते घर आए थे। उनके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था और बार-बार अपने कानों को हाथ लगा कर कहते:तौबा तौबा ! कैसी ग़लती हुई।वो तो अल्लाह का काम था कि मैं बच गया वर्ना राजा साहिब मुझे निकाल देते,में तो अब कभी राजा के ख़िलाफ़ अर्ज़ी ना दूं ,चाहे वो पानी क्या मेरी लड़की ही क्यों ना अग़वा कर के ले जाएं ।तौबा तौबा! और ये भी सच्च है कि हमारे गांव में पानी की इज़्ज़त लड़की की तरह बेशकीमती है।पानी जो ज़िंदगी देता है। पानी जो रगों में ख़ून बन कर दौड़ता है। पानी ,जो मुँह धोने को नहीं मिलता। पानी ,जिसके ना होने से हमारे कपड़े भूरे और मैले रहते हैं ,सर में जुएँ ,जिस्म पर पसीने की धारियाँ और रूह पर नमक जमा रहता है।ये पानी तो सोने से ज़्यादा क़ीमती है और लड़की से ज़्यादा हुसैन ।इस की क़दर और क़ीमत हमारे गांव वालों से पूछिए जिनकी ज़िंदगी पानी के लिए लड़ते झगड़ते गुज़रती है। एक दफ़ा सामने के पहाड़ के मीठे चश्मे से पानी लाने के लिए स्वर ख़ान की बीवी सय्यदां और अय्यूब ख़ां की बीवी ाइशां दोनों आपस में लड़ पड़ी थीं हालाँकि दोनों इतनी गहिरी सहेलियाँ थीं कि हरवक़त इकट्ठी रहतीं ,घर भी उनके साथ साथ थे।चश्मे पर भी पानी इकट्ठे ही लेने जाती थीं ।पहले एक फिर दूसरी पानी भर्ती।बारी बारी वो दोनों एक दूसरे का घड़ा उठा के सर पर रखतीं और फिर बातें करतीं हुई वापिस चल पड़तीं। लेकिन आज ना जाने किया हुआ,आज जाने दोनों को क्या जल्दी थी। एक कहती पहले पानी में भरूँगी ,दूसरी कहने लगी नहीं मैं भरूँगी।शायद उन्हें ग़ुस्सा एक दूसरे की ख़िलाफ़ नहीं था। शायद ग़ुस्सा उन्हें इसलिए था कि यहां मीठे पानी का एक ही चशमा था जहां नदी के सूख जाने के बाद दूर से दूसरे लोग पानी लेने के लिए आते थे।
मुँह-अँधेरे ही औरतें घड़ा ले के चल पड़तीं।जब यहां पहुंचतीं तो लंबी लाईन पहले से मौजूद होती या चश्मे के मुँह से एक ऐसी पतली सी धार को निकलते देखतीं जो आधे घंटे में मुश्किल से एक घड़ा भर्ती थी।और तीन कोस का आना जाना क़ियामत से कम ना था। लड़ाई की वजह कुछ भी हो असली लड़ाई पानी की थी। दोनों औरतों ने देखते देखते एक दूसरे के चेहरे नोच लिए ,घड़े तोड़ दिए,कपड़े फाड़ डाले और फिर रोती हुई अपने अपने घरों को गईं ।तब सय्यदां ने सरवर ख़ां को भड़काया और ाइशां ने अय्यूब ख़ां को।
दोनों ख़ावंद ग़ुस्से से बे-ताब हो के कुल्हाड़ीयां ले के बाहर निकल पड़े और पेशतर उस के कि लोग आ के बीच बचाओ करें दोनों ने कुल्हाड़ियों से एक दूसरे को ख़त्म कर दिया।शाम होते होते दोनों हमसाइयों का जनाज़ा निकल गया ।हमारे गांव के क़ब्रिस्तान की बहुत सी क़ब्रें पानी ने बनाई हैं।मेरे लड़कपन के ज़माने में जब दो क़तल हुए उस वक़्त सामने के पहाड़ पर एक ही मीठे पानी का चशमा था लेकिन बाद में जब में और बड़ा हुआ तो यहां एक और चशमा भी निकल आया। इस नए चश्मे की दास्तान भी बड़ी अजीब है। ये उस ज़माने का ज़िक्र है जब हमारे पोठोहार में सख़्त काल पड़ा था और गर्मी की वजह से इलाक़े के सारे नदी नाले और कुँवें सूख गए थे।
सिर्फ कहीं कहीं उन चश्मों में पानी रह गया था । इन दिनों हमारे घरों में औरतें रात के दो बजे ही उठ के चल देतीं और चश्मे के नीचे हमेशा घड़ों की एक लंबी क़तार जिसमें से प्यास से बिलकते हुए बच्चों की सदा आती थी।
इस ज़माने में बड़े बड़े लोग नेकी और ख़ुदाई से मुनहरिफ़ हो गए और उन लोगों में सबसे बुरा काम ज़ैलदार मुल्क ख़ां ने किया। उसने थानेदार फ़ज़ल अली से मिल के इस चश्मे पर पुलिस का पहरा लगा दिया और फिर तहसीलदार ग़ुलाम नबी से मिल के चश्मे के इर्द-गिर्द की सारी ज़मीन ख़रीद कर रातों रात इस पर एक चारदीवारी बांध दी और चारदीवारी के बाहर ताला लगा दिया।अब इस चश्मे से कोई आदमी बिलाइजाज़त पानी ना ले सकता था क्योंकि अब ये चशमा ज़ैलदार की मिल्कियत था,और उसने चश्मे से पानी ले जानेवाले घड़ों पर अपना टैक्स रख दिया ।
एक घड़े पर एक आना दो घड़ों पर दो आने।तब सारे गांव में ज़ुलम के ख़िलाफ़ शोर मच गया।लेकिन पुलिस सरदार ज़ैलदार मुल्क ख़ां की हिमायत में थी ,क़ानून भी इस की तरफ़ था और जिधर क़ानून था पानी भी इधर था।इस लिए गांव के सारे जवान और बुड्ढे और बच्चे जमा हो के मेरे अब्बा के पास आए और बोले?चचा ख़ुदाबख़्श अब तुम ही हमें इस मुसीबत से नजात दिलवा सकते हो। वो कैसे ? मेरे अब्बा ने हैरान हो के सवाल पूछा।सफ़ैद रेश बुड्ढे हाकिम ख़ां ने कहा ?याद है ये मीठे पानी का चशमा,जवाब ज़ैलदार मुल्क ख़ां का हो गया,ये चशमा भी तुमने दरयाफ़त किया था ।क्या तुम दूसरा चशमा नहीं ढूंढ सकते? आख़िर इस पहाड़ के अंदर,उस के सीने में और भी तो कहीं मीठा पानी होगा जो इन्सान को आब-ए-हयात बख़श सकता है।ख़ुदाबख़्श तुम हम सबसे काबिल हो। अपनी अक़ल दोड़ाओ हम तुम्हारे साथ मरे मारने को तैयार हैं।हमारे गांव में पानी नहीं है और अब पानी चाहिए।
मेरा बाप चारपाई पर अकड़ूं बैठा था। इसी वक़्त अल्लाह का नाम लेकर उठ खड़ा हुआ ।सारा गांव उस के साथ था । पहाड़ पर चढ़ाई थी और तलाश पानी की थी।फ़र्हाद की कोहकनी से पानी की तलाश मुश्किल है,ये बात मुझे इस रोज़ मालूम हुई क्योंकि पानी सामने नहीं होता वो तो एक छलावे की तरह पहाड़ की सिलवटों में गुम हो जाता है।पानी ख़ाना-ब-दोश है:आज यहां कल वहां ।पानी एक परदेसी है जिसकी मुहब्बत का कोई एतबार नहीं ।पानी का वजूद इस नाज़ुक ख़ुशबू की तरह है जो तेज़-धूप में उड़ जाती है।
इस पोठोहार के इलाक़े में ,जहां औरतें बावफ़ा और बा-हया हैं,पानी बेवफ़ा और हरजाई है।वो कभी किसी एक का हो कि नहीं रहता। वो हमेशा यहां से वहां ,एक जगह से दूसरी जगह एक मुल्क से दूसरे मुल्क में घूमता है,पासपोर्ट के बग़ैर। ऐसे हरजाई की तलाश के लिए एक तेशा नहीं एक आईना चाहिए जिसके सामने पहाड़ का दिल इस तरह हो जैसे एक खुली किताब आख़िर मेरे गांव वालों ने कुछ समझ कर मेरे बाप को इस काम के लिए चुना था।इस रोज़ हम दिन-भर इस बुलंद-ओ-बाला पहाड़ की ख़ाक छानते रहे।
हमने कहाँ कहाँ इस पानी को तलाश नहीं किया: बैरियों की घुन्नी झाड़ीयों में, चटानों की गहिरी दुर्ज़ों में,स्याह डरावनी खोओं में,जंगली जानवरों के भट्ट में।पानी की तलाश में हमने सारे पुराने चश्मे खुदवाए लेकिन उनका खोदना ऐसे ही था जैसे आदमी ज़िंदगी की तलाश में क़ब्रें खोद डाले।पानी कहीं नहीं मिला। एक चोर की तरह उसने जगह जगह अपने छोटे सुराग़ छोड़े लेकिन आख़िर को वो हमेशा हमें जल देकर कहीं ग़ायब हो जाता था। जाने फ़ित्रत के किस कोने में बैठा हो अपने चाहने वालों पर हंस रहा था।लेकिन गांव वालों ने आस नहीं छोड़ी ।वो सारा दिन मेरे बाबा के पीछे पीछे पानी की खोज करते रहे। आख़िर जब शाम होने लगी तो मेरे अब्बा ने पसीना पोंछ कर एक ऊंचे टीले पर खड़े हो के उधर नज़र दौड़ाई जिधर सूरज ग़ुरूब हो रहा था।यका-य़क उन्हें ग़ुरूब होते हुए सूरज की रोशनी में चटानों की एक गहिरी दर्ज़ में फ़रन का सब्ज़ा नज़र आया और कहते हैं जहां फ़रन का सब्ज़ा होता है वहां पानी ज़रूर होता है।फ़रन पानी का झंडा है और पानी एक घूमने वाली क़ौम है। पानी जहां जाता है अपना झंडा साथ ले जाता है।
एक चीख़ मार कर जल्दी से मेरे अब्बा इस तरफ़ लपके जहां फ़रन का सब्ज़ा उगा था। गांव वाले उनके पीछे पीछे भागे । जल्दी जल्दी मेरे अब्बा ने अपने नाख़ुनों ही से ज़मीन को कुरेदना शुरू कर दिया ।ज़मीन ,जो ऊपर से सख़्त थी , नीचे से नरम होती गई गीली होती गई । आख़िर में ज़ोर से पानी की एक धार ऊपर आई और सैंकड़ों सूखे हुए गलों से मुसर्रत की आवाज़ निकली: पानी!पानी।
अब्बा ने काँपते हुए हाथों से ओक में पानी भरा। सारी निगाहें अब्बा के चेहरे पर थीं ,सैंकड़ों दिल धड़क रहे थे।:या अल्लाह पानी मीठा हो, या अल्लाह पानी मीठा हो,या अल्लाह पानी मीठा हो।
अब्बा ने पानी चखा।पानी मीठा है।अब्बा ने ख़ुशी से कहा।
गांव वाले ज़ोर से चलाए :पानी मीठा है!सारी वादी में आवाज़ें गूंज उठें : मीठा पानी मिल गया ,पानी मीठा है !
सारी वादी में ढोल बजने लगे। औरतें गाने लगीं ,जवान नाचने लगे, बच्चे शोर मचाने लगे। गांव वालों ने जल्दी से चश्मे को खोद कर अपने घेरे में ले लिया।अब चशमा उनके बीच में था और वो उस के चारों तरफ़ थे और वो उसे मुड़ मुड़ कर इस तरह मुहब्बत भरी निगाहों से देखते जैसे माँ अपने नौज़ाईदा बच्चे को देख देखकर ख़ुश होती है।वो रात मुझे कभी नहीं भोलेगी। इस रात कोई आदमी गांव में-ओ-अपस नहीं गया। इस रात सारे गांव ने चश्मे के किनारे जश्न मनाया। इस रात तारों की गोद में भूरी बैरियों के साय में माओं ने चूल्हे सुलगाए ,बच्चों को थपक थपक के सुलाया उस रात कुँवारियों ने लहक लहक कर गीत गाय ।ऐसे गीत जो पानी की तरह निर्मल और सुंदर थे,जिनमें जंगली झरनों का सा हसन और आबशारों की सी रवानी थी। इस रात सारी औरतें ख़ुशी से बेक़रार थीं, सारे बीज तख़लीक़ से बेक़रार हो कर फूट पड़े थे।
ऐसी रात हमारे गांव में कब आई थी! जब अब्बा ख़ुदाबख़्श ने पानी ढूंढ निकाला था।पानी जो इन्सान के हाथों की मेहनत था,उस के दिल की मुहब्बत था।आज पानी हमारे हाँ इस तरह आया था जैसे बारात डोली लेकर आती है।
वो नया चशमा हमारे दरमयान आज इस तरह हौले हौले शर्मीले अंदाज़ में चल रहा था जैसे नई दुल्हन झिजक झिजक कर अजनबी आँगन में पांव रखती है,इस रात मेरे एक हाथ में पानी था,दूसरे हाथ में बानो का हाथ था और आसमां पर सितारे थे।इस नए चश्मे के साथ मेरी जवानी की बेहतरीन यादें वाबस्ता हैं।इस चश्मे के किनारे मैंने बानो से मुहब्बत की।
बानो जिसका हुस्न पानी की तरह नायाब था, जिसे देखकर हमेशा ये ख़्याल आता था कि जाने इस ज़मीन की गोद में कितने ही मीठे चश्मे निहां हैं, कितनी हसीन यादें मुंजमिद हैं,मौसिम-ए-गर्मा के कितने ही शोख़ चमकते हुए फूल ,ख़िज़ाओं के सुनहरी पत्ते,ज़मिस्ताँ की पाकीज़ा बर्फ़ ,बानो की मुहब्बत भी कितनी ख़ामोश और चुप-चाप थी,ज़मीन के नीचे बहने वाले पानी की तरह।वो रात के अंधेरे में या फ़ज्र से बहुत पहले इस चश्मे के किनारे आती थी,जब यहां और कोई ना होता मेरे सिवा ।मुझे देखकर उस के चेहरे पर तबस्सुम की ज़िया फैल जाती, जैसे अंधेरे में सह्र का उजाला फैलता है।वो घड़े को चश्मे की धार के नीचे रख देती ।
पानी घड़े से बातें करने लगता और मैं बानो से ।धीरे धीरे बातें करते करते घड़ा भर जाता और हमारे दिल-ख़ुशी से मामूर हो जाते और हमारे जाने बग़ैर कहीं दूर से सुबह यूं धीरे धीरे चलते हुए आती जैसे बाद-ए-नसीम सनगतरे के फूल की सी उंगलियां लिए सोए हुए चेहरों पर से गुज़र जाती है और हम चौंक कर उठ खड़े होते और हैरत से उधर देखने लगते। फिर में इस का घड़ा उठा कर उस के सर के ऊपर रखी हुई सुर्ख़ पट्टी पर रखता और वो मुस्कुरा कर,पलट कर और घूम कर ढलवान पर से गुज़र जाती और में इस की तरफ़ देखता रहता उस वक़्त भी देखता जब दूसरी औरतें मेरी तरफ़ देखकर मुस्कुराने लगतीं ,और मुझे वो दिन याद आता जब मैंने दादी अम्मां से पूछा था:दादी अम्मां आशिक़ किस को कहते हैं?
और फिर उस चश्मे के किनारे मुझे वो रात भी याद है जब मैं कान में काम करता था और दिन-भर थक के घर लोटता था और इस थकन से चूर हो कर सो जाता था, सुबह ही आँख खुलती थी । कई दिनों से मैं बानो से चश्मे पर मिलने ना गया था मगर कोई बेक़रारी ना थी। वो साथ के घर में तो रहती थी।इन्ही दिनों में इस के चचा का लड़का ग़ज़नफ़र भी आया और चला भी गया लेकिन मुझे इस से मिलने की भी फ़ुर्सत ना मिली क्योंकि कान में नया नया मुलाज़िम हुआ था,काम सीखने का बहुत शौक़ था और ये तो हर शख़्स को मालूम है कि नमक की कान में जा के हर शख़्स नमक हो जाता है।
एक रात बानो ने मुझे कहा कि रात के दो बजे चश्मे पर इस से मिलों ।मैंने कहा:में बहुत थका हुआ हूँ ।
वो बोली :नहीं ज़रूरी काम है,आना होगा।चुनांचे में गया
दो बजे के वक़्त आधी रात में चश्मे पर कोई नहीं था,हम दोनों के सिवा ।मैंने इस से पूछा:क्या बात है ?
वो देर तक चुप रही, फिर मैंने पूछा:अभी बताओ आख़िर क्या बात है?वो बोली में गांव छोड़ के जा रही हूँ।
मेरा दिल धक से रह गया।मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे चशमा चलता चलता रुक गया।मेरे गले से आवाज़ निकली:क्यों? मेरी शादी तै हो गई है। किस से?चाचा के लड़के के साथ जो लाम से हो कर यहां आया था।वो चकवाल में है सूबेदार है।और तुम जा रही हो!मैंने तल्ख़ी से पूछा।हाँ वो चुप हो गई। में भी चुप हो गया।सोच रहा था उसे अभी जान से ना मार दूं या शादी की रात क़तल करूँ। थोड़ी देर रुक के बानो फिर बोली:सुना है चकवाल में पानी बहुत होता है सुना है वहां बड़े बड़े नल होते हैं जिनसे जब चाहो टूटी घुमा के पानी निकाल लो। इस की आवाज़ ख़ुशी के मारे काँप रही थी।वो शायद और भी कुछ कहती लेकिन शायद मेरी आज़ुर्दगी का ख़्याल कर के चुप हो गई।
मैंने उस के बिलकुल क़रीब आकर उसे दोनों शानों से पकड़ लिया और ग़ौर से इस की आँखों की तरफ़ देखा।उसने एक लम्हा मेरी तरफ़ देखकर आँखें झुका लें ।इस की निगाहों में मेरी मुहब्बत से इनकार नहीं था बल्कि पानी का इक़रार था।मैंने आहिस्ता से इस के शाने छोड़ दीए और अलग हो के खड़ा हो गया।यका-य़क मुझे महसूस हुआ कि मुहब्बत सच्चाई ख़ुलूस और जज़बे की गहराई के साथ साथ थोड़ा पानी भी माँगती है।बानो की झक्की हुई निगाहों में इक ऐसे जानगसल शिकायत का गुरेज़ था जैसे वो कह रही हो:जानते हो हमारे गांव में कहीं पानी नहीं मिलता।यहां में दो दो महीने नहा नहीं सकती ।मुझे अपने आपसे अपने जिस्म से नफ़रत हो गई है।बानो चुप-चुप ज़मीन पर चश्मे के किनारे बैठ गई ।मैं इस तारीकी में भी उसकी आँखों के इंदिरा स की मुहब्बत के ख़ाब को देख सकता था जो गंदे बदबूदार जिस्मों पुसूओं ,जोओं और खटमलों की मारी ग़लीज़ चीथडों में लिपटी हुई मुहब्बत ना थी।इस मुहब्बत से नहाए हुए जिस्मों ,धुले हुए कपड़ों और नए लिबास की महक आती थी।मैं बिलकुल मजबूर और बेबस हो कर एक तरफ़ बैठ गया। रात के दो बजे।बानो और में।दोनों चुप-चाप कभी ऐसा सन्नाटा जैसे सारी दुनिया काली है कभी ऐसी ख़ामोशी जैसे सारे आँसू सो गए हैं । चश्मे के किनारे बैठी हुई बानो आहिस्ता-आहिस्ता घड़े में पानी भर्ती रही ।आहिस्ता-आहिस्ता पानी घड़े में गिरता हुआ बानो से बातें करता रहा इस से कुछ कहता रहा, मुझसे कुछ कहता रहा।पानी की बातें इन्सान की बेहतरीन बातें हैं।
बानो चली गई।
जब बानो चली गई तो मेरे ज़हन में बचपन की वो कहानी आई जब मुहब्बत रोई थी और आँसू नमक के डले बन गए थे।
इस वक़्त मेरी आँख में आँसू भी ना था लेकिन मेरे दल के अंदर नमक के कितने बड़े डले इकट्ठे हो गए थे!मेरे दल के अंदर नमक की एक पूरी कान मौजूद थी। नमक की दीवारें सतून ग़ार और खारे पानी की एक पूरी झील ।मेरे दिल और दिमाग़ और एहसासात पर नमक की एक पतली सी झिल्ली चढ़ गई थी और मुझे यक़ीन हो चला था कि अगर में अपने जिस्म को कहीं से भी खर्चोंगा तो आँसू ढलक कर बह निकलेंगे इस लिए मैं चुप-चाप बैठा रहा और जब वो मेरी तरफ़ देखकर ढलवान पर मुड़ गई उस वक़्त भी मैं चुप-चुप बैठा रहा क्योंकि मेरे पास पानी नहीं था और बानो पानी के पास जा रही थी।जिस रात बानो का ब्याह ग़ज़नफ़र से हुआ उस रात मैंने एक अजीब ख़ाब देखा।मैंने देखा कि हमारी खोई हुई नदी हमें वापिस मिल गई है और नमक के पहाड़ पर मीठे पानी के चश्मे उबल रहे हैं और हमारे गांव के मर्कज़ में एक बहुत बड़ा दरख़्त खड़ा है। ये दरख़्त सारे का सारा पानी का है इस की जड़ें,शाख़ें, फल,फूलपत्तियां सब पानी की हैं और इस दरख़्त की शाख़ों से,पत्तों से पानी बह रहा है और ये पानी हमारे गांव की बंजर ज़मीन को सेराब कर रहा है। और मैंने देखा कि किसान हल जोत रहे हैं ,औरतें कपड़े धो रही हैं , कानकन नहा रहे हैं और बच्चे फूलों के हार लिए पानी के दरख़्त के गर्द नाच रहे हैं और बानो साफ़ सुथरे कपड़े पहने मेरे कंधे से लगी मुझसे कह रही है:अब हमारे गांव में पानी का दरख़्त उग आया है। अब मैं तुम्हें छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगी।ये बड़ा अजीब ख़ाब था लेकिन मैंने जब अपने बाप को सुनाया तो वो मारे डर के काँपने लगे और बोले: तुमने ये ख़ाब मेरे सिवा किसी दूसरे को तो नहीं सुनाया मैंने कहा :नहीं अब्बा, मगर आप डर क्यों गए हैं।
ये तो एक ख़ाब था । वो बोले:अरे ख़ाब तो है मगर ये एक सुर्ख़ ख़ाब है।मैंने हंसकर कहा :नहीं अब्बा जो दरख़्त मैंने ख़ाब में देखा वो सुर्ख़ नहीं था।इस का रंग तो बिलकुल जैसे पानी का होता है। वो पानी का दरख़्त था। इस का तना,शाख़ें ,पत्ते सब पानी के थे।हाँ इस दरख़्त पर फलों की जगह कट गिलास की चमकती हुई सुराहीयाँ लटकी थीं और उनमें पानी बच्चों की हंसी की तरह चमकता था और फ़व्वारों की तरह ऊंचा जा के गिरता था वो बोले।कुछ भी हो ये बड़ा ख़तरनाक सपना है। अगर पुलिस ने कहीं सन लिया या तुमने किसी से इस का ज़िक्र कर दिया तो वो तुम्हें इस तरह पकड़ के ले जाऐंगे जिस तरह वहां मज़दूरों को पकड़ के ले गए थे जिन्हों ने हमारे गांव की नदी को वापिस लाना चाहा था। इस लिए बेहतर यही है कि तुम इस ख़ाब का ज़िक्र किसी से ना करो।उसे भूल जाओगे तुमने ये ख़ाब कभी देखा था क्योंकि इस ख़ाब का चर्चा कर के इस से कुछ ना होगा, सूखी नदी हमेशा सूखी रहेगी और प्यासे सदा प्यासे रहेंगे।मुझे अपने अब्बा के लहजे की हसरत आज तक याद है ।मुझे ये भी याद है कि शुरू शुरू में इस का ज़िक्र मैंने किसी से नहीं किया लेकिन जब चंद मज़दूर साथीयों से अपने ख़ाब का ज़िक्र किया तो वो मेरा ख़ाब देखकर डरने की बजाय हँसने लगे और जब मैंने उनसे पूछा कि इस में हँसने की क्या बात है तो उन्होंने कहा:भला इस में डराने की क्या बात है। ये ख़ाब तो बहुत अच्छा है और ये उनकी कान में हर एक देख चुका है।
क्या सच्च कहते हो!वही पानी का दरख़्त? हाँ हाँ ।वही पानी का दरख़्त गांव में,एक ठंडा मीठा पानी का चशमा हर नमक की कान में! घबराओ नहीं,एक दिन ये ख़ाब ज़रूर पूरा होगा।
पहले मुझे उनकी बातों का यक़ीन नहीं आया ।लेकिन अपने साथीयों के साथ काम करते करते अब मुझे यक़ीन हो चला है कि हमारा ख़ाब ज़रूर पूरा होगा ।एक दिन हमारे गांव में पानी का दरख़्त ज़रूर अगेगा। और जो जाम-ए-ख़ाली हैं वो भर जाऐंगे और जो कपड़े मैले हैं वो धुल जाऐंगे और जो दिल तरसे हुए हैं वो खुल जाऐंगे और सारी ज़मीनें और सारी मुहब्बतें और सारे वीराने और सारे सहरा शादाब हो जाऐंगे