पण्डित कौन ? : जगदीशचन्द्र जैन
1
कोई भील जंगल में से एक तोता पकड़कर लाया। उसका एक पैर तोड़ और उसकी एक आँख फोड़कर उसने उसे बाजार में छोड़ दिया।
जब तोते का कोई खरीददार न मिला तो वह भील उसे एक श्रावक (जैनधर्म का उपासक) की दुकान पर छोड़, कुछ माल खरीदने के लिए पैसे लेने अपने घर आया।
इस बीच में तोते ने श्रावक से कहा कि वह बहुत-से आख्यान और कथा कहानियाँ जानता है। श्रावक ने तोते को खरीदकर उसे एक पिंजड़े में बन्द कर दिया।
श्रावक के कुटुम्बी मिथ्यादृष्टि थे, अतएव वह तोता उन्हें धर्मोपदेश दिया करता था।
एक दिन श्रावक का पुत्र किसी माहेश्वर की कन्या पर आसक्त हो गया। उस दिन उसने न कोई धर्मोपदेश सुना और न प्रत्याख्यान (किसी वस्तु का त्याग) लिया।
तोते के पूछने पर उन्होंने कारण बता दिया। तोते ने कहा, “तुम लोग चिन्ता न करो।”
तोते ने श्रावक के पुत्र जिनदास से कहा, “तुम सरजस्क साधुओं (स्नान न करनेवाले और गन्दे रहनेवाले नग्न साधु) के पास जाकर ठीकरे की पूजा करो। तत्पश्चात् मुझे ईंट के नीचे दाब देना।”
जिनदास ने ऐसा ही किया। वह सरजस्कों का अनुयायी बन गया, और उनके चरणों में गिरकर वरदान माँगने लगा कि किसी तरह यह लड़की मुझे मिल जाए।
ईंट के नीचे दबे हुए तोते ने लड़की के पिता से कहा, “देखो, यह लड़की श्रावकपुत्र जिनदास को दे दो।”
देवाज्ञा समझकर लड़की के पिता ने जिनदास के साथ अपनी लड़की का विवाह कर दिया।
कन्या को अपने ऊपर बड़ा गर्व था। वह अपने पति से कहा करती, “देखो, मेरा विवाह देवाज्ञा से हुआ है।”
एक दिन उसके पति को हँसी आ गयी। स्त्री के पूछने पर उसने सब हाल कह दिया।
जिनदास की स्त्री को तोते के ऊपर बड़ा क्रोध आया।
एक दिन जब सब लोग किसी उत्सव में लगे हुए थे, जिनदास की स्त्री ने तोते को चुरा लिया और उसे एकान्त में ले जाकर कहने लगी, “तुम बड़े पण्डित निकले? अब देखती हूँ तुम्हारी पण्डिताई?” यह कहकर उसने तोते का पंख उखाड़ लिया।
तोते ने सोचा, “इस तरह मरने से क्या लाभ?” उसने कहा, “पण्डित मैं नहीं हूँ, पण्डित है वह नाइन।”
जिनदास की स्त्री ने पूछा, “कैसे?”
तोता बोला, “एक बार कोई नाइन खेत में भोजन लिये जा रही थी। रास्ते में उसे चोरों ने पकड़ लिया। वह बोली, ‘चलो, बहुत अच्छा हुआ, मुझे भी आप लोगों की तलाश थी।’ चोरों से उसने कहा, ‘इस समय तो आप मुझे छोड़ दें। आप लोग रात में मेरे घर आइए, मैं रुपये लेकर आपके साथ चलूँगी।’
रात को सेंध लगाकर जब चोरों ने उसके घर में प्रवेश किया तो नाइन ने छुरे से उनकी नाक काट ली। चोर भाग गये।
अगले दिन चोरों ने फिर उसे खेत में जाते हुए देखा और उसे पकड़ लिया। नाइन उन्हें देखते ही अपना सिर पीटने लगी। वह बोली, ‘अरे! यह किसने काट ली?’
नाइन उनके साथ-साथ चल दी।
आगे चलकर भोजन लाने के बहाने चोरों ने उसे एक कलाल के घर बेच दिया, और ख़ुद रुपये लेकर भाग गये।
नाइन वहाँ से चलकर रात को एक वृक्ष पर छिपकर बैठ गयी। चोर भी किसी की गायें चुराकर लाये, और संयोगवश उसी वृक्ष के नीचे आकर ठहरे। वे लोग वहाँ मांस पकाकर खाने लगे।
उनमें से एक चोर मांस लेकर वृक्ष पर चढ़ा। उसने जब चारों ओर देखा तो वहाँ एक औरत को बैठे हुए पाया। औरत ने उसे रुपये निकालकर दिखलाये। चोर ज्यों ही उसके पास पहुँचा, उसने बड़े जोर से उसे दाँतों से काट लिया।
चोर चिल्लाकर भागा कि अरे! यह तो वही बैठी है? इस पर दूसरे चोर भी डरकर वहाँ से भाग गये।
नाइन चोरी का सब माल लेकर चम्पत हुई।”
2
जिनदास की स्त्री ने तोते का दूसरा पंख उखाड़कर कहा, “नहीं, तू ही पण्डित है।”
तोते ने उत्तर दिया, “पण्डित मैं नहीं हूँ, पण्डित है वह बनिये की लड़की।”
तोता बोला, “बसन्तपुर में एक बनिया रहता था। एक बार उसने शर्त लगायी कि जो कोई माघ महीने की रात में पानी के अन्दर बैठा रहे, उसे मैं एक हजार दीनारें दूँगा।
एक दरिद्र वणिक् इसके लिए तैयार हो गया, और वह रात-भर सर्दी में बैठा रहा।
बनिये ने सोचा - ‘यह वणिक् रात-भर इतनी सर्दी में पानी में कैसे बैठा रहा, यह मरा क्यों नहीं?’
पूछने पर वणिक् ने उत्तर दिया, ‘इस नगर में एक घर में दीपक जलता रहा, उसे देखकर मैं रात-भर पानी में बैठा रहा। लाइए हजार दीनारें।’
बनिया अपनी बात से हट गया। वह बोला कि तुम दीपक के प्रभाव से सर्दी में बैठे रहे, अतएव तुम्हें दीनारें मैं न दूँगा।
वणिक् बेचारा निराश होकर घर चला गया।
घर जाकर अपनी कन्या के पूछने पर उसने सब हाल कह दिया।
वणिक् की कन्या ने कहा, पिताजी, आप चिन्ता न करें। आप गरमी के मौसम में और लोगों के साथ उस बनिये को भी भोजन के लिए बुलाएँ। परन्तु भोजन के साथ उसे पानी न दें, पानी के बरतन को दूर रखकर छोड़ दें। जब वह बनिया पानी माँगे तो आप कहें कि वह रहा पानी, तुम यहीं से अपनी प्यास बुझा लो। यदि बनिया कहे कि क्या पानी को दूर से देखकर प्यास बुझ सकती है तो आप कहें कि फिर दीपक को दूर से देखते रहने से सर्दी कैसे दूर हो सकती है?
वणिक्-कन्या की युक्ति काम कर गयी। बनिये को एक हजार दीनारें देनी पड़ीं।
बनिया सोचने लगा - ‘यह वणिक् तो महामूर्ख है। इसे इतनी बुद्धि कहाँ से आयी?’
उसे मालूम हुआ कि यह तरकीब उसकी लड़की की बताई हुई है। बनिये को उसकी लड़की पर बहुत क्रोध आया। उसने उसकी मँगनी माँगी।
वणिक् ने सोचा कि यह बनिया मेरी लड़की से चिढ़ा हुआ है, अतएव मेरी लड़की इसके घर जाकर सुखी नहीं रह सकती। लेकिन वणिक् की लड़की ने अपने पिता से कहा कि पिताजी, आप निश्चिन्त रहिए, यह मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता।
विवाह की तैयारियाँ होने लगीं।
वणिक् की कन्या को पता लगा कि बनिये के घर कुआँ खोदा जा रहा है। उसने अपने घर से लेकर कुएँ तक अन्दर-ही-अन्दर एक सुरंग खुदवाकर तैयार कर दी।
दोनों का विवाह हो गया।
विवाह होते ही बनिये ने अपनी बहू को कुएँ में डलवा दिया। उसके सामने कपास का एक बड़ा गट्ठर लाकर रख दिया और कहा कि अब देखूँगा तुम्हारी पण्डिताई। वह कहता गया - देखो, मैं परदेश जा रहा हूँ। इस कपास को तुम कातकर खत्म करना, और तुम्हारी पण्डिताई की परीक्षा तब होगी जब मेरे द्वारा तुम्हारे तीन पुत्र हो जाएँगे, और तुम मुझे वापस घर ले आओगी।
जाते समय बनिया अपने घरवालों से कहता गया कि उसकी स्त्री को प्रतिदिन कोदों और चावल खाने को दिये जाएँ।
इधर बनिया परदेश रवाना हुआ और उधर उसकी स्त्री सुरंग में से निकलकर अपने पिता के घर पहुँच गयी।
उसने अपने पिता से कहा, पिताजी, आप इस रस्सी को पकड़े रहें, और जो भोजन मिले उसे नियम से लेते रहें।
बनिये की स्त्री वेश्या का वेश बनाकर वहाँ से चल दी।
किसी नगर में पहुँच भाड़े पर मकान लेकर वह वहाँ रहने लगी।
एक दिन वहाँ उसने अपने पति को देखा और उसे अपने घर ले आयी।
बनिये ने पूछा, तुम कौन हो?
वह बोली, मैं प्रायः पुरुषों से द्वेष करती हूँ, परन्तु न जाने तुम मुझे क्यों प्रिय लगते हो?
बनिया वेश्या के प्रेमपाश में फँस गया। दोनों एक साथ रहने लगे।
कुछ समय बाद उनके तीन पुत्र हुए। वेश्या ने जब देखा कि बनिये के पास धन नहीं रहा तो उसने उसे छोड़ दिया।
कुछ समय बाद बनिया एक काफिले के साथ वापस लौटा। वेश्या भी उस काफिले के साथ वापस आ गयी।
घर पहुँचते ही वह पहले अपने पिता के घर गयी और रस्सी पकड़कर अपने तीनों पुत्रों को साथ ले सुरंग में से होती हुई, कुएँ में जा बैठी।
बनिये ने घर आकर अपनी स्त्री का कुशल समाचार पूछा।
उसने कुएँ में खटोली डालकर उसे बाहर निकालने का हुक्म दिया। रस्सी खींची गयी। सबसे पहले पहला पुत्र, फिर दूसरा और फिर अपने तीसरे पुत्र को साथ लेकर वह स्वयं कुएँ में से बाहर निकली। बनिया अपनी स्त्री की चतुराई देखकर चकित हो गया, और उसने उसे अपने घर की मालकिन बना दिया।”
जिनदास की स्त्री ने फिर तोते का एक पंख उखाड़ लिया और बोली, “नहीं, तुम्हीं पण्डित हो।”
तोते ने कहा, “पण्डित मैं नहीं हूँ, पण्डित है वह कोली की कन्या।”
तोते ने कहानी कही - “किसी कोली की कन्या के माता-पिता परदेश चले गये थे। घर में वह अकेली रह गयी थी। रात को घर में चोर घुस आये। लेटी-लेटी वह कहने लगी, मैं अपने भानजे के साथ ब्याही जाऊँगी। फिर मेरे पुत्र होगा। उसका नाम रखूँगी चन्द्र। उसे आवाज देकर बुलाऊँगी - ऐ चन्द्र, जल्दी आ।
इतने में उसकी आवाज सुनकर पड़ोस का चन्द्र झट से वहाँ आ गया। चोर भाग गये।”
जिनदास की स्त्री ने फिर तोते का एक पंख उखाड़ लिया।
अबकी बार तोते ने एक कुलपुत्र की कन्या की कथा सुनायी -
“बसन्तपुर नगर में जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था। उसकी एक कन्या थी। राजा ने घोषणा करायी कि जो असम्भव बात को उसे मनवा देगा, उसे बहुत-सा धन देगा।”
कुलपुत्र की कन्या ने अपने पिता को चिन्तित देखकर कहा, “पिताजी, यह काम मैं करूँगी, आप चिन्ता न करें।”
कुलपुत्र की कन्या राजा के पास गयी, और उसने अपनी कहानी शुरू की -
“राजन्! मैं काफी उम्र तक कुँवारी रही। तत्पश्चात् मैं अपने भानजे को मँगनी में दे दी गयी। मेरे माता-पिता परदेश चले गये थे। एक बार वे पाहुने बनकर आये। घर पर मैं अकेली थी। मैंने सोचा, अब क्या करूँ? खैर, किसी प्रकार उनका आदर-सत्कार किया। दुर्भाग्य से उन्हें रात को साँप ने काट लिया, और उनकी मृत्यु हो गयी।
मैं उन्हें श्मशान में ले गयी। वहाँ गीदड़ आदि जानवरों के भयंकर शब्द सुनाई दे रहे थे।
राजा बोला, ‘और तुम डरी नहीं?’
कुलपुत्र की कन्या ने कहा, ‘महाराज ये सब बातें सच हों तब न?’
राजा बहुत प्रसन्न हुआ और उसने बहुत-सा इनाम देकर कन्या को विदा किया।”
इस प्रकार जिनदास की स्त्री तोते का एक-एक पंख उखाड़ती गयी और वह कहानी कहता गया।
सब मिलाकर तोते ने पाँच सौ कहानियाँ सुनायीं।
रात बीत गयी, और जब तोते के एक भी पंख न रहा तो जिनदास की स्त्री ने उसे फेंक दिया।
तोते को एक बाज ने उठा लिया। वहाँ एक दूसरा बाज आया; दोनों में लड़ाई होने लगी। तोता एक अशोक-वाटिका में गिर पड़ा। वहाँ से उसे एक दासीपुत्र ने उठा लिया।
तोते ने मयूर में प्रविष्ट होकर उसे राजा से राज्य दिलवाया। तत्पश्चात् तोते ने सात दिन के लिए राज्य प्राप्त कर श्रावक और माहेश्वर दोनों कुलों को धर्म में दीक्षित किया।