पंडित, चोर और हजार स्वर्ण मुद्राएँ : लोक-कथा (बंगाल)
Pandit Chor Aur Hazaar Swarna Mudrayen : Lok-Katha (Bangla/Bengal)
बहुत दिनों पहले की बात है। कलिंग देश में एक राजा थे। उनका नाम था इंद्रजीत। राजा इंद्रजीत गुणी लोगों का बहुत सम्मान करते थे, उनके प्रति श्रद्धा प्रकट करते थे।
एक दिन राजा इंद्रजीत अपनी राजसभा में बैठे हुए थे। मंत्री, दरबारी सभी वहाँ उपस्थित थे। राज्य से संबंधित नाना विषयों पर चर्चा हो रही थी। उसी समय एक प्रौढ व्यक्ति राजदरबार में उपस्थित हुआ। उसने प्रहरी से कहा, "मैं महामना राजा से भेंट करना चाहता हूँ।"
प्रहरी ने प्रौढ को अच्छी तरह देखा। देखकर उसे लगा कि वे कोई पंडित व्यक्ति हैं। उसने उनसे कहा, "आप यहाँ प्रतीक्षा कीजिए, मैं राजा को खबर देता हूँ।" यह कहकर प्रहरी राजसभा की ओर अग्रसर हुआ।
दूर खड़े रहने के बावजूद राजा इंद्रजीत ने उस प्रौढ को देख लिया था। उन्होंने इशारे से प्रहरी से कहा कि वह उस व्यक्ति को लेकर आए। प्रहरी ससम्मान उस व्यक्ति को राजसभा में लेकर आया। राजा इंद्रजीत ने उन्हें आसन ग्रहण करने को कहा, फिर उनका परिचय पूछा।
प्रौढ व्यक्ति ने आसन ग्रहण करने के बाद कहा, “महामना ! मैं बंगदेश से आया हूँ। मैं आपके समक्ष कुछ धार्मिक चर्चा करना चाहता हूँ।"
राजा ने कुछ देर तक अतिथि के चेहरे की ओर देखा, फिर अपने अनुभवों से उन्होंने समझ लिया यह आदमी पंडित व्यक्ति है। सविनय उन्होंने पूछा, "महामान्य अतिथि का नाम क्या है ?"
अतिथि ने कहा, "चित्रसेन।" चित्रसेन के रहने एवं भोजनादि की व्यवस्था हुई। यथेष्ट सेवा-सत्कार पाकर चित्रसेन बहुत खुश हुए। तय हुआ उस शाम धर्म-चर्चा हेतु बैठक होगी। पहली चर्चा में ही राजा इंद्रजीत बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने चित्रसेन की भूरि-भूरि प्रशंसा की।
उसके बाद लगातार तीन दिनों तक धार्मिक चर्चाएँ हुईं। रानी भी प्रसन्न हुईं एवं राजदरबार के सभी सदस्यों ने चित्रसेन के पांडित्य एवं उनकी वक्तृत्व कला से अत्यंत प्रसन्न होकर उनका स्तुतिगायन किया। राजा के अनुरोध पर चित्रसेन और कुछ दिनों तक राजमहल में रहे। उसके बाद उनकी विदाई के उपलक्ष्य में उनके अभिनंदन का आयोजन किया गया। पंडित चित्रसेन को राजा ने स्वयं माला आदि से आभूषित करके एक हजार स्वर्ण मुद्राएँ प्रदान की और कहा, “गुणी जनों के सम्मान की रक्षा करना राजा का कर्तव्य है। मैंने कर्तव्य-पालन करने का थोड़ा-बहुत प्रयास किया है। आपसे अनुरोध है कि आप अपने ज्ञान और पांडित्य द्वारा देश का कल्याण करें।"
राजा से विदा लेकर पंडित चित्रसेन ने अपने राज्य की ओर प्रस्थान किया। कलिंग देश से बंग देश की दूरी बहुत है। उन दिनों सामान्य जनों के लिए पैदल चलने के सिवा कोई दूसरा विकल्प नहीं था। इसीलिए चित्रसेन पैदल ही अपने देश की ओर चले। चलते-चलते शाम हो गई तो वे एक धर्मशाला में पहुँचे। धर्मशाला छोटा था। कमरे कम थे। एक-एक कमरे में पहले से आठ-नौ लोग जैसे-तैसे बैठे हुए थे। चित्रसेन भोजन करने के बाद कमरे में गए एवं किसी से कुछ न कहकर एक कोने में चटाई बिछाकर सो गए।
इधर क्या हुआ कि जब चित्रसेन धर्मशाला में आए, तभी कुछ लोगों को यह सूचना मिल गई थी कि यह विशिष्ट अतिथि राजदरबार से लौटे हैं एवं उनके पास पुरस्कार में मिली हजार स्वर्ण मुद्राएँ हैं।
धर्मशाला में जितने यात्री थे, उनमें एक आदमी दुष्ट प्रवृत्ति का था। दूसरे का धन उड़ा लेने में वह माहिर था। चोर के रूप में वह प्रसिद्ध था। वह चित्रसेन पर दृष्टि रखे हुए था। जिस समय चित्रसेन कमरे के एक कोने में चटाई पर सो गए, उसी समय उस चोर ने चित्रसेन के ठीक बगल में एक चटाई बिछाकर अपना स्थान दखल कर लिया।
रात गहरी हो गई। सब सो गए थे। लेकिन उस चोर की आँखों में नींद नहीं थी। वह सोने का नाटक कर अपनी चटाई पर लेटा हुआ था। स्वर्ण मुद्राएँ चोरी करने के लिए उचित समय का वह इंतजार कर रहा था।
चित्रसेन घनघोर निद्रा में थे। उनकी नाक बज रही थी। चोर उठकर बैठ गया। उसने सोचा, यही मौका है। उसने चित्रसेन के सिर के नीचे तकिए को टटोलना शुरू कर दिया। वहाँ उसे कुछ नहीं मिला। कहाँ है मुद्राओं की थैली? वह अच्छी तरह जानता था कि उसके पास एक हजार स्वर्ण मुद्राएँ हैं। वह समझ नहीं पा रहा था कि स्वर्ण मुद्राएँ गईं कहाँ? रातभर जागकर उसने चित्रसेन के शरीर का अत्यंत सूक्ष्म निरीक्षण किया। कमर में भी कुछ नहीं। वे खुली देह सो रहे थे। उनकी कमीज की जेब भी खाली थी। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि चित्रसेन ने उतनी स्वर्ण मुद्राएँ कहाँ रख दी हैं ? उसने चित्रसेन के बिस्तर की चारों ओर से पड़ताल की, लेकिन स्वर्ण मुद्राएँ उसे कहीं नहीं मिलीं।
भोर हो गई। बाहर प्रकाश फैल गया। चित्रसेन की नींद टूटी। उनकी नींद टूट गई है, समझकर चोर ने सोने का नाटक किया। चित्रसेन उठकर बैठ गए। अपनी कमीज पहनी और उसके बाद बड़ी सावधानी से चोर के तकिए के नीचे से स्वर्ण मुद्राओं की थैली निकाल ली। उस चोर को पहली बार देखते ही उन्हें संदेह हो गया था, इसीलिए चित्रसेन ने स्वर्णमुद्राओं की थैली अपने पास न रखकर चोर के तकिए के नीचे रखना ही निरापद समझा था।
अब वही स्वर्ण मुद्राओं की थैली लेकर वे बाहर निकल आए। चोर को उन्होंने कैसे मूर्ख बनाया, यह चोर भी समझ नहीं पाया।