पालतू भालू (कहानी) : मुंशी प्रेमचंद
Paltu Bhalu (Hindi Story) : Munshi Premchand
किसी शहर में एक बनिया रहता था। वह ज़मींदार का कारिन्दा
था । असामियों से रुपया वसूल करना उसका काम था।
एक दिन वह असामियों से रुपये वसूल करके घर चला। रास्ते
में एक नदी पड़ती थी। लेकिन मल्लाह अपना अपना खाना बना रहे
थे। कोई उस पार ले जाने पर राजी न हुआ ।
वहां से थोड़ी ही दूर पर एक और नाव बंधी थी। उसमें दो
मल्लाह बैठे हुए थे। कारिन्दा के हाथ में रुपये की थैली देखकर दोनों
आपस में कानाफूसी करने लगे । तब एक ने कहा-आओ सावजी,
हम उस पार पहुँचा दें ।
बनिया बड़ा सीधा आदमी था । उसे कुछ सन्देह न हुआ । चुप-
चाप जाकर नाव पर बैठ गया। इतने में एक मदारी अपना भालू लेकर
वहां आ पहुँचा और कारिन्दा से पूछने लगा-सावजी, कहाँ जाओगे ?
बनिये ने जब अपने गाँव का नाम बताया तो वह खुश होकर
बोला--मैं भी तो वहीं चल रहा हूँ। यह कहता हुआ वह भालू को
लेकर नाव पर चढ़ गया। पहले तो मल्लाहों ने बहुत नाक-भौं सिकोड़ा,
मगर बाद को ज्यादा पैसा देने पर राज़ी हो गये । नाव खुल गई ।
कारिन्दा दिन भर का थका था। नाव धीरे-धीरे हिलने लगी, तो
उसे नींद आ गई। मदारी भालू की पीठ पर सिर रखे मल्लाहों की
ओर ताक रहा था। उन दोनों को थैली की तरफ बार बार ताकते
देखकर उसे कुछ सन्देह होने लगा । यह सब ठग तो नहीं हैं ? उसने
सोचा, ज़रा देखूं तो इन दोनों की क्या नीयत है। उसने झूठ मूठ
आंखें बन्द कर लीं मानो सो गया है।
अब नाव ज़ोर मे चलने लगी। क़रीब दो घंटे के बाद कारिन्दा
चौंककर उठा तो उसे अपने गाँव का किनारा दिखाई दिया ! मल्लाहों
से बोला--बस-बस पहुँच गये, नाव किनारे लगा दो। लेकिन मल्लाहों
ने उसकी बात अनसुनी कर दी। तब कारिन्दा ने डाँटकर कहा- तुम
लोग नाव को किनारे क्यों नहीं लगाते जी ? सुनते नहीं हो ?
इस पर एक मल्लाह ने घुड़ककर कहा-- क्या बक-बक करते हो।
हम लोगों को इतना भी नहीं मालूम कि नाव कहाँ लगानी होगी ?
मदारी अब तक चुपचाप पड़ा देखता रहा । उसने भी कहा--हां,
हाँ, यही तो किनारा है, नाव क्यों नहीं लगाते ? मल्लाहों ने उसे भी
फटकारा। । तब वह चुपके से कारिन्दा के पास खिसक गया और धीरे
से बोला-- इन सबों की नीयत कुछ खराब मालूम होती है। होशियार
रहना । कारिन्दा को जैसे जूड़ी चढ़ आई।
मील भर चलने के बाद मल्लाहों ने नाव को एक जंगल के पास
लगाया और उतरकर जंगल में जा घुसे। उनके साथ के कई डाकू
जंगल में रहते थे । दोनों उनको खबर देने गये ।
बनिया बच्चों की तरह रोने लगा। अपना गाँव मील भर पीछे छूट
गया । वहाँ न कोई साथी, न मददगार। मगर मदारी ने उसे तसल्ली दी।
वह देखो, कई आदमी हाथ में मशालें लिये हुए नाव की ओर
चले आ रहे हैं, ज़रूर यह डाकुओं का गिरोह है। कारिन्दा के हाथ-
पाँव फूल गये ।
एकाएक मदारी भालू को लिये हुए नाव से उतरा और किनारे
पर चढ़ गया । डाकू नीचे उतर ही रहे थे कि उसने अपने भालू को
उनके पीछे ललकार दिया । फिर क्या था; भालू ने लपककर एक डाकू
को पकड़ा और उसके मुँह पर ऐसा पंजा मारा कि सारा मुँह लहू-
लुहान हो गया। उसे छोड़कर व दूसरे डाकू पर लपका। डाकुओं
में भगदड़ पड़ गई। सब-के-सब अपनी-अपनी जान लेकर भागे।
बस वही पड़ा रह गया, जो घायल हो गया था ।
यह शोर गुल सुनकर पास ही के एक दूसरे गाँव से कई आदमी
जा पहुँचे । उन्होंने मदारी और कारिन्दा को भालू के साथ फिर नाव
पर बिठाया और नाव को ले जाकर उनके गाँव के किनारे लगा दिया।
उस घायल डाकू को लोग थाने ले गये ।
गाँव में पहुँचकर कारिन्दा ने मदारी को गले से लगाकर कहा--
तुम पूर्व जन्म में मेरे भाई थे, आज तुम्हारी बदौलत मेरी जान बची ।