पक्षीवास (उड़िया उपन्यास) : सरोजिनी साहू

अनुवादक : दिनेश कुमार माली

Pakshivaas (Oriya Novel) : Sarojini Sahu

बसन्त ऋतु के आने से वन उपवन और पर्वतों पर महोत्सव-सा छा गया। सभी के मन हर्ष-उल्लास से भरे थे। सभी खुशी के मारे मदमस्त से थे। जाने-अनजाने, कितने फूलों की खुशबू पूरे वातावरण को सुवासित कर देती थीं। मधुर खुशबू की महक पाकर कोयल नींद से जागती तथा पेड़ो के झुरमुटों से कूकती तथा कहती- “बसंत आ गया, बसंत.” कोयल की कूक से, मानों आम के पेड़ों को नवयौवन मिल जाता था तथा चांद की श्वेत-धवल चांदनी की भाँति आम के पेड़ मंझरी से ढ़क जाते थे। जब मंझरी सूखती, छोटे फल आते, उसी समय महुआ के फूल अपनी पंखुंड़ियों को टिप-टिप करके खोलते। महुआ के फूल वन्य-भूमि को मदमस्त कर रहे थे। जिस प्रकार शहद की बूंदे टपटप कर गिरती है, उसी प्रकार रातभर महुआ के फूल गिर रहे थे मानो अंतरिक्ष से तारे टिमटिमाते हुए, एक दूसरे को बुलाते हुये गिर रहे हो। यही तारा-फूल पहाड़ी मनुष्यों तथा जंगली जानवरों को पागल-सा बना देते थे। गाँव के आसपास के आठ-दस ग्राम्य बस्तियों में नशे की खुमारी छा जाती थी। महुआ के फूलों के लोभ से गाँवों में कभी-कभी भालू घुस आते थे। कभी-कभी महुआ के फूलों को इकट्ठा करती हुयी गाँव की युवतियाँ बेसुध-सी जंगल के मध्य तक चली जाती थी। जब नशे की खुमारी टूटती थी तो वे अपने आपको अकेले पाकर अपनी जान बचाने के लिये गाँवों की तरफ भाग जाती थी।

महुआ फूलों की महक से आकर्षित होकर गाँवों की तरफ हाथियों के झुण्ड आ जाते थे। तब सब कुछ समाप्त होता हुआ नजर आता था। छत खप्पर दरवाजे आदि हाथियों के लिये कुछ भी नहीं थे। वे किसी के छोटे बच्चे को अपने पांव से रौंदकर आगे निकल जाते थे, तो किसी को अपनी सूंड से उठाकर धरती पर पटक देते थे। दुर्दांत डकैत की भांति मिट्टी के बरतनों को तोड़कर महुआ के फूल चुराकर खा जाते थे। इतना होने के बावजूद भी ‘महुली दारु’ बनाई जाती थी। महुआ के फूलों की महक वातावरण में फैलती थी तथा मनुष्यों एवं हाथियों को मतवाला बनाती थी।

जब जंगल में महुआ के पेड़ पर फल आने लगते थे, तो दूसरी तरफ जंगल में पकी हुयी चिरौंजी तथा तेंदू से पेड़ लद जाते थे। ज्येष्ठ मास की असह्य ग्रीष्म में मीठे रस से भरपूर तेंदू झर-झरकर गिरने लगते थे। अगर आठ-दस तेंदू इकट्ठा करते, तो एक समय का भोजन हो जाता। जब तेंदू के फूल अपनी आख़िरी पड़ाव पर होते थे, तब जामुन के फल अपना रंग बदलना शुरु कर देते थे। एक के पश्चात एक अलग-अलग प्रबंध जंगल ने कर रखा था। आम, जामुन, चिरौंजी, अनेक प्रकार के फल ही नहीं, बल्कि पलास के फूल जलते हुए अंगारे की भाँति आकाश में झूल रहे थे। मानों आस-पास का संपूर्ण क्षेत्र उन्हीं धधकते हुये, दहकते हुये अंगारों के उजाले से रोशन हो रहा हो।

आनन-फानन में तेंदू की नवकोपलें इर्द-गिर्द की झाड़ियों में प्रस्फुटित होती। फिर एक बार जंगल के वाशिन्दे कमर में थैला बांधकर, झुक-झुककर तेंदू के पत्तों को तोड़ते, अपने दाना-पानी के प्रबंध में जुट जाते। पत्तों के पीछे पत्तों को सजाकर ठेकेदारों को बेचते- सरकारी मूल्य से भी कम मूल्य पर। खुदरा-व्यापारियों से वे ‘तैयार पत्ता ’ लाते, बीड़ी बांधकर मेहनताना पाते।

खजूर के पत्तों से औरतें झाडू एवं अन्य चटाई बनाती, तो मर्द खस की टट्टी बनाकर कांटाभाजी, नुआपाड़ा तक बेचने जाते।

इस प्रकार साल के बीज से तेंदू के पत्ते तक, झाडू से माकंड पत्थर तक, जंगल ने दानापानी की व्यवस्था कर रखी है। कभी मधुमक्खी के छत्ते को तोड़कर मिली हुई मधु को किसी फोरेस्ट गार्ड को भेंट देकर एवज में घर सजाने के लिये दो बल्लियों की आमदनी से कुछ नमक तथा कुछ रूपया मिल जाता था।

जंगली सुअर, सांभर, हिरण, चीतल हिरण इत्यादि कई जंगली जानवर कई काल से गायब हो गये हैं, नहीं तो पूर्णिमा के पर्व तथा शादी के उत्सव आदि शानदार ढंग से मनाये जाते। आजकल जंगल तो सरकार का है ! जंगल में रहने वाले मनुष्यों को सरकार किस प्रकार का जीव है, इस बात का पता नहीं है। फोरेस्ट गार्ड कहता है कि हम सरकार के आदमी हैं, अगर जंगल से लकड़ी चोरी करोगे तो सरकार जेल में डाल देगी, तब जेल में चक्की पीसोगे और कोड़े खाओगे। एक-दो टुकड़ा लकड़ी जलाने के लिये भी जुर्माना लगता है एक मुर्गा या पचास और सौ रूपये। जंगल में रहने वाले लोगों ने सरकार को तो देखा नहीं है, परन्तु आधी रात को बड़े-बड़े ट्रक जंगल में आते हैं, बड़े राक्षस की तरह उन्हें चट कर जाते हैं।

ताज्जुब की बात है कि इन लोगों ने सरकार को देखा नहीं है, वरना अवश्य पूछते कि इसका रहस्य क्या है ?

अब सघन वन नहीं है। पहले था जंगल को घेरते हुये नाला, ‘बूडी-जोर,’पहाड़ी नदियाँ आदि। अब दस-पन्द्रह गांव पांव पसारकर बैठे हैं। कितने सारे खेत-खलिहान थे नदी के किनारे! कितने हल-बैल, गायें, महाजन जमीनें तथा जमींदार लोग थे !

अब गांव के किसी ऊँचे टीले पर खड़े होकर देखें तो दिख पड़ता है चक्कर काटते हुये गिद्दों का झुण्ड़। उन गिद्दों के झुण्ड़ का पीछा करते हुये कोस-कोस तक नंगे पांव चले जाते थे ‘भवघूरा’ (बंजारा) लोग। बहुत दूर से दिखाई पड़ रही थी बूढ़े की भांति वह झुका हुआ एक गिद्ध। आधा कोस दूरी तक सडांध वाली बदबू आ रही थी। कुछ ही दूरी पर बैठे मिलते थे भवघूरा लोग। र्इंट के तीन टुकड़ों को जोड़कर चूल्हा बनाकर आग लगाते थे, हांडी बैठाते थे, पानी उबालते थे तथा चावल पकाते थे। मुर्दे की दुर्गंध के माहौल में भी सही समय पर भूख लगना नहीं भूलती। गिद्ध मुर्दा शरीर को छिन्न-भिन्न करने में लगे हुए थे। नोच-नोचकर खाने में उनको कभी डेढ़ दिन का समय लगता तो कभी दो दिन का। इधर उधर कुत्ते-सियार भी घूम रहे थे। पके हुये चावल खाकर, बोरे की भांति पड़े रहते थे वे पेड़ों के नीचे। दुर्गंध से नाक फटी जाती थी परन्तु वे धीरे-धीरे दुर्गंध सहने के आदी हो गये। उस समूह में से एक जन बैलगाड़ी जुगाड़ करने के लिये निकला हुआ था, तो दूसरा पत्थर पर रगड़-रगड़कर अपने छुरे की धार तेज कर रहा था। दुर्गंध को वे भूल रहे थे। सावधानी से चमड़े को छिल रहे थे। आखिर में कंकाल को चार छः आदमी बैलगाड़ी पर लादते। बैलगाड़ी ऊँची-जाति के मालिक की थी, उसकी थी एक हजार शर्तें। जैसे बैलगाड़ी अपवित्र नहीं होनी चाहिये, इसलिये बैलगाड़ी के ऊपर पुआल बिछाया जाता था। इसके ऊपर कंकाल को रखा जाता। मांस का एक कतरा भी कंकाल पर चिपका हुआ नहीं था, फिर भी दुर्गंध हड्डियों में कूट-कूटकर भरी थी। गांव के बाहर वाले दूसरे रास्ते पर बैलगाड़ी को ढकेलते हुये ले जाना पड़ता था। सीधा ‘किसिन्ड़ा’के तीन कुनिया हाट पर रहने वाले रहमन मियां के गोदाम तक। रहमन मियां भी ठहरा बड़े कायदे-कानून वाला।

“ कब की लाश ? ”

“ इतनी कच्ची क्यों ? ”

“ वजन बढ़ाने के लिये पानी में डुबाये होंगे ? ”

“ साले, चालाकी करते हो ? ”

“ आधा पैसा काट दूंगा। ”

“ जा ले जा, महीने बाद लाना। ”

बेचारे भवघूरा असहाय दिखते।

“ एक महीना बाद ? ”

“ बैलगाड़ी कहां से मिलेगी ? ”

“ रूपया कहाँ से मिलेगा ? ”

एक गाय की लाश के बदले कितना पैसा मिलेगा जो उसमें से बैलगाड़ी मालिक को दोगे और बचे हुये को बाँटा जायेगा ?

रहमन उसके गोदाम में ताला डालने का स्वांग भरता था। वे लोग इमली के पेड के नीचे बैठे रह जाते थे। सांझ ढ़ल रही थी। उनको गांव वापस जाना होगा- बैलगाड़ी मालिक को उनकी गाड़ी वापिस करनी होगी। रहमन उनकी तरफ पीठ करके अपने घर की तरफ चला जाता । वे लोग ऐसे ही बैठे रह जाते , इस इमली पेड के नीचे ।

सन्यासी...... सन्यासी.... सन्यासी रे !

जंगल में, पेड़-पत्तों में, नदी-झरनो में प्रतिध्वनित हो रही थी यह आवाज। पेड़ पत्तों से पूछ रहा था, पहाड़ पत्थरों से, तो नदी झरनों से पूछ रही थी -

“ सन्यासी को देखे हो क्या ? ”

पत्ते हवा से हिल रहे थे। आपस में बातचीत कर रहे थे। परंतु सन्यासी की माँ पेड़-पत्तों की भाषा कहाँ समझ पाती ? नहीं तो, वह खुद ही पता कर लेती सन्यासी का ठिकाना। जंगल के अंदर काफी लंबा रास्ता तय कर चली आई थी - सरसी। सूरज बीच आकाश में दस्तक दे रहा था। सरसी को डर नहीं लग रहा था। जंगल के अंदर से कीड़े-मकोड़ों की आवाजें सीं सीं सीं.... करके आ रही थी, फिर भी उसको डर नहीं लग रहा था। जंगल के साथ उसकी लड़ाई बहुत पुरानी थी। समय-असमय पर पांच कोस रास्ता तय कर जंगल के अंदर घुस जाती थी, खासकर यह पूछने के लिये कि उसका बेटा सन्यासी गया कहाँ ? इस जंगल के प्रेम में वह ऐसा फंसा कि दुबारा अपने घर की तरफ लौटा ही नहीं!

फिर एक बार थर्राते हुए गले से यह पुकार निकली- “सन्यासी... सन्यासी.. सन्यासी रे !” हवा के साथ मिलकर उसकी यह पुकार पूरे जंगल में गूँज उठी। इसके बाद सब कुछ एकदम शांत स्तब्ध। ‘शमी’ पेड़ के नीचे एक घड़ी ख़ड़ी हुई थी सरसी। आगे जायें या पीछे, दो-दो पांच के चक्कर में पड़ रही थी सरसी। सामने कुछ ही दूरी पर थी ‘उदंती’ नदी। साँप की तरह रेंगती-मंडराती हुई यह नदी आगे जाकर पत्थरों के बीच में सिमट सी गयी। नदी के उस पार फिर कुछ दूरी पर एक जंगल। जिस प्रकार जंगल के वाशिंदे नाचते समय एक दूसरे की कमर में हाथ में हाथ डालते हैं, उसी प्रकार जंगल के पेड़ों की डालियाँ भी एक दूसरे में गूंथी हुई थी। गंभारी, शीशम, सरगी के खूब सारे पेड़। बड़े पेड़, झाड़ियों से इस तरह घिरे हुये थे मानों एक राजा अपनी प्रजा से । जंगल मिला हुआ था पहाड़ों के साथ, पहाड़ चिपके हुये थे आकाश के सीने पर। पत्थर काटने वालों के गीतों की लहरी सुन पा रही थी सन्यासी की माँ। पत्थर काटने की ठक-ठक आवाज की ताल में, मर्द और औरतों के सुरों के स्वर, संगीत की उस माया में सरसी का बेटा ऐसा फंसा तथा पत्थर की खदान में गया तो फिर लौटा ही नहीं। लोगों ने तरह-तरह की बातें की, सरसी सब सुनती रही। लेकिन उसका मन नहीं मान रहा था। कभी-कभी तो उसको लगता था कि उसके बेटे को ‘सुंधी-पिशाचिनी’ ने पत्थरों के बीच छुपा दिया है। निर्दोष बच्चे को देखकर उसका लालच भड़क उठा होगा। इसलिये ठीक ‘धांगड़ा’ (किशोर)होते ही उसको चुराकर ले गयी। खूब जोर-जोर से चिल्लाकर, फिर एक बार सरसी ने पुकारा - कि कहीं पत्थरों को भेद कर इसकी आवाज अपने बेटे के कान तक पहुँचेगी। और हँसते हुये उसका बेटा पत्थरों के बीच में से लौट आयेगा।

मासूम लड़का, क्या समझेगा माँ के मन की बातें? कौन नहीं चाहता है कि उसका बेटा उसकी आँखों के सामने रहे ? इतना छोटा सा था और तब से गया है फादर इमानुअल साहिब के साथ। कितनी उम्र हुई थी उसकी - शायद सात-आठ साल, बस ? साहिब की गाड़ी ने कैम्प डाला था ईसाई बस्ती में। इस समय गांव में ‘डूबन’ पर्व चल रहा था। चार परिवार के लगभग पन्द्रह लोग ईसाई हो रहे थे। उस दिन साहिब एक-एक करके सबको आशीष दे रहा था। इसी समय किसी ने सरसी को खबर दी और पूछा- “तेरा बेटा कहाँ है, सरसी ? कोई खोज खबर की है क्या ?”

“मेरा बेटा तो घर के बाहर खेल रहा था। जमुना काकी के आंगन में खेल रहा होगा।” जबाब दी थी सरसी - "यहीं कहीं मेरा बेटा किसी कोने में होगा।”

“तू इधर दीवारों पर गोबर पोतती रह, मिट्टी लगाती रह, चित्र बनाती रह। और उधर तेरे बेटे को ईसाई बस्ती में ले जाकर ईसाई बना रहे हैं ?”

“क्या बोला ?” मिट्टी-गोबर से लथपथ हाथों से पुआल के लुंधों को फेंककर जल्दी से बाहर आगई। लड़का तो माँ का पल्लू पकड़ कर पीछे-पीछे भागता रहता था, कब और कैसे इतना लंबा रास्ता तय कर चला गया ईसाई बस्ती में ? “तू सच बोल रहा है तो भईया ?” बोलने लगी थी सरसी।

“झूठ क्यों बोलूँगा ? मैं उसी रास्ते से आ रहा था। मैने देखा कि साहिब की बीवी ने तेरे बेटे को टेबल के उपर बैठाया था।”

“भाई, अगर जब तूने उसे देखा ही था तो खींचकर क्यों नहीं ले आया ?”

सरसी का गला सूख गया। सोच रही थी - साहिब की बीबी ने उसके बेटे को टेबल के उपर क्यों बैठाया ? हम लोग तो अछूत हैं। कंध, शबर जाति के लोग भी हमारे हाथ का पानी नहीं पीते हैं। सभी जात-पात मानते हैं। इमानुअल साहिब कहता है कि जात-पात कुछ भी नहीं होती। मनुष्य की जाति एक है। ईसाई बनने पर जात-पात का कोई फर्क नहीं रहता। हम लोग सभी ईश्वर के पुत्र हैं और ईश्वर का सबसे प्यारा पुत्र है यीशु। परमपिता परमात्मा के पास सभी समान हैं। इमानुअल फादर के भाषण को कई बार सरसी ने सुन रखा था दूर से। सुनने में अच्छा लगता था। लगता था कि सही बातें बोल रहा था। लेकिन ईसाई होने की बात सोचने से उसका मन खराब हो जा रहा था।

किसान, खड़िया जाति के लोग ईसाई होने के बाद भी जात-पात को मानते है। उनको वह छूते भी नहीं है। सरसी के दिल की धड़कन बढने लगी। सन्यासी के साथ अगर कंध लड़के मार-पीट करेंगे तो क्या होगा ? पसीने से लथ-पथ होकर ईसाई बस्ती की तरफ भागने लगी सरसी। सन्यासी का बाप वहां नहीं था। वह गया हुआ था ‘चूनाखली’ गांव, किसी काम से। और किससे बोलती वह ?

“भईया, तू उसे खींच कर क्यों नहीं ले आया ?”

“वह आने से तो। तेरा बेटा तो एक कागज के पन्ने पर कुछ लिख रहा था, साहिब की बीवी गाल पर हाथ रखकर देख रही थी उस कागज को।”

“ऐसा क्या लिख रहाथा ? भाड़ में जाये उसका लिखा हुआ। क्या पढ़ा है ये मुआ ! जो साहिब की बीवी को दिखलायेगा ? तू कहीं मुझसे झूठ तो नहीं बोल रहा है, भाई ? बता न, कहाँ गया मेरा बेटा ? मेरा बेटा, मेरा प्यारा सन्यासी, मेरा बेटा, मेरा लाड़ला। अगर उसके पिता को पता चल गया तो मेरी गरदन काट देगा। मेरे दो टुकड़े कर देगा।” रुआंसी होकर बोली थी सरसी।

“मेरी सौगंध, सरसी, तुझसे क्यों झूठ बोलूँगा ? मैं उसे बुलाकर तो ले आता, लेकिन तू समझ नहीं रही है। तेरा बेटा अभी छोटा है, चलेगा। मेरे जैसा बुजुर्ग आदमी अगर एक ईसाई बस्ती में घुसा, तो ये बस्ती वाले क्या मुझे छोड़ देते ? कभी नहीं।”

सरसी पागलों की भांति भागने लगती। साहिब की बीबी अगर उसके बेटे को ईसाई बना देती है तो बात खत्म। उसका पति उसे रहने नहीं देगा। सरसी बेसुध-सी हो जाती। होश होता तो शायद यह सोचती कि इस बस्ती में उनके लिये जाना मना है। वह जानती थी की अगर किसी ने कहीं धान की कुलथी सुखायी हो, और अगर सरसी उसे छू भी लेती, गलती से, तो लोग उसे मारने दौड़ेंगे। क्या मर्द, क्या औरत सभी एक साथ टूट पडेंगे ? लेकिन सरसी के रहते उसका बेटा कैसे ईसाई हो जायेगा ? दूर से खड़ी होकर सरसी देख रही थी - साहिब की बीवी कुर्सी पर बैठी हुई थी। बकरी के दूध की तरह गोरा-चिट्ठा चेहरा। साड़ी तो जरुर पहन रखी थी, पर इस देश के औरतों की तरह नहीं दिख रही थी। लाल होंठ, सोने जैसे बाल, हँसते हुये उसके बेटे के कान में मंत्र फूँक रही थी। ‘ डूबन मंत्र’? कैम्प के भीतर जाने में डर लग रहा था सरसी को। वह सब दूर से खड़ी होकर देख रही थी। उसका बेटा कलम पकड़ कर लिख रहा था ध्यान-मग्न होकर। सन्यासी कभी स्कूल तो गया नहीं था, कभी खड़ी भी नहीं पकड़ी थी। एक कलम पकड़कर ऐसी क्या ज्ञान की चीज लिख रहा है वह? उसके बेटे को वश में तो नहीं कर लिया है साहिब की बीबी ने ?

कौन जानता है ‘डूबन मंत्र’ पढ़ने से मनुष्य वश में नहीं हो जाते होंगे ? नहीं तो, आधे गांव के लोग, गुट के गुट बनाकर, दादा-परदादा सहित सभी, समय की मर्यादा तोड़कर ईसाई क्यों बन जाते ?

लगता है उसके बेटे को किसी ने सम्मोहित कर लिया है। वह कुछ भी नहीं कर पा रही थी। शेर के मुंह से उसके बेटे को निकालने का साहस रखती थी सरसी, पर पता नहीं क्यों साहिब की बीबी को देखकर उसे डर लग रहा था।

सरसी को पता था, सन्यासी का पिता अपने बेटे को लेकर खूब सारे सपने संजोये रखता था। पढ़ाई करेगा, कलेक्टर बनेगा। उस समय से जब सन्यासी उसके पेट में था। उसका बाप सपना देखता था कि उसका बेटा बड़ा साहिब बना है, कलेक्टर बनकर, जीप में बैठकर, धूल उड़ाते हुये गांव में आया है, उनके जैसे मनुष्यों को न्याय दिलाने के लिये। इसलिये वह सन्यासी को कभी सन्यासी कहकर नहीं बुलाता था, पुकारता था कलेक्टर साहिब के नाम से। उसको पूछा करता था कलेक्टर का मतलब जानती हो, सरसी ?

“मैं कैसे जानती ?”

“कलेक्टर होता है हमारे मुल्क का राजा, समझी ? तेरा बेटा कलेक्टर बनकर हाथी की पीठ पर घूमेगा।”

“तू खाली सपना देखता रह,समझे ” बोली थी सरसी। “एक वक्त का भोजन तो एक वक्त का उपवास। उसमें इतने सारे सपने ?”

“सपना कौन नहीं देखता है ? बोल तो सरसी ! तू नहीं देखती है क्या ?”

सन्यासी की माँ अपने पति को चिढ़ा रही थी, लेकिन क्या वह सपने नहीं देखा करती थी अपने पहले बेटे को लेकर ? वह भी चाहती थी कि उसका बेटा भले ही कलेक्टर न हो, परन्तु गांव-गांव घूमकर लाशों की हड्डियाँ इकट्ठा कर पेट न पाले।

बड़े ही बुरे दिन में हुआ था सन्यासी का जन्म। बस्तियों के बीच में हो रही थी आपसी लड़ाई-झगड़ा, मारपीट। घनश्याम सतनामी की बीबी ने अपनी मूर्खता से इस झमेले को बढ़ा दिया था। भरी दुपहरी में जब, ऊपर वाली बस्ती वालों के तालाब से नहाकर वापिस आ रही थी ‘सुना’। यह तालाब सतनामी लोगों के लिये नहीं था। जानते हुये भी ऐसी भूल क्यों की थी उसने? उसको ही मालूम होगा ? सुना को आते देख लिया था बटो नायक ने। जब सुना पत्थर की सीढ़ियों से होकर आ रही थी, चुपचाप बिना आवाज के, दबे पांव आ जाना चाहिये था। लेकिन झगडा करने लग गयी वह झगडालू औरत बटो नायक के साथ। बोलने लगी "छुप-छुपकर तालाब के नीचे प्यार फरमाते हो तो अछूत नहीं होते ? और इतने बड़े तालाबमें, मैं एक बार क्या नहा ली तो तुम अछूत हो गये।" सुना थी ही बड़ी मुँहफट। बटो नायक की पत्नी होते हुये भी वह सुना की तरफ ललचायी नजरों से देखता था। ऐसी बातों को तो छुपा कर रखना चाहिये था लेकिन उसने तो पूरी की पूरी पिटारी ही खोल दी।

और एक सज्जन की सज्जनता हो गई पूरे जग में जाहिर। सुना एक पल के लिये भूल गयी थी अपने मान-सम्मान की बात को। बटो नायक के बारे में वह बेशर्मी से बोलती गयी। एक की बात पांच को पता चली। बस टूट पड़े ऊपर वाली बस्ती वाले, लाठी फरसा लेकर, उनकी बस्ती पर। बढ़ते-बढ़ते बात इतनी बढ़ गई कि हाथापाई में सुना के देवर ने बटो नायक के बेटे को जान से मार दिया। तब होना ही क्या था ? ऊपर वाली बस्ती वालों ने क्रोधित होकर उनकी बस्ती में आग लगा दी। धूं-धूं करके आग जलने लगी।

घर-द्वार सब जल गये। चारों तरफ रोने-धोने की आवाजें आ रही थी। पुलिस बिना सोचे-समझे उनकी बस्ती से लोगों को पकड़ कर ले जा रही थी। अंतरा उसी समय किसिंडा से आकर घर पहुँचा था। उसके ऊपर भी उतरा, ऊपर वाली बस्ती वालों का गुस्सा। इतना मारा, इतना मारा कि उसका एक पैर टूट गया। वह लंगड़ा कर पांव घसीट-घसीटकर चल रहा था। दर्द के मारे वह कुछ समझ भी नहीं पा रहा था। इतना होने पर भी पुलिस उसको बांध कर ले गयी थाने।

सुना मुंह छुपाकर भाग चली थी उसके बाप के घर- कांटाभाजी। उसकी सास चिल्ला-चिल्लाकर उसे गाली दिये जा रही थी, सिर से पांव तक। शहर की लड़की को बहू बनाई इसलिये आज यह नौबत आयी। वह अपनी किस्मत को गाली दे रही थी। इस समय सरसी थी बैचेन ओर बेकाबू। उस समय पेट के अंदर से निकलने का रास्ता ढूंढ रहा था सन्यासी। सिर के ऊपर छत नहीं थी। छप्पर सब गिर गया था। बड़ी बरगाह से धुआं उठ रहा था। चारों तरफ से रोने की आवाजें आ रहीं थी पूरे बस्ती भर में। सिर छुपाने के लिये जगह नहीं थी इसलिये सरसी की सास, उसे महुआ के पेड़ के नीचे, उसके लिये व्यवस्था कर रखी थी। सब अपना-अपना बासन, बरतन, कपड़ा-लत्ता, छप्पर के नीचे में ढूंढने में व्यस्त थे। कोई-कोई तो अपना घर भी सजाना शुरु कर दिये थे, तो कोई कोई अपने घर की लीपापोती भी शुरु कर दी थी। पुरंदर बुढ़ा चिल्ला रहा था - “ऐसे ही रहने दो, कलेक्टर को आकर सब कुछ देखने दो। साले लोगों ने क्या हाल बनाया है हमारा ? तुम लोग अगर लीपापोती कर घर को सजा दोगे तो कलेक्टर देखेगा क्या ? छिलका ? तुम लोगों को घर बनाने के लिये पचास-सौ रूपया मिलता, वह भी नहीं मिलेगा।”

सरसी की सास अपना टूटा हुआ घर सजाने में लगी हुई थी। इतनी बुरी हालत में उसकी बहू का प्रसव होने जा रहा था। बच्चा निकलने के लिये रास्ता देखने लगा। कहाँ रहेगा उसका नाती ? बुढ़ा पुरंदर की बात को अनसुना कर काम में जुट गई थी, वह। अंतरा को पकड़ लिया था पुलिस ने। सरसी का मन उदास हो गया था। पुरंदर बोल रहा था पुलिस अंतरा को अस्पताल भेजेगा। उसका इलाज करवायेगा। सरसी के पेट को जैसे भीतर में कोई नोच रहा था। पेट फटने जैसा हो रहा था। आंसूओं से उसकी आँखे पसीज गयी थी। चारों तरफ उसे अंधेरा ही अंधेरा नजर आ रहा था। “कहाँ है मेरी माँ? मुझे पकड़, मुझे बचा !” दर्द से चीत्कार रही थी वह। पास में कोई नहीं था उस चीत्कार को सुनने के लिये। अपनी जान बचाने के लिए उसने महुआ के पेड़ के तना को जोर से जकड़ लिया था। पास में बैठी हुई थी काली कुत्ती, पूंछ हिलाकर कूं-कूं कर कुछ कहना चाहती थी। शरीर पसीने से तरबतर हो गया था। आँखों से धुंधला-धुंधला दिखाई दे रहा था। शरीर से कपड़े भी गिर गये थे। सरसी आकाश की भाँति नंगी, मिट्टी की तरह सहनशील हो गयी थी। दोनों हाथों से कोशिश कर रही थी शरीर को ढंकने की।

“हे सूर्यदेव!आप अपनी आँखे बंद क्यों नहीं कर लेते हो ?”

“हे भगवान!औरतों को यह तकलीफ मत दो।” आँखों से निरंतर आँसूओं की झड़ी लग रही थी। जैसे जमीन के भीतर से कोई झरना फूट पड़ा हो। देखते-देखते वातावरण कंपित हो उठा “ऊँआ...ऊँआ..” की आवाज से।

“अरे, मेरा प्यारा कुलदीपक, आ गया, आ गया!” भागती हुयी मिट्टी से सने हाथ लेकर पहुँच गयी सरसी की सास। अभी जन्मे बच्चे के लिंग का अनुमान कर हाथ धोने के लिये भागती हुयी गयी। इधर सरसी, फिर भी टूटती ही जा रही थी। बूढी ने झटपट आकर सन्यासी को जमीन से उठा लिया। अभी तक बच्चे की नाड़ी, फूल से अलग नहीं हुई थी। उस नाड़ी से बच्चा अभी तक माँ से जुड़ा हुआ था।

“दबा, दबा जोर लगा, जोर लगा” बूढी ने समझाया सरसी को,

“मेरी तरफ क्या देख रही है, बावरी ?”

“हे माँ! अब मैं क्या करुँ ? किसको बुलाऊँ? हे अंतरा, तेरी औरत को आज कोई नहीं बचा सकता। तेरी औरत आज मरेगी।”

“तेरी दुनिया को मेरे गले थोपकर छोड़ कर जा रही है तेरी औरत, देख !”

“बच्चे को और कितना देर चिपका कर रखोगी ? दे जोर दे, जोर दे।”

बड़ी ही दयनीय दशा थी उसकी। बूढ़ी की गोद में बच्चा अपनी माँ की तरफ टुकर-टुकर देख रहा था। गोद में लेते ही प्यार करने की इच्छा उमड़ आयी। महुआ के पेड़ का सहारा लेकर सरसी खूब जोर से अपने पेट पर दबाव डालने की कोशिश कर रही थी। निर्दोष बच्चे की खातिर उसे जिन्दा रहना होगा। वह जिन्दा रहेगी अपने कलेक्टर के लिए। देखते ही देखते एक तेज तूफान थम-सा गया। और उसके चेहरे पर छा गयी, एक मंद-मुस्कान। सास ने कपड़े को उसके शरीर पर लिपटा दिया और उसने तेज समुद्री-सीपी की खोल से उसकी नाड़ी काट दी। नाती को पाकर, बूढी की खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा। एक पल के लिए वह भूल-सी गयी की उसका बेटा पुलिस की हिरासत में है, वह कष्ट में है। लेकिन सरसी का मन तड़प रहा था अंतरा के लिए। पास में अगर होता तो कितना खुश होता ! मारपीट से उसका एक पैर टूट गया था। अंदर में हड्डी टूटी कि क्या, पता नहीं ? किंसिंड़ा में अगर कुछ देर रूक जाता, तो जरुर बच जाता। कितना कष्ट हो रहा होगा बेचारे को ? इतना ही नहीं, फिर पुलिस भी घसीट कर लेगयी। हत्या का केस लगा हुआ है, पता नहीं कब छूटेगा ? क्या उसे इतने बुरे समय में बेटे को जन्म देना था ? किसी भी तरह से वह अंतरा को खबर कर पाती कि उसके बेटे का जन्म हुआ है। जेल में होते हुये भी वह कितना खुश हो जाता। उसका बेटा कलेक्टर होगा, फिर से नये सपने बुनना शुरू कर देता।

सपने देखने में कोई किसी को रोक सकता है भला ! जिस दिन अंतरा जेल से छूटकर आया था, बेटे को लेकर खूब देर तक दुलार करता रहा।

“ आज से तेरा नाम कलेक्टर, समझे ? सरसी, आज से मेरा बेटा कलेक्टर।”

सुकोमल-सा नन्हा कलेक्टर बचपन से ही उदास-सा रहता था। इधर-उधर कहीं भी, ध्यान नहीं। खाना मिला तो ठीक, नहीं मिला तो भी ठीक। न किसी प्रकार का कोई लोभ था, न किसी प्रकार की कोई जिद। जहाँ बैठा तो वहाँ बैठा ही रहता। कहीं उसका बेटा सन्यासी न बन जाये। इस बात का डर सरसी को बराबर सता रहा था। बच्चों के साथ खेलने के लिये उसको जबरदस्ती गांव में भेजा जाता था। इन्हीं गुणों को देखकर, वह उसे प्यार से बुलाती थी सन्यासी। लेकिन सन्यासी एक दिन साहिब के कैम्प में चला जायेगा, यह उसको पता नहीं था। कभी-कभी यह लड़का जंगल की तरफ चला जाता था। नदी के किनारे बैठ जाता था। लेकिन साहिब के कैम्प में ?

उस दिन सन्यासी कागज पर क्या-क्या लिख रहा था ? लिखते ही जा रहा था। साहिब की बीवी उसे ध्यान से देख रही थी। साहिब की बीवी के चंगुल से कैसे छुड़ा पायेगी उसको ? यह समझ नहीं पा रही थी सरसी। पेड़ों से, आकाश से, नदी से, चिडियों से बैचेनी के साथ पुकार उठती थी सरसी “सन्यासी, सन्यासी रे..।” जानते हुये भी उधर हिम्मत नहीं कर पाती थी।

जैसे ही सन्यासी का ध्यान भंग हुआ तो कागज से मुंह उठाकर इधर-उधर देखने लगा। कुछ ही दूरी पर खड़ी थी उसकी माँ। कुर्सी के ऊपर से कूदकर भागने लगा अपनी माँ को मिलने।

बेटे को गोद में लिये, झूठा-मूठा मारते हुये, उस पर अपना अधिकार जताते हुये, उसके शरीर पर से धूल झाड़ते हुये, क्या-क्या सब झाड़ती ही जा रही थी सरसी ? कुरता नहीं, खुला बदन, पहन रखी थी सिर्फ एक पैण्ट। फिर भी पीठ पर से उसके, क्या-क्या झाड़ती ही जा रही थी सरसी। क्या झाड़ रही थी ? क्या ईसायत से भरी धूल, या साहिब की बीवी की काली नजर ?

दोनों वापिस जा रहे थे अपने घर की तरफ। साहिब की बीवी हाथ हिलाकर बुला रही थी। सरसी थम गयी। वह किसको बुला रही है, वह उसको या उसके बेटे को ? फिर क्यों बुला रही है ? क्या कर दिया है उसके बेटे ने ऐसा ? देखते हुये भी, अनदेखी कर मुँह घुमाकर वहाँ से चली आई सरसी। साहिब की बीवी, चौकी से उठकर, पीछा करते हुये उसके पास पहुँच गयी। पास्टर पाढी बुलाने लगे “ऐ चमारन ! जरा सुन तो ।”

पास्टर का चेहरा जाना पहचाना लग रहा था। सरसी ने थोड़ी हिम्मत जुटायी और दो कदम पीछे लौटी और पूछने लगी “मुझे बुला रहे थे क्या? मेरा बेटा ईसाई नहीं बनेगा। इसका पिता घर पर नहीं है। वह चुनाखली गया हुआ है।”

उसे लग रहा था जैसे कि उसने अपने बेटे से हाथ धो लिया हो। रूंआसी होकर बोली “मैं जा रही हूँ, नहीं नहीं, उसका बाप घर पर नहीं है।” कुछ दूर आकर उसने तड़ाक से बेटे की पीठ कर मुक्का जड़ दिया। बोलने लगी “मर क्यों नहीं गया ? कैम्प में जो चला गया ?” सन्यासी जोर से भैं भैं कर रोने लगा। पास्टर पाढी हँसते हुये बोले “उल्टा-पुल्टा अंटसंट क्या बक रही हो ? पहले सुन तो सही, मैम साहब क्या बोल रही है?”

साहिब की बीवी ने एक कागज लाकर दिखाया जिस पर बने हुये थे एक-एक करके तोता, मैना, गाय, भैंस तथा फूल के चित्र। जैसे सरसी बनाया करती थी अपने घर की दीवारों पर। इतना छोटा-सा बच्चा कितनी अच्छी तरह से सीखा है अपनी माँ से।

“मैम साहिब, बहुत खुश है, तेरे बेटे को माँग रही है, दे दे तो आदमी बना देगी।” सरसी चकित रह गयी। क्या इसका बेटा आदमी का बच्चा नहीं है? बड़ा होने पर क्या वह कोई काम धंधा नहीं कर लेगा ? ये मैम साहिब फिर इसको क्या आदमी बनाएगी ? सरसी को ड़र लग रहा था। उसको पता था कि वह एक डायन है। दूसरों के बच्चों को इतना लाड़-प्यार कर रही है। डायन नहीं, तो फिर क्या ? बहला फुसला कर ले जायेगी उसके बेटे को। रात भर खून चूसेगी। बेटे को मौत के मुँह से जैसे निकाल कर लायी हो, यह सोचकर भागने लगी सरसी। भागते-भागते दो और मुक्के जड़ दिये बेटे की पीठ पर। दाँत दबाकर माँ की मार को सह गया सन्यासी। दोनों के अगला मोड़ पार होने पर सन्यासी ने अपनी बन्द मुट्ठी खोली । माँ ने देखा उसकी हथेली में थी दो चाकलेटें।

जैसे बादल चारों तरफ से आकाश में घुमड़-घुमड़कर घिरते जाते हैं, वैसे ही अंदरूनी हिस्सों से अजीब-सा दर्द घिरता जा रहा था अंतरा के शरीर में। पाँवों की पिण्डलियों में दर्द मानों चिपक-सा गया हो। पांव उठाते समय ऐसा लग रहा था मानो पहाड़ उठा रहा हो। ऐसे ही उसके पाँव कमजोर थे। कई दिनों से वह लंगड़ा कर चल रहा था। उपर से, बुखार ने उसे और कमजोर कर दिया था। रास्ता बचा था केवल आधा कोस, फिर भी चलने की जरा भी इच्छा नहीं थी उसकी। शाम ढ़ल चुकी थी। सियारों के झुण्ड के झुण्ड अपने बिलों से बाहर निकल कर ‘हुक्के हों’ की आवाज दे रहे थे। और थोड़ी ही दूर पर था गांव का एक श्मशान घाट। उसके पीछे थी उनकी बस्ती। गांव से जरा हटकर, अलग-थलग बसी हुई थी उसकी बस्ती।

एक पल के लिये अंतरा को आराम करने की इच्छा हो रही थी। अगर बैठ गया, तो रात हो जायेगी। एकबार बैठा, तो फिर उठने का मन नहीं होगा। फिर आगे जाने के लिये उसे नयी हिम्मत जुटानी होगी। उसको लग रहा था कि कहीं प्राण न निकल जायें। प्यास के मारे गला सूखा जा रहा था। आँखे जल रही थी। ठंड से शरीर काँप रहा था। अंतरा को ऐसा लगा कि यह सब उसके अपने कर्मों का फल है। हर महीने उसे बुखार आता है। सूद-मूल सहित शरीर से बची-खुची ताकत व उम्र खींच ले जाता है। पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ था? जिस दिन से उसने पाप किया, मानों उसी दिन से यह बुखार पकड़ा है कि छूटता ही नहीं। अंतरा किसी को कुछ बोलता नहीं, पर उसे मालूम है कि यह उसके पाप की कमाई है।

हरबार सरसी धतूरा-जड़ के साथ कुछ जड़ी- बूटी मिलाकर पिला देती थी अंतरा को बुखार आने पर। कड़वी दवा पीते समय उल्टी की उबकियां आने लगती थी। कभी-कभी तो उसे उल्टी भी हो जाती थी। दस-पन्द्रह दिन तक अंतरा के शरीर में बुखार घर कर जाता था, फिर अपने आप छूट जाता था।

सरसी कहती थी “चलो, उदंती के उस किनारे, डाक्टर के पास चलते हैं, दवा-दारु के लिये। दवा- सुई लगने से तुरन्त ठीक हो जाओगे।”

लेकिन सुई की डर से अंतरा हमेशा आनाकानी करता रहता था जाने के लिये। सरसी उसको समझाती। लेकिन अंतरा टस से मस नहीं होता। समझा-समझाकर थक जाने के बाद, सरसी मुंह पर अपना कपड़ा ढाँप कर सिसक-सिसककर रोती। रोते-रोते अपनी किस्मत को कोसती। “चार-चार बच्चों को जन्म देने के बाद भी, मैं बांझ जैसी यहाँ बैठी हुई हूँ। एक-एक कर सब मुझे छोड़कर चले गये। जब मैं मर जाऊँगी, तब तुझे पता चलेगा? एक बूंद पानी देने के लिये भी कोई नहीं होगा। तब मुझे याद करना।” रोते- बिलखते कहने लगी सरसी “मेरे सभी लाड़लों, कहाँ चले गये? कहाँ गायब हो गये? मैं अभी तक क्यों जिन्दा हूँ? मुझे मौत क्यों नहीं आ गयी?” भरे हृदय से फूट- फूटकर वह रो पड़ी।

उसकी रोने की आवाज सुनकर रास्ते में चलते हुए लोग एक पल के लिये रुक जाते थे। अंतरा चिल्ला कर कहता “चुप हो जा, रोना बंद कर। एक ही बात कितनी बार दुहराती रहेगी। जो हमारी किस्मत में है, वही होगा। बता तो सही, इस दुनिया में कौन किसका है? न मैं तेरा हूँ, न तू मेरी है। यह सब मायाजाल है। समझी, कलेक्टर की माँ। माया में ही सारा संसार चल रहा है। कवि कहता है-

“राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट

अंत काल पछताओगे, प्राण जायेंगे छूट।”

बुखार से पीड़ित होते हुये भी, राग से कभी-कभी आधा एक पंक्ति सरसी को सुनाता। आश्रम से सीखा हुआ दर्शन, कुछ सरसी को सिखाने की कोशिश करता।

रोना बंद कर सरसी गुस्से से उठ जाती। उसकी गुस्साई चाल देखने से आग-बबूला हो उठता अंतरा। पीछे से भागता हुआ आकर उसकी पीठ पर जोर से एक मुक्का जड़ देता वह।

“ राँड कहीं की! कितना पैसा रखी है? जो डाक्टर के पास जाने की बातें करती है। डाक्टर, क्या तेरा पति है, जो मुफ्त में दवा-दारु करेगा?”

ऐसा ही कभी रोना, तो कभी हँसना। कभी झगड़ा, तो कभी निराशा के साथ जीवन बिताते थे अंतरा व सरसी। बुखार हर महीने आता रहता था पारापारी, फिर अपने आप छूट जाता। जाते समय शरीर को और ज्यादा कमजोर कर जाता।

अंतरा का मुंह सूख कर पिचक-सा जा रहा था। वह घर न जाकर, एक लालटेन की रोशनी की तरफ चलते चला जा रहा था। आज उसके हाथ में कुछ नगद रोकड़ रूपया था। किसिंडा जाकर रहमन मियां के गोदाम में हड्डी ढोकर कमाया था। आज उसको सरसी के सामने हाथ फैलाना नहीं पड़ेगा। यह औरत भी कुछ कम नहीं है। पैसा के बारे में बात की नहीं, कि इधर-उधर की बकवास शुरु कर देगी। कभी बक्सा के नीचे, तो कभी हांडी के पीछे छुपाती फिरती है। पैसा मिला तो मिला, नहीं तो नहीं। इन औरतों का विश्वास नहीं करना चाहिये। ब्रहृा, विष्णु, महेश्वर भी इनके अंदर की बातों को समझ नहीं पाये।

अंतरा ने एक बार हाथ घुमाया, अपनी धोती के खोंसे पर। पता नहीं क्यों उसे अजब-सी फूर्ति लगने लगी थी, पैसों के ऊपर हाथ लगते ही? दोनों पांव से लंगड़ाते हुये पहुंच गया वह अपने बस्ती में। घर की तरफ नजर भी नहीं डाली। बढ़ता गया कलंदर किसान की दुकान की तरफ। वह कलंदर की दुकान ही नहीं, उसके प्राण वहां पर लटके हुये हो जैसे। वहाँ नहीं पहुंचा तो उसके प्राण निकल जायेंगे। अजीब-सी बैचेनी उसे खींचकर ले जा रही थी। कुछ ही कदम की दूरी बाकी है। उसके बाद उसकी जीभ भीगेगी। दुकान के बाहर से कलंदर को आवाज दी। बाहर लकड़ी की बेंच के उपर फोरेस्ट-गार्ड़ बैठा हुआ था। अंतरा उसकी तरफ देखना भी नहीं चाहता था। उसको देखते ही अंतरा के सिर पर भूत सवार हो जाता था। “ये साला... यहाँ क्यों बैठा है? हरामजादा, मरता क्यों नहीं है?”

“एक बीड़ी और माचिस की डिब्बी फेंक तो कलंदर।”

“तू लाटसाब है क्या रे! जा हट, बीड़ी-फीड़ी कुछ भी नहीं है।”

“मुफ्त में दे रहा है क्या? जो इतना गुस्सा हो रहा है।”

धोती के खोंसे में से निकालकर गर्व के साथ अपनी पूँजी को दिखा रहा था अंतरा।

“पहले का बाकी, आज चुकता कर देगा तो?”

अंतरा कुछ नहीं बोल पाया। पैसों से उसको भारी मोह हो गया था। कलंदर बोला “दे दे, पैसा निकाल।”

अंतरा ने अपने खोंसे में से दस रुपये का एक नोट निकाला।

“ले, बीड़ी दे और दारु दे तो” बेटा कलंदर से बीड़ी पाकर अंतरा ने दम मारा। नाक, मुंह से धुंआ छोड़ते हुये बोला “एक बोतल दारु भी दे।”

“क्यों बे, आज चोरी डकैती कर कुछ कमा लिया है क्या?” फोरेस्ट-गार्ड ने ही-ही हँसते हुए पूछा।

“इस गांव में क्या चोर, डकैतों की कमी है, जो मैं चोरी करने जाऊँगा? भद्र चोर तो यहाँ भरे पड़े हैं!” यह तीर उसने फोरेस्ट-गार्ड की तरफ देखकर मारा था। इतनी देर तक फोरेस्ट-गार्ड बेंच के उपर बैठ तली हुई मछलियाँ के साथ दारु खींच रहा था। अंतरा की बात सुन मुंह उठाकर उसकी तरफ देखने लगा।

“साले चमार! बहुत बड़ी-बड़ी बातें बोलना सीख गया, बे।”

“मुझको चोर डकैत बोलेगा तो नहीं बोलूंगा क्या? मारेगा मुझको तो, और बोलूंगा, सबके सामने बोलूंगा।”

“साला, भिखमंगा, भिखारी। गाय का मांस खाने वाले चांडाल, क्या बोला रे, मेरे को?”

अंतरा को मारने के लिये फोरेस्ट-गार्ड बेंच से कूदकर आ रहा था, अपने आप को संभाल नहीं पाया, गिरते-गिरते बेंच के ऊपर धड़ाम से बैठ गया।

कलंदर किसान के लिये यह दुकानदारी का समय था। वह नहीं चाहता था कि इस समय पर कोई भी झमेला हो। वह भी फोरेस्ट-गार्ड को पसंद नहीं करता था। उस पाजी की असलियत उसे ठीक से मालूम थी। फिर भी लोहे को चबाकर अपने दांतों में दर्द क्यों बढ़ायेगा? अंतरा को धमकाते हुये बोला “जा, जा, घर भाग। बेकार में यहाँ झमेला मत कर।”

“मैं क्यों जाऊँ? नकद देकर हक के साथ पीने आया हूँ। यह क्या उसके बाप की दुकान है?”

फोरेस्ट-गार्ड बार-बार उठने की कोशिश कर रहा था, पर उठ नहीं पा रहा था। उस समय वह गले तक उंडेल चुका था। पता नहीं, होश होता तो अंतरा को शायद पीट-पीटकर, मार-मारकर चमड़ा उधेड़ देता। धीरे-धीरे फोरेस्ट-गार्ड का अधमरा शरीर टेबल के उपर लुढ़क गया। यह नमूना भी कुछ कम नहीं है। यही तो जंगल का सबसे बड़ा दुश्मन है। जंगल को तो बेच कर खा गया। साथ में, गांव भर के लड़के-लड़कियों को भी बेचकर गंजाम में अपनी हवेली बना ली।

नशे में धुत्त था धीमरा। बोलने लगा “इसके मुंह में तो मूतना चाहिये, साले के।”

कलंदर झूठ-मूठ का गुस्सा दिखाते हुये बोला “साले लोग, ऐसा बकर-बकर करते रहोगे, तो भागो यहाँ से। मैं दुकान बंद करुंगा।” बोलते-बोलते घुस गया अपनी छोटी सी गुमटी के अंदर।

“क्यों जायेंगे हम लोग? कब से जीभ सूखी-सूखी लग रही है? कलंदर, दारु नहीं है तो, महुली दारु तो दे दे।”

कलंदर, चमार और दूसरे अछूतों के लिये अलग गिलास रखा करता था। आजकल आठ-दस कोकाकोला की बोतलों भी रखने लगा था। चमारों के लिए अलग बोतल रखता था। आधे बोतल से थोड़ा ज्यादा दारु लाकर कलंदर ने नीचे जमीन पर रख दिया। “ए लंगड़ा! तेरा भी पैसा काट दिया, हाँ”

“थोड़े-से चने नहीं दोगे क्या?” संकुचित होते हुये अंतरा बोला।

“चना क्या फोखट में मिलता है?”

“फोरेस्ट-गार्ड को तो भूजा हुआ मछली दे रहा है, और हम लोगों के लिये मुट्ठी भर चना भी नहीं?”

“ऐ, बोल रहा हूँ मेरे साथ किचर-किचर मत कर। जा, तू यहाँ से! तेरे रूपये के लिये मैं क्या मर रहा हूँ?”

कलंदर की नजर थी फोरेस्ट-गार्ड की जेब की तरफ। मुट्ठी भर रूपये आधा बाहर निकले हुये थे। अंतरा को यह बात ठीक से मालुम थी कि कलंदर चिल्लाने से भी मुट्ठी भर चने जरुर देगा। अधिक से अधिक एक रूपया ज्यादा लेगा। सच्ची में अंदर जाकर मुट्ठी भर चना कलंदर निकालता है, पत्ते के दोने में। और फेंक देता है अंतरा की अंजलि में, और बोलता है

“पहले दो रूपया निकाल, चल”

इतने समय तक, अंतरा देशी दारु का स्वाद ले चुका था। दो चना मुंह में डालकर दो-घूंट दारु और उंडेल दिया था।

”ए कलंदर! एक गिलास दारु और दे।”

कलंदर दुकानदारी के तौर-तरीके अच्छी तरह जानता था। अंतरा के खोंसे में मुट्ठी भर पैसा देख चुका था। धीरे-धीरे वह पूरा पैसा खींच लेगा, अंतरा को इस बात का पता भी नहीं चलेगा। कलंदर बोला “हो गया, हो गया, और मत पी, तू अभी घर जा। तेरी घर वाली तेरा इंतजार करती होगी, यार।”

“बुखार से काफी कष्ट पा चुका हूँ रे कलंदर। बाबू , तू दे तो, मेरी बात सुन, शरीर में से पीड़ा और थकान दूर हो जाने दे।”

कलंदर दूसरे पियक्कड़ों को लेकर व्यस्त था। पीने के बाद सभी दूसरे लोक के निवासी हो जाते थे। इन सभी निवासियों को, कठ-पुतलियों की भाँति नचा रहा था कलंदर, विश्वनिंयता बनकर। इसी बीच में आ जाते हैं और दो तीन पियक्कड़, कलंदर की गुमटी में। वह नये ग्राहकों को अपने वश में करने के लिये लगा हुआ था। तुरंत कलंदर ने एक गिलास महुली लाकर उसकी गिलास में डाल दिया। इतने समय तक, अंतरा से बीस रूपया खींच चुका था कलंदर। फिर भी, और दस रूपया माँगने लगा। चना खाया, बीड़ी पी, दारु पिया। ऊपर से महुली भी दिया बिना कुछ बोले अंतरा ने पांच का एक नोट कलंदर की तरफ बढ़ा दिया। महुली की एक घूँट मुंह में गया कि नहीं उसे अपनी पुरानी दर्द भरी यादें ताजा हो गयी। चिल्लाकर बोलने लगा -

“मेरा डाक्टर कहां गया रे तू?”

धीमरा नशे में धुत्त था, बोला-

“क्या रे अंतरा, सपना देख रहा है क्या?”

“नहीं, नहीं भाई। महुली को देखने से मुझे डाक्टर की याद आ जाती है। वह हट्ठा-कट्ठा जवान कहाँ गायब हो गया? ऐसा लगता है कि गंजाम का गतेई साहु और यह फोरेस्ट-गार्ड, दोनों मिले हुये हैं। पूरे गांव भर के जवान लड़कों को हाँक-हाँककर भगा ले गये हैं। गांव भर ढूंढ लेने पर भी, एक जवान लड़का और नहीं मिलेगा। पेशियाँ और पिंडलियाँ कितनी बड़ी-बड़ी व सुघड़ हो चुकी थी मेरे डाक्टर की। तीनों बेटों में से सबसे सुंदर, व भरापूरा शरीर का था मेरा डाक्टर।” धीमरा ने उठते-उठते हामी भरी और कहा “तुम ठीक बोल रहे हो, अंतरा।” धूं-धूं कर दुख की ज्वाला से अंतरा का दिल जल रहा था। कौनसे प्रदेश में होगा? कितना कष्ट पाता होगा? क्या खाता होगा? क्या पीता होगा? शादी कर ली होगी कि नहीं, पता नहीं?

अठारह साल का हो गया था वह लड़का। कलेक्टर की भाँति भोलाभाला नहीं था। बहुत ही फुर्त्तीला था। खाना खायें या नहीं, कोई फरक नहीं पड़ता। घोड़े के बच्चे की तरह इधर-उधर दौड़ते रहता था। गया था उस साल वह, टेलिफोन लाइन बिछाने के लिये, मिट्टी खोदने का काम करने। तेज-तर्रार लड़का, बाप जैसा हड्डी ढोने वाला नीच काम क्यों करता? बहुत ही समझदार मेहनती लड़का था वह। कभी-कभी अपनी किस्मत को कोसता रहता था अंतरा। सोचा था, बड़ा वाला लड़का कलेक्टर बनेगा, पर हुआ क्या? मुंह पर कालिख पुतवा दी, लड़की को भगाकर ले गया था वह। अंतरा गांव भर में मुंह दिखलाने लायक नहीं रहा। इतने समय तक महुली का गिलास खत्म हो चुका था। कलंदर को पूछने लगा “और थोड़ा, दोगे क्या?”

कलंदर था कि न हिला, न डुला। अंतरा ने बचे हुये एक रूपये के सिक्के को फेंककर बोला “दे रे और थोड़ा, दे, दे।”

हँसते हुए कलंदर कहने लगा “आज तो चमार का भोज हो गया है। मै सतनामी, कि तू सतनामी? शास्त्र पुराण के बारे में कुछ जानता भी है?” अंतरा खिसिया कर बोला “साला, दारु बेच बेच कर दिन बिता रहा है और मेरे को शास्त्रों के बारे में पूछ रहा है। देख, सुन -

“संगी साथी चल गये सारे, कोई न निभियो साथ।

नानक इस विपद में टेक एक ही रघुनाथ।।”

“बस, हो गया। मैं समझ गया। तुम तो ठहरे महाज्ञानी पुरुष। अब, पहले मेरा बकाया चुकता कर, फिर शास्त्र-पुराण सुनाते रहना।”

अंतरा भूल गया था कि कलंदर उसको पाँच रूपया वापिस करेगा। उसको हिसाब किताब नहीं आता था।

ऐसी हालत में, अभी हिसाब करता भी कैसे? उसके तो थी मन में जलन, शरीर में भी जलन। उँची आवाज में भागवत का पद्य गाने लगा-

“जब करम आपणो फल देने को आवें, उसका हेतु अपने आप खड़ा हो जावें,

बड़े-बड़े अकलमंदो की बुद्धि को फिरावें, पर-वश माया के चक्कर में भरमावे।

नहीं समझ पड़े, करमण की गति अपारा, श्री कृष्ण कहे सुन अर्जुन वचन हमारा।”

इतने समय तक कलंदर, पियक्कड़ों से जितना हो सकता था, लूट रहा था। केवल फोरेस्ट गार्ड ही बिना पैसा दिये पीता था। लाटसाहब जैसे आता था, मुर्गा, मछली आदि की फरमाइश करता था और गले तक पी जाता था। लेकिन नशे में धुत्त होकर होश गँवा बैठता था, तभी कलंदर धीरे से जेब में से सारे के सारे पैसे निकाल लेता था। उसका सूद समेत ब्याज भी वसूल करलेता था। “चोरी का पैसा मोरी में”चला जाता है। दुकान बंद करते समय फोरेस्ट-गार्ड को उठाते हुये बाहर ले जाता था तथा बरामदे में सुला देता था। जान बुझकर कलंदर पांच या दस का एक दो नोट रास्ते में गिराकर आ जाता था ताकि होश आने पर फोरेस्ट-गार्ड नीचे गिरे हुये नोट को देख कलंदर पर शक भी नहीं करेगा।

पर पता नहीं क्यों, अब की बार, अंतरा का गाना उसके सीने में चुभ गया। जैसे कि यह चमार उसकी अंदर की हर बात को जानता हो। अनपढ़ होने के बाद भी, ज्ञान की बातें अच्छी तरह से मालूम है। जो भी हो, बेटा उसका इमानुअल साहिब के साथ रहकर पढ़ाई किया था, देश-विदेश घूमा भी है। बेटे की संगत से कुछ तो ज्ञान जरूर पाया होगा।

बेटे ने पढाई तो की, लेकिन न बाप को पूछा, न माँ को और न ही अंतरा की माली हालात में कोई सुधार आया। वह तो बेईजू शबर की बेटी को भगाकर ले गया और जाकर रायपुर या भोपाल में बस गया। तब से अब तक उसकी कोई खबर नहीं है। अंतरा को देखने से कलंदर के मन में दया आती है। बेचारे का बेटा, बेईजू शबर की बेटी को, जब भगाकर ले गया था तो दोनों जातियों मे मारकाट की नौबत आ गयी थी। अपने घर में चिटकनी डालकर, भोर-भोर में, अपने बाल-बच्चों समेत अंतरा वहां से खिसक गया था। कोई बोला, जंगल में छुपा है। तो कोई बोला चला गया है काँटाभाजी, अपने साले के पास। बेटे के गलत काम के कारण ही बाप को इधर-उधर भटकना पड़ा। कोई बोला, रहमन मियां के गोदाम में, चमड़ा धोने, सूखाने और पाँलिस करने का काम कर रहा है बैठे-बैठे। तो किसी ने कहा, कि अंतरा को भोपाल में देखा था, नया धोती, कुरता पहनकर वह बाजार में घूम रहा था अपने बेटे के साथ।

पर कोई भी अपने बाप-दादों की जमीन-जायदाद छोड़कर परदेश में कितना दिन टिक सकता है? एक दिन शाम के समय अंतरा अपने परिवार वालों के साथ गांव में वापिस लौटा। बुझी हुई आग, हुत-हुतकर फिर से जलने लगी। अंतरा के लिये दुःख जताने वाले लोग अड़ बैठे और उसे अपनी जाति से बाहर निकालने की बात करने लगे। बेईजू शबर तो भात-दाल, कद्दू की सब्जी खिलाकर अपनी जाति में शामिल हो चुका था और इसके लिए जाति भाईयों, पास-पडौस, गांव के ओझा तथा बुजुर्ग लोगों को दारु भी पिलाया था। लेकिन अंतरा के घर में चार प्राणी थे उनको पालेगा या गाँव को भोजी-भात खिलायेगा।

सवेरे-सवेरे बस्ती वालों की बैठक बुलायी गयी। आखिर में पन्द्रह किलो चावल और दो किलो दाल देने के लिये अंतरा राजी हुआ। सरसी ने बाप के घर से मिले हुये कमरबंध को ‘शा’ के पास गिरवी रख दिया। पास-पडौस वाले उनसे जलन करते थे, इसलिये सरसी ने उनको गाली भी दी। बेटी के लिए रखी हुई थी बेचारी की एक मात्र चांदी की कमरबंध। शा के पास से क्या छुड़ाना संभव होगा? सुख और सपने सब चूल्हे में जाये, चूर-चूर हो जाये। लेकिन जीना तो होगा ही।

ये जीना भी क्या जीना है? जितने मुंह, उतनी बातें। बस्ती में किस-किस का मुंह रोकोगे?

“तू तो गांव छोड़कर जा चुका था, फिर क्यों वापिस आ गया?”

“तेरे बेटे ने तुझे घर से बाहर निकाल दिया, क्या?”

“क्या, रहमन मियां तुझे दो वक्त की रोटी खिला नहीं पाया?”

“जाते समय तो चारों जनों को लेकर गया था, वापिस आते समय तीन कैसे हो गये? एक को मारकर कहीं फेंक तो नहीं दिया?”

“साले के पास रहकर शहर में काम-धंधा करके पेट पालना चाहिये था। इस बस्ती में फिर क्यों वापिस आ गया?”

ऐसा क्या था उस बस्ती में। छप्पर वाले दो कमरों का घर, जिसके छप्पर चार साल में एक बार भी वह बदल नहीं पाता था। जमीन-जायदाद का तो सवाल ही नहीं, फिर भी तो अपने गांव-घर की बार-बार याद सताती थी। रहमन मियां के यहां रहकर उसे लग रहा था कि वह पेड़ से गिरे हुये पत्ते के समान हो।

लोगों की बातों का जवाब देने के लिये उसके पास कुछ भी नहीं था। कोई कोई ऐसा भी कहने लगा कि तीनों बच्चों को कहीं छोड़कर रहमन मियां के गोदाम में सरसी छुप गयी थी। अंतरा के कान में अभी तक यह बात नहीं पड़ी थी। रूपया-पैसा लेकर वह लौट आयी थी रहमन मियां के घर से। और उससे भात-दाल खिलायी थी पास-पडौस को। कोई बोला, सब झूठ है। रहमन के पास से रूपया नहीं लायी है, रहमन तो इतना कंजूस है कि मुफ्त में अपने शरीर का मैल भी नहीं देता है। तो क्या वह रूपया देगा? वह तो गयी थी ‘भूतापाड़ा’, जहां मुर्शिर्दाबादी पठान सब डेरा जमाये हुये थे। वहीं पर तो, परमानन्द ने उसको देख लिया था।

क्या हुआ? पता नहीं। इधर-उधर की बातों से कुछ दिन तक चुप्पी साध ली थी अंतरा ने। बात-बात पर सरसी पर चिढ़ने लगता था। ठीक से खाना-पीना भी नहीं करता था। कुछ दिन बाद अपनी औरत और बच्चों को अकेले छोड़कर, गांव ही छोड़कर चल दिया था वह।

मंझला बेटा डाक्टर, अंतरा का सबसे चहेता था। बड़े काम का लड़का था। सचमुच बाप के घर छोड़ने के बाद मंझले बेटे ने ही संभाला था घर को। इधर-उधर कुली मजदूरी कर माँ के लिये चावल दाल लाता था। सरसी सोचती थी, ऐसे समय अंतरा होता तो देखता कि उसका बेटा घर संभालने के लायक हो गया है। अंतरा मर्द था, इसलिये लोगों की बातें सहन नहीं कर पाया, और घर छोड़ दिया। पर सरसी कहाँ जाती? रहमन के गोदाम की तरफ सरसी कभी नहीं गयी। भले ही बेटे को काम न मिलने से वह भूखे ही सो गयी।

अंतरा साल डेढ़-साल के बाद घर लौटा, हालांकि गाँव वालों की सोच थी कि या तो वह कहीं खो गया है या कहीं मर गया। अगर वह जिंदा होता तो क्या घर नहीं लौटता, अपने बाल-बच्चों की सुध लेने? कोई बोल रहा था कि वह रेल-गाड़ी के नीचे आकर कट कर मर गया। डाक्टर बहुत ही खुश मिजाज स्वभाव का था। जो भी वह कमाता था, एक हिस्सा अपने लिये रखता था, बाकी तीन हिस्से माँ को दे देता था। उसी एक हिस्से में वह खुद के लिये तेल, साबुन, सफल गुट्खा व लाल-पीले रंग का टी-शर्ट खरीदता था। वह हर-रोज दारु नहीं पीता था। कभी-कभार अपने दोस्तों के साथ मन होने से पी लेता था।

अंतरा जब घर लौटा, तो उसने देखा कि उसके बगैर भी उसका घर चल रहा था। डाक्टर ने संभाल ली थी घर की हालत। यही वह बेटा था, जिसने उसकी इज्जत बचायी थी। बड़े बेटे ने तो बदनाम कर कहीं का भी नहीं छोड़ा था।

अब अंतरा ढूँढने लगा डाक्टर के भीतर अपनी जवानी। पर उसे इस बात का मलाल रह गया था कि किसी भी बेटे ने अपने पुश्तैनी-धंधे को अपनाया नहीं था।

चमड़ा उतारना, यहाँ तक कि चमड़ा घिसना भी नहीं जानते थे। ढोल बनाना भी उन्हें नहीं आता था। हरि

दास गुंसाई बाबा का कहना था संसार को अच्छी तरह से चलाने के लिये सबको अलग-अलग काम करने चाहिये। सबके अलग-अलग काम करने से ही संसार ठीक से चल रहा है। सब कोई अगर पुजारी का काम करेंगे, तो सड़े-गले मुर्दों को उठाने का काम कौन करेगा? काम तो काम ही है। इसमें क्या अच्छा और क्या बुरा? मालपुआ का स्वाद जीभ के लिये तो मीठा होता है, पर जब यह पेट में जाता है तो मल बन जाता है। कोई चीज इस शरीर के लिये मधु है, तो वही चीज इसी शरीर में मल भी बनती है।

“सो गया क्या अंतरा? साला, जा भाग इधर से? मैं अब दुकान बंद करुँगा। मेरे लालटेन में अब किरोसीन खत्म हो रहा है।”

अंतरा नींद की झोंक में बोला -

“जा रहा हूँ मेरे बाप, जा रहा हूँ। उठने की कोशिश करने के बाद भी उठ नहीं पा रहा था। जितनी बार वह उठने की कोशिश करता था, उतनी ही बार वह गिर जाता था।

“अरे जा, भाग, भाग! मैं क्या तेरे लिये यहाँ बैठा रहूँगा।”बड़े कष्ट के साथ खड़ा हुआ अंतरा। वह जायेगा, पर कहाँ जायेगा? लेफ्रिखोल , सिनापाली , कांटाभाजी , भोपाल , आंध्रप्रदेश , रायपुर या धरमगढ़? आखिर कहाँ जायेगा वह? पीने के बाद उसे अपना शरीर हल्का अनुभव हो रहा था। उसे ऐसा लग रहा था मानो वह पहाड़ पर चढ़ रहा हो। पर जब उसने अपने पांव आगे बढ़ाये तो ऐसा लगा कि वह कहीं लुढ़क न जायें। अचानक उसे याद आ गया वह दिन, जब वह एक अलग आदमी ही नहीं, बल्कि बाबा बनकर लौटा था। बात-बात में उसके मुख से भजन, कीर्तन व भागवत के गीतों के बोल झलकते थे। गले में थी तुलसी की माला और धारण किया हुआ था शरीर पर भगवा-वस्त्र। उसका रूप देख कर किसी के लिए भी कहना मुश्किल था कि वह चमार सतनामी है।

सरसी उसे अचानक आया देखकर चकित रह गयी। क्या कर रहे थे? कहाँ थे इतने दिन? घर-बार की याद नहीं आयी एक बार भी? हम क्या खाते होंगे? कैसे रहते होंगे? एक बार भी यह विचार दिमाग में नहीं आया? यह सब सोच रही थी सरसी, पर मुह से कुछ भी आवाज नहीं निकली। मैं औरत जात, तुम्हें कहाँ ढूंढने जाती? आस-पडौस की बातें सुनकर तुम घर छोड़कर भाग गये थे, परन्तु तुम्हारे जाने के बाद उन्होंने क्या-क्या खरी-खोटी मुझे नहीं सुनाई होगी? कभी कल्पना की है इस बात की। लोग तो यहाँ तक बोल रहे थे कि रहमन मियां ने मुझे रखैल बना रखा है, इसलिये तुम मुझे छोड़कर भाग गये थे।

“देखो इस बच्चे को, जिसने तुम्हारे संसार को संभाल कर रखा है। मिट्टी खोद-खोदकर, पत्थर काट-काटकर इस बच्चे ने अपनी क्या हालत बना रखी है?”

तब तक बाप-बेटे ने एक दूसरे के साथ कुछ भी बात नहीं की थी। किसी भी प्रकार की कोई शिकायत न थी, न किसी प्रकार का पश्चाताप, न किसी प्रकार का कोई संकोच। मगर दोनों एक दूसरे से आँख मिलाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। घर के बोझ ने बेटे को उम्रदराज बना दिया था। घर के बोझ से मुक्त होकर बाप बेटे की तरह किशोर बन गया था। लड़के की मासपेशियों को देखने से अंतरा को लग रहा था, वह बूढ़ा हो गया। वह समझ गया था कि उसके बेटे अपने पुश्तैनी पेशा को नहीं अपना पायेंगे। यद्यपि इस बात का उसको कोई गम न था। पर, चमार होकर चमड़े का काम न जानना, क्या किसी को शोभा भी देताहै? पर डाक्टर को किसी भी प्रकार की शिकायत नहीं थी अपने पिताजी से।

अंतरा को ऐसा लग रहा था मानों वह आकाश में उड़ रहा हो। उसके शरीर पर दो पंख निकल आये हो। वह आकाश में चक्कर काट कर उड़ रहा था। नीचे पड़े थे मरी हुयी गायों के लाशों के ढ़ेर। वह झपट पड़ेगा क्या उन पर? सोचते-सोचते वह नीचे की तरफ आ रहा था। नीचे आते ही उसे लगा, कहाँ गायब हो गयी ये सब मरी हुई गायें? एक अधमरी गाय पड़ी थी पास में। एक पांव से वह काँप रही थी एवं छटपटा रही थी। मुँह से झाग निकल रहे थे। एक कौआ उसकी आँख कुरेदने की ताक में पीठ पर बैठा था। अंतरा ने उसे उड़ाना चाहा। कौआ वहाँ से उड़कर नजदीकी जमीन पर जा बैठा। गिद्ध बने अंतरा की चोंच गाय तक नहीं पहुंच रही थी। पांव नहीं उठ पा रहे थे। कमजोरी लग रही थी उसे। धीरे-धीरे अंधेरा छा रहा था। न तो वह गाय को देख पा रहा था न ही वह अपने आप को।

चैती ने कभी समुन्दर नहीं देखा था। सुना था समुन्दर इतना विशाल होता है कि समुन्दर के उस पार तक हमारी निगाहें नहीं पहुँच पाती। वह असीमित जल-भंडार होता है। जिधर देखो, उधर पानी ही पानी नजर आता है। समुन्दर की लहरें पेट फुला-फुलाकर हाथियों की भाँति झकोले मार रही थी। दस-पन्द्रह हाथ की दूरी तक लहरें पछाडे मार कर गिर रही थी। कितनी सारी सीपियाँ, मछलियां, कछुएँ और कितने सारे मगरमच्छ रहते होंगे समुन्दर के अंदर?

चैती ने सिनेमा में समुन्दर को देखा था। आकाश जितना या उससे भी बड़ा होगा समुन्दर। उसके ऊपर तैरती जहाजें। ऐसे ही दो-दो समुन्दर पार करने के बाद, तीसरे के बीच मौजूद एक द्वीप पर सन्यासी गया हुआ था। चैती सोच भी नहीं पा रही थी समुन्दर के बीच कैसा होगा वह जापान देश? पहले-पहले तो कुछ जगहों का फोटो भेजा करता था। नीचे रास्ता, ऊपर रास्ता और चिकने रास्तों पर दौड़ रही थी खिलानौं की भाँति गाड़ियाँ। लड़कियों का चेहरा हवा भरे रबर की गुड़ियाओं की तरह लग रहा था। पहाड़ पेड़, नदी, नाला, महल, बगीचों के फोटो देखकर चैती सोचती थी इतने सुंदर देश में गया हुया है सन्यासी! पर जहाँ सुन्दर चित्रों की तरह बने हुये हो घर द्वार, रबर की गुड़ियाओं की तरह रहते हो मनुष्य, वहाँ उन लोगों को क्या जरुरत पड़ गयी, जो सन्यासी जैसे एक गंवार को बुला कर ले गये?

जाने के कुछ ही दिन पहले चैती बोली थी “देख, तू इतने बड़े-बड़े समुन्दर पार करके जायेगा, मुझे तो बड़ा डर लग रहा है।” हंसकर सन्यासी बोला “तू, क्या पागल हो गयी है? मैं इस द्वीप पर पानी-जहाज में बैठकर नहीं जाऊँगा। मैं तो हवाई-जहाज में जाऊंगा ,आकाश में उड़ते हुए गिद्ध की तरह।”

डर गयी थी चैती। पानी में हो या आकाश में, दोनों खतरनाक है। मोटर-गाड़ी होती, तो बात कुछ अलग होती। सैकड़ों लोग जा रहे हैं, आ रहे हैं। वह लोग भी तो चोरी-छुपे मोटर में बैठकर रायपुर चले आये थे। जिस दिन रेलगाड़ी से भोपाल आये थे, तो चैती डरी हुयी थी। इतनी बड़ी गाड़ी में कितने सारे तरह-तरह के लोग बैठे हुये थे। कुछ उतर रहे थे तो फिर कुछ नये लोग चढ़ रहे थे। रुकती-रुकती गाड़ी बढ़ती जाती थी आगे की तरफ। लेकिन उनके उतरने की जगह भोपाल, फिर भी नहीं आ रहा था। अगर भोपाल पीछे छूट गया तो? रेलगाड़ी चल रही थी और आगे बढ़ती जा रही थी।

उस दिन सन्यासी खूब हँसा था। बोला “बुद्धु कहीं की, इतना दूर कोई ट्रेन में जाता है क्या? जानती हो, दो-दो समुन्दर पार होने के बाद तीसरे समुन्दर के बीच में है वह देश। तेरे लिये समुन्दर के उपर रास्ता बनाया

जायेगा और रेल-लाईन बिछायी जायेगी क्या?”

चैती को सन्यासी घर में कुछ-कुछ पढ़ाया करता था, जिससे चैती अपना नाम लिखना सीख गयी थी और चिट्ठी पढ़ लेती थी। पढ़ाई में रुचि नहीं होने की वजह से न वह कोई दूसरी किताब पढ़ पा रही थी, न ही वह अपने विचारों में उन्नत हुई थी।

जाने की बात तो कर चुका था सन्यासी, पर जाने के दिन जितने नजदीक आ रहे थे, संन्यासी का मन उतना ही गुमसुम हो रहा था मनो कोई बड़ी चिन्ता उसे सता रही हो। न कहीं मन लग रहा था, न ही उसका खाने-पीने का कोई ठिकाना था एवं रातों की नींद हराम हो गई थी।

चैती बोली-“अगर मन नहीं हो रहा है, तो मत जाओ। तुझे किसीने सौगंध दिलाई है? कोई जोर-जबरदस्ती कर रहा है क्या?”

“सौगंध- वौगंध की कोई बात नहीं है चैती। बात कुछ दूसरी है, जो तू नहीं समझेगी।”

“ऐसी क्या बात है, जो मैं नहीं समझ पाऊँगी। मैं भले ही पढ़ी-लिखी नहीं हूँ, लेकिन तुम्हारे मन की बातें पढने की समझ है मुझमें? कुछ ही दिनों में चिन्ता से तुम्हारा शरीर जलकर लकड़ी के कोयले की तरह काला हो गया है। क्या मैं नहीं जान पा रही हूँ?”

सन्यासी ने देखा कि चैती का मन भारी होने लगा है, और थोड़ी ही देर के बाद वह रो पड़ेगी। अपने गांव को याद कर आँसू बहायेगी, बेचारी। इस शहरी जगह में, वह सहज नहीं हो पा रही थी। बहुत ही अकेली हो गई थी। सन्यासी कहने लगा-

“जरा इमानुअल साहब के लिये तो सोच। उनकी बात मैं काट नहीं पाया।”

“क्या कहना चाहते हो? साफ-साफ कहो" चैती ने पूछा।

“तुम्हें यह जगह अच्छी नहीं लग रही है? मुझे भी कहाँ अच्छी लग रही है? चलो, हम लोग अपने गांव वापिस चलें। अपना गांव नहीं तो, सुन्दरीखोल गांव में जाकर रहेंगे, नहीं तो सिनापाली गांव में।”

“मुझे यहाँ कोई असुविधा नहीं हो रही है, चैती! हमें यहाँ क्या असुविधा है, बता तो। मिशन में बच्चों को चित्रकला सिखा रहा हूँ। यह कोई बड़ा काम है क्या? इस में हम दोनों का दाना- पानी चल रहा है। गांव जायेंगे, तो खायेंगे क्या? दोनों वक्त की रोटी भी नसीब नहीं होगी। उसके बाद, क्या गांव वाले हमको इतनी आसानी से अपना लेंगे? हमारे ऊपर झूठ-मूठ के लांछन नहीं लगायेंगे। हम लोग गांव के माहौल में रह नहीं पायेंगे। सच बोल, क्या तुझे यहाँ कोई पूछता है कि तुम्हारी जात-बिरादरी क्या है? तेरा गोत्र क्या है? यहाँ तो, तूने खाया कि नहीं खाया, कोई पूछने वाला नहीं। तू क्या करती है , क्या नहीं करती है, इस तरफ कोई सोचता भी नहीं है।



दरअसल बात यह है कि ईमानुअल साहब मेरे लिये तो भगवान है। पिछले जन्म में मैम साहब शायद मेरी माँ थी। नहीं तो, मैं क्या चित्र बनापाता, उस पाँच-छ साल की उम्र में? बूढी टांगरी पहाड़ के ऊपर बड़े पत्थर पर चाँक लेकर मैं चित्र बनाता था, जैसे हिरण को बाघ ने दबोच लिया है और बना शबर अपनी तीर से बाघ को निशाना बना रहा है, समझी चैती। मेरी मां हमेशा जंगल तथा बना शबर की कहानी सुनाया करती जब मुझे नींद नहीं आती, भूख लगती, या बाप को जब याद करता था। इसलिये मेरे मन में यह चित्र बना हुआ था। वह हिरण, क्या हिरण जैसा दिख रहा था? और क्या बाघ, बाघ जैसा? फिर भी, मैम साहब मुझे बुलाकर ले गयी और गाड़ी में बैठाया था। ड़र के मारे, मैं पसीना-पसीना हो गया। तभी उसने मेरे हाथ में दो चाकलेट दी थी। तू यह समझ कि ईसाई बस्ती के कैम्प में मेरी किस्मत ही बदल गयी। कितने सारे चित्र बनाने के लिये बोली थी मैम साहब। ठीक समय पर अगर मेरी माँ नहीं पहुंचती, तो और भी कितने सारे चाकलेट मुझे मिल गये होते।”

बोलते-बोलते चुप-सा हो गया सन्यासी। जैसे कि वह अपने बचपन में लौट आया हो। एक-एक कदम आगे बढ़ने की कोशिश करने पर भी, वह अपने वर्तमान में नहीं पहुंच पा रहा था।

सन्यासी के मटमैले भूरे बालों में ऊंगली फेरते हुये चैती ने कहा-

“इन्हीं बातों को आप कितनी बार सुनाओगे? तेरी धरम-माँ के बारे में सुनते सुनते मेरे कान भी पक गये हैं।”

ईमानुअल साहिब की बीवी को चैती सन्यासी की धरम माँ के नाम से बोलती थी।

अपने अतीत के अंधेरे में से निकल कर आया हो जैसे, सन्यासी। बोला “एक बार और अगर सुन लेगी तो, तेरे कान क्या बहेरे हो जायेंगे? दो चाँकलेटें! समझी, चैती। इन्हीं दो चाकलेटों के खातिर, मैं गाँव छोड़ने को राजी हो गया था। जिस दिन इमानुअल साहिब की बीवी मेरी मां को बोली, दे दे इस बच्चे को, मैं आदमी बना दूंगी। उस दिन, रात भर मेरा बाप घर के बाहर बैठा रहा, बिना पलक झपकाये। जैसे कि मैम साहब मेरे घर में घुसकर मुझे चुराकर ले जा रही हो और मुझे जबरदस्ती ईसाई बना रही हो। सोच रहा था कि क्या मैं आदमी बन कर पैदा नहीं हुआ, जो मैम साहिब मुझे आदमी बनायेगी। मेरे हाथ, पैर सब कुछ तो आदमी जैसे ही है, बड़ा होने पर जवानी भर आयेगी इन अंगों में। मेहनत-मजदूरी करके कमा लूंगा। तब यह आदमी बनाने का मतलब क्या है? सवेरे-सवेरे बाप बोला "जाने दो उसे, यहाँ तो एक वक्त का खाना मिलता है तो एक वक्त का फाँका पड़ता है। मिशन में रहेगा तो दाल-भात खाकर जीवन जी लेगा। हाथी जंगल में पले-बढ़े तो भी, वह राजा का ही होता है। आम के पेड़ पर अगर नीम के फल लगें, तो क्या लोग उसको नीम के फल कहेंगे? जाने दो। दोनों वक्त का खाना तो मेरे बेटे को मिलेगा, आराम से खाने को।”

माँ की आँखों के सामने जैसे कि गरमा-गरम दो थाली चावल की तस्वीर उभरकर दिखाई देने लगी हो। उसका सारा अहम चूर-चूर होने लगा था। बोली “मैं उसे छोड़ दूंगी, पर मेरा बेटा ईसाई नहीं होना चाहिये।”

“ठीक है, ठीक है, बस यह बात मैं मैम साब को कह दूंगा। तू और अभी अपना मन उदास मत कर।”

फिर भी मुझे छोड़ने के लिये माँ की तनिक भी ईच्छा नहीं हो रही थी। मैं सोच रहा था, कि इसमें माँ को क्या तकलीफ है? मैम साहिब तो मुझे मारती-पीटती नहीं थी। पास बैठाकर केवल चित्र बनवाती थी। और बदले में चाँकलेट देती थी। फिर मुझे छोड़ने की बात पर माँ इतनी परेशान क्यों हो रही थी?

एकदिन सचमुच मैम साहिब मुझे लेने के लिये आ गयी। उसकी बड़ी गाड़ी हमारे घर के सामने खड़ी हो गयी थी। माँ ने मेरी कंघी की। कमर से अपना पल्लू निकालकर मेरा मुंह पोंछा। कुसुम-बेर से भरी छोटी पोटली मेरे हाथ में थमा दी और बोली “मैमसाहिब की सारी बातें तुम मानते रहना। घर याद आने से मैम साहब को बताना। कभी-कभी यहाँ ले आयेगी।”

घर की याद? आँखों में पानी भर आया। रोने को मन हो रहा था। माँ को पकड़कर खूब रोया। नहीं, नहीं, मैं माँ को छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा। बाप समझा रहा था “जा, मेरे बेटे, उनके साथ जाने से एक दिन तू कलेक्टर बनेगा, गाड़ियों में घूमेगा, अच्छा खाने-पीने को मिलेगा। अच्छा पहनने को मिलेगा। कितनी सारी नयी-नयी जगहों पर घूमेगा?”

“मैं अपनी माँ को कभी देख पाउंगा, क्या?”

“तुझे मिलने, तेरी माँ को लेकर मैं जरुर आऊँगा।”

“माँ की गोद में से खींचकर, बाप ले गया मुझे जबरदस्ती। और मैम साहिब की गाड़ी में बैठा दिया। तू विश्वास नहीं करेगी, चैती। ये बाहें देख रही हो, इनको इतनी जोर-से खींचा था मेरे बाप ने कि आज तक इनमें दर्द-भरा हुआ है।”

तकिया के ऊपर मुंह डालकर सिसक-सिसककर रो रही थी चैती।

“क्या हो गया? क्यों ऐसे रो रही हो चैती?”

चैती के बाल संवारते हुये सन्यासी बोला “माँ की याद बहुत सताती है, रे! मन ही मन में, माँ को खोजता रहता हूँ। एक दिन भी बाप मिशन में नहीं आया। बोला था, माँ को लेकर मिलने जरुर आयेगा।”

उस बार जगदलपुर मिशन स्कूल से चार दिन के लिये गांव आया था। बचपन से ही बाहर रहने के कारण गांव-घर, सब कुछ उसको अनजाने से लग रहे थे। किसी के साथ खुले-मन से बातें नहीं कर पा रहा था। यहीं पर तो अपना घर, अपने लोग हैं जिन्हें बोर्डिंग-स्कूल में रहते समय याद किया करता था। यहाँ की जिन्दगी और वहाँ की जिन्दगी में बहुत अन्तर है। प्रागैतिहासिक पत्थर के ऊपर, यह तो आधुनिक कथा निखारने जैसी बात थी। वही नाक-कान, वही शरीर का रंग, वहीं जबड़े की हड्डी, मिट्टी की वही महक, पर मानो किसी ने तराश कर अलग चिकना-सा बना दिया हो। वही स्रोत, पर पहचान है जरा हटकर! जंगल सन्यासी के लिये बड़ा प्यारा था। बचपन से ही वह बूढ़ी टांगरी के उपर कितने सारे चित्र बनाया करता था। काले पत्थर के उपर, जैसे कि वही उसका स्लेट हो। गांव में एकाकी, व लीक से हटकर रहने वाला सन्यासी चला आया था जंगल में। ये जंगल ही उसके अपने थे। पेड़, नदी, नाला पहाड़, पत्थर, झरना सभी मूकदर्शक थे। पर सन्यासी को देखते ही गप करना शुरु कर देते थे। पाकेट में से बांसुरी निकालता था सन्यासी। साहड़ा पेड़ के नीचे चिकने पत्थर के ऊपर बैठकर बाँसुरी के सुर लगाता था। बड़े ही निसंग व करुणा से भरे थे वे बांसुरी के सुर। एक सूना-सा घर, एक खाली-हांडी, अध-भूखे बच्चे की आँखों से निकल रही निराशा, सुरों का रूप लेती जा रहीं थी। लड़की की तरफ उसकी नजर नहीं, पता नहीं कबसे एक गुच्छा कुरैई के फूल बालों में गूंथकर महुआ पेड़ के नीचे, लाल रंग की फ्राक पहने और छाती के उपर दुपट्टे समान एक गमछा डालकर खड़ी हुई थी वह लड़की। जब सन्यासी का बांसुरी बजाने से ध्यान भंग हुआ तो उसने देखा कि वह लड़की मंद-मंद मुस्कान बिखेरते हुये, पलक झपकते ही झाड़ियों के पीछे गायब हो गयी। सन्यासी ने बांसुरी को अपने जेब में रखकर, उस लड़की को तलाशने लगा। उसने देखा कि वह उदंती नदी के बीच में स्थित पत्थरों पर कूदते-फांदते तेजी से आगे की तरफ दौड़ी जा रही थी।

क्या कर रही थी वह लड़की जंगल में? उसको डर नहीं लग रहा था? कौन थी वह? एक मायाविनी की तरह, हाथों की पहुँच के बाहर, धीरे-धीरे चली जा रही थी।

“ऐ रुक, रुक, कहाँ जा रही है तू? ऐसे बोलते-बोलते सूखी उदंती नदी को सन्यासी ने पार कर लिया।

उदंती नदी का दूसरा किनारा। पत्थर काटने वाले लोगों के कई गुट, कुछ मर्द और कुछ औरतों के बीच वह लड़की अब तक कहीं खो चुकी थी। फिर भी सन्यासी आगे बढ़ते ही जा रहा था- लाल फ्राक व लाल गमछे वाली लड़की को खोजने के लिये। देखा, वह लड़की अपने नाजुक हाथों में हथौड़ी लिये पत्थर तोड़े जा रहीं थी। कोई अगर देखेगा तो उसे यह विश्वास ही नहीं होगा, कि यही लड़की कुछ देर पहले पत्थर तोड़ना छोड़ बांसुरी सुनने चली आयी थी उदंती नदी के उस छोर पर। लड़की तो ऐसा व्यवहार कर रही थी मानो वह बांसुरी वादक को पहचानती ही नहीं। कुछ देर पहले घटी हुई घटनाओं से अनजान होने का बहाना कर रही थी। ऐसा लग रहा था कि वह लड़की, आदिकाल से पत्थर तोड़ते ही जा रही हो अपने होठों पर एक स्थायी गंभीर मुस्कान लिये हुए।

लौट आया था उस दिन सन्यासी। लेकिन उस लड़की ने पलास के फूलों की भाँति उसके ह्रदय में आग लगा दी थी। अगले दिन, फिर अगले दिन। फिर अगले दिन सन्यासी जंगल की तरफ अपने आप अग्रसर होते हुये अपने पांवों को रोक नहीं पाया। धीरे-धीरे उसके बांसुरी के स्वर बदल से गये। झरने की तरह झंकृत हो रहे थे जैसे। चांदनी की तरह फैल रहे थे जैसे। मधुमक्खी के छते से बूँद-बूँद गिरते शहद की मीठी धार की तरह बदल रहे थे उसकी बांसुरी के सुर। कुछ ही दूर गाल पर हाथ देकर बैठी थी वह किशोरी। अपने पत्थर तोड़ने वाले कष्टों को भी भूल गयी थी। भूख को भी भूलकर , उसने अपने हृदय के सब बंद दरवाजे खोल दिये थे।

क्या उस समय चैती को भगाकर ले जाना उसकी भूल थी? अगर प्रेम सभी दुखों का हरण कर लेता है, तो उसको भगाकर ले जाने में क्या दिक्कत थी? एक दिन हो, एक पल हो, सपनों के साथ जीने में समस्या क्या है?

अब चैती को छोड़ सुदूर विदेश जाते समय, पता नहीं, क्यों सन्यासी का मन उदास हो जाता था। किसके पास, किसके भरोसे में वह छोड़कर जायेगा चैती को? अपने मन की बातों को छुपाते हुये सन्यासी ने कहा मुझे विदेश जाकर लौट आने दे। हम लोग अपने गांव चले जायेंगे। तेरे घर जायेंगे। आते समय मेरे माँ-बाप को साथ ले आयेंगे। गांव से दूर एक किनारे पर हम अपना नया घर बनायेंगे, अपने हाथों से दीवार पर तुम “इड़ीताल” के चित्र बनाना।”

इस समय चैती एक अलग दुनिया में थी। वहां सीमेंट, कंक्रीट के घर नहीं, वहाँ मोटरगाड़ी नहीं, भीड़भाड़ नहीं। भोपाल जैसा शहर नहीं। वहां नियम कानून मानने वाले मिशन स्कूल के लोग नहीं। जैसे वह किस निर्जन द्वीप से मुक्त हो गयी हो। जिधर देखेगी, नजर आयेगा खुला आकाश। जिधर पांव रखेगी उधर होगी हरे-भरे घास के गलीचे। किसी भी नाम से अगर पुकारेगी, तो उस तरफ देशी जानी-पहचानी आवाज सुनाई पड़ेगी। कोई बोल रहा होगा “तू चैती है ना?” झरने की भाँति पहाड़-पत्थरों के बीच में खेत-खलिहान को पार करती हई भागने लगेगी वह उदंती नदी की तरफ। अभी भी चैती तन्द्रा में थी। उसका मुँह था सन्यासी के सीने पर, बालों के अंदर थिरक रही थी सन्यासी की ऊँगलियाँ. जोर से उसे नींद आ रही थी। अपने अंदर ही अंदर वह देख रही थी।

दूर पहाड़, पास में नदी,
एक छोटा सा घर, एक छोटी सी बाड़ी
दूर जंगल, महुआ के फूल
पास में पहाड़, पास में नदी
नीला आकाश, सवेरे के पंछी
साल के जंगल, मिट्टी के घर
लोरियाँ गीत, बांसुरी के स्वर
रेल नहीं, बस नहीं, नहीं चलती है बैलगाड़ी
पंछियों के गीत, बांसुरी के सुर
माँदर के ताल, झरनों के शब्द
धांगड़ी नाच, पास में घर
पास में नदी
महुँआ के फूल, बांसुरी के सुर
चिड़ियों की चिंचिंहाट, बैलगाड़ी
दूर में पहाड़, दूर में नदी
नीला आकाश, छपरीले घर
झरनों के शब्द
धांगड़ी नाच
दूर में पहाड़, पास में नदी
फूलों का बाग, साल के जंगल
लोरिया गीत, बांसुरी के स्वर
दूर में पहाड़, दूर में नदी

अपनी छाती पर से नीचे गिरे हुये पल्लू को ठीक कर लिया था उसने। उसके ब्लाउज के भीतर छिपी हुई निपुण शिल्पकला बाहर से दिखाई नहीं दे रही थी, फिर भी उस आदमी ने खिल्ली उडाते हुए उसकी छाती को जोर से धक्का दिया।

“साली, बाजार खोलकर बैठी है?”फूल की पंखुड़ियों में सिहरन उठने के बदले दर्द-सा घुल गया। दाँत खींचते हुये दर्द को थूक की तरह निगल गयी। इसके बाद साड़ी को फिर से ठीक कर लिया। जैसे कि फूलों के पूरे बगीचे को खरीद लेने की हैसियत रखता हो वह आदमी। किसी का गाल दबा कर लाल कर दे रहा था तो किसी के चूतड़ पर थप्पड़ मार देता था जोर से। सब त्रस्त हिरणियों की तरह अपने-अपने घरों के अंदर छुप जाते थे।

आदमी का नाम था गूड़ा। पूरी बस्ती उसके अधीन थी। उसने बैठायी थी यह बस्ती। टीना चद्दर की दीवारों तथा टीना चद्दर की छत से बने एक कमरे वाले घर का किराया था एक हजार रूपया। बाँस की दीवार और दरवाजा होने पर किराया था सात सौ। मिट्टी से पोता हुआ दीवार वाला, टूटा-फूटा टीना चद्दर और पोलिथीन की छत वाला घर,पांच सौ।

महीना में एक बार पैसा वसूली के लिए गूड़ा खुद आता था। खाने-पीने के बाद पांच सौ रूपया तो इकट्ठा करना मुश्किल था परबा के लिये। हजार रूपये तो उसके लिये बहुत दूर की बात थी।

परबा और झूमरी दोनों ने मिलकर एक टीना छप्पर से बने दरवाजे वाला घर अपने लिये चुन लिया था सात सौ रूपये में। पर उनके व्यवसाय में दो भागीदार होने से बहुत ही दिक्कत होती थी। एक बाहर खड़ा होने से दूसरे का व्यापार चलता था। अलग-अलग खोली लेने के लिये पैसा नहीं था। बाध्य होकर दोनों इसी शर्त पर सहमत हो गये थे। झूमरी ने बहुत बार परबा को समझाने की कोशिश की थी।

“चल, एक दिन सवेरे-सवेरे यहाँ से भागते हैं। रायपुर इतनी बड़ी जगह, इतने सारे बड़े-बड़े घर, इतने सारे लोग। किसी के भी घर में वासन, बर्तन साफ करनेसे क्या दोनों मिलकर हजार रूपया नहीं कमा सकते हैं? चल, इज्जत की जिंदगी जीयेंगे। और कितने दिन यहाँ बेइज्जती के साथ मुँह में मिट्टी दबाकर पडे रहेंगे?”

लेकिन वे लोग कभी भी कहीं नहीं जा सकते थे। जैसे कि उनके दुर्भाग्य ने उन्हें बुलाकर यहाँ फँसा दिया हो। यहीं जीयेंगे, और यहीं मरेंगे। बाहर की दुनिया उनकी नहीं थी। बाहर जाने से किसी न किसी की आंखों में आ जायेंगे। यहाँ पैसों के बदले में जो चीज दे रहे थे उसे वहाँ मुफ्त में देना होगा। लोग उन्हें नोंच-नोंचकर खा जायेंगे। यहाँ तो फिर भी इज्जत के साथ जी रहे हैं पर वहाँ हर गली, हर बस्ती में छीः छीः-थू थू करेंगे। कहीं भी थोड़ी सी जगह भी नहीं मिलेगी। कभी-कभी परबा अपने आप को धिक्कारती थी, कभी-कभी वह खूब रोती थी, अपने माँ-बाप, अपने गांव को याद करके।

अभी गूड़ा बस्ती में घूमेगा। फिर शुरु कर देगा तकादा। झूमरी घर के अंदर में पैसा गिन रही थी। इधर उधर से फटे पुराने नोट निकाल कर चटाई के उपर रखकर हिसाब कर रही थी। परबा के लिये वह बोलने लगी

“ऐ कलमुंही अंदर आ, क्या खूंटे की भाँति वहाँ खड़ी है?”

झूमरी की बात परबा सुन रही थी। सब हिसाब जोड़ने से भी पता नहीं, पांच सौ रूपया होगा भी कि नहीं।

झूमरी काफी चतुर थी। किसी भी तरह वह गूडा को संभाल लेगी जैसे कभी-कभी वह संभाल लेती है परबा को। पता नहीं, झूमरी नहीं होती तो परबा का क्या होता? सखी होने पर भी वह माँ जैसा प्यार देती थी। कहती थी “समझी, परबा, यहाँ हमारा कौन है? न बाप, न भाई, न पति। प्रतिदिन पांच से पचीस पति हमारे होते हैं। चिकनी चुपड़ी बातों से सभी के मन खुश हो जाते हैं। जैसे कि वे नहीं, तो हमारा जीवन बेकार। अपना भंडार खोलकर रख दो उनके सामने जैसे कि वे ही इस भंडार के इकलौते मालिक हो।” कभी-कभी परबा सोचती, भूख जो वहाँ थी, यहाँ भी तो है। जैसे कि भूख ही इसकी सौतन हो। जला-जलाकर उसको मारेगी।

झूमरी घर के अंदर से जोर से चिल्लाकर बोली “अरी ओ, करमजली, चांडालिनी किस आदमी की राह देखने बैठी हो?” अभी गूड़ा आकर पूरे घर भर का सामान फेंक कर बेइज्जत नहीं करे, तो मुझे कहना।”

पिंकी की याद करके परबा का शरीर एक पल के लिए सिहर उठा था।

दूसरे कंगालों की भाँति अगर गूड़ा भी ‘चमडे-मांस’ में लगाव रखने वाला होता तो कोई बात नहीं थी। पूरे बस्ती भर की औरतें उसके पांव पर गिर जाती। गूड़ा बोलता था “तुम जैसी औरतों के मुंह पर, मैं थूकता हूँ। बाहर से जितनी चिकनी हो, अंदर से उतनी ही कमीनी। साली, तरह-तरह के कीटाणुओं से भरा हुआ है तुम्हारा सारा शरीर। तुम्हारे शरीर के इस बाजार में से मुझे कुछ भी नहीं खरीदना है! मेरा तो सिर्फ रूपयों से मतलब है। इसके बाद तुम लोग रंडी हो, या चंडी, मुझे कुछ लेना-देना नहीं। साली लोग, पैसा नहीं दे पारहे हो तो अपनी गठरी पोठली बाँधकर भागो यहाँ से। मैं इसको अच्छे लोगों की बस्ती बनाऊँगा। साली, तुम लोगों को खोली देने से बदनामी ही बदनामी है एक पैसे का फायदा नहीं। उल्टा पुलिस को भी पालो।”

फिर भी आदतों से मजबूर, मूर्ख लड़कियाँ अपनी मूलपूंजी को खोलकर बैठ जाती थी, गूड़ा जैसे अरसिक, पुरूष को रिझाने के लिये। कोई होठों पर लिपस्टिक लगाकर हंस देती थी तो कोई कपड़ों को घुटने से उपर उठाकर गूड़ा को उनकी सुडोल जांघे दिखाती थी। गूड़ा धमकाता था “दूंगा, साली को, खींच के।”

हर बार गूड़ा चेतावनी देकर जाता था कि अगले महिने उन सब को बस्ती में से उठा देगा। लेकिन कभी भी वह अच्छे लोगों की बस्ती नहीं हो पाती थी।

झूमरी आधा रूपया गिनकर उठ आई। “तू क्या बहरी हो गई है, इतने समय से बुला रही हूँ, सुन नहीं रही है क्या?”

परबा कम बोलती थी। झूमरी की बातों का उसने कुछ जबाव नहीं दिया। लेकिन झूमरी ने परबा के आँसूओं से छलकती हुई आँखो से जैसे कुछ भांप लिया हो। पूछी “गूड़ा ने तेरे साथ कोई बदतमीजी की क्या?”

“हाँ, छाती अब तक दर्द के मारे दुख रही थी।”

“तू खूंटे की भाँति खड़ी क्यों हुई थी? चली नहीं आई? गूड़ा के हाथ में कीड़े पड़ जाये, उसका वंश खत्म हो जाय। आ, आ भीतर आ। पहले ये सात सौ रूपयों को उसके मुंह पर फेंकेगे। उसको जाने दो, गरम सरसों का तेल लगा दूंगी तेरे छाती के उपर, तो तेरी पीड़ा खत्म हो जायेगी।”

झूमरी रूपयों को जमाकर कागज में मोड़कर रखी थी। परबा कोयले की सिगड़ी जमाने लगी। तभी पीछे से चिल्ला उठी, झूमरी।

“अरी ओ, मेरी प्यारी दुल्हन! किस दुल्हा के लिये थाली सजायेगी, जो सिगड़ी जला रही हो? समझी रे, परबा, गूडा को जाने दो। दो सूखी इलिश मछली उर्वशी के चूल्हे से भूंज कर ले आना, पखाल खायेंगे।”

परबा सोचती थी कि पहले किसी जन्म में यह झूमरी जरुर कोई रिश्तेदार रही होगी। नहीं तो इतना प्यार, उसके दिल में मेरे लिये नहीं होता। जिस दिन परबा इस नरक में आई उस दिन उसको लाकर झूमरी के जिम्में छोड़ दिया था। बोला था, कि यह लड़की तेरी ही जाति की है। न तो बात करना जानती है, न ही कोई काम-धंधा सीखी है। झूमरी को उस आदमी के उपर खूब क्रोध आया था।

“मैं क्या व्यापार चलाती हूँ? या कोई आश्रम खोलकर बैठी हूँ जो मेरे पास इसको छोड़ कर जा रहे हो। मैं तो अपना पेट भी नहीं पाल सकती हूँ। बेकार में किसी दूसरे का बोझ क्यों उठाऊँ? जा, जा यहाँ से ले जा, इसको।”

उस दिन पहली बार गूडा का नाम सुना था परबा ने “गूडा बोला है इसको कुछ दिन तेरे पास रख ले, ये खर्चा-पानी के लिये दो सौ रूपया। वह जब कमायेगी, तो सब तेरा ही तो होगा।”

“एक महीने की खुराक, सिर्फ दो सौ रूपये में नहीं होगा। तू और पैसा देकर जा। अच्छा बोल तो सही, यह मेरी खोली में रहेगी तो मेरा धंधा बंद नहीं हो जायेगा?”

उस आदमी ने कुछ भी नहीं सुना। और चार सौ रूपया झूमरी को पकड़ाकर वहाँ से चला गया। परबा, झूमरी को और झूमरी, परबा को एक घड़ी के लिये टकटक देखती रहीं। झूमरी, परबा को देखकर बिल्कुल खुश नहीं थी। बासन माँज रही थी। चूल्हा लेप रही थी। मन ही मन वह कुछ सोच कर रही थी। लेकिन, चाय पीते समय, कटोरी भर लाल चाय पकड़ा दी परबा को। पूछने लगी

“तेरा गांव कहाँ है?”

“बीजीगुडा”

“कहाँ है?”

“सिनापाली”

“सीनापाली, कहाँ?”

“मुझे नहीं मालूम”

“तू संबलपुर तरफ से आयी है क्या? मैं गंजाम, आशिका, से आयी हूँ। तू जाति की चमार बोलकर किसी को यहाँ मत बताना। रंडी की नहीं कोई जाति और नहीं कोई पति। फिर यहाँ की औरतें कम खरतनाक नहीं है? कोई पूछने से बोलेगी तुम यादव घर की बेटी हो। ठीक है।”

उसी दिन से झूमरी की किसी भी बात को अनसुना नहीं करती थी परबा। गुडा लौट जाने के बाद, कुछ सूखी हुई ईलिश मछली को धोकर ‘कड़सी’में दो बूँद सरसों का तेल डालकर परबा चली गई थी उर्वशी के घर। उर्वशी आलू काट रही थी, छोटे-छोटे टुकड़े टुकड़े कर। उसका बेटा आलू भूँजा के साथ पखाल खाने को जिद्द कर रहा था। परबा ने पूछा

“बहिना, तुम्हारे चूल्हे में आग है क्या? दो ‘सुखवा’गरम करती।”

“चूल्हें में कुछ कोयला डाल दी थी कब से यह लड़का पखाल खाने के लिये छटपटा रहा है भूँजे हुए आलू के साथ। वकील का बेटा है तो, इसलिये हर बात में इतनी जिद्द।”

उर्वशी अपने बेटे को वकील का बेटा कहकर बुलाती थी। यहाँ आने से पहले, बेचारी किसी वकील के द्वारा गर्भवती हो गयी थी। कसमे-वादे, धोखाधड़ी जैसे धारावाहिक कहानी की पुनरावृत्ति हो गयी थी उसके जीवन में। उर्वशी कहती थी कि यह उसकी भूल थी। वह पाप की थी, जिसका फल उसे मिल रहा है। नौकरानी होकर, वकील की बीवी के नहीं होने का फायदा उठाने के कारण। उर्वशी कहती थी, “मै एक पतिव्रता स्त्री के अधिकार को छीन रही थी। मैं उसका फल नहीं भोगूंगी, तो फिर कौन भोगेगा? वकील का बेटा पेट में था। उसको मारती भी कैसे? मेरे तो और कोई सगे-संबंधी नहीं थे। विधवा मामी ने मुझे घर से निकाल दिया। यहाँ आकर मैने वकील के बेटे को जन्म दिया। वकील के घर का बेटा आलू की भूजिया खाने को माँगेगा, तला हुआ गोश्त माँगेगा। इधर-उधर से लाकर दूँगी नहीं तो और क्या करुँगी?”

उसकी बातें सुनकर झूमरी ने अपना मुंह फेर लिया। वकील घर का बेटा था तो उसके ही घर में छोड़ देती। इस गंदी बस्ती में क्यों रखी हुई हो? यदि घोड़े के सींग होते, तो क्या यह धरती बचती?

उर्वशी का बेटा स्कूल जाता है। स्टेशन प्लेटफाँर्म के बाहर एक बड़ा सा घर है जिसमें बड़े आँफिसरों की बीवियाँ गरीब बच्चों को पढाती है। उर्वशी का बेटा उसी स्कूल में जाता है। इसलिए उस अकेली के ही घर में हर दिन सवेरे-सवेरे चूल्हा जलता है।

परबा ने उस कड़सी को तेज आग पर रखा, सूखी हुई मछलियों को भूनने के लिये।

उर्वशी ने पूछा “वह राक्षस किधर गया? परबा”

“हाँ दीदी, देखो ना मेरी छाती पर कितना जोर से मुक्का मारा था जिसका अभी भी दर्द छूटा नहीं है।”

मुँह में कपड़ा ठूँसने के बाद भी अपनी हँसी को रोक नहीं पा रही थी उर्वशी। बोली “तुम उस नपुंसक को दिखाने के लिये क्यों मर रही थी?”

“मैं क्यों दिखाउँगी। मैं तो अपने आँचल को ढक चुकी थी, उसके देखने के तुरंत बाद।”

“वह मर नहीं जाता? तेरे जैसी सरल लड़की को देखकर उसने ऐसा किया। मेरे को हाथ लगाकर देखता तो दादी-नानी सारी की सारी सब याद दिला देती, हाँ।”

परबा जानती थी कि गूडा की मरजी के बिना यहाँ, किसी के लिये भी रहना संभव नहीं है। परबा यह भी जानती थी कि उर्वशी जितना हाँक रही थी, गूड़ा के सामने असल में कुछ भी नहीं बोल सकती थी। एक छोटी लकड़ी से उलट-पुलट रही थी उन सूखी मछलियों को, तो इसकी गंध ने पेट की भूख को भड़का दिया, जिससे मुंह में पानी भर आया परबा के। कभी-कभी पेटभर पखाल खाने से माँ-बाप की याद आ जाती थी। क्या खाते होंगे वे बूढ़े माँ-बाप? कौन जाने शमिया दुआल की तरह सूख-सूखकर मर गये होंगे? उसका बाप उसे पास बिठाये बिना कभी भी पखाल नहीं खाता था। हर दिन पहला निवाला वह परबा को खिलाता था। बोलता था, “तीन लड़कों के बाद में पैदा हुई है मेरी बेटी। उसकी शादी टिटलागढ़, काँटाभाजी की तरफ करवाऊँगा। उसके कान-नाक के जेवर उसके तीन भाई जुगाड़ नहीं कर देंगे क्या?"

“मैं आपको छोड़कर नहीं जाऊँगी, बा।”

“अगर तुम शादी नहीं करोगी तो लोग क्या कहेंगे? तीन-तीन बड़े भाई होने के बाद भी तेरे लिए दूल्हा नहीं खोज पाये।” जब पास में मंझला भाई डाक्टर होता था, तब बा उससे कहते, “मेरी बेटी के लिये एक कंठी नहीं खरीद पाओगे तुम?”

“यह कंठी क्या चीज है?“

“सोने का हार है, सुनार के पास बनाना पड़ता है।”

खो गये या मर गये कौन जानता है? सभी भाई स्वार्थी हो गये।

बाप को बार-बार बुखार आता था। उसका एक पैर ठीक से काम नहीं कर रहा था मगर पेट क्या ये सब बातें जानता था? गरीब लोग जिस प्रकार से भूख को जानते है, दूसरे जानते है क्या?

माँ जा रही थी किसिन्डा, रहमन मियां के गोदाम में काम करने के लिये। दिन-भर बरामदा में बैठकर बड़बड़ा रहा था बाप। शक की वजह से वह माँ के बारे में गंदी-गंदी बातें करता था। पेंगा और महनी बूढ़ा बातों में मिर्च-मसाला लगाकर कहते थे। परबा गुस्सा से आग-बबूला हो उठती थी। बोलती थी “आप क्यों काम नहीं करते हो? बा, बैठे-बैठे इतनी गंदी-गंदी बातें बोलते रहते हो। आपको कुछ समझ में नहीं आता है क्या?”

“तेरी माँ तो छिनाल है। रहमन मियां की रखैल!”

“ऐ बा, तुम अगर ऐसी बाते करोगे तो मैं घर छोड़कर चली जाऊँगी।”

“जाना है तो तू भी जा! मैं किसी को भी रोकूंगा नहीं। साले लोग पंख लगने पर सभी उड़ गये, कोई भी नहीं रुका। और तू रहकर और कौनसा निहाल कर देगी?”

बाप की ये बातें सुनकर परबा का मन विचलित हो गया था। दुःख से वह टूट चुकी थी। परबा तो अपने आप को बाप की लाड़ली प्यारी जान मानती थी। उसके बिना उसका बाप एक पल भी जिन्दा नहीं रह सकता था। मगर बाप ऐसी बातें कर रहा था अभी। एक क्षण के बाद, उसे अपनी बाप के मन की व्यथा का अहसास हुआ। वह उसकी नाराजगी का कारण समझ चुकी थी।

इतना गुस्सा और नाराज होने के बाद भी अंतरा ने एक गाना गाया :

“हे किराये का मकान,

न तुम हो इसके, ना यह है तुम्हारा

पंचतत्वों का बना घर,

देह है कुछ दिन का सहारा।”

परबा की आँखे आँसूओं से छलकने लगी। उर्वशी बोली “सब कुछ जला देगी क्या, परबा? तेरा ध्यान कहाँ है? मछली जलने की गंध आ रही है।”

परबा का ध्यान लौट आया। भूनी मछली से भरी कड़सी को लेकर अपनी खोली में वापिस आ गयी

माँ के लिये परबा का मन बहुत दुखी था। कितना मेहनत करके माँ कमाती थी? फिर भी, बाप उसको बदनाम किये जा रहा था। शरीर तो जीर्ण-शीर्ण हो चुका था। एक पैसे की ताकत नहीं थी। उनको तो चुपचाप बैठना चाहिये था। क्यों ऐसे ऊफनता रहता था?

एक दिन नरेश ने ढोल बाँधने का काम दिया था बाप को। ढोल को कसकर नहीं बाँध पा रहा था वह। इसलिए जिस किसी को देखता था, उसको सहायता के लिए विनती करता था। “आओ तो, बेटा! मेरी सहायता करो।” पता नहीं, कैसे कसकर बाँधा था उस ढोल को बाप ने, कि जब नरेश ने उस पर अपने हाथ से दो-चार बार ढाप मारी, पर ढोल ढंग से नहीं बजा। तो वह नाराज होकर बाप को बुरी तरह से लताड़ने लगा “अगर तुमसे यह काम नहीं होता, तो तुमने मुझे पहले बताया क्यो नहीं? मेरे चमड़े को क्यों बरबाद कर दिया? मैं तुझको एक भी पैसा नहीं दूँगा, बता देता हूँ। आँख से तो दिखाई नहीं देता, और कहता है कि मैं ढोल बनाऊँगा?”

परबा के बाप का ढोल बनाने में बड़ा नाम था। चिकने चमड़े को भी खींच कर अच्छे तरीके से बांध लेता था। बारिश की एक बूँद गिरने से भी ठम-ठम की आवाज निकल आती थी ढोल से। उसको फिर इतना अपमानित किया नरेश ने! इतना गाली-गलौच किया कि बस मारना ही बाकी रह गया था! उसी दिन से पता चल गया परबा को कि बाप और काम नहीं कर पायेगा।

परबा बाप को भी दोषी नहीं ठहरा पाती। भाईयों को दोष देती थी। बड़ा भाई एक लड़की को लेकर भाग गया और ईसाई भी हो गया, बेईजू शबर की लड़की से शादी करने के लिये। मंझला वाला लड़का तो बाप का चहेता था। पर काम करने गया, सो गया ही गया। छोटा वाला क्रोधी और चिड़चिड़े स्वभाव का था। गांव के आवारा लड़कों की गलत संगत में पड़कर नक्सल फौज में भर्ती हो गया। गांव की लड़की कुन्द को वह दिल दे बैठा था। न जाने कैसे, सब कुछ भूलकर, वह नक्सल में चला गया। बाप के साथ बिल्कुल भी नहीं पटती थी उसकी। दोनों आपस में झगड़ा किया करते थे। कितनी बार बाप ने उसे अपने घर से निकाल दिया था। घूम-फिरकर वह वापस घर लौट आता था। किन्तु एक दिन वह जब घर छोड़कर चला गया, तो फिर लौटा ही नहीं। एक साल के बाद ही पता चला, वह नक्सल बन गया है।

कुंद की मां विधवा थी। फिर भी उसका बकरा उसको कमा कर देता था। वह केवल बकरा ही नहीं बल्कि कुंद का भाई बोलने से भी चलेगा। पूरे गांव भर में सबसे शानदार, मस्त जीव था वह। किसान हो, प्रधान, अगरिया हो या हलवाई, सब अपनी अपनी बकरियों को ले आते थे उसके घर में गर्भवती करवाने के लिये। उससे कुंद की माँ को दो-चार पैसा मिल जाता था। घोड़े जैसा ऊँचा, उद्दण्ड़ यह जीव लगता था जैसे कि भगवान का अवतार हो। उसके छू देने से भी बांझ पेड़ों में फूल भर जाते थे। लोग जब अपनी अपनी बकरियों को लाते थे तो साथ में सिंदूर, दूब, डाल पत्ते भी लेकर आते थे। घर के पिछवाड़े बंधे हुये बकरा को पहले पहल खाने के लिये डाल के दो टुकड़े देते थे और फिर सिंदूर, दूब लगाकर पूजा करते थे भोलेश्वर महादेव के नाम से। उसके बाद कुंद की माँ के पास छोड़कर जाते थे उनकी अपनी बकरियों को। कुंद की माँ बोलती थी “जा, मेरे बाप, एकाध घंटा छोड़कर आना। महाप्रभु की जब दया होगी, तब ही गर्भ ठहरेगा।”

मानो गर्भधारण एक पवित्र अनुष्ठान हो। किसी के मन में कोई पाप नहीं होता, कोई घृणा नहीं होती। परबा और उसकी सहेलियों ने कई बार देखा था उस सौ पुरुष वाले पराक्रम को एवं उसके ईश्वरीय संभोग को! उन्होंने देखा था कि एक बकरा किस प्रकार भगवान बन जाता था। एक दिन परबा कुंद को इस बस्ती की एक खोली में मिली थी। कहां से आकर, झूमरी ने यह खबर दी थी।

“रे परबा, तुम्हारे गांव बजीगुड़ा से एक ल ड़की आकर यहाँ पहुँची है। वह तुम्हारे बारे में जानती है।”

झूमरी की बात सुनकर परबा धक् सी रह गयी।

“सच बोल रही हो, झूमरी, फिर किसका कपाल फूटा हमारे गांव में?”

उत्सुकता को दबा नहीं पायी और भागने लगी परबा नीचे वाली खोली की तरफ। खोली के बाहर बैठी थी कुंद। कुंद को देखकर परबा को अपने पांव के नीचे की जमीन खिसकती नजर आयी।

“तू तो मेरी भाभी बनती। तू कैसे आगयी इस नरक में?”

परबा की बात सुनकर बिलख-बिलख कर रो पड़ी थी कुंद। सिसकी के बाद सिसकी आ रही थी। परबा के आँखों में भी आंसू आगये। परबा रोने जैसी होकर बोली, “और मत रो कुंद, मैं समझ गयी, तुम्हारे नहीं बोलने से भी क्या मैं नहीं समझ पाऊँगी? बता, तेरे पास कौनसी चीज की कमी थी? तुम्हारा वह बकरा कैसा है, रे?”

वही मर गया, तभी तो यह हालत हुई है। पागल होकर घूमा कुछ दिन तक, किसी की भी बात नहीं मानता था। जो सामने मिलता, उसे मारने दौड़ पड़ता। एक दिन तो किसिंडा चलागया। लोगों ने कहा, रेल्वे लाइन के नीचे छटपटाकर उसके प्राण निकल गये। मेरी मां खोजने गयी थी। कुछ पता नहीं कर पायी उसका।

“तुम जंगल की तरफ गयी थी रे, कुंद?”

कुंद चुप रही।

“हरामजादी, तुम बकरा की बात तो कर रही है, अपनी दुर्दशा की बात क्यों नहीं बताती? वो फोरेस्ट-गार्ड....”

कुंद को जैसे कि बचने का कोई रास्ता नहीं मिल रहा था। परबा के मुंह से फोरेस्ट-गार्ड का नाम सुनकर रुका हुआ रोना फिर फफक-फफक कर बाहर निकलने लगा था।

“रो मत मेरी बहिन, ये सब हमारी किस्मत का खेल है। और क्या कर सकते थे? तू किसी को मत बताना कि मैं यहां हूँ। मैं भी किसी को नहीं बताऊँगी। भूख लगे तो मेरे पास आ जाना।”बोलते-बोलते परबा ने रोना शुरु कर दिया। वह तो अभी झूमरी की भूमिका निभा रही थी। संभाल लेगी कुंद को किसी भी तरह। उसने कुंद को अपनी बाहों में ले लिया “मेरी बहिन, मेरी भाभी।”

बाट जोहते-जोहते थक गये, पर इस साल भी बारिश नहीं हुई। तपती धूप में जंगल जलता जा रहा था। कभी खुशहाल प्रजा की भाँति घिरी हुई लतायें और झाड़ियाँ सूख गयी, और जंगल लग रहा था प्रजा-विहीन। एक जमाने से राजा-जमीदार जैसे खड़े हुए साल, बीजा, अर्जुन तथा गम्भारी के पेड़ सब आज दुःखी प्रजा जैसे श्रीहीन होकर असहाय लग रहे थे। उदंती नदी एक रंगहीन, रसहीन प्रौढ़ा औरत की तरह पैर पसार कर बैठी थी। पूरा इलाका तप रहा था पहाड़-पर्वतों की लंबी-लंबी सांसों से। मिट्टी में कब से जंभाई लेते मुंह में, जैसी दरारे पड चुकी थी। दूर से पत्थर काटने वालों की ठक्-ठक् की आवाज जरुर हवा में तैरती हुई आ रही थी, मगर यह कोई गीत नहीं था।

इस बीच, आम, जामुन इत्यादि के पेड़ एक ऋतु के फल बाँटकर अब ठूंठ के ठूंठ बन कर बैठे थे। हाथियों के झुण्ड की बात तो रहने दो, एक लंगूर भी नहीं कूद रहा था इस डाली से उस डाली पर।

उमड़-घुमड़कर बादल गरज रहे थे, पर दूर गांव में। नवरंगपुर या नुआपाड़ा के ऊपर। कभी-कभी आकाश में बिजली चमक रही थी। कभी उत्तर की तरफ, तो कभी दक्षिण की तरफ। कभी-कभी भरी दुपहरी को भी बादल ढक कर रख लेते थी। कई आशाएं लिये गांव वाले घर के बाहर, रास्ते के ऊपर, होठों पर खुशी और मुस्कान लिये आपस में बातें कर रहे थे, देखो, उधर देखो बादल, सात बेटों की माँ, बनकर आ रहे हैं। कोई बीड़ी सुलगा रहा था, कोई बाड़ ठीक कर रहा था, तो कोई गीतों में सुर मिला रहा था। कई खुशमिजाज तो पेट भर पीकर रास्ते में मतवाले हाथी की तरह झूमते हुये घूम रहे थे। अंधेरा छा रहा था, मानों किसी ने काला कंबल बिछा दिया हो सारे आकाश में। अभी यह लटका हुआ कंबल सारे जंगल को ढक देगा। पेड-पौधे अपनी कमर से कमर सटाकर, हाथ में हाथ फसाकर गोल-गोल नाचना चाहते थे। मगर वे एक दूसरे से इतना दूर थे कि हाथ बढाने से भी कोई किसी की कमर को छू भी नहीं पाते थे। हाय! कितने बुरे दिन! बादल नीचे आ रहे थे। मगर पेड़ अपनी ताल, और नहीं बैठा पा रहे थे।

कौन जाने रसहीन जंगल के व्यवहार से दुखित और अपमानित होकर कहीं बादल चले गये हो, दूसरे रास्ते पर धीरे-धीरे? बादल पीछे हटते जा रहे थे। असहाय मनुष्य हाथ बढ़ाकर उनको पकड़ नहीं पाते थे। पेड़-पौधे स्तब्ध रह गये थे। कई दिनों से कहीं खो सी गयी थीं चिड़िये। मुश्किल से जो एकाध जिन्दा बची थी, वे अपनी आवाज में बादलों को पुकार रही थी-

“रुक जाओ, एक पल के लिये रुक जाओ।”

बादल जैसे रुठ कर कह रहे हो कि नहीं रुकेंगे। बादलों के रास्ते में यह गांव आया, इसलिये उस गांव के ऊपर से चले गये, नहीं तो गांव के साथ उनकी कैसी प्रीति?

हाथ बढ़ाने से बादल को छू नहीं पाते थे। मनुष्यों की लंबी-लंबी दुख भरी सांसे भी छू नहीं पा रही थी उन बादलों को। कभी-कभी बादल ऐसे ही अपना विपुल यौवन दिखाकर चले जाते थे दूसरे गांव को। जंगल में रहने वाले लोग हताश और निराश हो जाते थे। जंगल को जलाकर खेती के लिये जमीन तैयार कर रखी थी, कब से उन लोगों ने। धरती माँ को कबसे ‘सलप रस’और ‘मुर्गे के खून’का प्रसाद चढ़ा चुके थे। फिर भी इन्द्र भगवान खुश नहीं हो रहे थे।

इन्द्र देवता क्रोध में थे. उन्हें मनाना पड़ेगा। इसलिये गांव वालों ने अपने ओझा के साथ सलाह मशविरा भी किया। इन्द्र देवता को बहलाना फुसलाना पड़ेगा, सलप रस और मुर्गे की बलि चढ़ाकर। मगर इन्द्रदेवता तो लंपट देवता है। वे सिर्फ खाने-पीने से खुश नहीं होते है। जंगल के वांशिदे आखिरकार एक हल खोज लेते हैं। बूढे ओझा के सलाह मशविरे से जमीन साफ की जाती है। सब सलप रस पीते हैं और इन्द्र देवता को थोड़ा भोग चढ़ाते हैं। अब सभी जवान लड़कियां निर्वस्त्र हो जाती है। उपर से इन्द्र देवता उनके रूप लावण्य का उपभोग करते हैं, किशोरियों के भरे-पूरे यौवन को देखकर। अब इन्द्र देवता रुक नहीं सकते थे। उनका शरीर गीतों के बोलों के साथ झूम उठता था। इन्द्र के वीर्य की तरह विक्षिप्त हो, गुच्छा-गुच्छा होकर बादल फूट पड़ते थे। जंगल के वाशिंदे कुछ समझे या न समझे, मगर इतना जान जाते थे कि नारी शक्ति स्वरुपा है। वह भूदेवी है। भूदेवी के आहवान् से इन्द्रदेवता त्राहि-त्राहि करने लगते हैं।

हल्की-हल्की बारिश के बाद, इन्द्र फिर माया रचते हैं। बादलों के बीच में सूर्य के दर्शन होने लगते हैं। ऐसी ही आस्था और अनास्था को लेकर जंगल वाले जीते थे। सब यही सोचते थे, कि यह सब किस्मत का खेल है। अपने-अपने कर्मों का फल मानते थे। भाग्य के विरुद्ध जाने का उनमें साहस नहीं था। और उनके पास कोई उपाय भी नहीं था।

वे अपनी सरलता से सिर्फ विश्वास करना जानते थे। वे केवल जानते थे दो देवियों के बारे में, ‘करमसानी’ और ‘करममानी’ के बारे में। कर्मों के अनुसार वे फल देती थी। कर्मा पेड़ की डाली को गाढ़कर, कर्म देवता की पूजा करते थे वे लोग। एक दूसरे के हाथों में हाथ फंसाकर, बालों में ‘कर्मा पेड़’ की डाली गूंथकर, दारु पीकर देवी-देवताओं को दारु का प्रसाद चढ़ाकर गाना गाते थे नाचते थे माँदर की ताल पर।

“गायेंगे कर्मा के गीत

पर गाने का बोल नहीं है आता

शत्-शत् प्रणाम है कर्मासानी माता

प्रसन्न हो हे भगवती! हे माता!”

ऐसा क्या दुष्कर्म किये थे उन लोगों ने? बादल, शैतान की हंसी होठों पर लेकर चले जाते थे जैसे घोड़े पर सवार हो। जाते वक्त केवल दो बूंद पानी गिरा देते थे, जैसे कोई दो मुट्ठी तंदूल फेंक कर चला जाता हो।

निरुपाय होकर, बरामदे में बैठकर, जुगाली करते हुये बुजुर्ग लोग सोचते थे कि घोर पाप का समय आ गया है। पोटली बांधकर देश-प्रदेश जाने के लिये तैयार हो जाते थे स्वप्नदर्शी युवक। युवतियां साप्ताहिक हाट में जाकर गायब हो जाती थीं। कहीं, किसी को भी पता नहीं चलता था गांव में। गांव की युवतियां गायब हो जाती थी और युवक कहकर जाते थे कि दो महीने में चले आयेंगे, मगर लौटते नहीं थे। बे-मौसम में बचा खुचा पानी, पहाड़ के सीने पर डालकर चले जाते थे इन्द्रदेव। झाड़ी जंगल बढ़ जाता था परन्तु खेती नहीं होती थी। पेड़-पौधे भले ही बढ़ जाते थे, पर गांव आदमियों से खाली हो जाता था। जो जा नहीं पाते थे वे बरामदा में केवल खंभा बनकर रह जाते थे। सिर्फ थोड़ी-सी बारिश के लिये जंगल के वांशिंदे इतना कष्ट उठाते थे।

वे लोग उन पर विश्वास करते थे जिन्हें कभी देखा नहीं था। और जिसको देखा था, उसको समझ नहीं पाते थे। कभी भगवान बड़े लगते थे, तो कभी सरकार। भगवान और सरकार के द्वन्द में, किसके आगे हाथ फैलाये, वे समझ नहीं पाते थे। धूप, मधु, साल के बीज, तेंदू पता, महुआ, बेंत आदि बेचते थे वे लोग तथा बदले में खरीदते थे भात, चावल, सब्जी, नमक और कपड़ा। सरकार शिक्षक भेजती थी, चावल भेजती थी, दवाई भेजती थी, रास्ता भेजती थी, बिजली भेजती थी, मगर उदंती के उस पार कुछ भी नहीं पहुंच पाता था। पर उदंती के इस पार से उस पार चले जाते थे शीशम, गंभारी तथा साल के पेडों की लकड़ियां।

जंगलों से गायब हो रहे थे शेर, भालू और हाथी और बढ़ रही थी नक्सलियों की फौज। शेर की दहाड़ के बदले सुनाई देती थी बंदूकों की गोलियों की आवाजें। जंगल में तैयार होता था एक अलग भारतवर्ष। इस प्रकार जंगल लुप्त हो रहे थे एवं लुप्त हो रहे थे आस-पास के लोग। मगर बादल ये बातें नहीं समझते थे। दोनों देवियां करमसानी, करममानी भी नहीं समझ पाती थी, नहीं समझ पाते थे आँखों में सपने संजोये हुये परदेश गये हुये युवक-युवतियां।

सवेरे उठते समय सरसी का सिर दुख रहा था। भारी होकर सिर ऐसा लग रहा था जैसे पीछे की तरफ कोई खींच रहा हो। बांस की बनी चटाई से उठकर वह दीवार के सहारे बैठ गयी। सवेरे से ही सिर दर्द ने इतना जोर पकड़ा कि उसे लगा कि कहीं उसे बुखार न हो जाये। चूड़ियों की खनखनाहट सुनकर कब से उठकर बाहर बैठा अंतरा, बोला

“जरा, चाय-पानी तो पिला”

सरसी सुनकर भी चुपचाप ऐसे ही बैठी रही। सिर के अंदर जैसे कोई हथौड़ी मार रहा हो। पिछले रात की बात उसे याद हो आई। अंतरा के उपर गुस्सा होकर खाना छोड़कर उठ गई थी एवं शुरुकानी के घर जाकर दस रूपये का दारु पीकर आई थी। वैसे भी सरसी देशी दारु नहीं पीती थी। थकान मिटाने के लिए कभी-कभी एकाध गिलास महुली पी लेती थी। बचपन से आज तक उसने कभी देशी दारु छुई तक नहीं थी। उसको याद आया, जब वह पांच-छः साल उम्र की थी, देशी दारु पीने से उसके गांव के पन्द्रह-सोलह आदमी छटपटाकर मर गये थे। उनमें से एक उसके ताऊजी भी थे।

सरसी का बाप दो-चार घर से इसलिए वापिस आगया था, कि उसका स्वागत-सत्कार दारु के साथ नहीं किया गया था। वापिस आकर कहने लगा था “वे लोग भूखमरे है, कंगाल हैं। दारु पीने के लिये पास में पैसा नहीं है, तो मेरी बेटी का क्या भरण-पोषण करेंगे, जो मैं उनके घर रिश्ता करुँगा? जब मैं गया था उनके घर, तो दारु के लिए पांच रूपये भी नहीं निकाल पाये थे। मेरी कटोरी में कुसना दारु डाल दिये थे।”

सन्यासी का बाप उस समय हट्टा-कट्टा, बड़ा ही सुंदर दिख रहा था। बाहें थी दोनों खंभे के जैसी। सिर्फ दो आदमी, मरी हुई बड़ी भैंस की लाश को किसिंडा तक अपने कंधों के बल से लाद कर ले जाते थे। सरसी का बाप उस समय ‘सिडिंगागुड़ा’ गया हुआ था। इतनी बडी भैंस को, सिर्फ दो लड़के उठाकर ले जाते हुये देखकर वह आश्चर्य-चकित होकर एक घड़ी तक उन्हें देखता ही रह गया। सरसी का बाप पूछ रहा था

“तुम दोनों लड़के किसके हो?”

सन्यासी का बाप मसखरी करते हीं-हीं कर दाँत निपोरते हुए हँसने लगा। बोला

“क्यों, अपनी लड़की से शादी करवायेगा क्या?”

“साला, लपंगा कहीं का! मेरी बेटी को दूंगा या नहीं, यह तो बाद की बात है। पहले तेरे बाप का नाम तो बता?”

“क्या मेरे बाप से दोस्ती करोगे?”

साथ कंधा देने वाला लड़का मुस्कराते हुये बोला,

“अरे, यार, क्यों इतना परेशान कर रहा है? बाबा के साथ क्यों उलझ रहा है? चुपचाप बता देने से तो बात खत्म।”

“बाबा, इसके बाप का नाम निकस सतनामी है। मरे हुये एक अर्सा हो गया है। आपका कोई काम था क्या, उनसे?”

“इस भैंस को कहां लेकर जा रहे हो।”

“बीजीगुड़ा, हमारे गांव”

दो दिन के बाद सरसी का बाप आ पहुँचा था अंतरा के घर। अंतरा की मां बरामदे में बैठकर झाडु बांध रहीं थी। साथ में आंगन में सूख रहे भैंस के मांस की तरफ भी देख रही थी। ये घर जरुर निकस सतनामी का ही होगा। सरसी के बाप ने पहचान लिया।

“यह निकस सतनामी का घर है क्या?”

बूढ़ी अचरज के साथ मेहमान की तरफ देखने लगी। इतने दिन बाद उसके आदमी का नाम किसी ने पुकारा था। गांव वाले ‘अंतरा का घर’, ‘अंतरा की माँ’ के नाम से पुकारते थे। यह कौन है जो निकस सतनामी को खोज रहा है। एक अर्से पहले ही वह मर चुका है। लोग तो उसका नाम भी भूल चुके थे।

“तुम कौन से गाँव से आये हो? क्या काम है?-”

“तेरे बेटे का नाम अंतरा है ना?” भैंस को अपने कंधे पर लादकर ले जाते हुये मैने उसको देखा था। “वाह! बड़ा सुंदर हट्ठा-कट्टा नौजवान है।”

अंतरा की माँ को ताज्जुब हुआ। यह अनजान आदमी उसके बेटे के ऊपर डोरे डाल रहा है क्या?

“क्या बात है, मेरे बेटे के उपर तुम्हारी इतनी नजर क्यों? नहीं, नहीं बोलकर इतनी बड़ी बात बोल रहे हो?”

जलती हुई बीड़ी को दीवार पर रगड़कर, बुझाकर कान के ऊपर रख दिया था सरसी के बाप ने।

“इतना गुस्सा क्यों कर रही हो? तुम्हारे बेटे के उपर कोई डोरे-वोरे नहीं डाल रहा हूँ। उसके लिये शादी का प्रस्ताव लेकर आया हूँ।”

“तुम कौनसे गांव के हो? किसकी बेटी के लिये प्रस्ताव लेकर आये हो।”

“वह मेरी बेटी है।”

“क्या तुम ठूंठ हो? गांव में तुम्हारा कोई सगा-संबंधी नहीं है, जो यहां अकेले आये हो?”

“गुस्सा क्यो कर रही हो? मैं तो सिंडिगागुडा जा रहा था। तुम्हारे बेटे से रास्ते में मुलाकात हुई। वह लोग भैंस ढोकर आ रहे थे।”

“अच्छा, अच्छा, तुम बैठो यहाँ। मैं अपने पास-पडोसियों को बुला लेती हूँ। उनके साथ तुम बात कर लेना।”

बाप के मुंह से ये सब बाते सरसी ने सुनी थी। अंतरा का खूब गुणगान कर रहा था। घोड़े के बच्चे की तरह चंचल व ताकतवर। काम करेगा, खायेगा। उसको कभी भी किसी चीज का अभाव नहीं होगा।

‘बिजीगुडा’ से सगे संबंधियों को लेकर अंतरा की मां आयी। और संबंध की बात पक्का कर गयी। कुछ महीनों बाद, शादी होकर सरसी बीजीगुड़ा आयी थी। सचमुच, बहुत ही शक्तिशाली था वह। कहां-कहां दूर-दूर के गांव जाकर भैंस की हड्डी लाकर बेचता था रहमन मियां के गोदाम में। सतनामी लोगों का वह अगुआ था। जो ज्यादा किया, धरा, वह ही अगुआ होगा ना।

सन्यासी के जन्म वाले साल में, अगर उसका पैर नहीं टूटता तो उसकी यह अवस्था नहीं होती। पैर तुड़वाकर वह अकर्मण्य हो गया। बैठा रहता था। इसलिए तो सरसी को दौड़ना पड़ रहा था किसिंडा। किसिंडा जाने के पीछे सरसी का और एक उद्देश्य भी था। उस अंचल में आश्विन से मार्गशीष महीने के बीच मुर्शिदाबादी पठान डेरा डालते थे। उस समय वे लोग बूढ़े, निठल्ले या जवान बैल का, मोल-दाम लगाकर खरीदते थे। वे लोग दिन के समय खरीदी हुई गायों की टोली को चराने के लिये पहाड़ के नीचे तक ले जाते थे। लगभग पचास गायों की टोली हो जाने पर, वे लोग तीन-चार अलग-अलग समूहों में बँट जाते थे। और उनको हाँकते हुये ले जाते थे कोलकत्ता, मालदा और मुर्शिदाबाद की तरफ। गायों के साथ-साथ वहाँ चमड़े की भी खरीददारी होती थी। ये सब सामान लेकर, उनका एक दल, ट्रक बदल बदलकर ले जाते थे उनके देश।

आजकल मुर्शिदाबादी पठान लोग आना-जाना कम कर दिये थे। आ रहे थे केवल पांच-सात आदमी। पहले जैसी आमदनी भी तो नहीं रही। लोगों का गाय पालने का शौक भी घट गया था। केवल कुछ पुराने खानदानी लोग, गांव में अपनी शान-शौकत के लिए गुवालों मे, गौशालाओं में कुछ गायें बाधकर रखे थे. गांव में गाय के बदले आजकल घूमते थे फटफटिये।

उसी मुर्शिदाबाद पठान लड़के के उपर, सरसी को बड़ा संदेह होता था। उस साल वह लड़का किसिंडा आया था। फिर बाद में कहां गायब हो गया, पता नहीं चला? पतली-पतली मूँछे, बड़ी-बड़ी आंखें, पतले-पतले होंठ, तलवार की धार जैसी नाक, ठुड्डी पर निकल आयी थी बबरी दाढ़ी।

उस लड़के को खोजने हर साल, आश्विन से मार्गशीष महीने तक, रोज पाच-छ कोस रास्ता पैदल चलकर सरसी आ जाती थी रहमन मियां के गोदाम तक। वहीं सब पुराने लोग होते थे, जो हर साल आते थे। लेकिन वह लड़का, और नहीं आता था। अहमद हारुक लियाकत से सरसी उस लड़के के बारे में पूछती। वह उस लड़के के बारे में कुछ बता नहीं पाते। लड़के का नाम मुराद, अबुबकर का भांजा। अबुबकर तो कब से अतिसार की बीमारी से मर चुका था। इधर से लौटते समय पुरूलिया में उसका देहान्त हो गया। सब मिलकर गड्ढा खोदकर रास्ते में ही दफना दिये थे। बूढ़ा निसंतान था। मुराद के अलावा उसका कोई और नहीं था।

सरसी पूछती थी “मुराद कहाँ रहता है, बाबू?”

लियाकत मियां अचरज से पूछता “उससे तुम्हारा क्या काम है?”

“तुम पहले बताओ ना, वह किधर चला गया? इसके बाद मैं तुमको बताऊंगी।”

लियाकत समझ नहीं पाता था. सरसी क्या बोलना चाह रही थी। पर बेचारी औरत का मन तोड़ नहीं पाया एवं कहा कि मुराद तो सीमा-पार कर बांग्लादेश चला गया।

“कहाँ है वह देश? तुम लोगों के गांव से वह कितना दूर पड़ता है? उस देश में वह क्यों चला गया? जाते समय उसके साथ और कौन-कौन गये? बताओ ना!”

“तू इतना सब कुछ क्यों पूछ रही है? बता, उसके ऊपर तुम्हारी कोई उधारी है क्या?”

“मैं, गरीब, कहाँ से पाउंगी रूपया पैसा जो उधार दूंगी। एक मुट्ठी खाने को तो नसीब नहीं होता है। पर वह लड़का मेरी एक बड़ी संपत्ति चुरा कर ले गया है। किस देश में चला गया है, बताओ, ना! कहाँ है वह देश? रेल में जाने से कितना पैसा लगता है?”

“तू वहाँ जायेगी क्या?” हीं-हीं करके हँस दिया था लियाकत। “जा, यहाँ से पगली”

सरसी को गुस्सा आता था। वह पागल नहीं थी। सब उसे पागल क्यों सोचते हैं? अपने बेटे-बेटियों की खबर लेना क्या पागलपन है? अगर हाँ तो, वह जरुर पगली है। उसके चार-चार बच्चे कौन किधर चले गये कि वह पता भी नहीं लगा पायी।

“हे भगवान! तीन-तीन मेरे लड़के कमाकर लाते और मैं बैठकर खाती। देखो रे, मेरी फूटी किस्मत! इस पेट के लिये दो मुट्ठी खाना जुगाड़ नहीं कर पा रही हूँ। किस हालत में होंगे मेरे बच्चे लोग? पता नहीं। और मेरी बेटी? ओ मेरी परबा तू कहाँ है रे! मेरी बच्ची?” भावुक होकर सरसी रो पड़ी।

बरामदे में बैठकर हुक्म चला रहा था अंतरा। धमकाने के स्वर मे पूछा “दिन में सपने देख रहीं है क्या? मेरा सिर दुःख रहा है। इसलिये चाय-पानी पिलाने को कह रहा था। अनसुनी कर, तुम जागते-जागते सपने देख रही हो क्या, अभी तक?”

सरसी चटाई समेटने लगी थी। वह आज किसिंडा नहीं जा पायेगी। उसका सिर भारी-भारी लग रहा था। मुंह धोकर चूल्हा लीपना शुरु कर दी थी। दांतुन दाँतों के बीच दबाकर, पूरे घर का झाडु की। एक लुत्था गोबर बाहर से खोज कर लायी और पानी में घोलकर आंगन में छींटने जा रही थी, तभी गुस्से से तम-तमाकर अंतरा बाहर बरामदे से उठकर आगया। पूछने लगा “तुझे कुछ सुनाई नहीं देता है क्या? बहुत लापरवाह हो गयी है तू? दूंगा खींच के दो घूंसा, तो पता चलेगा। ”

“मारेगा, मार। मेरे उपर इतना गुस्सा क्यों हो रहा है? मारना ही था तो फोरेस्ट-गार्ड को क्यों नहीं मारा? तू अगर मर्द होता तो गार्ड को दो घूंसा नहीं मार देता।”

अंतरा की मर्दानगी को जैसे, किसी ने झकझोर कर घायल कर दिया हो। गुस्से में आग-बबूला होकर अंतरा सरसी की तरफ झपट पड़ा। “साली, देखेगी?” अंतरा में और पहले जैसी ताकत नहीं रही। फिर भी उसने धड़ाक से एक घूंसा तान दिया था सरसी की पीठ पर। ऐसे भी सरसी का सिर दुःख रहा था। ऊपर से इस घूँसे ने सरसी को हिला सा दिया था।

“साले, जंगली, जिन्दा लाश, तू मुझे क्यों मार रहा है बे? मैने तेरा क्या बिगाड़ा था?” जोर से एक धक्का मार दिया अंतरा को। अंतरा लडखडाकर नीचे गिर गया था। और उसके हाथ की लाठी फिसल कर तीन हाथ की दूरी पर गिर गयी। सरसी की आँखे पश्चाताप के आंसूओं से भर उठी। आंसू भरी आँखों से उसने अपने नीचे गिरे आदमी को उठाया।

सरसी का सहारा पाकर अंतरा उठा, पर अभी भी उसका गुस्सा शांत नहीं हुआ था। नाग साँप की भाँति फुफकार रहा था। बोल रहा था “मैं शहर में जाकर भले ही भीख माँग लूंगा, पर तेरे हाथ से पानी भी नहीं पीऊँगा। साली, शरीर बेचकर खा रही है। वैश्या कहीं की! रहमन की रखैल, कहीं की!”

सरसी और अपने आप को संभाल नहीं पायी। नागिन की तरह फुंफकारते हुये झपट पडी। और बोलने लगी “निकल, निकल, तू इस घर से! भाग, नहीं तो मैं जा रही हूँ। जहर खाकर मर जाऊँगी। लेकिन इस घर के आंगन में पांव नहीं रखूंगी। तू मेरा आदमी होकर, मुझे बदनाम कर रहा है। मैं और यहाँ किसी भी हालत में नहीं रहूंगी।” गाली देते-देते जमीन पर बैठ गई, जोर-जोर से रोने लगी सरसी।

“सुबह-सुबह, बिना बात का हल्ला-गुल्ला कर रही हो। मैं बोल देता हूँ तो तुझे लग जाती है। गांव के सभी जब मेरा मखौल उड़ाते हैं, तो उस समय कुछ नहीं होता।”

“सच्ची में, तू क्या अलग बोल दिया जो?” रोते-रोते बोली सरसी।

“सीता माता को भगवान राम ने भी तो बदनाम किया था। अग्नि-परीक्षा ली थी। घर से निकाल भी दिया था। अरे! लोग तो कुछ भी करने से कुछ न कुछ बोलेंगे। जब अपना आदमी उनकी बातों में विश्वास करेगा तो सीने में चक्कू चलाने जैसा लगता है।”

जब चरित्र पर एक बार कलंक लग जाता है, तो छूटता नहीं है। कितनी भी कोशिश कर लो, कितना भी देते-लेते रहो। सब बेकार। सरसी के सिर में आधासीसी दर्द हो रहा था। इस घटना के बाद उसका सर दर्द न जाने कहाँ गायब हो गया, मानो यह दर्द उस दर्द से कई गुणा बढ़कर हो। सुबह के चूल्हे-चौके का काम कर किसिंडा जाने की सोच रही थी। गरीब आदमियों के शरीर में कितनी भी पीड़ा हो, घर में कितनी भी दिक्कतें हो, पेट के खातिर उन्हें काम पर जाना ही पड़ता है। अंतरा के मुख से उगलते हुए जहर को सुनने के बाद सरसी में जाने के लिए हिम्मत नहीं थी। अभी-अभी अंतरा ने उसको रहमन मियां की रखैल बोल कर गाली दी थी। अब किस मुंह से वह जायेगी रहमन के गोदाम की तरफ? वह तो सिर्फ गोदाम में काम नहीं करती, गोदाम के नजदीक जो बगीचा था, जिसमें किस्म-किस्म के पेड़-पौधे थे, उसकी रखवाली का भी काम करती थी। जिस दिन जैसा काम करने का हुक्म दिया जाता था वह उस काम को करती थी। अगर उसे दो रूपया और दो मुट्ठी चावल नहीं मिले तो उसका घर कैसे चलेगा?

उसने तय कर लिया था कि अब कभी किसिंडा नहीं जायेगी। घर में चूल्हा जले या ना जले,उसको उससे क्या मतलब? जब पेट में आग लगती है, तब पता चलता है कि कहने और करने में कितना अंतर है? मिट्टी और पुआल लाकर रसोई घर के बरामदे को लेपने का काम करने लगी। इस बीच अंतरा अपनी लाठी लेकर कहीं चला गया था। अचानक सरसी को याद आगया कि लियाकत बता रहा था मुर्शिदाबाद की तरफ से पठान लोगों का एक और दल किसिंडा आयेगा। तभी से उसके मन में मुराद को लेकर आशा की किरण जाग उठी। हो सकता है उस दल में मुराद भी हो? उसका मन शंकित हो उठता था, कहीं वे लोग आकर काम कर दूसरी जगह तो नहीं चले जायेंगे। जल्दी-जल्दी से अपना काम पूरा कर थोड़ी-सी नमक वाली चाय बना दी। उसने देखा कि अंतरा घूम-फिरकर बरामदे में आकर बैठा हुआ था। एक कटोरी चाय और दो मुट्ठी ‘मूढी’ लाकर रख दी थी अंतरा के सामने। और बोली कि “मैं किसिंडा जा रही हूँ, उसके बगीचे में पानी देना है। उसके गोश्त की दुकान भी धोनी है।”

अंतरा ने सरसी की बात का कोई उत्तर नहीं दिया। चाय के साथ मूढी मिलाकर फूँक-फूँककर पी रहा था। सरसी जाते समय बोली “बरतन में पखाल रखा है, मन होने से खा लेना। रहमन मियां के बगीचे की घेराबंदी के तार एक तरफ से खुल गये है, उसे बनाना पडेगा।”

पता नहीं क्यों आज सरसी ने काम के बारे में कुछ ज्यादा ही बताया था। शायद वह मुराद को ढूंढने जा रही थी, इस बात को छुपाने के लिये, या फिर अभी-अभी अंतरा ने उसके चरित्र पर आरोप लगाये थे इसलिए। वह घर से दबे-दबे पाँवों से जा रही थी। सरसी को मालूम था कि वह चाय के साथ बरामदा में बैठकर मूढी खा रहा था। उसके सामने से जाते वक्त उसके पाँव एक दूसरे में उलझ गये थे। वह अपने आप को असहाय अनुभव कर रही थी।

बरगद वाले मोड़ को पार करने के बाद थोड़ा अच्छा लग रहा था सरसी को। सन्यासी का बाप जो सोचना चाहें, सोचें पर जब तक उसके हाथ पाँव चलेंगे, वह सब के लिये करेगी, ढूंढेगी, सोचेंगी, व चाहेंगी। कोई न कोई दिन ऐसा जरुर आयेगा, जब उसके घर वालें सभी मिल जायेंगे। बेटे, बेटी, नाती, नातिन के हल्ला-गुल्ला, हँसी-मजाक से खिल उठेगा वह घर। इतना ही तो वह चाहती थी!

आज वह मुराद को पूछेगी, “कहाँ लेकर रखा है उसकी बेटी को? जब ले गया था तो एक बार तो लौटा लाना चाहिये था उसे अपने मायके को।” तीन भाइयों के पैदा होने के बाद में इकलौती लाड़ली बेटी, क्या खाती होगी? क्या पीती होगी? उसकी सास कैसी होगी? वह आज मुराद को पूछेगी कि अलग जाति, अलग देश का होकर उसकी बेटी को लेकर क्यों भाग गया था? कौन जानता है पठान लोगों के रहन-सहन, वेशभूषा, चाल-चलन से वह परेशान न हो? मुराद का चेहरा उसकी आंखों के सामने आ जाता था। पतली मूंछे, बबरी दाढ़ी, धारीदार लूंगी के ऊपर एक पंजाबी कुर्ता पहना हुआ वह लड़का उसकी बेटी को फुसला रहा था।

सरसी किसिंडा में पहुंचकर रहमन के गोदाम में जायेगी क्या? वह तो सीधी चली गई थी पठानों के डेरा तक। लियाकत वहाँ पर नहीं था। सरसी कभी-कभार उसके साथ अपने सुख-दुख की बातें करती थी। हारुफ सिगड़ी पर खाना पका रहा था। सरसी ने पूछा,

“भाई, और कौन-कौन आने वाले थे तुम्हारे देश से? वे लोग आये क्या?”

हारुफ प्याज काटते हुये बोला

“हाँ, सोलेमान और शौकत आये हैं। सिर्फ, दो लोग ही आये हैं और कोई नहीं।”

“क्यों? तुम्हारा कुछ काम था? तुमको क्या रहमन ने भेजा है?”

“नहीं, उस लड़के के बारे में पूछ रही थी।”

“तुम मुराद के पीछे भागते-भागते एक दिन पागल हो जाओगी। तुम क्या पागल हो गयी हो, जो मुराद तुम्हारी बेटी को ले कर भागेगा? हम में से किसी ने भी तेरी बेटी को ले जाते हुये नहीं देखा, समझी? अब तुम घर जा।”

“तुम सच बोल रहे हो, भाई?”

“अरे मुराद तो हमारे साथ मुर्शिदाबाद लौटा था। वहीं से सीमा पार कर अपने छोटे मामा के घर चला गया था। सभी को पता है।”

“तब मेरी परबा? परबा कहाँ गई?”

हारुफ कुछ नहीं बोला। वह इतना ही जानता है कि यह काम उसके रिश्तेदार नहीं कर सकते थे।

सरसी का मन मान नहीं रहा था। उस दिन ऐसे ही साप्ताहिक हाट लगा था। सरसी काम करके रहमन के घर से लौट रहीं थी। उसने देखा था कि मुराद के साथ उसकी बेटी हँस-हँसकर बातें कर रही थी। अचानक सरसी को देखकर कहाँ गायब हो गया था वह लड़का? सरसी ने परबा को पूछा था

“क्या बोल रहा था वह लड़का?”

“कौन?”

“वही, पठान।”

गंभीर मुद्रा में परबा ने जबाब दिया था “अपने देश के बारे में बता रहा था।”

“तू हीं-हीं कर रही थी।”

“क्या बोल रही है?” चिडचिड़ा गयी परबा

सरसी तुरंत कुछ बोल नही पायी थी। मगर कुछ दूर जाने के बाद बोली थी “परदेशियों से बात मत करना।”

“क्यों? वह क्या मुझे खा जायेगा?” हँस रही थी परबा।

“बता रही हूँ न, उससे बात मत करना।”

“उसके साथ सभी लोग बात करते हैं। वह बड़ा मजाकिया है। सबको पान खिलाता है। बड़ा अच्छा आदमी है। तुम उस पर क्यों गुस्सा कर रही हो? देख, मेरे लिये क्या लाया है वह?” साड़ी मे से गाँठ खोलकर हरे रंग के पत्थरों से जड़ा हुआ एक जोड़ी कान का झूमका दिखाया।

“कितने रूपये का है?”

“पैसा क्या? वह पैसे नहीं लेगा।” हँस रही थी परबा।

सर्वनाश। सरसी के मन में डर पैदा हो गया। वह इकलौती बेटी थी। पान के पत्ते की तरह गोल-सा चेहरा, नाक-नक्श, आँखे अति सुन्दर। अभाव होते हुये भी शरीर से शुष्कपन नहीं झलकता था। खूब इच्छा थी सरसी की कि बेटी को किसी अच्छे घर, अच्छे लडके के साथ शादी करायेगी। भले नौकरी पेशा वाला न हो, पर कम से कम हर महीने दो हजार कमाता हो। आजकल के लडके तो अपना जातिगत पेशा नहीं करते हैं, छोड चुके हैं। ऊची जाति वाले लोगों के साथ मिलकर कितने-कितने प्रकार का काम करने लगे हैं आजकल। शहर-कस्बों में जाकर कारखानों में काम करने लगे हैं। अपनी लड़की के लिए वह एक ऐसा लड़का ढूंढेगी, जो उसको दोनों वक्त का भरपेट खाना दे पायेगा। मगर उसकी बेटी कब से दूसरे जाति वालों से मेल मिलाप बढ़ा चुकी थी, उसे इस बात का पता नहीं था।

उसने गुस्से में परबा के हाथ से कान के झूमकों को लेकर फेंक दिये थे।

“तुम मुझे क्या इस बस्ती में रहने नहीं दोगी? तुम्हारे भाई शबर की लड़की को शादी करके गाँव छोड़कर चला गया। इसलिये दूसरों के घर में शरण लेनी पड़ी थी हमको। तुमने भी वही रास्ता चुन लिया क्या? मालूम पड़ेगा तो तेरा बाप क्या बोलेगा? अगर तेरे बाप को मालूम पड़ गया तो किसी लूले-लंगड़े, बूढ़े के साथ शादी करवा देगा। तुमको किसने यह दुर्बुद्धि दी?” परबा को खींचते हुये ले जा री थी सरसी। मानो हाथ छोड़ते ही वह पठान लड़के के साथ भाग जायेगी। रास्ते भर हजारों सवाल पूछती रही थी “सिर्फ बात कर रही थी या क्या-क्या कर रही थी, सच-सच बता।”

“और क्या करुँगी?” पलट कर पूछा था परबा ने।

अब सरसी एकदम चुप हो गयी। क्या उत्तर देती ऐसे प्रश्नों का? दोनों चुपचाप चलने लगे. लग रहा था मानो अंदर ही अंदर झंझावात उठ रहे हो। सरसी ने परबा का हाथ इतने जोर से पकड़ रखा था कि परबा अपमानित महसूस कर रही थी।

“मेरा हाथ तो छोड।”

जैसे ही सरसी को इस बात का ध्यान आया , उसने धीरे से उसका हाथ ढ़ीला कर दिया। अचानक क्या सोचते हुये उसने पूछा “तुझको कहीं अकेले में ले गया था वह लड़का?”

परबा को माँ के इस तरह के सवाल-जबाव अच्छे नहीं लग रहे थे। वह गुस्से में थी, पर कुछ नहीं बोली।

“पूछ रही हूँ ना, क्या वह लड़का तुझको जंगल की तरफ ले गया था?”

“क्यों बेकार की बातें कर रही हो? हाँ, मैं गयी थी उसके साथ, तो क्या हो गया?”

“छिनाल! तू मरी क्यों नहीं? खुद का सर्वनाश खुद कर रही हो?”

परबा को सरसी पीटने लगी, जैसे कि परबा के शरीर पर बहुत धूल-धंगड जमा हुआ हो। सरसी पीटते-पीटते कहने लगी “तुमने ऐसा काम कर दिया रे, मेरी बेटी!”

“ऐसा क्या कर दिया मैने? क्यों मुझे बेकार की गाली दे रही हो?”

सरसी ने और कुछ नहीं कहा। उसे लगा कहीं वह झूठ-मूठ से अपनी बेटी पर लांछन तो नहीं मढ़ रही थी। भगवान करे उसकी बेटी को कुछ न हुआ हो। बेटी के लिये उसने अपना पेट काट-काटकर मिट्टी के गड्ढे में पैसा बचाकर रखे थे ताकि नाक के लिये दो तारा-फूल और पांव के लिये एक जोड़ी पायल बनवायेगी। मगर बेटी जैसे हाथ से निकली जा रही थी।

गाली सुनने से बेजार होकर माँ के हाथ की मुट्ठी से निकलकर परबा बड़े-बड़े कदम बढ़ाकर आगे निकल गयी। अनवरत बहने वाले स्रोत की भाँति, उसे रोक नहीं पायेगी सरसी। “हे परबा! हे परबा!” पीछे से आवाज दे रही थी, पर उसे पकड़ नहीं पा रही थी।

घर पहले पहुँच कर बाप के सामने इस बात की शिकायत की परबा ने। मानो परबा अंतरा की जान हो। बेटी के आँखों में आसू देखकर उसका दिल पसीज जाता था। जैसे ही सरसी घर पहुंची, अंतरा ने बेटी की तरफदारी करते हुये सरसी के साथ झगड़ना शुरु कर दिया।

अंतरा के मुँह से गंदी-गंदी गालियों को सुनकर चुपचाप सहन कर लिया था सरसी ने; मगर सही बात नहीं बतायी थी। सही बाते जानने के बाद, अंतरा उसकी बेटी को या तो मार देगा या काट देगा, इसी बात का उसे डर था। माँ होना कितना कठिन होता है, उस दिन सरसी को इस बात का अहसास हो गया। इतना दिन ध्यान रखने के बाद भी बेटी एक दिन भाग जायेगी, इस बात का ख्याल तक न था। उस दिन से सरसी का शक मुराद पर होने लगा था। जितना भी समझायें, उसके मन से साप्ताहिक हाट का वह दृश्य हट नहीं पाता था। वह किसी के सामने मुंह खोलकर इस बात को बोल भी नहीं पाती थी।

“परबा रे, कहाँ चली गई, मेरी बेटी?” वह अपने आप में बड़बड़ा रही थी।

सरसी रहमन मियां के बगीचे में गोभी और मूली की क्यारियों में पानी दे रही थी। देखा था पत्तों के बीच में से छोटे-छोटे फूल दिखने लगे थे. बाड़ से सट कर लगे हुये थे एक कतार में अरहर के पौधे। पीले फूलों से लद गये थे। कुछ दिन बाद इन पर कच्चे फल आयेंगे। पतली नली की तरह पेड़ के उपर झूल रहे थे मूंगा के लंबे-लंबे फल। एक तरफ थी बैंगन की क्यांरी, उस तरफ से किसी ने पांव से दबाकर बाड़ को सुला दिया था। उसको नहीं उठाने से गायें-भैंसे घुसकर सब चट कर जायेंगी। रहमन मिया बाड़ी-बगीचे में कोई रुचि नहीं रखता था। गोदाम के पीछे एक छोटा-सा आधा कमरा था उसका। उसी में सब कूड़ा-करकट रखा करता था। सन्यासी जब बेईजू शबर की बेटी को भगाकर ले गया था, उसी समय बस्ती वालों से बचने के लिये सरसी उसी कमरे में डेरा डाले हुई थी। अपने हाथ से मिट्टी काटकर, पत्थर जोडकर टुटे हुये आधे कमरे को उसने पूरी तरह सजा लिया था कुछ ही दिनों में। बच्चों को लेकर कितने दिन तक इस कूड़े-करकट के ढेर में वह रह भी पाती? कितनी ही फालतू की चीजों को फेंक कर कमरे को रहने लायक बना लिया था उसने। रहमन ने देखा कि वह बड़ी मेहनती औरत थी, घर के छज्जे के ऊपर लौकी की लता भी चढ़ा चुकी है। अंतरा को बोला था इस छोटी सी जमीन को घेर कर तुम अपना बाड़ी-बगीचा कर लो, बेकार क्यों बैठे रहोगे?

पति-पत्नी दोनों ने मिलकर झाड़ी, घास आदि लाकर इस जमीन के चारों तरफ बाड़ बना लिया था। मिट्टी खोदी। बाजार से बीज खरीद कर लाये तथा गोबर वगैरह डालकर मिट्टी को उपजाऊ बनाया था। रहमन के गोदाम के पास एक पुराना बिना काम का कुंआ था। खारा पानी होने से उस कुंआ का पानी कोई नहीं पीता था। कुंआ साफकर चारों तरफ की जंगल-झाड़ी साफ की थी उन दोनों ने। पानी पाकर खिल उठा था वह बगीचा। रहमन मियां ने देखा एक गोचर जमीन को सोना बना दिया है इस औरत ने। खुश होकर एक जोड़ा साड़ी और धोती भेज दिया था अपने नौकर के हाथ।

साग-सब्जी जो भी निकलता था, सब रहमन मियां के घर जाता था। रहमन का बड़ा परिवार था फिर भी सब्जी-बाजार आना नहीं पड़ता था। सब सरसी दे देती थी। और जो कुछ बच जाता था, वह उसका अपने परिवार के लिये रख लेती। बिना दो दाना चावल के क्या सिर्फ साग-सब्जी से पेट भर पाता था? सरसी पूछती थी “दुकान में मेरे लायक कोई काम है क्य़ा?” “तेरे लिये और कहाँ से काम लाऊँगा, सरसी?” झल्लाकर कभी-कभी बोलता था रहमन मियां।

“दो दाना चावल घर में नहीं होने से कभी इच्छा होने पर दो-चार रूपया देता था रहमन। लेकिन हर रोज देना उसके लिये भी संभव नहीं था। तब भी सरसी बगीचा में पानी देती थी, मिट्टी कूरेदती थी। उसको लगता था वह रहमन का बगीचा नहीं, सरसी का बगीचा है। जिस दिन वह आँख बंद कर लेगी, यह बगीचा भी हमेशा-हमेशा के लिये सूख जायेगा।

मन होने पर रहमन मियां, दुःख-सुख, इधर-उधर की बातें भी किया करता था। उसकी पहली बीवी ‘वात’ की बीमारी से उठ-बैठ नहीं पारही थी। वह चिन्ता करने लगता था। सरसी बोलती थी “भईया, भाभी को कहियेगा, मैं आकर हाथ-पांव पर तेल मालिश कर दूंगी।”

“धत्, चमारन! तुझे क्या तेरी भाभी घर में घुसने देगी?”

“हाँ, ठीक, ठीक बोल रहे हो” सिर हिलाती थी सरसी। रहमन पूछता था “तेरे बड़े बेटे की क्या खबर है? नाती-पोता हुआ कि नहीं? पढ़ाई-लिखाई करके बाबू होकर बैठा है। उसको तो माँ-बाप का ख्याल रखना चाहिये।” यह बात सुनने से सरसी की आँखे भर आती थी। एक-एक करके सभी बच्चों के चेहरे याद हो जाते थे। परबा की याद आने से वह व्याकुल हो उठती थी। छाती भर जाती थी। बेटे तो जैसे-तैसे कमाकर अपना पेट भर लेंगे, पर उसकी बेटी परदेश में क्या कर रही होगी? पता नहीं।

सरसी पूछती थी “भईया पिछले सालों में वह जो पठान लड़का आपके गोदाम में आया करता था, उसका अता-पता मुझे दे पायेंगे?”

रहमन को मालूम था सरसी के शक की सब बातें। कहता था किसके बारे में पूछ रही हो? वह जो मुराद, उसके बारे में? अरे! इस लड़के के न कोई आगे है न कोई पीछे। तू उसके पीछे बेकार में लगी हुई है।

अब रहमन मियां के ऊपर भी सरसी को शक पैदा होने लगता था। रहमन की दो बीवियाँ। उसकी बेटी को ले जाकर मुराद के सौतन के गले में तो नहीं बाँध दिया? बड़ी वाली सौतन अगर परबा को खाने को दो मुट्ठी चावल नहीं देती होगी तो? सरसी का मन हुं-हुं करने लगा। “मेरी परबा, मेरी बेटी, कहाँ चली गयी रे तू?”

कभी-कभी बेटी के बारे में सोचते-सोचते पति-पत्नी के बीच झगड़ा शुरु हो जाता था। रोते थे वे। दुख भूलने के लिये सरसी शुरूकानी के पास से महुली खरीद कर पीती थी और अंतरा जाता था कलंदर किसान की दारु की दुकान पर।

वापस आकर दोनों नशे में धुत्त् होकर रोते थे। रोने से नशा और प्रगाढ़ होता था। अंतरा कहता था, देखोगी! एक दिन यह पूरा गांव सूना हो जायेगा। जवान लोग काम खोजने के लिये परदेश गये और लड़कियों को पता नहीं, रातों-रात कोई चुरा कर ले जा रहा है। सवेरा होते ही दो चार लड़किया गायब। देखना, एक दिन यह गांव पूरा का पूरा ठूंठ हो जायेगा।

नशे में रोते-रोते सरसी पूछती है, “रात को कौन ले जाता है इन लड़कियों को?”

“कौन ले जाता है? पता नहीं!” अंतरा खोज नहीं पाता था इसका उत्तर। बातों-बातों में दोनों को नींद आ जाती थी।

“नरक कुछ भी नहीं है, जानते हो कृष्णा? यहां ही स्वर्ग है और यहीं है नरक। जो जैसा करेगा, वह वैसा भरेगा।”

“आप ठीक कह रहे हो। हम लोगों ने ऐसा क्या पाप किया था जो ऐसे भुगत रहे हैं?” अनमना होकर कृष्णा बोला।

“संसार में आकर किसने पाप नहीं किया है, बता तो? यह संसार ऐसा ही है। नहीं चाहने पर भी पाप हो जाता है। तुम्हारे शरीर में यह पापी पेट है या नहीं?”

“भूख की तुमने क्यों याद दिला दी? इस पेट के बारे में जितना कम सोचेंगे, उतने ही सुखी रहेंगे।” कृष्णा बोलते-बोलते बरामदा से उतरकर धीरे-धीरे झुककर चला गया। अंतरा के सामने था उसका घर। बरामदा में बैठकर बड़-बड़ाकर भगवान के बारे में असंतोष जाहिर कर रहा था।

अंतरा भूख लगने से या दुखी होने से भागवत-पुराण के पद्य सुनाने लगता था। कृष्णा को जाते देखकर अंतरा के अंदर भगवत दर्शन के भाव जाग गये तथा जोर जोर से गाने लगा, ताकि कृष्णा सुन सके।

“जिन्ह हरि भगति हृदय नहीं आनी

जीवत शव समान तेई प्राणी।

जो नहीं करई राम गुन गाना

जीह सो दादुर जीह समाना।।”

गाना सुनकर कृष्णा का चिड़चिड़ापन दुगना हो गया।

“छोड़ो, इन बेकार की बातों को।”

कृष्णा को पार्किन्सन की बीमारी थी। हाथ, शरीर हर समय थरथराता रहता था। इसलिये छोडो बोलते समय लग रहा था कि नफरत से हरिनाम की उपेक्षा कर रहा हो। क्यों वह हरि का नाम लेगा जब हरि उसे दो वक्त की रोटी नहीं दे पाता है? उसका सिर जोर-जोर से ऐसे हिल रहा था जैसे नहीं, नहीं, कुछ भी नहीं। ईश्वर नहीं, नहीं-नहीं की दुनिया में न कोई सुख है, और नहीं कोई प्राप्ति। अपना यहाँ कोई नहीं है। जो भी देख रहे हो, वह कुछ भी नहीं है।

कभी-कभी अंतरा को लगता था कि गांव के सब लोग एक से बढ़कर एक पापी है। जैसे ब्रज के सारे ग्वालें पिछले जन्मों में ऋषि-मुनि थे, वैसे ही ये लोग सभी पापी है। उसके जैसे ही सभी ने कुछ न कुछ पाप किया है। इसलिये ये सब कष्ट पा रहे है। केवल शुरुकानी, नुरीसा, कलंदर जैसे कुछ लोगों को छोड़कर बाकी सभी दुःख पा रहे हैं।

पाप की बात उठने से अंतरा को याद हो आती है एक सफेद छबीली गाय की। ओह कितना कष्ट था उसे! लेकिन अंतरा ने उस जीव को कष्ट-मुक्त कर पुण्य किया था या पाप? अगर पुण्य होता तो उसे सुख मिलता। पाप-पुण्य का आकलन करना उसके बस की बात नहीं थी। कभी गुरु हरिदास मठ में जायेगा तो, वहाँ धनदास बाबा को पूछेगा, उसने वह पाप किया था या पुण्य? हिरण को खाने से बाघ अगर पापी होता है तो वह भी पापी है।

जीवन में इतने सारे दुखों को देख अंतरा को गुरु हरिदास आश्रम में जाने का कई बार मन हुआ था, लेकिन उसके गले में बंधी हुई थी सरसी। बेचारी, आधी पागल! किसके भरोसे छोड़कर जाता? सरसी अभी तक निराश नहीं हुई थी। आशाओं को लिये बैठी थी कि उसके सभी बच्चे एक दिन लौट आयेंगे। क्या उसके बच्चे किसी चिडिया के बच्चे हैं? जो पंख लगते ही फड़फड़ा कर उड़ जायेंगे। आदमी के बच्चे हें। किसी भी हालत में वे लोग लौटेंगे जरुर, अपने पुश्तैनी घर को। आधी-पगली सरसी जंगल में खोजती थी कलेक्टर को। बोलती थी उसके सन्यासी को जंगल पिशाचनी ने किसी पत्थर की माँद के भीतर छुपा रखा है। जंगल के अंदर पुकारती रहती थी “सन्यासी, सन्यासी”। किसिंडा में रहमन मियां के गोदाम से सटे आधे कमरे वाले घर में बिताये हुये दिन याद करके अंतरा को कभी-कभी अचरज होता था। अंतरा को तो कभी-कभी अचरज होता था। कैसे साफ हो गयी सभी यादें उसके दिमाग से? न उसे दिन का पता चलता था और न ही किसी रात का। सब करती-धरती थी पर काम में इतनी व्यस्त थी कि वह यह भी भूल जाती थी कि उसके बच्चे उसे छोड़कर इधर-उधर चले गये हैं।

खास लड़की को ढूंढने के लिये सरसी रोज पैदल पाँच-छः किलोमीटर रास्ता तय करती थी, किंसीडा जाने के लिये। रहमन का कोई काम हो न हो, अपने मन से काम करती। कुछ नहीं होने से गोबर लाती, आंगन में लिपती। जो जितना भी समझायें, नहीं मानती थी। बोलती थी- मुराद ले गया उसकी बेटी को। कभी-कभी अंतरा को भी ऐसा ही लगता था। लेकिन वह तो मुराद को जानता तक नहीं था।

सरसी उसके मँझले बेटे को कभी याद नहीं करती। लेकिन डाक्टर बेटे की याद आने से मन में टीस-सी उठती। फोरेस्ट-गार्ड के ऊपर उसको गुस्सा आता। लडके को प्रलोभन दिखा कर ले गया, और ऐसा कौनसे मुल्क में छोड दिया, जो अंतरा अभी तक उसका अता-पता भी मालूम नहीं कर सका। पोलिस में रिपोर्ट लिखवाने कई बार गया था, लेकिन पुलिस थाने जाने में उसको डर लगता था। उसके पास तो इतना रूपया-पैसा भी नहीं, जो वह फोरेस्ट-गार्ड के विरोध में लडेगा।

लड़का गांव छोडकर जाने से पहले कुछ कमाता था बिलासिंह के ट्रक में हेल्परी का काम करके। कहता था, “एक महीने में वह गाडी चलाना सीख जायेगा और ड्राइवर के साथ उसने इस बारे में बात की है। ड्राइवर बोला है डेढ हजार रुपया खर्च करने से वह लाइसेंन्स भी बनवा देगा।” शायद एक साल ही हुआ होगा, उसे हेल्परी का काम करते। रात को बिलासिंह का ट्रक जंगल में घुसता था। आधी रात को लकड़ी लादकर लौट आता था उसके नुआपाड़ा गोदाम में। हफ्ते में एक दिन डाक्टर घर आता था। उसकी मजबूत बांहे और पिंडलियाँ देखने से अंतरा को अपनी जवानी याद आ जाती थी. उस लडके में वह अपने-आपको देखता था। उसके जैसा ही दिलदार, हँसीमजाक करने वाला व खुशमिजाज था। पगार के दिन, दोनों भाई-बहिनों के लिये कुरता-पैण्ट, माँके लिये स्टील गिलास, लोटा व बाप के लिये गमछा, नहीं तो बीड़ी-बंडल लेकर आता था। कोई देखेगा तो बोल नहीं पायेगा कि सतनामी लड़का है। आधा पैसा खुद रखता था और आधा पैसा माँ को दे देता था।

पता नहीं कैसे फोरेस्ट-गार्ड के बहलाने-फुसलाने में आ गया। जब देखो, तब उसके साथ घूमता था। उससे सिगरेट माँगकर पीने लगता था। डाक्टर ने कभी दारु नहीं पिया था। लेकिन आजकल, जब देखो, कलंदर किसान की दुकान पर पड़ा रहता था।

अंतरा और सहन नहीं कर सका। कितने दिन वह और सह सकता था ये सब?

कमाने वाला लड़का काम-धाम छोड़कर गांव में पड़ा रहेगा , उसकी जीभ अकुलाने लगी थी पूछने को। एक दिन उसने पूछा भी।

“तू ड्राईवरी सीख रहा था न, क्या हो गया?” कुछ भी जबाव नहीं दिया था डाक्टर ने।

“लाइसेंस बनाने वाला था, क्या हुआ?”

“डेढ़ हजार तुम दोगे क्या, लाइसेंस बनाने के लिए।”

“क्यों, तुम्हारे पास तो पैसे थे, क्या किया उनका? काम-धाम छोड़ कर बैठ जाने से क्या डेढ़ हजार रूपया आ जायेगा? बता तो तुमने काम करना क्यों छोड़ दिया?”

“तुम मेरे पीछे क्यों पड़े रहते हो?”

“वह जो फोरेस्ट-गार्ड है, उसने तुम्हारा दिमाग खराब कर दिया।”

“उसको क्यों दोष दे रहे हो? मुझे बिला ने पैसा नहीं दिया, उल्टा खूब मारा-पीटा भी। बोला था -साले चमार! चोर साला! भाग यहाँ से।”

“तुमको उसने क्यों चोर बोला? तुमने कोई चोरी की थी क्या?”

“मैं क्या चोरी करता? मुझे तो कुछ भी मालूम नहीं। वही जानें क्योंकि यहीं उसका धंधा है। मुझे बोला, चमार साले! मेरे धर में क्यों घुसा बे? मैं क्या सरकारी नौकरी कर रहा था, जो अपनी जाति-गोत्र लिखवाता। उसने तो मुझे सामान पहुँचाने भेजा था। मैं गया तो उसमें मेरा क्या कसूर?”

“कैसा सामान तुम पहुँचाये थे?”

“तुम जैसा सोच रहे हो, वह ऐसा सामान नहीं था। साले ने, मुझे लकडी-चोर कहा।”

“क्यों?”

“उसके ड्राइवर ने छुपा कर ढाबे में लकड़ी दी थी। उसमें मेरा क्या दोष? क्या बिला चोर नहीं है? क्या वह पूरे जंगल की चोरी नहीं कर रहा है?”

“सब तो चोरी कर रहे है, पर तुमको क्यों चोर बोला?”

“तुम क्या पुलिस हो? इतना सवाल-जवाब, पुलिस जैसा, क्यों कर रहे हो?”

“नहीं, नहीं, अगर ड्राइवर ने लकड़ी चोरी की तो उसको पकड़ता। फिर तुमको क्यों पीटा?”

“साला, ड्राइवर बड़ा चालाक था और उसने बिला को बताया कि जब वह एक गिलास दारु चढ़ाकर नींद में सो गया था। तब हेल्पर को सब देखभाल करना चाहिये था। लेकिन उसने क्या किया, वह नहीं जानता।”

“क्या बिला सिंह उसकी बातों में आ गया? इतने बड़े लकड़ी के लट्ठे को तुमने अकेले कैसे खिसका दिया? इस बात का उसको विश्वास भी हो गया? चलो तुम, नुआपाड़ा चलते है, मैं खुद उसको पूछुँगा। अगर जरूरत पड़ी तो उसके हाथ-पैर भी पडूंगा। फिर तुमको काम में लगा कर आऊँगा।”

“तुम अगर ऐसा करोगे, तो मैं इस घर को छोडकर भाग जाऊँगा।”

“तुम ऐसे पागल जैसे क्यों हो रहे हो मेरे बेटे। मैंने ऐसा क्या कह दिया?”

बेटे की बात सुनकर अंतरा के हलक सूखने लगे। क्या हो गया? किसकी नजर पड़ गयी उसके बेटे के उपर, उसकी दुनिया के उपर? सारे पुराने दुखों को वह भूलने लगा था। क्या कलेक्टर की तरह, डाक्टर भी घर छोड़कर चला जायेगा। उसका मन नहीं मान रहा था, उसे विश्वास नहीं हो रहा था। जरूर, उसके पीछे कोई बात है, कोई राज है।

अंतरा को याद हो आया कि कुछ दिन पहले हाथ की घड़ी व एक जोड़ी जूता खरीद कर लाया था डाक्टर। कैसेट लगाकर गाना सुनने वाला टेप-रिकार्डर भी था उसके पास। उतना पैसा कहाँ से पा रहा था वह? एक बार भी उसके मन में किसी भी प्रकार का संदेह नहीं पैदा हुआ था। वरन् लड़के की इस सफलता में गर्व अनुभव कर रहा था। कह रहा था- एक साईकिल खरीदेगा। उसकी माँ कहती थी साईकिल बाद में खरीदना, पहले छत के लिये खप्पर खरीदूंगी, पैसा दे।

तो क्या सच में उसके बेटे ने चोरी की थी? बिला सिंह की बात सच है? पता नहीं, क्यों विश्वास नहीं हो पा रहा था अंतरा को इस बात का? सभी बेटे उनकी माँ पर गये थे। छल-कपट वे बिलकुल ही नहीं जानते। भले ही, भूखे मर जायेंगे, पर चोरी-चकारी कभी नहीं करेंगे। साला, धोखेबाज ड्राइवर ने उसके बेटे को फंसा दिया है।

उसके साथ ही ऐसा क्यों होता है? कलेक्टर को लेकर कितने सपने बुनता था? लेकिन वह लड़का किस परदेश में रहता है, उसका चेहरा भी कितना बदल गया होगा? इस बात का अनुमान भी नहीं लगा पाता। सोचा था कलेक्टर बदल देगा उसके घर को। लेकिन नहीं हो पाया। डाक्टर, उसका बड़ा चहेता! कितना अच्छा काम-धंधे से कमाकर खा रहा था, और एक ही साल में घर का नक्शा बदल देता। लेकिन यह भी नहीं हो पाया।

उस समय अंतरा पहाड़ को भी चूर-चूर करने का दम रखता था। एक दिन में ही पाँच गांवों में घूम आता था। उसके उपर रहमन मियां का बड़ा भरोसा था। अंतरा जो कहता था, वह मियां मान लेता था। काम धंधा करने से पैसा तो आयेगा ही आयेगा। शाम को जब अंतरा घर लौटता था, तो सरसी घर-आंगन लिपा-पोती कर, दीवारों पर चित्र बनाकर खुद देवी जैसी बैठी रहती थी।

“क्या तुम दिन रात मिट्टी छापती रहोगी, चित्र बनाती रहोगी? और कोई तेरा काम-काज नहीं है क्या?”

“क्या काम करुँगी? क्या धान और चावल से मेरा घर भरा हुआ है, जो उसी काम में लगी रहूंगी?”

“हाँ, हाँ, जा, पानी ला, प्यास लग रही है।”

चकाचक साफ-सुथरे कांसे के बरतन में पानी लाकर पकड़ा देती थी सरसी। अंतरा अपने खोंसे में से रूपया निकाल कर अपनी माँ के सामने रख देता था। और इसके बाद हाथ-पाँव धो-धाकर घर में घुसता था। साथ में लायी हुई एक जोड़ी मोती की माला या दो लड्डू पकड़ा देता था सरसी को। और बोलता था “अगर तू, किसी और से शादी की होती, तो ऐसा लड्डू खाती क्या?”

मुंह मोड देती थी सरसी।

“साड़ी क्यों नहीं खरीद लाया?” बोलकर मुंह फूलाती थी। उसकी पहनी हुई साड़ी फटने लगी थी। अंतरा अगर मेहनत कर खून-पसीना एक कर दें, तो भी इतना पैसा नहीं कमा पाता कि चाहने से एक साड़ी खरीद पाता। सरसी का मन रखने के लिये कहता था “अगले हफ्ते किसिंडा हाट में से एक अच्छी साड़ी खरीदूँगा तुम्हारे लिये? तुम नाराज मत हो। तुम्हारे नाराज होने से मुझे अच्छा नहीं लगता?”

उसका चहेता बेटा तो उससे ज्यादा कमाता था। उसके भाई-बहिनों के लिये कुरता खरीद सकता था। हाथ के लिये घड़ी भी खरीदा था। सब सुख-दुख में समय बिताते हैं। सुख हमेशा के लिये नहीं रहता है, उसका भी कहाँ रहा? जिस दिन से मानो उसने पाप किया, उसी दिन से उसे सुख छोड़कर चला गया।

पाप नहीं तो और क्या? एक बार रहमन मियां के गोदाम से लौटते समय उसने देखा, कि हाट लग चुकी थी। उसको तो साग-सब्जी की कोई जरूरत नहीं थी। न उसे किसी पोगा रस्सी की जरूरत थी, न सरसों की, न हीं मांडिया की। उसका मन तो एक साड़ी खरीदने में लगा हुआ था। एक तरफ दो-चार फेरी वाले बैठे हुये थे। अंतरा जाकर दाम पूछने लगा। एकदम-सा लाल रंग की साड़ी के ऊपर पीले-रंग के फूल पड़े हुये थे। वह छापा-साड़ी अंतरा को खूब पसंद आई। पटाते हुये दाम आखिरी में खिसका पचास रूपये तक। खोंसा खोलकर देखा तो पचास क्या, उसमें तो पचीस रूपये भी नहीं थे! साड़ी मन की मन में रह गयी, वह खरीद नहीं पाया। ऐसे ही हाट लगा रहा, पर वह कुछ भी खरीद नहीं पाया।

दो-चार दिन बाद अंतरा लेफ्रिखोल से लौट रहा था, उसकी नजर पड़ गयी झाड़ियों की तरफ। वह रास्ता छोड़कर झाड़ियों की तरफ लपक पड़ा। ये क्या? किसका है ये? भगवान ने जैसे कि उसकी पुकार सुन ली। लेकिन बेचारे का मन अभी तक उस साड़ी को भूल नहीं पाया था।

अभी भी अंतरा की आँखों के सामने आ जाता था वह नजारा। उस दिन, उसका शरीर उत्तेजना, खुशी और आशंका से थर्रा रहा था। क्या सोच कर पता नहीं, पाया हुआ धन को छोड़कर वह लौट आया था गांव में। घर पहुंच कर उसे लगा, क्या कोई अपने सौभाग्य को ऐसे ठुकराता है?

सरसी की तरफ देखने से मन दुःखी हो जाता था। वह साड़ी सरसी के शरीर पर खूब फबती। अगर वह ऐसे ठुकराकर नहीं आया होता तो, एक क्या, दो साड़ियाँ खरीद सकता था सरसी के लिये।

सरसी ने देखा, मन ही मन में अंतरा कुछ कह रहा था। क्या हो गया है उनको? साड़ी माँगकर क्या कोई भूल कर दी उसने? गरीब आदमी का पेट और घर के लिए जुगाड़ करते-करते बेचारे के दिन, महीने, साल गुजर जाते हैं। सुविधा होती तो, क्या एक साड़ी नहीं खरीद लेता? सरसी ने पूछा -

“तुम ऐसा क्या सोच रहे हो? चेहरा सूखकर चने की तरह हो गया है।”

“क्या और सोंचूगा?” अनमना होकर अंतरा ने उत्तर दिया। बोलते-बोलते घर से बाहर निकल गया था। मन ही मन बहुत पछता रहा था। पता नहीं, क्या हुआ होगा? और क्या वह उसके इंतजार में वहाँ पड़ी होगी? कितना बुद्धु काम किया उसने छिः! छिः! हाथ में आयी हुई चीज क्या कोई ऎसॆ छोड़ देता है?


आकाश से उस समय अंधेरा नीचे उतर रहा था। दुखी मन से अंतरा कलंदर किसान की दुकान तक गया था। पैसा देकर बोला, “दे, तो कलंदर, एक गिलास देशी दारु, दे। अच्छा, अच्छा एक बोतल दे, दे।”

“कहीं कोई भैंस उठाया था क्या?”

चौंक गया था अंतरा, जैसे कि उसके अंदर की बात को कोई जान गया हो। “हाँ, हाँ, ना, ना” कहते-कहते वह थतमता गया था। अपने आपको सँभाल कर फिर बोला, “दे, ना, यार, बेकार की बातें क्यों कर रहा है? एक भैंस उठाने से पाँच-सात आदमियों में बँटवारा होता है। उसमें से फिर कितना मिलेगा? जो तू पूछ रहा है।”

कलंदर को पैसा मिला था। दारू क्यों नहीं देता? एक गिलास के बदले में एक बोतल देने से उसको दुगुना फायदा। एक बोतल दारु के साथ, तीन ऊँगलियों से, चार-छः चने उठाकर पत्ते में मोडकर फेंक दिया था अंतरा के हाथ में। इन चमारों के लिये अलग बोतल रखता था कलंदर। उनको छूने से जाति से बाहर निकाला जायेगा। पर, दारु के व्यापार में जात-पात देखने से, दुकान बंद करनी पड़ेगी।

बहुत तेज चटपटा चने का मजा नहीं ले पाया था उस दिन अंतरा। उडेलते समय दारु भी इतना मजेदार नहीं लग रहा था। केवल पछतावे से मन में उलझने पैदा हो रही थी। दुःखी मन से वह घर लौट आया।

सबसे बड़ी बात यह थी कि उस दिन वह दारु पीकर बेहोश नहीं हुआ। सारी रात उसे नींद नहीं आयी, सिर्फ छटपटाता रहा। पता नहीं, बीच रात में कब आँख लग गई। सवेरे-सवेरे नींद टूट गई। तभी भी सरसी पेट के बल चटाई के उपर पड़ी हुई थी। होश भी नहीं था उसे। अंतरा उठकर बाहर आ गया। तब तक आकाश साफ नहीं दिख रहा था। उसकी माँ, उठकर बरामदे में, नींद के झोंके मार रही थी। अंतरा को बाहर निकलते देख, पूछी थी “सवेरे-सवेरे कहाँ जा रहा है रे, तू? चाय पीकर नहीं जाता?”

“हाँ, हाँ, अभी आ रहा हूँ।”

बिजिगुड़ा से लेफ्रिखोल सिर्फ चार किलोमीटर की दूरी पर है। रास्ते भर अंतरा को कितनी चिंता, कितनी फिकर! पता नहीं, वह लाश होगी भी या नहीं, झाड़ी-जंगल में पड़ी थी। सूरज के शरीर से लाल रंग छुटकर आसमान साफ दिखते समय तक वह पहुँच गया था उस झाड़ी के पास। दूर से दिख रहा था, वह जीव ऐसे ही पड़ा हुआ था पेड़ के नीचे। अंतरा के होठों पर छोटी-सी मुस्कराहट थिरक कर फिर चली गई। बडी फुर्ती के साथ वह बढ़ गया था उस जीव की तरफ। जाकर मिट्टी के उपर उकडू होकर बैठ गया। “नहीं, नहीं, अभी-भी इसमें जान बाकी है।” आँखे तरेरते हुये मुंह मोड़कर पड़ी हुयी थी पेड़ के नीचे। भनभनाती मक्खियाँ उसके मुंह के चारों ओर से घेरे हुए थी। उसका पिछला बायां पैर बीच-बीच में थर्राता था, जो उसके जिन्दा होने का संकेत देता था। कुछ देर बाद फिर शांत पड़ गया था। अंतरा ने खोंसे में से खैनी का डिब्बा निकालकर एक चुटकी मुँह में डाली। खैनी मिला हुआ थूक, दूर की तरफ एक बार थूककर बोला था “बेटा, क्यों जीवन को और लटकाकर रखे हो? जा, जा, निकल जा। तेरे लिये मैं रात भर सो नहीं पाया। दारु का स्वाद भी पानी जैसा लगा!” खोंसे में एक बीड़ी निकालकर होठों में दबाई। हठात् उसको याद आ गयी कि पास में माचिस नहीं है। चिनगारी कहाँ से मिलेगी? मन खट्ठा सा हो गया। होठों में से बीड़ी निकालकर कान के ऊपर दबा दिया अंतरा ने।


खूब धीरे से छुआ था उस जीव को। अब नीचे दबा हुआ दाहिना पैर भी छटपटाने लगा। “हे!... ऐ!... बे!..” कितना खेल रहा है? जाना है, तो जल्दी जा। मैं और कितनी देर तक यहाँ इंतजार करते रहूँगा। साले, को दबा दूँगा तो एक बार में सारी नौटंकी भूल जायेगा।”

पता नहीं क्यों कुछ देर बाद अंतरा को डर लगा “छिः! छिः लोभ में आकर वह पाप करेगा? इतने बड़े जानवर की जान ले लेगा? भले, वह इस जानवर का मांस खाता है। मगर कभी इस जानवर के उपर हाथ नहीं उठाया है।” अपने आप में बड़बड़ाते हुये बोला था अंतरा, जैसे कि उसकी ये बातें ऊपर वाले के लिये ही हो। हाँ, अंतरा गाय का मांस खाता जरुर था, पर उसने कभी गाय को मारा नहीं था। उनकी बिरादरी में कोई-कोई गायों को मारते भी है। मगर अंतरा ऐसा कोई काम नहीं करता था। जो भी हो, गाय माँ के जैसी है। इंतजार के अलावा उसके पास कोई रास्ता नहीं था। किसकी यह गाय है? कोई इसे क्यों ढूंढने नहीं आता है? इस जानवर को साँप ने काट लिया है क्या? साँप काटने से मुँह से भर्रा-भर्राकर झाग निकल रहे होते? इसके बदले, इसकी आखों से आँसूओं की धारा बह निकली थी। आँसूओं को देखकर प्यार से सहलाया था उस जानवर को, अंतरा ने “अहा, रे! कष्ट हो रहा है क्या?” बीमारी हो गयी है तुमको, जो मुंह मोडकर पड़ी हो। जब गाय का मालिक आयेगा तो उसे यमदूत की भाँति वहां बैठा देखकर, क्या सोचेगा? उसको चोर-चांडाल समझकर मारने-पीटने लगेगा।

अभी भी इसकी जान क्यों नहीं जा रही है? अंतरा ने पत्थर से नीचे उतर कर गाय के नाक के पास हाथ रखा था। साँसे अभी भी चल रही थी। शरीर के किसी कोने में उसकी जान अभी तक अटकी हुई थी।

अगर यह गाय अभी मर भी जाती है, तो कैसे वह अकेले उसको ले जा पायेगा? अगर आस-पडोस वाले, दोस्तों को बुलाता हूँ, तो रूपया हजार हिस्सों में बँट जायेगा। गाय को इस हालत में छोड़कर नहीं जा सकता था। अभी भी उसके प्राण-पखेरू बचे थे शरीर में। देखते-देखते ही यह प्राण-पखेरू कब उड़ जायेंगे, पता नहीं। कितने समय तक पड़ी रहेगी यह मुर्दा लाश? सड़कर चारों तरफ बदबू फैलने लगेगी। बिरादरी वाले अपने आप यहाँ आ जुटेंगे बिन बुलाये।

अंतरा बड़े ही असंमजस की स्थिति में था, आस-पास की पत्ते-डाली लाकर उसे ढ़क दिया, ताकि उस पर किसी की भी नजर न पड़े। सूखी हुयी झाड़ियाँ, लकड़ी की कुछ डालियाँ काटकर रख दी थी उसके ऊपर।

उसने गाय के ऊपर इतनी पत्तियाँ डालियाँ रखी थी कि बाहर से कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। गाय के अभी तक प्राण-पखेरू निकले नहीं थे, उसको उसने ढ़क दिया था, कहीं वह पकड़ा तो नहीं जायेगा? हो सकता है लौटते समय गाय का मालिक छुप कर बैठा हो, उसको रंगे-हाथों पकडने के लिये।

अंतरा जानता था कि इतनी जल्दी मुरदे शरीर से दुर्गंध नहीं फैलेगी। जबकि गाय जिंदा रहने से, वह पकड़ा भी नहीं जाता और उसे चोर भी नहीं कहता कोई। अगर गाय मर जायेगी, तो उसको उठाने के लिये उसे ही तो बुलाया जायेगा। बड़े द्वन्द में था अंतरा। पाप-पुण्य। सत्-असत्। इतने दिनों से कमाये हुये नाम को डुबा देगा, और उसे लोग चोर कहेंगे। नहीं नहीं, ऐसा नहीं करेगा। अंतरा ने एक बड़ा सा पत्थर उठाया। गाय के मुँह पर से डाली-पत्ते हटा दिया और कहने लगा

“तेरा जीवन बड़े कष्ट में है! जा, तुझे मुक्त करता हूँ।” और धड़ाम से उस पत्थर को दे मारा उसके मुंह पर। गाय की टांगे खींच गयी थी। जोर-जोर से थरथरा उठी थी वह। कान हिल रहे थे फूल की पंखुडियों की भाँति। उसके बाद सब स्थिर हो गया। साँसो की गति रूक गयी थी। साँसे न आ रही थी, न जा रही थी। उसकी जीवन-लीला हमेशा हमेशा के लिये समाप्त हो गयी थी।

पत्थर से गाय को मारकर, धड़ाम से नीचे बैठ गया था अंतरा। उसका शरीर ऐसे काँप रहा था, जैसे उसने किसी मनुष्य को मार दिया हो। पहाड़ों को चूर-चूर करने वाली ताकत उसकी, अब खत्म हो गयी। पसीने से वह तरबतर हो गया था। कितने जानवरों की चमड़ी उधेड़ी थी, कितने जानवरों के सींग काटे थे, कितनी गायों के मांस के लोथड़ो को काटकर टुकड़े-टुकड़े कर भविष्य के लिये सूखाये थे, तब भी उसका मन कमजोर नहीं हुआ था। भरी जवानी में भी बुर्जुग लोगों की तरह पश्चाताप की आग में झुलस गया था वह। “आह रे!” जब तक गाय के प्राण बचे हुये थे, दवा-पानी करने से वह गाय दौड़ पड़ती, सोच रहा था अंतरा। अपने स्वार्थ के खातिर क्यों उसने एक निरीह प्राणी को मार दिया?

अब उसे ऐसा लग रहा था जैसे वह पाप में डुब गया हो। उसकी माँ कहा करती थी कि छोटे से छोटे छेद से भी शनि प्रवेश कर जाता है। एक बार जब शनि घुस जाता है, तो फिर अपनी काया का विस्तार कर लेता है। शनि ने उसको पैर से सिर तक जकड़ लिया था। माँ कहती थी - शनि की छाया पड़ने से अनिष्ट कार्य अपने-आप हो जाते हैं। बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है और ब्राह्मण भी चांडाल हो जाते हैं। वह तो वैसे भी चांडाल और गरीब है। फिर भी लोग क्यों कहते है कि ब्राह्मण चांडाल हो जायेगा? इसका क्या मतलब है?

अंतरा पत्थर पर से उठकर खड़ा हो गया था। उसने मरे हुये जानवर को पहले की भाँति ढँक दिया था। उसका मन क्यों दुखी हो रहा है? चींटी और हाथी के जीवन में कोई अंतर है क्या? चींटी मारने से पाप नहीं लगता, हाथी मारने से पाप! गाय को तो कष्ट हो रहा था। उसको तो मुक्ति दिला दिया। इसमें सोचने की क्या बात? अंतरा ने अपने खोंसे से खैनी का डिब्बा निकाल कर एक चुटकी खैनी मुंह में डाली। इसको तो पार करना ही पड़ेगा। एक और कंधे की जरूरत है। किसको बुलाया जाये? बात फैलेगी नहीं तो। बस्ती भर के सब लोग आ तो नहीं जायेंगे। सभी लोग तो भूखे हैं। वह अपने साथी, रिश्तेदार किसी को भी नहीं बोलेगा। गाय या तो बीमार थी, या साँप ने काट लिया था। वह गोश्त को भले ही बाहर फेंक देगा मगर किसी को भी नहीं बुलायेगा। उसे तो दिख रही थी केवल वही लाल-पीली छापा-साड़ी। पैसा बच जाने से एक जोड़ी पायल भी खरीद देगा। दिखा देगा सरसी को, उसका भर्तार कैसा आदमी है?

अंतरा मरे हुये जानवर को ढककर घर आ गया था। सरसी उसको देखकर चकित रह गयी थी। कल से अंतरा का मुंह सूख कर काला पड़ गया था, भोर से उठकर, वह कहाँ चला गया था जिसका कोई भी अता-पता नहीं? पागल की तरह वह क्यों हो रहा है? उसको क्या हुआ है? कुछ बोलने से पहले ही अंतरा ने बोलना शुरु किया “घर में कुछ है क्या? दे तो, खाऊँगा, कुछ।”

सरसी के पेट में कलेक्टर आठ महीने का था तब। भारी पाँव होने से वह धीरे-धीरे चल रही थी। उठकर तुरन्त कुछ काम नहीं कर पाती थी। अंतरा बोला “तुम बैठो, मैं जाकर देखता हूँ, घर में खाने के लिये क्या-क्या चीजे रखी है?”

सरसी ने उसकी बात नहीं मानकर खुद पखाल ले आयी थी। लहुसन और हरी मिर्चों को सिल से पीसकर चटनी बनाई थी। “सुबह-सुबह कहां चले गये थे? बताकर नहीं जाते? तुमको ऐसा क्या हो गया है, बताइये तो?”

“मुझे क्या हुआ है? काम करने भी नहीं जाऊँगा क्या?” वह सोच रहा था कि उसकी पत्नी के पाँव भारी थे, और ऐसा जघन्य दुष्कर्म उसने कर डाला। भगवान ने चाहा तो सरसी को सब ठीक-ठाक से हो जायेगा। भगवान उसके पापों का भागी सरसी को न बनायें।

अंतरा ने पूछा “तुम्हारे पास सवा रूपया है, दोगी क्या?” अपने होने वाले बच्चे के खातिर कुछ पैसा बचा कर रखा था सरसी ने। अंतरा को देखने से लग रहा था कि वह किसी विपदा में है अतः सरसी ने किसी छुपी हुई जगह से निकाल र दो रूपये दो रुपये उसे दे दिए।

अंतरा हड़बड़ाकर निकलते समय झोले में अपने कुछ औजार लेकर निकला था। विस्मित हो गयी थी सरसी की आँखे। यह आदमी तो ऐसा बिना बताये कभी कहीं नहीं जाता है। उसके साथ ऐसा हुआ क्या है? बस्ती में से और भी कोई जा रहा है कि नहीं? किसको पूछेगी, वह तो नयी-नवेली वधू थी।

नुरीशा के दुकान से आधा कट्टा बीड़ी खरीदते समय चमरू मिला था। चावल खरीदने आया था वह। एक बार अंतरा का मन हुआ था कि वह चमरु को भी साथ ले जायेगा। यह तो एक अकेले का काम नहीं है। अगर चमरू बात को इधर-उधर बोल देगा तो भविष्य में कोई उसका साथ नहीं देगा। पाप वह करेगा, और भाग लेंगे सब।

फिर पांच कोस रास्ता भी तय करना पडेगा। अब वह जीव कष्ट नहीं पा रहा है क्योंकि उसकी दया से उसको मुक्ति मिल गयी है। कितना तड़प रही थी वह! शायद इधर-उधर थोड़ी सी जान अटकी हुई थी उसकी।

शाम होने से पहले, उसका चमडा उतारना होगा। कदम जरा जोर से बढ़ाने लगा था अंतरा। वह जानवर अभी भी पत्तियों और डालियों से ढ़का हुआ था। कुटी, डाली, पत्ते सभी अलग कर दिया। उसके बाद वह लग गया था अपने पुश्तैनी काम में। गाय की उम्र कम थी, दवा-पानी करने से शायद बच जाती।

सावधानी से चमड़े को काटने लगा था अंतरा। इसको वह तीन सौ रूपयों में बेचेगा रहमन के पास। दोनो सींग बेचेगा टिटिलागढ़ कारीगर के पास। मांस सड़ने के बाद फिर वह सोचेगा हड्डियों को बेचने की बात। सारे पैसों का हिसाब वह जोड़ नहीं पाया। फिर भी उसको लगा जैसे कि वह लखपति हो गया हो।

चमड़ा उतारते समय अंतरा ने देखा कि उसके चाकू की धार तेज नहीं थी। छोटे-से पत्थर पर घिसा था उसने अपने चाकू को। बहुत सावधानी से काटने लगा था चमड़े को। आह, रे! यह जानवर जिन्दा होता तो, कूदते-फाँदते छलांग लगाते इधर-उधर घूमता-फिरता। जबकि वह अभी उसका चमड़ा उतार रहा है।

चमड़े को निकालते-निकालते शाम हो गयी। उसने सोचा था कि गाय को एक गड्ढा खोदकर दफना देगा फिर बाद में वह घर जायेगा। दफनाने से दुर्गंध चारों तरफ नहीं फैल पायेगी। लेकिन रात को वह करेगा क्या? उसके पास न तो कोई फावड़ा है, और न ही कोई गेती। इधर शाम हो जाने से, मच्छर काटना शुरू कर दिये थे। आधा काम करके न तो वह किसिंडा जा सकता था, न ही वह अपने गांव। उसका दिमाग काम नहीं कर रहा था। आखिरकर सूखे डाल-पत्ते इकट्ठा कर आग लगायी थी। आज रात वह यहीं बितायेगा। नहीं तो, उसकी सारी मेहनत पूरी तरह से बेकार हो जायेगी। लेकिन, इस जंगल में रात-भर बैठा रहेगा वह अकेला। इधर, सरसी चिन्ता में रोना शुरु नहीं कर देगी? उसकी माँ आस-पड़ोस से कोई मदद नहीं मांगेगी तो? लोभ में आकर बुद्धि क्यों खराब हो गयी? उसकी मति क्यों मारी गयी?

अब कोई उपाय नहीं था उसके पास। खोजबीन करने पर उसे एक छिछले गड्ढे वाली जमीन मिली। घसीटते हुये वह उस गाय को ले गया और डाल दिया था उस गड्ढे में। पत्ते, मिट्टी, पत्थर, जो भी मिला ढ़क दिया उसके ऊपर। लेकिन इतनी बड़ी लाश का चार भाग में से एक भाग भी पूरी तरह नहीं ढक पाया था। इतनी कोशिश के बाद भी। दूर से लाल-सुर्ख दिख रहा था उसका उधेडा हुआ शरीर। गाय को इस हालत में छोड़ कर जाने की बात, वह सपने में भी सोच नहीं सकता था। बार-बार वह अपने गांव में जायेगा,, बार-बार बिना किसी को बताये वह यहाँ आते रहेगा, तो लोगों को उस पर कोई न कोई संदेह जरूर होगा. अतः रात यहाँ पेड़ के नीचे गुजार देना ही अच्छा होगा। सवेरे-सवेरे गाय को दफनाकर चमड़ा लेकर चला जायेगा वह किसिंडा। चमड़े को तो न गांव लेकर जा पायेगा, और न ही किसिंडा। वह कैसे गोरख-धंधे में फँस गया था!

वह आग लगाकर बैठा रहा। कितनी सारी चिड़ियों की डरावनी आवाजों के मध्य वह ऐसे ही घिग्घीं बांधकर बैठा रहा। धीरे-धीरे रात ढ़लती गयी। पता नहीं क्यों, उसको लग रहा था, थोड़ी सेवा कर देने से वह गाय बच जाती। घास चरने लगती। दाना खाने लगती, पानी पीने लगती। बछड़े को दूध पिलाती। उसने लोभ में आकर अपने स्वार्थ के खातिर बहुत बड़ा पाप किया है। कीड़े-मच्छरों के बीच बैठकर वह पश्चाताप की आग में जल रहा था। एक लाश और एक जिन्दा आदमी पड़े रहे, रात भर एक निर्जन जगह में। कभी नींद का झोंका आया, तो उसके मानस-पटल पर छा गया एक सपना। सपने की फाँक में से गाय। आंसूओ से छलकती हुई आँखों में तैर रही थी वह गाय।

“बता तो, मुझे क्यों मार दिया?”

निःशब्द हो गया था अंतरा का मन। अंतरा के मुंह से कोई शब्द नहीं निकल रहा था, जैसे कि वह गूँगा हो गया हो। गाय एक बार फिर उसकी छलकती हुई आंखों से पूछ रही थी “तुम सच-सच बताओ, मुझे क्यों मार दिया? मेरी बछड़ी मुझे बिलखती हुई ढूंढ रही है, जानते हो।”

अंतरा जैसे कि पत्थर होता जा रहा था।

गाय पूछ रही थी “सच-सच बता न, तुमने मेरे को......”

जिस ‘इड़ीताल’ने उसको जोड़ा था सन्यासी से, उसी इड़ीताल ने उसको दूर कर दिया था सन्यासी से। चैती इड़ीताल को दोष देती है। उसका सन्यासी चित्रांकन करता था, ड्राँइग टीचर था वह भोपाल के एक मिशन स्कूल में। चैती भी माहिर थी चित्रांकन में। वह अपने दादाजी से सीखी थी। विभिन्न प्रकार की मछली, कछुआ, भेंड़, बकरी, शिकारी, पक्षी आदि के चित्र बना सकती थी। सन्यासी बोल रहा था ऊपर में प्रभु यीशू बैठे हैं, उसने हम दोनों को मिलाया है। तुम मेरी एक दिन ‘मास्टरानी’ बनोगी, इसलिये प्रभु यीशू ने तुम्हें मुझे दिया है। जंगल में बांसुरी बजा-बजाकर मैंने तुमको पाया है। उस समय मुझे क्या मालूम था लाल फ्राँक पहनी हुई रहस्यमयी देवी की भाँति इतनी जल्दी मेरे हाथ में आ जाओगी और बंध जायेगी मेरी बांसुरी के सुरों में।

लाल फ्राँक पहनी हुई यह तितली इतने गुणों से भरपूर है! तुम किस प्रकार से एक बार मुझे अपने चेहरे की झलक दिखाकर गायब हो गयी थी, याद है वह दिन? मैं तुमको ढूंढते-ढूंढते पत्थर काटने वाले कामगारों के बीच में जा पहुंचा था। वहीं से खोज निकाला था तुम्हें, जानती हो ना?

“जा रे, तुम क्या क्या कहते रहते हो? मैं कुछ समझ नहीं पाती हूँ।” चैती ने हँसते-हँसते उत्तर दिया।

“तुमको समझ में नहीं आये, इसी में अच्छा है। जैसी सीधी-सादी हो वैसी ही बनी रहो।”

उसने सन्यासी को भी वह कला सिखायी थी, जिसको उसने अपने दादाजी से सीखी थी। इस बात को लेकर बाप के साथ दादाजी का अक्सर झगड़ा होता था। तुम बेईजू, मेरी पोती को इतना कष्ट क्यों दे रहे हो? इसके नाजुक-नाजुक हाथ क्या भगवान ने पत्थर काटने के लिये बनाये हैं? देख, कैसे फफोले पड़ गये हैं मेरी इस प्यारी पोती के हाथों में?

चैती ने सिखाया था मयूर, तोता, धान के पौधे, शिकारी और कितने-कितने किस्म के इड़ीताल सन्यासी को। सन्यासी कुशाग्र बुद्धि का था। सन्यासी के हाथों में कुशलता थी, इसलिये उसने जल्दी ही, सिख लिया था यह सब।

चैती सोचती थी, काश वह सिर्फ पत्थर काटती होती और अपने दादाजी से इडीताल नहीं सीखी होती! इस कला को वह अगर सन्यासी को नहीं सिखाती, तब भी तो चलता। इसी इड़ीताल की वजह से आज उसका पति दूर विदेश में हैं। कभी वह इडीताल को दोष देती थी तो कभी-कभी खुद को।

एक दिन शाम को इमानुअल साहिब की पत्नी मैरीना मैम साहिब ने बुलाया था सन्यासी को। उस बूढ़ी की बात को कभी भी सन्यासी टालता नहीं था। जितना काम रहने से भी तथा जितना भी विषम समय होने पर भी, वह तुरन्त दौड़ कर चला जाता था उनसे मिलने। “जानती हो चैती, वह किसी जन्म में मेरी माँ थी। उन्हीं के कारण मुझे खाने के लिये मिलती है आज दो वक्त की रोटी। आज मैं मान-सम्मान का जीवन जी रहा हूँ वर्ना सोच, कहाँ पड़ा-पड़ा मैं सड़ रहा होता?”

सन्यासी मिशन में रहकर अपने गांव की मिट्टी को भूलते-भूलते अपनी ‘देशी भाषा’भी भूल चुका था। वह बात करते समय मिशन की भाषा में बात करता था। इसलिये चैती को ऐसा लग रहा था सन्यासी का ज्ञान बहुत बढ़ गया है। वह जो भी बोल रहा है, अच्छे के लिये बोल रहा है। सन्यासी को यह नया रूप किसने दिया था? मैरीना मैम साहब ने। इसलिये मैम साहिब के पास से कोई बुलावा आने से चैती मना नहीं करती थी। बोलती थी- “जाओ, आपकी असली माँ बुला रही है।”

जिस दिन वह चर्च में ईसाई बन गयी थी सन्यासी से शादी करने से पहले, उस दिन मैरीना मैम साहिब ने कहा था - “चैती का नाम आज से होगा ‘ईसावेला’।” फादर ने चैती को ईसावेला के नामकरण होने पर उसे आशीर्वाद भी दिया था। दो दिन बाद ईसावेला ने शादी की थी, क्रिस्टोफर सतनामी के साथ। इस नये नाम को आसानी से चैती मान नहीं पा रही थी। एक दिन मजाक से सन्यासी ने कहा था “ईसावेला, ईसावेला सुनो तो!”

चैती बैठकर सब्जी काट रही थी। जैसे गहरी नींद में खोयी हुई हो। उसके अंदर से तुरंत कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। वह आवाज उसके पास से होती हुई गुजर गयी। सन्यासी ने नजदीक आकर हिलाते हुये उसको कहा

“कितनी देर से तुमको बुला रहा था, सुन नहीं रही हो क्या? कान में रुई डाल रखी हो क्या? किसी दूसरे की सोच में पड़ी हो?”

चैती ने उल्टा पूछा “तुम मुझे बुला रहे थे क्या? मुझे पता कैसे नहीं चला? तुम सच बोल रहे हो?”

“तुमने नहीं सुना है ईसावेला, ईसावेला?” हँसते-हँसते लोट-पोट हो गयी थी चैती। बोलने लगी “तुम मुझे मैम साहिब वाले नाम से बुलाओगो तो कैसे समझ पाऊंगी? तुम्हारा नाम क्या है? ओह! बार-बार मैं भूल जाती हूँ।

“क्रिस्टोफर”

“क्रिस्टोफर और ईसावेला?”

खूब हँसी थी चैती। आखिरकर तूने मुझे ईसाई बना ही दिया। सन्यासी बोला था “नहीं रे, चैती! हम दोनों ईसावेला और क्रिस्टोफर नहीं। हम तो लहरीदार पहाड़ों की तलहटी के चैती और सन्यासी हैं।”

लेकिन सन्यासी तो क्रिस्टोफर सतनामी बनकर चला गया था विदेश और धीरे-धीरे अपनी चैती को भूल गया। मैरीना मैम भी नहीं हैं, होती तो वह जरुर पूछती ; सन्यासी के हाल-चाल के बारे में। शायद वह उससे जिद्द भी करती, बोलती मुझे मेरे सन्यासी को लौटा दीजिये।

मैरीना मैम साहिब तो सन्यासी की माँ हैं। उनकी शादी के समय एक अच्छी साड़ी-ब्लाउज, और सोने की अँगूठी बनवायी थी मैरीना मैम साहिब ने। अगर वह माँ नही होती, तो क्या इतना करती? सन्यासी के लिए पैण्ट-शर्ट, एक जोड़ी जूता भी खरीदी थी। दोनों ने आपस में अपनी-अपनी अंगूठियों की अदला-बदली भी की थी। सन्यासी तो एकदम अपटूडेट, फिट-फाट साहब के जैसा लग रहा था। मैम साहिब ने कैमरे में उसकी फोटो भी उतारी थी। मिशन में उस दिन एक अच्छी दावत का आयोजन भी किया गया था। गांव में क्या इतने ठाटबाट, साजो-सज्जा हो पाती? मैरीना मैम साहिब सबको ऐसी अँगूठी, पेण्ट-शर्ट जूता नहीं देती। सन्यासी तो ठहरा उसका धर्म-पुत्र। इसलिये समय-असमय बुलाने पर, सन्यासी भी दौड़ जाता था, तेजी के साथ, मैमसाहिब के पास।

एक बार इमानुअल साहिब ने बुलाया था, कुछ लोग विदेश से आने वाले हैं, इसलिये एक सभागार में चित्र बनाने होंगे? भोपाल में सबसे बड़ा सभागार था। पूरी दिवारों पर ईड़ीताल के चित्र बनाने होंगे। दीवार पूरा करने में एक हफ्ते से भी ज्यादा समय लग जायेगा। सन्यासी सवेरे आठ बजे घर से निकलता था और वापिस घर पहुँचता था रात आठ बजे। क्या खाता होगा? क्या पीता होगा? उधर चैती की हजार चिन्तायें। दिन भर का अकेलापन खूब सताता था चैती को। सन्यासी घर में होने से दोपहर भी पूर्णिमा की रात की तरह लगती थी चैती को। अकेली घर में बैठे-बैठे, उसको संसार छोड़कर चले जाने की इच्छा होती थी कभी-कभी।

सन्यासी के घर पहुँचते ही वह बोलने लगती थी “समझा, तू और कहीं मत जा, तुम्हारे बगैर मैं बड़ी अकेली हो जाती हूँ, रे!”

“अरे, कैसे होगा? काम तो अभी आधा ही हुआ है। विदेशों से प्रतिनिधि भी जल्दी ही आने वाले हैं।”

सन्यासी बहुत थक गया था। चैती की बातों से चिड़चिड़ा जाता था। बोलता था “मुझे खटना क्या अच्छा लगता है? मुझे पीठ और कमर झुकाने पर कष्ट हो रहा है। बड़ा कष्ट! तुम मेरा खाना-पीना, कष्ट के बारे में तो समझने की कोशिश करती नहीं। केवल झगड़ा ही करती रहती हो।”

चैती की आँखों में आंसू भर आते थे. कहती थी “तुम्हारी माँ से मैं पुछूंगी। तुम्हें इतना कष्ट क्यों दे रही हैं?”

एक दिन सन्यासी बोला “चल न चैती, मेरे साथ मिलकर काम करना। काम भी जल्दी खत्म हो जायेगा। जल्दी खत्म होगा, तो मुझे वहाँ और जाना भी नहीं पडेगा।”

उसकी बात सुनकर चैती का शरीर काँप उठा “क्या बोला? घर में दो-चार टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें खींच दे रही हूँ, तो क्या आँफिस में जाके काम करुँगी? मुझे ऐसे काम के लिये आगे से मत बोलना।”

चैती ने सोचा था कि सन्यासी उसकी बातों को मान जायेगा। लेकिन सन्यासी तो जैसे जिद्द कर बैठा। “तुम मेरी गुरु हो, समझी लोग तुम्हारी तारीफ करेंगे, वाह-वाही करेंगे। असली जादू तो तुम्हारे हाथों में है। तुम जाओगी तो देखोगी। वहाँ लोग कैसे तारीफ करते हैं? तुम्हारी तारीफ होने से मेरा सीना गर्व से फूल उठेगा। कल चलेगी न, तुम मेरे साथ?”

चैती सोच रही थी कि सन्यासी उसके साथ मजाक कर रहा है। उसको क्या मालूम था वास्तव में सन्यासी उसको ले जाना चाह रहा है। जब उसको पता चला कि सन्यासी, सही में उसको सभागार ले जाना चाहता था, तो उसका पूरा शरीर काँप उठा। लग रहा था कि कहीं बुखार न आ जाये। उसे ऐसा लग रहा था कि रात को घर छोड दें। लेकिन सन्यासी को छोड़कर वह कहाँ जायेगी? उसका सन्यासी के अलावा और कौन है? उसका बाप फिर क्या उसको घर में रखेगा? बस्ती-बिरादरी वाले उसको मारने नहीं दौड़ेंगे? सन्यासी को छोड़, और कौन उसको इतने प्यार के साथ रखेगा?

रात को नौ या दस बजे के आस-पास चैती को दस्त लगने लगे। पाखाना दौड़ते-दौड़ते उसके हाथ-पैर सब शिथिल हो जा रहे थे। सन्यासी आश्चर्य-चकित रह गया। अचानक चैती को यह क्या हो गया? पूछने लगा “आज क्या क्या खायी थी, चैती?” दौड़ पड़ा था मिशन डिस्पेन्शरी में। कुछ दवाईयाँ, टेबलेट लेकर लौट आया था। दवाई खाने से भी दस्त रुक नहीं रहा था। चैती निस्तेज होकर आँखे पलटकर पड़ी हुई थी।

“तुम्हें अस्पताल ले जाना होगा। और अब मेरे वश की बात नहीं है।”

“अस्पताल? वहाँ तो सुई लगायेंगे। मैं नहीं जाऊंगी वहाँ। मुझे इतना तंग क्यों कर रहे हो?”

“मैं तुम्हें तंग कर रहा हूँ या तुम मुझे कर रही हो? खैर, छोडो इन बातों को। पहले मुझे देखने दो, डाक्टरको कैसे खबर की जाये?”

“भले, मैं यहाँ मर जाऊँगी, पर अस्पताल नहीं जाऊँगी।” चैती कुं-कुं कर रोने लगी। सन्यासी और अधिक क्या बोलता, बुद्धु लड़की को। सुई से डरकर मौत को बुला रही है। अकेला आदमी किसके भरोसे छोड़कर जायेगा अस्पताल, वह समझ नहीं पाया। भगवान को याद करने के अलावा उसके पास और कोई रास्ता नहीं था। अंत में बोला था “मैं थक गया हूँ, मैं और कुछ भी नहीं कर पाऊंगा।”

आधी रात को धीरे-धीरे ठीक होने लगी थी चैती, उसकी दस्त रुक गयी थी और पाखाना नहीं जाना पड़ रहा था। सन्यासी के स्पर्श से उसकी आंखों में नींद आ गयी थी। चैती के पाँव को सहलाते हुये न जाने कब से वह भी नींद के आगोश में आ गया था।

सवेरे नींद से उठते समय, उसने देखा कि सूरज सिर के ऊपर था। पास में चैती नहीं थी। कहाँ गयी? देखने उठता है, तभी चैती वहाँ भीगे हुये बालों को सुखा रही थी, एक तौलिया लेकर। सन्यासी को देखकर पूछने लगी “तुम आज स्कूल नहीं जाओगे?”

“हाँ, स्कूल तो जाऊँगा, पर तुम्हारी तबीयत कैसी है? पहले बता।”

“ठीक है।” छोटा सा उत्तर दिया था चैती ने।

सन्यासी अपनी दिनचर्या से निवृत होने के बाद एक घंटे के अंदर तैयार हो गया। दोनों ने दो-दो रोटी खायी। गांव में रहने पर नाश्ता क्या चीज होती है, उनको पता भी नहीं था। शहर का अदब-कायदा, जरा अलग हटकर था। सवेरे नाश्ता, दोपहर को लँच, शाम को फिर एक हल्का नाश्ता, फिर रात दस बजे तक बैठे रहो डिनर के लिये। ऐसा तीन-चार बार खाने का अभ्यास नहीं था चैती को। अभ्यास क्या, एक समय का खाना मिल जाने से, जहाँ दूसरे समय के खाने का कुछ भी ठिकाना नहीं होता था वहां तीन-चार बार खाने की बात तो, सपने जैसे लगती थी।

जब सन्यासी अपना झोला तैयार कर रहा था, चैती साड़ी पहन कर दरवाजे पर हाजिर हो गयी। सन्यासी को आश्चर्यचकित देखकर बोली “ऐ! ऐसे बुद्धु की तरह क्या देख रहे हो? मैं भी तुम्हारे साथ चलना चाहती हूँ काम करने।”

“तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है। अभी रहने दो। मैने तो ऐसे ही मजाक में कह दिया था। तुम घर में रहो। कुछ बनाकर खा लेना। मेरा इंतजार मत करना।”

“नहीं, नहीं, मैं भी चलूंगी। जल्दी, जल्दी काम निपटा लेंगे। अकेले तुम कितने दिनों तक उसको करते रहोगे?”

बात करते-करते अनायास ही सन्यासी के मुंह से निकल पड़ा था, लेकिन वह अपनी बीवी को लेकर आँडीटोरियम में काम करना नहीं चाहता था। मगर चैती जिद्द करके उस दिन उसके साथ चली गयी।

सभागार में खूब सारे लोग थे। चैती को शर्म लग रही थी। सन्यासी के साथ चैती को देख अन्य कार्यकर्ताओं को भी ताज्जुब हुआ।

चैती ने देखा कि दीवार पर आधा काम हो गया था। लेकिन चित्र जीवंत नहीं लग रहे थे। उसके दादाजी की तरह सन्यासी नहीं कर पायेगा। उसका मन दुःखी हो गया। इतना बड़ा काम हाथ में लेकर सब गड़बड़ कर दिया है। शबर लोगों के तीर और पतले होने चाहिये थे। कुत्तों के मुँह अगर थोड़े और खुले होते तो बहुत सुन्दर लगते। एक की पूंछ, दूसरे के मुंह पर नहीं लगनी चाहिये थी। लेकिन सन्यासी को इतने लोगों के सामने वह कुछ भी नहीं बोल पायी थी। वह समझ गयी थी कि सन्यासी ने ध्यान से चित्र नहीं बनाये थे। चित्रों में प्यार कम था। पहले उसको अपने मन में चित्र बना लेने चाहिये थे। चित्रों में पूरी तरह से नहीं खो जाने से, क्या सही चित्र बनते हैं?

किसी श्रीधरन के साथ चैती का परिचय करवा दिया था सन्यासी ने। वह आदमी चैती की तरफ एक बार तिरछी निगाहों से देखकर जाने लगा था। सन्यासी कहने लगा, “इस पन्ने का चित्र को चैती ही बनायेगी।”

श्रीधरन ने बहुत ही असंतोष भरी आँखों से देखा था सन्यासी और चैती की तरफ। मानो उसे चैती पर कोई भरोसा नहीं था।

“वी कान्ट टेक द रिस्क ”

“ सर, यह तो मेरी गुरु है। इसी से तो मैंने यह कला सीखी है।” श्रीधरन हँस दिया। बोला “ ठीक है, तुम लोग देखो। एज यू लाइक।”

बहुत दिनों के बाद चैती ने पकड़ी थी रंगों की प्लेट और उसमें पड़ी तूलिका। ये रंग पत्थरों का महीन चूर्ण बना करके बनाया गया था। बहुत दिनों के बाद वह खेल रह रही थी दीवारों पर, अपने साथ लिये मन-पसंद रंग और तूलिका। दादाजी होते, तो खुश हो जाते। मेरी पोती मेरे पढ़ाये पाठ आज काम में ला रही है। कतारों में हैं ‘शल्ब’ के पेड़, धांगड़ा-धाँगड़ी, मोर, तोते। सभी धाँगड़ों की कमर पतली और सीना चौड़ा होता है।

श्री धरन दूर से देख रहा था उस आदिवासी लड़की को चित्र बनाते हुये। मंत्र-मुग्ध हो जा रहा था। क्या निपुण कला थी! जैसे कि कोई सितार पर धीरे-धीरेकर अपनी उंगली चला रहा हो। जैसे कि पुरातत्वविद् घुम रहे हो इधर-उधर, एक सभ्यता की खोज में।

“वन्डरफुल, वन्डरफुल”

सन्यासी हँसकर बोला था “सर, मैं पहले से ही बता रहा था।”

दोपहर को सन्यासी चैती को ले गया था, सभागार की कैण्टीन में। सभागार से सटा हुआ था एक बड़ा दफ्तर और दफ्तर के लोग बैठकर खा रहे थे कैंटीन में। चैती को शर्म लग रही थी। उसे लग रहा था मानो प्रवेश निषेध वाली वर्जित जगह में वह घुस आयी हो। बोली थी “चल, यहाँ से चलते हैं। इतने लोगों के बीच में नहीं खा सकती।”

“तो क्या भूखा मरोगी?”

“चल, बाहर चलते हैं, किसी दूसरी दुकान में खा लेंगे।‘”

“अभी कहाँ जायेंगे? तू ऐसा मत सोच तो। मैं साथ में हूँ ना, कुछ नहीं होगा। शहर बाजार जैसी जगहों में कोई किसी को, न देखता है, न पूछता है।”

अपने आपको छुपाने जैसी एक किनारे में कुर्सी पर बैठ गयी थी चैती।

“क्या खायेगी?” पूछा था सन्यासी ने।

“तुमको जो भी अच्छा लगे।”

“तू बता न। यहाँ हमको पैसा देना नहीं पडेगा। मुर्गा खायेगी या मीट? देख, मेरे साथ यह ‘पास’ है। हम लोग जो भी खायेंगे, मुफ्त में मिलेगा।”

“क्या हर दिन?”

“धत्, पगली! यहाँ रोज हम लोग काम करते रहेंगे क्या? घर नहीं जायेंगे?”

शरम के मारे चैती बोल नहीं पायी थी कि वह क्या खायेगी? जैसे-तैसे कुछ खाकर बाहर निकल आयी थी वह। बाहर आने के बाद, उसको कितना अच्छा लगा था।

फिर दोनों ने सभागार में चित्र बनाये थे। चैती के लिये यह था एक नया अनुभव, नया नशा और नया परिचय। जितना भी डर लगे, शरम आये, काम तो अच्छा लग रहा था। इंसान के अंदर छुपी हुई प्रतिभा को पहचानता है शहर। गांव में कौन पूछता है? गांव में कभी किसी ने तारीफ की है? पहले-पहले लग रहा था शहर में, मानों उसकी ज़ड़े कटी हुयी हो। लग रहा था कि चारदीवारों के बीच उसकी आत्मा कैद हो गयी हो। हृदय हाहाकर करने लगता था। आज पहली बार उसको जीवन, सहज और सरल लग रहा था।

शाम के समय दो-चार और लोग आकर पहुंच गये थे। उनके साथ में इमानुअल साहिब व मैरीना मैम साहब भी थे, वे लोग आपस में अंग्रेजी में कितनी सारी बातें कर रहे थे। बीच-बीच में हिन्दी में भी बात कर रहे थे। चैती समझ पा रही थी कि वे लोग उसके चित्र के साथ सन्यासी के चित्र की तुलना कर रहे थे। “चैती के सारे चित्र ज्यादा सुन्दर बने हैं।” बोल रहे थे वे सब।

सन्यासी और चैती जुटे हुये थे। जैसे भी हो, आज काम पूरा करना होगा। ये दोनों कभी किसी को भला-बुरा कहने अथवा देखने वालों के बीच में नहीं रहते थे। ये तो सृजन की बारिश में भीगते रहते थे। तिनका तिनका जोड़कर, घोंसला बनाने में लगे रहते थे। मिट्टी की गुफा, बनाने में लगे हुये हो जैसे दो कुम्हार, या फिर संगत में मशगूल दो आधे पागल इंसान, चारो तरफ से जिनके गुम हो गया हो जैसे सारा जहां, सारा संसार।

लगभग काम पूरा करके वे दोनों वापस आये थे। उस समय रात हो चुकी थी। थकान से चैती का शरीर टूट कर चूर-चूर हो रहा था। वह समझ पा रही थी, बेचारे सन्यासी ने कितने कष्ट में समय बिताया होगा? अकेले घर में छोड़कर जाना पड़ता था, इसलिये सन्यासी पर कितने बेकार का गुस्सा करती थी वह! घर लौटते समय चैती बोली थी “ऐसा ठेका वाला काम अच्छा नहीं लगता है, समय होता तो तुम देखते कि मैं इडीताल चित्रों की परिधियों को कितने सुन्दर-सुन्दर फूलों से भर देती।”

चावल पकाने की इच्छा नहीं थी चैती की। सन्यासी बोला “चल, आज होटल में खाना खा लेते हैं।”

“मुझे भूख नहीं है। तुम अकेले जाओ, बाहर से खाकर आ जाना।”

सन्यासी को काफी थकावट लग रही थी। चित्र बनाते समय भूख, प्यास, नींद, थकान कुछ भी महसूस नहीं हो रही थी। अभी ऐसा लग रहा था जैसे कि कई दिनों से वह सोया नहीं हो। घर लौटते समय, रास्ते में ठेला वाले से खरीदकर, दो चाट खा लिये थे दोनों ने।

ताला खोलकर घर घुसते समय सन्यासी बोल रहा था “देखी, काम करने बाहर निकली, कितनी तारीफ मिली! घर में बैठी रहती, तो क्या कोई तारीफ करता? लोग कह रहे थे कि मेरे चित्रों से भी तुम्हारे चित्र अच्छे बने हैं, है ना?”

“उसमें मुझे क्या मिलेगा? तुम परेशान हो रहे थे, इसलिये मैं साथ गयी थी।”

“अब तक वे लोग मुझे अच्छा कलाकार मान कर सिर पर बैठाये हुये थे, क्योंकि उन्होंने तुम्हारे हाथ की कला नहीं देखी। एक दिन के लिये तू गयी, और उसी में लोगों ने मेरे साथ तुम्हारी तुलना करनी शुरु कर दी।”

“तुम क्या पागल हो गये हो? मैं क्यों तुम्हारे साथ लड़ने जाऊँगी? तुम क्या मेरे से अलग हो?”

“धत्, पगली। मैं क्या तुमसे ईष्र्या कर रहा हूँ? तेरी तारीफ सुन कर गर्व से मेरा सीना फूल उठा। तुम तो मेरी सोने की चिड़िया हो।”

“तुम सही बोल रहे हो” हँसी थी चैती।

“ये मेरे पेट में जो पलने लगा है, वह क्या है?”

पहले तो समझ नहीं पाया सन्यासी, चैती क्या बोल रही थी? बाद में, चैती के होठों पर थिरकती मंद-मंद मुस्कराहट से वह समझ गया था कि वह बाप बनने जा रहा है। पुलकित हो उठा था वह एक अदभुत से रोमाँच से, और काँपने लगा था उसका सारा शरीर खुशी के मारे।

“तुम ऐसी हालत में काम पर आयी थी और एक प्लेट चाट खाकर रह गयी? रुक, मैं कुछ बना देता हूँ, तुम्हारे लिये? तू भी न चैती, इतने दिनों तक बात को छुपाये रखी थी। तुम बहुत नटखट शैतान हो गयी हो।”

जितना गुस्सा उसे चैती पर आ रहा था, उतना ही तरस आ रहा था उसे उसकी असावधानियों पर। सृजन के उस खेल से निकल कर, फिर एक नये सृजन के खेल में मशगूल हो गये थे वे दोनों। दोनों के पास आनंद ही आनंद। सृजन ही तो आनंद की कुंजी है।

सन्यासी ने चैती को धीरे से अपने सीने से लगाया।

चैती की आँखों में थे समर्पण के भाव। बोलने लगी “कितने दिन हो गये हैं, तेरी बांसुरी को सुने हुये।”

“एक दिन छुट्टी लेकर जंगल चले जायेंगे। उस दिन, जंगल में पूरे दिन मैं तुमको बांसुरी सुनाऊँगा।”

“जा रे,”

“इसलिये तो मैं अभी तक जिंदा हूँ, चैती। नहीं तो, कब का मर गया होता?”

“सच? क्या क्या सपने देखते रहते हो तुम?”

“बहुत सारे सपने संजोकर रखा हूँ जैसे जंगल, जंगल में हमारा घर, घर में अपने माँ-बाप, आस-पडोस, बस्ती वाले सभी ......”

मानो कि किसी ने बंद घर का दरवाजा खोल दिया हो। अंधेरे में मकडियों के जाल, सौंधी-सौंधी सी गंध और पेट के बल सोया हुआ हो उसका बचपन।

उदास होकर दीर्घ श्वास छोड़ी थी चैती ने। चैती के दीर्घ श्वास के साथ घुल जा रही थी और एक दीर्घ श्वास।

दोनों एक दूसरे के अस्तित्व को अनुभव करने का प्रयास कर रहे थे और मजबूती से जकडते गये अपनी बाहों में, एक दूसरे को।

स्रोत में बहते हुये दो मनुष्यों की तरह।

परबा बाहर बैठकर अपने नाखूनों से जमीन पर लकीरें खींच रही थी। अंदर झूमरी थी अपने ग्राहक के साथ। वह उसका रोज का ग्राहक था। यह पान की दुकान वाला, हफ्ते में एक दो बार जरुर आता था। परबा को लग रहा था कि वह केवल ग्राहक ही नहीं है, वरन् उसे तो झूमरी का प्रेमी कहना उचित होगा। क्यों कि वह आदमी सिर्फ झुमरी को छोडकर किसी के पास नहीं जाता था। दोनों के बीच रूपया-पैसा का दाम-मोल भी नहीं होता था। जब जो मिलता था, वह देकर चला जाता था। कभी कम, तो कभी ज्यादा।

झूमरी के नाक-नक्श बहुत सुंदर थे। रंग गोरा, पतला शरीर, गंजाम की लड़की, पत्थर जड़ित नथ लगायी हुयी थी। उसके लंबे चेहरे पर नथ खूब सुंदर दिखाई देती थी। और फिर जब वह पान खा लेती थी तो उसके चेहरे का क्या कहना! बहुत ही खुबसूरत दिखती थी वह। पान दुकान वाला जब भी आता था, झूमरी के लिये अवश्य दो-चार पान लाता था। उसमें से एकाध पान झूमरी, परबा को देती थी खाने के लिये। वास्तव में, वह पान बड़ा ही मीठा और सुगंधित होता था। मानों उसमें कोई पान-मसाला न मिलाकर प्रेम मिला दिया हो। उस आदमी का उधारी भी चलता था झूमरी के पास। कभी-कभी कहता था “बेटे के लिये साइकिल खरीद लिया है, उसे आने-जाने की दिक्कत हो रही थी। पैसा बाद में दे दूंगा।” झूमरी का भी उधार-खाता चलता था उस आदमी के पास। कभी साड़ी, तो कभी खोली का भाड़ा कम हो जाने से वह मुंह खोलकर मांग लेती थी पचास-सौ रुपया।

परबा समझ नहीं पाती थी, यह दाम्पत्य संबंध है, या दोस्ती? नहीं, ये दाम्पत्य संबंध तो नहीं है, दोस्ती कहा जा सकता है। मगर दोस्ती है, तो पैसा देकर सोने के लिये क्यों आता है?

एक ही खोली में रहते हुये भी वह आदमी परबा की तरफ एक बार भी नहीं देखता था। परबा के ऐसे कोई स्थायी ग्राहक नहीं थे, जिस पर सुख-दुख में भरोसा किया जा सके। उनकी बस्ती तो एक बाजार थी। जो बोलने में, चलने में, फैशन में, चेहरे की सुंदरता में, जो जितना पारंगत था, उसकी दुकान उतनी ही अच्छी चलती थी। परबा इस होड़ में रहती थी सबसे पीछे। झूमरी नहीं होती, तो शायद उसे खाना भी नसीब नहीं होता। जब किसी औरत का कोई सहारा नहीं होता है, तभी वह उस धंधे में आती है। मगर परबा इस धंधे के लायक भी नहीं थी। वह जायेगी तो कहाँ?

झूमरी मुंह पर कुछ नहीं बोलने से भी परबा से कटी-कटी रहती थी। वह अब और परबा का बोझ उठा नहीं पायेगी। परबा को अब अपना जुगाड़ खुद कर लेना चाहिये। कितने दिनों तक, झूमरी परबा का दुगना पैसा, खोली के भाड़े का देती रहेगी?

झूमरी के मन में और भी असंतोष था, जब से कुंद इस बस्ती में आयी थी, तब से परबा हर रोज एकाध घंटा चली जाती थी उसके घर, अपने सुख-दुख की बात करने के लिये। कभी-कभी, समय-असमय पर, कुंद भी चली आती थी उनकी खोली को। झूमरी सोचती थी एक ही जाति, एक ही गोत्र, एक ही गांव की लड़कियाँ है इसलिये प्रेम-भाव बढ़ गया है। मगर जब इधर झूमरी राह देख रही होती, उधर परबा कुंद के घर से साग-पखाल खाकर लौटती थी। सरल-सी, भोली-सी लड़की सोचकर उसे अपने पल्लू में छुपाकर रखी थी। अब वह दूसरे की दीदी बन बैठी है, दूसरी खोली में।

झूमरी और परबा ने, अब सिर की ऊँचाई तक आधी दीवार खींच दी थी अपनी खोली में। तथा बाकी आधी को पोलिथीन से इस तरह ढ़क दिया था, जिससे वह खोली दो कमरों जैसी लग रही थी। पुरानी साड़ी काटकर एक-एक बड़ा परदा झूला दिया था सामने में। पहले-पहले परबा को बड़ा खराब लगता था, इधर की बातें उधर सुनाई देती थी और उधर की बातें इधर। शर्म से वह पानी-पानी हो जाती थी। अब तो उसकी आदत हो गयी थी। वे लोग चावल के बोरे, गेहूँ के बोरे की तरह लेटी रहती थीं। न उनके खून में कोई आग लगती, न मन में। सोलह साल के लड़के से लेकर साठ साल के बूढ़े आदमी, जो अतिथि की तरह आते थे, उनका परबा स्वागत करती थी। जमीन की तरह खुद को बिछा देती थी, देखो मैं अभी सर्वांगसह धरती बन गयी हूँ। मेरे शरीर पर नाचो, कूदो, खोदो, तोड़ो, जर्जर करो। मैं मुंह छुपाकर पड़ी रहूँगी। मैं कुछ भी विरोध नहीं करुँगी।

जैसे कि वह कहना चाहती थी, कब से मैं रेगिस्तान बन गयी हूँ, कब से नदियाँ लुप्त हो गयी हैं, कब से मेरी मिट्टी से पेड़ पौधे मेरी मिट्टी से पेड़-पौधे नई कोपलें निकालना भूल गये हैं। मैं एक रेगिस्तान, जन्महीन, आशाहीन, निर्मम, कठोर, थोडे-से बादलों की प्रतीक्षा में युग-युग स्वप्नहीन रातें, नींद रहित भोर, बिना उल्लास के रति, रुचिहीन प्रीति लेकर बैठी हूँ, जो बैठी हूँ।


कभी बारिश की रातों में झींगुरों की झीं-झीं आवाज सुनने से गांव की याद आ जाती थी। वह आँखे मूँदकर देख पाती डिबरी की रोशनी में, माँ का आधा उज्ज्वल चेहरा। चूल्हे के पास बैठे रहते थे सब लोग, थाली में नमक डाला हुआ चावल का माँड। माँ कहती थी “गरम-गरम पी लो।” श्रावण का महीना हो, बारिश की झड़ी लगी हो, गरम-गरम चावल के माँड में मिरच और लहुसन को मसलकर पीने में जो मजा आता है, वह किसी में नहीं है। खाने के बाद गुदड़ी को ओढ़कर बारिश की रिम-झिम संगीत को सुनती थी। खिसके हुये खप्पर से पानी गिरता था छपक-छपक। माँ घर में से एक पतली नाली काट देती थी आंगन की तरफ। छपक-छपक सुनते-सुनते उसे नींद आ जाती थी।

ऐसे ही एक श्रावण के महीने में माँ को बुखार आ गया था। बारी-बारी, दो-चार दिनों के अंतर में वह काँपने लगती थी। किसिंडा नहीं जा पाती थी। खेत-खलिहान भी नहीं जा पाती थी। चारों तरफ से बादल घिर कर, बारी-बारी से मूसलाधार बारिश ऐसे बरसने लगी, कि छोडने का नाम नहीं ले रही थी। बाप घर में बैठे-बैठे भाइयों को गाली दे रहा था। एक साल पहले, छोटा भाई बाप के साथ झगडा करके गाँव छोडकर भाग गया, ‘नक्सल’ होने के लिये। बाप के साथ उसकी कभी पटती नहीं थी। बाप के मुख से धरम, करम, करम फल की बातें सुनकर उसके शरीर में आग लग जाती थी। व्यर्थ में भगवान को क्यों याद कर रहे हो? वह कुछ देते हैं क्या? भगवान-फगवान कुछ नहीं हैं। गांव से नुरी शा, अलेख प्रधान, चूडामणि नायक सब निकल जाने से देखोगे कि गांव का हुलिया कैसे बदल जायेगा? बाप इन बातों को समझ नहीं पाता था। दोनों के अंदर झगड़ा होता था। वह कई दिनों के लिये घर से गायब हो जाता था। एक साल पहले जब घर छोड़ा था, तो फिर नहीं लौटा। सब कह रहे थे कि वह नक्सल में शामिल हो गया। घर में अभी थे सिर्फ तीन प्राणी। उस सावन के महीने में, मूसलाधार बारिश के दिन, वह औरत बुखार से काँप रही थी और एक लंगड़ा अपनी तकदीर को कोसते-कोसते भागवत पुराण गा रहा था अपने बरामदे में बैठकर, और परबा गरम माँड तो दूर की बात, पखाल के एक कटोरे पानी के लिये तरस रही थी।

नींद टूटने से भूख लगतीथी और भूखे पेट में नींद नहीं आती थी। भूख से मुंह में पानी भर जाता था और सूख जाता था! ऐसे बैठी रहती थी परबा। समय देखकर भूख चली आती थी, और फिर धीरे-धीरे चली जाती थी। मन हो रहा था डेगची, कडाई के भीतर कुछ भी ढूंढ कर खा लेने के लिये। कितनी बार ढूंढ चुकी थी। एक दाना, चावल भी घर में नहीं था।


बाप अपनी लाठी लेकर बाहर निकल गया था मूसलाधार घोर बारिश में। माँ बुखार से ठिठुर रही थी चटाई पर पड़ी-पड़ी। गिर गई थी आधी दीवार, भीग-भीगकर पानी से। सायं-सायं करती हवा घुस जा रही थी घर के अंदर। परबा के हलक सूख गये थे। अगर और आधी दीवार गिर जाती तो, सारा काम तमाम था। सिर छुपाने के लिये जगह नहीं मिलती। उसी आधी टूटी दीवार से सटकर, धारायें बन बनकर बह जा रहा था लाल रंग का पानी।

कुछ देर बाद बाप खाली हाथ भीगा हुआ शरीर लेकर वापस आया था। परबा बोली “तुम कहाँ गये थे, बा? तुम यहाँ रुको। मैं नाला की तरफ जा रही हूँ।”

“इतनी बारिश में? तू मत जा बेटी।” बाप ने उसको रोका था

“जाने दो ना, बा। दो चार भाजी के पत्ते कहीं मिल जायेंगे। मुझे जाने दो।”

“इतनी मूसलाधार बारिश में जाओगी?”

“तुम फिर कैसे बाहर गये थे?”

उसका बाप चुप हो गया था। बाहर में भले ही हो रही थी बारिश, पर पेट के अंदर तो आग जल रही थी। बाप बेचारा, आस लेकर घर में बैठा होगा कि परबा जरुर कुछ जुगाड़ कर लायेगी। परबा डालियों से बने बडा टोपे को लगाकर निकल गयी थी घर से बाहर। सरसी बिल-बिलाकर कुछ बोलना चाह रही थी पर उसके कान में सरसी की आवाज नहीं पहुंच पायी। इस घनघोर बारिश में अपने घोंसलों में से एक चिड़िया भी बाहर नहीं निकल रही थी दानों की तलाश में, लेकिन परबा निकल गयी थी। नाले में पानी सूं-सूं कर गरज रहा था। साग-भाजी कहाँ से पायेगी? पास-पडोस वाले बोल रहे थे कि नक्सली जँगल में डेरा डाले हुये थे। मूसलाधार बारिश के कारण कहीं जा नहीं पा रहे थे। मित्र-भानु कह रहा था उसने तो जंगल की ओर से गोलियों की आवाजें भी सुनी थी।

परबा को लगा कि ऐसे बुरे समय में उसका छोटा भाई ही मदद कर पायेगा। दुःखी-दरिद्रों को दुःख से उबारने के लिये ही तो वह नक्सल में शामिल हुआ था। पूरे छः दिन हो गये, पर घर में चूल्हा नहीं जला। भाई को पता चलने से, कुछ व्यवस्था जरुर करेगा फिर कितना दूर है जंगल? शायद दो कोस से भी कम ही होगा। वह अपने छोटे भाई को जरुर मिलेगी। बड़ा भाई तो भोपाल जाकर रहने लगा था। उसका चेहरा तो परबा को याद भी नहीं था। परबा ने जब होश सँभाला, तब से शायद एकाध बार वह घर आया होगा। ईसाई हो गया था,तो बस्ती वालों ने उसे बस्ती में घुसने नहीं दिया। मंझला भाई तो सब मोह-माया तोडकर रहने लगा था परदेश में। मर गया था कि जिन्दा है, पता नहीं। न कभी कोई खबर की, और न ही कभी कोई रुपया-पैसा भेजा गांव में माँ-बाप के पास। छोटे भाई के साथ परबा का अच्छा पटता था। साथ बड़े हुये थे, खेले थे, कूदे थे। साथ भूख से तड़पे थे, साथ ही साथ माँड भी पीये थे।

बड़ी उम्मीदों के साथ परबा गयी थी उसके भाई के पास। थोडी भी परवाह नहीं की थी उसने जंगली जानवरों की। भूख के सामने मानों सब छोटे हैं। लुईगुड़ा गांव में नक्सल, सितानी सेठ से पचास बोरा चावल उठाकर ले गये थे। वह क्या करेंगे उस चावल का? उनके जैसे गरीब-दुखियों को ही तो बाँटेगे। पचास बोरा चावल क्या इतना जल्दी खत्म हो गया होगा?

छोटा भाई भी कैसा इंसान है? गांव के पास जंगल में डेरा डाला हुआ है, एक बार भी घर में पांव नहीं रखा। क्या उसको याद नहीं आते, हम लोग? क्या उसको हमें देखने की इच्छा नहीं होती? कोई बोल रहा था उनके वहाँ के नियम-कानून बहुत ही तगड़े हैं। पैरेड करते हैं, बंदूके चलाना सिखाते हैं पढ़ाई कराते हैं और तरह-तरह की बातें बता कर दिमाग में बुरादा घुसा देते हैं। ऐसी कितनी सारी बातें। एक जंगल में वे लोग ज्यादा दिन नहीं रहते। पुलिस को पता चल जाने से मुठभेड़ शुरु हो जाती है। इसलिये शायद छोटा भाई गांव में आ नहीं पाता है। उसके जैसी कितनी लड़कियाँ भी नक्सल में शामिल हुई थी। परबा भी शामिल हो जाती तो माँ-बाप के पास फिर कौन रहता? उसने देखा था, माँ-बाप दोनों कैसे रो-रोकर याद करते रहते थे अपने बच्चों को? जंगल में युद्ध कब खत्म होगा? कब वह लोग गांव के राजा जमींदार जैसे, गरीबों को खैरात बाँटेगे? अगर यह बात है तो पहले वे लोग दारु की दुकाने बंद क्यों नहीं कर देते? हमारे भाई-बंधु, चौबीस घंटों में से सिर्फ चार घंटा ही हवा-पानी पहचान पाते हैं, बाकी समय नशे में बेहोश पड़े रहते हैं। इस बार अगर छोटा भाई मिलेगा, तो जरुर कहूँगी कि पहले दारु पीना बंद करवाओ, लोगों को दिन के उजाले व रात के अंधेरे के बीच के फरक को समझाओ। इसके बाद जाकर नुरीशा, अलेख प्रधान जैसों के साथ लडाई करना।

इस बार अगर छोटे भाई के साथ मुलाकात हो गई तो उसे खूब गाली देगी। बोलेगी “नक्सल में शामिल हो गया तो मां-बाप को भूल गया? चल आज मेरे साथ घर चल, दोनो बूढ़ा-बूढ़ी तेरी याद में काँटा-सा हो गये हैं, जिनके लिये लड रहे हो, उनके पेट में एक दाना भी नहीं। चल देख, घर का हाल। लडाई सीखनी है तो सीख, लेकिन घर तो आना-जाना रख। अच्छा, बता तो भईया। माँ-बाप को छोड़कर चला आया, क्या वे तुझे याद भी नहीं आते हैं?”

देख, ऐसी मूसलाधार घनघोर बारिश में परबा को गांव छोड़ना पड़ा है। उसके दुर्भाग्य ने उसको इस नरक में धकेल दिया। दोनों बूढ़ा-बूढ़ी की याद परबा को खूब सताती है। क्या खाये होंगे, पिये होंगे? परबा की आँखे आंसूओं से भर गयी, माँ बाप को याद कर। कहाँ-कहाँ नहीं खोजा होगा उन दोनों ने परबा को? भाजी चुनने गयी थी, कहीं नाला में बह तो नहीं गयी। उसकी माँ को बहुत संदेह था उस पठान लडके पर। सोचती होगी बडे भाई की तरह वह भी भाग गयी पठान लडके के साथ? क्या कभी भी जान नहीं पायेगी माँ, कि परबा रायपुर शहर के सबसे घटिया नरक में रह रही है। किसी एक दिन के लिये भी उसके बाप को उस फोरेस्ट-गार्ड पर संदेह नहीं होगा। यद्यपि उस आदमी पर, उसके बाप को बहुत गुस्सा आता था क्योंकि उसके भाई डाक्टर को उसने बंधुआ मजदूर बनाकर भेज दिया था किसी अनजान देश में। फोरेस्ट-गार्ड की लाल-पीले दाँत दिंखाते हुये उस कुत्सित हँसी को याद कर परबा का शरीर थर्रा गया था। इच्छा हो रही थी कि छोटे भाई के पास से बंदूक छुडाकर उस आदमी को जान से मार दे। बारिश में भीगी हुई परबा ने जंगल में भाई को ढूंढते समय देखा था उस आदमी को। वह अपने छोटे से क्वार्टर में बैठकर बीडी का सुट्टा लगा रहा था।

“अरे कौन? कौन वहाँ खडी है?”

परबा ने कोई जबाव नहीं दिया था। सब कह रहे थे कि नक्सल जंगल में डेरा डाले हुये है, लेकिन कहाँ? दूर-दूर देखने से कोई भी तो नहीं दिख रहा था।

“कौन? सरसी है क्या? हे पगली, तू इतनी बारिश में भी जंगल में आ गयी। तुझे अपनी जान का कोई डर नहीं है, क्या रे?”

चमक गयी थी परबा। सब उसकी मां को पगली कहते थे। बीच-बीच में जंगल जाकर उसके बड़े भाई को ढूंढती रहती थी इसलिये। परबा भी कितनी बार माँ को समझा चुकी थी “बड़ा भाई तो ईसाई होकर भोपाल में रहता है बेईजू शबर की बेटी के साथ। तू किसलिये फिर जंगल में ढूंढ रही है उसको बता तो। भाई क्या इतने सालों तक जंगल में बैठा रहेगा?”

टुकर-टुकर ताकते रहती थी उसकी माँ, जैसे कि अतीत के तार को वर्तमान के साथ, कोशिश करके भी जोड़ नहीं पा रही थी। जैसे कि वह भ्रम की दुनिया में गोते लगा रही हो। जिसमें है घने जंगल, और हैं सुंधी-पिशाचिनी।

परबा समझाती थी “हे माँ! .......” फिर भी सरसी अंधेरे गलियारों से निकल नहीं पाती थी। मानों समय स्थिर हो गया हो और उस समय में वह फंस गयी हो।

परबा माँ को समझाते-समझाते थक गयी थी। अंत में उसने माँ को उसी के हाल पर छोड दिया।

बीड़ी फूँकते-फूँकते फोरेस्ट-गार्ड पहुंच जाता है परबा के पास। “अरे तू, तू तो सरसी की बेटी है ना? तू भी तेरी माँ की तरह पगली हो गयी है, क्या? इतनी मूसलाधार बारिश में यहाँ कहाँ आयी हो? आओ, आओ, अंदर आ जाओ।”

भीगी हुई साड़ी परबा के शरीर से चिपक गयी थी। लाज और डर के मारे उसका शरीर कांपने लगा था। वह फिर ऐसे स्थिर खड़ी हो गयी जैसे पत्थर की मूरत बन गयी हो। उसके मुंह से एक भी शब्द नहीं निकला, मगर वह आदमी यमदूत की भाँति उसका रास्ता रोककर खडा था। “अरे! अरे! तुम कितनी भीग गयी हो। तुम तो अंतरा सतनामी की बेटी हो ना। आओ, बेटी, बारिश थोडा रुक जाने से, चले जाना।” ऐसा क्या था बेटी के संबोधन में? परबा के मन से भय चला गया। उसके बाप को भी जानता है वह आदमी, और मां को भी। वह आदमी इतनी अच्छी तरह से बात करता है, फिर भी बाप क्यों उसके उपर गुस्सा करता है? फोरेस्ट-गार्ड के पीछे-पीछे जाकर वह खड़ी हो गयी बरामदे में। उसके शरीर से बूंद-बूंद कर पानी टपक रहा था। पता नहीं कैसे वह अपना होश खो बैठी थी और चली आयी थी जंगल में इतनी दूर।

“और कहाँ आयी थी तुम इतनी मूसलाधार बारिश में? घर से रुठ कर आयी हो क्या?”

“नहीं, रुठकर क्यों आऊँगी?”

“इतनी बारिश में क्या कोई घर से बाहर निकलता है?”

सिर झुकाकर खड़ी हुई थी परबा। चुपचाप खड़े होने से उसकी माँ की तरह पागल समझ लेगा, इसलिये वह बोली “घर में चावल नहीं थे। मैं शाक-भाजी जंगल से लेने आयी थी।”

“भात खायोगी?” पूछा था फोरेस्ट-गार्ड ने।

घर के अंदर लकड़ी के चूल्हे पर टग-बग, टग-बग करके भात उबल रहा था। खुशबू से पेट और मन तृप्त हो रहा था परबा का। एक सप्ताह हुआ है उसको भात छुये हुये। नाक को उसकी खुशबू भी नसीब नहीं हुयी थी। भूख से मुंह से पानी निकल आ रहा था। उसने मन भर कर आज इस खुशबू को सुंध लिया।

फोरेस्ट-गार्ड उसे हाथ से पकड कर ले गया था और बैठा दिया था रस्सी की खटिया पर। परबा ने हाथ छुड़ा लिया था।

“मेरा शरीर भीगा हुआ है।”

“तो क्या हुआ? भीगे कपड़े क्यों पहन कर रखी हो? फेंक दो।”

परबा आश्चर्य-चकित होकर उस आदमी की तरफ देख रही थी। तब तक उस गार्ड ने दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। “देखो, कितनी हवा चल रही है!” परबा को डर लग रहा था। उस आदमी ने ऐसे क्यों कहा कि भीगे कपड़े फेंक दो। उस अधेड़ आदमी को कुछ लाज-लज्जा है या नहीं? पता नहीं, कैसे भात की खुशबू के साथ उसे एक अन्य-गंध का भी अहसास हुआ। डरी हुई हिरणी की तरह वह घर जाने के लिए उठ खड़ी हुई। “मैं घर जाऊँगी।”

“जरुर जाओगी।” उस आदमी का कठोर हाथ उसके कंधे पर पड़ा। “मै क्या तुझको यहीं पर रखूँगा? तुम इस गांव की लडकी हो। तुझको यहाँ रखने से गांव के लोग क्या मुझे रहने देंगे?”

“मेरे माँ-बाप मेरी राह देखते होंगे।”

“रुक, भात बन गया है, खाकर जाना। मुर्गी पकाया हूँ। मुर्गी के झोल के साथ भात दो मुट्ठी खाकर जाना। पहली बार तो तुम मेरे घर आयी हो।”

बिना किसी कारण, क्यों इतना आदर-सत्कार कर रहा है यह आदमी, जबकि गांव के सबसे अछूत व गरीब लोग है वे लोग। कोई भी उनके हाथ का पानी नहीं पीते है। उनकी छाया पड़ने से दुकान भी अशुद्ध हो जायेगी, इसलिये तो नुरीशा की दुकान से दूर रहना पड़ता है।

गार्ड बोला “मैं बोल रहा था आज तो मेरे घर में दो मुट्ठी चावल खा लेगी। कल क्या तुझे फिर भूख चैन से बैठने देगी? तेरे भाई लोग तो, साले नमक-हराम, अपने पैदा किये हुये माँ-बाप को पूछे नहीं। तू अगर कहेगी तो तुझे किसी धंधे-पानी में लगा दूँगा। रायपुर के र्इंटा-भट्टा में कितनी लड़कियाँ काम करती है। दिन भर की हाजरी पचहत्तर रुपये हैं। रहने के लिये खोली देंगे। चाय, चावल का जुगाड़ भी मिलेगा। तू थोडे ही न लड़का है, जो अपने माँ-बाप को भूल जायेगी। लड़की है जहाँ भी रहेगी, अपने माँ बाप का ख्याल रखेगी। तुम्हारे गांव से बिलासीनी, जयंती, तोहफा वगैरह नहीं गये है क्या?”

परबा धरती और आकाश के बीच झूला झुलने लगने लगी थी। कभी नीचे धरती की तरफ देखती, तो कभी ऊपर आकाश की ओर। कभी-कभी डर से सिहर उठती थी। कभी-कभी हवा में तैर जाती थी। इस आदमी की बात पर विश्वास करें या न करें। कभी-कभी लगता था उसका अभिप्राय ठीक नहीं है। फिर कभी ऐसा लगता था, इतनी सारी लड़कियों को काम में लगा चुका है, तो कहीं न कहीं उसकी बातें सच भी होंगी। छोड़ो!

गार्ड उसकी खुली पीठ पर हाथ फेरते हुये बोलने लगा “क्या बोल रही हो?” जायेगी, या नहीं जायेगी, वह तो अलग बात है, लेकिन यह आदमी इधर-उधर हाथ क्यों लगा रहा है?

“हाँ जाऊँगी।” परबा उठ खड़ी हुई

“मेरी माँ आ रही होगी।”

“इस बारिश में। बैठ, एक साथ खाते हैं। मेरे यहाँ कौन है खाने के लिये? अकेला खाने को मन ही नहीं होता। रसोई तो करता हूँ, पर देखोगी, यह सब खाया नहीं जायेगा, तो फेंक दूंगा। नहीं देख रही हो, उस कोने में आधा बोरा चावल कैसे पड़े हैं? रात भर चूहे कुतर-कुतर कर खाते रहते हैं। जाते समय दो चार किलो चावल ले जाना अपने घर। देख, मैं दयावान हूँ इसलिये चावल दे रहा हूँ, पर तेरे बाप को यह बात मत बोलना। किस साले ने तेरे बाप को मेरे बारे में भड़काया है? मेरा नाम सुनने से तेरे बाप की आँखों में खून उतर आता है।” एक असह्य बदबू उसके भूखे पेट की तह तक पहुंचकर उसकी आंतडियों को कुतर रही थी।

तब तक गार्ड परबा को आधा निगल चुका था, उधर हांडी में चावल उबल रहे थे। इधर पेट में भूख दौड़ रही थी। उधर एक आदमी लगातार मेहनत कर रहा था। अनकही आवाज में परबा बुला रही थी: “माँ, माँ”

“क्यों ऐसा कर रही हो,पगली? मैं अकेला रहता हूँ, तू क्या समझेगी अकेले आदमी का दुख?”

“मुझे छोड़ दे, मुझे जाना है।” परबा अपने को छुडाने की चेष्टा कर रही थी, पर सब व्यर्थ। इधर एक पेट की भूख से घायल, उधर दूसरा शरीर की भूख से। भूखों का कितना भयानक अनुभव है इस संसार में! निस्तेज, थकावट से चूर-चूर, अधमरी, हो गयी थी परबा। और गार्ड था अस्थिर, उन्मादी और अनियंत्रित। चूल्हे पर चढ़ी हुयी हांडी से ढक्कन को धकेलते हुये उबलते चावल और माँड, जीभ लपलपाते हुये आग में कूद रहे थे। आग सफेद चावलों को चट कर जाती थी। रह-रहकर मांसाहार पकने की बास आ रही थी। बहुत तेज आंधी चल रही थी। आंधी उड़ा ले रही थी परबा की संचित सारी संपदा। उसका कौमार्य, नारीत्व कोई जैसे सूद और मूल सहित वसूल कर रहा हो।

“छोड़ दे, हराम जादे, छोड दे, मुझे।” एक का क्षय हो रहा था, तो दूसरा पा रहा था पूर्णता। एक हार रहा था, दूसरे की हो रही थी जीत। एक की आँखों में थे आँसू, दूसरे के होठें पर थी कुटिल हँसी। सिसक-सिसककर रो रही थी परबा, बारिश और झींगुरों की आवाज में दब गया था परबा का रूदन।

भात की हांडी से सूख गया था पानी और भात जलने की बास आ रही थी। चारों तरफ धुंआ ही धुंआ, जले हुए चावल की बास और ना......., चावल अब लुभावना नहीं लग रहा था।

परबा उठकर बाहर आ गयी। पीछे से बुलाकर दयावान गार्ड ने सड़े-गले चावलों का एक झोला उसकी ओर बढ़ाते हुये कहा “ले, ले जा, अगर र्इंटा-भट्टा जाना हो तो, मेरे साथ भेट करना ”

मशीन के भांति चावल का झोला पकडते हुये सोच रही थी परबा- छोटा भाई किस जंगल में है? उसे कैसे सुनाई नहीं दिया, परबा का रोना-धोना?

उस समय प्रधान और शा खानदान के हरे भरे खेतों के कच्चे धानों में क्षीर भर गया था। खेतों के अन्दर होकर जाते समय महकी-महकी मीठी सुंगध से जी भर जाता था। उस समय उदंती के उस तरफ, पंजा भर चांदनी की रोशनी में जैसे, झूला झूल रहे थे कास के फूल। पेड़ों के शिखर पर तपस्वी जैसे बैठे हुये बगुलों के झुण्ड को देखकर लग रहा था मानो पेड़ सफेद फूलों से लदा हुआ हो और गगन में एक सुनहरी चद्दर बिछाकर बादल एक राजकुमारी की तरह सोये हुये हो।

‘आऊँगी, आऊँगी’ कहकर सर्दी फिर भी नहीं आयी थी। भोर-भोर में हल्की-हल्की गुलाबी ठंड पड़ती थी। रात भर भीगे हुये होठों से ओस चुंबन करता जा रहा था पेड-पौधों को। एक मात्र श्रृंगार की तरह नींद उतर आयी थी आँखों की पलकों में।

इस ऋतु में जंगल चंचल हो उठता है। लकड़ी वालों से लेकर ठेकेदारों तक, मौका पाकर घुस जाते है जंगल में। ठक्-ठक् शब्दों से भर उठता है वातावरण। किसी को चाहिये लकड़ी, तो किसी को चाहिये पत्थर। उदंती के उस पार से सुनाई पडते है पत्थर तोडने वालों के गीत। कुछ लोग धरती चीर कर खोजते रहते हैं रत्न, मणि, माणिक और अनमोल पत्थर। अनछुए, कभी नहीं पहने हुए अद्वितीय नीलम एवं माणिक जैसे भाग्य बदल देने वाले पत्थर सब छुपे रहते हैं, मिट्टी के अंदर। जंगल के अंदर चलता रहता है कैंप। लाल-सलाम। लाल-सलाम। सबको देख कर भी अनदेखा कर रहे जंगल के बेर मानो शर्म के मारे पक कर लाल हो गये हों।


सांझ झटपट ढले जा रही थी और गांव झटपट निर्जन होता जा रहा था। तेजी से कदम बढ़ाते हुये आ रहे थे हाथियों के झुण्ड, गांव के खेत-खलिहानों में। जिनके थे, उनका सीना काँप उठता था और जिनके नहीं थे, उन्हें किस चीज का डर?

सतनामी बस्ती में भूख घूम-घूमकर दस्तक दे रही थी दरवाजों पर। पौष और बारिश के महीने, सब बराबर। कभी गाय की हड्डियाँ, तो कभी रत्नों के पत्थर।

सरकारी गाड़ियाँ, सरकारी आदमी सब अपनी सुविधानुसार घूमते रहते हैं गांव में और भूख के मारे बाहर बैठे निर्बल बूढ़ा-बूढ़ियों से जन-गणना का हिसाब लेते है। गांव का रास्ता चोरी हो जाता है। चोरी हो जाते हैं, गांव के स्कूल, गांव के कुएँ, और बीपीएल चावल। चोरी हो जाते हैं गाव के युवक, गांव की युवतियाँ। गायब होते होते समाप्त हो जाते हैं। फिर भी सरकारी लोग आम की गुठलियों से बने माँड को बदनाम करना नहीं भूलते। सलप रस के हानिकारक गुणों के बारे में समझाते हैं। बच्चों को ‘नहीं बेचने’की सलाह देते हैं। मलेरिया के टीका-सुई बाँटते हैं, गर्भ-निरोध का पाठ पढ़ाते हैं, और आखिर में पोषक खाना खाने का उपदेश देते हैं।

एक के बाद एक उत्सव लगा रहता है गांव में। घर में भले ही खाने के लिये ना हो, लेकिन ठाट-बाट लेकर आती है ‘नुआखाई’। माँ सुरेश्वरी के पास भोग लगता है, महुआ और भुलिया के पत्तों से। कुछ घंटॊ के लिये भूख को झाडु मार कर भगाना पड़ता है। कुछ घंटे बाद गरीब के घर में फिर भूख, ब्याज सहित हाजिर हो जाती है। गर्त हो जाता है किसानों का बीड़ा, फसलों मे लगकर तरह-तरह का कीड़ा। धान-गुच्छों की मजबूती की कामना कर ओझा पूजा-पाठ करता हैं। अकाल, अकाल, किसानों का हो जाता है काल। बेटा दूज से भाई दूज तक केवल आशा और निराशा के खेल में बीत जाता है पूरा समय। बंधुआ मजदूरी में गये हुये भाइयों के लिये बहिनें उपवास रखती है। उस साल भी बहिन का भाई गांव नहीं लौटा। उसका उपवास-व्रत व्यर्थ हो जाता है।

हेमंत ऋतु का पदार्पण हो गया था गांव में। मगसर में अभी कुछ दिन बाकी थे। कटी हुई फसलों से धान निकालने में कुछ दिन और शेष थे। कुछ दिन बाकी थे लक्ष्मी माँ का आहवान करने में। सपने देखने को कई दिन बाकी थे। कई दिन बाकी थे सपने टूटने में।

गाँव की युवतियाँ बकरियां हाँकने जाती थी, तो कभी-कभी बकरियों के बदले खुद गुम हो जाती थी! पोपले मुंह वाले बुजुर्ग लोग अपनी आवाज धीमी हो जाने से पहले, अपने अच्छे दिनों के बारे में बोलना नहीं भूलते थे। सब चर्चाओं में सबसे ऊपर थी वह, जब पतले नली जैसे पैर वाले, ढोल जैसे पेट दिखाते-घुमते हुये नंगे बच्चों की, जो इमानुअल साहिब, पीटर साहब, या तो गाएस साहब की जीप के पीछे-पीछे भागते रहते थे।

सतनामी बस्ती के लोग सोच में पड़ जाते हैं। हर साल धांगडा अपने पैतृक आवास छोड़ रहे हैं, गाय कौन उठायेगा? बुजुर्ग अपनी पीली आंखों से ऊपर देखकर अदृश्य को कुछ पूछते-पूछते अपने विरासत में मिले पेशे को अब संकट में आता देख सोचते रहते हैं।

फिर भी आस-पास के गांवों में गायें मरती है। सतनामी बस्ती में खबर पहुँचती है। नहीं, नहीं होकर मुश्किल से दो चार धाँगड़ा निकलते हैं फुल पैण्ट पहनकर, गमछा बांधकर, कलंदर किसान के दुकान से दारु पीकर। नहीं, नहीं, होकर, फिर भी जीते रहते हैं वे लोग। नहीं, नहीं, होकर जिंदगी ऐसे ही चलती चली जाती है।

सरसी अंतरा को देखकर बरामदे में से दौड़ी चली आयी, जैसे कि उसे कोई किनारा मिल गया हो। दौड़कर अपंग, लंगडा, लाठी के सहारे चलने वाले अंतरा को बोली थी “देखो तो, कैसे उस आदमी ने मुझे थाना में लाकर डाल दिया है?” बोलते-बोलते रो पड़ी थी सरसी।

बहुत ही गुस्से में आया था घर से अंतरा, जब उसने सुना था कि सरसी पुलिस थाने में बैठी है। घर में खाने को एक दाना भी न था, न तो लोटा था, न कोई थाली। सिर्फ एक कटोरा पड़ा था, वह भी स्टील का। जिस की कोई कीमत नहीं थी। नूरीशा के पास गया था कुछ उधार लेने के लिये, पर उसने साफ-साफ मना कर दिया। कह रहा था “जा पहले कोई पीतल का घड़ा या गमला लेके आ। फिर पैसे ले जाना।” पीतल के घड़े में सरसी की जान थी। मायके से मिला था इसलिये प्रलय होने पर भी वह हाथ से उसे जाने नहीं देना चाहती थी। बालू और राख से रगड-रगड़कर चकचक करके रखती थी, सोने के जैसे चमकता रहता था। अंतरा उसको नूरीशा के पास बंधक रखना नहीं चाह रहा था। लेकिन खाली हाथ पुलिस थाने जाने से फायदा भी क्या? एक पैसे का भी काम नहीं बनेगा।

उस दिन किंसिडा में साप्ताहिक हाट था। जिस दिन हाट लगता था, उस दिन वह घर से जल्दी निकलती थी। रहमन मियां, जिस चबूतरे पर गोश्त काटता था, उसको पहले से धोकर साफ करती थी। उसके बाद वह बाग-बगीचे के काम में लग जाती थी। लौटते वक्त रहमन मियां, बची-खुची आंतडिया-वातड़िया, थोडी-बहुत दे देता था सरसी को। मगर इस गोश्त के लिये किसिंडा जाती थी, ऐसी बात नहीं थी। वास्तव में उस दिन मुर्शिदाबादी पठान लोग, हाट में आकर गाय-मवेशियों की खरीद-फरोख्त का सौदा तय करते थे। किस घर में बूढ़ी गाय है? तो किस घरमें बछड़ा? खरीदने व बेचने की कीमत वहीं पर तय कर ली जाती थी। सरसी उस पठान लड़के को चारों तरफ खोजती थी।

अंतरा को मालूम है हर साप्ताहिक हाट से लौटते वक्त सरसी पेट भरकर महुली पीकर लौटती थी। इसलिये खरीदे हुये चावल व गोश्त को चूल्हे के पास फेंककर सो जाती थी। अंतरा गाली देते हुये चूल्हा जलाकर खाना पकाता था। वह समझता था सरसी के दुःख को। परबा की खोजबीन से निराश होकर वह महुली पी लेती थी। एकाध-घंटा बेहोश होने के बाद उसका मन शांत हो जाता था। जवान लड़की घर से चली गयी थी, तो उसका दिल नहीं रोयेगा तो किसका रोयगा? मगर पुलिस थाने में सरसी का क्या काम? सचमुच, कहीं उसने पठान लड़के को पकड़ तो नहीं लिया है?

बिरंची बगर्ती की साइकिल चोरी हो गयी थी, इसलिये थाने में प्राथमिकी रपट दर्ज कराने गया था। वहाँ उसकी मुलाकात सरसी से हो गयी। आकर बोला “अरे चमार! तेरी घर वाली तो थाने में बैठी है।” बिरंची बगर्ती ग्वाला है। गाय मवेशियों के साथ जीते हैं, साथ मरते हैं। कितनी बार अंतरा ने उनके गुवालों से मरी गायें और मवेशियों को उठाया था। इसी कारण से कुछ जान-पहचान थी नहीं तो इन ऊंची जाति वाले लोगों का क्या काम, जो खबर देकर जायेंगे?

अंतरा थाना-पुलिस की बात सुनकर पहले-पहल डर गया था। बाद में, रुपये जुगाड़ करने के लिये इधर-उधर जिसके-तिसके पास गया था। बस्ती के सभी लोग तो उसी की तरह के थे। उसको कौन उधार देता? शा के पास गया तो उसने कोई चीज गिरवी रखने की बात कही। कहीं से कुछ भी उधार नहीं मिला। तकदीर में जो होगा, वही सोचकर थाने पहुँचा था वह।

रास्ते भर अंतरा इधर-उधर की बातें सोच रहा था। बीच-बीच में थानेदार, बंधुआ मजदूरी करने गये लड़को को दूसरे राज्यों से छुड़ाकर लाते थे। इसी तरह कहीं उसका डाक्टर लौटकर नहीं आया है तो? नहीं तो, यह औरत जरुर कोई झगड़ा-झंझट करके थाना में बैठी होगी। यह औरत थाने में बैठी है, सुनकर आस-पडोस के लोग कानाफूसी करने लगेंगे। ऐसे तो सरसी को लेकर लोग इतनी बातें बोलते रहते हैं? इसके अलावा, यह एक बात और जुड़ जायेगी।

पता नहीं, कहीं गवाही नहीं देने तो नहीं गयी है? साली को क्या पता नहीं है कि पुलिस थाने जाने से बर्बाद हो जाते हैं। उसकी लंगड़ी टाँग को मार-मारकर पुलिस ने और पंगु बना दिया था। क्या यह बात भूल गयी है वह औरत? सरसी अंतरा को पकड़कर रोने लगी। “रुक, पहले मैं पता करके आता हूँ कि बात क्या है?” एक एक कदम चलकर वह बरामदे में पहुँचा। दरोगा बाहर में खड़ा था। अंतरा ने उसका सिर झुकाकर जुहार किया था।

“क्या हुआ?” बहुत संक्षिप्त प्रश्न पूछा था दरोगा ने।

“ये मेरी घर वाली है, इसे थाने में क्यों बुलाये हो?”

“क्या वह पगली, तुम्हारे घर वाली। देखो, उसने क्या कर दी उस आदमी की हालत? पत्थर मार-मारकर उस आदमी का सिर फोड़ दिया। देखो, कैसे खून बह रहा है उसके सिर से।”

“जी, इसका दिमाग काम नहीं कर रहा है।”

“तुम भी ऐसे बोल रहे हो।” सरसी ने अचरज के साथ अंतरा को पूछा।

“घर में बाँधकर क्यों नहीं रखते हो उसको? पागल खाने में क्यों नहीं डाल दिया?” व्यंग्य करते हुये दरोगा बोला।

“जी?”

“थाने में कुछ दिन रखोगे तो अपने आप दिमाग ठीक हो जायेगा।”

“ऐसे मत बोलिये, बाबू। मैं उसको छुडाने आया हूँ।”

“तुम्हारे बोलने से क्या छोड़ देंगे?”

“ना, ना, आपकी दया पर है, मालिक”

“मेरी दया करने से भी उसे नहीं छोड़ा जायेगा। समझे क्या?”

अब सरसी ने बोलना शुरु किया। उस आदमी ने मुझे जमीन पर क्यों पटक दिया?

अब चुपचाप बैठा हुआ आदमी उर्दू और बांग्ला मिश्रित भाषा में बोला।

“तुम हाट में मुझसे खींच-तान क्यों कर रही थी? कौन परबा है मुझे क्या पता? हाट में मेरी लुंगी खींचकर कितना तंग किया? बदजात् औरत! मुझे चिकुटी काटकर, दाँतों से काटकर पत्थर से मारकर मेरा क्या हाल की है! देखो, साहिब, इस पगली को मत छोड़ना।”

“चुप,” खूब जोर से चिल्लाकर बोला दरोगा “साले, यहाँ सब नाटक लगाकर रखे हैं। पीटूँगा अभी दोनों को, माँ-बाप सभी याद आ जायेगा।”

तब दरोगा बहुत व्यस्त था। थानेदार नहीं था। शाम को ‘त्रिनाथ मेले’की पूजा होगी। गाँजा के लिये एक आदमी को भेजा था, अभी तक लौटा नहीं था। कहाँ से यह एक और झमेला जिसमें एक भी पैसे की कमाई-धमाई नहीं है। गुस्से से दरोगा कह रहा था “जाओ, पहले रुपया लेकर आओ, फिर मैं देखता हूँ।”

खून से लथ-पथ आदमी ने कहा “सर, मेरी दरखास्त क्यों दर्ज नहीं की गई?”

“तेरा घर कहाँ है? बोल पहले। तुम कहाँ से आये हो? चोर हो, चांडाल हो। तुमने क्या किया था? पहले बता। जरुर, तुमने कुछ किया है नहीं तो यह औरत कोई शिकायत करने आती?”

“मैं क्यों उसकी बेटी भगा ले जाऊँगा? मैं तो उसकी बेटी का नाम तक नहीं जानता, जनाब” बड़े दुखी मन से बोल रहा था वह मुसलमान आदमी।

“मुझे अभी बहुत काम है, तुम्हारा फैसला थानेदार साहब करेंगे, ऐसे ही बैठे रहो।”

दरोगा के पांव पकड लिये थे अंतरा ने। “जी,मैं एक गरीब आदमी हूँ, थाना-कचहरी के लिये मेरे पास पैसा नहीं है।”

“पैसा नहीं है, तो जुगाड़ करो। जाओ, आज थाना में ‘त्रिनाथ-मेला’ की पूजा है। प्रसाद के लिये कुछ जुगाड़ कर देना। थानेदार साहब को कहकर तुम्हारी औरत को छुडवा दूँगा।”

दूर में बैठा हुआ पठान लड़का यह सब नाटक देख रहा था। उसको समझ में आ गया था कि थाना आकर उसने कोई अच्छा काम नहीं किया है। यह राक्षस, उससे कुछ हासिल किये बिना नहीं छोडेगा। उसे अपनी गलती का अहसास हो गया था और वह वहाँ से चुपचाप खिसकना चाह रहा था। यह बात दरोगा ने भांप ली थी। बोला “अरे, तुम कहाँ भाग रहे हो? अरे, मैं तुमको पूछ रहा हूं कि इसकी लड़की को लेकर कहाँ भागा था? कहाँ रखा है उसको? साले, इसकी लड़की को लेकर बेच दिया और अभी ऐसे बैठा है, जैसे कुछ भी मालूम नहीं।”

“मुझे कुछ भी मालूम नहीं। मैं तो हाट में घूम रहा था। मुझे देखकर इस बूढ़ी ने खींचातानी शुरु कर दी। देखिये ना, कैसे पत्थर मारकर, और चिकुटी काटकर घायल कर दिया है!”

इसी बीच, एक आदमी दरोगा को कागज की पुडिया देकर चला गया। पुडिया को खोलकर उसे सूंघने लगा। फिर मोड़कर अपनी जेब में रख दिया। फिर दोनों प्रतिपक्षों की तरफ देखकर, कर्कश आवाज में बोला “जाओ, भागो यहाँ से। साले, दिमाग चाटने के लिये कोई नहीं मिला तो, यहाँ आ गये।” दरोगा अपना माल पाकर भीतर ही भीतर खुश हो रहा था। उसकी खुशी या गुस्सा से उनका कोई लेना-देना नहीं था। उसके ‘भागो’ बोलने से ऐसा लग रहा था जैसे किसीने पिंजरे का द्वार खोल दिया हो और कह रहा हो “जाओ,।” बहुत बड़ी विपत्ति से निकल गये थे जैसे। पठान और नहीं बोला कि मेरी रिपोर्ट लिख दिजीये। अंतरा बार-बार दरोगा का पैर पड़कर आभार व्यक्त कर रहा था।

अब दोनों को एक दूसरे से किसी भी प्रकार का कोई गिला-शिकवा नहीं था। जाने की इजाजत मिल जाने के बाद, दोनों पक्ष बरामदा से उतर कर धीरे-धीरे चले गये। रास्ते भर अंतरा सरसी को गाली दे रहा था। तुम एक दिन मुझे भी मरवायेगी। ऐसे काम करने को तुझे कौन कहता है? आज तो तू थाना में बैठी, कौन तेरा साथ देने आया? गाँव से इतनी सारी लड़किया भाग रही है, पता भी नहीं चलता। क्या वे सब पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखवा रहे हैं? साली, पगली। जेल में कितना कष्ट होता है, तुझे क्या मालूम? मार-मारकर कमर तोड़ देंगे तो उठ नहीं पायोगी। यह बाबू तो दयालु था, नहीं तो देखती डंडा से मार-मारकर भुरता बना देता।

“तुमने जो काम किया है उसके बाद मैं लोगो को कैसे अपना मुंह दिखाऊँगा? लोग कहेंगे कि अंतरा की औरत को पुलिस-थाने में ले गया था। तू और कितना बदनाम कराकर छोडेगी, बोल तो?”

सरसी के दिमाग में अंतरा की ये सारी बातें घुस नहीं रही थी। बक-बक करता रहता है, करने दो। वह तो थी-एक अलग राज्य में। वह मन ही मन में दो तारों को जोड़ रही थी, गलती से किसी निर्दोष को पत्थर मारकर सिर तो नहीं फोड़ दी है। पता नहीं, कितने दिनों बाद उस पठान लड़के मुराद को देखा था सरसी ने। हाट में परबा के साथ हंस-हंस कर बातें कर रहा था। लेकिन अब वह ठीक से लडके का चेहरा याद नहीं कर पा रही थी। उसे याद आया गले के पास वाला वह काला तिल? पठान लड़के के गले के पास ऐसा ही एक बड़ा काला तिल था। वह किसको पूछेगी? क्या सच और क्या झूठ? कौन उसको सच बात बतायेगा? बड़ा असहाय महसूस कर रही थी। इतने दिनों बाद वह लड़का उसके हाथ में आया था। बेटी की खबर मिलने से पहले ही वह लड़का हाथ से चला गया। साथ में अंतरा नहीं होता तो शायद अभी भी उसका पीछा करती। उसके हाथ-पैर पकडती, पूछती “मेरी बेटी को एक बार, ले आ, मेरे बेटे। बहुत दिनों से मैं उसको देखने के लिये तरस गयी हूँ।”पता नहीं वह लड़का कल सवेरे-सवेरे छुप-छुपाकर किसिंडा छोडकर चला तो नहीं जायेगा?


सरसी की छाती भारी लग रही थी। अपने किये के लिये वह पछता रही थी। पश्चाताप की आग में जलते हुये भी वह अंतरा के सामने सब बातों को उगल नहीं पाती थी। उसको लग रहा था कि उसकी परबा ने उसके लिये ही घर छोडा है। चार-छः दिन तक भूख से बिलखती हुयी बच्ची ने घर से बाहर पांव निकाला और लौटी ही नहीं। अगर सरसी मिट्टी के अंदर अपने संचित पैसों को निकाल कर अपनी बेटी को दे दी होती, तो क्या वह भूख के मारे घर छोड़ चली जाती?

सरसी याद करने लगी। उस समय उसके दिन का आधा समय होश में, तो आधा समय बेहोशी में कट रहा था। दीवार गिर गयी थी। लेकिन उसके हाथ-पाँव में इतनी ताकत नहीं थी, कि वह दीवार को ठीक कर पाती, पानी की बड़ी-बड़ी धारायें बह रही थी घर के भीतर। पानी ही नहीं बह रहा था, बहती जा रही थी उसकी बेटी। हाय रे! तकदीर! उसकी गोदी सूनी करके चार-चार बच्चे उड़ चले गये। ये हीन जीवन रखकर क्या फायदा? और अब किसके लिये यह घर संसार? किसके लिये करना-धरना? ये इन्सान के बच्चे ना होकर, चिडियों के बच्चे हुये होते तो इतना गम नहीं होता। पंख निकलते ही, सरसी मान लेती कि कुछ ही दिनों में उसके बच्चे छोडकर चले जायेंगे।

सरसी ध्यान नहीं दे रही थी अपने आदमी की तरफ। क्या बोल रहा है, क्या नहीं बोल रहा है? इतने समय तक वह कुछ भी नहीं सुन रही थी। उसकी सोच में से उभर कर आये थे थोडे से भाव, मुँह की भाषा बनकर- “हाँ रे। जरा सुनो तो, हमारे बच्चे चिड़ियों के जैसे थे ना?”

बकर-बकर करने वाला अंतरा एकदम चुप हो गया था। वे दोनों बस्ती के पास पहुँच गये थे। घर पहुँचते ही सरसी ने मिट्टी खोदकर हांडी बाहर निकाली थी। अंतरा को विस्मित कर उसके सामने फोड़ दी, छोटे मुंह से उसकी बेटी को निगल लेने वाली हांडी को। बोली थी

“ले जा, यह पैसा और किस काम में लगेगा? ले चावल खरीद लेना, दाल खरीद लेना, खैनी खरीद लेना, बीडी खरीद लेना, कलंदर के पास चले जाना। ये सब तुम्हारे है, ले जाओ।”

अंतरा के पेट में एक दाना भी नहीं पड़ा था तब तक। भूख लग रही थी। सरसी को लेकर चिन्ता से मन भारी लग रहा था। दिल के अंदर से जरा-सी दारु पीने के लिये तड़प पैदा हो रही थी। उसके पाँव थकावट से सुन्न हो जा रहे थे। फिर भी उसमें से एक पैसा भी उसने नहीं उठाया। यह सारा पैसा परबा के लिये था। इस औरत ने अपना पेट काट-काटकर, मन मारकर इकट्ठा किया था यह पैसा। उसे फूट-फूटकर रोने को मन कर रहा था। वह लाठी पकड़ कर निकल आया था बाहर और बैठ गया था बरामदे में।

“कपोत और कपोती दोनों पक्षी अपने पेड़ पर घौंसला बनाये थे, समझा परमा। एक दूसरे को बिना देखे रह नहीं पाते थे। यह पूरा संसार तो माया है, और माया में सब बंधे हुये हैं। पेड़ की इस डाली से उस डाली तक कूदते-फांदते हुये वे गीत गाते थे, नाचते थे। चोंच में चोंच लगाकर कितनी क्रीड़ा करते थे, कितने हंसी-मजाक करते थे। कुछ दिन बीते, कपोती गर्भवती हुई। कपोत मन ही मन बहुत खुश हुआ। कुछ दिन बाद, कपोती ने दो अंडे दिये। कहीं बाहर नहीं जाकर दोनों अंडे सेंकने में लगे हुये थे। साँप, बिल्ली और गिद्ध से अंड़ों को बचाकर रखे हुये थे।”

घर के आंगन में मिट्टी गूंथकर रसोईघर की दीवार पोत रही थी सरसी। पर उसका ध्यान बाहर बरामदे की तरफ था। उसका आदमी अपंग होने से भी ज्ञान की बातें जानता था। छः आठ महीने सोनपुर की तरफ रह गया, वहाँ से पुरान-भागवत की सारी ज्ञान की सारी बाते सीखकर आया था।

बाहर बरामदे में परमा, कुरैसर, जीवर्धन और छत्र बैठे हुये थे। सबकी उम्र अंतरा के आस पास थी। अंतरा ने भागवत में जो कहानी अवधूत ने यदुराजा को सुनायी थी वही कहानी सुना रहा था। बीच-बीच में एकाध पद्य सुर के साथ गाता था। ऐसे भी अंतरा का कंठ बहुत ही मीठा था। तत्व-ज्ञान की बातें करते-करते वह भाव-विभोर हो जाता था। इसलिये बीच-बीच में उसके बरामदे में लोगों का अड्डा जमता था। ऊँची जाति के लोग यह सब देखकर हँसते थे। बोलते थे, “देखो तो, अब चमार भी पढ़ रहा है वेद-शास्त्र।”

अंतरा का मन ठीक नहीं था। सरसी की बात उसके सीने में चुभ गयी थी। कितने शौक से उस पगली ने अपनी बेटी के लिये इकट्ठा कर रखा था कुछ रुपया-पैसा। सब लाकर उसके सामने पटक दिया था. और बोली थी “हमारे सब बच्चे चिडियों जैसे है ना?” मन ही मन बोल रहा था अंतरा “चिड़िया नहीं तो और क्या? घर को सुना करके जिसका जिधर मन हुआ, उड़ चले।” बाहर बरामदे में बैठकर सुर लगाकर गाने लगा

“ध्यान से सुनो तुम राजन; किसी दूर प्रदेश में था एक वन
रहता था कपोत, एक कपोती के संग ; स्नेह भाव से भरे हुये थे उनके हरेक अंग
रखती थी कपोती, कपोत के संग भोग के आश, सीमित था जीवन उनका, बंधे हुये थे मोह के पाश
नित्य करते रहते थे वे क्रीड़ा के रंग, पल भर भी नहीं छोड़ते एक दूसरे का संग
स्नेह-बंधन में वे बँध जाते, हँसी-खुशी से जीवन बिताते
कभी भी संग न छोड़ना चाहते, विच्छेद होने पर बहुत दुःख पाते
भोजन-शयन में जैसे साथ रहते, साथ वैसे ही वन में घूमते
कपोती का मन जिसमें लगता, तत्पर होकर कपोत उसकी इच्छा पूरी करता
कपोत करता ऐसी सेवा, कपोती मानती उसे अपना देवा
ऐसे ही कुछ दिन बीत है जाते, गर्भवती होकर कपोती, कपोत संग सपने संजोते
दोनों स्नेह से घौंसलें में रहते, पुत्र-आशा में प्यार से अंडे सेंकते
ऐसे ही दिन गुजरे अच्छे, अंडे फोडकर निकले बच्चे
अति कोमल थी दोनों की काया, ये सब थी प्रभु की माया।”

परमा कहने लगा “चिड़िया हुई तो क्या, बच्चों के प्रति लगाव तो होगा ही? साधारण-सी एक चींटी जब मर जाती है, उसको भी उसके कुटुम्ब वाले पीठ पर लादकर ले जाते हैं। फिर ये तो उनके पैदा किये हुये बच्चे हैं, उसके बाद फिर क्या हुआ अंतरा?”

और क्या होगा? बच्चों के पंख निकल रहे थे, वे फडफड़ाना शुरु कर रहे थे। बच्चों की आँखे ठीक से खुली नहीं थी, वे लाड़-प्यार से पल रहे थे। अपने परिवार को खुश देखकर, कपोत-कपोती का मन प्रफुल्लित हो उठता था। बच्चों को खिला-पिलाकर ठीक से रखने की चाहत से कपोत-कपोती दूर आकाश में उड़ जाते थे।

चोंच में दाना लेकर वे लौट आते थे। बच्चों को देखकर माँ का मन खुशी के मारे फूला नहीं समाता था। कभी-कभी वह घबरा जाती थी बच्चों को छोड़ इतना दूर चली आयी है, कहीं कोई देख तो नहीं लेगा। मन में तरह-तरह की चिन्तायें और आशंकायें पैदा हो रही थी। वह दाना तो जरुर चुग रही थी, पर उसका मन तो अटका रहता था अपने घोंसले पर।

“चिड़िया हुई तो क्या? उसके मन में कोई चिन्ता, भावना नहीं होगी?” बोला था कुरैसर।

“इसके बाद क्या हुआ? क्या बिल्ली ने उनके बच्चों को खा लिया?” पूछ रहा था छत्र।

अंतरा की आँखों के सामने आ जा रहे थे उसके चार-चार बच्चों के चेहरे। कलेक्टर, डाक्टर, वकील और इकलौती लडकी परबा। उसको अपने बच्चे, कपोत की तरह दिख रहे थे। ठुमक-ठुमक कैसे चल रहे थे आंगन में मानो कपोत के बच्चों की तरह आंगन में सुख रहे महुवा के फूलों को एक-एक करके वे मुँह में डालते जा रहे हो।

“अंतरा, तुम सो गये क्या?” गला खंकार कर एक मोटी आवाज में पूछा था परमा ने।

“नहीं भाई, नहीं, कैसे सो जाऊँगा? तो अभी सुन, वह तो पेट पालने की बात थी। घर बैठते तो क्या चार-चार प्राणियों का पेट भरता? कपोत-कपोती दूर-दूर गांवों में जाने लगे, जैसे हम लोग हड्डी उठाने दूर-दूर जगहों पर जाते रहते हैं। गाय उठाने दूर-दूर तक भागते रहते हैं। कहाँ-कहाँ हम लोग नहीं गये हैं, बता तो, भाई?”

“कपोती देखी उसके बच्चे उड़ना सीख रहे है, डालियों से डालियों पर कूदने लगे हैं। थोड़ा सा उडने पर थक जा रहे हैं। लेकिन पंख हिला कर उड़ना सीख गये हैं। पंख मजबूत होने लगे थे। उस उम्र में बच्चे बड़े नासमझ होते हैं। वे क्या समझ पायेंगे कि चारों तरफ विपदायें ही विपदायें है? नन्ही-नन्हीं आँखों में उनके, बड़े-बड़े सपने देख रहे हैं माँ-बाप, कितनी ऊंचाई तक उड़ पा रहे है! कभी सूरज को , तो कभी चांद को छूकर आ रहे हैं। नदी, पहाड़ घूमकर आ रहे हैं। बच्चे उडकर, क्या इतनी सी छोटी ऊँचाई को भी छू नहीं पायेंगे? उनके पंख से भी ज्यादा मन छटपटाता है।

दोनों बच्चे पेड़ की डाली से उतर कर मिट्टी में कूद-फाँद कर रहे थे। ऐसे समय में एक शिकारी वहाँ आ पहुंचा। सुंदर सुंदर चिडिया के दो बच्चों को देख कर उसका मन लुभा गया। चारों तरफ जाल बिछा दिया, बच्चों को प्रलोभन देने के लिये, कुछ दाना भी फेंक दिया। कपोत-कपोती के बच्चे गाना गाते हुये घूम रहे थे। उनको शिकारी की चाल के बारे में कुछ भी मालूम नही था।

समझा परमा! यह संसार भी ऐसे ही जाल की तरह है। तू सुख के पीछे जितना भागेगा, उतना ही इस जाल में फसता जायेगा। बचकर निकलने का कोई रास्ता भी नहीं मिलेगा।” बोलते-बोलते एक लंबी सांस छोड़ी थी अंतरा ने।

उसके चारों बच्चे सुख के पीछे कहीं ऐसे चले गये, जो और लौटे ही नहीं। वे भी ऐसे ही सुख के पीछे भागकर किसी जाल में फंस गये।

“फिर क्या हुआ अंतरा?” पूछा था छत्र ने। खट से जैसे अंतरा की नींद टूट गयी। वह सुर लगाकर गाने लगा -

“दाना देखकर नन्हें नयन, फंस जाते है शिकारी के बंधन
तुरंत आ पहुंचते कपोत-कपोती, पास पेड के, हो अस्थिर मति
चोंच में लेके थोड़ा-थोड़ा आहार, खोज रहे थे वे बच्चों को निहार
खोज रहे थे चारों दिशायें, उपर और नीचे, पर कहीं मिले नहीं वे बच्चे
जाल-बंधन में फंसे वे बच्चे, करने लगे चुं चुं चे चे
रह रह कर पंख फड़फडाते, चें चें कर अपना जीव बचाते
हुआ बहुत दुःखी कपोती का चित्त, गिरी भूमि पर होकर अचेत
सुनकर बच्चों का चें चें क्रंदन, कपोती करने लगी प्रचंड-रूदन
कैसे बचाऊँ मैं अपने बच्चे सुंदर, कूद पड़ी वह खुद जाल के अंदर
देखकर फंसा हुआ उसका परिवार, कपोत के दुखों का नहीं था कोई पारावार
अब कैसे रहूंगा मैं अकेला अकेला, जिसका कोई नहीं संगी, साथी और चेला
कपोत कर रहा था ऐसा घोर चिंतन, बार बार हो रहा था अचेतन।”

आह , आह के शब्दों से पूरा बरामदा गुंजित हो उठा। क्या-क्या कष्ट भोगने नहीं पड़े बिचारे कपोत-कपोती को। कुछ पल के लिये, वे लोग भूल गये थे कि एक के बाद एक उन्होंने अपने बच्चों को गंवाया है। केवल इतना ही है कि उनके बच्चे उनके सामने छटपटाकर नहीं मरे हैं। इसलिये नहीं,नहीं कर मन में आस बांधे वे लोग बैठे हुये है, कि उनके बच्चे जरुर कहीं पर भी सुखी ही होंगे।

मिट्टी से लथपथ हाथ लेकर भाग कर आ गयी थी सरसी अंदर से। जमीन के ऊपर घडाम् से बैठ गयी। और जोर-जोर से रोना शुरु कर दी। “मेरा सन्यासी, मेरा डाक्टर, मेरा वकील और मेरी परबा, तुम लोग कहाँ चले गये?” सभी लोग दोनों चिड़ियों के दुःख में दुखी थे और उस प्रकार की स्थिति के लिए तैयार नहीं थे। ऐसा लग रहा था मानो सरसी ने आकर ताल तोड़ दी हो। परमा बोलने लगा “चुप हो जाओ भाभी, देख रही हो ना, भागवत-पुराण से कितनी दर्द भरी कहानी का श्रवन-गायन हो रहा है! अंतरा, तुम गाते जाओ। बच्चे, औरत मरने के बाद कपोत का क्या हुआ?”

“बच्चे, औरत को छोड़कर कपोत और करता भी क्या? क्या वह जीवन जी पाता? पेड़ की डाली पर बैठकर वह रोने लगा और मन ही मन वह अपने आपको कोसता रहा।”

छत्र बोला “सुना अंतरा, आगे का पद्य, सुना कैसे वह कपोत अपने परिवार को खोकर तड़प रहा था?” अंतरा सुनाने लगा, -

“वह मेरी थी मन की वीणा,
उसके बिना अब कैसा जीना
विधी का विधान अटल-अभिन्न
आपदा से पूरा परिवार छिन्न-भिन्न
वन में कितना कष्ट सहूंगा
इससे अच्छा मर पडूंगा
इस घोर-वन गृहस्थी का अर्थ
जन्म हो गया मेरा व्यर्थ
गृहस्थाश्रम में मेरी ऐसी प्रीति
विफल हो गयी मेरी सारी नीति
विधाता का यह कैसा न्याय!
पुत्र-पत्नी सब जाल में फंस जाये
पतिव्रता थी वह एक शिरोमणी
प्राणों से अति प्यारी मेरी गृहिणी
पहले खिलाती पति को खाना
फिर चुगती वह अपना दाना
छोडकर मुझे मंझधार
चली गई वह स्वर्ग सिधार
चले गये सब मेरे सुख
पुत्र-पत्नी के बिना सब दुख ही दुख
बिलख-बिलख कर कपोत करे विलाप
उसके मन में अति संताप
जीवन में, मैं अब क्या करुँगा?
जाल में पड़कर मैं भी मरुँगा।

.....असमय पर ही उसका संसार टूट गया था। हाहाकर करते रोते-बिलखते, कपोत भी जाल में गिर गया और उसने अपने प्राण-त्याग दिये।” बोलते-बोलते चुप हो गया अंतरा। “ना कोई आह! ना कोई चूं-चूं।” जैसे कि समय घायल होकर गिर गया हो, और पत्थर बन गये थे सारे सुनने वाले श्रोतागण। धीरे से अंतरा अपनी लाठी पक़ड़कर ठक्-ठक् कर निकल गया था बाहर की तरफ। पीछे-पीछे एक-एक कर सभी अपने-अपने घर की तरफ निकल पड़े।

सरसी भीतर से बाहर की तरफ भागकर आयी और इधर-उधर झांकने लगी। ना, अंतरा तो कहीं भी नहीं दिख रहा है। इतनी बड़ी-बड़ी बातें सुनाकर वह आदमी कहाँ चला गया? बिना कुछ खाये, बिना कुछ पीये, कहाँ गया होगा वह अंतरा? हांडी-फोड़कर जो पैसा निकाली थी, उसी में से दस किलो चावल खरीद कर ले आयी थी सरसी। ना कोई सब्जी, ना कोई दाल, एक मुट्ठी चावल उबालकर पेट भर देने से बात पूरी।

चूल्हे में से राख हटाकर सूखे हुये कुछ लकड़ी के टुकडों को डाल दिए थे सरसी ने। फूंक लगाकर धीरे-धीरे आग लगा रही थी चूल्हे में। कुछ देर फूंक लगाने के बाद, हल्का-हल्का धुंआ निकलने लगा था चूल्हे में से। कहाँ चला गया था अंतरा? फिर एक बार बाहर निकल कर अंतरा के लौटने की राह ताकने लगी।

चूल्हे पर पानी बैठाकर चावल डाल दिये सरसी ने, चावल उबलकर भात बन गया, लेकिन सन्यासी का बाप लौटा नहीं। चिन्ता से सरसी का मन अस्थिर हो रहा था। खूब सारी खराब-खराब बातें आने लगी थी उसके मन में। सरसी को रोना आ गया था।

‘जाऊँ या ना जाऊँ’, होकर सरसी निकल पडी थी नाले की तरफ। अनमनी होकर भाजी चुनते-चुनते उसकी नजर पड़ गयी थी दो-चार धोंधों पर। उन धोंधों को साड़ी के पल्लू में बांध ली थी सरसी। आज उसको भूंजकर पीसकर चटनी बना देगी अंतरा के लिये।

“कहाँ जायेगा?” अंतरा कुछ भी समझ नहीं पा ही थी। घर से अचानक निकल गया था अंतरा। उसकी किस्मत में थे इतने सारे दुख-दर्द! कहाँ बाँटेगा उनको? कोई भी जगह नहीं मिल पा रही थी। आँखों में बार-बार पानी भर आता था, पड़ोसियों के सामने वह रो नहीं पाता था। आँखों के आंसू छिपाकर, वह चल पड़ा था बरामदे में से। कौन है उसका? वह कहाँ जायेगा? कुछ देर तक बैठा रहा पीपल के पेड़ के नीचे। माँ की तरह आंचल फैलाकर खड़ा था वह पीपल का पेड़। गरमी में ठंडी-ठंडी हवा देता था मानो पास में बैठकर माँ झूला रही हो पंखी से। कौआ, कोयल , ऐसे कितने सारे पक्षी उसकी डालियों पर घोंसला बनाये हुये थे। बुलाते हुए उड़ जा रहे थे,तो कभी लौट आते थे। गाय अपने बछड़ी के साथ सोयी हुई थी कुछ ही दूर पर। अंतरा सोच रहा था कि यदुराजा को अवधूत संसार की माया के बारे में समझा रहे थे वैसे ही हरिदास मठ में, कितने सारे शास्त्र-पुराण पढ़ कर कभी वह भी अपने दूसरे शिष्यों को समझाता था। अंतरा सोच रहा था माया-बंधन छोड़कर फिर एक बार वह मठ चला जाता? लेकिन यह क्या संभव था?

जैसे माँ के पल्लू के तले, उसके पंखी की ठंडी-ठंडी हवा में, अंतरा की आँखे लग गयी थी। वहीं पर, उसी पेड़ की गोदी में वह सो गया था। नींद टूटते समय देखा कि सूरज दूसरी तरफ जा चुका था। अरे! इतनी देर तक सो गया यहाँ। आह! बेचारी पगली सरसी उसको नहीं पाकर रोते-रोते हाल-बेहाल हो गयी होगी। पूरे बस्ती भर के लोगों को तंग कर दी होगी, उसको ढूंढने के लिये। अंतरा ने यह ठीक काम नहीं किया। धीरे-धीरे वह अपने घर की तरफ लौट चला।

“कहाँ चले गये थे तुम? कहाँ-कहाँ मैने नहीं ढूंढा तुमको?” बोलते-बोलते रो पड़ी थी सरसी। “मुझे छोड़कर कहीं चले जाने का इरादा था क्या?”

“तुमको छोड़कर कहाँ जाऊँगा? तुम तो मेरे गले में बंधी हुयी हो। किसके पास छोडकर जाऊँगा? जिसको जहां जाना था चला गया, लेकिन मैं कहाँ जाऊ? तेरी माया-बंधन से क्या मैं मुक्त हो पाऊँगा, सरसी?”

“आखिर में तुम भी ऐसे बोलते हो, जैसे कि मैं तुम्हारे लिये एक बोझ हूँ। मुझे तो थानेदार ले गया था जेल में सड़कर मर जाती, मुझे छुडवाकर क्यों ले आया? अभी भी समय है, जाना है तो चला जा। मैं तुम्हें नहीं रोकूँगी। मुझे छोडकर इतने साल तक आश्रम में रहा, लोग मुझे भला-बुरा कहने लगे। ऐसे समय में भी मैंने छोटे-छोटे बच्चों को अपनी गोदी में लिये बड़ा किया या नहीं? अभी कौन है मेरे पास? ना कोई बेटा, न कोई बेटी। आज हूँ, कल आँख मूंद लूंगी। मैं अब और तुम्हारे रास्ते में कांटा नहीं बनूंगी।”

अंतरा समझ गया, नाराज होकर जो मुंह में आ रहा है, वह बकवास किये जा रही है, पगली। कहाँ जायेगा पगली को छोड़कर? यदुराजा को अवधूत जितना भी समझायें, क्या यह माया का चक्र वास्तव में टूटता भी है? कभी सरसी अपने सन्यासी को जंगल में ढूंढती है, तो कभी किसिंडा में अपनी परबा को। अगर वह चला जायेगा, तो उसको भी कहीं न कहीं जाकर ढूंढने लगेगी।

सरसी ने आंसू पोंछते हुये अलुमिना थाली में भात-पखाल परोस दिया। भूने हुये घोंघों को पीसकर मिर्च,लहसुन मिलाकर कब से चटनी बनाकर रखी थी। छोटी-सी कटोरी में चटनी लाकर रख दी। फिर से जाल-जंजाल में फंस गये थे कपोत-कपोती। सब माया है, जानते हुये भी, निकल आने का कोई उपाय नहीं। नहीं, नहीं, सचमुच में कोई उपाय नहीं।

किसके आगे शिकायत करती, चैती? इमानुअल साहब के आंख भींचने के बाद, मैम साहिब आस्ट्रेलिया में जाकर रहने लगी थी। अभी इगनेस साहिब के दायित्व में था सब कुछ। एक अच्छा इंसान, लेकिन चैती के साथ उसका कोई परिचय नहीं था, इसलिये इगनेस साहिब को मिलने के लिये चैती साहस नहीं जुटा पाती थी। हाँस्टल का कार्य-भार सभालने वाली सिस्टर स्नेहलता से बोली थी “दीदी, आप इगनेस साहिब से पूछकर मेरे सन्यासी की कोई खोज-खबर नहीं ले लेती? सन्यासी के आते ही हम यहाँ से गांव चले जाते। गांव में रहते, जो भाग्य में होता, देखा जाता।”

तीन महीने के लिये जापान गया हुआ था सन्यासी। उस समय चैती को चार महीने का गर्भ था। सन्यासी ने समझाया था, देख सिर्फ तीन महीनों की ही तो बात है, देखते ही देखते, समय पार हो जायेगा। मैं जा रहा हूँ, ढ़ेर सारे रुपये कमाकर लाऊँगा। अपना एक घर बनायेंगे, उसमें तुम्हारे माँ-बाप, मेरे माँ-बाप सभी साथ में रहेंगे। बड़े-बड़े शहर, बड़ी-बड़ी जगहों में कोई भी जाति-पाति को नहीं मानता। वहाँ खूब आराम से रहेंगे।

चैती जानती थी केवल उसका मन रखने के लिये सन्यासी, ये सब बातें करता था। वह, न ही कभी पैसों के पीछे भागता था, और न ही किसी संसार के पीछे। मिशन को छोड़कर वह किसी दूसरी जगह रह भी पायेगा, ऐसा नहीं लग रहा था चैती को। मिशन जीवन के साथ उसने अपने आपको ऐसे ढाल दिया था कि उससे निकलकर बाहर एक अलग घर-परिवार बनाने की बात केवल एक झूठ के अलावा कुछ भी नहीं थी।

पहले-पहले तो चिट्ठी-पत्र भेजता था, मिशन आँफिस में फोन भी करता था। उसकी आवाज उसके बोल सुनने से चैती के मन को शांति मिलती थी। रोज दीवार के ऊपर लकीरें खींचकर रखती थी, सन्यासी के लौटने के दिनों का हिसाब। सन्यासी फोन पर समझाता था उसको “तुम पर दो-दो बड़ी जिम्मेदारियां सौंप कर आया हूँ चैती, मेरे लौटने तक सारी जिम्मेदारियाँ ठीक तरीके से निभाओगी।”

चैती बोलती थी “तुम चले आओ और खुद संभालो अपने घर की बगिया एवं अपने बच्चे को।”

“बच्चा तो तुम्हारे पेट के अंदर है, कैसे मैं संभालुंगा उसको? उसका ध्यान कैसे रखा जाता है, तुम जानती हो चैती, तुम अच्छे से खाओगी, तभी हमारा बच्चा स्वस्थ रहेगा।”

“मैं कुछ भी नहीं जानती। तुम लौटकर जल्दी घर आओ, तो” चैती जिद्द करने लगती।

“यह कैसे संभव होगा? देख नहीं रही हो काम और तीन महीने के लिये बढ़ गया है। ऐसे बुला देने से क्या मैं आ पाऊँगा?”

तीन महीने के लिये गया था सन्यासी। तीन महीना और बढ गया। चैती सोच रही थी बच्चा पैदा होते समय सन्यासी यहाँ पहुंच पायेगा या नहीं। सन्यासी को गये हुए तीन महीने गुजर कर चौथा महीना भी लग गया था, बच्चा पेट में आठ महीने का हो गया था। फिर भी सन्यासी नहीं लौटा। कुछ दिन पहले सन्यासी ने सिस्टर स्नेहलता को फोन करके कह दिया था इसलिये सिस्टर ने चैती को मिशन अस्पताल में दिखाकर दवाई व्यवस्था करवा दी थी। डाक्टरानी बोली थी “बच्चा ठीक है, लेकिन खाना-पीना ठीक से करना होगा।”

कैसे अच्छा खा पायेगी चैती? सन्यासी के जाने के बाद उसके खाने-पीने का कोई ठिकाना नहीं था। मन होने से खा लेती, नहीं तो भूखी सो जाती। सवेरे-सवेरे अपने बचे हुये काम निपटाकर, वह पहले चली जाती थी मिशन के बगीचे की तरफ। वहाँ माली के साथ मिलकर एकाध घंटा काम करती थी। कभी गोबर डालती थी, कभी पौधों की जड़ों को कुरेदती थी। बूढ़ा माली उसको ऐसा करने से मना करता था। “तुम घर चली जाओ, ऐसी हालत में तुम्हारा झुक-झुककर काम करना ठीक नहीं है। मास्टर बाबू भी तो आपके साथ में नहीं हैं।” चैती बोलती थी “जानते हो, वे मुझे कहकर गये थे कि बगीचा और बच्चे का पूरा-पूरा ध्यान रखना।”

बूढ़ा हँसता है, बड़े ही अच्छे इँसान है मास्टर बाबू! इसलिये अपने बच्चे की बात भूलकर पेड़-पौधों के बारे में सोच रहे हैं।

“नहीं नहीं, काका, वे तो पेड़-पौधों और बच्चे, दोनों की बात कहकर गये हैं। फोन में सिस्टर से भी कहा था, इसलिये तो सिस्टर मुझे डाक्टर के पास भी ले गयी थी।”

“बेटी,एक बात कहूंगा, मास्टर बाबू तो पास में नहीं है। अपनी माँ या सासू माँ को क्यों नहीं बुला लाती? अगर मुझे कहते, तो आपको अपने गांव में छोड़कर आ जाता।”

गांव की बात, सास-ससुर की बात आ जाने से, चैती को चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा दिखने लगता था। वह माली को बता भी नहीं पा रही थी, कि सन्यासी के अलावा उसका इस दुनिया में और कोई नहीं है। उसको अब, न ही उसके माँ-बाप, अथवा सास-ससुर, अपनाने के लिये आगे आयेंगे, ऎसी आस चैती की नहीं थी।

चैती मिशन में सिर्फ माली के साथ ही जान-पहचान बढ़ा पायी थी। इसलिये वह अपने मन की बात उसे बोल देती थी। मगर उसे अपने अतीत के बारे में बताने में संकोच लग रहा था।

उसको बहुत डर लग रहा था। वह अपने पेट के अंदर बच्चे के हिलने-डुलने का अनुभव करने लगी थी। वह समझ पा रही थी कि उसका बच्चा कुछ ही दिन बाद बाहर का उजाला, हवा-पानी छूने के लिये, अब तैयार था। वह डर जाती थी कि बच्चे को अगर पैदा करते ही वह मर गयी, तो उस बच्चे का क्या होगा?

सन्यासी की चुप्पी इस समय सबसे ज्यादा उसको खाये जा रही थी। तीन महीने का कहकर छः महीने रहने की योजना बना दी थी उसने। उसके दिमाग में क्या थोडी सी अक्ल भी नहीं है? उसे इस बात का भी ध्यान नहीं है कि उसका बच्चा चैती के पेट में पल रहा है। क्या उसे मालूम नहीं है कि इमानुअल साहिब और मैरिना मैम साहिब अब मिशन में नहीं है?

क्षण भर के लिये उसके मन में संदेह पैदा हुआ कि कहीं वह वहां की सुंदर-सुंदर लड़कियों के चक्कर में तो नहीं पड़ गया। उन सुंदरियों के साथ खडे होकर कितने फोटो खींचवाये होंगे सन्यासी ने! कितना गोरा चिट्ठा शरीर, काले भरे भरे बाल, गुलाबी होंठ, पतली-पतली आँखे होंगी उन सुंदरियों की! फिर उसके मन से संदेह की भावना चली गयी थी। नहीं, उसका सन्यासी ऐसा नहीं है। उसने चैती को बांसुरी बजाकर वश में कर लिया था, तो वह सबको बांसुरी बजाकर वश में कर लेगा? उस पागल ने अपने काम में व्यस्त रहकर भूला दिया होगा अपने घर-बार को।

मन को हजार बार समझाने से भी उसे रोना आ जाता था और बड़ा ही असहाय महसूस कर रही थी वह। अपने छोटे से क्वार्टर में अकेली बैठकर बहुत देर तक रोती रहती थी चैती। गांव के जंगल, पहाड़, झरना, नाला रह-रहकर उसे याद आ जाते थे। पेट में बच्चा है, इसलिये आस-पडोस वाले सब्जी,खीर, पीठा दे जाते थे और एकाध घंटा उसे आश्वासन दे जाते थे कि चिंता मत करो, हम लोग हैं ना, जरुरत पड़ने से सिर्फ आवाज दे देना, हम लोग चले आयेंगे।” फिर कभी-कभी कहते थे कि गांव से किसी रिश्तेदार को बुला क्यों नहीं लेती?

गाँव का नाम सुनते ही चैती का मन बहुत उदास हो जाता था। गाँव में उसकी दादी, माँ-बाप, भाई-बहिन, फूफा-फूफी, चाचा-चाची, अड़ोस-पडोस सब कोई थे। मगर ईसावेला सतनामी के लिये तो केवल क्रिस्टोफर सतनामी ही है। जो अभी परदेश में है। भूल गया है उसको। इड़ीताल से नाराज हो गयी थी चैती।

भोपाल शहर बड़ा ही अपरिचित लग रहा था। वह शहर मानो जंगल से भी भयंकर हो। उसको सन्यासी पर बार-बार गुस्सा आ रहा था। उसको अकेले लड़ने के लिये छोडकर कैसे चला गया वह?

बंद कमरे में वह अपने आप से बात करते-करते छटपटा जाती थी। मिशन में उनकी जाति का कोई नहीं थी। सब कोई पढ़े-लिखे थे तथा उन लोगों के साथ उठने-बैठने में संकोच हो रहा था चैती को। चैती उन लोगों से मिल-जुल नहीं पाती थी। सन्यासी के जाने के बाद यह एक नई समस्या खडी हो गई थी। छुपकर गांव चले जाने का मन हो रहा था उसका। अपनी बेटी को फिर एक बार अपना नहीं लेंगे वे लोग? बेटी की यह हालत देखकर माँ-बाप का जीवन पसीज नहीं जायेगा? मगर वह हिम्मत नहीं जुटा पाती थी, भाईयों के बारे में सोचकर। शायद उसे मार-काट कर फेंक देंगे।

उस दिन मिशन के बगीचे में माली को देखकर चैती ने कहा था “काका, बड़ा ही डर लग रहा है। मन भारी भारी हो रहा है। मास्टर बाबू, ठीक है? क्यों कोई फोन नहीं आ रहा है, कुछ खबर भी नहीं है।”

यही बात तो उस दिन सिस्टर भी बोल रही थी। मैने उसको तुम्हारे बारे में बताया था। सिस्टर को भी कुछ पता नहीं है इस बारे में। मास्टर बाबू का फोन आजकल नहीं आ रहा है। आँफिस में सभी लोग यही बात कर रहे थे कि मास्टर बाबू की चिट्ठी क्यों नहीं आ रही है? उनको तो तीन महीने में वापस आ जाना था। तुम चिंता मत करो, वह शायद लौटने वाले होंगे, इसलिये शायद खत नहीं लिख रहे होंगे।”

जब वे दोनो बातचीत कर रहे थे तभी इग्नेस साहब बगीचे के अंतिम छोर पर स्थित ‘मदर मैरी’ के सामने कुछ प्रार्थना कर रहे थे। माली कह रहा था “अभी इग्नेस साहिब इसी रास्ते से होकर लौटेंगे, तब तुम अपने दुःख की बात उनके सामने रखना। उनको पूछना कि तुम्हारा पति, मिशन स्कूल का मास्टर, चार महीने पहले जापान देश को गया था, वापस क्यों नही लौटा? उसकी कोई खोज-खबर क्यों नहीं हुई?”

इगनेस साहब एक अच्छा आदमी है, मगर इमानुअल साहब के जैसा नहीं है। बगीचे में आकर कौनसे पेड़ को कैसे संभालना है, समझाते थे। कभी-कभी तो वह खुद भी बगीचे में काम करने लगते थे। इग्नेस साहिब मदर मैरी के सामने प्रार्थना करके लौट गये थे उसी रास्ते से। मगर चैती कुछ भी बोल नहीं पायी। माली ने कहा “बेटी, ऐसे तुम्हारे हतोत्साहित होने से कैसे चलेगा? मुझे ही कुछ करना पड़ेगा। देखता हूँ क्या कर पाता हूँ?”

कितनी ही बार चैती ने सिस्टर स्नेहलता से कहा था, “दीदी, मैरीना मैम साहब के साथ थोड़ी बात करवा देती।”

सिस्टर कहती थी “मेरे पास उनका नया फोन नंबर नहीं है। ऐसा सुनी हूँ कि वह अभी आस्ट्रेलिया में नहीं है।”

जैसे किसी चक्रव्यूह में फंस गयी हो चैती और निकलने के लिये उसमें से कोई रास्ता नहीं हो। अपनी तकदीर को कोसती थी वह।

मगर उसके भाग्य में क्या लिखा है, कौन जानता है? धीरे-धीरे सब कोई सन्यासी को भूल जायेंगे। उसके बाद? अभी मिशन अस्पताल जाने से डाक्टर व सिस्टर अच्छा बर्ताव नहीं करते हैं। कोई हँसकर भी नहीं पूछता है कि तुम्हारी तबीयत कैसी है? मास्टर बाबू कैसे हैं? मगर कुछ दिन पहले तो पूछते थे।

एक दिन वह माली के साथ मिशन अफिस में गयी थी, सन्यासी की खोज-खबर लेने के लिये। उल्टा आँफिस के लोग उससे पूछने लगे “तीन महीने के लिये सतनामी बाबू गये थे। क्यों नहीं लौटे अब तक? आपको कुछ बताये है क्या? उनका कुछ अता-पता है? कभी फोन आया था क्या? हमको बिना बताये, अपना ‘एक्सटेंशन’ करा लेने से समस्या खडी हो सकती है।” ऐसे कितने सारे आरोप सुनकर आयी थी वह।

माली ने उसका पक्ष लेते हुये कहा था “मास्टर बाबू को मिशन वालों ने बाहर भेजा है। उनके हित-अहित के बारे में सोचना तो मिशन का ही काम है। मास्टर बाबू को कुछ भी होने से मिशन का ही तो उत्तर दायित्व है।” पहले सभी लोग चुप हो गये माली की बात सुनकर। अंत में बड़े बाबू ने अपने चश्मा को नाक के उपर खिसका कर कहा “तुम चुप रहो, पुरंदर। तुझे क्या समस्या है? तुम अपना काम देखो। सभी बातों में अपना सिर खपाने के लिये कौन कह रहा है?”

माली बड़े बाबू की बात सुनकर चुप हो गया। बडे-बाबू कह रहे थे “मिशन ने उनको नहीं भेजा है। सिर्फ उनकी छुट्टी मंजूर की थी। मैरीना मेम साहब ने भेजा था उनको। जाओ, उनसे बात करो।”

रुंआसी हो गयी थी चैती। कहने लगी “मैरीना मैमसाहब से थोड़ी मेरी बात नहीं करवा देते?”

“उनका नंबर हमारे पास नहीं है। वह तो बेल्जियम में अपने भतीजे के साथ रहती है।”

चारों तरफ केवल अंधेरा ही अंधेरा दिखाई दे रहा था। उसे लग रहा था मानो वह अनाथ हो गयी हो।

दादाजी की बहुत याद आने लगी। दादाजी, आप अपनी पोती को भूल गये? क्यों मुझे इड़ीताल सिखाया था? जिसकी वजह से मेरा सन्यासी खो गया है।

“हे, कौन हो तुम मेरे पेट में? अगर तू पेट में नहीं रहता, तो मैं मरने के लिये गाँव चली जाती।”

माली को बहुत दया आ गयी। बोला

“चलो, मंत्री के पास जायेंगे और इस बारे में गुहार लगायेंगे।”

“किस मंत्री के पास?”

“तुम्हारा आदिवासी हरिजन मंत्री है न कोई, तुम्हारा बिरादरी वाला”

“मैं नहीं जाऊँगी। क्यों जाऊँगी? इसी मिशन में वह पढ़ा था। मिशन तो मानो उसका घर हो। यहीं पर उसने शादी भी की। अपने घर के बच्चे को कैसे भूल जाते है, ये लोग?”

अंत में एक दिन चैती इगनेस साहिब को मिलने गयी। पहले जैसा डर अब नहीं था, मन में। जिसका घर-परिवार बिखर गया हो, आखिरकार वह क्या करेगी?

“साहिब, मेरे पति को कितने समुंदर पार भेजे हो? वह अभी तक लौटकर नहीं आया। उसका कुछ भी अता-पता नहीं। मैं अब क्या करूँगी?”

पहले इगनेस साहब चुप हो गये, जैसे क्या जवाब देंगे? समझ नहीं पा रहे थे। बाद में बोले “हाँ, मेरे कान में यह बात पड़ी थी। हम उसकी छानबीन कर रहे हैं। जैसे ही कुछ खबर मिलेगी, बतादूँगा। बाकी प्रभु यीशु की मर्जी।”

“ऐसे मत कहिये, मेरा सन्यासी और क्या नहीं आयेगा?”

“नहीं, नहीं, ऐसी बात नहीं है। हम लोग कोशिश कर रहे हैं। शायद विसा में कुछ गड़बड़ी हुई होगी। तुम अभी जाओ, कुछ होने से आपको खबर करेंगे।”

“कहाँ चला गया, कहाँ गुम हो गया, मेरा सन्यासी?” बोलते-बोलते ही रो पड़ी थी चैती, “मेरा कोई नहीं है उसको छोडकर? मैं कहाँ जाऊँगी?”

“धीरज रखो, ऐसे करने से चलेगा क्या? वी डान्ट नो वेदर ही इज अलाइव आँर .... ” अंग्रेजी में बोलते-बोलते इगनेस साहब चुप हो गये। अच्छा हुआ हिन्दी में नहीं बोले थे, अगर बोलते तो चैती की क्या हालत होती?

यद्यपि अंग्रेजी उसको समझ में नहीं आती थी, परन्तु उसने अंदाज कर लिया था कि जो हो रहा है, वह अच्छा नहीं हो रहा है। उस दिन चैती बहुत बीमार हो गयी। शाम को प्रसव-पीड़ा शुरु हो गयी थी। शरीर के सब तार टूट से गये थे, जैसे कि शरीर के अंदर आंधी-तूफान चल रहा हो। पास-पडोस की सहायता से उसे मिशन अस्पताल में भर्ती कराया गया। अधमरी अवस्था में लेटे हुये वह सुन रही थी - बांसुरी के सुर। जैसे कि वह उदंती के उस पार भाग कर चले जाना चाहती हो। कोई बोला आपको बेटा हुआ है? उदंती में अभी पानी भर गया है। पत्थर भी नहीं दिख रहे थे। कूँदते-फाँदते उस पार जाने के लिये चाहते हुये भी वह और नहीं जा पायेगी। फिर भी बांसुरी के स्वर पत्थरों को चीरते हुये, नदी को पार करते हुये, सुनाई पड़ रहे थे। पानी कम होने से सन्यासी जरुर आयेगा।

प्रारंभ से ही पता नहीं क्यों मन कह रहा था कि आज का दिन ठीक से नहीं कटेगा। वास्तव में, सुबह-सुबह उसकी नींद टूट गयी, एक बिलाव के रोने की आवाज से। ऐसे लग रहा था जैसे कि एक नवजात शिशु रो रहा हो।

उस तरफ से झूमरी जोर से गाली दे रही थी, “हरामजादा, तुझे और कहीं जगह नहीं मिली, सवेरे-सवेरे मेरा कपाल फोड़ने के लिये यहाँ आकर म्याऊं-म्याऊं करने लगा?” कुछ समय तक छत के उपर म्याऊं-म्याऊं करने के बाद वह बिलाव चला गया। और परबा को नींद नहीं आई। लेकिन इतने अंधेरे में उठकर वह क्या करेगी? नींद नहीं आने से भी खटिया में इधर-उधर करवटें बदल रही थी। इसी समय, उनके दरवाजे पर किसी के खटखटाने की आवाज सुनाई दी।

इतना सवेरे-सवेरे कौन ग्राहक आ पहुंचा है? ये मतवाल और गंजेडी लोग सोने-बैठने भी नहीं देंगे? झूमरी गाली देते देते, कुछ देर बाद सोकर खर्राटा मारना शुरु कर दी। परबा को डर लग रहा था फिर भी उसने धीरे-धीरे दरवाजा खोल दिया।

“तू?” आश्चर्य चकित होकर पूछने लगी।

‘इतने अंधेरे में? क्या हो गया?”

“चल, अंदर चल।” बोलते-बोलते वह अंदर जाने के लिए रास्ता छोड़ दी थी, “क्या हो गया जो इतने अंधेरे में तू यहाँ आगयी? कोई कुछ बोल दिया क्या? मेरी बहिन!”

कुंद थर्रा रही थी। उसकी हृदय की धड़कने बढ़ गयी थी। वह हाँफने लगी थी। परबा घडे में से एक गिलास पानी लाकर पकड़ा दी थी, कुंद को।

“ले, पी, पहले पी ले।”

मना करते करते पूरे गिलास का पानी, सवेरे-सवेरे पी गयी थी कुंद। बस्ती के नीचे की तरफ से ऊपर की तरफ, कितना दूर था जो? इतने में ही पसीने से पूरी तरह तरबतर हो गयी थी।

परबा उसको पुचकार रही थी। पता नहीं, क्या ऐसी विपदा आ गयी उस पर? वह बिलाव भी तो सवेरे-सवेरे शिशु की भांति रो रहा था।

कुछ समय चुपचाप बैठने के बात कुंद बोली थी “दीदी, तुम्हारा भाई आया था मेरे पास। रात भर वह मेरी खोली में था। अभी-अभी चला गया। जैसे ही वह चला गया, मैं भागते हुये तुम्हारे पास आ गयी।”

अभी थर्राने की बारी जैसे परबा की थी। खूब जोर-जोर से कांपने लगा था उसका शरीर। “क्या बोल रही हो, कुंद तुम? सच बोल रही हो।”

“तुमको मैं झूठ बोलूंगी? क्या तुम मुझ पर विश्वास नहीं करती हो?”

“नहीं, नहीं, बहिन विश्वास क्यों नहीं करुंगी? मैं तो अपने कानों पर भी विश्वास नहीं कर पा रही हूँ। सच्ची में, मेरा भाई, मेरा वकील भाई, ना?”

“और कौन होगा? वकील ही तो था।”

“तुमने मेरे बारे में उसको कुछ बताया क्या?”

“नहीं, नहीं। आंख छूकर बोल रही हूँ मैने कुछ भी नहीं बताया। तुमने तो पहले से मना कर दिया था। फिर कैसे बताती?”

“फिर... किसलिये यहां आया था मेरा भाई? उसको खबर कैसी मिली? बिना शादी किये तुम उसके साथ सो भी गयी रात भर?”

कुंद घबरा गयी। इतने सारे प्रश्न एक साथ पूछ रही थी परबा, उसको। रात भर वे दोनों सोये नहीं थे। इस बात पर क्या परबा विश्वास करेगी? इधर-उधर की कितनी सारी बातों में ही बीत गयी थी पूरी रात। पठान लड़के के साथ परबा की भागने की कोशिश वाली बात भी हुयी थी। रोते बिलखते रात बिता दी थी दोनों ने। कोई क्यों विश्वास करेगा?

कुंद बोली थी “तू, दीदी, ऐसा क्यों बोल रही है? मैं तुम्हारे भाई के साथ क्या धंधा करुंगी?”

“धंधा नहीं, बहिन, तुम मेरी भाभी हो या नहीं, बताओ? हम लोगों की क्या शादी और क्या विदाई? हम तो हर रात एक नया पति बनाते हैं। हमारा क्या घर-संसार? तुम रह क्यों गयी? नहीं, भाग जाती मेरे भाई के साथ।”

“भाग गयी होती, लेकिन तुम्हारा भाई बोला कि कुछ दिन और रुक जा, इसके बाद मैं तुम्हें ले जाऊंगा। एक बडा काम बाकी है, उसको पहले खत्म कर लेने दो। उसके बाद मैं तुम्हें यहाँ से उठाकर ले जाऊँगा। तुम मेरे साथ-साथ रहकर बंदूक चलाना सीखोगी।”

“क्यों? तुमको लेकर क्या वह घर-संसार बसाना नहीं चाहता है?” तुम क्यों बंदूक उठाओगी? अंतरा सतनामी का नाम डुबायोगी क्या? तुम हमारी जाति-बिरादरी की हो या नहीं? तुम मेरे भाई के साथ घर करोगी। मेरे बाप, मेरी माँ को दो वक्त का खाना परोसोगी। सही में, आखिरी समय में दोनों को थोडा-बहुत सुख मिलना चाहिये।”

“मैं और कैसे गांव जाऊंगी? क्या कहूंगी सबको? कहाँ थी इतने दिन तक? तू ही बता, शरम से मैं मर नहीं जाऊंगी?”

“क्या और करेंगे, बहिन? तू बता तो, मेरा भाई कैसे तुम्हारा पता पा गया? किसने खबर दी उसको? जिसने भी खबर दी, उसको तो मेरे बारे में भी पता होगा?”

“कहाँ से खबर पाया? मुझे नहीं बताया। लेकिन इतना कहा था “मैं रामचन्द्र हूँ, तेरा यहाँ से उद्धार करुंगा। लेकिन छुपते-छुपाते हुये नहीं, रावण को मारने के बाद ही।”

परबा को डर लगने लगा था। उसके भाई को जिसने कुंद की खबर दी, उसने परबा के बारे में नहीं बताया होगा? यह बात अलग थी कि, परबा अपनी खोली में से बहुत ही कम बाहर निकलती थी। हफ्ता भर के लिए दाल-चावल खरीदकर अपने पास रख लेती थी। एक दिन का खाना दो दिन चलाती थी।

झूमरी का अलग चूल्हा होने के बाद से परबा का खाना-पीना, पकाने का और कोई झमेला नहीं रहता था। एक हरी मिर्च, एक छोटा-सा प्याज मिल जानेसे भात के साथ खा लेती थी। गांव में रहते समय, कहां कभी ठाट-बाट के साथ पेट भर खाना खाती थी, जो यहां खायेगी? लेकिन गांव में रहते समय आँखों में थे भरपूर सुनहरे सपने। यहाँ आकर उसको अपना जीवन बहुत ही लंबा लगता है, बहुत ही लंबा। शादी की बात तो वह पूरी तरह से भूल चुकी थी। केवल पेट के लिये जुगाड करना ही उसके लिये सब कुछ था। उसके लिये भी उसे हाथ पैर नहीं हिलाना पड़ता था। उम्र ढल जाने के बाद क्या होगा, पता नहीं? सोचने से अंधेरा ही अंधेरा दिखने लगता था।

कुंद को उसका भाई छुड़वाने आया था। सुनकर ईष्र्या के बदले बहुत ही खुश हुई थी परबा। जैसे भी हो, लड़की का जीवन सुधर जायेगा। आज नहीं तो कल, दोनों अपना घर-संसार बसायेंगे, खायेंगे, पीयेंगे, रहेंगे।

परबा बोली थी “कुंद, तुम मेरे भाई से शादी रचाओगी? जो भी कमाओगी, उसमें से कुछ मेरे माँ-बाप के लिये खर्च करोगी।”

“हाँ, दीदी, हाँ। तू क्या सोच रही है मैं उनको दुःखी करुँगी?”

“कुंद, सुन। तुम किसी को भी नहीं बताओगी कि मैं यहाँ रहती हूँ। मेरी तो किस्मत फूटी है। यहाँ से चले जाने से भी कौन मुझसे शादी करेगा? बेकार में माँ-बाप के गले में बंधी रहूँगी। तुम्हारे घर-संसार में व्यर्थ का बोझ क्यों बनूँगी? तू मेरी कसम खा, कि किसी को भी कुछ नहीं बताओगी।” परबा कुंद के हाथ को लेकर अपने सिर पर रख दी।

बोली “तू जा मेरी बहिन, तू ठीक से रह।”

परबा चुपचाप बैठी रही। कुंद के जाने के बाद, परबा का मन खिन्न हो गया था। पहले जैसा झूमरी के साथ मेलमिलाप नहीं हो पाता था। लगभग दो महीने हो गये थे एक दूसरे के साथ बात-चीत किये हुये। अपने-अपने ग्राहक, अपने-अपने सुख-दुख को अपने साथ लेकर अपनी-अपनी कमाई कर रहे थे। यहाँ तक कि, कोई किसी के चूल्हे में से थोड़ी सी आग भी नहीं माँगते थे।

झूमरी को बड़ा अहंकार था अपने रंग-रूप को लेकर। इस शहर में उसके दीवाने बहुत थे, फिर भी वह कभी परबा को घृणा की दृष्टि से नहीं देखती थी। परबा को याद आ गयी थी उस दिन की वह घटना। पता नहीं कहीं से झूमरी का एक ग्राहक आने वाला था। झूमरी बोली थी “परबा, तुम कुछ देर के लिये कुन्द के घर नहीं चली जाती।”

“क्या हो गया? मैं तो तुम्हारे धंधे में कोई बाधा नहीं पहुंचाती हूँ, बाहर बैठी रहती हूँ।”

“तुम बुरा मत मानना,परबा, तुमको घर के बाहर बैठे देख लेने से ग्राहक मेरी कीमत कम कर देते हैं।”

परबा के गाल पर जैसे कि किसी ने जोर से तमाचा मार दिया हो। इतने दिनों से झूमरी के मन में मेरे प्रति इतनी हीन भावना भरी हुई थी। छिः छिः। आज तक परबा उसको अपनी सगी दीदी मानती थी। इतने दिनों तक, इतना प्यार से फिर उसे अपने पास गोदी में बैठा कर क्यों रखी हुयी थी झूमरी? ओह, दया। दया से? अभी इसका धंधा ठीक-ठाक चलने लगा, तो दया शब्द जैसे गायब हो गया हो?

परबा ने रोते हुये कुंद के सामने ये सब बातें बताई। कुंद बोली “तुम बेकार में रो रही हो। तुम्हारा जब भी मन हो, यहाँ चले आना। देखना एक दिन झूमरी को उसका घमंड निगल जायेगा।”

उसी दिन से परबा और झूमरी के बीच बातों-बातों में अनबन होती रहती थी। परबा का खाना-पीना, परबा का दरी-बिछौना से लेकर उसका हँसना-रोना जैसे कि सब खराब, जान बुझकर ताना मारती थी झूमरी। आखिरी में एक दिन परदा हटाकर बीच में दीवार खींच ली दोनों ने। दीवार बनाने वाले मिस्त्री को झूमरी बोल रही थी- और कुछ दिन बाद वह यह घर छोड़ देगी। उस तरफ की नेपाली बस्ती में पक्का घर किराये पर ले लेगी।

उस बस्ती में तरह-तरह के घर हैं। नेपाली और बंगालियों के लिये अलग खोली। उनके शरीर के रंग साफ, भरे-भरे गाल। अच्छा-खासा दो पैसा कमा लेते हैं। उनके ग्राहक पचीस-पचास वाले नहीं। उनमें से कुछ तो गाड़ी में बैठकर साहिब लोगों के घर बुलाने पर जाते हैं। उनकी खोली में फ्रिज, टी.वी, स्टील की अलमारी आदि होते हैं। एक तरफ रहते थे कुछ हिंदी भाषी। वह लोग भी परबा जैसों से अच्छा रहते थे। यद्यपि नेपालियों की तरह, पहनने ओढ़ने के ताम-झाम वाले कपड़े उनके पास नहीं थे।

परबा जैसी लड़कियाँ दिन का चूल्हा जलाने के लिये धंधा करती थी, पचीस या पचास रुपये में। परबा की अवस्था तो बहुत ही खराब। जो भी आता है, कहता है “साली, ऐसे लाश की तरह क्यों पड़ी रहती है? साला , सब पैसा बेकार हो गया!”

कुंद तो भाई के साथ चली जायेगी, खूब अकेली हो जायेगी परबा। अपनी होकर, अपनी बिरादरी से कुंद ही तो थी एकमात्र जो भले-बुरे समय में काम आती थी और जिसे परबा अपनी कह सकती थी। लेकिन कुंद को चले जाना चाहिये। इस नरक में रहकर क्यों व्यर्थ में दुःख पायेगी?

कुंद के घर से आने के बाद, अपना काम निपटाकर एक कटोरी पखाल खाकर परबा निकल गयी थी बाजार की तरफ। न झूमरी, न कुंद, कोई नहीं था उसके साथ में। प्लास्टिक डिब्बों के अंदर खूब सुंदर दिख रहा था वह चांदी का फूल। इसको वह कुंद के लिये खरीदेगी, अपनी भाभी के लिये। शादी के समय बालों में सजायेगी इस फूल को।

बाजार से लौटकर, परबा सीधी कुंद के घर गयी थी। थोड़ा सा पखाल खाकर, कुंद उस समय लेटी हुई थी। परबा बोली “देखो, देखो, मैं तुम्हारे लिये एक चीज लायी हूँ। देखो तो कैसा लग रहा है? तुम्हारी शादी में तो मैं नहीं आ पाऊँगी। इसलिये अभी से दे रही हूँ।” कहते हुए प्लास्टिक डिब्बा को परबा ने कुंद को थमा दिया।

शरम के मारे कुंद का चेहरा लाल पड़ गया था। जैसे कि ससुराल से कोई आकर शादी की बात पक्की कर रहा हो। बोली “अभी रुको न, तुम्हारे भाई को तो पहले आने दो। तुम अभी से इसे क्यों दे रही हो?”

दोनों ने लाल चाय पी। सुख-दुख की बातें की, चार बजे तक। परबा बोली “मैं जा रही हूँ। हमारी तरफ पानी केवल दस मिनट के लिये ही आता है। जल्दी जाकर मुझे पानी भरना होगा।”

कुंद के घर से आकर परबा लाईन में लग गयी। खाना बनाने के लिये और पीने के लिये पानी लाकर घर में रखी। पानी रखने के बाद, बिछौना सजा दी थी। कंघी की, मुंह पर साबुन लगाकर रगड़-रगड़ कर साफ की। कपडे बदल कर ब्लाउज के साथ मिलती-जुलती एक अच्छी साड़ी पहन ली। चेहरे पर पाउडर,आंखों में काजल लगायी थी। एक सुन्दर सी बिन्दी लगा दी, अपने दोनों भौंवों के बीच में।

उसको लग रहा था, ये सब नहीं लगाने से शायद उसका चेहरा ज्यादा सुंदर दिखता। लेकिन ये सब तो लगाना ही होगा। अभी परबा बैठी रहेगी घर के बाहर। वह खुद एक बाजार है, इंतजार करेगी अपने ग्राहकों का।

दुर्भाग्य से उस दिन कोई नहीं आया, परबा के घर। परबा इधर-उधर ताकने लगी। गली के आखिरी छोर पर आकर खडी हो गयी। कोई कुली, मजदूर भी उसके भाग्य में नहीं था. सवेरे-सवेरे आज बिलाव रो रहा था, इसलिये शायद दिन ऐसे ही खाली-खाली कट जायेगा, सोचकर वापिस आ गयी थी परबा। इस बीच तीन-तीन ग्राहकों को निपटा चुकी थी झूमरी। अच्छा खासा पैसा कमा ली थी शायद, इसलिये अपना चूल्हा जलाकर मछली भून रही थी। भूनी हुई मछली की बास से परबा के पेट में सोयी हुई भूख जाग उठी थी।

उस समय नौ बज रहा होगा। ठंड का महीना था, इसलिये रातें लंबी लग रही थी। झूमरी शायद पखाल और भूनी हुई मछली खाकर सोने जा रही थी, इसलिये उसकी तरफ से कोई आवाज नहीं आ रही थी। परबा कपड़े बदल कर पखाल खाने जा रही थी, ठीक उसी समय काला होकर एक लंबा सा आदमी, उसके छोटे से दरवाजे से झाँक कर पूछने लगा “क्या तुम अकेली हो?”

“हाँ,” परबा का मन खुश हो गया था।

कुंद के लिये पूरे एक सौ दस रुपये का चांदी का फूल खरीदने के बाद, उसके पास कुछ भी पैसा बचा नहीं था। यह आदमी, जो भी चालीस-पचास रुपया देगा, उसमें उसका दो दिन का खर्च निकल जायेगा। परबा ने पखाल से भरी कटोरी को ढककर एक कोने में रख दिया।

बोली “रुक, एक अच्छी साड़ी पहन लेती हूँ।”

“तुम्हारी साड़ी किसको देखनी है? मैं तो इसको भी अभी खोल दूंगा।” अश्लील हँसी हंसते हुये उस आदमी ने कहा।

परबा के वजन से दो-ढाई गुणा ज्यादा वजन वाला वह आदमी, अपने भारी-भरकम शरीर को लेकर हँसते हुये आकर बैठ गया था खटिया के उपर।

खटिया में से केंच की एक आवाज निकली। खटिया टरटराने लगा था। उस आदमी की आँखे खून जैसी लाल, होठ के ऊपर छोटा सा सफेद-कुष्ठ जैसा दाग एवं नाक पकौडी की भाँति चौड़ी थी। परबा खुद इतनी सुंदर नहीं थी। परबा ग्राहकों के भेष की तरफ भी ध्यान नहीं देती थी। फिर भी पता नहीं क्यों, यह आदमी उसको अच्छा नही लग रहा था?

उस आदमी को इस बस्ती में पहली बार देखा था परबा ने। पता नहीं, इस शहर का है भी या नहीं। किसी की खोली में जाते हुये उसको परबा ने पहले कभी नहीं देखा था। उस आदमी ने पूछा “तुम्हारा नाम झूमरी?”

परबा तो पहले गूँगी-सी हो गयी। उसके बाद बोली “वह उस तरफ रहती है।”

“फिर तुम कौन हो?”

परबा ने कोई उतर नहीं दिया

“हां, हां। तुम झूमरी हो या मूतरी हो, मेरा उससे क्या लेना-देना?”

आ, आ, बोलकर परबा को खींच लिया था उस आदमी ने। अचानक बाज की तरह झपट कर परबा के उपर चढ़ गया। बीस रुपये का एक नोट हिलाते हुये बोला।

“ये तुम्हारे गाल के लिये हैं।” कहते-कहते झट से काट दिया, परबा के गाल को।

“ऊइई माँ” झनझनाकर परबा चिल्ला उठी।

“दर्द हुआ?” बड़े प्यार से उस आदमी ने पूछा।

बीस का नोट परबा के हाथ में ठुँसकर बोला “अब कान की बारी। अच्छा बता तो, तुम्हारे शरीर के सभी अंगों का नाम?”

परबा चुप थी।

“तुम्हारे सभी अंगों के लिये अलग-अलग पैसा दूँगा, समझी।”

उस आदमी ने फिर एक बीस का नोट निकाला।

“ले,ये तुम्हारे कान के लिये।” बोलते-बोलते कान की बाली को चबाकर पकड लिया था। ऐसा लग रहा था जैसे कि परबा की जान ही चली जायेगी। उस आदमी को धकेलकर वह भाग भी नहीं पा रही थी। दर्द से वह तड़प रही थी। यह आदमी है या कोई राक्षस? आदमी के वेश में कोई राक्षस नहीं आ गया तो। नहीं तो,आधी रात में क्यों आता?

“अभी नाक की बारी।”

“छोड़, मुझे जाने दे।”

“ऊहुँ, तुझको मेरा प्यार अच्छा नहीं लग रहा है?” फिर बीस का नोट निकाला उस आदमी ने।

जोर-जोर से रोने लगी परबा। उस तरफ से एक लाठी लेकर दौड़ी आयी थी झूमरी।

“कौन? कौन है ये हरामजादा! साला, आ जा, आज हो जाये एक-एक हाथ। देखते है या तो तू रहेगा, या फिर मैं। साला मतवाल, गंजेडी कहीं का, निकल भाग यहां से। क्या सोचकर रखा है रे? होटल में नहीं चला गया, एक प्लेट खसी मांस खाने के लिये। यहां क्यों आ मर रहा था? साले राक्षस, कच्चा मांस खाने आया था?”

हड़बड़ाकर, आधी नंगी अवस्था में वह आदमी उठ गया। झूमरी का रणचंडी रूप देखकर डर गया। कमीज को हाथ में लेकर बाहर जाते-जाते बोला

“ये साली कौन है, बे?”

“तेरी माँ” बोलकर झूमरी ने खूब जोर से लाठी मारी उसकी पीठ पर।

वह आदमी, एक आवारा कुत्ते की भाँति काँ-काँ कर अंधेरे में गायब हो गया।

परबा कृतज्ञता की दृष्टि से देखने लगी झूमरी को। लेकिन झूमरी लाठी फेंककर चली गई अपनी खोली के अंदर।

खटिया में सोकर काफी देर तक बक-बक करने लगी। छिः! छिः!, रुपया कमाने के लिये किसी को भी बुला लोगे? लगता है जरा भी बुद्धि भगवान ने नहीं दी।

झूमरी के जितनी गाली देने से भी परबा को कुछ खराब नहीं लग रहा था, वरन् उसको लग रहा था कि वह अभी भी अकेली नहीं है। कुंद चले जान से भी झूमरी तो है।

पूरा गाँव थम सा गया था। किसी के मुंह से कोई भी आवाज नहीं निकल रही थी। कोई भी घर से बाहर निकलकर नहीं बोल रहा है चलो, देख आते हैं। ऎसा लग रहा था कि किसी ‘कोकुआभय’का सन्नाटा सा छा गया हो पूरे गांव में।

उस समय तक गांव वाले पूरे साल भर का काम धन्धा खत्म कर चुके थे। सुनहरे धान के गुच्छों से कभी भरे रहने वाले आंगन आज खाली होकर सुनहरी धूप से भरे हुये थे।

अभी-अभी ही लौटी थी माँ लक्ष्मी, पूरे मार्गशीष महीने व्यस्त रहने के बाद। दिन सब छोटे और रात सब लंबी होती जा रही थी। शाम को जल्दी-जल्दी खाना खाकर, लोग रजाई गुदडी ओढ़कर सो जा रहे थे। खेतिहर किसान खुश थे कि अगले साल के लिये फसल इकट्ठी हो गयी। भूमिहीन किसान भी खुश थे कि इधर-उधर से, अगले एक महीने के लिये उनका भी जुगाड हो गया था।

अब हाथों में किसी भी प्रकार का और काम नहीं था। खेतों में भी कोई काम नहीं था, सारे खेत किसी बूढ़े की दाढ़ी की भाँति राख के रंग जैसे मलिन दीख रहे थे। काम नहीं होने से लोग ताश खेल कर समय बिता रहे थे। देखते-देखते सुबह, देखते-देखते सांझ बीतते जाते थे। गांव के मार्ग में जगह-जगह आग जलाकर लोग, बैठे बैठे इधर-उधर की बातें, हँसी-मजाक कर रहे थे।


प्रधान के आंगन से गुड़ बनाने की खुशबु आ रही थी। राह जाते हर राहगीर को प्रधान बूढ़ा बुलाकर हाथ में गुड़ का एक ढ़ेला दे देता था। केंवट बस्ती में गुडवाली लपसी बनायी जा रही थी। इधर बसंत ऋतु आने का रास्ता ढूंढ रही थी।

सवेरे-सवेरे कोहरा अपनी सफेद चादर से ढ़क देता था। पता नहीं चलता था कि पहाड़ है या जंगल। पास में से गुजरता हुआ आदमी ऐसे लग रहा था जैसे कि स्वर्ग से उतर कर आ रहा हो। धूप तो ऐसे लग रही थी जैसे किसी ने पीले रंग के पानी का छिड़काव कर दिया हो। पेड़, पौधें, पहाड़, पर्वत अपनी-अपनी चद्दर फेंककर मुंह दिखाने लगे थे। किसी ने नूरी शा के दुकान की दीवार पर, क्लब के खंभे पर, सरपंच के ट्रेक्टर पर पोस्टर चिपका दिये थे। डर-सा लग रहा था, जैसे कि ‘कल्कि’ अवतार दौडा आ रहा हो। इतनी लम्बी तलवार, अपना घोड़ा भगाते हुये, साथ में आँधी-तूफान, चक्रवात सब लेकर। ‘मलिका’ में लिखा गया है ऐसे दुर्दिन, बुरे दिनों की बातें। नक्सल, नक्सल। घेर लेंगे चारों तरफ से। पीछे-पीछे आयेगी पुलिस की फौज। उदंती नदी के किनारे में इस छोटे अगम्य गांव के पास के जंगल में से यह क्या सुनाई पड़ रहा है? बंदूको की गोलियों की आवाज। ध्यान से सुनने से सुनाई देती है जंगल की नीरव आवाज। उस नीरवता में छुपा हुआ था एक आतंक। सब आकाश की तरफ देख रहे थे। कहीं कोई लाल सा एक बादल तो नहीं छाने लगा था?

ऐसा ही कुछ लिखा हुआ था नूरी शा के दुकान में चिपकाये हुये पोस्टर पर। गाँव का चौकीदार भागा-भागा गया था थाने में। पुलिस बाबू की एक मोटर-साईकिल तत्काल दिखायी पड़ी थी गांव में। खिड़की-दरवाजा बंद करके आधे लोग, सांझ ढ़लने से पहले ही घरों में छुप जाते थे। फिर भी रात होती थी और दिन आता था। खेतों में कुछ भी काम नहीं था। आंखों से नींद उडी जा रही थी। पहले जैसे ताश के पत्ते नहीं जमते थे। सट्टे का खेल भी नहीं होता था।

गाँव की लड़कियों के कंठ से गीत नहीं निकलते थे। दोपहर के बाद रात। रात के बाद सुबह। इसके बाद दिन। इसके बाद अगला दिन। कल्कि का अवतार तो हुआ नहीं। पुलिस बाबू का भी और दर्शन नहीं हुआ।

धूल-धूसरित होकर बच्चे भी भागे-भागे फिर रहे थे। ‘नक्सल’ ‘नक्सल’ पता नहीं था, वह हाथी है या घोड़ा? नया-आविर्भाव, नया-खेल। लेकिन, बूढ़े-बुजुर्ग समझ पा रहे थे। वे लोग कुछ अंदाज भी कर ले रहे थे। नक्सल उनके लिये नया नाम नहीं था। लेकिन उनके गांव में नक्सल का यह पहला आक्रमण था।

कलंदर किसान की दारु की दुकान में गांव के लोग पांव रखना भी भूल गये थे। सामने थी ‘पुषपुनी’ त्यौहार। इसलिये, दो जरीकेन में दारु भरकर ले आया था कलंदर। लेकिन, यह क्या? आधी रात को कोई आकर ऐसा कागज चिपका कर चला गया, कि सब लोग डर के मारे अपने-अपने घर के अंदर दुबक कर बैठे रह गये।

किसका विश्वास करेगा और किसका नहीं करेगा, कलंदर? कोई कह रहा था नक्सल गरीबों का पक्ष लेते हैं। भात खाने को देते हैं, सुख देते हैं, जमीन देते हैं, जंगल देते हैं। तो फिर यह फोरेस्ट-गार्ड अपनी लाल-लाल सुर्ख आँखों से ‘नक्सल-पुराण’ सुनाकर क्यों चला गया?

“पूछो, साले, इन नक्सलियों को, उनका मालिक कौन है? धनी महाजन से लूटा हुआ माल कहाँ जाता है? अगर वे लोग भगवान है तो तुम लोग भूख से क्यों तड़प रहे हो? पूछो, तो, पूछो, उन लड़कियों को, नक्सल में शामिल होकर कितनी सती बची हुयी हैं? क्या जंगल के अंदर उनको चूस-चूसकर नहीं खा रहे है सारे मर्द?”

कलंदर जैसे कि भंवरधारा में घूमता ही जा रहा था। ये दुनिया ऐसी ही है। जितने दिन तक पेट, मुंह, और शरीर रहेगा, पाप भी रहेगा।

पुषपुनी का त्यौहार नजदीक था। कलंदर ने खुली रखी थी अपनी दारु की दुकान। बिना दारु के पुषपुनी, त्यौहार जैसा लगता भी कैसे? वह इसी इंतजार में था। सर्दी कम होती जा रही थी। पैसे वालों ने पुषपुनी के लिये तरह-तरह के स्वादिष्ट व्यंजन बना लिये थे। बच्चें गुलाबी धूप में झूनझूना बांधकर ‘छेर-छेरा’ माँगने निकल पडे थे।

सारे भूखे पेट, भूख भूल गये थे। किसिंडा में चल रहा था ओपेरा। रातभर ओपेरा देखकर लौटने वाले लोग, अपनी स्वप्निल आँखों से फिल्मी धुन पर नाचने वाली, युवती के बारे में सोच रहे थे। ठीक, इसी समय में कोई खबर लेकर आया था। चौकीदार अस्त-व्यस्त होकर दौड़ा चला था किसिंडा। छेर-छेरा मांगने वाले बच्चें गाना भूल गये थे। स्वादिष्ट व्यंजन और मिठाईयों की खुशबू उड़ गयी थी गांव के रास्तो में। नाचने वाली युवतियां भी हट गयी थी स्वप्निल आँखों से। मतलब साफ था कि नक्सल गाँव में घुस आए हैं?

उसी समय किसी ने भाग-भागकर हाँफते-हाँफते खबर दी कि जंगल में एक लाश पड़ी है। हाँफते-हाँफते उसके मुंह से कोई आवाज नहीं निकल पा रही थी। जैसे कि वह अभी-अभी कल्कि अवतार को देख कर आ रहा हो। पुलिस की जीप जंगल की तरफ धूल उडाते हुये जा रही थी। पुलिस की गाडी देखकर, गांव के लोग फटाफट घर के अंदर घुस कर दरवाजा बंद कर दिये थे।

सरसी का मन, पता नहीं क्यों, बड़ा बैचेन हो रहा था। उसका बेटा सन्यासी तो जंगल में घूमता रहता है। वहां बांसुरी बजाता रहता है। पत्थरों पर चित्र बनाता रहता है। अंतरा बोल रहा था कल्कि को आने दो। जितने पापी, अन्यायी है, वे सब मरेंगे। और बचे रहेंगे केवल गिने-चुने अच्छे लोग। सतयुग आयेगा।

दो घंटे के बाद, जंगल से जीप लौटी। दो घंटे तक बंदूक धारी पुलिस जंगल का छप्पा-छप्पा छानकर खोजबीन कर रही थी। अंत में जीप लौट आयी थी गांव को। गांव के चौपाल में धूल उड़ाते हुये, ब्रेक लगाकर रोक दी जीप को। तुरंत कई पुलिस वाले जीप से नीचे उतरे। दो सिपाहीयों ने जीप में लदी हुई लाश को निकालकर ऐसे फेंका, जैसे शिकार कर लाये हुये किसी एक जंगली सुअर को या साँभर हिरण को। ड्राइवर हाँर्न पर हाँर्न बजा रहा था। धीरे-धीरे गाँव वालों ने एक-एक करके अपने बंद दरवाजे खोलना शुरु किये। डर-डरकर धीरे-धीरे कदम बढाते हुये अपने-अपने बरामदे से नीचे उतर कर आये थे वे लोग। वे पुलिस वालों से दूर-दूर रह रहे थे, उन्होने देखा कि एक लाश औंधे मुंह पडी हुयी थी। लाश का मुँह खुला था। शरीर धूल से भरा हुआ था। लाल बनियान, खून के धब्बों से सन गया था।

पुलिस वाला चिल्ला चिल्लाकर, कह रहा था “इसको पहचानो। ये तुम्हारे गांव का लडका है या नहीं? किसका बेटा है?”

देखने वालों का शरीर काँप रहा था। मगर कोई सामने आकर उत्तर नहीं दे पा रहा था। किसी ने भागकर अंतरा को इस बात की खबर दी।

“जल्दी जल्दी चलो अंतरा, अपने बेटे को देखने के लिये।”

“कौन? मेरा बेटा डाँक्टर लौटकर आ गया क्या? कहाँ है वह?”

“तुम पहले चलो तो, जंगल से लाये है तुम्हारे बेटे को।”


आंगन में बरतन साफ कर रही थी सरसी। “क्या बोल रहा है?” कहकर बाहर की तरफ चली आयी। “जंगल से मेरे बेटे को लाये है क्या? कहाँ है मेरा सन्यासी?” कहकर सरसी उस आदमी के पीछे-पीछे भाग रही थी। अंतरा उनसे काफी पीछे था। लाठी पकड़कर धीरे-धीरे चल रहा था। और सरसी पागल की तरह दौड़े जा रही थी आगे-आगे।

“मेरा सन्यासी, मेरा सन्यासी ” पुकारे जा रही थी सरसी। “इतने दिनों तक तुम जंगल में छुप कर बैठे थे मेरे बेटे।”

गाँव की चौपाल में एक पुलिस गाडी खडी थी- सरसी ने देखा। लोगों ने गाड़ी को घेर रखा था। सरसी को देखते ही भीड़ ने दो भाग होकर रास्ता दे दिया। उसने देखा धूल से सनी हुई एक लाश को। देखते ही वह जड़वत हो गयी।

मां की ओर नहीं बल्कि देख रहा था आकाश की ओर। खुला हुआ मुंह और फटी फटी सी आँखे लेकर सरसी का वकील। सीने में जमे हुये खून के धब्बे काले पड़ गये थे। उसका बेटे का पूरा शरीर धूल से सना था। बड़ा ही जिद्दी और उद्दंड स्वभाव का था उसका वकील। किसने इसकी नृशंस हत्या की? उसके पास ऐसा क्या था? जो उसको मार दिया।


उसके शरीर की धूल झाडते-झाड़ते सरसी फफक-फफक कर रो पडी थी “मेरे वकील, मेरे वकील, रे! ” इतने दिनों के बाद सरसी ने अपने चार बच्चों में से एक का मुंह देखा। हल्की-हल्की मूँछे व दाढ़ी निकल आयी थी। कितना बड़ा हो गया था उसका बेटा। “मेरा वकील, मेरा वकील” कहकर उसने उसे अपनी छाती से चिपका लिया। अंतरा तो मानों पत्थर बन गया हो। जैसे कि वकील कह रहा हो, “तुमने तो मुझे कभी प्यार नहीं किया मेरे बाप, मेरे लिये और कभी दुख मत करना।” बुदबुदाते हुये अंतरा कहने लगा “कैसे दुख नहीं होगा, मेरे बेटे!” वास्तव में हमेशा-हमेशा के लिये उसका बेटा उसे छोडकर चला गया उससे रुठकर बहुत दूर।

पुलिस अंतरा से पूछने लगा

“ये तुम्हारा लड़का है?”

“जी।”

“तुम्हारा बेटा नक्सल में शामिल हुआ था?”

अंतरा चुप रहा।

पुलिस धमकी भरे स्वर में कहने लगी “साला, फोरेस्ट गार्ड को मारने के लिये आया था तेरा बेटा। चलो, तुम गाड़ी में बैठो।”

धूल उड़ाते चली गयी पुलिस की गाड़ी, वकील की लाश को साथ लेते हुये। अंतरा को भी साथ ले गई। गांव की चौपाल में बैठी थी सरसी। एक दम गुमसुम। आँखों में आँसू नहीं। गाँव की चौपाल में सन्नाटा छा गया था। लोग अपने-अपने घर चले गये थे। अंदर से सभी ने दरवाजे बंद कर दिये थे। ड़र का माहौल छा गया था गाँव में। थम सा गया था गाँव।

(अनुवादक : दिनेश कुमार माली)

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