पाकिस्तान में इकबाल की फजीहत (व्यंग्य) : हरिशंकर परसाई
Pakistan Mein Iqbal Ki Fajihat (Hindi Satire) : Harishankar Parsai
दिल्ली में एवाने ग़ालिब में मशहूर शायर डॉ. मोहम्मद इकबाल की वर्षगाँठ मनाई गई। इसमें पाकिस्तान से भी एक प्रतिनिधि शरीक हुए। मैंने इस समारोह का विवरण अखबारों में पढ़ा। मैं पाकिस्तान के दिल्ली स्थित राजदूत, जो संयोग से खुद भी फजल इकबाल नाम रखते हैं, के भाषण को पढ़कर मुग्ध हो गया। उन्होंने कहा - इकबाल की नज्म 'सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा' से यह नहीं समझना चाहिए कि उन्होंने हिंदोस्तान की शान में यह लिखा । नहीं, उन्होंने यह समूचे विश्व के लिए लिखा है । वे विश्व-नागरिक थे।
मैं मानता हूँ, कवि विश्वकवि ही होता है। रवींद्रनाथ भी विश्वकवि थे । कवि की संवेदना सारी मनुष्य जाति के लिए है। मगर इकबाल ने इस नज्म में आगे लिखा है-
पर्वत वो सबसे ऊँचा
हमसाया आसमाँ का वो संतरी हमारा
वो पासवाँ हमारा
मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर करना
हिंदी हैं, हम वतन है
हिंदोस्ताँ हमारा
मैं फजल इकबाल साहब से जानना चाहूँगा कि यह सबसे ऊँचा पर्वत क्या एंडीज है या हिमालय ? और गंगा क्या अमेरिका में है और यमुना सऊदी अरब में? और 'हिंदोस्ताँ हमारा' क्या यूरोप है ? फजल इकबाल नहीं समझते हों यह बात नहीं है । वे अच्छी तरह समझते हैं कि इकबाल ने यह नज्म हिंदोस्तान के लिए लिखी थी। इस उपमहाद्वीप के पहले दो हिस्से हुए भारत और पाकिस्तान। फिर पाकिस्तान का पूर्वी हिस्सा टूटकर बांग्लादेश हो गया। फजल इकबाल की चिंता यह है कि कहीं भारतवासी यह न समझ लें कि इकबाल ने हमारे देश को सारे जहाँ से अच्छा कहा था। इकबाल की मृत्यु 1938 में हुई। यानी इस नज्म में भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश तीनों को सारे जहाँ से अच्छा कहा है ! मगर फजल इकबाल चाहते हैं 'सारे जहाँ से अच्छा पाकिस्तान हमारा' कहा होता। पर तब पाकिस्तान था ही नहीं ।
पाकिस्तान में हीनता की भावना शुरू से है। इसे वह शुरू से उच्चता की भावना में बदलना चाहता है । 'इनफीरियारिटी कॉम्प्लेक्स' और 'सुपीरियारिटी कॉम्प्लेक्स' एक ही सिक्के के दो पहलू कहे जाते हैं । मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जब हीनता की भावना को जबर्दस्ती उच्चतर की भावना में बदला जाता है तब वह भयानक, आक्रामक, तर्कहीन, विचारहीन होती है। यह परिणाम में मनुष्य को और कमजोर, असहनशील, चिड़चिड़ा और अविश्वासी बनाती है। जो व्यक्ति के बारे में सही है, वह देश के बारे में भी सही है । पाकिस्तान एक महादेश से अलग हुआ हिस्सा है। यह महादेश हिंदुस्तान एक राष्ट्र रहा है। पाकिस्तान को शुरू से एक स्वतंत्र और प्राचीन राष्ट्र सिद्ध करने की चिंता रही है । राष्ट्र के तत्त्व हैं - इतिहास, संस्कृति, भूमि, आबादी, प्रभुसत्ता । धर्म राष्ट्र का तत्त्व नहीं है । पर धर्म- राष्ट्र के रूप में ही पाकिस्तान ने अपने को बनाया और भारत से श्रेष्ठ होने में लगा रहा। यह कुंठा कि हम एक देश के टुकड़े हैं, राष्ट्र नहीं, पाकिस्तान की आक्रामकता, संकीर्णता, अलगाव का कारण है । बचकानी बातें इतिहासकार करते हैं, जैसे- पाकिस्तान मोहनजोदड़ो, हड़प्पा की सभ्यता की परंपरा में है। हमारी जड़ें इतनी पुरानी हैं। भारत के आर्यों की तो भारत में जड़ें ही नहीं हैं । और मोहनजोदड़ो, हड़प्पा की इस्लामी सभ्यता थी । दिलचस्प नासमझी यह कि इस्लाम का जन्म ही सातवीं सदी में हुआ। दुनिया के दूसरे लोग भी इतिहास जानते, लिखते, पढ़ते हैं, यह पाकिस्तानी नहीं मानते। रूस में निकिता ख्रुश्चेव ने जब स्तालिन की छवि को ध्वस्त किया तो उसके बाद पुस्तकों में, इतिहास में, लेखों में स्तालिन का नाम नहीं आता था, जैसे रूस में जोजेफ स्तालिन नाम का कोई राजनेता हुआ ही नहीं । रूसी इतिहासकार भूल गए कि इतिहास सिर्फ हम ही नहीं लिख रहे हैं, दुनिया के दूसरे इतिहासकार भी लिख रहे हैं। पंथवादी जुनून यह भी है ।
हिंदुस्तान का इतिहास और संस्कृति एक रहे हैं। एक समन्वित संस्कृति इस महादेश की विशेषता है। रवींद्रनाथ, अरविंद, महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आजाद आदि का यही मत है । अनेक जातियाँ इस महादेश में बाहर से आईं। मूल जातियों से तथा आपस में सबके समन्वय से यहाँ की संस्कृति बनी। जहाँ तक राष्ट्रवाद का सवाल है, व्यवहार, उपयोगिता और भावना इसमें निहित है। पर जब भावना को उन्माद के स्तर तक उठाकर कण-कण पवित्र मान लिया जाता है, तब राष्ट्रों में भूमि को लेकर समझौते नहीं होते । तनाव रहता है, और युद्ध भी हो जाता है। संकीर्ण और उन्मादी राष्ट्रवाद घातक होता है। यह हमारे देश में भी किन्हीं लोगों में है। पर पाकिस्तान में स्वतंत्र और विशिष्ट राष्ट्र की पहचान बनाने की बहुत चिंता है।
मलयाली लेखक तकषि शिवशंकर पिल्लै ने एक घटना लिखी है। ताशकंद में अफ्रोएशियाई लेखक सम्मेलन में भाग लेने भारतीय लेखकों का मंडल गया था, जिसके नेता शिवशंकर पिल्लै थे । उन्होंने जो लिखा है उसका सार यह है - मैंने पाकिस्तान और बांग्लादेश के प्रतिनिधि मंडलों के नेताओं के साथ बैठकर यह प्रस्तावित किया कि हम तीनों एक संयुक्त वक्तव्य जारी करें जिसमें बताएँ कि हम तीनों देशों की एक ही संस्कृति है । तीनों की साहित्य-परंपरा भी एक है। तीनों का एक ही इतिहास है। यह सुनकर पाकिस्तानी नेता ने कहा- यह हरगिज नहीं होगा। पाकिस्तान की संस्कृति, साहित्य-परंपरा और इतिहास अलग है। मैंने कहा- यह आप क्या कहते हैं? हमारे एक ही महादेश से अलग होकर 1947 में पाकिस्तान बना। हदें बन गई हैं, पर संस्कृति हमारी वही है जो 1947 तक थी। इस पर पाकिस्तानी लेखक बोले- 1947 नहीं, पाकिस्तान का इतिहास हजारों साल पुराना है। हमारी हजारों साल पुरानी संस्कृति है । भारत की संस्कृति से उसका कोई संबंध या समानता नहीं है। मेरी उनसे बहस चली। बांग्लादेश का लेखक मुस्कराता हुआ हमारी बहस का मजा ले रहा था। आखिर वे राजी नहीं हुए। मैं उन्हें नहीं जानता था। मैंने उत्तर भारत के लेखक मित्रों से पूछा तो उन्होंने बताया- ये फैज अहमद फैज हैं।
बहुत लोग यह पढ़कर चकित होंगे, अविश्वास भी कर सकते हैं कि महान् शायर फैज के ये विचार होंगे! फैज जीवन-भर पाकिस्तान के हुक्मरानों और मुल्ला-मौलवियों से लड़ते रहे। वे सन् 50 के लगभग राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किए गए थे। मुकदमा चला और उन्हें फाँसी भी हो सकती थी। पर काफी समय जेल में रहकर वे इस आरोप से बरी हो गए। फैज कहते थे कि दिन-भर तो अदालत में अफसर और सरकारी वकील मुझे सजा दिलाने की कोशिश करते थे, और शाम को घर में मेरी कविताएँ पढ़ते थे। उसके बाद संघर्ष का सिलसिला चला। वे सताए गए। फिर वे पाकिस्तान में पर्यटक की हैसियत से ही जाते थे। ज्यादा लेबनान में रहते, कभी भारत में, अधिक रूस में। वे कई देशों में रहे। उनकी अंगरेज पत्नी एलिस और बच्चे पाकिस्तान में रहते थे। जीवन के अंतिम वर्षों में उन्हें परिवार के साथ रहने के लिए समझौता करना पड़ा। उन्होंने पाकिस्तान की नीतियाँ मान लीं। इमामों ने पूछा- खुदा में यकीन करते हो? फैज नास्तिक थे पर उन्होंने कहा- हाँ, उस खुदा में यकीन करता हूँ, जिसमें सभी यकीन करते थे। सभी क्या विश्वास करते थे ? ‘अनलहक' अर्थात् 'अहं ब्रह्मास्मि' । अनलहक मानने वाले मंसूर को सूली पर चढ़ा दिया गया था-
किया दावा अनलहक का, हुआ सरदार आलम का,
अगर चढ़ता न सूली पर, तो वह मंसूर क्यों होता ।
जिंदगी-भर के संघर्ष, परिवार - विछोह, देश-निकाला, जैसा भोगते हुए फैज सत्तर से ऊपर उम्र में टूट गए थे। एक हद भी तो होती है। पर फैज़ शायर की महानता इससे कम नहीं होती ।
धर्माधारित संकीर्ण राष्ट्रवाद और अधिक संकीर्ण और कट्टर होता जाता है। राजसत्ता और पुरोहित वर्ग मिलकर उन्मादी व्यवहार करते हैं। अपने ही लोगों को अलग करते हैं। उदारता का स्वर बरदाश्त नहीं करते। इन दिनों पाकिस्तान में इकबाल के खिलाफ अभियान चलाया जा रहा है। इकबाल के पत्रों का संग्रह छपा है, पर उस पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। कारण यह बताया गया है कि इकबाल कादियानी या अहमदिया पंथ के थे और यह पंथ गैर इस्लामी करार दे दिया गया है। पाकिस्तान के पहले विदेशमंत्री मोहम्मद जफसल्लाह खाँ थे । उन्हें भी कादियानी होने के कारण राजनैतिक क्षेत्र से निकाल दिया था। उन्होंने पाकिस्तान छोड़ दिया था। इक़बाल सरीखा सच्चा मुसलमान पाकिस्तान में शायद ही कोई हो। अंतिम सालों में तो वे इस्लाम के भजन लिखने लगे थे। इतने बड़े कवि को इस बना पर खारिज किया जा रहा है कि वे तथाकथित कादियानी थे - यानी काव्य, प्रतिभा, धर्म, जाति और पंथ के हिसाब से खुदा इनायत करता है। और खुदा के सलाहकार पाकिस्तान के शासक तथा मौलवी हैं।
आम विश्वास है कि 'पाकिस्तान' का विचार इकबाल ने दिया था। यह गलत है। यह कई दस्तावेजों से सिद्ध होता है । खानवलखाँ ने अपनी पुस्तक 'फैक्ट्स आर फैक्ट्स' में लिखा है कि पाकिस्तान का विचार इकबाल का नहीं था। इसके दस-बारह साल पहले मैंने एक लेख पढ़ा था, जिसमें बंबई की प्रतिष्ठित महिला बेगम अतैया को इकबाल द्वारा लिखे पत्र का हवाला दिया था। बेगम अतैया की मित्रता रवींद्रनाथ ठाकुर से भी थी और मोहम्मद इकबाल से भी । इकबाल ने उन्हें लिखा था कि यह गलत प्रचार किया जा रहा है कि मैंने पाकिस्तान की योजना दी। फिर पाकिस्तान का विचार किसका था। लंदन के 'रिज' होटल में मुस्लिम नेताओं की एक बैठक हुई थी। इसमें रहमत अली चौधरी ने पाकिस्तान का विचार दिया जो सबने स्वीकार किया ।
फिर इकबाल के विचार क्या थे? इकबाल विचारों से लोकतंत्रवादी थे, समाजवादी थे। उनकी एक कविता कार्ल मार्क्स पर भी है। असल में इकबाल एक आदर्श व्यवस्था की खोज में थे। यह व्यवस्था उनके विचार से इस्लाम में है। उनका दावा था कि इस्लाम में बराबरी लोकतंत्र है। न्यायपूर्ण व्यवस्था है। इकबाल के दिमाग में वह व्यवस्था थी, जो अरब में पैगम्बर के बाद चार खलीफाओं के जमाने में कुल साठ साल चली। इसके बाद सामंतवाद आ गया। सामंतवाद यजीद नहीं, यजीद का बाप लाया था। हजरत हुसैन उस व्यवस्था के लिए संघर्ष करने आए थे यजीद के जमाने में। वे करबला में शहीद हुए। यह बहुत करुण कथा है। शायद अनीस का इस पर मरसिया पढ़ते वक्त रोने लगते हैं ।
इस्लाम के आरंभ की यह व्यवस्था कैसी थी ? सातवीं सदी के अरब में कबीले थे और छोटे-छोटे समुदाय बसे हुए थे। खलीफा को भी वही मिलता था, जो साधारण आदमी को। लोग खलीफा से सवाल कर सकते थे, कैफियत तलब कर सकते थे। समुदाय में प्रधान 'दाई' होता था। वह सबको बराबर वितरण करता था। बराबर वसूली भी करता था। तब वास्तव में बराबरी थी, समाजवाद भी था। पर यह सातवीं सदी की व्यवस्था है। तब अरब में समाज कैसा था? उत्पादन के साधन क्या थे? उत्पादन क्या होता था? अब आधुनिक युग की जटिल सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था में वही पद्धति लागू नहीं हो सकती ।
जवाहरलाल नेहरू और मोहम्मद इकबाल में इन मान्यताओं को लेकर पत्र-व्यवहार हुआ था। दोनों की तीन-तीन चिट्ठियाँ हैं। ये छहों तो मैंने पढ़ी हैं। इकबाल ने इस्लाम की उसी व्यवस्था की वकालत की है और नेहरू ने यही कहा है हमारे उद्योग तकनीक के जमाने में, विश्व अर्थव्यवस्था के जमाने में वह पद्धति लागू नहीं हो सकती। इकबाल ने दावा किया है कि इस्लाम में सब मनुष्यों में बराबरी है। उनकी अपनी एक कविता का हवाला दिया है कि मस्जिद में नमाज के लिए छोटे-बड़े एक कतार में खड़े हो गए - न कोई बंदा रहा न बंदानवाज़ | जवाहरलाल ने लिखा है- यह तो मस्जिद में आधा-आधा घंटे की बराबरी है। मस्जिद के बाहर क्या हाल है? क्या बाहर भी सब मुसलमान बराबर हैं? क्या रिक्शा चलानेवाला मुसलमान और सर आगाखाँ बराबर हैं?
इन दिनों मोहम्मद इकबाल के खिलाफ पाकिस्तान में अभियान चल रहा है। पर भारत में इकबाल का अध्ययन होता है, इकबाल 'एकेडेमी' और इकबाल 'मरकज' चल रहे हैं। यह संस्कृति का लक्षण है । कवि किसी धर्म या जाति या देश का नहीं होता । वह संपूर्ण मनुष्य जाति का कवि होता है। रवींद्रनाथ को बंगालियों का ही कवि माननेवालों से पशु अच्छे । मौलाना आजाद ने खीझकर कहा- जी हाँ, वह पाक हैं जहाँ आप हैं। बाकी सारी दुनिया नापाक है।
पाकिस्तान नहीं माने इकबाल को क्योंकि वे कादयानी थे। प्रचार है कि इकबाल ने हज नहीं किया। वे साल में सिर्फ दो बार नमाज पढ़ते थे। कौन कहता है कि इकबाल को आप पढ़ें। वह जैसा भी हो । गालिब ने चुनौती से कहा है-
हाँ वो नहीं खुदा परस्त
माना वो बेवफा सही
जिस फ़ोटो से दीन-ओ-दिल अज़ीज़
उसकी गली में जाए क्यों
कभी ऐ हक़ीक़ते मुंतज़िर तू नजर आ
लियासे मज़ाज में
हज़ारों सजदे उठ रहे हैं, मेरे जबीने
नियाज़ में ।