पैरों के निशान : सिक्किम की लोक-कथा
Pairon Ke Nishan : Lok-Katha (Sikkim)
हमेशा की तरह आज भी तेनजिंग दोरजी नोर्गे, सुखबीर और कान्छा अपने सारे दोस्तों के साथ भेड़बकरियों को चराने के लिए जंगल की ओर निकले। धनमाया और उसकी सहेलियाँ अपनी-अपनी भेड़बकरियों के साथ निकल चुकी थीं। जब सारे दोस्त एक जगह जमा हो गए तो उन्होंने सोचा, 'क्यों न कोई खेल खेला जाए!' कोई कंचे का खेल खेलना चाहता तो कोई कबड्डी, कोई लँगड़ी टाँग, तो कोई गुल्ली-डंडा।
धनमाया कहने लगी, "तुम लोग जो चाहो खेलो, मैं तो आज नहीं खेलने वाली।"
सुखबीर कहने लगा, "ठीक है भाई, आज हम इसे किसी खेल में शरीक नहीं करते। पता नहीं, यह क्या सोचती है ?" दोरजी कहने लगा, "हाँ, यह नकचढ़ी है। यह भेड़-बकरियों की देखभाल करे, पर हम खेलेंगे।"
कान्छा को अपने दोस्तों की बातें अच्छी नहीं लगीं। धनमाया बुरा न माने, यह सोचते हुए वह उसे समझाने लगा, "देखो, तुम दोरजी की बातों से दिल छोटा मत करना। उसे बात करने की तमीज नहीं है। तुम्हें खेलने की इच्छा नहीं है तो कोई बात नहीं। हम सभी यदि खेलने में जुट गए और एक-दो भेड़बकरियाँ भी गायब हो गईं तो घर में डाँट-डपट खाने की नौबत आ जाएगी, इसलिए आज हमारी भेड़बकरियों की देखभाल करो।"
कान्छा की बातों से धनमाया खुश होकर कहने लगी, "तुम ठीक कहते हो, भैया। तुम लोग खेलो, मैं भेड़-बकरियों की देखभाल करती हूँ।"
धनमाया को खुश होते देख कान्छा भी खुश हुआ और वह अपने दोस्तों को यह बताने चला गया कि धनमाया भेड़-बकरियों की देखभाल करने को तैयार हो गई है।
इसके बाद सारे दोस्त खेलने की तैयारी में जुट गए। उन्होंने आज कोई नया खिलौना बनाने की वह बाघ का आकार का निकला। इसके बाद उन्होंने उसे सूखने के लिए छोड़ दिया। दोरजी कहने लगा, "जब तक यह नहीं सूखता है, तब तक चलो हम लकड़ियाँ जमा कर लेते हैं।" सभी उसकी बातों से सहमत हो गए और लकड़ी जमा करने जाते हुए धनमाया से कहने लगा, "हम लकड़ी जमा करने जा रहे हैं, धनमाया, तुम जरा मिट्टी के इस खिलौने का भी देखभाल करना। कहीं भेड़-बकरियाँ अपने खुरों से इसे खराब न कर दें।" इतना कहकर वे घने जंगल में घुस गए। इधर धनमाया अकेली रह गई। उसे डर लगने लगा। तभी उसने एक बूढ़े आदमी को अपनी ओर आते देखा। उसके हाथ में लाठी थी और वह झुककर चल रहा था। धनमाया को डरे देखकर वह उसके पास आया और उससे डरने का कारण पूछने लगा।
धनमाया ने अपने दोस्तों के रूखे व्यवहार और उसे अकेले छोड़ जाने की बात बताई। बूढ़ा कहने लगा, “अच्छे बच्चे रोते नहीं। जिंदगी में इससे बड़े-बड़े हालात आते हैं, यह तो उनके सामने कुछ भी नहीं है। हमें हर स्थिति का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए। अगर आज वे तुम्हारा मजाक उड़ाते हैं तो उड़ाने दो, कल वही लोग तुम्हारा मान करेंगे। हमें हमेशा बेहतर के लिए सोचना चाहिए। अच्छा चलो, अब रोना नहीं। मैं तुम्हें एक अच्छी बात बताता हूँ।"
"क्या बाबा?" धनमाया ने खुश होते हुए कहा।
बूढ़े बाबा ने कहा, “बेटी, तुमने मुझे बाबा कहा है, इसलिए मैं तुम्हें एक मंत्र देता हूँ। इस मंत्र का जाप करते हुए यदि तुम एक मुट्ठी इस बाघ के ऊपर फेंकोगी तो इसमें चलने-फिरने की शक्ति आ जाएगी।"
"नहीं बाबा, तब तो यह बाघ मुझे खा जाएगा। मैं ऐसा मंत्र नहीं सीखंगी।" धनमाया ने कहा। बूढ़ा कहने लगा, "डरो मत, बेटी। यह बाघ तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ेगा। तुम जानती हो, जानवर भी उस आदमी को नुकसान नहीं पहुँचाता, जो उसकी देखभाल करता है, उसे जीवन दान देता है या उसे प्यार करता है। जानवर भी उस उपकार के बदले में हमारी सहायता करता है, संकट के समय हमारी रक्षा करता है। हाँ, तुम्हारे दोस्त तुम्हें उसके साथ देखकर भयभीत हो सकते हैं।"
धनमाया को सुखबीर और दोरजी पर गुस्सा आ ही रहा था। उसने सोचा, उन्हें डराने का यह एक उत्तम मौका है ! लेकिन उसे खुद भी बाघ से डर लग रहा था। उसने फिर बाबा से पूछा, "इसने अगर भेड़-बकरियों को मार खाया तो क्या होगा?"
"ऐसा कुछ नहीं होगा, बेटी। यदि तुम्हें इस बात का डर है तो हाथ में मिट्टी रखो, जब चाहो, मंत्र जपकर बाघ के ऊपर छिड़क देना। बाघ अचेत हो जाएगा। अब तो ठीक है ?" बूढ़े ने कहा। बूढ़े बाबा की बातों से धनमाया खुश होकर कहने लगी, "तो ठीक है बाबा, मुझे सिखा दो मंत्र।"
बूढ़े बाबा ने हाथ की मिट्टी धनमाया को देते हुए कहा, "लो, इसे मुट्ठी में लो और इस मंत्र को सुनो।"
इतना कहते हुए वह धनमाया के कानों में मंत्र पढ़ने लगा। मंत्र सुना चुकने के बाद उसे धनमाया को दोहराने को कहा और मिट्टी को बाघ के ऊपर फेंकने को कहा। बाघ ज्यों ही हिलते हुए खड़ा होने लगा, बूढ़े बाबा ने कहा, "लो, अब इस पर सवार होकर यह मिट्टी भी छिड़क दो, बाकी मिट्टी मुट्ठी में कसकर पकड़ लो।"
धनमाया ने वैसा ही किया, जैसा बूढ़े बाबा ने कहा था। लेकिन यह क्या, बाघ तो बूढ़े बाबा के पीछेपीछे चलने लगा। इस बीच धनमाया के सभी साथी जंगल से लकड़ी लेकर आ गए। धनमाया को बाघ के ऊपर चढ़े देखकर अपना सबकुछ वहीं छोड़ अपने घर की ओर भागने लगे। बाघ धनमाया को लेकर जंगल की ओर चल पड़ा। कुछ देर बाद बाबा भी आँखों से ओझल हो गए। अकेले अपने को जंगल में पाकर वह बुरी तरह घबरा गई। उसे ऐसे में भी बाबा की बात याद आई उसने हाथ की मिट्टी बाघ के ऊपर फेंकी, बाघ अचेत होकर जमीन पर लेट गया। धनमाया को चोट आई, दर्द से वह कराह उठी। उसकी आवाज सुनकर एक बूढ़ी औरत दौड़ती हुई आई। उसने जमीन से धनमाया को उठा लिया और उसे पुचकारने लगी।
रोती-बिलखती धनमाया ने उसे सारी बात बताई, तो बुढ़िया ने कहा, "तुम चिंता मत करो। तुम्हारे जैसे यहाँ कई बच्चे हैं। जब तक तुम्हारे माँ-बाप यहाँ नहीं आ जाते, तुम यहाँ उन बच्चों के साथ रह सकती हो। असल में वह मायावी है, जो सीधे-सादे बच्चों को बहला-फुसलाकर अपने जाल में फाँस लेता है, तुम बहुत साहसी हो कि तुमने इस बाघ को अचेत कर दिया। अब तुम चिंता मत करो, अब तुम्हें कुछ नहीं होगा। चलो, कुटिया में चलकर आराम करो।"
इतना कहते हुए बूढ़ी औरत उसे गोद में उठाकर अपनी कुटिया में ले गई। थकी-माँदी धनमाया बुढ़िया की प्यार भरी बातें सुनते-सुनते सो गई।
उधर डरे-सहमे लड़कों ने गाँव में पहुँचकर धनमाया को बाघ के द्वारा ले जाने की सूचना दी। गाँववाले तुरंत ही धनमाया को ढूँढ़ने और भेड़-बकरियों को लाने लाठी-भाला लेकर जंगल की ओर चलने लगे। धनमाया की माँ ने कहा, “जरूर ही वनदेवी हमसे नाराज है, इसलिए मेरी बेटी के साथ ऐसी घटना हुई है। हमें तुरंत उनकी पूजा की व्यवस्था करनी चाहिए।" पिता ने कहा, "हाँ, तुम लोग चलो, मैं पूजा की सामग्री लेकर आता हूँ।" सभी जंगल में पहुँचे। सूरज ढल चुका था। धनमाया कहीं दिखाई नहीं दी। लेकिन भेड़-बकरियों को सही-सलामत चरते देखकर उन्हें यह अनुभव हो गया कि धनमाया जहाँ भी है, सुरक्षित है। धनमाया की माँ वनदेवी की प्रार्थना करने लगी। उनसे माफी माँगने लगी और बेटी की सुरक्षा की कामना करने लगी। रात होने लगी, उन्हें रात जंगल में काटना ठीक नहीं लगा। उन्होंने फैसला लिया कि कल भोर होते ही हम धनमाया को खोजने आ जाएँगे, अभी तो गाँव वापस चलते हैं। दूसरे दिन आने की बात कहकर सब अपने-अपने घर लौट गए। सुबह पौ फटते ही सभी धनमाया को खोजने फिर जंगल में घुसे। घने जंगल में बच्चों के खेलने की आवाजें सुनकर वे उधर ही बढ़े। उन्हें कुछ शांति भी हुई। जब उन्होंने बच्चों को देखा, उन्हें आवाजें दीं, पर बच्चे उन्हें देखते ही डरकर गुफा में घुस गए। बच्चों को अंदर की ओर लौटते देखकर धनमाया बाहर आई। गाँव के लोगों को देखकर वह चिल्लाने लगी, “मझले चाचाजी "मझले चाचाजी!"
धनमाया की आवाज सुनकर उसे देखकर वे बड़े प्रसन्न भाव से आगे बढ़ने लगे। धनमाया को सहीसलामत पाकर उसके माता-पिता की आँखों से आँसू बहने लगे। माँ ने उसे चूमते हुए गोद में उठा लिया। पिता वनदेवी के लिए अगरबत्ती जलाने लगे। उस समय गुफा में बूढ़ी औरत नहीं थी, धनमाया ने सारी बात बताई। किस प्रकार बुढ़िया ने उस मायावी से उसकी रक्षा की। उसने गुफा के अन्य बच्चों के संबंध में भी गाँववालों से बात की।
गाँववालों ने वहाँ अधिक समय बरबाद न कर लौटने का विचार किया। धनमाया ने सब बच्चों को भी गाँव वापस ले आने की बात की। धनमाया और सभी बच्चे बड़े खुश हुए। गाँववाले अपने साथ जो खाने की सामग्री लाए थे, उसे उस बुढ़िया के लिए गुफा में छोड़ गए। वनदेवी की कृपा से हमारी बेटी सुरक्षित है', यही बातें करते हुए सभी अपने गाँव पहुँचे। उसके बाद सभी ने अपने-अपने ढंग से वनदेवी की आराधना की। गाँववाले साल में एक बार पूजा की सामग्री लेकर उस गुफा में जरूर जाते, पर उससे मिलकर उसका धन्यवाद करना अब तक संभव नहीं हुआ था; क्योंकि फिर कभी किसी ने उस बुढ़िया को वहाँ नहीं देखा था, कभी-कभी उसके पैरों के निशान आसपास जरूर नजर आ जाते।
(साभार : डॉ. चुकी भूटिया)