पहाड़ी राजा की बेटी : डोगरी लोक-कथा

Pahadi Raja Ki Beti : Lok-Katha (Dogri/Jammu)

बहुत समय पहले एक राजा और रानी रमणीय पर्वतीय क्षेत्र में रहते थे। उनकी बेटी यानी राजकुमारी बहुत ही सुंदर थी। जब उसका जन्म हुआ था, तब माता-पिता ने उसका भविष्य जानने के लिए राज्य-ज्योतिषी से सलाह ली थी। राज्य-ज्योतिषी ने बताया था कि राजकुमारी भाग्यशाली है और ऐसा ही हुआ भी। जब वह युवा होने लगी तो बहुत ही सुंदर दिखने लगी। जब वह अपने होंठ खोलती तो उसके अधरों से मोती गिरते और जब चलती तो उसके पैरों के दोनों तरफ बहुमूल्य रत्न बिखरने लगते। इतने कि उसके युवा होने तक उसका पिता उस क्षेत्र का सबसे धनवान और संपन्न राजा बन गया। राजकुमारी का एक और विशेष गुण यह था कि वह सोने की एक माला धारण किए रहते थी, जो जन्म से ही उसके गले में थी। जब उसके बारे में माता-पिता ने राज्य-ज्योतिषी से पूछा था तो उन्होंने बताया था, ‘यही माला इस का जीवन है। इस हार को इसके गले से कभी न उतारना और इसकी रक्षा करना।’ इसलिए रानी ने बेटी को बताया था कि इस हार को कभी न उतारे और सदा ही गले में पहने रखे।

राजकुमारी के युवा होने पर उसके षोडश जन्मदिन पर राजा ने उसके लिए सोने की चप्पलें उपहार में दीं। राजकुमारी ने पिता को धन्यवाद दिया और अपनी सेविकाओं के साथ वही चप्पलें पहनकर अब वह पहाड़ों में चहल-कदमी करने जाती। इससे उसके नाजुक पैरों की सुंदरता और भी बढ़ जाती। एक दिन राजकुमारी अपनी सेविकाओं के साथ पहाड़ पर बने महल के आस-पास जंगली फूल चुन रही थी कि उसका पैर फिसल गया। उसके एक पैर की चप्पल बहुत नीचे खड़ी ढलान से नीचे गिर गई। राजकुमारी ने अपने परिचारकों को ढूँढ़ने के लिए भेजा। कुछ समय बाद वे लौटे, मगर उनको वह सोने की चप्पल न मिल पाई। जब राजा को यह सूचना मिली तो उन्होंने घोषणा की कि जो भी इस चप्पल को ढूँढ़कर लाएगा, उसे अच्छा-खासा इनाम मिलेगा। राजकुमारी के एक पैर की चप्पल ढूँढ़ने की बहुत कोशिश हुई, मगर कोई न ढूँढ़ पाया।

कुछ समय बाद समतल प्रदेश का एक युवा राजकुमार उन पहाड़ों से गुजर रहा था कि उसे जंगल के बीच राजकुमारी की वह चमकती हुई चप्पल मिल गई। उसने यह चप्पल उठाई और अपने महल में पहुँचकर अपनी माँ को दिखाई। माँ ने कहा, “बेटे, यह अवश्य ही किसी सुंदर राजकुमारी की चप्पल है। यदि यह चप्पल इतनी सुंदर है तो वह कितनी सुंदर होगी।” उन्होंने सभी दिशाओं में अपने दूत भेजे, वे पता लगाएँ कि यह खोई हुई चप्पल किसकी होगी। कई दिनों तक कहीं से कोई सूचना प्राप्त न हुई। लेकिन कुछ दिनों बाद राजा के दरबार में कुछ यात्रियों ने सूचना दी कि बहुत दूर के एक पहाड़ी प्रदेश में एक राजा रहता है, जिसकी बेटी को एक सोने की चप्पल गिर गई थी। राजा-रानी और कुछ सलाहकारों ने कहा कि यह चप्पल निश्चित ही उस राजा की बेटी की ही है। रानी ने अपने बेटे से कहा, “बेटा, अब तो यह निश्चित है कि यह सोने की चप्पल दूर के उस पहाड़ी राजा की पुत्री की है। इसलिए तुम उस के महल तक यह चप्पल लेकर चले जाओ। यदि वह तुम्हें सोना-चाँदी या धन इनाम के तौर पर दें तो स्वीकार नहीं करना, बल्कि उनकी बेटी का हाथ माँगना।”

राजकुमार ने वैसा ही किया, जैसा उसकी माता ने कहा। कई दिनों की बहुत लंबी यात्रा तय करने के बाद वह पहाड़ी क्षेत्र के डुग्गर-प्रदेश पहुँचा। वह राजा से मिला और कहा, “मुझे आपकी बेटी की यह चप्पल मिल गई है, वही लौटाने आया हूँ।”

राजा प्रसन्न हुए और पूछा, “आपको क्या इनाम चाहिए? मैं आपको घोड़े दूँ, चाँदी दूँ, सोना दूँ? क्या दूँ?”

“मुझे इनमें से कुछ भी नहीं चाहिए। मैं मैदानी क्षेत्र से आया हूँ। यहाँ से दूर एक समतल प्रदेश के राजा मेरे पिता हैं। मैं उन्हीं का पुत्र हूँ। मैं कुछ महीनों पहले यात्रा कर रहा था और जब इस सुंदर पहाड़ी-क्षेत्र में आया तो यह चप्पल मिली। मैं बहुत लंबी यात्रा करके दोबारा यहाँ पर खोई हुई चीज लौटाने आया हूँ। आप मुझे घोड़े इत्यादि देंगे तो मैं वह स्वीकार नहीं करूँगा, परंतु यदि आप मान जाएँ तो मैं आपकी पुत्री का हा हाथ माँगना चाहूँगा। यदि आप मेरा उसके साथ विवाह करने की अनुमति दें तो वह मेरे लिए सबसे बड़ा उपहार होगा।”

“यह मेरे हाथ में नहीं है। मैंने प्रतिज्ञा ली है कि मैं अपनी पुत्री का विवाह उसकी मर्जी के खिलाफ नहीं करूँगा। यदि उसे कोई आपत्ति न हो और वह आपको पसंद करे तो मुझे भी कोई आपत्ति नहीं होगी।”

जब राजकुमार पहाड़ी पर बने महल के अंदर आ रहा था, तब राजकुमारी ने उसे देखा था। वह पिता के पास गई और जब उसने देखा कि उसकी खोई हुई चप्पल भी मिल गई है और राजकुमार वही लौटाने आया था तो उसने शादी के लिए हाँ कर दी। दोनों का विवाह बहुत ही धूमधाम से हुआ। कुछ दिनों बाद राजकुमार ने राजा से कहा कि वह अब अपनी पत्नी के साथ अपने प्रदेश में वापस जाना चाहेगा। राजा और रानी ने उसे अनुमति दे दी और राजा ने कहा, “यह हमारी आँखों का तारा है। इसका ध्यान रखना और यह जो इसके गले में सोने का हार है, इसे कभी न उतरने देना, क्योंकि इसी में इसकी जान है।” राजा-रानी और दरबारियों ने उन्हें कई उपहारों के साथ धन, हाथी-घोड़े, सोने-चाँदी के साथ विदा किया।

जब समतल प्रदेश के बूढ़े राजा और रानी ने अपने बेटे को एक अति सुंदर बहू के साथ आते हुए देखा तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। इसी खुशी के माहौल में राजकुमारी अपने पति के साथ रहने लगी। मगर वहाँ एक समस्या यह थी कि राजकुमार का किसी अन्य से पहले विवाह हो चुका था, जो एक साधारण सी लड़की थी और राजा-रानी उसे ज्यादा पसंद नहीं करते थे। पर्वतीय बहू के आने से राजा तथा रानी बहुत ही प्रसन्न हुए और संतुष्ट भी कि उनके पुत्र को एक अच्छी पत्नी मिल गई है। राजकुमार भी बहुत ही खुशी का अनुभव कर रहा था। पहली पत्नी साधारण रानी नई रानी को देखकर ईर्ष्या करने लगी और नई रानी को अपने से सुंदर और सुलक्षणी पाने के कारण षड्यंत्र रचने लगी। राजकुमार के बूढ़े पिता और माता यह देखकर चिंता में पड़ गए कि पुरानी बहू नई बहू का कोई अहित न करे। इसलिए उन्होंने नई बहू, जिसका नाम सुधा था, अपने पास बुलाया और कहा कि उसे पुरानी बहू से होशियार रहना चाहिए; मगर सुधा ने कहा, “वह तो मेरी बहन जैसी ही है। मुझे उससे क्या डर। मैं उसे प्यार करती हूँ, इसलिए वह भी मुझे प्यार करती होगी।” राजा-रानी सुधा के सद्विचार सुनकर और भी प्रसन्न हो गए। मगर वे पुरानी बहू के स्वभाव से परिचित थे। कुछ महीनों तक सब ठीक-ठाक चलता रहा, मगर एक दिन अचानक राजकुमार को दूर देश की यात्रा के लिए जाना पड़ा। वह सुधा को साथ नहीं ले जा सकता था, इसलिए उसने अपने माता-पिता से कहा कि उसकी पत्नी का ध्यान रखें और देखते रहें कि पुरानी बहू कोई शरारत न करे।

राजकुमार के जाने के बाद पहली बहू नई बहू सुधा के कमरे में गई और बोली, “हमारे पति, छोटे राजा हैं तो इसलिए दूर देश की यात्रा पर गए हैं। वह तो तुम्हारे पास ही ज्यादा समय बिताते थे। तुम सुंदर हो और पहाड़ी प्रदेश की राजकुमारी हो। वे तुम्हें बहुत प्यार करते हैं। हम दोनों तो बहनें जैसी हैं, इसलिए हमें आपस में मिलकर रहना चाहिए। मैं तुम्हारे पास आती रहूँगी, तुम भी मेरे पास आती रहना।” इस पर सुधा ने कहा कि उसे उससे मिलना अच्छा लगेगा और वह उसे अपने गहने और कीमती चीजें दिखाने लगी, जो वह अपने पिता के यहाँ से लाई थी। तभी पुरानी बहू ने कहा, “मगर यह क्या, तुम यह सोने की माला सदा ही पहने रहती हो?”

“यह माला मेरी रक्षक है, मेरा जीवन है। इसलिए सोने के दानों से बना यह हार मैं सदा ही पहले रखती हूँ।” जब पुरानी बहू ने यह सुना तो वह मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुई और सोचने लगी कि कैसे इस हार को चुरा ले। स्वयं तो चुरा नहीं सकती। इसलिए अपने कमरे में पहुँचकर उसने अपनी विश्वसनीय सेविका को बुलाया और उससे कहा, “आज रात तुम किसी भी तरह सुधा के कमरे में चली जाना और उसके गले से उसका हार, जो वह सदा पहने रहती है, उतारना। फिर उस हार को अपने गले में पहनना। जैसे ही वह हार सुधा के गले से उतरेगा, वैसे ही वह प्राण-हीन हो जाएगी।” सेविका ने अपनी स्वामिनी के आदेश का पालन किया। वह रात को नई बहू के कमरे में गई। जब नई बहू सुधा गहरी नींद सो रही थी, तब उसने उसके गले से वह हार उतारा और अपने गले में डाला। हार के निकल जाने के साथ ही सुधा के शरीर से प्राण भी निकल गए।

अगली सुबह बूढ़े राजा और रानी अपनी प्यारी बहू को देखने उसके कमरे की तरफ गए। उन्होंने देर तक दरवाजा खटखटाया, मगर किसी ने दरवाजा नहीं खोला। फिर उन्होंने अंदर जाकर देखा तो सुधा को लेटे हुए पाया। उसका शरीर ठंडा पड़ा था। चेहरे का रंग सफेद था। न जीवित, न मरी हुई, परंतु बेसुध सी। उन्होंने दरवाजे के बाहर सोए हुए परिचारिकों से पूछा कि क्या उन्होंने किसी को यहाँ आते देखा और क्या वह रात को बीमार तो नहीं हो गई थी? उन्होंने कहा, न तो कोई आया था और न ही वह बीमार सी दिख रही थी। उन्होंने उसी समय राजवैद्य को बुलवाया, मगर उसने कहा कि बहू के शरीर में प्राण ही नहीं हैं, वह मृत है।

राजा और रानी अत्यंत दु:खी हुए। वे दोनों शोक में डूब गए और उन्होंने राजकुमार के आने तक मृत शरीर को राजमहल के पास ही एक मंडप में रखवा लिया, ताकि राजकुमार के आने पर संस्कार आदि करवा सकें। उन्हें अब राजकुमार के आने की प्रतीक्षा थी कि कहीं शरीर सड़ न जाए। परंतु ताज्जुब था कि शरीर में कोई परिवर्तन नहीं हुआ, न किसी प्रकार का क्षय। इसलिए राजा और रानी हर रोज मंडप के पास जाते और अपनी प्यारी बहू का शांत चेहरा देख आते। कुछ दिनों बाद राजकुमार लौटा। उसे मंडप के पास ले जाया गया। सुधा का चेहरा वैसे ही सुंदर था, जैसे पहले था। होंठ भी वैसे ही। चेहरे पर वही लाली। लगता था कि जैसे वह सोई हुई हो। टूटे हुए दिल से राजकुमार अपनी सुंदर पत्नी को देखता रहा। उसको देखकर लगता था कि कहीं पत्नी के शोक में वह मर न जाए। वह अपने भाग्य को कोस रहा था कि क्यों उसे दूर के प्रदेश की यात्रा पर जाना पड़ा। न वह जाता, न वह इसके अंतिम क्षणों और अंतिम संवाद से वंचित रहता। वह पूरा दिन मंडप के सामने विलाप करता रहा। संध्या के समय उसे महल की ओर ले जाया गया। तब भी वह जाने से इनकार करता रहा और अपनी पत्नी की ओर देखते हुए कहने लगा, “शायद यह तुम्हारे अंतिम दर्शन हैं। न जाने कल में रहूँ न रहूँ। मेरी मनोरम, प्यारी पत्नी। मेरी सुधा!”

बूढ़े राजा और रानी को लगा, शायद उनका बेटा, राजकुमार पागल न हो जाए या उसकी भी मृत्यु न हो जाए। इसलिए उन्होंने उसे दूसरे दिन मंडप की ओर जाने से रोक दिया।

जिस सेविका ने सुधा के गले से हार उतारा था और अपने गले में पहना था, वह शाम को सोते समय वह हार तथा अपनी चूड़ियाँ आदि उतारती और अगली सुबह फिर पहन लेती, जब नींद से जाग जाती। जब शाम के समय वह सोने का हार उतारती थी, उस समय सुधा के शरीर में प्राण-शक्ति जाग्रत् होती, वह जीवित हो जाती। जब सेविका वह हार फिर से पहन लेती तो सुधा फिर से मृत सी पड़ी रहती। परंतु यह बात कोई न जान सका, क्योंकि राजा और रानी दिन में आते और फिर चले जाते। वे समझ नहीं पाते कि क्या करें। यह उनकी प्यारी बहू का क्या हाल हो गया। बेटे को कैसे सँभालें। संस्कार करवाएँ या नहीं। वे बूढ़े राजा-रानी कोई निर्णय नहीं ले पा रहे थे।

जब सुधा पहली बार रात के समय जाग्रत् हुई वह पहले तो डर गई, मगर फिर समझ गई कि उसके गले का हार चुराया गया है। उसने सोचा कि सुबह होते ही वह महल में घुस जाएगी और अपना खोया हुआ हार ढूँढ़कर पहन लेगी। मगर वह सुबह कभी न आई, क्योंकि सूर्य की पहली किरण फूटते ही सेविका हार पहन लेती थी। सुधा रात को सामने के पोखर से पानी पीती थी और फिर अपनी जगह पर लौटकर सुबह का इंतजार करती। न कोई भोजन न कुछ खाने को। परंतु जब वह पोखर की तरफ जाती, तो चलते समय अपने आप पहले की ही तरह रत्न-जवाहर बिखरते।

पगलाया सा राजकुमार जब अगले दिन मंडप के पास गया तो उसने मंडप के सामने से पोखर की तरफ कुछ कीमती मणियाँ देखीं तो अचंभे में पड़ गया। उसे लगा कि हो न हो, उसकी पत्नी सुधा के शरीर में अभी भी प्राण-शक्ति का कोई अंश बचा है। वह सारा दिन देखता रहा कि उसकी पत्नी का बेसुध पड़ा शरीर कोई हरकत करे, मगर ऐसा कुछ न हुआ, क्योंकि वह रात को ही जाग्रत् होती थी। निराश होकर वह वापिस महल में चला गया। वह अगले दिन मंडप की ओर नहीं गया और सारा दिन उदासी में काटा। महल के लोगों को लग रहा था कि शायद वह भी अब ज्यादा दिन जिएगा नहीं, क्योंकि उसने खाना-पीना भी छोड़ दिया था।

शाम के समय भी वह उदास था, मगर सोच रहा था कि रत्न और जवाहर मंडप के आस-पास कैसे आए होंगे। वह उठकर मंडप की ओर चला गया। वहाँ बैठा तो क्या देखता है कि कोई स्त्री मंडप से निकलकर पोखर की तरफ जाने लगी है। पहले तो उसे लगा कि कोई परी होगी, मगर फिर अपनी पत्नी को दूर से ही पहचान गया। जिस ओर से सुधा पोखर की तरफ गई, उस तरफ पथ पर कीमती मणियाँ बिखरने लगीं। उसे ताज्जुब हो रहा था, लगता था जैसे कोई सपना देख रहा हो। जब सुधा ने किसी के चलने की आवाज सुनी तो वह डर गई। अँधेरे में कुछ भी साफ-साफ दिखाई नहीं दे रहा था। फिर राजकुमार ने पुकारा, “सुधा! मैं तुम्हारा पति हूँ।” सुधा ने आवाज पहचानी और मंडप के पास आई, जहाँ दीप जल रहा था। दोनों ने एक-दूसरे को देखा। सुधा ने कहा, “नहीं आप सपना नहीं देख रहे हैं। इस समय मैं जीवित हूँ। मैं ही आपकी सुधा हूँ। मगर दिन में मर जाती हूँ। आपके जाने के बाद किसी ने मेरा जीवन-हार चुराया है।”

राजकुमार ने उसके गले की तरफ देखा तो वहाँ वह हार था ही नहीं, जिसकी सुधा के माता-पिता ने रक्षा करने को कहा था। वह वहीं मंडप पर उसके साथ बैठा रहा और कहा, “तुम चिंता मत करो, मैं वह हार ढूँढ़ कर कल तुम्हारे पास आऊँगा। मैं पूरे महल की तलाशी लूँगा।” वह सारी रात वहाँ बैठा रहा और सुबह होने से पहले महल में वापिस आ गया। महल में पहुँचते ही राजकुमार ने सभी नौकरों और परिचारकों आदि को बुलवाया। सारे उसके सामने पेश हुए। जैसे ही उसने सेविका के गले में सुधा का जीवन-हार देखा, वैसे ही उसने रक्षकों से कहा कि वे सेविका को कारागार में डाल दें। सेविका डर गई और उसने सब कुछ बताया। उसने बताया कि कैसे पहली बहू ने उसे यह चोरी करने के लिए आदेश दिया था। यह सब सुनने के बाद राजकुमार ने दुष्ट महिला बुरी पत्नी को भी, जीवनभर के लिए कारागार में डालने का आदेश दिया। सेविका और उसकी स्वामिनी दोनों को कारागार में भिजवाने के बाद राजकुमार अपने बूढ़े माता-पिता के साथ हार लेकर मंडप की ओर गया। सुधा के गले में सोने का हार पहनाते ही उसकी प्राण-शक्ति लौट आई और खुशी-खुशी सभी महल की ओर लौट आए। बूढ़े राजा और राजमाता की आँखों में नई चमक लौट आई कि उनके बेटे का उजड़ा संसार फिर से बस गया। यह खबर पूरे राज्य में फैल गई। चारों तरफ खुशियाँ मनाई जाने लगीं। उसके बाद बूढ़े राजा-रानी, उनका बेटा और बहू सुख से रहने लगे।

(अंग्रेजी से अनुवाद : गौरीशंकर रैणा)

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