पहाड़, किसका ? : श्याम सिंह बिष्ट

Pahad Kiska ? : Shyam Singh Bisht

अमीरों की टोली व जो लोग सक्षम थे अपना परिवार अपने साथ शहर में साथ रख सकें वे लोग अब गांव से पलायन कर चुके थे ।
अब सिर्फ पहाड़ो के गांव गरीब और जिनकी कुछ मजबूरी या जिनका कुछ काम धंधा है वही लोग पहाड़ों में रह गए थे ।
फिर क्यों हमारे पहाड़ों के लोग वक़्त से पीछे रहते, मेरे देखते ही देखते पच्चीस - तीस सालों में पहाड़ों के गांव खाली और पलायन के दर्द को झेल रहे थे ।
अपना परिवार अपने माता-पिता, बीवी-बच्चे, साथ रखने की चाहत किसको नहीं होती ।

और हर कोई माता-पिता चाहता है उसकै बच्चे अच्छा पढा, लिखें एक अच्छी जॉब व एक अच्छा अफसर बनै तभी तो जीने में मजा व आनंद आए ।
जो कि पहाड़ों में रहकर संभव नहीं था । पहाड़ों में रहते तो शायद उनको भी अपने माता-पिता की तरह दिन-भर खेती करनी पड़ती या हल जोतना पड़ता, फिर कोई क्यों इन पहाड़ों में रहे ।
इन पहाड़ों ने वहां के लोगों को दिया ही क्या था वही बेरोजगारी, अशिक्षा, असुविधा, पढ़ने के लिए ढंग का स्कूल नहीं,दिखाने के लिए उचित स्वास्थ्य -व्यवस्था नहीं खेलने के लिए मैदान नहीं,कमाने के लिए कोई काम धंधा नहीं ।
पहाड़ों में रहकर कब तक ठंडी- हवा और ठंडा -पानी पीते कब तक इन हरे- भरे चीड़- देवदार रंग-बिरंगे -फूलों हिमालय कि सफेद बर्फौ,को छूती ऊंची -ऊंची पर्वतमालाऔ, खेत- खलियान को निहारतै, रात में कब तक इन जादुई खुले हुए आसमान के तारों को निहारते , जहां सिर्फ सुकून है और कुछ नहीं ।
आखिरकार इंसान को पेट भरने के लिए दो वक्त की रोजी -रोटी चाहिए होती है, जो कि पहाड़ों में रहकर संभव नहीं था ।
और तो और दुनिया के लोग जहां 21वी शताब्दी में जी रहे थे, और एक वह लोग थे जो अभी भी कीपैड- फोन चला कर काम चला रहे थे । जबकि वक्त आ गया था Android टच - फोन चलाने का, फिर हम लोग क्यों वक्त से पीछे रहते हैं, और कर दिया पहाड़ों के गांव का पलायन ।

आज यही सोच हमारे पड़ोस में रहने वाले जोशी जी, और उनके परिवार की भी थी । वह भी अपना गांव से सब कुछ छोड़कर नजदीकी एक शहर में जाकर बस गए, जहां सारी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध थी ।
दुख इस बात का नहीं था कि वह लोग गांव छोड़कर जा रहे हैं, दुख इस बात का था कि अब पड़ोस में राम -राम,दादी- भुला, काकी -काका, अम्मा -बुबू जी कहने वाला कोई नहीं बचा । धीरे-धीरे सभी लोग गांव छोड़कर जा चुके थे ।।

काश वक्त रहते लोगों की मानसिकता और सोच में फर्क पड़े नहीं तो न जाने कितने बिष्ट, मेहरा, जोशी, शाही, नेगी, रावत, जाने कितने परिवार पहाड़ों से पलायन कर चुके होंगे ।
आज के समय की यही सच्चाई है -पहाड़ों के त्योहार -ठंडा- पानी,ठंडी- हवा, घूमना-फिरना पहाड़ी- गानों में नाचना, हर कोई चाहता है।
पर विडंबना यही है - पहाड़ों में जाना हर कोई चाहता है, पर रहना कोई नहीं चाहता ।।

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