पागल पथिक (गद्य गीत) : राय कृष्णदास

Pagal Pathik : Rai Krishna Das

'पथिक' – मैंने पूछा – “तुम कहाँ से चले हो और कहाँ जा रहे हो ? तुम्हारी यात्रा तो लम्बी मालूम पड़ती है क्योंकि तुम्हारा तन सूखकर काँटा हो रहा है और उस पर का फटा वस्त्र तुम्हारे विदीर्ण हृदय की साख भर रहा है। श्रम से हारकर तुम्हारे पैर फूट-फूटकर रक्त के आँसू रो रहे हैं! यह बात क्या है?"

उसने दैन्य से दाँत निकालकर उत्तर दिया – “बन्धु मैं अपना मार्ग भूल गया हूँ। इस संसार के बाहर एक ऐसा स्थान है जहाँ इसके सुख और विलास की समस्त सामग्रियाँ तो अपने पूर्ण सौन्दर्य में मिलती हैं पर दुःख का वहाँ लेश भी नहीं है । मेरे गुरु ने मुझे उसका ठीक पता बताया था और मैं चला भी था उसी पर । किन्तु मुझसे न जाने कौन-सी भूल हो गयी है मैं घूम-फिरकर बार-बार यहीं आ जाता हूँ। जो हो, मैं कभी न कभी वहाँ अवश्य पहुँचूँगा।"

मैंने सखेद कहा, “हाय ! तुम भारी भूल में पड़े हो । भला इस विश्व - मण्डल के बाहर तुम जा कैसे सकते हो ? तुम जहाँ से चलोगे फिर वहीं पहुँच जाओगे। यह तो घटाकार न है । फिर, तुम उस स्थान की कल्पना तो इसी आदर्श पर करते हो और जब तुम्हें इस मूल ही में सुख नहीं मिलता तब अनुकरण में उसे कैसे पाओगे ? मित्र, यहाँ तो सुख के साथ दुःख लगा है और उससे सुख को अलग कर लेने के उद्योग में भी एक सुख है। जब उसे ही नहीं पा सकते तब वहाँ का निरन्तर सुख तो तुम्हें एक अपरिवर्तनशील बोझ, नहीं यातना हो जायेगी। अरे, बिना नव्यता के सुख कहाँ ? तुम्हारी यह कल्पना और संकल्प नितान्त मिथ्या और निस्सार है, और इसे छोड़ने ही में तुम्हें इतना सुख मिलेगा कि तुम छक जाओगे।”

परन्तु उसने मेरी एक न सुनी और अपनी राम - पोटरिया उठाकर चलता बना।

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