पानवाली (कहानी) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री

Paanwali (Hindi Story) : Acharya Chatursen Shastri

लखनऊ के अमीनाबाद पार्क में इस समय वहाँ घंटाघर है, वहाँ से सत्तर वर्ष पूर्व एक छोटी-सी टूटी हुई मस्जिद थी, जो भूतोंवाली मस्जिद कहलाती थी, और अब जहाँ गंगा-पुस्तक-माला की आलीशान दूकान है, वहाँ एक छोटा-सा एक-मंजिला घर था। चारों तरफ न आज की–सी बाहर थी, न बिजली की चमक, न बढ़िया सड़कें, न मोटर, न मेम साहिबाओं का इतना जमघट।

लखनऊ के आखिरी बादशाह प्रसिद्व वाजिदअली की अमलदारी थी। ऐयाशी और ठाट-बाट के दौर-दौरे थे। मगर इस मुहल्ले में रौनक न थी। उस घर में एक टूटी-सी कोठरी में एक बुढ़िया मनहूस सूरत, सन के समान बालों को बिखेरे, बैठी किसी की प्रतीक्षा कर रही थी। घर में एक दिया धीमी आभा से टिमटिमा रहा था। रात के दस बज गये थे। जाड़े के दिन थे, सभी लोग अपने-अपने घर में रजाइयों में मुँह लपेटे पड़े थे, गली और सड़क पर सन्नाटा था।

धीरे-धीरे बढ़िया वस्त्रों से आच्छादित एक पालकी इस टूटे घर के द्वार पर चुपचाप रुकी और काले वस्त्रों से आच्छादित एक स्त्री-मूर्ति ने बाहर निकलकर धीरे से द्वार पर थपकी दी। तत्काल द्वार खुला और स्त्री ने घर में प्रवेश किया।

बूढ़ी ने कहा–‘खैर तो है?’

‘सब ठीक है, क्या मौलवी साहब मौके पर मौजूद हैं?’

‘कब से इंतजार कर रहे हैं, कुछ ज्यादा जाँफ़िसानी तो नहीं करनी पड़ी?’

‘जाँफ़िसानी? चेखुश, जान पर खेलकर लायी हूँ, करती भी क्या? गर्दन थोड़े ही उतरवानी थी।’

‘होश में तो है?’

‘अभी बेहोश है। किसी तरह राजी न होती थी। मजबूरन यह किया गया।’

‘तब चलें।’

बुढ़िया उठी। दोनों पालकी में जा बैठीं। पालकी संकेत पर चलकर मस्जिद की सीढ़ियाँ चढ़ती हुई भीतर चली गयी।

मस्जिद में सन्नाटा और अंधकार था, मानो वहाँ कोई जीवित पुरुष नहीं है। पालकी के आरोहियों को इसकी परवाह न थी। वे पालकी को सीधे मस्जिद के भीतरी कक्ष में ले गये। यहाँ पालकी रखी। बुढ़िया ने बाहर आकर एक कोठरी में प्रवेश किया। वहाँ एक आदमी सिर से पैर तक चादर ओढ़े सो रहा था। बुढ़िया ने कहा–‘उठिए मौलवी साहब, मुरीदों का ताबीज इनायत कीजिए। क्या अभी बुखार नहीं उतरा?’

‘अभी तो चढ़ा ही है।’ कहकर मौलवी साहब उठ बैठे। बुढ़िया ने कुछ कान में कहा, मौलवी साहब सफेद दाढ़ी हिलाकर बोले–‘समझ, गया कुछ खटका नहीं है। हैदर खोजा मौके पर रोशनी लिये हाजिर पहुँचेगा। मगर तुम लोग बेहोशी की हालत में उसे किस तरह–’

‘आप बेफिक्र रहें! बस, सुरंग की चाभी इनायत करें।’

मौलवी साहब ने उठकर मस्जिद की बायीं ओर के चबूतरों के पीछे वाले भाग में जाकर एक कब्र का पत्थर किसी तरकीब से हटा दिया। वहाँ सीढ़ियाँ निकल आयीं। बुढ़िया उसी तंग तहखाने के रास्ते उसी काले वस्त्र से आच्छादित लम्बी स्त्री के सहारे एक बेहोश स्त्री को नीचे उतारने लगी। उनके चले जाने पर मौलवी साहब ने गौर से इधर-उधर देखा और फिर किसी गुप्त तरकीब से तहखाने का द्वार बन्द कर दिया। तहखाना फिर कब्र बन गया।

उन हजार फ़ानूसों में कसूमी बत्तियाँ जल रही थीं और कमरे की दीवार गुलाबी साटन के परदों से छिप रही थी। फ़र्श पर ईरानी कालीन बिछा था, जिस पर निहायत नफ़ीस और खुशरंग काम बना हुआ था। कमरा खूब लम्बा-चौड़ा था। उसमें तरह-तरह के ताजे फूलों के गुलदस्ते सजे हुए थे और हिना की तेज महक से कमरा महक रहा था। कमरे के एक बाजू में मखमल का बालिस्त भर ऊँचा एक गद्दा बिछा था। उस पर बड़ी सी मसनद लगी थी, जिस पर चार सुनहरे खम्भों पर मोती की झालर का चँदोवा तना था।

मसनद पर एक बलिष्ठ पुरुष उत्सुकता से किन्तु अलसाया बैठा था। इसके वस्त्र अस्त-व्यस्त थे। इसका मोती के समान उज्जवल रंग, कामदेव को मात करने वाला प्रदीप्त सौंदर्य, झब्बेदार मूछें, रस-भरी आँखें और मदिरा से प्रफुल्लित होंठ कुछ और ही समा बाँध रहे थे। सामने पानदान में सुनहरी गिलौरियाँ भरी थीं। इत्रदान में शीशियाँ लुढ़क रही थीं। शराब की प्याली और सुराही क्षण-क्षण पर खाली हो रही थी। वह सुगंधित मदिरा मानो उसके उज्जवल रंग पर सुनहरी निखार ला रही थी। उसके कंठ में पन्ने का एक बड़ा-सा कंठा पड़ा था और उँगलियों में हीरे की अँगुठियाँ बिजली की तरह दमक रही थीं। यही लाखों में दर्शनीय पुरुष लखनऊ के प्रख्यात नवाब वाजिदअली शाह थे!

कमरे में कोई न था। वह बड़ी आतुरता से किसी की प्रतीक्षा कर रहे थे। वह आतुरता क्षण-क्षण पर बढ़ रही थी। एकाएक एक खटका हुआ। बादशाह ने ताली बजायी और वह लम्बी स्त्री मूर्ति सिर से पैर तक काले वस्त्रों में शरीर को लपेटे मानो दीवार फाड़कर आ उपस्थित हुई।

‘आहे मेरी गबरू! तुमने तो इंतजार ही में मार डाला। क्या गिलौरियाँ लायी हो?‘

‘मैं हुजूर पर कुर्बान!’ इतना कहकर वह काला लबादा उतार डाला। उफ गज़ब! उस काले आवेष्टन में मानो सूर्य का तेज छिपा था। कमरा चमक उठा। बहुत बढ़िया चमकीले विलायती साटन की पोशाक पहने एक सौंदर्य की प्रतिमा इस तरह निकल आयी जैसे राख के ढेर में से अंगार। इस अनिष्ट सौंदर्य की रूप-रेखा कैसे बयान की जाय? इस अँगरेजी राज्य और अंगरेजी सभ्यता में जहाँ क्षण-भर चमककर बादलों में विलीन हो जानेवाली बिजली, सड़क पर ढूँढ़ी जाय? इस अंधकारमय रात्रि में उसे खड़ा कर दिया जाय तो कसौटी पर स्वर्ण-रेखा की तरह दीप्त हो उठे, और यदि वह दिन के उज्जवल प्रकाश में खड़ी कर दी जाय, तो उसे देखने का साहस कौन करे? किन आँखों में इतना तेज है?

उस सुगंधित और मधुर प्रकाश में मदिरा-रंजित नेत्रों से वाजिदअली की वासना उस रूप-ज्वाला को देखते ही भड़क उठी। उन्होंने कहा, ‘रूपा, जरा नजदीक आओ। एक प्याला शीराजी और अपनी लगायी हुई अम्बरी पान की बीड़ियाँ तो दो! तुमने तो तरसा-तरसाकर ही मार डाला।’

रूपा आगे बढ़ी, सुराही से शराब उड़ेली और जमीन में घुटने टेककर आगे बढ़ा दी, इसके बाद उसने चार सोने के वर्क-लपेटी बीड़ियाँ निकालकर बादशाह के सामने पेश की और दस्तबस्ता अर्ज की–‘हुजूर की खिदमत में लौंड़ी वह तोहफा ले आयी है!’

वाजिदअली शाह की बाछें खिल गयीं। उन्होंने रूपा को घूरकर कहा ‘वाह। तब तो आज...’ रूपा ने संकेत किया। हैदर खोजा फूल-सी मुरझायी कुसुम-कली को फूल की तरह हाथों पर उठाकर–पान-गिलौरी की तश्तरी की तरह–बादशाह के रूबरू कालीन पर डाल गया। रूपा ने बाकी अदा कहा–हुजूर को आदाब।’ और चल दी।

एक चौदह वर्ष की, भयभीत, मूर्च्छित, असहाय, कुमारी बालिका अकस्मात् आँख खुलने पर सम्मुख शाही ठाट से सजे हुए महल और दैत्य के सामन नरपशु को पापवासना से प्रमत्त देखकर क्या समझेगी? कौन अब इस भयानक क्षण की कल्पना करे। वही क्षण, होश में आते ही उस बालिका के सामने आया। वह एकदम चीत्कार करके फिर से बेहोश हो गयी। पर इस बार शीघ्र ही उसकी मूर्च्छा दूर हो गयी। एक अतर्क्य साहस, जो ऐसी अवस्था में प्रत्येक जीवित प्राणी में हो जाता है, उस बालिका के शरीर में उदय हो आया। वह सिमटकर बैठ गयी और पागल की तरह चारों तरफ एक दृष्टि डालकर एकटक उस मत पुरुष की ओर देखने लगी।

उस भयानक क्षण में भी उस विशाल पुरुष का सौंदर्य और प्रभा देखकर उसे कुछ साहस हुआ। वह बोली तो नहीं पर कुछ स्वस्थ होने लगी।

नवाब जोर से हँस दिये। उन्होंने गले का वह बहुमूल्य कंठा उतारकर बालिका की ओर फेंक दिया। इसके बाद वह नेत्रों के तीर निरंतर फेंकते बैठे रहे। बालिका ने कंठा देखा भी नहीं, छुआ भी नहीं, वह वैसी ही सिकुड़ी हुई, वैसी ही निर्निमेष दृष्टि से भयभीत हुई नवाब को देखती रही।

नवाब ने दस्तक दी। दो बाँदियाँ दस्तबस्ता आ हाजिर हुईं। नवाब ने हुक्म दिया–इसे गुस्ल कराकर और सब्जपरी बनाकर हाजिर करो। उस पुरुष-पाषाण की अपेक्षा स्त्रियों का संसर्ग गनीमत जानकर बालिका मंत्र-मुग्ध-सी उठकर उनके साथ चली गयी।

इसी समय एक खोजे ने आकर अर्ज की–खुदाबंद! साहब बहादुर बड़ी देर से हाजिर हैं।

‘उनसे कह दो, अभी जच्चाखाने में हैं, अभी मुलाकात नहीं होगी।’

‘आलीजाह। कलकत्ते से एक जल्दी...’

‘मर मुए, हमारे पीर उठ रही है।’

खोजा चला गया।

लखनऊ के खास बाजार की बहार देखने योग्य थी। शाम हो चली थी और छिड़काव हो गया था। इक्को और बहलियों, पालकियों और घोड़ों का अजीब जमघट था। आज तो उजाड़ अमीनाबाद का रंग ही कुछ और है। तब यही रौनक चौक को प्राप्त थी। बीच चौक में रूपा की पानों की दूकान थी। फानूसों और रंगीन झाड़ों से जगमगाती गुलाबी रोशनी के बीच स्वच्छ बोतल में मदिरा की तरह रूपा दूकान पर बैठी थी। दो निहायत हसीन लौड़ियाँ पान की गिलौरियाँ बनाकर उनमें सोने का वर्क लपेट रही थी। बीच-बीच में अठखेलियाँ भी कर रही थीं। आजकल के कलकत्ते के कोरिंथियन थियेटर रंच-मंच पर भी ऐसा मोहक और आकर्षक दृश्य नहीं दीख पड़ता जैसा उस समय रूपा की दूकान पर था। ग्राहकों की भीड़ का पार न था। रूपा खास-खास ग्राहकों का स्वागत कर, पान दे रही थी। बदले में खनाखन अशर्फियों से उसकी गंगा-जमुनी काम की तश्तरी भर रही थी। वे अशर्फियाँ रूपा की एक अदा, एक मुस्कराहट–केवल एक कटाक्ष का मोल थी पान की गिलौरियाँ तो लोगों को घाते में पड़ती थीं। एक नाजुक-अंदाज़ नवाबज़ादे तामजाम में बैठे अपने मुसाहबों और कहारों के झुंड के साथ आये, और रूपा की दुकान पर तामजाम रोका। रूपा ने सलाम करके कहा–‘मैं सदके शाहजादा साहब, जरा बाँदी की एक गिलौरी कुबूल फर्मावें।’ रूपा ने लौड़ी की तरफ इशारा किया। लौड़ी सहमती हुई सोने की एक रकाबी में ५-७ गिलौरियाँ लेकर तामजाम तक गयी। शाहजादे ने मुसकिराकर दो गिलौरियाँ उठायी, एक मुट्ठी अशर्फियाँ तश्तरी में डालकर आगे बढ़े। एक खाँ साहब बालों में मेंहदी लगाये, दिल्ल के बासली के जूते पहने, तनजेब की चपकन कसे, सिर पर लैसदार ऊँची चोटी लगाये आये। रूपा ने बड़े तपाक से कहा– ‘अख्खा, खाँ साहब! आज तो हुजूर रास्ता भूल गये! अरे कोई है, आपको बैठने की जगह दे। अरी गिलौरियाँ तो लाओ।’

खाँ साहब रूपा के रूप की तरह चुपचाप गिलौरियों के रस का घूँट पीन लगे। थोड़ी देर में एक अँधेड़ मुसलमान अमीरजादे की शकल में आये। उन्हें देखते ही रूपा ने कहा–‘ अरे हुजूर तशरीफ ला रहे हैं। मेरे सरकार, आप तो ईद के चाँद हो गये। कहिए, खैराफ़ियत है? अरी, मिर्ज़ा साहब को गिलौरियाँ दीं?’ तश्तरी में खनाखन हो रही थी और रूपा की रूप और पान की हाट खूब गरमा रही थी। ज्यों-ज्यों अंधकार बढ़ता जाता था, त्यों-त्यों रूप पर रूपा की दुपहरी चढ़ रही थी। धीरे-धीरे एक पहर रात बीत गयी। ग्राहकों की भीड़ कुछ कम हुई। रूपा अब सिर्फ कुछ चुने हुए प्रेमी ग्राहकों से घुल-घुलाकर बातें कर रही थी। धीरे-घीरे एक अजनबी आदमी दूकान पर आकर खड़ा हो गया।

रूपा ने अप्रतिभ होकर पूछा–‘आपको क्या चाहिए?’

‘आप के पास क्या-क्या मिलता है?’

‘बहुत-सी चीजें। क्या पान खाइएगा?’

‘क्या हर्ज है?’

रूपा के संकेत से दासी बालिका ने पान की तश्तरी अजनबी के आगे धर दी।

दो बीड़ियाँ हाथ में लेते हुए उसने कहा–‘इनकी कीमत क्या है बी साहबा!’

‘जो कुछ जनाब दे सकें।’

‘यह बात है! तब ठीक, जो कुछ मैं ले सका, वह लूँगा भी!’ अजनबी हँसा नहीं। उसने भेद भरी दृष्टि से रूपा को देखा।

रूपा की भृकुटी जरा टेढ़ी पड़ी और वह एक बार तीव्र दृष्टि से देखकर फिर अपने मित्रों के साथ बातचीत में लग गयी! पर बातचीत का रंग जमा नहीं। धीरे-धीरे मित्रगण उठ गये। रूपा ने एकांत पाकर कहा– ‘क्या हुजूर का मुझसे कोई खास काम है?’

‘मेरा तो नहीं, मगर कम्पनी बहादुर का है।’

रूपा काँप उठी। वह बोली–‘कम्पनी बहादुर का क्या हुक्म है?’

‘भीतर चलो कहा जाय।’

‘मगर माफ कीजिए– आप पर यकीन कैसे हो?’

‘ओह! समझ गया। बड़े साहब की यह चीज तो तुम शायद पहचानती ही होगी?’

यह कहकर उन्होंने एक अँगूठी दूर से दिखा दी।

‘समझ गयी! आप अंदर तशरीफ लाइए!’

रूपा ने एक दासी को अपने स्थान पर बैठाकर अजनबी के साथ दूकान के भीतरी कक्ष में प्रवेश किया।

दोनों व्यक्तियों में क्या बातें हुईं, यह तो हम नहीं जानते, मगर उसके ठीक तीन घंटे बाद दो व्यक्ति काला लबादा ओढ़े दूकान से निकले और किनारे लगी हुई पालकी में बैठ गये। पालकी धीरे-धीरे उसी भूतों वाली मस्जिद में पहुँची। उसी प्रकार मौलवी ने कब्र का पत्थर हटाया और एक मूर्ति ने कब्र के तहखाने में प्रवेश किया। दूसरे व्यक्ति ने एकाएक मौलवी को पटककर मुश्कें बाँध ली और एक संकेत किया। क्षण-भर में ५० सुसज्जित काली-काली मूर्तियाँ आ खड़ी हुईं और बिना एक शब्द मुँह से निकाले चुपचाप कब्र के अंदर उतर गयीं।

अब फिर चलिए अनंगदेव के उसी रंग मन्दिर में। सुख-साधनों से भरपूर वही यह कक्ष आज सजावट खतम कर गया था। सहसा उल्कापात की तरह रंगीन हंडियाँ, बिल्लौरी फ़ानूस और हज़ारा झाड़ सब जल रहे थे। तत्परता से, किंतु नीरव बाँदियाँ और गुलाम दौड़-धूप कर रहे थे। अनगिनत रमणियाँ अपने मदभरे होठों की प्यालियों में भाव की मदिरा उँडेल रही थी। उन सुरीले रागों की बौछारों में बैठे बादशाह वाजिदअली शाह सराबोर हो रहे थे। उस गायनोन्माद में मालूम होता था, कमरे में जड़ पदार्थ भी मतवाले होकर नाच उठेंगे। नाचने वालियों के ठुमके और नूपुर की ध्वनि सोते हुए यौवन से ठोकर मार कर कहती थी–‘उठ-उठ, ओ मतवाले उठ!’ उन नर्तकियों के बढ़िया चिकनदोजी के सुवासित दुपटों से निकली हुई सुंगध उनके नृत्यवेग से विचलित वायु में साथ घुल-मिलकर गदर मचा रही थी। पर सामने का सुनहरा फब्बारा, जो सामने स्थिर ताल पर बीस हाथ ऊपर फेंककर रंगीन जलविंदु-रश्मियों से हाथापाई कर रहा था, देखकर कलेजा बिना उछले कैसे रह सकता था!

उसी मसनद पर बादशाह वाजिदअली शाह बैठे थे। एक गंगाजमनी काम का अलबोला वहाँ रखा था, जिसकी खमीरी मुश्की तम्बाकू जलकर एक अनोखी सुंगध फैला रही थी। चारों तरफ सुंदरियों का झुरमुट उन्हें घेरे बैठा था। सभी अधनंगी उन्मत्त, निर्लज्ज हो रही थी। पास ही सुराहियाँ और प्यालियाँ रखी थीं और बारी-बारी से उन दुर्बल होठों को चूम रही थीं। आधा मद पी-पीकर वे सुंदरियाँ उन प्यालियों को बादशाह के होठों में लगा देती थीं। वह आँखें बंद करके उसे पी जाते थे। कुछ सुंदरियाँ पान लगा रही थीं, कुछ अलबोले की निगाली पकड़े हुई थीं। दो सुदंरियाँ दोनों तरफ पीकदान लिये खड़ी थीं, जिनमें बादशाह कभी पीक गिरा देते थे!

इस उल्लसित आमोद के बीचोबीच एक मुर्झाया पुष्प–कुचली हुई पान की गिल्लौरी–वह बालिका बहुमूल्य हीरेखचित वस्त्र पहिने–बादशाह के बिलकुल पास में लगभग मूर्च्छित और अस्तव्यस्त पड़ी थी। रह-रहकर शराब की प्याली उसके मुख से लग रही और वह खाली कर रही थी। एक निर्जीव दुशाले की तरह बादशाह उसे अपने बदन से सटाये मानो तमाम इंद्रियों को एक ही रस में सराबोर कर रहे थे। गंभीर आधी रात बीत रही थी। सहसा इसी आनंद-वर्षा में बिजली गिरी। कक्ष के उसी गुप्त द्वार को विदीर्ण कर क्षण-भर में वही रूपा काले आवरण से नखशिख ढके निकल आयी। दूसरे क्षण में एक और मूर्ति वैसे ही आवेष्टन में बाहर निकल आयी। क्षण-भर बाद दोनों ने अपने आवेष्टन उतार फेंके। वही अग्निशिखा ज्वलंत रूपा और उसके साथ गौरांग कर्नल!

नर्तकियों ने एकदम नाचना-गाना बंद कर दिया। बाँदियाँ शराब की प्यालियाँ लिये काठ की पुतली की तरह खड़ी की खड़ी रह गयीं। केवल फ़ब्वारा ज्यों का त्यों आनंद से उछल रहा था। बादशाह यद्यपि बिल्कुल बदहवास थे, मगर यह सब देखकर वह मानो आधे उठकर बोले–‘ओह! रूपा दिलरुबा! तुम और ऐ मेरे दोस्त कप्तान–इस वक्त, यह क्या माजरा है?’

आगे बढ़कर और अपनी चुस्त पोशाक ठीक करते हुए तलवार की मूठ पर हाथ रख कप्तान ने कहा–‘कल आलीजाह की बंदगी में हाजिर हुआ था, मगर... ’

‘ओफ! मगर –इस वक्त इस रास्ते से? ऐं माजरा क्या है? अच्छा बैठो, हाँ, जोहरा, एक प्याला मेरे दोस्त कर्नल के...’

‘माफ करें हुजूर! इस समय मैं एक काम से सरकार की खिदमत में हाजिर हुआ हूँ।’

‘काम! वह काम क्या है?’–बैठते हुए बादशाह ने कहा।

‘मैं तख़लिए में अर्ज किया चाहता हूँ।’

‘तख़लिया! अच्छा, अच्छा, ज़ोहरा! ओ क़ादिर!’

धीरे-धीरे रूपा को छोड़कर सभी बाहर निकल गयीं। उस सौंदर्य–स्वप्न में रह गयी अकेली रूपा। रूपा को लक्ष्य करके कहा–‘यह तो गैर नहीं। रूपा! दिलरुबा एक प्याला अपने हाथो से दो तो।’ रूपा ने सुराही से उँडेल लबालब प्याला भरकर बादशाह के होठों से लगा दिया। हाय! लखनऊ के नवाब का यही अन्तिम प्याला था। उसे बादशाह ने आँखें बंदकर, पीकर कहा ‘वाह प्यारी!’

‘हाँ, तो अब वह बात मेरे दोस्त...

‘हुजूर को जरा रेजिडेंसी तक चलना पड़ेगा।’

बादशाह ने उछलकर कहा–‘ऐ’ यह कैसी बात? रेजिडेंसी तक मुझे?’

‘जहाँपनाह, मैं मजबूर हूँ, काम ऐसा ही है!’

‘इसका मतलब?’

‘मैं अर्ज़ नहीं कर सकता। कल मैं यही तो अर्ज़ करने हाजिर हुआ था।’

‘गैर मुमकिन! गैर मुमकिन!’ बादशाह गुस्से में होंठ काटकर उठे। और अपने हाथ में सुराही से उँडेलकर ३-४ प्याली पी गये। धीरे-धीरे उसी दीवार से एक-एक करके चालीस गोरे सैनिक संगीन और किर्च सजाये कक्ष में घुस आये।

बादशाह देखकर बोले–‘खुदा की क़सम, यह तो दगा है। क़ादिर!’

जहाँपनाह, अगर खुशी से मेरी अर्जी कबूल न करेंगे, तो खूनखराबी होगी। कम्पनी बहादुर के गोरों ने महल घेर लिया है। अर्ज़ यही है कि सरकार चुपचाप चले चलें।’

बादशाह धब से बैठ गये। मालूम होता है, क्षण भर के लिए उनका नशा उतर गया। उन्होंने कहा–‘तुम सब क्या मेरे दुश्मन होकर मुझे कैद करने आये हो?’

‘मैं हुजूर का दोस्त हर तरह हुजूर के आराम और फ़रहत का ख्याल रखता हूँ, और हमेशा रखूँगा।’

बादशाह ने रूपा की ओर देखकर कहा–‘रूपा! रूपा! यह क्या माजरा है? तुम भी क्या इस मामले में हो? एक प्याला–मगर नहीं, नहीं। अच्छा–सब साफ़-साफ़ सच कहो। कर्नल मेरे दोस्त–नहीं, अब नहीं, अच्छा कर्नल। सब खुलासावार बयान करो।’

‘सरकार, ज्यादा मैं कुछ नहीं कर सकता। कम्पनी बहादुर का खास परवाना लेकर खुद लाट साहब तशरीफ लाये हैं और आलीजाह से कुछ मशविरा किया चाहते हैं।’

‘मगर यहाँ?’

‘यह नामुमकिन है।’

बादशाह ने कर्नल की तरफ देखा। वह तना खड़ा था और उसका हाथ तलवार की मूठ पर था।

‘समझ गया, सब समझ गया!’ यह कहकर बादशाह कुछ देर हाथों से आँख ढाँपकर बैठ गये। कदाचित् उनकी सुन्दर रस भरी आँखों में आँसू भर आये हो।

रूपा ने पास आकर कहा–‘मेरे खुदाबन्द, बंदी...’

‘हट जा, ऐ नमकहराम, रज़ील बाजारू औरत!’ बादशाह ने यह कहकर एक ठोकर लगायी और कहा–‘तब चलो, मैं चलता हूँ, खुदा हाफ़िज।’

पहले बादशाह, पीछे कप्तान, उसके पीछे रूपा, और सबके अन्त में एक-एक करके सिपाही उसी दरार में विलीन हो गये। महल में किसी को कुछ मालूम न था। वह मूर्तिमान संगीत–वह उमड़ता हुआ आनन्द-समुद्र सदा के लिए मानो किसी जादूगर ने निर्जीव कर दिया।

कलकत्ते के एक उजाड़-से भाग में एक बहुत विशाल मकान में वाजिदअली शाह नजरबन्द थे। ठाट लगभग वही था। सैकड़ों दासियाँ, बाँदियाँ और वेश्याएँ भरी हुई थीं, पर वह लखनऊ के रंग कहाँ?

खाना खाने का वक्त हुआ, और दस्तरखान पर खाना चुना गया, तो बादशाह ने चख-चखकर फेंक दिया। अँगरेज अफसर ने घबड़ाकर पूछा–‘खाने में क्या नुक्स है?’

जवाब दिया गया–‘नमक खराब है।’

‘नवाब कैसा नमक खाते हैं?’

‘एक मन का डला रखकर उस पर पानी की धार छोड़ी जाती है। जब घुलते-घुलते छोटा सा टुकड़ा रह जाता है तब बादशाह के खाने में वह नमक इस्तेमाल होता है।’

अँगरेज अधिकारी मुस्कराता चला गया। क्यों? ओह! हम लोगों के समझने के योग्य यह भेद नहीं।

उसी रसरंग की दीवारों के भीतर अब सरकारी दफ्तर खुल गये हैं। और अमन कैसर बाग मानो रंडुए की तरह खड़ा उस रसीली रात की याद में सिर धुन रहा है।

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