पाँच लघु कथाएँ (नेपाली कहानियाँ) : योगप्रसाद उपाध्याय चापागाईं
1. शिक्षक
कक्षा में शिक्षक पाठ पढ़ा रहे थे कि "शिक्षा धन से अधिक महत्वपूर्ण है ।" राम बहादुर प्रमिला को धन की ओर आकर्षित करना चाहता था और उसका लाभ उठाकर घर बसाना चाहता था । दूसरी ओर प्रमिला सोच रही थी कि कहीं वह अपनी पढ़ाई न छोड़ दे ।
उसी समय, "धन से शिक्षा बडा है" प्रमिला की इस सोच को बदले के लिए राम बहादुर ने प्रमिला को कहा कि- "देखो, शिक्षक नें पहने हुए सोने की अंगूठी उन की बोली से क्या कम प्रभावशाली है ॽ यही कारण है कि उनका "शिक्षा से बड़ा कुछ नहीं है" कहना गलत है । खासकर धन शिक्षा से बड़ा है ।"
प्रमिला ने जवाब दि, “मुझे उस सोने की अंगूठी से ज्यादा शिक्षा की जरूरत है । वह शिक्षा जो मुझे बुद्धिमान बनाए ।"
राम बहादुर ने पुछा, "अंत में पढ़ भी लो तो भी तो वही सोने की अंगूठी न लगाओगी ना ?"
"नहीं । मुझे अब सोने की मोह नहीं है । मैं यहां सोना कमाने नहीं आयि हूं । ज्ञान बढ़ाने के लिए आयि हुं । मुझे शिक्षा चाहिए, आभूषण नहीं," प्रमिला ने उत्तर दिया ।
"क्या तुम गहनों के बिना रहोगी ?" क्या तुम किस्मत वाली नहि हो ? क्या तुम्हारे भाग्य में सोने के गहने नहीं हैं ?" राम बहादुर ने प्रमिला के दिल में धन की बीज रोप्ने के स्वोर में कहा ।
रामबहादुर की बातें सुनकर प्रमिला का मन बहकने लगा था । प्रमिला ने सिर झुका लि थि । राम बहादुर खुश दिखने लगा ।
उधर प्रमिला सोचने लगि, "क्या हमें भी वही करना चाहिए जो किसि ने किया है ?"
राम बहादुर और प्रमिला के बीच गपशप के बारे में शिक्षक को पता चला । शिक्षक ने कहा, "राम बहादुर! प्रमिला !! क्या हुआ है तुम दोनो को ?"
प्रमिला के मुँह से निकली, "सर!" आप कह रहे है कि ज्ञान महान है लेकिन आप की उंगली धन दिखा रही है !
"यहि सोने की अंगूठी है ना जो तुम को धन बडा बना रहा है ॽ" तुम ने सोचा था कि मैंने जो कहा वह व्यवहार में नहीं था, है ना ?"
शिक्षक की बात सुनकर सभी छात्र हंस पड़े।
शिक्षक ने तुरंत अपने को नियंत्रण कर कहा, "क्या यह सोना आपको पढ़ने से विचलित कर रहा है ? इस सोने की अंगूठी को देखो ।" कहकर अंगूठी उतार लिया और बाहर से एक पत्थर लाकर अंगूठे को फोड दिया ।
यह देखकर प्रमिला ने समझ लि कि सच में बडा कौन है और कहा- "अब मै धन के पिछे नहि पडुगीं, धन कमाने की चक्कर में भि नहि फसुंगी, सर ।"
प्रमिला की इस बात को सुन कर शिक्षक ने स्याबासी देते हुए कहा "अब बिना हिम्मत हारे पढ़ना शुरू करो ।"
2. लालची ब्राह्मण
लोभी बाजे पहली नजर में हकीम साहब की तरह लगते थे । दौरा(कुर्ता), सुरवाल, इस्तकोट और ढाका की टोपि पहन कर सजते थे । आज भी बाजे सज-धज कर सड़क पर निकल पड़े । वहां उनकी मुलाकात धनसिं लिम्बु से हुई और उस ने कहा कि "शर्मा डेरी और मिठाई दूकान में दूध वाली गाढ़ी चाय खाने को चलो ।" लोभी बाजे धनसिं के पिछे पिछे चल पडे ।
साहू धनीराम शर्मा जो काउंटर पर बैठ रहा था पूछा, "क्या खाओगे ?"
धनसिं ने कहा, " दूध के गाढ़ी चाय । चाय पक जाते वक्त हमें चाय के साथ कुछ खाने को देदो ।"
सेठ नें मिठाई की तरह दिखने वाली नमकीन और चाय ले आए और टेबल पर रख दिया ।
लोभी बाजे ने मीठाई कहते हुए मुँह में डाला ।
चबाकर उन्होने थूक दिया और धनसिं से कहा, "पापी है शर्मा डेरी का सेठ । भैंस का मांस से बनी मिठाई खिलाया । मेरी जाति को नष्ट कर दिया है ।"
धनसिं उसकी बातें सुनकर हैरान रह गया और कहा, "जब तुम भैंसे का मांस खाओगे, तो जाति चली जाएगी और तुम मर जाओगे ॽ"
"आप जानते हैं, धनसिं ! मैंने उपवास किया है और जनेउ धारण किया है । जब मै ने उपनयन कर जनेउ पहना है, मुझे भैंस का मांस नहीं खाना चाहिए था ।"
"तो, अब तुम्हे फिर से उपवास करना है ।" धनसिं ने लोभी बाजे की जाति को दोवारा लाने की राह में कहा ।
''मैं व्रत दोहराने जैसा कठिन काम नहीं कर सकता । मैं नदी में स्नान कर मंदिर जाऊंगा और अपने पहचाने ब्राह्मण को गौदान दूंगा ।'' लोभी बाजे बिना चाय पिए गौदान करने नदी की ओर चल पडा ।
3. केक खाने के बाद
पोता, जो पीठ पर किताब का झोला लेकर स्कूल से आया था, उसने झोले से एक पैकेट निकाला और बुढे दादाजी को दिया, जो बरंदे पर बैठे थे और साम की शीतल हवा खा रहे थे । दादाजी ने उसके चेहरे पर मुस्कान लाते हुए पूछा, "यह क्या है पोता ?"
"दादाजी, मेरा बर्थडे केक । आज मैडम ने मेरा बर्थडे स्कूल में हि मना दि थि ।"
दादाजी ने केक मुंह में डालते हुए कहा, "तुम भाग्यवान हो पोता । तुम अपने पिता के समान हो ।"
पोते ने कहा, "दादाजी, लोग कहते हैं कि केक खाने से जाति चली जाती है, क्या यह सच है ॽ" और अपना झोला लेकर कमरे में प्रवेश किया ।
दादाजी के लिए पोते का केक मुँह की खाना हो चुके थे । पोते की "जाति चली जाती है ॽ" सुनकर उन का गला सूख गया । पसीना निकला । हाथ और पैर कांपने लगे । "पोता पोता ! पंखा, पा..नी..." टुटी हुइ आवाज मे बोले ।"
पोता "दादाजी, दादाजी !" कहकर दौड़ता हुआ आया और उन को पंखा लगाने लगा जो अपनी मौत की घाट उतार रहे थे । पोते ने मुंह में पानी डालने की कोशिश की । लेकिन दादाजी ने अपना मुंह पहले ही बांध लिए थे । दादाजी के दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गयि ।
उसे याद आया और रोने लगा "दादाजी, मेरे प्यारे ....!"
4. इंसान की सुरिली आवाज
मैं सहर की परिक्रमा करने निकला हूं । मैंने अपनी यात्रा नदि के तट से शुरू की । मैं नदियों, जंगलों और पहाड़ियों से गुज़र रहा था, कभी महल में, कभी झोपडी में तो कभी पेड़ों के नीचे रात बिता रहा था । वृत्ताकार पथ को छोड़कर परिक्रमा के लिए कोई निश्चित मार्ग नहीं था ।
रास्ते में जहां जंगल था, वहां सड़क काटने के लिए मुझे अपनी जान जोखिम में डालनी पड़ी । मृगचरण ओह ! कितना सुंदर है । कभी-कभी बाघ भी हिरण का शिकार करने के लिए आता हैं । जंगल के किनारे से प्रवेश करते समय एक अद्भुत नजारा दिखाइ पडा ।
अचानक एक आवाज आई । मेरे सिर के ऊपर से आई आवाज को सुनकर मैंने सीधे ऊपर देखा । यह निश्चित रूप से एक मानव बच्चा होना चाहिए । वह पेड़ की डाली पर बैठा फल खा रहा था । अद्भुत ! यहां तक कि बड़े बच्चों की शरीर में एक भी पहनवा नहीं थे । बाहर की तरफ, वे सब जिस गाँव में रहते है, बर्तन जैसे दिखाइ दे रहा था । शायद घर हो सकता है पौंधे जैसे थे ।
"हन्डी-खोपडा तत्काल है ... ह्याँ, टोपी वलकल ह्वाँ !"
एक नंगी औरत आवाज को दूर तक लाने के लिए अपनी दोनों हथेलियों से आवाज सुरिली बनाकर ऐसा कह रही है । जब उसने मुझे देखि, उसने अपनी शर्म को अपनी हथेली से ढकने की कोशिश की । जानवरों की बड़ी-बड़ी हड्डियाँ, मिट्टी के घड़े, हन्डी, पत्ते और कुडे थे । उनकि खाने की जगह पर चारों तरफ धूल था । मैंने उस जगह की ओर देखा जहां वह आवाज भेजने की कोशिश कर रहि थि । उस्का मर्दाना एक मछली, थाली की तरह और टोपी जैसा खोखला पेढ के छिल्के कच्चे लकडी पर लटका कर ला रहा था । जैसे कि उसने अपनी कमर के चारों ओर पत्ता बांध रखा है । यह देखकर मैं डर गया और जल्दी से अपना पैर चलाने लगा और अपने रास्ते पर निकल पडा ।
वह आवाज उनकी भाषा की थि । वह जवानी औरत उस पुरूष से कह रही थि, "यहाँ मैं ने हन्डी और हड्डियाँ गरम किए हैं, वहाँ से थाली के लिए पेड़ की छाल लेकर भोजन करने जल्दि आ ।"
5. चुडैल
घुरंग का दौरा (कुर्ता) सुरुवाल पहने हुए थे । सुंदर चेहरा, नुकीली नाक । माथे के बीच में चंदन का लंबा तिलक । लंबे बाल भूरा चेहरा । ठुड्डी पर दाढ़ी । शुक्रराज ३२ साल का चरवाहा है ।
आषाढ के महीने में सभी वन पौधे बारिश से प्रभावित हुए थे । जब शुक्रराज गाय चराने के बाद घर लौटते थे, तो कभी बांस, कभी बाँस का तांबा, कभी वनौषधि ले आते थे । आज शुक्रराज जलाऊ लकड़ी का गट्ठर लेकर नदी के किनारे से आए थे ।
"आह... प्रिय युवक! तुम कितने निष्ठुर हो । मैं तुमसे बहुत प्यार करती थि ।"
उस सुंदरता ने शुक्रराज को अपना सीना दिखाया ।
सुन्दरी का चेहरा डरावना था, उसके दन्त भी उसके गाल से निकले हुए थे ।
स्वप्न से जागे शुक्रराज योगी की कुटिया की ओर दौड़े और ऊँचे स्वर में कहने लगे "चुडैल, चुडैल !"
(अनुवाद खुद योगप्रसाद उपाध्याय चापागाईं)