पागल (अंग्रेज़ी कहानी) : रघुनन्दन

Paagal (English Story in Hindi) : Raghunandan

एक अज्ञात ग्राम का परित्यक्त मंदिर। मंदिर की प्राचीन पत्थर की दीवारों से वट वृक्ष की जड़ें निकलकर दीवारों में दरार उत्पन्न कर रही थीं। चिड़ियों व चमगादड़ों की विष्ठा की सड़न से लगता था कि वर्षों से मंदिर में पूजा आदि नहीं होती थी। शायद मंदिर के भगवान् उपासकों की समस्याओं का समाधान करने में असफल साबित हो गए थे। या मंदिर के स्वामी की देखभाल में कोई रुचि नहीं थी। या मंदिर की जायदाद लोगों ने हड़प ली थी, या ग्राम में किसी व्याधि के प्रकोप से लोगों ने ग्राम छोड़ दिया था तथा सदियों बाद ग्राम पुनः आबाद हुआ था। कुछ भी कारण हो, मंदिर धार्मिक प्रवृत्तियों के अनुकूल नहीं रह गया था।

ग्रामवासियों ने अनेक नए मंदिर बना लिये थे, जहाँ श्रद्धावान उपासकों की भीड़ लगी रहती थी। वे अपने स्वनिर्मित भगवान् से कभी प्रार्थना, कभी शिकायत करते तथा कभी-कभी तो लड़ाई भी कर लेते, पर प्राचीन मंदिर को एकदम भूल गए थे। फिर भी इस परित्यक्त प्राचीन मंदिर में एक व्यक्ति रहता था तथा मंदिर की ही तरह वह भी गंदा, उलझे हुए बाल, बढ़ी हुई दाढ़ी, मानो कभी स्नान नहीं किया हो, फटे हुए चीथड़े पहने रहता था।

ग्राम का नवयुवक विनोद कहता कि मंदिर में घोंसला बनाकर रहनेवाली चिड़ियाँ तथा चमगादड़ कैसे इस गंदे आदमी को सहन करते थे। पर इस सबके बावजूद ग्रामवासियों की उसके साथ सहानुभूति अवश्य थी, क्योंकि रोज ही उसको खाने के लिए कुछ दे देते थे। कभी-कभी तो वह खा भी लेता था, पर अधिक बार वह भोजन छूता भी नहीं था। वह स्वयं से ही बात करता रहता तथा लोग उसे पागल समझते थे।

पर हममें से अधिकांश व शायद सभी यही तो हर समय करते रहते हैं। यदि हम शांत होकर अपना निरीक्षण करें तो पाएँगे कि हमारा मन भी इसी प्रकार चारों ओर घूमता रहता है। यहाँ मानो एक पूर्वाभ्यास (रिहर्सल) कक्ष है, जहाँ हम अपने मित्रों व शत्रुओं के साथ वार्त्तालाप का अभिनय करते रहते हैं। एक रूपरेखा व योजना कक्ष है। एक सपनों व कल्पनाओं का कक्ष है। वह अपने रूप-कपड़ों तथा अपनी नग्नता से भी अनभिज्ञ था।

कभी-कभी यह पागल रात्रि के तृतीय प्रहर में गाँव की सड़क पर घूमने निकल जाता तथा अपने गँवारू, पर मधुर स्वरों में विचित्र गीत गाता। स्त्रियाँ डरकर मकान के फाटक बंद कर लेतीं तथा माताएँ बच्चों को पागल की आवाज से डराकर दूध पिलाने का या कुछ खिलाने का या सुलाने का प्रयास करतीं।

यदि कभी वह दिन में गाँव में आ जाता तो लड़के तथा बालक निर्भय होकर उस पर पत्थर फेंकते। शायद इस कारण कि उसके विचारों और भावनाओं के खुलेपन, बालकवत् व्यवहार व सत्यता को हम सहन नहीं कर पाते। यदि कोई हमें हमारी सीमाओं की सत्यता बताता है तो हमारा क्रोध उग्रतर हो उठता है। शायद यह पागल हमें सहनशीलता की शिक्षा स्वयं के व्यवहार व कार्यों से देता है।

अत्यधिक आश्चर्य तो इस बात का था कि कोई नहीं समझता कि वह क्या बोल रहा है, क्या गा रहा है, क्यों इधर-उधर घूम रहा है, पर जो उसे गहराई से देखता तो उसके चेहरे पर एक अलौकिक प्रसन्नता, जो साधारणतयाः देखने में नहीं आती, प्रकट होती थी। उस पर फेंकी जाती हुई ईंटें मानो उसे फूल लगते थे। पर समाज भावनाओं की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं देना चाहता कि जनता सारी सीमाएँ तोड़ देगी। शायद इसी कारण ब्राह्मणों व राजाओं ने आपसी साँठ-गाँठ कर उपहार व दंड, स्वर्ग व नरक की कथाएँ जनता में एक तरह का भय उत्पन्न करने के लिए रच दी हैं।

एक बच्चे के मन में माँ से उसे सुलाने के लिए पागल की कथाएँ सुनकर उस पागल के पास जाने की इच्छा जाग्रत् हो गई। बहुत से बच्चों की यह इच्छा थी, पर विष्णु शर्मा को उस पागल के प्रति कुछ विशेष आकर्षण था। विष्णु के पिता का खेत उस मंदिर के पास ही था तथा जब भी वह खेत पर जाता तो इस पागल को वह देखता। विष्णु को उसके पिता ने पढ़ने के लिए कुंभकोनम के एक गुरुकुल में भेज दिया। गाँव के कुछ प्रबुद्ध लोगों ने विष्णु की प्रतिभा से प्रभावित होकर उसके पिता को दक्षिण की काशी में पढ़ने के लिए भेजने के लिए हठ सा ही किया।

करीब दस साल बाद उसका संपर्क एक अत्यंत विद्वान् मणि कांचन अय्यर से हुआ, उसकी अद्भुत प्रज्ञा थी तथा विष्णु को उसके सामने जाने पर एक अलौकिक सा अनुभव होता था। इतने वर्षों में विष्णु ने शास्त्रों का बौद्धिक अध्ययन तो गंभीरता से अवश्य किया था, पर उसे कभी अनुभूति नहीं हुई थी। पर इस सुव्यक्ति के निकट आने पर उसे एक अनुभूति होती थी, जैसे कोई व्यक्ति अंधकार में मार्ग ढूँढ़ रहा हो और आकाश में बिजली की चमक के प्रकाश से रास्ता मिल जाए।

जब विष्णु ने उनसे इसकी चर्चा की तो वह मुसकराया, कहा कि अपने गुरु के सामने मैं तो केवल धूल का एक कण हूँ। विष्णु की उत्सुकता गुरु के बारे में जानने की हुई। मणि अय्यर ने कहा कि आजकल वे कहाँ हैं, यह तो मैं नहीं जानता हूँ, पर गुरु के बारे में मैं बता सकता हूँ।

देशिकर की बुद्धि बड़ी कुशाग्र थी। दर्शन के सूक्ष्म सिद्धांतों को न केवल वह समझता था, पर बड़ी अच्छी तरह श्रोताओं को समझा भी सकता था। अपने शिक्षकों के लिए वह बहुत प्रतिभाशाली पड़ता था। वाद-विवाद में वह कठिन प्रतिद्वंद्वी तथा विद्वानों को उसमें ज्ञान का असीम सागर दीखता था। अतः विद्वत्गण उसे ईर्ष्या, घृणा तथा हेय भाव से देखने लगे थे।

बुद्धिमत्ता में उसका सामना न कर पाने पर उन्होंने धूर्तता का सहारा लिया। इन लोगों ने ब्रह्मसूत्र पर एक सभा का आयोजन किया। संयोगवश मणि भी इस सभा में गया। देशिकर की यह अंतिम सभा थी। क्योंकि देशिकर को अब पूर्ण विश्वास हो गया कि इन बौद्धिक आयोजनों से व्यक्ति अंतर की गहराइयों में नहीं पहुँच सकता, वह सभा छोड़कर चला गया। अन्य विद्वानों ने उसके जाने पर बड़ी प्रसन्नता का अनुभव किया। मणि देशिकर की अद्वितीयता से, उसकी सहृदयता से तथा उसकी परतत्त्व की खोज की तीव्रता से अत्यंत प्रभावित हो गया था। वह भी सभा छोड़कर देशिकर के पीछे-पीछे चलने लगा। देशिकर शहर से कावेरी नदी की ओर जा रहा था।

एक छायादार वृक्ष के नीचे देशिकर बैठ गया तथा आँखें बंद कर लीं। मणि भी उससे कुछ दूरी पर बैठ उसे देखता रहा। दो घंटे बाद देशिकर ने आँखें खोलीं। उसका ध्यान मणि की ओर गया तथा उसने पूछा कि क्यों वह उसके पीछे आ रहा है। मणि ने जबाव दिया कि उसे लगता है कि उसके प्रश्नों का समाधान देशिकर कर सकते हैं। देशिकर ने मुसकराकर कहा कि प्रश्नों के उत्तर व्यक्ति को स्वयं खोजने पड़ते हैं। दूसरे उसका उत्तर नहीं दे पाएँगे। उसने कहा कि ये बौद्धिक अध्ययन, चर्चाएँ, सभाएँ, संगोष्ठियाँ आदि समाधान नहीं कर सकतीं।

देशिकर खड़ा हो गया। मणि ने आदरपूर्वक चरणस्पर्श किए। देशिकर ने उसके सिर पर हाथ रखकर उसे आशीर्वाद दिया। मणि को एक रहस्यमयी झलक सी दिखाई दी तथा उस प्रकाश में वह चेतनाशून्य हो गया। कुछ देर बाद जब उसकी चेतना लौटी तो देशिकर जा चुका था। मणि ने अत्यंत उदास हो कहा कि उस महापुरुष से उसका यह अंतिम साक्षात्कार था। मणि अब सारे बौद्धिक कार्य छोड़कर आध्यात्मिक खोज में लग गया। देशिकर की चर्चा तथा उसके स्पर्श से प्राप्त हुई झलक ने उसे अपनी वर्तमान स्थिति को समझने में सहायता मिली। जब विष्णु ने देशिकर के आकार-प्रकार, रंग-रूप के बारे में पूछा तो मणि ने जितना भी संभव था, उसे समझाया।

संस्कृत तो विष्णु ने काफी पढ़ ली थी। अब उसका आकर्षण मणि व देशिकर की तरह अनुभूति व सचेतन शून्यता का प्रयास करने के प्रति हो गया। दस साल बाद वह अपने गाँव लौटा। उसे व उसके सारे परिवार के लोगों, खासकर उसकी माँ को अत्यधिक प्रसन्नता हुई। रात को वे सब उसके चारों ओर बैठ गए तथा गुरुकुल, उसके शिक्षकवर्ग, उसके साथी विद्यार्थियों व कुंभकोनम और दुनिया भर के विषयों के बारे में पूछने लगे। विष्णु ने मणि के बारे में, अपने अनुभूति व चेतना की प्राप्ति के लिए आकर्षण के प्रयास के बारे में उन्हें कुछ नहीं बताया। पर उन्हें भरोसा दिलाया कि अब उसने इतना ज्ञान प्राप्त कर लिया है कि अपने पैरों पर खड़ा हो सके। जब उसके पिता ने पूछा कि क्या अब वह परिवार की जिम्मेवारी सँभाल सकता है, ताकि वे मुक्त हो सकें, तो विष्णु तुरंत तैयार हो गया। पिता ने अब वानप्रस्थ ले लिया तथा परिवार की जिम्मेवारी से अपने आपको मुक्त कर लिया।

परिवार के पास गाँव से थोडे़ बाहर की ओर परिवार की खेती के लायक जमीन थी। विष्णु वहाँ जाने लगा। खेती पर लगे मजदूरों की निगरानी के लिए नहीं, एकांतवास के लिए। मंदिर के ध्वंसावशेष उसके खेत के पास ही थे। कुछ दिन बाद उसे अपने बचपन में देखे पागल की याद आई। उत्सुकतावश वह मंदिर में भीतर चला गया। जैसे ही उसने मंदिर में प्रवेश किया, उसे वही अनुभूति हुई, जो उसे मणि के सम्मुख हुई। पर यह उससे अधिक तीव्र थी। वह अपने को रोक नहीं पाया तथा पागल व्यक्ति को खोजने लगा। वह एक पत्थर के खंभे का सहारा ले आँगन में बैठा हुआ था। यद्यपि विष्णु अकेला था। उसे लगा, मानो वह दरबार में विराजमान सम्राट् के सम्मुख खड़ा है। विष्णु ने देखा कि उसकी आँखें बंद हैं तथा वह अपनी गँवारू शैली में मधुर स्वर में गा रहा था।

‘इन्हें न कोई चिंता है, न कोई फिक्र है—दया, संयम व धैर्य के माधुर्य से आपूरित ऐसे व्यक्ति अत्यंत शुभ व शांतिदाता होते हैं।’

उसकी शुद्ध संस्कृत सुनकर विष्णु चकित हो गया कि एक पागल ने कैसे देवभाषा संस्कृत का पांडित्य प्राप्त कर लिया है। भाषा से कहीं अधिक मनस्थिति इतनी उदात्त थी कि सारा वातावरण मानो उसके पवित्र मुख से संस्कृत श्लोकों के गायन से उदात्त हो गया था। विष्णु इतना भावुक हो गया कि उसकी आँखों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी। वह ईश्वरानुग्रह से प्रसन्न हो गया कि उसे एक ऐसे उदात्त पुरुष का साक्षात्कार हो गया।

सारा वातावरण एकदम शांत हो गया। मानो चमगादड़ और कबूतर भी वातावरण की शांति को भंग नहीं करना चाहते थे। कुछ समय बीत गया। विष्णु ने उस व्यक्ति की ओर देखा। वह आश्चर्यचकित हो गया कि उसे अपने अस्तित्व का भी मान नहीं था। विष्णु ने थोड़ी आवाज की, पर पागल पर कोई प्रतिक्रिया नहीं थी। विष्णु खड़ा हो गया। आदरपूर्वक साष्टांग प्रणाम कर मंदिर के बाहर निकल गया।

घर लौटकर विष्णु मंदिर व उस महान् व्यक्ति के बारे में ही सोचता रहा। उसके मस्तिष्क में इसके अलावा कोई विचार ही नहीं आ रहा था। वह घर के बाहर आकर बैठ गया। मध्य रात्रि का समय था। भोजन के बाद काफी समय बीत चुका था। उसकी माँ भी विश्राम के लिए अपने कक्ष में चली गई थी।

चंद्रकिरणों की अमृतमय वर्षा से सारे क्षेत्र में एक रहस्यमय वातावरण निर्मित हो गया था। कभी-कभी दूर से उल्लू की आवाज आती सुनाई पड़ रही थी। झींगुर मानो आपस में तथा इस सृष्टि से वार्त्तालाप कर रहे थे।

अचानक उसके मस्तिष्क में एक अनुभूति उत्पन्न हुई। जिस महापुरुष को हम पागल कहते हैं, वह तो मणि का गुरु देशिकर ही है। मणि ने जिस प्रकार का वर्णन किया था तथा जिस प्रकार की अनुभूति विष्णु को इस व्यक्ति के सम्मुख हुई, वह ठीक वैसी ही थी, जैसी मणि के सम्मुख हुई थी। अचानक वह अत्यंत उत्फुल्लित हो गया तथा मणि को सबकुछ बताने के लिए उत्सुक हो उठा।

अगले ही दिन प्रातःकाल वह कुंभकोनम के लिए रवाना हो गया। मणि सुनकर आश्चर्यचकित हो गया तथा दोनों ही गाँव के लिए रवाना हो गए। मंदिर पहुँचकर देखा कि जिसे हम पागल कहते आए हैं, अभी भी वह उसी भाव में है तथा उसे अपने अस्तित्व का कोई भान नहीं है। मणि ने उसकी चेतना को जाग्रत् करने का बहुत प्रयास किया। दोनों उसके शरीर की देखभाल करने लगे। पर उसे होश ही नहीं आ रहा था। उसके पवित्र मुख से आते हुए गीत को विष्णु व मणि ने लिखना प्रारंभ किया। उन्होंने देखा कि प्रत्येक ‘कृति’ में परमहंस शब्द आ रहा था। प्रत्येक कृति में गायक के गहन अनुभव की सुगंध थी। दोनों ही मित्र अत्यंत प्रभावित हुए। क्योंकि प्रत्येक कृति में उन्हें गहन धारणा व ध्यान प्रेरित करने की सामर्थ्य थी। अब लोगों को इस व्यक्ति को पागल समझने की अपनी मूर्खता का अनुभव हुआ। पागल वह नहीं, अन्य सब लोग थे।

मानवजाति विष्णु व मणि की अत्यंत कृतज्ञ है, जिन्होंने देशिकर से ये अमूल्य रत्न प्राप्त किए, जिसे भारत ‘सदाशिव ब्रह्मेंद्र’ के नाम से जानता है। भगवान् की बड़ी कृपा है कि ऐसे पागल का पृथ्वी पर अवतरण होता है।

(अनुवाद : लक्ष्मीनिवास झुनझुनवाला)

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