ऊंची एड़ी वाली मेम (कहानी) : गुलज़ार

Oonchi Edi Wali Mem (Hindi Story) : Gulzar

और ये बात सारे मुहल्ले में फैल गई कि झब्बा के पारसी सेठ ने उसे साइकिल इनाम में दी है।

कपड़े धोते महकू के हाथ रुक गए। उसका मुंह छोटा हो गया जैसे झब्बा की साइकिल नहीं, मुहल्ले में उसकी मौत आ गई हो। महकू जो इतने दिनों से अपने पंजाबी सेठ की शेखियां बघारता था, वो सब जैसे साबुन के झाग की तरह बैठने लगीं। उसके पंजाबी सेठ ने तो वादे कर के भी उसे साइकिल नहीं दी, लेकिन झब्बा ने खुद मांग के गहासिल कर ली।

झब्बा सामने की हौदी में कपड़े धो रहा था और बार-बार कंघियों से महकू की तरफ देख लेता था। एक दफा जब दोनों की निगाहें मिल गईं और झब्बा ने मुस्करा कर मुंह नीचा कर लिया तो महकू के सीने में तो जैसे आग ही लग गयी। उसने ज़ोर-ज़ोर से कपड़े को हौदी में मसलना शुरू किया लेकिन दूसरे ही लम्हे में वो कपड़े को ज़ोर से पटख कर अंदर चला गया और चादर तान के सो गया। लेकिन नींद कहां? बड़ी देर तक महकू पहलू बदलता रहा और झब्बा को नीचा दिखाने के लिए किस्म-किस्म के मंसूबे बांधता रहा। न जाने उसे झब्बा से क्या बैर था, उससे क्या चिढ़ थी। कई दफा उसने झब्बा के इक्के दुक्के कपड़े भी गायब कर दिए थे। जानबूझ कर उसका साबुन भी पानी में बहा दिया था लेकिन इन सब बातों से इसके कलेजे को ठंडक नहीं पहुंती। झब्बा से तो उसे जन्म-जन्म का बैर था।

पता नहीं ऐसा क्यूं हुआ हालांकि झब्बा उसका बचपन का यार था। दोनों इकट्ठे खेलते थे, इकट्ठे पढ़ते थे, एक साथ कबड्डी के मैच खेलते थे। रामलीला के ड्रामे रचाये थे, दोनों बड़े पक्के यार थे लेकिन न जाने क्यूं जब दो साल पहले महकू गांव गया तो झब्बा के साथ ज्यादा घलमिल नहीं, झब्बा उसे गंवार का गंवार ही नज़र आया। वही ढीली ढाली सी धोती, वही भूरा कुर्ता, निहायत गंदा मैला। अभी तक वो धोती से नाक पोंछता था। खाना खा के कुर्ते से हाथ पोंछ लेता था। दिन भर बाप के साथ मिट्टी भूसे में काम करता और जब शाम को रहट पर नहा कर उसी मैली धोती से बदन पोंछता तो महकू को ऐसा लगता जैसे झब्बा अभी बहुत पीछे है, उसके मिआर से बहुत नीचे है। कहां झब्बा और कहां वो ! कहां एक उजड्ड गंवार और कहां वो शहर का सजीला नौजवान जो रोज़ धुले हुए साफ कपड़े पहनता था। उन्हें घर में इस्त्री भी किया करता था। हाथ में एक रंगीन रूमाल भी रखता था। वो कभी ज़मीन पर नहीम बैठा। कभी बरगद के नीचे पड़ी हुई सिल पर नहीं लेटा, उसके उठने-बैठने में एक सलीका था, एक ढंग था, और झब्बा?… हुंह… !

वो तो महकू यहां नहीं था इसलिए झब्बा का दांव चल गया वरना झब्बा क्या जाने इश्क कैसे किया जाता है? उसे पूरा-पूरा यकीन था कि एक न एक दिन बटू जुलाहे की बेटी ज़रूर उसके साथ आ फंसेगी।

वो दिन में कई मर्तबा बटू के घर सामने से गुज़रता। आहिस्ता-आहिस्ता टहलते हुए बरगद वाली गली से निकलता लेकिन बटू के घर के पास पहुंच कर उसके कदम थरथरा जाते। उसकी सांस तेज़ हो जाती और घबराया सा तेज़ी से बटू के घर के सामने से गुज़र जाता। उसने घबराहट में कभी गर्दन घुमा के भी नहीं देखा कि लक्ष्मी उसे देख रही है या नहीं। सिर्फ धायें धप धायें की आवाज़ उसके कानों में रह जाती और बटू का ताना उससे दूर होता जाता।

शाम को जब वो दूसरे लड़कों के साथ चौपाल में जा कर बैठता तो बम्बई के बारे में बड़ी लंबी-लंबी हांकता। लड़के बड़े गौर से उसकी बातें सुनते। मुंह खोले उसकी तरफ देखते रहते। दो मंज़िला मोटरों का ज़िक्र उन्हें हैरान कर देता। लिफ्ट उनके लिए जैसे किसी दूसरे जहान की चीज़ थी। वो कैसी मशीन होगी जिसका बटन दबाने से कमरे का कमरा ऊपर चला जाता है और कमरे का कमरा नीचे आ जाता है। और तो और उसके दरवाज़े भी खुद ही खुलते हैं और खुद ही बंद हो जाते हैं।

“फिर तो अली बाबा के पास वही मशीन होगी” गजवरा दिल ही दिल में सोच रहा था। अगर ऐसी मशीन हाथ लग जाये तो फिर ऐश हो जाये। किसी पहाड़ की चोटी पर छुपने की जगह बना लें और आसपास के गांव में खूब डाके मारें, लेकिन वो गरीबों की ज़रूर मदद करेगा। इससे बड़ा नाम होता है। सुलताना डाकू भी तो यही करता था। लेकिन क्यूं ना महकू अपने साथ मिला लें। उसने महकू की तरफ देखा। न जाने कब उसने बाइस्कोप की बात शुरू कर दी थी।

“ये नर्गिस, सुर्रया, तो वहां ऐसे घूमती रहती हैं जैसे यहां मालती, लक्ष्मी वगैरा” -लक्ष्मी का नाम मुंह पर आते ही कनपट्टियों तक लाल सुर्ख हो गया। उसने चुपके से झब्बा की रफ देखा। वो जाने कब वहां से खिसक गया था। “ज़रूर लक्ष्मी से मिलने गया होगा।” उसने मन ही मन में सोचा। थोड़ी देर बाद वो भी चौपाल से उठ कर घर चला आया।

रात को देर तक बिस्तर पर पड़ा वो लक्ष्मी के बारे में सोचता रहा। उसने देखा जब वो बटू के घर के सामने से गुज़रता है, लक्ष्मी की आंखें खिड़की पर टिकी रहती हैं। उसे देखते ही उसके हाथ रुक जाते हैं। ताना खींच कर टूट जाता है और बटू की भारी आवाज़ उसके सर के ऊपर से फड़फड़ाती हुई गुज़र जाती है।

“बेटा आज कल क्या हो गया है तुझे? देख तो बुनायी में कितनी गिर्हें पड़ गई हैं।” लेकिन लक्ष्मी खोयी खोयी सी नज़रों से खिड़की के बाहर देखती रही। धीमी सी आवाज़ में कह देती।

“कुछ नहीं बापू बस ताना उलझ गया है।”

लेकिन भोले बटू को क्या मालूम, कौन-सा ताना उलझ गया है। उसे क्या मालूम कि लक्ष्मी के दिल में गिर्हें पड़ी हुई हैं। वो महकू के इश्क में कैसे तड़प रही है। फिर उसने देखा कि लक्ष्मी की मां दरवाज़ें में बैठी उसकी चोटी गूंथ रही है। जूंही महकू कल्फ लगे कपड़े पहने, रेशमी रूमाल मुंह पर रखे उनके घर के सामने से गुज़रा लक्ष्मी धक से रह गई। उसके बस में होता तो वो बाल छुड़ा कर भागती और महकू से लिपट जाती और उसके सीने पर सर रख के खूब रोती और कहती- “निरमोही ! तुमने मेरा दिल चुरा लिया है। मेरी रातों की नींद चुरा ली है। तुम्हारे बिन मुझे एक पल भी चैन नहीं है। तुम्हारे बिना मैं ऐसे जी रही हूं जैसे पानी बिन मछली।” लेकिन उसकी मां जो बैठी थी, वो ये सब कैसे कहती, कैसे करती। मगर दूसरे लम्हे उसने देखा वो मां-बाप के बंधन तोड़ कर चली आई। उसके पांव पड़ गई और रो रो कर कहती रही- “मुझे अपने साथ ले चलो, मैं तुम्हारे बिन नहीं जी सकती।” महकू के होंट एक फ़तेहयाब मुस्कुराहट से फैल गए।

उसने देखा झब्बा उसका रक़ीब सामने बरगद के नीचे खड़ा ये सब देख रहा है। इसे लगा जैसे वो किसी फिल्म का हीरो बन गया हो। लक्ष्मी कहती रही- “मुझे अपने साथ ले चलो। मुझे अपने साथ ले चलो।” उसने फिल्मी हीरो के अंदाज़ में लक्ष्मी के सर पर हाथ फेरा। “तुम मेरे साथ कहां-कहां जाओगी सौभागनी। मेरे जीवन में बहुत कठिनाइयां हैं। नहीं, नहीं, मैं तुम्हें ये दुख नहीं दे सकता- नहीं नहीं।”

वो अपना हाथ छुड़ाने लगा। वो ज़ोर से हाथ खींचने लगा… गाल पर तमाचा पड़ा तो देखा बाप हाथ पकड़े उसे जगा रहा था और महकू कह रहा था- “नहीं नहीं मैं तुम्हें ये दुख… हैं?… बापू ! हां उठता हूं।” उछल के वो चारपाई से उठा तो देखा लक्ष्मी आंगन में खड़ी देख रही है और पल्लू में मुंह छुपाए हंस रही है।

दरअसल महकू बम्बई क्या आया, अपनी चाल भूल गया। गांव के सारे लड़के उसे फिसड्डी-फिसड्डी से लगते। पढ़े-लिखे न हों तो पढ़े-लिखों के से तौर तरीके तो हों। बस गंवार, भोंदू के भोंदू। कितने बड़े हो जाते जहैं, फिर भी वही मिट्टी में कबड्डी खेलते हैं, गिल्ली डंडा खेलते हैं। खेतों की मुंडेरों पर अलाव जला कर घर के बर्तन पीटते हैं और देहाती गाने गाते हैं। कभी बाइस्कोप नहीं जाते। कभी सुर्रया का गाना नहीं गुनगुनाते। ये लोग क्या जानें शहर में कैसे रहा जाता है। कहीं दो दिन लक्ष्मी शहर में रह ले तो फिर कभी झब्बा का मुंह न देखे। झब्बा !… हुंह… साले का नाम तो देखो झब्बा ! !

महकू और झब्बा के दर्मियान ये खलीज बढ़ती रही। दर-हकीकत झब्बा के दिल में कोई मैल नहीं था, कोई रंजिश नहीं थी। अब भी वो पहले की तरह महकू से मिलता था। बड़े रख-रखाओ से बात करता। लेकिन महकू तो बस अंदर ही अंदर भरा पड़ा था। उसके बस में होता तो झब्बा को मैले कपड़ों की तरह घाट के पत्थर पर पटख़ पटख़ कर मार देता और अंदर जाकर चादर तान के गहरी नींद सो जाता।

महकू ने एक और करवट बदली और चादर को ज़ोर से खींच कर अपने गिर्द लपेट लिया। “साला बंबई क्यूं चला आया? किसने भेज दिया इसे बंबई, हराम का तख़्म…” उसने दिल ही दिल में एक और मोटी सी गाली झब्बा को दी।

महकू ने उसके कुछ गाहक तोड़ने की बहुत कोशिश की थी। उनके इक्के-दुक्के कपड़े चुरा कर ग़ायब कर दिए। कभी फाड़ भी दिए, कभी मौका पाकर इस्त्री से जला भी दिए। लेकिन वो प्लास्टिक के बर्तन साले न टूटने थे न टूटे। उसने कम दामों पर भी उनके कपड़े धोने चाहे। लेकिन झब्बा ने जाने क्या अमल पढ़ दिया था इन पर कि वो गाहक इसे नहीं मिले। ख़ास तौर पर उस पारसी सेठ के लिए तो उसने बहुत कोशिश की थी, जो झब्बा पर इस क़दर महरबान था। हर दूसरे-तीसरे महीने उसे कुछ बखशीशें दे देता था। थोड़ी देर के लिए तो उसे पारसी सेठ पर गुस्सा आने लगा। साला हराम की कमाई है। खूब लुटाता है। क्या जाता है उसका, और झब्बा तो है ही भिखमंगा ! अब ये भी कोई मांगने की बात थी।

जब पहली दफा झब्बा के सेठ ने एक गर्म पतलून इवनाम में दी तो महकू बहुत जला भुना। झब्बा पतलून पहन कर बाइस्कोप चला तो महकू ने रास्ते में उसका मज़ाक उड़ाया। वो मज़ाक उड़ाया कि बेचारा आधे रास्ते से वापस लोट आया।

महकू ने जाना कि उसने मैदान मार लिया।

लेकिन दूसरे ही दिन झब्बा फिर से अपने पारसी सेठ की तारीफ़ कर रहा था। “मालूम है अपने सेठ से कपड़ा इस्त्री करने के लिए एक इतना बड़ा मेज़ इनाम में दिया है।” उसने दोनों हाथ फैला कर कहा।

“कहां है?” महकू ने फीके चेहरे से पूछा

“कल लाऊंगा।”

“अबे वो क्या देगा, कल भी कभी आई है।”

“अच्छा कल देख लेना।”

और अगले दिन झब्बा वाकई मेज़ उठा लाया। दूर ही से महकू को ललकार के बोला। “क्यूं महकू देख लिया? आ गई मेज़।”

“अबे तो कौन सा तीर मार दिया तेरे सेठ ने जो एक टूटी हुई मेज़ दे दी।”

“दिल चाहिए इसके लिए भी दिल।” झब्बा कुछ-कुछ महकू को समझाने लगा।

चोट वाकई करारी थी।

“जा जा- बहुत देखे दिल वाले।” महकू चहका- “दिल तो अपने पंजाबी सेठ का देख जो मुझे साइकिल लेकर दे रहा है। इस टूटी हुई मेज़ में क्या रखा।”

महकू ने बिलकुल बेपर की उड़ा दी।

“अगर वो पंजाबी तुझे साइकिल दे दे ना तो तेरी टांग तले से निकल जाऊं।” झब्बा शायद महकू की नब्ज़ खूब पहचानने लगा था।

“रही- और नहीं तो तू भी अपने सेठ से साइकिल मांग के देख ले, अगर दे दे तो मैं अपनी मूंछ मुंडवा दूगां।”

“रही ये भी रही।” झब्बा भी तैश में आ गया।

उन ही दिनों महकू के पंजाबी सेठ की शादी हुई थी और महकू ने पहले ही उससे इनाम का वादा ले रखा था। मौका गनीमत जान महकू ने साइकिल तलब कर ली। सेठ ने कोई जवाब न दिया। महकू ने जब दोचतीन बार ज़ोर दिया तो उसने कह दिया, “बीवी घर आएगी तो उससे ले लेना। अब तो वही मालकिन है।”

कई हफ्ते बीवी का इंतज़ार करता रहा।

बीवी आई तो अपने साथ मिठाई का बहुत बड़ा टोकरा लेकर आई। उसमें से एक लिफाफा महकू के हिस्से में भी आया। सेठ की सिफारिश पर महकू को खुश करने के लिए बीवी ने एक पांच रुपए का नोट भी उसकी हथेली पर रख दिया। कुछ कहने की गुंजाइश ही कहां थी। महकू चुपचाप घर चला आया। और चादर तान के सो गया। यही उसकी पुरानी आदत थी। वो जब गमगीन होता या किसी गहरी फिक्र में होता सीधा बिस्तर पर चादर तान पड़ा रहता। और फिर घंटों पड़ा सोचता रहता। सोचते सोचते वहीं सो जाता। दूसरे दिन जब वो उठता, हलका फुलका काम में लग जाता। कल की फिक्र नींद में घुल मिल कर सपनों के साथ उड़ जाती।

लेकिन आज तो उसका दिमाग जैसे सुलग रहा था। पिछले कई हफ्तों से वो साइकिल की शर्त भूल गया था। और झब्बा ने भी कभी उसका ज़िक्र नहीं किया। यहां तक कि मुहल्ले के चंद दूसरे धोबी जिन्हें इस शर्त का इल्म था, वो भी भूल गए थे। लेकिन आज झब्बा ने उसके पांव तले से ज़मीन खींच ली। वो सटपटा गया। हौदी पे कपड़े धोते हुए आज जिस निगाह से झब्बा ने उसकी देखा था वो कभी नहीं भूल सकता। उसके बस में होता तो साबुन की डलियां मार-मार कर उसकी आंखे फोड़ देता।

महकू ने बेताबी से दो-तीन करवट बदलीं। चादर को और खींचा ताना। सर को घुटनों में दबा कर वो बिलकुल जलेबी हो गया।

लेकिन नींद आज कहां? वो झब्बा से हार मानने के लिए तैयार नहीं था। वो कुछ भी कर गुज़रेगा लेकिन झब्बा से हार नहीं मानेगा। झब्बा… आ…आ… जैसे वो इस नाम की जुगाली करके थूक देना चाहता हो।

सुबह गुज़र गई, दोपहर बीत गई। लेकिन वो बिस्तर से नहीं उठा। शाम को भी देर गए जब धुंधलका बढ़ने लगा, वो बरामदे से उठा और अंदर कोठरी में चला गया। अंदर में दरवाज़ा बंद करके वो बीवी के ट्रंक में कुछ ढूंढता रहा। बहुत से कपड़े ऊपर नीचे करने के बाद उसे बीवी के गले की हंसली मिल गई। हंसली को अंटी में दबा वो बाहर निकल आया।

झब्बा के दरवाज़े के सामने उसकी साइकिल अपने स्टैंड पर खड़ी थी। एक मिनट के लिए उसे लगा जैसे लक्ष्मी किसी मेम की ऊंची एड़ी वाली सैंडिल पहने कमर पर हाथ रखे, सामने खड़ी उसका मुंह चिढ़ा रही है। वो लपक के अंदर गया और एक नुकीला चाकू लाके साइकिल के पहियों में उतार दिया। एक पल में साइकिल के दोनों पहिए बुझ गए।

चाकू चारपाई पर फेंक हंसली को अंटी में दबा, महकू बाहर चला गया।

और दूसरे दिन बात सारे मुहल्ले में फैल गई कि महकू के पंजाबी सेठ ने उसे साइकिल इनाम में दी है!

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