नूरुन्निसा (कहानी) : कु.पा. राजगोपालन
Noorunnisa (Tamil Story in Hindi) : Kumbakonam P. Rajagopalan
बेलूर जेल से रिहा हुए एक सप्ताह बीत चुका था। एक दिन सवेरे-सवेरे आराम कुरसी पर लेटे हुए मनही-मन अपने भविष्य के बारे में सोच रहा था। तभी डाकिए ने आकर पत्रिकाओं का एक बंडल और एक लिफाफा मुझे दिया। संसार में मेरा कोई भी तो नहीं है, मुझे कौन पत्र लिखेगा। इस उत्सुकता के साथ मैंने तुरंत लिफाफा खोल डाला और पत्र निकालकर पढ़ने लगा। लिखा था-
मद्रास,
तारीख-19 जुलाई, 1930
गुलाम कादिर, एम.ए.
प्रो. डिप्टी कलक्टर
मेरे प्यारे दोस्त,
मैं समझता हूँ, तुम मुझे भूले नहीं होगे। इतने दिनों तक मैं तुम्हें पत्र नहीं लिख सका, इसका कारण यही था कि मैं तुम्हारा पता नहीं जानता था। तुम जानना चाहोगे कि अब यह अवसर कैसे आया। हम बहुत जल्दी मिल सकेंगे, यह सोचकर मैं बहुत खुश हो रहा हूँ। अब सुनो, तुम्हें मेरी छोटी बहन नूरुन्निसा की तो याद होगी। जब हम साथ-साथ पढ़ रहे थे, तब वह हमारे साथ खेला करती थी। अचानक पिछले हफ्ते उसने तुम्हारा नाम अखबारों में देखा। मुझे भी दिखाया। उसको तुम्हारे नाम के इनिशिएल्स (नाम के प्रारंभिक अक्षर) तक याद थे। उन्हीं के आधार पर हम निश्चय कर सके कि यह तुम्हीं हो। उस अखबार से पता लगा कि तुम उसी दिन बेलूर जेल से रिहा हुए थे। मैंने तुरंत बेलूर तुम्हारे पते के लिए तार दिया। आज ही जवाब आया है।
जब हम त्रिची में पढ़ रहे थे, तब हमने एक प्रतिज्ञा की थी। वह बचपना ही था। उम्र भी तो बारह साल की थी। वह प्रतिज्ञा तुम्हें याद है? हमने निश्चय किया था कि एक-दूसरे को बिना बताए शादी नहीं करेंगे। उसी प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए यह खत लिख रहा हूँ। 22 जुलाई, 1930 को मद्रास में मेरी शादी होनेवाली है। निमंत्रण–पत्र साथ है। तुरंत चले आओ, बाकी बातें यहीं होंगी।
तुम्हारा प्यारा दोस्त, गुलाम कादिर विद्युत् के समान इस पत्र ने मेरे हृदय के विस्मृति के अंधकार को दूर कर दिया। पिछले दस वर्षों से अब तक मैं एक परदेशी की तरह घूमता रहा हूँ। नमक-सत्याग्रह में भाग लेकर छह महीने जेल में भी रह आया हूँ। इस लंबी अवधि में मेरे हृदय में रह-रहकर एक लड़की का रूप उभरता था। और मैं व्यथित हो उठता था, पहचान नहीं पाता था कि यह लड़की कौन है। आज यह पत्र पाकर समझ गया हूँ कि वह नूरुन्निसा ही है। चूंघट डाले हुए एक लड़की, जिसके चेहरे पर काली पलकों के बीच दो चंचल नेत्र हैं। गुलाबों के बीच मल्लिका की तरह नीचे के ओठ को थोड़ा काटकर दबानेवाले दाँत हैं। यह मोहिनी रूप ही मुझे व्यथित करता था। यह उसी का रूप तो है। क्या यह संभव है कि वह भी मेरी ही तरह व्यथित हो। अगर ऐसा नहीं है तो वह क्यों इस पत्र का कारण बनी। इस भीड़ में से उसने मुझे ही क्यों पहचान लिया?
गुलाम कादिर और मैं कैसे स्नेह-पाश में बँधे, इसकी एक बड़ी रोचक घटना है। जब मैं त्रिचि के एक स्कूल में तीसरे दर्जे में भरती हुआ, तब मेरी आयु दस वर्ष की थी। गुलाम मेरी बगल में ही बैठता था। एक दिन हिसाब के घंटे में उसने मेरी नकल कर ली। संयोग से मेरा सवाल गलत था। अध्यापक ने हम दोनों की स्लेटें देखीं। मुझसे कहा कि तुमने गुलाम की नकल की है और मुझे बेंतों से पीटा।
शाम को घर लौटते समय गुलाम कादिर ने मुझसे पूछा, "भाई, कुसूर तो मेरा था। तुमने मास्टर को बताया क्यों नहीं?"
मैंने कुछ उत्तर नहीं दिया। अचानक ही उसने कहा, "मेरे साथ चलो। मेरी कार में बैठकर मेरे घर चलो। बाद में मैं तुमको तुम्हारे घर पहुँचा दूंगा।"
मैंने उसकी बात मान ली। कार में सवारी करने की मेरी बड़ी इच्छा थी। आज पूरी हुई। पंद्रह मिनट बाद वह कार तेन्नूर में एक विशाल भवन के सामने जाकर खड़ी हो गई।
गुलाम कादिर के पिता गयासुद्दीन साहब एक बड़े व्यापारी थे। अर्काट के नवाब के वह वंशज माने जाते थे। बाहर की बैठक में एक शानदार मसनद के सहारे वह बैठे हुए थे। उनके सामने हुक्का और पीकदान रखे हुए थे। चारों ओर बड़े-बड़े आईने टँगे थे। कई मुगल चित्र भी लगे हुए थे। एक ओर संगमरमर के एक मोर के सिर पर अगर–बत्तियाँ जल रही थीं और उनसे निकलता धुआँ सा वातावरण को सुगंध से भर रहा था। फर्श पर मुलायम कश्मीरी गलीचे बिछे हुए थे। गुलाम कादिर छलाँग मारता हुआ उनके पास पहुँचा और उसने उनके कान में कुछ कहा। मैं चुपचाप दूर खड़ा हुआ था। उन्होंने मुझे बुलाया, "इधर आओ।"
बहुत दिनों बाद जब मैंने मौलाना शौकत अली को देखा तो मुझे अचानक उनकी याद आ गई। मौलाना में और इनमें बहुत ही साम्य था। गुलाम मुझे उनके पास ले गया। उन्होंने मेरी पीठ थपथपाई और अपनी पत्नी को पुकारा। दो क्षण बाद अपनी दो बेटियों सहित वे वहाँ आई। उनकी उम्र होगी लगभग तीस वर्ष की। ऊँचे कद की वह सुंदर स्त्री थीं। वे धीरे-धीरे पैर रखती हुई आ रही थीं और उनके पैरों के पाजेब मीठी आवाज पैदा कर रहे थे। बड़ी लड़की अलीमा कुछ नाटी और मोटी थी, लेकिन छोटी नूरुन्निसा गुलाम कादिर की तरह सुंदर थी। उसकी आयु होगी-यही कोई आठ वर्ष की।
उस आयु में मुझमें यह सब वर्णन करने की शक्ति नहीं थी। लेकिन मेरे मन पर जो चित्र उस समय अंकित हो गया था, उसी को मैं आज देख रहा हूँ। उस दिन उसने जरीदार हरे रंग का लहँगा पहना था। पीली रेशम की जॉकेट, उसके ऊपर गुलाबी रंग का दुपट्टा, पैरों में चाँदी के पाजेब, हाथों में चूड़ियाँ, लंबे-लंबे काले केश। वेणी नहीं गुंथी थी, बल्कि बालों को सँवारकर रिबन से बाँध दिया गया था। उसका गौर वर्ण अनुपम था। और उसके नयन, उनके बारे में तो कुछ कहा ही नहीं जा सकता।
गयासुद्दीन ने अपनी पत्नी से कुछ कहा। उन्होंने मेरी ओर देखा और फिर अलीमा से कुछ कहा। अलीमा अंदर आ गई और एक थैली में सेव और नारंगी आदि भर ले आई। वह थैली मेरे हाथ में देते हुए उन्होंने मुझ पर जो वात्सल्य भरी दृष्टि डाली, वह मैं कभी नहीं भूल सकता। बड़े स्नेह से उन्होंने मेरे गालों को थपथपाया। जिस समय मैं वापस लौट रहा था तो अनायास ही मेरी आँखें फिर उसी घर की ओर मुड़ गई। पाया कि नूरुन्निसा घूघट को दाँतों से पकड़े मेरी ओर देख रही है। जैसे ही हमारी दृष्टि मिली, वह अंदर भाग गई।
उस दिन से गुलाम और मैं दोनों एक साथ घूमते, एक साथ खेलते, एक साथ हवाई महल बनाते। मैं अकसर उसके घर जाया करता था। नूरुन्निसा भी हमारे साथ रहती थी। हम जो कुछ बातचीत करते या काम करते, उस सबको वह बड़े ध्यान से सुनती और देखती। कभी-कभी वह मेरे पीछे आकर मेरी आँखें मूंद लेती। उसके हाथ गुलाब के फूलों की तरह मुलायम थे। सहसा वह हाथ हटा लेती और जोर से किलक पड़ती। उस समय उसके गालों में गड्ढे पड़ जाते। यह सब देखकर मेरा मन अवर्णनीय आनंद से भर उठता।
दसवीं कक्षा तक हम दोनों साथ-साथ पढ़ते रहे। उसके बाद अचानक पिताजी का त्रिची से तबादला हो गया। फिर हम दोनों कभी नहीं मिले। आज बारह साल बाद उसका पत्र आया है। मेरे आनंद की कोई सीमा नहीं है।
दूसरे ही दिन मैं मद्रास के लिए रवाना हो गया।
उसका मकान रिश्तेदारों से भरा हुआ था। लेकिन वह एक कोने में मेरे साथ बैठा हुआ बीते जमाने की बातें कर रहा था। मुजरा चल रहा था। चारों ओर गुलाब के फूलों की वर्षा हो रही थी। इत्र और गुलाब जल छिड़का जा रहा था। शाम के 6 बजे तक मुजरा चलता रहा। उसके बाद वह मुझे ऊपर के कमरे में ले गया। बहुत देर तक हम दोनों फिर पुरानी बातें करते रहे। उनका कोई अंत ही नहीं था। खोजते-खोजते उसकी माँ उधर आ निकलीं। मुझे देखा तो ठिठक गई। गुलाम कादिर ने कहा, "अम्मीजान, क्या सोच रही हो। यह तो हमारा...।"
अम्मीजान बोली, "हाँ, याद आया, अच्छे तो हो बेटा!"
"अच्छा हूँ माँ।"
"कहाँ हो, आजकल?"
"त्रिची में।"
"शादी हो गई?"
"नहीं।"
यह बातचीत जब हो रही थी तो मुझे ऐसा लगा कि जैसे उनके पीछे छाया की तरह एक युवती खड़ी है। सोचा, नूरन्निसा ही होगी।...छिह यह कैसे हो सकता है? वह तो परदे में रहती होगी। गुलाम ने अपने पत्र में उसका जिक्र किया था। लेकिन मिलने पर अब तक उसकी कोई चर्चा नहीं हुई। स्वयं उसके बारे में पूछते हुए मुझे झिझक मालूम हो रही थी। मैं परेशान था, लेकिन जब मैं यह समझ गया कि अब उसे किसी तरह नहीं देख सकूँगा तो मुझे होश आया और मैं सामान्य रूप से बातें करने लगा।
रात के दस बज गए। गुलाम सोने चला गया। मैं एक अलग कमरे में लेटा हुआ बहुत देर तक करवटें बदलता रहा। बिजली की रोशनी आँखों में लग रही थी, इसलिए मैंने बत्ती बुझाकर खिड़कियाँ खोल दीं। चंद्रमा की शीतल किरणें मेरे बिस्तर पर पड़ने लगीं। लेकिन आँखों से नींद गायब हो चुकी थी। मैं उठकर बैठ गया और न मालूम क्या-क्या सोचने लगा। उसी समय वह भी उसी घर के एक भाग में इसी तरह टहल रही है। सारा घर सोया हुआ है। लेकिन मेरे हृदय की क्या दशा है, यह वह क्या जाने और कैसे जाने। फूल की चाह उसकी सुगंध के रूप में चारों ओर फैल जाती है, परंतु मेरे अंतर में 'चिंतन' और 'स्मृति' की जो लहरें उठ रही हैं, वे उसके हृदय-तट तक जाकर कैसे टकरा सकेंगी। यह संभव नहीं है...। फिर उसने उस खत के द्वारा मुझे यहाँ बुलाया ही क्यों? क्यों, यह मैं कैसे जान सकता हूँ।
इस तरह मेरा पागल मन प्रश्न-पर-प्रश्न करता हुआ तूफानी समुद्र की तरह तरंगित हो रहा था। आधी रात गुजर गई। शहर का शोर भी कम हो गया। दूर से मात्र समुद्र का गर्जन सुन पड़ता था। उसकी अस्पष्ट आवाज भी तीव्र हो उठती थी। लेकिन मुझे नींद नहीं आ रही थी। अचानक मन में एक इच्छा जाग उठी, क्या इस समय नूरुन्निसा मुझे देखने आएगी? कहीं वह मेरी प्रतीक्षा तो नहीं कर रही।...
अचानक जैसे कोई बहुत धीरे-धीरे चल रहा हो; किसी के पैरों की आहट सुनाई दी। हाँ, यह नूर ही तो है। वह मेरे पास आई और खिड़की के उस तरफ खड़ी हो गई। वही नूर है। आयु के अनुसार, बस, कुछ परिवर्तन हुए हैं। चंद्र ज्योत्स्ना में उसका मुख अच्छी तरह दिखाई दे रहा है। मुझे कुछ सूझ नहीं रहा कि क्या करूँ। अचानक बोला, "वही हुआ जो मैंने सोचा था।"
उसने अपने होंठों पर उँगली रखकर मुझे बोलने से मना किया। फिर उसने अपने वक्ष के भीतर से एक लिफाफा निकाला और मेरे हाथ में दे दिया। कहा, "इसे अपने गाँव जाकर पढ़ना। कल ही चले जाना। बस देख लिया। अब एक क्षण भी मत ठहरना।"
और वह लौट चली। थोड़ी दूर गई, फिर घूमकर देखा। उस चंद्र ज्योत्स्ना में उसके चेहरे पर घबराहट के कारण पसीने की बूंदें चमक आई थीं। उन्हें मैं देख सकता था। मैं अपने को न रोक सका। छलाँग मारकर उसके पास जा पहुंचा और उसका हाथ पकड़ लिया। एक मिनट तक हम दोनों वैसे ही खड़े रहे, मूकनिस्तब्ध! फिर वह धीरे से अपना हाथ छुड़ाकर वहाँ से चली गई।
दूसरे दिन सवेरे मुझे चलने के लिए तैयार देखकर गुलाम उदास हो बैठा। पूछा, "क्या बात है?"
मैंने कहा, "एक दिन तुम्हारे साथ रह लिया, फिर कभी फुरसत मिलेगी तो आऊँगा। इस समय मुझे काम है ।"
और आधा घंटे के अंदर ही मैं वहाँ से चल दिया।
त्रिचि में कावेरी नदी के किनारे अपने कमरे की खिड़कियों से मैं फिर उसी चंद्रमा को देख रहा था। परंतु मन की स्थिति एकदम भिन्न थी। मैंने वह पत्र निकाला और पढ़ने लगा-
इस खत को तुम मेरी यादगार के रूप में रख सकते हो। बचपन में जब हम साथ-साथ खेला करते थे, तब मेरा मन तुम्हारी ओर आकृष्ट हुआ। आज भी मेरे मन की वही हालत है। हमेशा तुम्हारा ही रूप मेरे सामने रहता है। नित्य नवीन होकर तुम्हारे साथ खेलने का स्वप्न देखा करती हूँ। इस जन्म में तुमको एक बार और देखना चाहती थी, वह इच्छा पूरी हुई। अब मैं जेबुन्निसा की तरह अपने दिन बिताऊँगी। तुमने मेरी अम्मा से कहा था कि अभी तक तुम्हारी शादी नहीं हुई है। यह सुनकर मुझे बहुत संतोष हुआ। मेरी आत्मा तृप्त हो गई। आगे भी अगर तुम अपना जीवन किसी और स्त्री के साथ न बिताकर सिर्फ मेरी याद में बिता सको, इस कल्पना मात्र से मैं कितनी खुश हो रही हूँ। तुम मुझे जवाब लिखना कि तुम वैसा करोगे। मुझे पूरी आशा है कि तुम वैसा करोगे। यही आशा मेरे जीवन का संबल है। मैं अपने को भूलकर तुम्हारी याद में जीऊँगी। इस जन्म में हम दोनों पति-पत्नी नहीं हो सकते। हमारा प्रेम निष्कलंक है। मेरे हृदयाकाश में चमकनेवाले पूर्ण चंद्र में कलंक न लगने पाए, क्यों ठीक है न?
तुम्हारी,
नूरुन्निसा
उस समय उस मंद-मंद प्रकाश में ऐसा जान पड़ा, मानो चंद्रमा के रूप में वही आकर मुझसे प्रतिज्ञा करा रही है।
तब से अपने हृदय की देवी की आज्ञानुसार मैं संसार में घूम रहा हूँ। मेरे हर काम में स्वर्ण बिंब की तरह मेरे सामने आकर वह मुझे उत्साहित कर रही है। जब मैं थक जाता हूँ तो वही मेरे पास आकर मुझे धीरज बँधाती है।