नूरजहां का कौशल (कहानी) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री
Noor Jahan Ka Kaushal (Hindi Story) : Acharya Chatursen Shastri
(जैसे मुग़ल सम्राट जहांगीर पृथ्वी पर अपनी समता नहीं रख़ता वैसे ही सम्राज्ञी नूरजहां की भी समता नहीं है। सम्राट जहांगीर जैसा प्रतापी बादशाह प्रेम के राज्य में एक निरीह भावुक पुरुष था। इसके विपरीत सम्राज्ञी नूरजहां का भाव सम्राज्ञी क्लिओपेट्रा और एलिजाबेथ से भी बढ़ा-चढ़ा था। इस कहानी में इस प्रेमी शाही कबूतर-कबूतरी के जोड़े का एक मनोरंजक रेखाचित्र है। जहां राजनीति और तत्कालीन साम्राज्य की खटपटों में उलझा-सुलझा प्रेम का अटपटा व्यापार चलता दीख पड़ता है। कहानी में सम्राज्ञी नूरजहां का –)
सन् 1625 का अन्त हो रहा था। दिल्ली के तख्त पर मुग़ल सम्राट जहांगीर बैठकर निश्शंक सुरा, संगीत और सुन्दरी-सेवन से जीवन का मध्य भाग सार्थक कर रहे थे, और रूप, गर्व और प्रतिहिंसा की देदीप्यमान मूर्ति, ईरान के एक साधारण सामन्त आयश की कन्या, बादशाह के मन्त्री आसफ़ की बहन तथा शेर अफ़गन की विधवा महरुन्निसा मलिका नूरजहां के नाम से उदय होकर उस इन्द्रिय-परायण मुग़ल सम्राट और अमूल्य रत्नों से परिपूर्ण मुग़ल तख्त को अपने स्वेच्छाचारी पदाघात से हिला रही थी।
छोटे और बड़े अमीर-उमरा से लेकर साधारण प्रजाजन तक यह जान गए थे कि दिल्ली के तख्त पर जो दुबला-पतला, रसीली आंखों वाला व्यक्ति सम्राट के नाम से बैठा दीख़ता है, यह एक सूखी लकड़ी है, जो रूप की धधकती ज्वाला से तख्त-सहित धीरे-धीरे जल रही है।
नूरजहां में रूप था, दर्प था, प्रतिहिंसा थी, क्रोध था, और थी स्त्री-हृदय की दुर्बलता तथा स्त्री-मस्तिष्क का कौशल, साहस और प्रत्युत्पन्न मति की अपूर्व प्रतिभा।
और जहांगीर में क्या था? असाधारण बड़प्पन, उदारता, प्रेम और सुकुमारता। निस्सन्देह वह बादशाह के पद के योग्य न था। बादशाह होने के लिए जो कठोरता, रुक्षता, कौशल और दूरदर्शिता होनी चाहिए, जहांगीर में न थी। वह एक प्रेम का मतवाला रईस था। वह जिस स्त्री के रूप में अपने यौवन के उदयकाल में डूबा, उसके स्वाद का प्रलोभन वह, दस वर्ष व्यतीत होने पर भी, उस रूप के जूठे और किरकिरे होने पर भी, उसमें ज़हर मिल जाने पर भी, संवरण न कर सका। उसके लिए उसने लोक-लाज, न्याय, अपना पद-गौरव, साम्राज्य, सभी कुछ संसार की दया पर छोड़ दिया। रूप का ऐसा दयनीय भिखारी शायद ही पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ हो।
आगरे के क़िले में, एक छोटे किन्तु सजे हुए कक्ष में, कारचोबी काम के चंदोवे के नीचे मसनद पर सम्राट जहांगीर बैठे ऊंघ रहे थे। ज्वलन्त रूप-शिखा नूरजहां, उनसे तनिक हटकर दाहिनी ओर बैठी, संगमरमर की प्रतिमा प्रतीत होती थी। सेनापति महावतख़ां और महामन्त्री आसफ़उद्दौला सामने अदब से खड़े थे। उनके आगे शाहज़ादा खुर्रम नीचा सिर किए खड़े थे। प्रातःकाल का समय था, और वह छोटा सा दरबार सन्नाटे में डूबा हुआ था। बादशाह ने अचानक आंख उठाकर कहा – महावतख़ां, हमारे बहादुर सिपहसालार, हम तुमसे बहुत खुश हैं, तुमने तख्त की भारी खिदमत की है, जो शाहजादे को दरगाह में ले आए हो। और शाहज़ादा, तुम्हारे सब क़ुसूर माफ़ किए जाते हैं, और हम दारुल्सल्तनत में तुम्हारा इस्तकबाल करते हैं।
शाहज़ादा खुर्रम और सेनापति महावतख़ां ने अदब से सिर झुकाया। इसके बाद शाहज़ादा घुटने झुकाकर तख्त को चूमने ज़रा आगे बढ़े।
नूरजहां ने एक तीव्र दृष्टि से दोनों व्यक्तियों को घूरकर कहा – मगर ठहरो, तुम गुनहगार हो, पहले तुम्हारी कैफ़ियत ली जाएगी।
शाहज़ादे ने दृढ़ स्वर में कहा – मेरी कैफ़ियत?
‘हां, तुम्हारी कैफ़ियत।’
‘किस मामले की?’
“तुमने शाहज़ादे ख़ुशरू का क़त्ल कराया है, और अपने वालिद दीनोदुनिया के बादशाह के ख़िलाफ़ साज़िश की है। बगावत करके हथियार उठाए हैं।
‘मैंने कैफ़ियत जहांपनाह की ख़िदमत में लिख भेजी थी, अब उसके दुहराने की ज़रूरत नहीं।’
‘ज़रूरत है!’ नूरजहां ने दर्प से कहा।
शाहज़ादे ने बादशाह की ओर ताककर कहा – जहांपनाह!
बादशाह ने नीचे नज़र करके कहा – शाहज़ादा खुर्रम, तुमने जो कैफ़ियत लिख भेजी थी, उसे यहां दुहरा दो।
क्षण-भर शाहज़ादा नीचा सिर किए सोचते रहे, फिर उन्होंने बादशाह को लक्ष्य करके कहा – जहांपनाह, कैफ़ियत मुझे किसके सामने देनी होगी, शहंशाहहिन्द जहांगीर के सामने या कि शेरे अफ़गन की विधवा के सामने?
नूरजहां ने ग़ुस्से से होंठ काटकर कहा – तुम्हें यह न भूलना चाहिए कि तुम मुज़रिम और शाही गुनहगार हो।
शाहज़ादे ने उस पर ध्यान न देकर बादशाह से कहा – क्या जहांपनाह सचमुच मुझसे कैफ़ियत चाहते हैं?
‘हां, चाहता हूं।’
‘तब मेरा क़ुसूर माफ़ करने के बहाने यहां बुलाकर कैद करना ही आपका मक़सद था?’
नूरजहां ने त्योरियों में बल डालकर कहा – तुम किससे बातें कर रहे हो, शाहज़ादा?
‘अपने पिता से।’
‘मगर तख्ते मुग़लिया की हुकूमत मेरे हाथ में है। मैं तुम्हें एक साल की कैद का हुक्म देती हूं महावतखां, शाहज़ादे को गिरफ़्तार करो।’
महावतख़ां अब तक चुपचाप खड़े थे। अब उन्होंने दृढ़ स्वर में कहा – माफ़ कीजिएगा मलिका साहिबा, मैं शाहज़ादे को यह ज़बान देकर लाया हूं कि आपके सब क़ुसूर माफ़ किए जाएंगे। ऐसी हालत में शाहज़ादे को गिरफ़्तार करना धोखेबाज़ी है, जिसमें बन्दा शरीक होने से इनकार करता है।
नूरजहां ने क्रोध से कांपते हुए कहा – इंसाफ़ करना और हुक्म करना मेरा काम है. तुम्हारा काम हुक्म मानना है, तुम नौकर हो।
‘मलिका साहिबा, महावतख़ां इस हुक्म को मानने से इनकार करता है।’
नूरजहां ने तख्त से उठते हुए कहा – तुम्हारी इतनी मज़ाल! कोई है, महावतख़ां को गिरफ़्तार कर लो।
महावतख़ां ने स्थिर-गम्भीर स्वर में कहा – मलिका साहिबा, बीस साल से मैं इन सिपाहियों का सिपहसालार हूं। इन्हें मैं अगणित बार युद्ध के मैदान में ले गया हूं, और फ़तह का सेहरा इनके सिर पर बांधकर ले आया हूं। कितनी बार इन्होंने जानें देकर मेरी हिफ़ाज़त की है, अब इनकी इतनी जुर्रत नहीं हो सकती कि मुझे गिरफ़्तार करें। हां, बादशाह सलामत, आपके सामने यह सिर और हाथ हाज़िर हैं, बांधिए या क़त्ल कीजिए।
यह कहकर महावतख़ां ने बादशाह के सामने हाथ बढ़ा दिए।
बादशाह ने कहा – महावतख़ां, तुम्हारे बांधने की जंजीर अभी तैयार नहीं हुई। जाओ, हम तुम्हें माफ़ करते हैं। और शाहज़ादा तुम्हें भी हम माफ़ी बख्शते हैं, जाओ।
यह कहकर बादशाह उठ खड़े हुए। नूरजहां पैर से कुचली हुई नागिन की भांति फुफकारती रह गई।
‘मैं महावत से ज़रूर कैफ़ियत तलब करूंगी।’
‘नूरजहां, वह कैफ़ियत नहीं देगा।’
‘क्या जहांपनाह की हुक्म-उदूली करेगा?’
‘इससे भी ज़्यादा कर सकता है। वह बगावत भी कर बैठे, तो कोई ताज्जुब नहीं।’
‘मैं चाहती हूं कि उसे बंगाल की सूबेदारी से हटाकर पंजाब का सूबेदार बनाकर भेज दूं। मगर लाहौर उसकी मातहती में न रहे।’
‘ऐसी बेइज्जती वह नहीं बर्दाश्त कर सकेगा।’
‘वह सल्तनत का नौकर है, अगर नमकहरामी करेगा, तो सज़ा दी जाएगी।’
‘वह महज़ नौकर ही नहीं है, सिपहसालार है, सारी फ़ौज उसके हाथ में है, फ़ौज उसे प्यार भी करती है। इसके सिवा उसने हमेशा सल्तनत की ख़िदमत बहादुरी और दयानतदारी से की है।’
जहांपनाह का यही हाल रहा, तो यह सल्तनत आंधी में उखड़े हुए दरख्त की तरह धूल में मिल जाएगी। मैं उसे पंजाब में अपने सामने रखूगी, उसकी ताक़त को कभी न बढ़ने दूंगी।’
‘जो जी में आए, सो करो। नूरजहां, तुम्हारे कहने से मैंने उसे सिपहसालार के पद से हटाकर उसी के शागिर्द परवेज़ की मातहती में बंगाल का सूबेदार बनाया, अब तुम्हें यह भी पसन्द नहीं है। प्रिये, सल्तनत में क्यों आग लगाती हो, सब काम ठीक-ठाक तो हो रहा है।’
‘तब जहांपनाह, अपनी सल्तनत को संभाल लें, अगर मुझ पर भरोसा नहीं।’
‘नहीं प्रिये, मेरी सल्तनत है शराब और स्वर-लहरी, लाओ, मैं उसमें डूब जाऊं, फिर जो जी में आए, वह तुम करना। इस मुग़ल तख्त और उसके मालिक की मालिक तुम हो।’
‘जहांपनाह को आदाब हो, जलाल मुल्ला ने जो काबुल में बगावत का झंडा उठाया है, उसके लिए क्या हुक्म है? मेरा ख़याल है, जहांपनाह को ख़ुद चलना चाहिए।’
‘अच्छी बात है, तैयारी कर लो। अब लाओ एक प्याला और एक तान सुना दो, जिससे तबीयत हरी हो जाए।’
लाहौर से कुछ इधर शाही छावनी पड़ी थी। बादशाह एक गावतकिये के सहारे लेटे थे। नूरजहां शराब की सुराही आगे धरे जाम भर-भरकर बादशाह को देती, प्रत्येक बार कहती, ‘बस, अब नहीं।’ बादशाह हाथापाई करके कहते – एक – बस – एक और।
आसफ़उद्दौला ने तम्बू में प्रविष्ट होकर कहा – महावतखां, ख़ुद आए हैं, और जहांपनाह की क़दमबोसी किया चाहते हैं।
नूरजहां ने कहा – मुलाक़ात न होगी। कह दो।
बादशाह चौंक उठे। उन्होंने कहा – यह क्यों नूर, वह सिर्फ़ मिलना चाहते हैं।
‘कुछ ज़रूरत नहीं है जहांपनाह, उसे अभी इसी वक़्त रवाना हो जाना चाहिए।’
आसफ़ ने बादशाह की ओर देखकर कहा – क्या जहांपनाह का यही हुक्म है?
‘हां, यही हुक्म है।’
आसफ़ के चले जाने पर बादशाह ने कहा – नूरजहां, सल्तनत के इतने बड़े उमराव की इस कदर बेइज्जती करना क्या ठीक हुई?
‘बिल्कुल ठीक है जहांपनाह, इससे पहले उसने एक ख़त अपने दामाद के हाथ भेजा था।’
‘उसमें क्या लिखा था?’
‘वह हुज़ूर के सुनने के क़ाबिल नहीं।’
‘तुमने क्या जवाब दिया?’
‘कुछ नहीं, उसके दामाद का सिर मुड़ा, गधे पर सवार कराकर महावत के पास भेज दिया।
‘ओफ़! नूर, जो चाहे सो करो, एक प्याला शीराज़ी मिलाकर दे दो। कलेजा जैसे निकला जा रहा है।’
हिन्दू-कुलपति महाराणा उदयपुर के अपने निवास में बैठे कुछ परामर्श कर रहे थे। द्वारपाल ने सूचना दी – मुग़ल सेनापति महावतख़ां आए हैं।
महाराणा ने आश्चर्य से देखकर कहा – उन्हें आदरपूर्वक ले आओ।
सेनापति का अचानक आ जाना राणा के लिए आश्चर्य की बात थी। महावतख़ां ने आकर राणा को प्रणाम किया। राणा ने सादर स्वागत करके पूछा – सेनापति, यों अचानक बिना सूचना दिए कैसे आ गए?
महावतख़ां ने कहा – मैं सेनापति नहीं हूं, राणा साहब!
राणा ने हंसकर कहा – समझ गया, अब आप बंगाल के सूबेदार हैं।
‘वह भी नहीं महाराणा!’
‘यह क्या! तब अब आप क्या हैं?’
‘कुछ नहीं, सिर्फ़ महावतख़ां, एक पुराना सिपाही, जिसकी रगों में राजपूतों का रक्त है, पर जो शरीर से मुसलमान है।’
महाराणा ने चिन्तित होकर कहा – क्या बात है ख़ां साहब? खैराफ़ियत तो है?
‘सब ख़ैराफ़ियत है राणा साहब, मैं सिर्फ एक नौकरी की खोज में आपके यहां आया हूं। यदि एक सेनापति का पद आपकी अधीनता में मुझे मिले, तो मैं आशा करता हूं कि मैं उसका अपमान न करूंगा।’
‘मैं अभी आपको सारी मेवाड़ की सेना का सेनापति बनाता हूं।’
‘महाराणा की जय हो। मेरी एक अर्जी और है।’
‘कहिए?’
‘मैं कुछ तनख़्वाह पेशगी लेना चाहता हूं।’
राणा हंस पड़े। बोले – क्या चाहिए?
‘सिर्फ पांच हज़ार चुने हुए सवार और छ: महीने की छुट्टी।’
‘यह कैसी तनख़्वाह है ख़ां साहब?’
‘शायद महाराणा को मंज़ूर नहीं?’
‘मंज़ूर है। आप सैनिकों को स्वयं चुन लीजिए। अगर हर्ज न हो, तो बता दीजिए कि सवारों का क्या कीजिएगा?’
‘कुछ नहीं, जहांपनाह से ज़रा मुलाक़ात करूंगा। मैं मिलने गया था, मुलाक़ात नहीं हुई। दामाद को ख़त लेकर भेजा, तो उसका सिर मुंडाकर गधे पर सवार कराया गया। अब ज़रा एक बार बादशाह से मिलना ज़रूरी है। फिर ज़िन्दगी-भर आपके चरणों का दास रहूंगा।’
राणा ने गम्भीर होकर कहा – मैं वचन दे चुका। मुझे कुछ आपत्ति नहीं।
महावतख़ां ने उच्च स्वर से कहा – महाराणा की जय हो।
‘उसके साथ फ़ौज कितनी है’
‘सिर्फ़ पांच हज़ार।’
‘और उस पर उसकी यह ज़ुर्रत!’
‘बेगम साहिबा, बादशाह और फ़ौजदार उस पार हैं, और पुल पर महावतख़ां का क़ब्ज़ा है।’
‘तब तुम तमाशा क्या देख रहे हो – पुल पर धावा बोल दो।’
‘पुल पर जाना नामुमकिन है।’
‘तब तैरकर पार जाओ।’
‘मलिका, यह ख़तरनाक है।’
‘धावा करो। महावत, हमारा हाथी दरिया में छोड़ दो। तीर और गोलियों की परवा नहीं। बादशाह सलामत दुश्मन के क़ब्जे में जाया चाहते हैं।’
‘बस, अब मार-काट बन्द करो। मुग़ल-सिपाहियो, हथियार रख दो। फ़िजूल जाने मत दो। मुझे सिर्फ़ बादशाह से मिलना है।’
जहांगीर ने खेमे से बाहर आकर कहा – यह क्या है महावत?
‘जहांपनाह, बन्दा हाज़िर है।’
‘मामला क्या है? यह लड़ाई कैसी?’
‘कुछ नहीं हुज़ूर, जब मैंने देखा कि किसी तरह जहांपनाह से मुलाक़ात नहीं हो सकती, तो मजबूरन यह रास्ता अख्तियार करना पड़ा।’
‘हमारी फ़ौज कहां है?’
‘सब उस पार है। पुल मैंने जला दिया है।’
‘समझ गया। महावत, मैंने तुम्हें माफ़ किया, अपनी फ़ौज वापस कर दो।’
‘हुज़ूर, ये लोग बिना मेरी ज़िन्दगी की जमानत लिये जाना नहीं चाहते।’
‘इसका मतलब?’
‘मतलब यही कि महावतख़ां जहांपनाह का पालतू कुत्ता नहीं कि जब आप चाहें ‘तू’ करके बुलावें, और वह दुम हिलाता हुआ चला आवे, आप जब लात मारकर दुतकार दें, तो दुम दबाकर भाग जाए।’
बादशाह ने ग़ुस्से से होंठ चबाकर कहा – खैर, क्या ज़मानत चाहते हो?
‘यह फिर देखा जाएगा, इस वक़्त तो शिकार का वक़्त हो गया है। तशरीफ़ ले चलिए।’
‘इस वक़्त शिकार? और मेरा घोड़ा?’
‘मेरा यह घोड़ा हाज़िर है।’
‘मलिका कहां है?’
‘वह महफूज जगह में हैं, उन्होंने दरिया में हाथी डाल दिया था, मेरे सिपाही उन्हें निहायत अदब से ले आए हैं।’
‘समझ गया। हम लोग तुम्हारे कैदी हैं!’
‘हुज़ूर, मैं इतनी गुस्ताख़ी तो नहीं कर सकता। मगर इतनी अर्ज़ ज़रूर है कि शहंशाह अकबर के तख्त पर से इस वक़्त जो ताक़त हुकूमत कर रही है, वह एक पागल और बेलगाम ताक़त है, उससे इंसाफ़ तो हो ही नहीं सकता, अलबत्ता यह तख़्त मिट्टी में मिल सकता है।’
‘तुम्हारी मंशा क्या है महावत?’
‘एक बार मुलाक़ात किया चाहता था, आप तशरीफ़ रखिए।’
‘अच्छी बात है, कहो किसलिए मुलाक़ात चाहते थे?’
‘हुज़ूर, मेरा एक मुक़दमा है।’
‘किसके खिलाफ़?’
‘वह चाहे भी जिसके ख़िलाफ़ हो, मगर मैं हुज़ूर से यह उम्मीद करता हूं कि आप इंसाफ़ करेंगे।’
‘मैं ज़रूर इंसाफ़ करूंगा।’
‘मेरा मुक़दमा मलिका साहिबा के ख़िलाफ़ है।’
‘क्या मुक़दमा है?’
‘उन्होंने शाहज़ादा खुशरू की हत्या कराई है।’
‘और?’
‘किसी ख़ास मतलब से वह हत्या उन्होंने शाहज़ादा खुर्रम के सिर मढ़ी है।’
‘और?’
‘वे जहांपनाह की आड़ में मनमाना जुल्म करती हैं। इससे हुज़ूर के शाही रुतबे और नेकनामी में खलल पहुंचता है।’
‘और?’
‘बस, हुज़ूर अगर इनका सुबूत चाहें, तो…।’
‘मैं इन बातों को जानता हूं, सच हैं।’
‘इन क़ुसूरों की सज़ा मौत है…।’
‘महावत…!’
‘हुज़ूर, इंसाफ़ की दुहाई है। यह मलिका के क़त्ल का हुक्मनामा है। दस्तख़त कीजिए।
‘महावत…!
‘हुज़ूर, गुनाह साबित है, इंसाफ़ कीजिए।’
‘तब लाओ,’ जहांगीर ने दस्तख़त कर दिए, और कहा – महावत, अब और क्या चाहते हो?
‘कुछ नहीं जहांपनाह! अब आप आराम फ़र्मावें।’
जहांगीर और नूरजहां दो पृथक-पृथक खेमों में नज़रबन्द थे। दोनों पर सख्त पहरा था, परन्तु उनके आराम का काफ़ी बन्दोबस्त किया गया था। नूरजहां ने महावत से कहला भेजा – मैं मरने को तैयार हूं, मगर एक बार बादशाह को देखना चाहती हूं।
महावतख़ां बादशाह की अनुमति पाकर उसे शाही डेरे में ले आए। जहांगीर ने उसे देख़ते ही आंखें नीची कर ली।
नूरजहां ने कहा – जहांपनाह! ये दस्तख़त आपके हैं?
बादशाह चुप रहा, नूरजहां ने कहा – समझ गई, तब यह जाल नहीं है! यही मैं जानना चाहती थी। मेरे ख़ाविन्द, मैं मरने को तैयार हूं; मगर हुज़ूर एक बार उन हाथों को चूम लेने दीजिए, जिन्होंने मुझे प्यार किया था, और जिन्होंने मेरे मौत के परवाने पर दस्तख़त किए हैं – इतना कहकर वह बादशाह की तरफ़ झपटी। बादशाह ने कसकर उसे छाती से लगा लिया, और भरे हुए कंठ से कहा – नूर, मैंने दस्तख़त नहीं किए हैं। तुमने सैकड़ों क़ुसूर किए, मेरे प्यारे बच्चे का खून किया – मैंने कब इसे देखा, तब से दस्तख़त मेरे कैसे हो सकते हैं! मेरे हाथों ने दस्तख़त किए ज़रूर हैं, पर हैं ये महावतख़ां के दस्तख़त।
नूरजहां ने एक बार महावतख़ां की ओर देखा, और सिर झुका लिया। वह धीरे-धीरे बादशाह के बाहुपाश से पृथक हुई, और फिर महावतख़ां के सामने खड़े होकर बोली – महावत, अब तुम मुझे क़त्ल करो। पर एक औरत पर फ़तह हासिल करके तुम कुछ सुर्खरू न होगे। खैर। – नूरजहां और कुछ न कह सकी, वह टप-टप आंसू गिराने लगी।
शायद नूरजहां ने ज़िन्दगी में पहली बार ही आंसू गिराए थे।
बादशाह से न रहा गया। उन्होंने अवरुद्ध कंठ से कहा – महावत!
‘जहांपनाह!’
‘नूरजहां की जान बख़्श दो। मैं तुमसे यह भीख मांगता हूं।’
क्षण-भर महावतख़ां चुप रहे, और फिर उन्होंने एक लम्बी सांस ली। उनके मुंह से निकला – जहांपनाह की जैसी मर्ज़ी।
इसके बाद महावतख़ां तीर की भांति खेमे से बाहर निकल गया। और दोनों प्रेमी परस्पर पाशबद्ध होकर रोने लगे। क्या ये प्रतापी सम्राट और दर्प-मूर्ति सम्राज्ञी थे।
आज बादशाह हाथी पर सवार होकर शिकार करने निकले हैं। महावतख़ां का कड़ा पहरा बादशाह पर है। बादशाह की ज़िद से मलिका भी हाथी पर सवार हो गई है। महावतख़ां साथ है। रावी के किनारे-किनारे धीरे-धीरे हाथी बढ़ रहा था, और फ़ौज का एक टुकड़ा धीरे-धीरे पीछे आ रहा था।
अचानक चीत्कार करके नूरजहां ने कहा – महावत, हौदा ढीला है, ठीक करो। महावत जल्दी से हाथी की पीठ की ओर चला गया। क्षण-भर में नूरजहां बिजली की भांति कूदकर हाथी की गर्दन पर आ बैठी, और ज़ोर से अंकुश का एक वार करके हाथी को नदी में हूल दिया। क्षणभर में ही देख़ते-देख़ते यह सब कौतुक हो गया। जब तक महावतख़ां दौड़े, तब तक हाथी दरिया में पहुंच चुका था। बादशाह ने विस्मित होकर नूरजहां के साहस को सराहा। नूरजहां ने दृढ़ स्वर से कहा – जहांपनाह, बेख़ौफ़ बैठे रहें।
हाथी सकुशल दरिया पार उतर आया। नूरजहां भूल गई थी कि किस प्रकार उसका मृत्यु-दंड टाला गया था। बादशाह शराब की बूंट पी रहे थे। उन्होंने प्याला ख़ाली करके कहा :
‘नूर, तुमने बड़ी हिम्मत से मेरी जान बचाई।’
‘और जहांपनाह ने भीख मांगकर मेरी जान बचाई। कहिए, बादशाह कौन ?'
‘तुम नूर, एक प्याला अब और दे दो और ज़रा दिलरुबा उठाकर एक विहाग की तान सुना दो।’