नूर मियाँ की तलाश में (निबंध) : केदारनाथ सिंह

Noor Miyan Ki Talash Mein (Hindi Nibandh) : Kedarnath Singh

फरवरी के शुरू में अचानक गाँव जाना हुआ। यह समय है, जब गाँव बौरों के आने और फसलों के पकने का इंतजार करता है। अबकी मैंने पाया कि लोग आम के पेड़ों की ओर तो गाहे-बगाहे देख लेते हैं- यह जानने के लिए कि बौर अभी आए या नहीं - पर फसलों के पकने के प्रति जो उत्कट उत्सुकता होती थी, उसकी तीव्रता कम हो गई है। एक वृद्ध जन से पूछा तो उन्होंने बताया कि सत्तर साल पहले जब उन्होंने होश सँभाला था, तब से आज तक ऐसा नहीं हुआ था। ऐसा क्यों हुआ, यह पूछने पर वे शहर की चर्चा करने लगे। बोले - "सब उधर ही भाग रहे हैं। खेती में क्या रखा है ? सारी पूँजी लगा दो और जब फसल घर आए तो गाँठ की दमड़ी भी गँवा दो। ले-दे बराबर भी हो तो किसान बर्दाश्त कर ले। पर अब तो सारा गाँव बाजार की ओर मुँह किए बैठा है।" यह उस वृद्ध किसान की बातचीत का सारांश है, जो मुझे कहीं गहरे छू गया।

इस समय गाँवों में एक बिल्कुल नई बेचैनी है। सड़कें बन रही हैं। पुल बन रहे हैं। नई ट्रेनों का चलना शुरू हो गया है। पर लोग बेचैन हैं। उन्हें शिकायत है कि शहर हमारी ओर ध्यान नहीं देता। पर विडम्बना यह है कि वे चाहते हैं कि उनके बेटे का उसी शहर में कहीं जुगाड़ हो जाए। थोड़े-बहुत अन्तर के साथ आज सारे के सारे भारतीय गाँव इन्हीं विरोधाभासों के बीच कहीं जी रहे हैं ।

पर इस बार गाँव गया तो मन में कहीं एक दबी हुई इच्छा भी थी कि नूर मियाँ के बारे में कुछ पता किया जाए। नूर मियाँ- यानी वह एक जीती-जागती सचाई, जिसका मेरी एक कविता- 'सन् 47 को याद करते हुए' में जिक्र आता है। मेरे एक स्नेही पाठक ने कभी आग्रह किया था कि यदि सम्भव हो तो नूर मियाँ के जीवन पर थोड़ा और प्रकाश डालूँ। आज से 52 या 53 साल पहले वे उसी गाँव के निवासी थे, जिसका मैं पहले जिक्र कर चुका हूँ। मैंने अपने बचपन में उन्हें देखा था । जहाँ तक मुझे याद आता है, वे कोलकाता की किसी जूट मिल में काम करते थे और जिस तरह का काम करते थे उसे सभ्य भाषा में मजदूरी कहा जाता है। मुझे यह भी याद है कि जब भी वे छुट्टी में गाँव आते थे तो अड़ोस-पड़ोस के बच्चों के लिए कुछ न कुछ लेकर जरूर आते थे। उसका एक हिस्सा मेरे परिवार तक भी जरूर पहुँचता था ।

उनका एक छोटा-सा घर था -मिट्टी का । मेरी स्मृति में कहीं न कहीं यह भी टँका है कि उसमें प्रवेश करने के लिए झुककर जाना पड़ता था । कुलजमा उनके पास यही एक जगह थी, जिसे वे अपना कह सकते थे। घर में बीवी थी, पर बच्चा कोई नहीं । मुझे उस नाटे कदवाली स्त्री की भी अच्छी तरह याद है, जिसे मैंने अक्सर एक छोटी-सी टोकरी के साथ खेतों की ओर जाते हुए देखा था । ऐसा गाँव के मजदूर-परिवारों की ज्यादातर स्त्रियाँ करती थीं। उन्हें उस समय भी खेतों की ओर जाते हुए देखा जा सकता था जब खेत कट चुके होते थे और दूर-दूर तक हरियाली की एक खुत्थी तक दिखाई नहीं पड़ती थी । पर आश्चर्य यह कि जब वे लौटती थीं, तो उनकी टोकरी में कुछ न कुछ जरूर होता था । यह 'न कुछ' से कुछ न कुछ निकाल लेने की जुगत सिर्फ गाँव की स्त्रियाँ जानती हैं। नूर मियाँ की बीवी ऐसी ही स्त्रियों में से एक थीं। नूर मियाँ जितने ही विनम्र थे, भीतर से उतने ही स्वाभिमानी। पर उनकी बीवी एक ऐसी स्त्री थीं, जिन्हें आते-जाते तो देखा जा सकता था, बोलते हुए शायद ही किसी ने कभी सुना हो । गाँव में मुसलमानों के कई परिवार थे - कोई सात या आठ - और सबकी स्थिति कमोबेश एक जैसी ही थी।

कभी-कभी उन परिवारों को देखकर मैं सोचता था कि वह क्या है उनके भीतर जो अपने ही समाज में अलग-थलग रहते हुए भी अपनी मिट्टी और अपने समूचे परिवेश से कहीं दृढ़ता से बाँधे रखता है। क्या धर्म से बड़ी ताकत मिट्टी की होती है ? सन् 47 में जब भारत आजाद हुआ तो उसके बाद गाँव के लगभग सारे मुस्लिम परिवार गाँव में ही बने रहे। पर सिर्फ एक नूर मियाँ का परिवार था जिसने एक रात चुपचाप, शरतचन्द्र की कहानी 'महेश' के वृद्ध दम्पत्ति की तरह (जो संयोगवश मुसलमान ही थे) अपने ढहते हुए मिट्टी के घर को वहीं छोड़कर गाँव तज देने का फैसला किया। अगली सुबह सारे गाँव में यह अफवाह गर्म थी कि वे पाकिस्तान चले गए। फिर क्या था, उनके मकान को ढहा दिया गया, सामने के चबूतरे को तोड़ डाला गया (जहाँ कभी ताजिए रखे जाते थे) और बची हुई जमीन को लोगों ने आपस में बाँट लिया। यह मान लिया गया था कि अब नूर मियाँ कभी नहीं आएँगे। पर कुछ समय बाद अचानक एक दिन उन्होंने प्रकट होकर सबको चकित कर दिया। मैं तब गाँव में नहीं था । पर लोग बताते हैं कि वे आए, उन्होंने उस स्थान को देखा, जहाँ कभी उनका घर हुआ करता था और कुछ देर वहाँ अवाक् खड़े रहे। उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा- जैसे सबकुछ उन्हें पहले से मालूम हो। फिर कुछ देर वहाँ खड़े रहने के बाद मुड़े और चुपचाप वहीं लौट गए, जहाँ से आए थे। पर कहाँ लौट गए, इसको लेकर गाँव में कई तरह की चर्चाएँ थीं । ज्यादातर लोग यही मानते थे कि वे पाकिस्तान चले गए। बहस सिर्फ इस बात पर होती थी कि कौन-सा पाकिस्तान - पूर्वी या पश्चिमी ? बहसें धीरे-धीरे थम गईं। पर उसके काफी बाद तक कुछ लोगों के भीतर - खासकर गाँव की वृद्धा स्त्रियों के मन में एक आशंका भरी प्रत्याशा अटूट बनी रही कि एक दिन अचानक वे उसी तरह प्रकट हो जाएँगे, जैसे उस बार हो गए थे। पर ऐसा नहीं हुआ ।

इस बार गाँव में एक ऐसे आदमी से भेंट हुई, जो कोलकाता पुलिस की सेवा से अभी-अभी रिटायर होकर आए थे। बातचीत के क्रम में न जाने कैसे नूर मियाँ का जिक्र आ गया। फिर उन्हीं से पता चला कि वे ढाका या मुल्तान कहीं नहीं गए थे - अन्तिम क्षण तक यहीं थे-हावड़ा की एक पुरानी गन्दी गली में । अकेले नहीं थे, बीवी भी साथ में थी और दोनों अन्तिम दिनों में अंधे हो गए थे। अंधा होने के लिए पाकिस्तान या कहीं भी और जाने की कतई जरूरत नहीं थी ।

'सन् 47 को याद करते हुए' कविता जो कहती है, वह कविता का अपना तर्क है। पर मुझे कविता लिखे जाने के काफी समय बाद पता चला कि नूर मियाँ के जीवन का गति - चक्र कुछ और था । वही उन्हें गाँव छुड़ाकर हावड़ा की अँधेरी गलियों में ले गया और उसी के भीतर कहीं अंधेपन के अदृश्य कीटाणु भी छिपे थे, जो भारत में भी उतने बहुतायत से पाए जाते थे, जितने पाकिस्तान में । नूर मियाँ ने उसी को चुना-न भारत को चुना, न पाकिस्तान को ।

पर यह सवाल तो अब भी अनुत्तरित रह जाता है कि आखिर गाँव छोड़कर उन्हें शहर की ओर क्यों भागना पड़ा ? क्या वहाँ अधिक सुरक्षा थी ? जो आँकड़े मौजूद हैं, वे इसकी गवाही नहीं देते। फिर वह क्या था, जो उन्हें हावड़ा की उन्हीं अँधेरी गलियों की ओर ले गया, जहाँ कभी वे रह चुके थे ? यह वही हावड़ा था जो कुछ महीने पहले हुए दंगे में खुद उजड़ चुका था और नूर मियाँ थे कि उसी उजाड़ बस्ती में रोशनी की तलाश में गए थे। मुझे नहीं लगता कि यह सिर्फ साम्प्रदायिक असुरक्षा थी जो उन्हें गाँव से ढकेलकर शहर की ओर ले गई थी। सचाई यह है कि आधुनिक गाँव जब भी परेशान होता है तो शहर की ओर भागता है। नूर मियाँ ने यही किया था। अब इसका क्या करें कि सारे विकास के बावजूद आज गाँव का किसान अपनी अनाज की ढेरी लिए खलिहान में बैठा है और उसी शहर की ओर ताक रहा है !

('कब्रिस्तान में पंचायत' में से)

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