नित्य लीला : फणीश्वरनाथ रेणु

Nitya Leela : Phanishwar Nath Renu

किसन ने गली से आँककर देखा, नन्दमहर और जशुमति गोशाले की अँगनाई में बैठे किसी गम्भीर बात पर सोच-विचार कर रहे हैं।

पिता की मुद्रा से स्पष्ट है कि आज उनकी दाढ़ में फिर दर्द उभरा है, और सिर्फ गोधूलिवेला को काटने के लिए बैठे हुए हैं।

दालान में कमरिया बिछी हुई है; दीया-बाती होते ही लेट जाएँगे। और आज तो माँ के सिर में दर्द होगा ही।

किसन का माथा ठिनका। दैव जाने, आज कितने उलाहने आए हैं! उलाहने- अभियोग नहीं, आज ज्योतिष-शिरोमणि गर्ग आए थे।

तब तो दो-तीन दिन तक यह दर्द छाया रहेगा!

किसन सोचने लगा...यह गर्ग पंडित न जाने किस गैल से आता है, आजकल! नारद को तो ख़ैर...सभी जान गए हैं।

किन्तु, यह गर्ग बड़ा हिसाबी है।

ऐसी यात्रा बनाकर चलता है कि गोकुल में प्रवेश करते समय किसन से भेंट ही न हो ।

बूढ़ा, मधुबन में लुक-छिपकर कुछ देखता-वेखता तो नहीं ?

न जाने क्या-क्या भूत-भविष्य- वर्तमान की बातें हाॉँक जाता है कि दो-तीन दिन तक घर - भर के लोगों के मुँह लटके रहते हैं ।

एक दिन भेंट हो जाए तो किसन समझा देगा, फिर से। इस बार समझाने के बाद भी यदि ब्रज में आकर मेष-वृष करेगा, तो किसन भी गर्ग को भविष्यवाणी सुना देगा!

आज ही सुना देना उचित होता।

गर्ग को क्या! ऊन की बात दून करके सुनाता है।

दक्षिणा-प्रणामी से उसकी गठरी-झोली भरती है।

आज ही तो देखा, चार-चार ग्वाले सिर पर अरवा चावल की बोरियाँ और कच्चे केले के घौंद कन्धे पर लेकर उसके साथ जा रहे थे।

झेलना पड़ता है किसन को।

और सबकुछ सह सकता है किसन, किन्तु घर-भर के लोगों के लटके हुए मुहं के बीच उसका दम घुटने लगता है।

उस दिन, गौ-बछड़े भी लम्बी-लम्बी | लेकर रात काटते हैं।

ब्रजनारियों के उलाहनों से विरक्त होकर जिस दिन माँ मुँह लटकाती है, उस दिन कम-से-कम ऐसी उदासी तो नहीं छाती। एक ओर, दहलीज में गोपबालाएँ झुंड बाँधकर खड़ी रहती हैं।

बारी-बारी से आगे आकर अपना अभियोग सुनाती हैं। बीच दालान में मोढ़े पर बैठी माँ किसन से पूछती है-“इसका जवाब दो!...लो, यह क्‍या कहती है ?...लाज नहीं आती रे किसना ? छि:-छिः!

समझाकर मैं हारी... ।

किसन प्रत्येक अभियोग की सफाई देता है। गौओं और बछड़ों की साक्षी देकर कहता है-“क्यों धौली, बात सच है न ?” धौली गौशाले से तुरत हुँक-हूँ” कर जवाब देती है।

किसी अभियोग के जवाब में किसन इतना ही कहता है -“नन्हा बछड़ा भी वहाँ मौजूद था। वही कहेगा ।”

फिर तो उलाहना देनेवाली की बोली नन्हे बछड़े की डकराहट में खो जाती है। तार-स्वर में पुकारकर अभियोग के विरुद्ध गवाही देता है नन्हा! तब किसन हँसकर कहता है-“सुन रही है माँ! साफ़-साफ़ कह रहा है, सब झूठ! बोलो माँ, पशु बेचारा किसी के लिए झूठ बोलेगा ? आँ ?”...झूठी गोपियाँ खिलखिलाकर हँसती हैं तो दालान में लेटे नंदमहर डॉट देते हैं-“क्यों एक निर्दोष को रोज-रोज़ आकर तुम लोग दोष लगाती हो ?” गोपियाँ तलहथी से अपने-अपने मुँह की हँसी मुँह में ही दबाकर भागती हैं।

किन्तु गर्ग के फैलाए हुए वातावरण में तो बस दर्द-ही-दर्द है।

किसन आज दिन रहते ही मधुबन से लौट आया है। आज वह इस विषाक्त वायुमंडल को शुरू में ही शुद्ध करके हल्का करेगा ।

पता लगाना होगा, आज गर्ग ने फिर क्‍या कहा है।

गली के दूसरे छोर पर सलोने बछड़े पर दृष्टि पड़ी। किसन को मधुबन में न देखकर भागा आ रहा है, कुलाचें भरता हुआ ।

टिनिंग-टिनिंग ! एँ-याँ-याँ! किसन ने पुकारकर कहा, “ओ-ले! आजा!” किसन ने अपनी तलहथी सामने कर दी। सलोने ने तलहथी में एक हुँत्था दिया-उँ-याँ-याँ!...क्यों भाग आए ?

किसन बछड़े के साथ दौड़ता हुआ गौशाले की अँगनाई में चला गया।

टिनिंग-टिनिंग! जशोदा दीप जलाने जा रही थी।

सलोने ने प्यार से एक हँत्था उसे भी लगा दिया। घी-भरा दीप छलक गया-“आ : सलोने!... कन्हाई!”

किसन ने माँ की विरक्त-वाणी परख ली।

वह हत्‌प्रभ-सा खड़ा रहा।

धूप-दीप देने के बाद, शंखध्वनि के समय सलोने ने सुर-में-सुर मिलाकर 'उँ-याँ-याँ' 'कहा। किसन ने डॉट बताई-“ए! शंख का मुँह चिढ़ाता है तू और बात सुनूँगा मैं।” शंख को पानी में पखारती हुई जशुमति तनिक हँसी-: 'मुँह नहीं चिढ़ाता है। वह शंख के साथ रोज़ जय-ध्वनि करता है।”

कन्हाई ने माँ की हल्की हँसी देखी, तो मन-ही-मन जय-जय किया ।...गर्ग की बात को वह फूसफास करके उड़ा देगा।

जशुमति ने मुँह मीठा करके जलपान करने को कहा। किसन ने अपने घुँघराले बालों को झटककर कहा, “दाऊ को आने दो।”

जशुमति ओसारे पर बैठकर जड़ी-बूटी की झोली से कुछ निकालने लगी। किसन ने जरा मद्धिम आवाज़ में पूछा, “बाबा की दाढ़ में दर्द है क्या ?”

माँ चुप रही। किसन ने समझ लिया, गर्ग पर चोट करने का अवसर नहीं आया है।

कुँअर-कन्हाई ने माँ को अत्यावश्यक सूचना देने के लहजे में कहा, “सुन लो माँ, मैं आज से दूध नहीं पियूँगा।

हाँ!” नंदमहरि कोई जड़ी खोंटती हुई बोली, “यह तो रोज सुनती हूँ।” उसने किसन की ओर प्रश्न-भरी दृष्टि से देखा-''क्या बात है ?”

किसन जोर-जोर से महत्त्वपूर्ण कारणों-पर-कारण सुनाने लगा ।...माँ को बोलने का अवसर ही क्यों दिया जाए?-क्यों? बताऊँ...? यह तुम्हारा गुणधर सलोना कभी मुँह-दाँत भी धोता है? कभी भूल से भी दाँत में मिट्टी नहीं लगाता |

जशुमति खरल में औषधि घोंट रही थी। कुँअर को अप्रस्तुत करने के लिए बोली, “मुँह धोने के बहाने मिट्टी खाने की आदत न पड़ जाए।”

नन्दलला के चेहरे पर क्षण-भर के लिए लजाने का भाव आया। किन्तु वह तुरत ही सहज हो गया। बोला, “मुँह में ऐसी दुर्गन्ध है कि कोई पास भी नहीं बैठ सकता इसके। इसकी माँ के थन में इसकी थूक-लार लग जाती है।...उवाक्‌ !”

-ऊँ-यॉ-याँ! “अमृत भी क्‍यों न हो, मैं सलोने की माँ का दूध नहीं पियूँगा।” किसन ने लपककर सलोने की थुधनी पकड़ ली-“इधर देखो माँ! आज जमुना-कछार की मिट्टी से दाँतों को रगड़ दिया है, मैंने। कितने चमक रहे हैं! किन्तु मुँह में अभी भी गन्ध है।” -ऊँ-याँ-याँ!

सलोना अपनी थुथनी छुड़ाकर जरा पड़े खड़ा हो गया।

नन्दरानी के होंठों पर किसी कोने में दबी मुस्कुराहट की एक झलक देख ली किसन ने।

फिर, अपना छोटा मोढ़ा खिसकाकर माँ के पास जा बैठा और आवाज को आवश्यकतानुसार मद्धिम करके पते की बात बनाने की मुद्रा बनाई उसने-“सुनती हो माँ, यह असभ्य भी है।

थोड़ा नहीं, ज़्यादा! कपड़ा नहीं पहनता कभी | उस दिन अपनी करधनी इसकी कमर में बाँधकर पीताम्बर की लँगोटी पहना दी मैंने। जानती है कया किया तुम्हारे दुलारे ने! सब गोबर!”

-उँ-यॉँ-याँ!

चरवाहा किसन ने लड़ने लगा सलोना।

किसन हँसा-“आजकल मुझसे हमेशा लड़ना चाहता है। छोटे-छोटे उगते हुए सींगों पर इतना गुमान ?

वाह रे लड़ाकू!”

सलोना दो बार हुँत्था मारकर जशोदा के आँचल में जा छिपा-उँ-यॉँ-याँ!

“हारा, हारा!”

“सलोना चिढ़ गया है।...बेचारा!” जशुमति बड़े लाड़ से बछड़े को चुमकारकर हँसी, बोली, “बड़ा आया है कोई इसका मुँह धुलवाने, गंगा-जमुना की माटी से।

ए-हे! दूध नहीं पियेगा जूठा इसका और पूतना राकसनी के बेटे केसर से मुँह धोते थे, क्यों ?...मुँह में गन्ध है! थुथनी-में-थुननी सटाकर सोता है रात-भर, सो ?”

किसन अपनी बाँसुरी के छेदों को देखने लगा।

जशोदा दवा कूट चुकी थी। उठने के पहले बोली, “देख, देख! सलोना मेरे कान में क्या कह गया, धीरे-धीरे । सुना तुमने ?

कहता है, मैं तो नन्‍दी बाबा हूँ। गोपाल अपनी काली कमरी, कौपीन, का लेंगोटी और पीताम्बर अपने पास रखें। यहाँ किसी को लाज नहीं आती- जाती... ।”

गोपाल लजा गया। माँ मुग्ध होकर लजाते किसन का रूप देखने लगी, एकटक।

किसन को विश्वास हो गया, गर्ग पंडित ने कोई वैसी बात नहीं कही है आज।

वह मोढ़े से उठता हुआ बोला, “कल से गोशाले में पगहिया लगाकर बाँध जाया करूँगा।”

“और द्विन-भर यहाँ “उँ-याँ-याँ” कर डकारता रहेगा।”

“तो क्‍या करूँ? बन में कभी चैन से रहता है यह ?

झाड़ी-झुरमुटों में दिन-भर कौन ढूँढ़ता फिरे! इधर से हँकाया तो उधर जाकर जमुनाजी में कूदने को तैयार !...जानती हो माँ! जमुना के कछार पर खड़ा होकर पानी को अचरज से देखता है।

फिर उसकी परछाईं देखकर भड़कता है, भाग आता है।”

“उसका क्‍या कसूर? संग-दोष... |”

नन्दमहरि दवा-बूटी लेकर नन्द की परचर्या करने चली गई। बाहर से किसी ने पुकारकर कहा, “तुम्हारी गौवें आई, ओ रे किसना!

किसन दौड़कर बाहर गया । गोप-सखा ने सुनाया, “बलदाऊ मौसी के घर गए।”

किसन उदास हो गया...दाऊ भी नहीं आज!

गौवें हुलसकर रँभाती आईं, किन्तु किसन को सूँघ-साँघकर चुप हो गई। सिर्फ़ सलोना इधर-उधर दौड़कर गले में बँधी हुई झुनकी बजा रहा है-टिनिंग-टिनिंग ।

उलाहना देने के लिए आई हुई गोपिकाएँ नन्‍्दमहरि की शान्त हवेली में गुमसुम खड़े किसान को झाँककर लौट गई-साँवरिया पर आज बुरी तरह डॉट पड़ी है शायद!

क्षण में ही सारा गाँव उदास हो गया।

नन्द-जशोदा के इस लाड़ले को ब्रज का एक-एक जन अपने दिए हुए नाम से पुकारता है-काला, साँवरिया, मोहन, कन्हैया, गोपाल, केशव, मुरारी, चोर, छिछोर, बटमार, बनमाली, हरि...हरि के हज़ार नाम!

मनसुखा की माँ लाठी टेकती आई-“ओ बाँके! बॉकेबिहारी-ई-ई !”

किसन ने इशारे से बूढ़ी को समझाया कि आज यहाँ सभी के सिर-दाँत-आँख- कान-मन में दर्द है!...दर्द/ मनसुखा की माँ को एकान्त में बतियाने का औसर मिला है बहुत दिन बाद। वह क्यों टले ?

बाॉँके के पास जाकर फुसफुसाकर बोली, “दर्द नहीं, गर्ग! वो बूढ़ा पंडित फिर आया था आज ! मैं दोपहर में आई तो देखा फुसुर- फुसुरकर बतिया रहे हैं सभी। यों तो मैं कान से कम सुनती हूँ, लेकिन पीठ-पीछे बॉके का नाम ले कोई, और मैं न सुनूँ भला!...वो गर्ग पंडित कह रहा था कि लाड़-प्यार, जोग-जतन करो, लेकिन किसुन किसू का नहीं होगा, किसू का नहीं!”

किसन ने मनसुखा की माँ के कान में मुँह सटाकर पूछा, “और क्या-क्या कह रहा था ?”

“और न जाने क्या-क्या इरिंग-विरिंग बता रहा था, एक दीवार की आड़ में। सो भी इस कान से सुनकर मैं क्या समझती ?

इसी से तो कहती हूँ कि कोई दवा-दारू इस कान की तुम्हारे पास...क्यों ? सभी तो कहते हैं कि बाँके बैद भी अच्छी है।

अच्छी बात। दवा न सही, तू एक बार फिर मेरे कान के पास फुसफुसाकर कुछ कह। या वो गर्ग पंडित की बात ही ठीक है ?”

किसन ने मनसुखा की माँ के पास बाँसुरी रखकर फूँक दी-सी-ई-ई-ई! कानों की राह बूढ़ी के मरम में पैठ गई वंशी-ध्वनि! बोली, “हाँ रे बाँके! इस: कान से तो अब कुछ-कुछ साफ़ सुन रही हूँ। किसी दिन इस कान में भी... ।”

जशोदा बाहर आई तो मनसुखा की माँ ने किसन को आँख की कनखी से समझाया-गर्ग की बात पूछते समय मेरा नाम मत लेना ।

इसके बाद मनसुखा की माँ बोली-बाणी बदल गई, हाथ में लाठी लेकर उठ खड़ी हुई-“मेरा मनसुखा ऐसा नहीं था, बाँके! तुम्हारे साथ रहकर मेरा मनसुखा भी चौपट हो गया ।

किसी को बुरी लगे या भली, मनसुखा की माँ चापलूसी नहीं करती...जो अपने माँ-बाप का होकर नहीं रहेगा, वह किसू का नहीं हो सकता ।”

जशोदा तमककर बोली, “क्या बकने आई है भरी साँझ की बिरियाँ!”

“हॉ-हाँ, मैं बकती हूँ।

नन्दराज ने नाराज़ होकर पुकारा, “मनसुखा की माँ-आँ-ऑँ!” बूढ़ी लाठी टेकती नन्दमहर की हवेली से बाहर हो गई।

किसन को उदास देखकर जशोदा बोली, “तू दाऊ के लिए बैठा है यहाँ और दाऊ उधर मौसी की आँखों में जाकर समा गया है। चलो, कुछ खा लो मोहना !”

“ना!...ना! ना!”

ऊँ-याँ-याँ ।

कुँअर, चलो, टटकी-टटकी दहैंड़िया बाँछके रखी है मैंने।”

“ऊँहुक!...गर्ग पंडित के साथ क्‍यों न भेज दीं मटकियाँ ?”

“अहा बेचारा ब्राहमण...!!

“सब बेचारे हैं, एक मैं हूँ आवारा। मेरा कोई विश्वास नहीं...”

“कौन कहता है?” जशोदा मनाने लगी किसन को। सलोने ने किसन को एक हुँथा मारकर समझाया-माँ की बात काटता है ?

रात में किसन उठकर बैठ गया-“मैया, कया है? रोती क्‍यों है? सिर में दर्द है, बहुत? लाओ टीप दूँ।”

जशोदा ने किसन की कलाई पकड़ ली-“ना-ना, मैं रो नहीं रही । सपना देख रही थी।...तू सो जा। आ!”

मनसुखा की माँ से जितनी बात मालूम हुई है, बात उससे आगे बढ़ गई है।...धक्‌-धक्‌-धक्‌-धक्‌...किसन अपनी माँ के कलेजे की धड़कन को स्पष्ट सुनता है। साँसों के चढ़ाव-उतार को परखता है।

दर्द बहुत गहरे बज रहा है।...कोख की सन्‍्तान के लिए किस माँ का मन न तरसेगा, रोएगा!

तो क्या सचमुच किसन का कोई अपना नहीं ?

गोकुल की गलियों में, गैल भूल एक गोरी किशोरी भटक रही है और नन्द-जशोदा का घर पूछ रही है-“कोई बताइयो जरा! नन्दमहर की हवेली को किस राह जाऊँ ?”

अरी, यह कहाँ की गोरी आई है, गुमान-भरी? इत्ती-सी छोरी की बोली सुनो, कैसी विष-भरी है! कोई इस तरह भी राह-घाट पूछती है भला! अपना नाम-धाम कुछ नहीं बताती... ।

गोकुल की गोपियों ने गोरी को चारों ओर से घेर लिया-“ऐसी टेढ़ी-तिरछी बात क्यों करती है री ? तेरे साथ कोई मर्द-पुरुष नहीं ?”

“ना भैया! देखती हूँ यहाँ के लोग तन के ही नहीं, मन के भी काले हैं। कैसा है यह गोकुल गाँव रे बाबा!”

“सुनती है इसकी बोली!” बड़ी-बूढ़ियाँ भी आकर जमा हो गई-“'क्या है? काहे की भीड़ लगा रखी है यहाँ ?”

अपरिचिता किशोरी भीड़ से निकलकर बाहर आई-“हाँ-ए! तुम लोगों ने अपनी-अपनी बहू - बेटियों को यह कैसी सीख दी है कि भूली-भटकी परदेसिन को राह भी न बताए कोई ? नन्दराज की ड्योढ़ी किधर है ?”

बूढ़ियाँ भी तिलमिला उठीं-“और तू ही किस राजा की बेटी है कि परदेश में आकर ठेढ़ी-टेढ़ी बातें करती फिर रही है ? अपना नाम-धाम क्‍यों नहीं बतलाती ?”

गोरी का चेहरा टेसू के फूल जैसा रह गया-“मैं मथुरा से आ रही हूँ। बसुदेव राजा की लेटी और महाराजा कंस की भांजी... ।”

“भांजी ? कंस की ई-ई ?” सभी ग्वालिनें एक साथ चीख पड़ीं।

क्यों ?” गोरी मुस्कुराई।

एक बूढ़ी ने कहा, “यह कंस की भेजी कोई डाकिनी है री !”...कंस की भांजी !”

“कोई बुलइयो यदुराई को! दौड़ो मुरारी-ई-ई-ई!” एक गोपी चिल्लाई।

गोरी हँसी-“अकेली क्‍यों, सभी मिलकर पुकारो। कहीं सोया...” “तू चुप रह!...देखती रहो, भागने का पाए। बड़े मौके से गाँव में घुस आई है।!

गोरी गठरी रखकर बैठ गई-“देखती हूँ, वह छोकरा ठीक ही कह रहा था।”

“कौन छोकरा ?...सुन री ललिता, अब किसी छोकरे की बात कर रही है!”

गोरी अपने बाजूबन्द के ढीले बन्धन कसने लगी-“वही काला-कलूटा; घटवार का बेटा होगा।"

“काला-कलूटा ?...घाट के इस पार या उस पार ?”

“घाट के उस पार के लोग काले नहीं होते और न गैंस-जैसा कोई जानवर ही हम पालते हैं ।” गोरी आँखें नचाकर बोली, “नाव लेकर दौड़ा आया मेरे पास। मैं क्यों उसकी नाव पर पाँव रखने जाऊँगी? जमुना पार करने के लिए नाव का क्या काम ?...हाँ-हाँ, पैदल नदी पार करके आई हूँ। पूछना अपने उस घटवार के बेटे से ।”

“तो उस लड़के ने क्या कहा ?”

“कहेगा क्‍या, भला ? कुछ मिनमिनाकर बोला, तो मैंने सुना दिया, मैं कंस की भांजी हूँ।...राह-घाट में लड़कियों को छेड़नेवाले की सूरत देखकर ही पहचान लेती हैं मथुरा की छोहरियाँ। हॉँ-आँ!”

“अभी तुमने बताया न, ठीक कह रहा था वह।...क्या कहा है उसने ?”

“ओ-हो! वह तुम्हारे गाँव की लड़कियों के चाल-चलित्तर के बारे में कह रहा था...कि गोकुल गाँव में जरा होशियारी से जाना। वहाँ दो ऐसी चोरनियाँ हैं कि बात-बात में झगड़ा करके आँख के सामने से चीज़ें गुम कर देती हैं।”

“चोरनियाँ?...नाम भी बताया किसी का ?”

गोरी ने ललाट पर बल डालकर याद करने की चेष्टा की-“क्या नाम भला...हाँ, वृषभानु की बेटी एक और उसकी सखी दूसरी।”

राधा ललिता ? सभी ब्रजनारियों ने राधा और ललिता की ओर देखा। राधा और ललिता की आँखें आपस में मिलीं ।...सुनती है ?

कई गोपबालाओं ने एक साथ कहा, “यह झूठ बोलती है। किसन ऐसी बात नहीं कह सकता कभी ।...अच्छा, उसने अपना नाम भी बताया।”

“हाँ! बोला, मेरा नाम बाँसुरीवाला है। मुझे अपनी बाँसुरी सुनाकर थोड़ी देर अटठकाना चाहता था । जैसे मैं उसकी पीं-पीं-रीं-रीं सुनने के लिए ही गोकुल आई हूँ।” गोरी गठरी उठाकर चली-“कह रहा था बेचारा बाँसुरीवाला, कि उसकी बाँसुरी कई बार इसी तरह चुराई गई है।” मर

सभी गोपबालाएँ चुप हो गईं। राधा और ललिता की आँखों में आँसू छलकने लगे। अपमान और ग्लानि के अलावा और न जाने कैसी आग जल उठी सभी के मन में ।

मनसुखा की माँ गोरी के पीछे-पीछे चली-“अरी ओ छोहरी! तेरी गठरी में क्या है ?...कोई दबा-बूटी भी रखती है कान की? कहाँ जाएगी? नन्दमहर की हवेली ? चल, मैं ले चलती हूँ।”

गोपिकाओं ने राधा और ललिता को समझाया। फिर आपस में तय किया कि चलकर किसन से पूछा जाए...क्यों ऐसी छिछोरपन की बातें करता है?...इस बार जो बोले फिर उस झूठे से...!

सभी अपनी-अपनी गेंडली और गगरी लेकर निकल पड़ीं, घाट की ओर!

जशोदा ठगी-सी खड़ी रही ।...यह कौन अनदेखी-अनजानी लड़की पैर पर माँ कहकर लुढ़क गई।

“मैया री! अपनी बेटी को भी नहीं पहचानती ?” गोरी रोने लगी-““अपनी कोख की बेटी को भी नहीं पहचानती! मैं हूँ योगमाया ।”

“योगमाया ?” जशोदा और भी अचरज में पड़ी-““कहाँ से आई ?”

“क्यों ? मथुरा से ।...ओ, मैं समझ गई, मैया! झूठी-झूठी बातें उड़ती-पुड़ती यहाँ भी पहुँची हैं। किसी ने सुनाया होगा, आकाश में उड़ गई। कोई कहता होगा, कंस ने मार दिया। मैं जानती हूँ।

मथुरा में एक पंडित है गर्ग । वह इधर भी आता है क्या ? उसका परतीत मत करना कभी। मेरी हथेली देखकर न जाने क्या-क्या कह दिया माँ से।

बस, उसी दिन से माँ मुझसे... ।”

गोरी ने देखा, जशोदा की आँखों में विश्वास की हल्की रखा भी नहीं उभरी अब तक | तब वह जशोदा के गले में दोनों हाथ डालकर बोली, “माँ! तुम्हीं तो मेरी अपनी माँ हो, हो न ? बोलो!

जशोदा की जीभ जरा न हिली, न डुली।

पड़ोस की कोई ग्वालिन चिल्ला-चिल्लाकर लोगों को सचेत कर रही थी-“कंस की भांजी आई है। होशियार! कंस की भेजी हुई है ।”

जशोदा के कान में बात पड़ी। उसने गोरी का हाथ पकड़ लिया-“तुमको कंस ने भेजा है? बता कौन है तू राक्षसनी !”

जशोदा के धधकते क्रोध पर एक घड़ा पानी डाल दिया गोरी ने-“ओ माँ! त दूसरों की बात को सच और अपनी बेटी को झूठी समझती है ?

कंस का भांजा तुम्हारे घर में पलता है। उसके लिए इतना दर्द ?

न जाने कैसी घड़ी में मेरा जन्म हुआ कि जन्म से लेकर अब तक सभी दुरदुराते हैं।”

गोरी रोने लगी।

नन्दमहर ने हवेली में प्रवेश करने के पहले पुकारा-“गोपाल की माँ!”

गोरी चौंक उठी-“बाबा!” दौड़कर दहलीज की ओर गई-बाबा! पहचानो तो मैं कौन हूँ! तू मत बताइयो माँ ?”

अब नन्दजी के मुँह में बोली नहीं। उन्होंने जशोदा की ओर देखा। जशोदा आसनी बिछाती हुई बोली, “कहती है कि मैं योगमाया हूँ।'

“योगमाया ही नहीं, विन्ध्यवासिनी भी। मथुरा की माँ मुझे विन्ध्या कहकर पुकारती है।”

गोरी नन्‍द की गोद में बैठ गई। नन्‍्द ने अब मुँह बा दिया। जशोदा बोली, जा अजगुत बात बोलती है। यह कहती है, जितनी बातें फैली हैं सब झूठी ।'

योगमाया ने नन्द के मन को तुरत थाह लिया। नन्द की दाढ़ी में हाथ लगाती हुई बोली, “एक बात मैं पहले कह दूँ, मैं मधुरा से भागकर आई हूँ। देवकी-बसुदेव के घर में पैर नहीं दूँगी अब ।

बाबा!” गोरी का गला भर आया। उसने नन्द की छाती में अपना सिर सटा दिया। बाबा का मन विश्वास से भरपूर है। वह कहती गई- “बाबा, गर्ग ज्योतिषी और नारद की बातें सुन-सुनकर मथुरा की माँ मुझे रोज़ कोसती है। मथुरा के बाबा तो अब बेटी कहकर भी नहीं पुकारते। कहते हैं, कैसी बेटी, किसकी बेटी। बेटी नहीं टेटी। कहाँ से आ गई ?”

नन्दजी ताव खा गए-“कहाँ से आ गई ?...मुझसे भेंट हो तो पूछूँ!”

“आखिर क्यों ? कब से ऐसा व्यवहार कर रहे हैं वे ?” जशोदा ने पूछा।

गोरी ने जशोदा की ओर आँखें उठाकर देखा भी नहीं | वह नन्द के गले की कंठी के छोटे-छोटे दाने गिनने लगी, उँगलियों से।

जशोदा की बात का जवाब ननन्‍्दमहर ने दिया, “तू इस तरह आँखें तरेरकर क्‍यों देखती है इसकी ओर ? क्या कह रही है, जरा समझने की कोशिश कर, ठंडे दिल से ।...हाँ, कहो बेटी, गर्ग पंडित ने ज़रूर कुछ कहा होगा।”

“बाबा! सिर्फ कुछ ?” दोनों हाथों को फैलाती हुई बोली गोरी, “इतनी बातें !...कि इस लड़की के कारन भीख माँगनी पड़ेगी, कि फूहड़ माँ-बाप की बेटी जरूर जगहँसाई करवाएगी। सोने-जैसे लड़के के बदले मिट्टी की पुतली... ।”

“सुनती हो, हम फूहड़ हैं!”

जशोदा अब बैठ गई। उसने गोरी को गौर से देखा। योगमाया के मुँह पर उपेक्षिता और अनाथ बालिका की विवशता के भाव छा गए।

“अब बात-बात में ठोना देती है। दही बेचने जाएगी, ओ कंडेवाली? एक दिन बोली कि मेरे बेटे से वहाँ गाय की चरवाही कराता है, तुझसे बाग की रखवाली नहीं

की जाती ?...मैया! मैं भाग आई। गोरी फिर जशोदा के गले से लिपट गई। जशोदा ने पीठ पर हाथ फेरकर कहा,

“अच्छा किया बेटी!” योगमाया निहाल हो गई। जशोदा के कन्धे पर सिर रखकर ठुनकती हुई बोली,

“माँ! मुझे अब वापस तो नहीं भेजेगी ?” नन्दराज आवेश में आकर खड़े हो गए-''कभी नहीं। आए तो कोई !

नन्दमहर लाठी लेकर निकले, ब्रजवासियों को सूचना देने-उनकी बेटी मरी नहीं ।...उनकी बेटी लौट आई है। आज फिर बधावा बजेगा ब्रज में ।

जाते-जाते कह गए -“अब बैठी कया कर रही है, गोपाल की माँ? मुँह-हाथ धुलाकर बेटी को कलेवा दो। न जाने कब की भूखी-प्यासी है!”

जशोदा योगमाया को गोद में लेकर हवेली के अन्दर गई। योगमाया बोली, “एक बात कहूँ माँ!...किसन को मथुरा वापस भेज दो।

कलेजा धड़क उठा जशोदा का। हाथ ढीले पड़ गए। योगमाया गोद से खिसककर नीचे गिर पड़ी-“मैया री-ई-ई!'

“ऐसी बात फिर मत बोलना, बेटी!”

योगमाया अपना पैर पकड़कर बैठ गई। जशोदा को होश हुआ, लड़की गोद से गिर पड़ी है। झटपट बैठकर पैर छूने लगी, योगमाया ने पैर समेट लिए-“'फेंकी हुई को एक बार नहीं, दस बार फेंको गोद से! लेकिन अपने कुँअर-कन्हाई को एक पल के लिए भी मन से दूर नहीं करोगी, क्यों ?

“सुनो बेटी! तुमने कुँअर को देखा ही नहीं है। एक बार देख लो, तब कुछ कहना । उसको कैसे दूर किया जा सकता है। चल, उठ! आ जा गोद में ।”

“रखो अपनी गोद! यह गोद तुम्हारे किसन के लिए है। मैं पूछती हूँ कि कभी किसन को भी गोद से इस तरह फेंका है ?”

जशोदा निरुत्तर हो गई ।...इसी उम्र में इतनी तेज जीभ ?

योगमाया बोलती गई-- “मैं क्या देखूँगी किसन को! यहाँ किसन का राज, वहाँ किसन की राजधानी।

वहाँ भी सब दिन किसन के सहस्र नाम सुनती थी। यहाँ सारा ब्रज किसनमय है।...वाह रे भाग्य! रंग गोरा न हुआ।

नहीं तो... । अब मेरी देह के रंग की बात ही लो। मैं गोरी हूँ। मेरे मा-बाप गोरे हैं, मैं भी गोरी हुई। मेरा क्या कसूर ?

मेरी गोराई के कारन मुझे वहाँ गोरी गाय कहते हैं सभी ।

रहे यहाँ किसन ही। मैं तो फेंकी हुई हूँ, मरी हुई हूँ, आकाश में उड़ी हुई हूँ।

जो उड़कर आया और जुड़ गया है, उसके पैर की पूजा होती है और अपनी देह की संतान को ठुकराया जाता है।”

“योगमाया बेटी!” जशोदा दुलार करने लगी-“'पहले कुछ जलपान कर लो।”

झनक उठी योगमाया-“किसी का जूठा माखन-मिसरी मैं नहीं खाती। यहाँ सुनती हूँ बिना किसन के जुठाए, कोई कुछ सूँघता भी नहीं ।

कैसी गन्दी आदत है!

जशोदा प्रतिवाद नहीं कर सकी-सचमुच ! कुछ भी तो अनुच्छिष्ट नहीं किसन के कारण। सारे गाँव में किसी के घर का गोरस निरूठ हो, ऐसी आशा नहीं!

बाहर गोपियों का कलरव सुनाई पड़ा। योगमाया उठकर खड़ी हुई-“'मेरे लिए चिन्ता न करो, माँ! किसन के घर लौटने का समय हो गया।

उसके लिए कलेवा तैयार करो। मैं अपने लिए खिचड़ी पका लूँगी। वहाँ भी यही मिलती थी, सिर्फ नाम दूसरा था-खिचड़ी नहीं, खेचरान्न |”

योगमाया दहलीज के पास जाकर खड़ी हुई। आँगन में प्रवेश करती हुई गोपियों के झुंड की काकली अचानक रुक गई। योगमाया ने अधिकाएपूर्ण स्वर में कहा, “इस तरह आसमान सिर पर उठाती क्‍यों आ रही हो तुम लोग ?

क्‍या हुआ ? यह धरती रहेगी या डूबेगी ?”

सबसे आगे थी राधा। बढ़कर बोली, “क्यों री भांजी कंस की, बता कहाँ है बाँसुरीवाला ?

“अहा-हा! हाय री मेरी बाँसरीवाला-वाली रे-ए-ए! दरद देखो जरा!...माँ से ज़्यादा दरद मौसी को!” योगमाया रास्ता रोककर खड़ी हुई-“पूछती हूँ, किससे पूछकर मेरे आँगन में साँझ के पहले आई है ?

यहाँ कोई मन्दिर नहीं कि रोज़ दीया-बाती और आरती के बाद मिठाई बँटेगी ।

इस घर के लड़के का भविष्य तो हंस के पंखों की तरह उजला कर ही दिया है तुम लोगों ने।

क्या समझ लिया है, इस घर में कोई धीया-बेटा नहीं ?”

जशोदा दौड़ी आई-“क्या हुआ ?”

“कि-किसन...कहीं नहीं। न जमुना किनारे, न कदम-तले, न वृन्दावन में। घाट-बाट में कहीं नहीं। सभी खोज रहे हैं।

बलदाऊ ने कहला पठाया है...नन्दबाबा कहाँ हैं?” ललिता हकलाती हुई बोली ।

राधा ने फिर खोंचा दिया-““और यह कंस की भांजी यहाँ क्यों आई है ? जब से आई है, गाँव में काग बोल रहे हैं।”

योगमाया जशोदा के चेहरे पर आते-जाते भावों को देख रही थी ।

जशोदा गला फाड़कर पुकारना चाहती थी एक बार। योगमाया को देखकर अपने को सँभालती है। फिर एकदम चुप खड़ी रह जाती है।

एक क्षण के लिए सनन्‍नाटा-सर्वत्र! कंसरीवाले

अचानक राधा योगमाया से लिपट गई-“बता तो सखी, तूने बाँ को कहाँ देखा था ?”

योगमाया छिटककर परे खड़ी हुई, राधा के बाहुबन्धन से निकलकर-“ए-हे! इसको मिरगी-उरगी तो नहीं आती ? इस तरह थर-थर क्यों कॉप रही है ?”

नन्दबाबा आए। सभी गोपियाँ एक साथ ही बोल पड़ीं-“बाबा! किसन लापता है, कहीं नहीं मिलता। दाऊ ने कहा कि बाबा को जल्दी भेज दें।”

नन्द भी उल्टे पाँव दौड़े। योगमाया ने पुकारा-“बाबा!”

जशोदा चीख पड़ी-“आह! पीछे से मत पुकारो!”

कोलाहल में नन्दमहर योगमाया की पुकार नहीं सुन पाए। वह मुँह बनाकर बोली, “इतना अधीर होने की क्‍या बात है ?

अभी तो साँझ पड़ी है।...सुनती हूँ, लुकाचोरी वह रोज़ खेलता है। यह भी हो सकता है कि यहाँ आकर सबसे ज़्यादा रोनेवाली इन्हीं लड़कियों के घर में वह छिपा हो।

यह लड़कियों के साथ लुकाचोरी खेलने की कैसी गन्दी आदत है!

गोपियों ने जशोदा की लाचारी देखी; कछ समझ न सकीं। पास-पड़ोस के गोप-ग्वाल निकले-'““चलो, चलो!”

गोपियाँ नन्दमहर की हवेली से निकलीं-““चलों, चलो! खोजो-ओ-ओ!

सैकड़ों मशालें वृन्दावन की ओर लपलपाती हुई...पंक्तिबद्ध...भग्नपंक्ति बुझती-जलती...झाड़-झुरमुटों में लुकती-छिपती...एक, फिर अनेक...रोशनी !

गाँव खाली हो गया।

गाँवों और बछड़ों की गगन-भेदी पुकार क्रमशः हल्की आह पर आकर रुक गई है।

चारों ओर से निःशब्दता बढ़ती जा रही है।...सुनन हो गया सारा संसार! योगमाया खिचड़ी चढ़ाने लगी, चूल्हे पर, बड़बड़ाती हुई। जशोदा अपनी हवेली से जरा बाहर निकलकर किसन को पुकारना चाहती है।

कहीं भी होगा, माँ की पुकार का जवाब तुरत दे देगा।

वह हवेली के दरवाज़े की ओर बढ़ी कि योगमाया ने टोक दिया-“अब तू कहाँ चली इस अँधेरे में अकेली ?”

जशुमति के पैरों में जंजीर पड़ गई मानो।

योगमाया ने कहा, “बस, खिचड़ी पकने में जितनी देर लगे।

खा-पीकर मैं चली जाऊँगी अभी मैया री!...इससे तो देवकी माँ भली, कभी भूख-भूख करके रोई नहीं मैं। मैं भूख नहीं सह सकती |”

दूर, वृन्दावन से...सहस्र कंठों से किसन के सहस्रों नामों की पुकार, हवा में तैरती आई है जशुमति के कानों तक।

क्रमशः तीव्र होती जाती है पुकार...आर्त... करुण...हाय, न जाने कब तक, कितनी देर तक इसी तरह खड़ी रही जशुमति!

इधर योगमाया खिचड़ी उतारकर परोसने बैठी-““कोई बर्तन-बासन भी नहीं।...मैं पूछती हूँ कि इस घर के बर्तन-बासन भी किसन को खोजने चले गए हैं क्या ?”

जशोदा पत्थर की मूरत की तरह खड़ी रही। जब योगमाया ने कड़ाही पटककर पुकारा तब होश हुआ-“कड़ाही में ही खाऊँ, क्‍यों ?”

“सामने पथरौटा है, बेटी... !”

“उस पर कुँअर-कन्हाई का नाम खुदा हुआ है।”

वृन्दावन से गोकुलवासियों की आर्त पुकार हवा को कँपाती हुई आती है।

इधर योगमाया फूट-फूटकर रो पड़ी-““अरी मैया-या-या! मैं भूख से छटपटा रही हूँ।...मेरी उँगलियाँ जल गईं खिचड़ी में-एँ-एँ... ॥”

अजीब रोदन! ऐसा रोना कभी नहीं सुना जशोदा ने। आकाश-पाताल में आ गई

रुलाई! सारी दुनिया रो पड़ी, मानो। जशोदा दौड़ी गई-“रो मत बेटी!”...बहुत देर

तक गोद में चिपकाकर दुलराती रही जशोदा!

किन्तु जशोदा की बेटी आज तुली हुई है, दो में से एक को तो निकालना ही होगा मन से ।...किसन को रखो या योगमाया को!

जशोदा कुछ क्षण के लिए किसन को भूल गई। खिचड़ी परोसकर खिलाने बैठी, चुपचाप । योगमाया ने जिद की-“वहाँ देवकी-माँ को खिलाए बिना मैं कभी मुँह में

कौर नहीं डालती थी। खाओ माँ!”

जशोदा के होंठों के पास कौर पहुँचा कि किसन की याद आई ।...किसन भूखा होगा ।...भूखे किसन की माँ मुँह में अन्न डालेगी; कैसे ?

दो पहर रात!

जशोदा करवट लेती है।...तो योगमाया सो गई ? जब से आई है, एक पल भी चुप नहीं रही। किसी तरह समझा-फुसलाकर खिलाया-पिलाया। सोने के समय भी बखेड़ा करने लगी।

“जिधर किसन सोता है, उधर नहीं सोऊँगी। दुधाइन गन्ध मुझे अच्छी नहीं लगती ।”...और, अकेली नहीं सोएगी; आदत ही नहीं।

माँ के पैर टीपे बिना उसको नींद ही नहीं आएगी।

जो भी कहो, देवकी माँ ने इतनी-सी भली शिक्षा ज़रूर दी है।...बेटी के बिना घर की हालत कैसी होती है, यह वह पहली बार आँखों से देख रही है। अब वह अपनी माँ को हाथ-पैर नहीं डुलाने देगी। बेटी ही माँ की सेवा कर सकती है, सच्चे मन से।

बिना बेटी की माँ की दुर्दशा, वह देख रही है।...सचमुच, योगमाया ने उसे टीप-टापकर ऐसा सुला दिया कि दो पहर रात के बाद नींद खुली है! किसन...!

योगमाया मानो सपने में बड़बड़ाई-“हाँ-हाँ...वह अपनी माँ देवकी के कलेजे से सटकर सोया होगा, परलँँग पर। तू क्‍यों... ?”

जशोदा अब कातर हो गई। एक कलपती-काँपती आवाज निकली उसके कलेजे से-“क-न्हा-ई कुँअर-- ओ-ओ !”

“मैया !” योगमाया जग पड़ी-““बस दो घंटे की बात है। और दो घंटे अपने पास सोने दो ।...जो मैं ऐसा जानती, तो खा-पी के चली जाती, साँझ को ही।”

गोरी अपनी बाँह पर हाथ फेरती हुई बोली, “तुम्हारे किसन की देह का रंग झड़ता है क्या ? देखो तो कैसे काले-काले धब्बे पड़ गए हैं ?

जशोदा ने देखा, सचमुच योगमाया की देह जगह-जगह काली हो गई है।

सलोना सूँघता हुआ आया और पलँग के पास खड़ा हो गया।

योगमाया की बाँह को चाटने के लिए जीभ निकाली सलोने ने। योगमाया डरकर माँ की छाती से सट गई-“गाय-बछड़ों से बहुत डरती हूँ।”

सलोने ने आगे बढ़कर जीभ से फिर स्पर्श किया। योगमाया चीख पड़ी- “माँ-ऑआँ!

जशुमति ने सलोने को डॉटकर भगा दिया।

सलोना भागकर बाहर नहीं गया; घर के एक कोने में अरगनी के पास जाकर खड़ा हो गया। अरगनी पर लटके हुए कपड़ों के बीच से किसन के जरीदार पीताम्बर को दाँतों से खींच लिया ।

योगमाया की नज़र पड़ी, सलोना तो पीताम्बर चबा रहा है!

“गया...गया...मेरे पीताम्बर का कलेवा...!!” योगमाया पलँग से नीचे कूद पड़ी। अस्त-व्यस्त चुनरी पलंग के पाए से उलझकर खुल गई। बड़े जतन से बाँधे बाल खुलकर बिखर गए-घुँघराले काले-काले।

सलोना हर्षोन्मुक्त होकर 'ऊ-याँ-याँ' पुकारता हुआ भागा-टिनिंग! फिर दौड़ता हुआ आया।

जशुमति की आँखों पर पड़ा हुआ परदा अचानक उठ गया, मानो।

मन की जकड़ी हुई खिड़कियाँ खुल गईं !...किसन के कृष्णाभ मुखड़े की दुग्धोज्वल मुस्कुराहट को पहचानकर पहले तो लाज से गड़ गई। फिर दौड़ी-“चो-ओ-ओ-र-किसन ! किसन, योगमाया, विन्ध्या, लीलाधर !”

सबसे पहले नन्दमहर के गोशाले की गौओं ने हर्ष-ध्वनि की। इसके बाद ब्रज के सभी गोशाले में उदास बैठी गौओं ने प्रसन्‍न होकर सुर-में-सुर मिलाया-जै हो, जै हो! बॉ-ऑँ-य...! वृन्दावन के कुंज-कुंज में, वंशीबट-जमुनातट पर किसन को खोजते हुए गोकुल के नर-नारियों ने गॉव की ओर कान लगाकर सुना...हाँ! किसन घर लौट आया। सभी दौड़े गाँव की ओर, किसन की नई लीला देखने।

आकुल राधा सबसे पहले दौड़कर पहुँची जशोदा की हवेली तक। दरवाज़े के पास हठात्‌ ठमककर खड़ी हो गई । योगमाया की जीभ में विष है।...कंस की भांजी!

राधा की पीठ पर आई ललिता-क्यों सखी, खड़ी क्‍यों है? ललिता ने हवेली की खिड़की से झाँककर देखा और देखती ही रही।

मधुबन के शुक-पिक ने एक सुर से ब्राहमवेला शुरू होने की घोषणा कर दी।

राधा और अनुराधा एक-दूसरे से लिपटीं, बेसुध, दरवाजे को पार कर आँगन में जा खड़ी हुईं। अपलक देखती रही राधा...।

सलोना किसन की देह पर पुते गेरू और गोरज के लेप को जीभ से चाट-चाटकर साफ कर रहा है। जशुमति किसन के मुखड़े को साफी से पोंछ रही है। हँस रही है... छलिया! माँ से भी छल!

“देखूँ सखी नित्य लीला...हरि-हरि बोल... ।” राधा और ललिता के गले से भैरवी कीर्तन की पहली पंक्ति निकली । जशुमति ने उलटकर देखा, खिलखिलाकर हँसी और कीर्तन का पद गाने लगी, राधा और ललिता के साथ, मीठे सुर में ।...आनन्द-विह्वला रा जशुमति ने देखा, जो किसन, वही योगमाया, वही राधा, वही अनुराधा, वही

सलोना, वही...वह भी...स्वयं जशुमति भी किसन!

ब्रजवासियों के झुंड नन्दमहर की हवेली के हर दरवाजे से आँगन में आ रहे हैं- हँसते-नाचते ...किसन-किसन किसन-किसन-किसन...कह-कह जशोदा माता,

कृष्णकथा. किसन किसी की ओर आँखें उठाकर देखता भी नहीं; चोर की तरह खड़ा है। पास की शीतलपाटी पर योगमाया की गठरी से बरामद चीज़ें पड़ी हुई हैं-राधा की रेशमी चुनरी, ललिता के कंगन, ज्येष्ठा के बाजूबन्द, रोहिणी की पैजनी...!

आनन्द से सारा ब्रजमंडल जगमगाने लगा। किसन को घेरकर सभी नाचने लगे...नन्दमहर भी! जशोदा भी! और सलोना कभी घेरे के बीच में किसन के पास जाता है दौड़कर, फिर बाहर निकल वृत्त के चारों ओर दौड़ता है-टिनिंग-टिनिंग...

ऊँ-याँ-याँ !

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