निस्पृह (कहानी) : गुरुदत्त

Nisprih (Hindi Story) : Gurudutt

अहंकारं बलं दर्प कामं क्रोधं परिग्रहम् ।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥

स्वामीजी महाराज उस दिन गीता के उक्त श्लोक की व्याख्या कर रहे थे। वह कह रहे थे, “ पुत्र - कलत्र , धन संपद्, मानापमान ये सब मनुष्य को इस संसार में बाँधते हैं और संसार दुःखों का घर है । दुःखों से छुटकारा पाने के लिए प्रत्येक प्राणी की आत्मा व्याकुल रहती है ।

" संत - जन इनसे दूर रहकर ही परम सुख की प्राप्ति करते हैं । भगवान् ने अपने अमर वचनामृत में कहा, अहंकार, बल, अभिमान, कामना तथा क्रोध को छोड़कर जो व्यक्ति ममता - रहित शांत रहता है, वह ब्रह्म में लीन होने के योग्य माना जाता है । "

इस प्रकार इसी लय में श्री स्वामीजी महाराज त्याग के विचार का प्रतिपादन करते हुए लगभग एक घंटे तक प्रवचन करते रहे । श्रोतागण, सभी स्त्री- पुरुष स्वामीजी के प्रवचन की मधुर शैली, समय- समय पर पुराणादि ग्रंथों के कथानकों से सुसज्जित और भक्तजनों के वाक्यों से अलंकृत इसको मंत्र- मुग्ध होकर सुनते रहे ।

हजरत ईसा ने गलीलियों की झील के रेतीले किनारों पर धान बिखेरते हुए कहा था , " बीज डालना मेरा काम है , कौन सा बीज जमता है और कौन सा नहीं, यह प्रभु के हाथ में है । वहाँ कोई सौ बीजों में से एक जमा होगा, परंतु मानव -मन तो उससे भी कई गुणा अधिक ऊसर है । इस पर तो लाखों में से एक ही जड़ पकड़ता है । "

इस पर भी साधु- जन तो विचार- रूपी बीज बिखेरते रहते हैं और वे इस बात की चिंता नहीं करते कि विचार किसके मन में अंकुरित होता है और किसके मन में जाकर गल जाता है ।

लाखों में एक के मन में ही यह फलता है । इन लाखों में एक इस कथा में बैठा हुआ था, रामसहाय, जो एक छोटी सी दुकान का मालिक था , इस तीर का निशाना बन गया ।

वह कथा से उठा और लगा बुद्धि चलाने । घर जाते हुए वह विचार कर रहा था , पुत्र - कलत्र, धन - संपद्, मानापमान ये सब मनुष्य को इस संसार में बाँधते हैं और संसार दुःखों का घर है । स्वामीजी के उक्त शब्द पूर्ण मार्ग भर उसके कानों में निनाद कर रहे थे और उसके पग चलते - चलते रुक जाते थे। वह मन में विचार कर रहा था कि यदि यह सत्य है, तो वह किधर जा रहा है । स्वामीजी असत्य भाषण तो कर नहीं सकते और फिर उन्होंने तो भगवान् के वचनों में से ही यह बात कही थी । यह बात असत्य नहीं हो सकती ।
तो फिर वह घर जाकर ही क्या करेगा ? वहाँ उसकी पत्नी है, उसका नवजात शिशु है । घर पहुँचकर अल्पाहार कर वह दुकान पर जाएगा, वहाँ क्या है, धन - संपद् का स्रोत है ।

इस विचार से वह काँप उठा और उसके पग आगे बढ़ते हुए रुक गए । वह अनिश्चित मन था । दु: खों के सागर में डूबने के लिए घर को भागा जाता सा अनुभव कर रहा था ।

वह लौट पड़ा । उसका घर का जीवन कुछ सुखी सा भी नहीं था । छोटे से कारोबार से बहुत कम उपलब्ध होता था । इतने से उसकी युवा स्त्री संतुष्ट नहीं हो सकती थी । वह चंचल , नवयुग की लड़की थी । वस्त्राभूषण , नाटक , तमाशे, चाट - पकौड़ी, सैर - सपाटे, अभिप्राय यह कि प्रत्येक प्रकार की सुख - सुविधा के लिए लालायित रहती थी । इतना चाहती थी , जो उसका पति अपनी छोटी सी दुकान से प्राप्त नहीं कर सकता था ।

कर सकना संभव भी नहीं था । रामसहाय नित्य प्रात: काल स्नानादि से निवृत्त हो एक घंटा पूजा - पाठ, एक घंटा कथा- कीर्तन , फिर अल्पाहार और ग्रीष्म ऋतु में नौ बजे तथा शीतकाल में दस बजे दुकान पर जाकर बैठ सकता था । मध्याह्न को भोजन करने घर पर जाना होता था । उसकी पत्नी उसके साथ बैठकर भोजन करने की इच्छा किया करती थी और सायंकाल वह सूर्यास्त होने पर घर आ जाया करता था । इस प्रकार दुकान चल सकना कठिन था और वह बहुत कम आय दे रही थी । उसकी पत्नी चंचल प्रकृति की होने के कारण इतने से संतुष्ट नहीं थी ।
नित्य वह अपनी पड़ोसी स्त्रियों के वस्त्राभूषण तथा रहन - सहन अथवा उनके क्लर्क पतियों के साथ नाटक -सिनेमा अथवा बाजार में घूमने जाने की बात कहा करती थी । वह स्वयं दुःखी होती थी और अपने पति को भी दुःखी किया करती थी ।

भगवान् ने उसके विवाह के एक वर्ष के भीतर ही उसकी गोद भर दी थी और अब तो बच्चे के लिए भी अनेकानेक माँगें उपस्थित होने लगी थीं । पति यह सबकुछ दुःख का सागर समझने लगा था और स्वामीजी ने इनके संग्रह का त्याग कर निर्मोही हो , शांत होने से ब्रह्म- भूयाय (ब्रह्म प्राप्त करने के योग्य ) होना बताया था । स्वामीजी ने यह भी बताया था कि ब्रह्म को प्राप्त हुआ पुरुष किसी वस्तु की चाहना नहीं करता ।

रामसहाय घर जाने की अपेक्षा हरिद्वार की ओर चल पड़ा । उसने सब की चाहना छोड़ दी और शांत चित्त हो साधु होने की इच्छा से किसी योग्य गुरु की खोज करने लगा ।

उसे एक गुरु मिल गए । वह नित्य सायंकाल भरत मंदिर में कथा किया करते थे। कैलाश आश्रमवास कर रहे थे और कथा के समय के अतिरिक्त किसी अन्य समय में लोगों से मिला भी नहीं करते थे ।

रामसहाय भी सायं कथा के समय ही मिलने के लिए गया था । कथा समाप्त होने पर वह स्वामीजी के चरण पकड़ बैठा । स्वामीजी ने उसे देख पूछा, " क्या चाहते हो ? "

" संन्यास की दीक्षा। "
" क्या करोगे दीक्षा लेकर? "
" इस दुःखमय संसार से मुक्त होने की चेष्टा करना चाहता हूँ । "
"विचार शुभ है, पर इसके लिए संन्यास की क्या आवश्यकता है ? "
" संसार से संबंध-विच्छेद करने के लिए । "
" भगवे पहनने से संबंध-विच्छेद हो जाएगा क्या ? "
" आपने भी तो पहना है , महाराज । " ।
" भक्त , भगवा पहनने से संन्यासी नहीं हुआ, अपितु संन्यास प्राप्त हो जाने पर भगवा पहनना पड़ा है । पहले वैराग्य ग्रहण करो, संन्यास की दीक्षा स्वयमेव प्राप्त हो जाएगी । "
रामसहाय के मन में प्रकाश हो गया । वह पाँव छोड़, हाथ जोड़ खड़ा हो गया ।
महात्मा ने पूछा, " हाँ , क्या विचार है ? "
" मैं मार्ग पा गया हूँ भगवन्! "
" परमात्मा तुम्हारा कल्याण करे । "

रामसहाय सोचता था कि वैराग्य तो उसको प्राप्त हो गया है । न हुआ होता , तो अपनी सुंदर पत्नी और प्रिय पुत्र को छोड़कर कैसे आ सकता था । वह वैराग्य- प्राप्त निर्मोही हो चुका है । अतः संन्यास तो अब उसको स्वयं ही प्राप्त होना चाहिए ।
मंदिर से निकल वह गंगा -तट की ओर एकांत में चला गया ।

रामसहाय की पत्नी चंचल अपने पति के दिन चढ़ने तक कथा - कीर्तन में व्यस्त रहने पर चिढ़ा करती थी । उसका उससे यह गिला रहता था कि वह दुकान पर बहुत विलंब से जाता है । अन्नादि की दुकान पर तो प्रात: -सायं ही बिक्री होती है और दोनों समय वह साधु- संतों की संगति में व्यतीत करता था । मध्याह्न के समय तो सब लोग खा पीकर काम - धंधे में लग जाते हैं । भला कौन आएगा उस समय माल खरीदने के लिए ?

नित्य झगड़ा होता था । आज दिन के ग्यारह बजे तक उसका पति नहीं आया, तो वह यह अनुमान करने लगी कि वह अवश्य किसी अन्य साधु की सेवा में बैठा होगा । इससे वह आग- बबूला हो रही थी । वह आज घर पर ही महाभारत करने की तैयारी कर रही थी ।

परंतु महाभारत के युद्ध के लिए विपक्षी आया ही नहीं । क्रोध के पात्र की अनुपस्थिति में शनैः - शनैः वह स्वयं ही शांत होने लगा । इतने में बच्चे ने भूख से व्याकुल हो दूध के लिए रोना शुरू कर दिया , तो उसने उसको दूध पिलाना आरंभ कर दिया । बच्चा छह मास का हो गया था । अब बाजारी दूध पीने लग गया था । माँ अपने स्वास्थ्य का विचार कर अपना दूध देना बंद कर चुकी थी । बच्चा दूध पीकर सो गया, तो उसने सामने मेज पर रखी टाइमपीस में समय देखा । बारह बज रहे थे । रामसहाय आया क्यों नहीं , यह अब उसके लिए चिंता का विषय हो गया था ।

बारह के बाद एक , फिर दो, तीन, इसी प्रकार सायंकाल हो गया । बच्चा रोता, तो कभी उसको दूध दे देती और कभी उसके पिता की निष्ठुरता का विचार कर उसको पीटकर चुप कराने का यत्न करती ।

अगले दिन प्रात : काल वह उस मंदिर में जा पहुंची, जहाँ उसका पति कथा सुनने के लिए जाया करता था । वहाँ कथा करनेवाले स्वामीजी से तथा अंत में कथा सुननेवालों से पूछने पर चंचल को पता लगा कि उसका पति पिछले दिन कथा सुनने आया था और यहाँ से घर लौट गया था । किसी ने उसको यह भी बताया कि उसने उसको हरिद्वार की ओर जानेवाली गाडी में बैठे देखा था ।

जिसने उसको यह सूचना दी थी, वह उस दिन अपने किसी संबंधी को हरिद्वार के लिए बैठाने गया था और उसने रामसहाय को गाड़ी के तीसरी श्रेणी के डिब्बे में बैठे देखा था ।

चंचल का माथा ठनका और वह इस नई परिस्थिति में विचार करने लगी । दिन- पर -दिन व्यतीत होते गए और वह अपने आभूषण बेचकर गुजारा करने लगी । उसके संबंधी उसके पास आ - आकर रामसहाय के कहीं न मिलने की सूचना देकर चलते बनते ।

जब एक - एक कर आभूषण चंचल की संदूकची में से निकलकर सर्राफ की तिजोरी में जाने लगा, और उससे प्राप्त धन शरीर के भरण - पोषण पर व्यय होने लगा तो चंचल की चिंता बढ़ने लगी ।

रामसहाय को घर से गए एक वर्ष हो गया था । चंचल उलटे मार्ग पर चल पड़ी थी । वह पति का वियोग, धन की न्यूनता और संरक्षण के अभाव को सहन नहीं कर सकी । एक मनचला मिल गया । वह उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करने लगा ।

यह पड़ोस का ही एक संपन्न सौदागर कामता प्रसाद था और पहले चोरी- चोरी फिर प्रत्यक्ष में उसको सहायता देने लगा । इस प्रकार कुछ काल तक निरासक्त - भाव से सहायता करने के बाद वह सहायता का प्रतिकार पाने के लिए उसके घर में जा पहुँचा, और चंचल से सहानुभूति प्रकट करते हुए अपनी सहायता का प्रसाद पा गया ।
कुछ समय तक यह कार्य चोरी - चोरी चलता रहा । एक दिन इसका परिणाम भी समक्ष आ गया । चंचल ने कहा,
" लालाजी, मुझको गर्भ ठहर गया है । "
" यह तो होना ही था । "
" तो अब क्या होगा ? "
" दो में से एक बात हो सकती है । "
" क्या ? "
" तुम हरिद्वार चली जाओ। वहाँ तुम जैसी औरतें बे- बाप के बच्चे पैदा करने के लिए जाया करती हैं । खर्चा मैं दे दूंगा । बच्चा होने के बाद उसको किसी अस्पताल के बाहर कपड़े में लपेटकर फेंक आना, फिर लौट आना । ईश्वर ने चाहा, तो तुम्हारा रूप -रंग वैसा ही बना रहेगा, जैसा अब है । "
" तो अपने बच्चे को अपरिचित व्यक्तियों के हाथों में छोड़ आऊँ ? "
" कौन किसका अपना है ? जन्म से पहले तो बच्चे ने बाप को देखा नहीं , न ही बाप ने बच्चे को । तुम भी उसके विषय में क्या जानती हो ? छोड़ो इस झूठी मोह- माया को । देखो, भगवान् ने कितनी सुंदर बात कही है

निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्त सर्व परिग्रहः ।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् । ।

" अर्थात् अपने चित्त को जीतकर, सब संचित पदार्थों को छोड़कर, आशा रहित होकर केवल शरीर - संबंधी कर्म को करते हुए पाप को प्राप्त नहीं होंगे ।

" इसलिए मैं कहता हूँ कि शरीर का धर्म हमने पालन किया है । अब तो मोह , ममता , आशा और संचित सबकुछ छोड़कर निर्वाह करो । ऐसा करते हुए तुम किसी प्रकार के भी पाप को प्राप्त नहीं होगी । पाप तो प्राप्त वस्तु में आसक्ति से उत्पन्न होता है । "

" बहुत कठिन है, लालाजी ! "
" तो फिर दूसरी बात करो । "
" क्या ?
" बच्चा जब पैदा हो जाए तो उसको गंगाजी के अर्पण कर आ जाना। "
" तो यह पाप नहीं होगा क्या ? "
" शारीरिक कर्म करते हुए मोह , ममता तथा धन - संपद्, पुत्र- कलत्र में आसक्ति का त्याग कर देने से पाप नहीं लगता । "

चंचल देख रही थी कि यह बात गलत है । भला एक जीव की हत्या किस प्रकार पुण्य का कार्य हो सकती है ? और वह भी शरीर के सुख के लिए, परंतु मानव- मन है । वह जीवन का स्वाद लेने के लिए बहाना ढूँढ़ा करता है । अत: मन की दुर्बलता को श्रेष्ठ बतानेवाले वाक्य और प्रमाण पाकर वह मान गई ।

समय आने पर चंचल हरिद्वार चली गई और वहाँ एक पंडे की सहायता से अपने बच्चे को ठिकाने लगा वापस आ गई । पंडे ने बच्चे की हत्या नहीं की थी । उसको भी लाला ने गीता का उक्त श्लोक सुनाया था, परंतु उसके मन ने यह जीवन - मीमांसा स्वीकार नहीं की और बच्चे को एक विधवा ब्राह्मणी को पालन -पोषण के लिए देने की बात हो गई , तो उसने लाला से लिया पाँच सौ रुपया उस विधवा को दे दिया और बच्चे का पालन- पोषण होने लगा ।

पंडा लालाजी को जानता था और एक वर्ष के पश्चात् आकर बोला, " बच्चा एक स्त्री के पास पल रहा है । पिछला पाँच सौ रुपया खर्च हो गया है । अगले वर्ष के लिए खर्चा दे दीजिए । "

" कौन सा बच्चा ? " लालाजी का प्रश्न था ।
" चंचल देवी के गर्भ से उत्पन्न बच्चा । "
" तो चंचल से माँगो उसका खर्चा। "
" मैं उसको नहीं जातना । मैंने तो कार्य आपके लिए किया था । यदि आप इतना कुछ नहीं देंगे, तो वह विधवा सब बात कोर्ट में बताकर खर्च की माँग करेगी । "

विवश लालाजी को धन देना पड़ा । कदाचित् लाला कामता प्रसाद विधवा को कोर्ट में जाने की धमकी दे देता , यदि चंचल के फिर दिन न चढ़ गए होते । उसको अनुभव हो रहा था कि इसे पुनः इसी पंडे और उस विधवा की आवश्यकता पड़ेगी । इस पर भी वह अब चंचल के बच्चों की पालना घर पर ही करने का विचार कर रहा था ।

इस प्रकार एक के बाद दूसरा और दूसरे के बाद तीसरा बच्चा हो गया । रामसहाय को गए सात वर्ष हो गए थे । मोहल्ले में चंचल के साथ लाला कामता प्रसाद के संबंध की बात विख्यात हो चुकी थी । लाला से उसके तीन बच्चों की बात भी सबको विदित थी । चंचल के प्रति मोहल्ले और रिश्तेदारों का आवेग आकर जा भी चुका था । उससे अब सबके सामान्य संबंध बनने लगे थे। चंचल के माता-पिता भी अब उसको दया की पात्र मानने लगे थे ।

चंचल कभी अपने मन में आत्मग्लानि अनुभव करती थी तो कामता प्रसाद की जीवन - मीमांसा उसमें पुनः साहस का संचार कर देती ।
कामता प्रसाद तो अपना व्यवहार भगवान् के इस कथन पर आधारित मानता था

त्यक्त्वा कर्मफलं संगं नित्यतृप्तो निराश्रयः ।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित् करोति सः ।।

वह चंचल को इसका अर्थ इस प्रकार सुना दिया करता था , जो कोई भी काम करो उसके फल की आशा को त्यागकर ही करो। सदा प्रसन्न रहो और बिना किसी के भरोसे रहकर कर्म करो , तो मानो तुम कुछ भी नहीं कर रहे ।
इस कारण चंचल समझने लगती थी कि उसने कुछ नहीं किया । न पाप , न पुण्य । ।

कभी मोहल्ले-टोले वाली स्त्रियाँ उससे पूछती , " कल्याण के पिता का कुछ पता चला कि नहीं ? "
" किसी से सुना था कि वह बद्रीनारायण के मार्ग पर जोशी मठ में स्वामी शंकराचार्यजी के आश्रम में रहता है । "
" कभी इच्छा नहीं होती मिलने की ? "
" किसी भी बात की इच्छा करना तो अपने को संसार से बाँधना है । संसार से बँधने का अर्थ है, इसके दुःखों का अनुभव करना । मैं तो सुख- दुःख से परे हूँ । "
" तो क्या ये बच्चे बिना सुख की प्राप्ति के मिल गए हैं ? "
" यह तो शरीर का कर्म है । यह होता रहता है । जैसे शरीर के अन्य कार्य होते रहते हैं । "

प्रश्न करने वालियाँ हँस पड़तीं और बात समाप्त हो जाती है । अब चंचल देवी गीता और वेदांत की व्याख्या किया करती थी । सब माया है, यह उसका स्वाभाविक कथन हो गया था । कल्याण , रामसहाय का लड़का और राम, शैला तथा श्याम कामता प्रसाद के बच्चे अब बड़े हो रहे थे। वे सब अपने को कामता प्रसाद की संतान मानते थे । लाला का व्यवहार चारों के साथ एक समान ही रहता था । उसने स्वयं कभी उनको एक पैसा भी नहीं दिया था । न बच्चों को उससे कुछ भी माँगने का अभ्यास था । चंचल को ही लाला से निर्वाह के लिए धन मिलता था और उससे वह अपने बच्चों की आवश्यकताएँ पूर्ण किया करती थी ।

सबसे छोटा श्याम अब पाँच वर्ष का हो गया था । कल्याण ग्यारह वर्ष का था । माँ अपने चारों बच्चों को लेकर हरिद्वार गई हुई थी । इन दिनों घाट पर एक साधु कथा किया करता था । उस साधु के विषय में यह विख्यात था कि वह कोई ब्रह्मविद् व्यक्ति है और सायंकाल उसके प्रवचनों को सुनने के लिए अपार भीड़ एकत्रित हो जाया करती थी ।

चंचल हरिद्वार पहुँची, तो पहले दिन उसकी एक सखी ने साधु ब्रह्मानंद के विषय में उसको बताया । वह उसकी परिचित विधवा थी , जो बारहों मास वहीं रहा करती थी । उसका नाम था केवली । उसको पता चला कि चंचल आई है, तो वह उससे मिलने के लिए चली गई ।

" तो चंचल बहिन आ गई हो ? "
" हाँ बहिन! क्या समाचार है ? "
" सब कुशल है । कभी-कभी तो हरिद्वार सूना प्रतीत होने लगता है, परंतु आजकल तो यहाँ भी रस आने लगा
" क्या रस आने लगा है ? "
" एक पहुँचे हुए महात्मा आए हुए हैं और नित्य सायंकाल घाट पर अपनी मधुर भाषा में सुलझे हुए विचार बताया करते हैं । सहस्रों की संख्या में नर- नारी उनके ओज तथा भावपूर्ण भावों को सुनने वहाँ जाया करते हैं । "
" ये साधु लोग , जिनके जीवन का आधे से अधिक भाग तो रहता ही नहीं , भला क्या उपदेश दे सकते हैं ? "
" बहिन , यह तो स्वयं सुनने तथा रस ग्रहण करने की बात है । आम का स्वाद वाणी से वर्णन नहीं किया जा सकता । इसका तो आस्वादन ही किया जा सकता है । तभी उसका परिचय मिलता है । बहिन, आज चलो, यह मानव- जन्म कृतकृत्य हो जाएगा । "

चंचल के मन में उत्सुकता जाग पड़ी और उसी सायंकाल वह घाट पर जा पहुँची। स्वामीजी महाराज एक तख्ते पर बैठे थे । पर्याप्त संख्या में लोग उनका प्रवचन सुनने के लिए तख्त के चारों ओर बैठे हुए थे। अभी कीर्तन हो रहा था ।

चंचल भी वहाँ पहुँची और सबके पीछे जाकर बैठ गई । वह बैठते ही पहचान गई कि स्वामी ब्रह्मानंद उसका पति रामसहाय ही था । पहले से वह बदल अवश्य गया था । गृहस्थ जीवन में उसके शरीर और आँखों में चंचलता रहा करती थी । अब वह निश्चल, शांत और गंभीर था । इस समय उसके मुख पर अलौकिक ओज भी था और चंचल अनुभव कर रही थी कि वह उसका ओज सहन नहीं कर सकती । उसका हृदय धक - धक कर रहा था और वह ऐसा अनुभव कर रही थी कि उसके नीचे से भूमि खिसक रही है ।

चंचल के मन में अनेकानेक विचार उत्पन्न हो रहे थे। वह विचार कर रही थी कि क्या उसने भी उसको देखा होगा, कदाचित् नहीं । चंचल के मन ने उत्तर दिया , क्योंकि वह तो आँखें मूंदे बैठा है । तो क्या वह उठकर वापस चली जाए ?
परंतु इस प्रकार तो वह देखी जा सकती है, क्योंकि कोई भी उठकर जा नहीं रहा था ।
तो वह भीड़ में छिपी बैठी रहे ?
यही ठीक होगा कि सब लोग जब उठ पड़ें, तो वह भीड़ में से चुपचाप निकल जाएगी ।

इस प्रकार मन की चंचलता को थपकियाँ दे- देकर वह चुपचाप गरदन झुकाए वहाँ बैठी रही । उसका मन तो अपने अतीत पर विचार करने लगा था । वह विचार कर रहा था कि आरंभ में कामता प्रसाद से संबंध कितना मधुर था और समाज में कितना निंदनीय बन गया था , परंतु अब समय व्यतीत हो जाने पर सांसारिक सुखों की लालसा तो कम हो रही है और एक अन्य प्रकार का विवेक उसके मन में बैठने लगा था । साथ ही उसको भय लग रहा था कि लाला की इंद्रियों में शैथिल्य आने पर उसकी उदारता और ज्ञान- ध्यान की प्रवृत्ति भी कहीं शिथिल न होने लगे ।

परंतु वह विचार करती थी कि यदि यह सामने बैठा ज्ञान- ध्यान की बातें करनेवाला साधु वास्तविक ज्ञान रखनेवाला होता तो यह उस अबला को निस्सहाय छोड़ अपना कल्याण करने न चल पड़ता ।

स्वामीजी के भाषण में रोचकता अधिक होने से तथा उसमें युक्ति और भाव होने पर लोग सुनने में मग्न थे । प्रवचन में संसार मिथ्या और केवल ब्रह्म ही सत्य पर बल नहीं दिया जा रहा था , अपितु सदाचार पर अधिक बल था ।

चंचल यह सबकुछ सुनते हुए भी नहीं सुन रही थी । उसका मन स्वामीजी से बात करने अथवा न करने के विषय पर विचार कर रहा था । वह स्वामीजी के निवास स्थान का पता करने की इच्छा करने लगी थी , परंतु सोचती थी कि उनसे मिलकर क्या करेगी? अब उससे उनका क्या संबंध रह गया है ? वह सभी सांसारिक बातों से अलग हो गया था ।

कथा समाप्त हुई और कहीं - कहीं कोई शब्द सुनने के अतिरिक्त वह न कुछ सुन सकी और न समझ सकी । उसके अपने मन में भारी शोक उत्पन्न हो रहा था और विभिन्न प्रकार के भाव उठ रहे थे । उसके प्रति घृणा से लेकर आदर और श्रद्धा की भावनाओं के भीतर पड़ी वह लहरों में लहरानेवाली नौका की भाँति कभी इधर और कभी उधर भटकने लगी ।

गंगाजी की आरती हुई और लोग उठ पड़े । वह भी भीड़ में उठी और यह समझकर कि उसको किसी ने न देखा और न पहचाना है, वह वहाँ से आ गई । इस पर भी वह अपने मन की अवस्था को समझ नहीं सकती थी ।

मन में यह निश्चय कर कि वह अब स्वामीजी की कथा सुनने नहीं आएगी, घर को लौट गई । उसके बच्चे उसके साथ ही थे। कल्याण अब सबकी देखभाल कर सकता था । आजकल स्कूल की छुट्टियाँ थीं और हरिद्वार में वे स्वतंत्रतापूर्वक घूम सकते थे।

लाला कामता प्रसाद और चंचल दोनों को ही बच्चों से मोह नहीं था । बच्चों को भी उनसे किसी प्रकार का लगाव नहीं था । उनको खाने -पीने को मिल जाता था । इतने से ही वे संतुष्ट थे ।

अगले दिन चंचल की सहेली केवली उससे मिलने को आई। उसने पूछा, " कल कथा सुनने के लिए गई थीं ? "
" हाँ , गई थी । "
" मैं तो कल जा नहीं सकी । किस विषय पर कथा थी ? "
" कथा थी... यही कि संसार माया है।... नहीं... मनुष्य का कर्तव्य... नहीं चरित्र के... हाँ कुछ।...कई बातें कही थीं । "
केवली हँस पड़ी । उसने विस्मय प्रकट करते हुए पूछा, " क्या हो गया है तुमको आज ? तुम तो ऐसी नहीं थीं ? "
" कैसी ? "
" कथा में जाओ और चित्त कहीं अन्य स्थान पर रहा हो । "
" अन्य कहाँ रह सकता था ? "
" परंतु कथा में तो नहीं था । क्या मैं गलत कह रही हूँ ? उस दिन स्वामी विशुद्धानंद का प्रवचन सुनकर आई थीं , तो तुमने अक्षरशः सुना दिया था । "
आखिर चंचल को मानना पड़ा, " हाँ , कल मन कुछ खिन्न था । मैंने कथा सुनी ही नहीं । डेढ़ घंटा वहाँ बैठी और चली आई । "
" खिन्न क्यों हो रहा था ? तुम तो बहुत ज्ञान की बातें जानती और किया करती हो । "
" कल मन मलिन हो गया था, किसी की याद आ गई थी और उसके प्रति मन की भावनाएँ उभर आई थीं । भावनाओं की आँधी में स्वामीजी की बात सुनती तो रही , परंतु समझी कुछ नहीं । "
" आज चलोगी ? "
" नहीं , अब मैं वहाँ नहीं जाऊँगी । "
" क्यों ? "
" पुनः मन की शांति विलीन हो जाएगी । "
" तो स्वामीजी को देख लेने से मन अशांत हो उठता है ? "

चंचल ने कुछ उत्तर नहीं दिया । केवली उसके मुख पर परेशानी देख विस्मय कर रही थी । एकाएक उसके मन में कुछ विचार आया । उसने चंचल के गले में बाँह डाल पूछा, " उनके मोह में तो नहीं फँस गईं? "

चंचल के मुख से अनायास ही निकल गया, " फँस गई थी, परंतु वह बात बहुत पुरानी हो गई, जब वह साधु नहीं थे। "
" तो यह मोह - ममता उनको देख जाग पड़ी थी । "

" अपने मन की स्थिति को मोह - ममता तो नहीं कह सकती । वे मेरे विवाहित पति थे। मेरा बड़ा लड़का इनका ही है । मेरी आवश्यकताओं को पूर्ण न कर सकने के कारण ये घर से भाग आए थे । मैं अकिंचन हो गई और पेट भरने के लिए बच्चे उत्पन्न करने लगी । अब श्याम के बाद बच्चे नहीं हो रहे । इस पर भी संबंध तो चल रहा है । "
केवली अपनी सहेली का वृत्तांत सुनकर अवाक् बैठी रही, फिर बोली, " तो उन्हें देखकर चित्त अशांत हो जाता है क्या ? "

" बहुत , कभी क्रोध, कभी संतोष, कभी दुःख , कभी हर्ष, कभी मोह , कभी ग्लानि , ऐसे वंवों में फँस जाती हूँ । जितनी देर तक वहाँ रही, इस प्रकार की परस्पर -विरोधी भावनाओं में हिलोरें ले रही थी और कथा का एक शब्द भी समझ नहीं सकी । "
" तो तुम निश्चय नहीं कर सकतीं कि मन क्या चाहता है? "

" नहीं, अभी भी नहीं । मैं समझती हूँ कि वह महापापी है, जो अपनी युवा पत्नी और शिशु पुत्र को असहाय छोड़कर भाग गया है, फिर वह विचार करती हूँ कि अच्छा ही हुआ है । श्याम के पिता मेरी सब प्रकार की आवश्यकताएँ पूर्ण कर रहे हैं और वह तो इतना भी कर नहीं सकता था ।

" कभी विचार करती थी कि पर - पुरुष की पत्नी बन पाप की भागिनी बन गई हूँ, फिर विचार करने पर समझती हूँ कि मैं ज्ञानवान हो गई हूँ । शारीरिक कर्मों में पाप- पुण्य मानना छोड़ बैठी हूँ और मन से मैं इन कर्मों से अलिप्त रहती हूँ । मैं अपनी अवस्था ऐसी समझती हूँ जैसी भगवान् ने कही है
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्म फले स्पृहा ।

" जब यह विचार करती हूँ तो उसके मुझे छोड़कर जाने को वरदान मानने लगती हूँ । कभी अपनी उस एक वर्ष की अवस्था का स्मरण कर दु: खी होती हूँ, जो उसके मुझे छोड़ जाने के बाद हुई थी , परंतु उसके बाद के वर्षों की याद आती है , तो उसका धन्यवाद करती हूँ । मैं अब सहज सुख प्राप्त कर रही हूँ ।

केवली ने सिर हिलाते हुए कह दिया , “ बहिन, मन की यह अवस्था तो बहुत ही विकट है, इसमें शांति कहाँ मिलेगी ? "
" यत्न कर रही हूँ । "
" असंभव है । जब तक मन में मथनी चलती रहेगी, क्षोभ उठता रहेगा और क्षोभ अशांति का ही दूसरा नाम है । "
" तो मथनी चलना कैसे बंद हो ? "

" इसके कई तरीके हैं । दुखी संसारी मद्य का सेवन करते हैं । कुछ लोग खेल - तमाशे देख मन बहलाया करते हैं । कुछ ऐसे भी हैं , जो धर्म- कर्म, ज्ञान- ध्यान में चित्त लगाते हैं । कई साधु लोग चरस पीकर इस क्षोभ को शांत करते
" मैं तो इनमें से कोई भी उपाय नहीं कर सकती ? "
" तो फिर मैं कोई अन्य उपाय जानती भी नहीं । "

चंचल उस दिन कथा सुनने के लिए नहीं आई, परंतु कथा के सब समय वह बहुत सख्त बेचैनी अनुभव कर रही थी । घर बैठे हुए भी वह अपने चित्त को शांत नहीं रख सकी । वह कभी विचार करती थी कि उससे जाकर लड़ पड़े । कभी सोचती थी कि उसके पाँव पकड़कर अपने मन में उसके प्रति बुरे विचारों के लिए क्षमा माँग ले । कभी वह जाने लगती, किंतु फिर अपने को पागल समझ पुनः चटाई पर लेट जाती । लेटे - लेटे उसको भूमि चुभने लगती , तो वह उठ घर से बाहर निकलने का यत्न करती और मन पर नियंत्रण कर वापस आ जाती और अपने आपको कोसने लगती ।

कथा सायंकाल सात बजे समाप्त होती थी । घड़ी में सात बजे और वह अपने मन को रोक नहीं सकी । घर से निकल पड़ी । वह मन में आशा-निराशा से भरी हुई चली जा रही थी । वह आशा कर रही थी कि कथा समाप्त हो चुकी होगी और स्वामीजी कथा कर वहाँ से जा चुके होंगे । वह निराशा इस कारण अनुभव कर रही थी कि स्वयं को वह घर पर स्थिर रखने में असफल सिद्ध हुई थी ।

न चाहते हुए भी वह कथा-स्थान की ओर जा रही थी । क्यों ? यह वह नहीं जानती थी । अपने इस व्यर्थ की भाग दौड़ पर वह विस्मय करती थी, परंतु कुछ न समझते हुए भी भागती चली जा रही थी ।

कथा-स्थान पर भीड़ एकत्र थी । इसका अर्थ वह समझ गई कि स्वामीजी अभी गए नहीं । वह रुकी, परंतु फिर चल पड़ी । वह भीड़ में पहुँची और उसमें से अपना मार्ग बनाते हुए स्वामीजी के पास जा खड़ी हुई । स्वामीजी केवली से बातें कर रहे थे। चंचल वहाँ पहुँची और उसने स्वामीजी के पाँव पकड़ लिये । अँधेरे में स्वामीजी ने उसको पहचाना नहीं । वह बोले, “ माँ ! बस करो, भगवान् तुम्हारा भला करे । उठो! अपने पति के पाँव का स्पर्श करो , तुम्हारा कल्याण होगा । "

केवली ने तो चंचल के आते ही उसको पहचान लिया था । इस कारण स्वामीजी का आशीर्वाद सुन वह हँस पड़ी । उसने चंचल की बाँह पकड़कर उठाते हुए कहा, " महाराज , यह तो चंचल है । "
" चंचल , कौन चंचल ? "
केवली ने चंचल को उठाया तो वह आँखों से आँसू टपकाते हुए सामने खड़ी हो गई ।
स्वामीजी ने उसे देखा और आश्चर्यचकित हो कहने लगे, " तुम! यहाँ क्या कर रही हो ? "

केवली और चंचल ही इस समागम का अर्थ समझती थीं । अन्य सब उपस्थित भक्त- जन तो टुकर -टुकर मुख देख रहे थे ।
" बहुत दु: खी हो ? " उसके आँसू देख स्वामीजी ने पूछा ।
" महाराज, " केवली ने कहा, " यह आपके दर्शन करना चाहती थी । "
" तो हो गए दर्शन ? "

मन में डोलनेवाले उद्गारों के कारण चंचल बोलने में सर्वथा असमर्थ हो रही थी । वह चुप थी । केवली ने उत्तर दिया, " भगवन्! यह कल मध्याह्न के भोजन का निमंत्रण दे रही है । "

" कल नहीं, " स्वामीजी ने गंभीर विचारमग्न होते हुए कहा, " भोजन करने के लिए स्वेच्छा से और स्वनिश्चित दिन आऊँगा। "
" तो कब तक प्रतीक्षा करें ? "
" जब तक आ न जाऊँ । "

यह कह स्वामीजी चल दिए । केवली और चंचल पीछे खड़ी रह गई । सब प्रश्न भरी दृष्टि से इन स्त्रियों की ओर देख रहे थे । केवली ने चंचल की बाँह पकड़ी और उसे घर की ओर ले गई । घर पहुँच उसने उसको ठंडा जल पिलाया और आराम से बैठाकर पूछा, " यह तुमने क्या कर दिया है ? "

" मैं स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख सकी । मैंने बहुत यत्न किया था कि वहाँ न जाऊँ , परंतु ऐसा प्रतीत हुआ कि कोई पकड़कर बलपूर्वक ले जा रहा है । "
" यह वासना थी । "
" नहीं, केवली, वासना नहीं थी । मैं इस विषय में तृप्त हूँ । "
" तो क्या था ? "
" समझ नहीं सकी । "

केवली ने समझा कि यह कामना है । यह ज्ञान - ध्यान , अनासक्ति और निराश्रय का उपदेश देनेवाली या तो अपनी अंतरात्मा की बात जानती नहीं अथवा जानती है, तो बताती नहीं । बताते हुए लज्जा का अनुभव करती है ।

बात आगे नहीं चल सकी । कल्याण इत्यादि बच्चे आ गए थे। वे अपने भ्रमण में हुई सामान्य घटनाओं की बात सुनाने लगे थे। केवली ने उससे कहा, " कल तुम मेरे साथ चलना, मैं कथा के समय लेने के लिए आऊँगी। "

चंचल ने अपनी मौन अनुमति व्यक्त की , तो केवली उठकर वहाँ से चली गई । चंचल का मन कह रहा था कि उसका पति अगले दिन भोजन करने के लिए आएगा, परंतु आएगा कैसे? उसको तो उसके स्थान का ज्ञान ही नहीं है । मन की आशा और निराशा में डोलते हुए वह प्रतीक्षा करती रही ।

चंचल को विचार करने पर यह समझ में आया कि वह उसको टरका गया है । उसने निमंत्रण तो अस्वीकार किया नहीं, परंतु उसने उसके निवास स्थान का पता भी तो नहीं पूछा । इस पर भी वह अनेकानेक व्यंजन बना रही थी । वह बनाती जाती थी और अपने मन पर विस्मय भी करती जाती थी ।

कल्याण मकान की ड्योढ़ी पर बैठा सड़क पर आने - जानेवालों को देख रहा था । यह उसका अतिप्रिय कार्य था । उसके भाई- बहिन ऊपर कमरे में बैठे ताश खेल रहे थे। चंचल रसोईघर में पाँच- छह प्रकार का साग बना अब पूड़ी निकालने लगी थी ।

मकान के नीचे नारायण हरि का शब्द हुआ । चंचल के हाथ से पौनी गिर गई । वह चौकन्नी हो द्वार की ओर देखने लगी । फिर अपनी मूर्खता पर मुसकरा पौनी उठा कड़ाही में पूड़ी डालने लगी । तभी कल्याण ने सीढियों से आवाज देते हुए पूछा, " माँ , साधु बाबा को रोटी दोगी ? "
" हाँ , ले जाओ। "

चंचल ने समझा कि जब इतना कुछ बनाया है तो किसी को तो खिलाना ही होगा ।
" माँ , वह तो यहीं खाएगा । हाथ धुलाकर खाने के लिए बैठाऊँ ? "
" हाँ । "
चंचल ने रसोईघर से बाहर कल्याण की ओर देखा तो उसके पीछे स्वामी ब्रह्मानंद खड़ा था ।
" तो आप आ गए? "
" हाँ , अपना वचन पालन करने के लिए । "
" बैठिए । "

कल्याण उसको उस कमरे में ले गया, जहाँ उसके भाई - बहिन ताश खेल रहे थे । कल्याण ने आसन बिछा दिया था । स्वामीजी को बैठा दिया और हाथ धुलाने के लिए पानी ले आया । स्वामीजी ने हाथ धोते हुए उससे पूछा, " क्या नाम है तुम्हारा ? "
" कल्याण । "
" और इनके ? " स्वामीजी ने अन्य बच्चों की ओर संकेत करते हुए पूछा ।
" यह मेरा भाई राम , यह बहिन शैला और यह सबसे छोटा और माँ का लाडला श्याम है । "
" और तुम्हारे पिता ? "
" वे हमारे साथ नहीं आए । कहते हैं कि यदि कमाऊँगा नहीं, तो तुम सब को खिलाऊँगा कहाँ से । "
" वे घर पर ही रहते हैं अथवा दुकान पर ? "
इस समय चंचल एक बड़े से थाल में सभी व्यंजन लगाकर ले आई ।
" देवी, मुझे बैल समझा है, जो इतना कुछ उठा लाई हो । "
" जितना इच्छा हो खाइए , शेष हम पापियों के लिए छोड़ दीजिए । "

स्वामीजी ने चार पूड़ी और साग का कटोरा उठा लिया । अपना अंगोछा बिछा उस पर पूड़ियाँ रखीं और भोजन करने लगे । खाते हुए बोले, " यह जानकर कि तुम सुखी हो , संतोष हुआ है । मुझको कभी थोड़ा सा पश्चात्ताप हुआ करता था , इससे मेरा ध्यान भंग हो जाता था । अब उस चिंता से भी मुक्त हो उन्नति में लीन हो सकूँगा । "

चंचल का मुख बंद था । वह मंत्रमुग्ध की भाँति स्वामीजी के मुख को देख रही थी ।
स्वामीजी ने कहा, " कभी समय निकालकर परब्रह्म परमेश्वर का भी चिंतन कर लिया करो । वही तुमको इस संसार - रूपी कीचड़ से निकालने में समर्थहै । "

चंचल मौन थी । स्वामीजी ने फिर कहा, " इन बच्चों के पिता से कहना कि मैं उसका अति कृतज्ञ हूँ , वह जो भी हो , भगवान् उसका भला करेगा । मेरी कामना छोड़ दो । मैं स्वयं नहीं जानता कि कहाँ रहूँगा । यह संन्यासी का धर्म

" महाराज, " आखिर चंचल के मुख से निकला, “ धर्म तो कर्म का सूचक है । कर्म हमको संसार में बाँधता है । "
" बाँधना किसी प्रकार भी बुरा नहीं । विचारणीय तो यह है कि किसके साथ बँधा जाए । उसके साथ बँधो, जिसके साथ बँधेरहने की सामर्थ्य हो । सबसे श्रेष्ठ बंधन भगवान् श्रीहरि का है । सामर्थ्य हो, तो उसका अवलंबन लो । "
" और निस्पृहता? "

" यह वागाडंबर है । स्पृहा आत्मा का गुण है । गुण गुणी के साथ सदा बना रहता है । गुणविहीन गुणी कहीं देखा नहीं जाता, परंतु स्पृहा भगवान् से ही रखनी चाहिए । और भगवान् का कथन है

निस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इच्त्युच्यते सदा ।

" यह ठीक नहीं , अथवा यह वाक्य अधूरा है । कामना का विश्लेषण सांसारिक होना चाहिए । "
स्वामीजी ने चार पूड़ियाँ समाप्त की , लोटे से जल पिया और हरि ओं कहकर उठ पड़े ।
" अब फिर? " चंचल ने पूछा ।
" नहीं जानता । सब भगवदिच्छा के अधीन है । "
" वह सीढियाँ उतर गया । "

सायंकाल स्वामी ब्रह्मानंद घाट पर कथा करने के लिए नहीं आए । यह कोई नहीं जानता था कि स्वामीजी क्यों नहीं आए और कहाँ होंगे इस समय ।