निशाऽऽजी (कहानी) : नरेश मेहता
Nishaaji (Hindi Story) : Naresh Mehta
मेरे सामने बैठी उदास बादल-सी इस नारी से क्या कह सकता हूँ? जिसकी इस सुखी 'देवदास' कॉटेज में, अनायास जनवरी की इस शाम बादल और धुंध घिर आए हैं। कुहरा और तेज ठंडी हवा वाले बादल, निशा के कमरे की एक-एक चीज, खिलौने, गुलाबी कनटोपे वाले निशा के फोटो, उसके जूते, खरगोशों तथा सफेद चूहों पर रेंग रहे हैं। एक्वेरियम की रंगीन मछलियाँ रेंगते बादलों में डूब गई हैं। गौरा का सुख, इन गीले बादलों के नरम किंतु अभेद्य अनंत में निशा के साथ चला गया है। उस दिन मैंने जिस सहज लयात्मक ढंग से 'निशाऽजी' पुकारा था, वह कमरे में आए आज के इन बादलों के साथ लौटकर मेरे कानों में बज रहा है;
-निशाऽऽजी!
जनवरी की इस शाम के इन बादलों में, निशा के उन लाल जूतों की मुलायम छोटी बुलबुली 'खट्-खट्' दुहरती-तिहरती कानों के पास बज रही है। ऐसा लगता है जैसे इस कुहरे में कहीं कोई छोटा मुँह दूध की बोतल पी रहा है।
मेरे सामने बैठी उदास-सी इस गौरा से क्या कह सकता हूँ? मैं नहीं समझता कि इसे किसी भी संवेदना या सहानुभूति की अपेक्षा है। कुछ भी कहना, उसके दुःख को झुठलाना है।
आज से चार बरस पूर्व डलहौजी की बस में पास की सीट पर यह गौरा अपने पति राघव और एक बरस की निशा के साथ बैठी हुई रास्ते-भर कै-मितली करती आई थी। पहाड़ घूमने नहीं बल्कि डलहौजी के डिफेंस स्टेब्लिशमेंट की प्रयोगशाला में केमिस्ट बनकर राघव, सपरिवार जा रहा था।
संभवतः सभी कुछ नया था-पत्नी, बच्ची, नौकरी, स्थान तथा जीवन का श्रीगणेश। नए दंपती कैसे नहाए-नहाए-से, धुले-ताजे-से लगते हैं। मैं भी पहली बार डलहौजी जा रहा था। दो दिन यहाँ-वहाँ घूमता रहा। एक शाम पोस्टऑफिस में खड़ा पत्र लिख रहा था कि राघव-परिवार से भेंट हो गई।
"नमस्कार कार्तिक बाबू! कहिए, कहाँ ठहरे हैं?"
"माउंट व्यू में। आप लोग तो ठीक हैं?"
"मैं अभी आया।"
राघव चिठियों में टिकट लगाने में व्यस्त हो गया। गुलाबी कनटोपे में लाल गुलाब-सी निशा, नीले फर के कंबल में लिपटी टुकुर-टुकुर ताक रही थी।
"लाइए, मुझे दे दीजिए कुछ देर।"
गौरा निशा को देने में पहले तो झिझकी, लेकिन मेरी बढ़ी हुई बाँहों में अजीब सुख-संकोच के साथ देते हुए बोली :
"देखिए, आपके कपड़े न खराब कर दे।"
कंबल और दूसरे ऊनी कपड़ों में पता ही नहीं चल रहा था कि निशा कहाँ है, कहाँ से है और कहाँ तक है। तब तक राघव लौट आया। देखते ही हँसते हुए बोला:
“वाह, यह भी खूब । तुमसे तो जरा भी बोझ नहीं उठता।"
गौरा बेचारी पति की बात से और सकुचा गई।
"मैं तो मना कर रही थी लेकिन...."
"तो क्या हुआ। लड़की लेकर कहीं भाग तो नहीं रहा हूँ।"
मेरी इस बात से राघव झेंप गया।
"मेरा मतलब था कार्तिक बाबू कि..."
"कोई बात नहीं राघव बाबू! निशा को ले जाना होगा तो माँग लूँगा। आइए, चलें।"
"किधर जा रहे थे आप लोग?"
"जाना कहाँ था। पहुँच की चिट्ठियाँ देनी थीं। आप यहाँ कब तक हैं?"
“सोचता हूँ दो-एक दिन और रुकूँ।"
"तो आइए न किसी दिन। हम लोगों के साथ ही चाय पीजिए।" गौरा ने आमंत्रण देते हुए पति की ओर देखा।
"हाँ, और क्या! कल शाम ही आइए।"
"पहले गृहस्थी तो ठीक से जमा लीजिए गौराजी! तब मेहमानों को बुलाइएगा।"
"आपकी चाय के लिए बहुत बड़ी गृहस्थी की जरूरत नहीं है कार्तिक बाबू!"
गौरा मुझे चतुर लगी। हम लोग बढ़ते हुए सुभाष चौक निकल आए थे।
"आप लोगों को घर कहाँ मिला है?"
राघव अपना घर दिखाने के लिए चारों ओर तलहटी में बसे डलहौजी में खोजने की व्यर्थ चेष्टा करने लगा। मैं हँस पड़ा, बोला :
"क्या आप ऊपर खड़े होकर लाल-हरी छतों के द्वारा पहाड़ों में अपना निवास स्थान खोज लिया करते हैं?"
"मैं तो जीवन में पहली बार किसी पहाड़ पर आया हूँ और वह भी सर्दियों में।"
परेशान राघव पर हँसते हुए मैंने कहा :
"और वह भी घूमने नहीं, रहने।"
निशा को लेते हुए राघव ने कहा :
"अभी से अंकल को पहचान लो।"
मैंने देखा कि गौरा के मुख पर अत्यंत तुष्टि थी।
"अच्छा गौरा जी।"
"तो कल शाम आइएगा न?"
गौरा ने पूछा। राघव ने तुरंत कहा :
"आप वहीं डिफेंस लेबोरेटरी आ जाइएगा। साथ ही चलेंगे।"
और राघव तथा गौरा अपनी निशा लिए, दाहिने हाथ, देवदार की घनी छाँहों वाले रास्ते से नीचे उतरते चले गए।
जिस समय राघव के साथ उसके बासे पर पहुँचा, आकाश में लाल-पीले रंगों के तथा सामने के हिमानीरंजित शिखरों के शेष सब कृष्णा रहा था। दिन में बर्फ गिरी थी और इस समय सब खुल आया था तथा तेज ठंडी हवा भी थी। जगह-जगह देवदारों में बर्फ लदी हुई थी। राघव के इस कमरे से दूर के हिमानी शिखर, देवदार भरी द्रोणियाँ-निकोलस रोरिक का चित्र लग रही थीं। ताजी बसी गृहस्थी में अधिक सामान ही क्या था, लेकिन गौरा ने उस 'जो कुछ’ को भी सुषमित कर दिया था। फायर-प्लेस के ऊपर निशा की एक फ्रेमित छवि रखी हुई थी। ऊनी कनटोपे में पलकें मीचे निशा की उस छवि के दोनों ओर कुछ खिलौने सजाए गए थे। दीवार पर राघव-गौरा का विवाह-शैली वाला एक फोटो कीलों पर टिका था। फायर-प्लेस में आग ताजी कर दी गई थी। कोने में एक तरफ साफ-सुथरे पलंग पर निशा अपने उसी फर वाले नीले कंबल में तथा गुलाबी कनटोपे में छोटी-सी रेशमी दुलाई ओढ़े सोई थी। इस घर की वस्तुओं तथा व्यक्तियों तक से ताजी बसाई जाने वाली गृहस्थी की गंध आ रही थी। टीकोजी, कप, ट्रे, चम्मच, चादर, गिलाफ, नेपकिन, सबमें नएपन की कड़क और खरखरापन था। नए कपड़े में जो एक माँड़ की गंध होती है, जो उसे नया बनाती है, बस वही 'देवदास' कॉटेज लग रही थी। और तो और, पहली बार नारी के माँ बनने पर जो दूध की गंध उसमें से आती है, बच्चे में से आती है, वह दुबारा कभी नहीं आती।
दूसरे वर्ष डलहौजी न जा सका। बात आई-गई-सी ही हो जाती लेकिन पता नहीं क्यों, उस शाम राघव-दंपती के यहाँ चाय पीते हुए निशा को गौरा जिस प्रकार फीडिंग-बॉटल से दूध पिला रही थी, वह रह-रहकर अंतस में खुभ उठता था। निपिल मुँह में डाले निशा जिस प्रकार अपने दोनों ओठों से दूध चूस रही थी तथा चूसते में हिलती उसकी संगमरमर की तरह चिकनी लाल ठोढ़ी, वह अजीब तरह से घिर आती थी। प्रत्येक हवा के चलने के साथ जब खिड़कियों के पल्ले बोलने लगते, तब लगता कि 'देवदास' में भी इस समय हवा चल रही होगी और अगर गौरा उस कमरे में न हुई तथा खिड़कियाँ खुली रह गई होंगी तो निशा कहीं सर्दी न खा जाए। लेटी हुई निशा का हाथ-पैर फेंकना तथा उछालना बराबर याद आता रहा।
लेकिन दूसरे वर्ष डलहौजी न जा सका।
जब तीसरे वर्ष डलहौजी पहुँचा तो उस दिन इकतीस दिसंबर थी। क्रिसमस मनाया जा चुका था। जगह-जगह देवदारों में लंबी-लंबी झंडियों की रंगीन बंदनवारें सजी हुई थीं, जैसे पहाड़ों के कंठों को सजाया गया हो। बर्फ झर रही थी। देवदारों की प्रलंबित शाखों में बर्फ, कपड़ों-सी उनमें या उन पर लटकी या टिकी हुई थी। एकदम सुहाना तापमान था। 'माउंट व्यू' होटल के सामने के स्कूल में छुट्टियों के बावजूद भी नववर्ष की तैयारी में उत्सव हो रहा था। मैदान में बर्फ बिछी थी। अंदर हॉल में बैंड बज रहा था और लोगों की भीड़ थी। जिस समय मैं वहाँ पहुँचा, नृत्य-धुन पर लोग जोड़ों में जोरों पर नाच रहे थे। स्कूल के प्रिंसिपल श्री फ्रेंक परिचित थे। मुझे देख प्रसन्न हो अपने साथ लिवा ले गए और मैं खिड़की के पास खड़ा उत्सवप्रियता देख रहा था। तभी किसी ने भीड़ में से चिल्लाया :
"नीला आकाश!"
“साँझ की धूप!!"
"हुर्रा!!!"
और लोग बेतहाशा बाहर मैदान की ओर दौड़ पड़े तथा बर्फ पर नाचने लगे। बैंड वाले भी भीड के साथ बाजे लिए मैदान में निकल आए। तभी मैंने प्रवेशद्वार के वहाँ राघव, गौरा और निशा को प्रवेशते देखा। निशा सिर से पैर तक लाल कनटोपे से लेकर लाल रंग की तंग पतलून में थी तथा एक बड़ा-सा गुब्बारा पकड़े थी।
कितनी बड़ी हो गई थी न? अब जैसे हर चीज ने रूप पकड़ लिया था। नाक राघव की भाँति तीखी निकलेगी। गनीमत थी कि गौरा की भाँति बड़ी आँखें थीं। उस दिन निपिल चूसते ओठ अब कितने स्वरूपित होने लगे थे।
तब तक राघव और गौरा ने भी देख लिया।
"अरे, आप कब आए कार्तिक बाबू?"
राघव ने आश्चर्य और प्रसन्नता के साथ कहा। निशा अपने पापा की अंगुली पकड़े टुकुर-टुकुर देख रही थी। मैंने उसकी ओर मुसकराते हुए, एक हाथ की अंगुलियाँ चलाते हुए गौरा से कहा :
“कहिए, कैसी हैं गौरा जी? अब गृहस्थी चाय पिलाने से आगे की जमी कि नहीं?"
"आपको खाना खिलाया जा सके इतनी तो पिछले बरस ही जम गई थी।"
और हम सब हँस उठे।
"आपकी निशाजी तो बड़ी हो गईं अब।"
"हमने तो उसी दिन से इसे इसके अंकल को दे दिया था।"
गौरा ने मेरी बात का उत्तर दिया।
“अब भी मौका है, सोच-समझ लीजिए।"
मैं हँसते हए बोला और निशा को अपनी ओर बुलाने लगा।
“आप क्या खाएँगी निशाजी?"
पहले तो वह मेरा प्रश्न समझने की चेष्टा करने लगी और फिर अपने पापा की ओर देखने लगी। राघव ने उसे अपनी ओर देखते हुए देखकर कहा :
"अरे, अंकल को नमस्कार नहीं किया? जवाब दो, अंकल क्या पूछ रहे हैं?"
निशा संभवतः इतने शोर-शराबे तथा एक नितांत अपरिचित व्यक्ति को देख असुविधा अनुभव कर रही थी।
"जाने दीजिए, बच्चों को अपनी मर्जी से सब करने देना चाहिए।"
हम लोग फिर अपनी बातों पर आ गए। गौरा ने पूछा :
“आप यहाँ कब आए?"
“आप कब सोचती हैं कि मैं आया हूँगा?"
गौरा न जाने क्यों मेरे प्रश्न पर स्वल्प लजा गई। बोली :
"आप पिछली सर्दियों में तो नहीं आए थे न?"
"नहीं तो! क्यों?"
"ऐसे ही। राघव कह रहे थे कि आप आए होंगे।"
मैंने मार्क किया कि गौरा ने संभवतः अब अपने पति को 'राघव' कहना सीख लिया है। उस बरस दोनों के मुखों में जो लालसा, ताजापन था, वह अब स्थिरता प्राप्त कर चुका था। वे दोनों अब एक-से लग रहे थे। पुराने पड़ते जाने पर पति-पत्नी न जाने क्यों पसीने से लेकर वार्तालाप के ढंग तक में एक-से लगने लगते हैं।
राघव झेंपकर बोला:
"नहीं गौरा! मैंने तो कहा था कि शायद आए हों कार्तिक बाबू!"
मैंने दोनों की उलझन दूर करने के खयाल से कहा :
“आइए निशाजी! आपको डांस दिखाएँ। आपको डांस आता है?"
लेकिन निशा ने मेरी बात का कोई उत्तर नहीं दिया। हम लोग सब जाकर दरवाजे में खड़े हो मैदान में नाचते लोगों तथा बैंड को सुनते रहे।
मैं उन्हें अपने होटल ले आया। प्रस्ताव मात्र चाय का था, क्योंकि मैदान में हो रहा नाच होटल की बालकनी में बैठकर और अधिक अच्छे ढंग से देखा जा सकता था। हवा तेज हो आई थी लेकिन आकाश खूब नीला खिल आया था। जाती हुई धूप में पश्चिम, पीले रेशमी पर्दे-सा हो आया था। लकड़ी का जीना चढ़ने के पहले मैंने निशा से कहा कि आओ, तुम्हें गोदी में ले लें, लेकिन उसने इनकार कर दिया। वह अपने पापा की अंगुली पकड़े बच्चों की तरह, एक सीढ़ी पर पहुँचने के बाद फिर अगली सीढ़ी पर चढ़ने लगी।
हम लोग बालकनी में बैठे चाय पीते हुए यहाँ-वहाँ की बातें करते रहे। बालकनी से मीलों तक दोनों ओर की तलहटी तथा बर्फ के शिखर दिख रहे थे। जाती हुई धूप से तलहटी रँग उठी थी। बैंड बंद हो गया था। और अब माउथऑरगन पर नृत्य-धुन छिड़ी हुई थी। गौरा-राघव को शुरू-शुरू में यहाँ जितना एकांत उबाता था, अब उतना नहीं। निशा के कामों से ही गौरा को फुर्सत नहीं मिल पाती है। इस साल उसे नर्सरी में भर्ती करवाया जाएगा। गौरा उसे खुद घर पर पढ़ाती है। नर्सरीपोएम्स तो उसे अभी ही कंठाग्र हो चुकी हैं। राघव ने निशा को बड़ा निडर बना रखा है। किसी भी जानवर को पकड़ने में नहीं हिचकिचाती। गौरा को बड़ा डर लगा रहता है क्योंकि विषैले जन-जनावर तो आए दिन निकलते सुनती है वह। निशा के मन से डर निकालने के खयाल से ही राघव ने चूहा, खरगोश, तोता ला दिए हैं। दिन भर उन्हें जेब में रखे घूमा करती है। एक दिन कर्नल गुहा के घर मछलियाँ क्या देख आई है, आफत किए है। यहाँ तो एक्वेरियम मिलता नहीं। किसी दिल्ली आने-जाने वाले के हाथ मँगवाना है।
इस बीच कम से कम मुझे निशा का ध्यान नहीं रह गया था। गौरा चौंकी कि कहाँ गई? और हम सबने देखा कि वह एक बिल्ली के बच्चे को गर्दन के यहाँ से पकड़े चली आ रही थी।
“यह क्या निशा? छोड़ो उसे।"
"मम्मी जी! बिल्ली।"
"छोड़ो उसे, काट खाएगी।"
गौरा की बात पर संभवतः निशा को विश्वास नहीं हआ। उसने राघव की ओर देखा और पूछा :
"बिल्ली कात खाएगी पापा जी?"
"कौन कहता है? लेकिन उसे गले से न पकड़ो।"
हलकी डरी निशा के चेहरे पर आश्वस्तता आई और उसने चूहे जैसे लटके बिल्ली के बच्चे को लद्द से जमीन पर पटक दिया। बच्चा 'म्याऊँ' बोला और भाग गया। निशा भागते बच्चे को कुछ क्षण तो देखती रही, फिर सहसा राघव की टाँग पर हाथ टिका झूलती हुई बोली :
“पापाजी, यहाँ बत्ते तो हैं नहीं, हम किछके छात खेलें?"
और हम सब हँस दिए। मैंने कहा : "आइए, हमारे साथ खेलिए।"
"हिश्ट्!"
और वह मुँह पर हथेली रख हँसने लगी। तभी गौरा बोली :
“आप कब तक हैं यहाँ?"
“अभी दो-एक दिन तो हूँ ही।"
"कल वैसे आपका क्या कार्यक्रम है?" राघव ने जेब से दस्ताने निकालते हुए पूछा।
"कुछ खास तो नहीं। कल आप लोग यहीं खाना खाइए।"
गौरा मेरी बात पर हँस दी, बोली :
“वाह, यह कैसे हो सकता है? राघव! कल कार्तिक बाबू शाम को हम लोगों के साथ ही खाना खाएँ।"
“हाँ-हाँ, मैं तो यह भी कहना चाहता था कि अपराह्न की चाय भी। चाय के बाद घूमने चला जाएगा।"
पति की बात गौरा ने आगे बढ़ाते हुए कहा :
“हाँ, और क्या। इसी बहाने हम लोग भी थोड़ा घूम आएँगे। और आप दिन भर होटल में क्या करिएगा?"
मुझे गौरा की बात पर हँसी आ गई। जैसे डलहौजी मैं होटल में बंद रहने के लिए ही तो आया हूँ। तभी निशा ने राघव से कहा :
“पापा जी, घल चलिए।"
“अंकल से कहो कि कल आप हमारे यहाँ आइए और हम आपको पोएम्स सुनाएँगे। खिलौने दिखाएँगे।"
निशा मेरी ओर देखने लगी। मैंने कहा :
"सुना, आपके पास खूब सारे खिलौने हैं।"
निशा ने स्वीकृति में सिर हिला दिया।
“आप हमको पोएम्स सुनाएँगी?"
निशा ने अस्वीकृति में सिर हिला दिया।
"तो हम आपके यहाँ आएँ कि नहीं?"
"आइए, थपेद तुआ है हमाले पाछ।"
“अच्छा ?"
और पहाड़ी सँकरे रास्ते पर राघव तथा गौरा का हाथ पकड़े लाल कनटोपे तथा लाल पतलून में निशा नीचे उतरती चली गई। कितने ही छोटे पैर क्यों न हों, बड़ी से बड़ी दूरी तथा कैसा ही रास्ता नाप लेते हैं। जाती धूप जा चुकी थी। लालपीली छतों से धुआँ, शरमाया-शरमाया-सा उठता हुआ छितरा रहा था। इस बीच स्कूल की उत्सवप्रियता समाप्त हो चुकी थी। डलहौजी पर जैसे सन्नाटा छाया हुआ था। हवा थम चुकी थी। ठंड जैसे जमी जा रही थी। नीचे तलहटी में डिफेंस कार्यालय का गुंबद, आसपास के मकानों में स्केच बना हुआ था। तलहटी में कभी किसी का बोलना सुन पड़ता। शेष पर साँझ का दुःख व्याप्त था।
नववर्ष के दिन का मौसम अनायास अच्छा था। धूप, आकाश सब एकदम निरभ्र स्वच्छ थे। 'देवदास' के छोटे-से लॉन में निशा फुटबॉल खेल रही थी। कई रंग की गेंद फेंसिंग से टकराकर वापस आ जाती। दूर जाने पर आया उठा ले आती। हरे स्लेक पर सफेद लंबी कॉलरें हवा में उड़-उड़ पड़तीं। कल भी मैंने मार्क किया था कि उसका रिबन हमेशा बाईं ओर झुक जाता है। मुझे देखते ही उसकी आँखें सहसा हँसी से भर उठीं और वह ताली बजाती 'मम्मी जी! अंकल आए हैं' चीखती अंदर भागी। जब वह भागी तब मेरा ध्यान गया कि उसने स्लेक की जेबों में सफेद चूहे भर रखे थे। गौरा को वह साड़ी से घसीटते लाई। मुझे देखते ही बोली :
"आइए, लेकिन यह सब क्या? किसलिए?"
"देखिए? इस बारे में कृपया आगे कुछ न कहें।"
मुझे बड़ी असुविधा हो रही थी क्योंकि गौरा मेरे हाथ की बेबी साइकिल, टॉफियाँ तथा गुब्बारे देखे जा रही थी।
“ठीक है, भीतर तो आइए।"
कमरे में खिड़की के पास ही बेंत का एक सोफा-सेट तथा गोल टेबल थी। बाकी यह निशा का अपना कमरा लग रहा था। निशा के लिए बेबी सोफा-सेट से लेकर अलमारी, अलगनी, पलंग, नीली मसहरी तक मौजूद थी। मेंटलपीस पर दीवार में एक बड़ा-सा तैलचित्र निशा का टँगा हुआ था। कई तरह के फोटो मेंटलपीस पर आ गए थे। अलमारी में ऊपर से नीचे तक निशा के कपड़ों से लेकर खिलौने रखे हुए थे। मेंटलपीस के सामने बेबी-रेल की पटरियाँ बिछी हुई थी, जिस पर इंजन अपने डब्बों के साथ खड़ा हुआ था। कोने में पत्थरों का पहाड़ था। उस पर लकड़ी के मकान तथा रास्ते बने हुए थे, जिस पर निशा की 'पली लानी' रहती है!
तभी गौरा बोली :
"राघव जरा लेबोरेटरी गए हैं, आते होंगे। मैं अभी आती हूँ।"
"कोई बात नहीं, निशा जी तो हैं ही।"
गौरा हँसते हुए बोली :
"देखो निशा! अंकल को ज्यादा परेशान न करना, समझी? अंकल को पोएम्स सुनाना, फिर घूमने चलेंगे, हाँ!"
और निशा ने अपने को कमर तक हिलाकर स्वीकृति दी। गौरा हँसते हुए लौट गई। अब कमरे में निशा थी, उसके खिलौने थे और नववर्ष की धूप थी। सर्दियों का गहरा नीला आकाश जंगलों से दिखाई दे रहा था। कभी किसी पहाड़ी पक्षी का स्वर इस शांत अपराह्न में सुनाई पड़ जाता या फिर ऊँची मँडराती चीलों की सपाटें मारती काली छाया बर्फ की पृष्ठभूमि में खिंच जाती। मैंने निशा से पूछा :
"ये आप ही का कमरा है न निशा जी?"
गोद में गेंद और स्लेक में सफेद चूहे ढूंसे निशा अभी तक स्पष्ट नहीं थी। मेरे प्रश्न पर उसने मात्र सिर हिला दिया जबकि उसकी दृष्टि गुब्बारे पर थी।
“आपके पास तो खूब सारे खिलौने हैं। है न?"
"इत्ते छाले!"
और अनुपात बताने के लिए एड़ियाँ उठाकर बाँहें फैला दीं। गोद की गेंद इस बीच गिर गई और लुढ़कती हुई दरवाजे की तरफ चली गई। निशा ने एक बार तो लुढ़कती गेंद की ओर देखा और फिर मेरी ओर देखकर फीका-फीका-सा हँस दिया। मैं भी हँस दिया।
-आपको गेंद ला दें?"
उसने हँसती आँखों से ही अस्वीकृति वाला सिर हिला दिया।
"आप गुब्बारा लेंगी?"
मेरे प्रश्न पर उसने अपने कमरे में टँगे गुब्बारे की ओर देखा जो कि क्रिसमस में टाँगा गया होगा क्योंकि अब उसकी हवा कम हो गई थी और वह झुर्रियों में फूला था।
"जब पापा जी आएँ तो कहना कि यह गुब्बारा टाँग दीजिए, समझीं?"
उसने हामी भरी।
"ये आपकी जेब में क्या है?"
"तुआ।"
उसने दोनों चूहे गर्दन से पकड़ दोनों हाथों में झुलाकर दिखाए।
"क्या नाम हैं चूहों के?"
"तुओं के भी नाम होते हैं!"
और वह मेरे मूर्खतापूर्ण प्रश्न पर हँस दी।
"अच्छा! ये तो सफेद चूहे हैं न?"
"दो औल हैं, लाएँ?"
वह गर्दन से झूलते चूहे पकड़े भाग गई। एक सफेद तीलियों वाले पिंजरे में चारों चूहे लिए वह बड़ी सावधानी से पंजों पर चलती लौटी। एक क्षण को वह रुकी और उसने झटके से पिंजरा फेंकते हुए कहा :
“खलगोछ देखा है आपने?"
"खरगोश? खरगोश क्या होता है निशा जी?"
"खलगोछ नहीं देखा? इत्ते बले हो गए औल खलगोछ नहीं देखा?"
और वह आँखें बंद कर इस बार बहुत जोर से हँस उठी। तभी उसे ध्यान आया कि जोरों से नहीं हँसना चाहिए इसलिए हथेलियों से मुँह ढंक लिया। उसके दोनों हँसते गाल हथेलियों के बाहर फूट आए। वह अंदर भाग गई। इस बार आया उसे बरज रही थी लेकिन वह चीखे जा रही थी कि 'वो जो अंकल आए हैं न बड़ेसे, उन्होंने खरगोश नहीं देखा है। शायद गौरा ने आया से ले जाने देने के लिए कहा। कानों के यहाँ से पकड़े निशा दो खरगोशों के साथ शैतानी हँसी ओठों में दाबे, बिल्लियों की तरह गुद्दीदार चलते हुए आई और मेरी गोदी में उन्हें फेंकते हुए बोली :
"खलगोछ भी नहीं जानते।"
जैसे मेरी भर्त्सना की गई थी।
"इस तरह खरगोश फेंकने से ये मर जाते हैं।"
"हिश्ट्, खलगोछ भी कहीं मलता है?"
"अच्छा, यह बताइए कि आपको साइकिल आती है?"
"हमाली छाइकिल आया ने तोल दी।"
"अच्छा! तो आप यह साइकिल ले लीजिए।"
मैंने साइकिल की ओर संकेत कर उसका ध्यान दिलाया।
"हिश्ट्, वो तो आपकी है।"
खरगोश ने धक्के से रेल गिरा दी। निशा अपनी रेल की तरफ दौड़ी। रेल में चाभी देते हुए बोली :
“ये खलगोछ भोत छेतान है।"
और पटरियों पर रेल जमाने के लिए वह घुटने टिकाए झुकी थी। रेल किरकिर कर रही थी। आखिरकार रेल दौड़ने लगी।
"ये छच्चमुच की लेल है।"
“आपकी रेल कहाँ जाती है?"
निशा उसी तरह झुकी थी तथा अपनी दौड़ती रेल की ओर देखते हुए ही बोली:
“पापा जी के आपिछ।"
"दिल्ली नहीं जाती?"
“नहीं, मम्मीजी नहीं जाने देतीं, कहती हैं, हमाली लेल वहाँ कुचल जाएगी।"
मैं हँसने को हुआ लेकिन तभी जाने कैसे गुब्बारा आवाज के साथ फूट गया। निशा अवाक् हो आई। पहले तो वह प्रसन्न-आश्चर्य से मुसकराई, लेकिन हठात् आँखें छलछला आईं। अधरोष्ठ गोल हो आया। रोते हुए बोली :
"गुब्बाला फूत गया अंकल!"
"कोई बात नहीं, दूसरा आ जाएगा।"
लेकिन वह तद्वत् रोते हुए बोले जा रही थी :
"गुब्बाला फूत गया।"
"तो इसमें रोने की क्या बात है? आपको कितने चाहिए?"
रोना अधूरा ही छोड़ वह भरी-भरी आँखों से ताकने लगी। नरम पत्तियों वाला अधरोष्ठ तथा महीन भौंहें पुनः घुलने लगे। ओठों के कोने गाल में फँसने शुरू हुए। मुसकराते हुए उसने 'इत्ते छाले' वाले अपने दोनों हाथ फैला दिए। तभी राघव ने प्रवेश किया।
"माफ करिएगा, देर हो गई। अरे, तुम क्यों रो रही हो? क्या बात हुई?" पापा के सीने में मुँह भरकर रोते हुए बोली :
“गुब्बाला फूत गया।"
"बस? तो क्या हुआ? और आ जाएगा।"
तभी राघव का ध्यान बेबी-साइकिल तथा टॉफियों पर गया, बोला :
“यह सब क्या कार्तिक बाबू?"
“देखिए, इस बारे में कोई बात नहीं होगी।"
कंधे उचकाते हुए वह बोला :
“अच्छी बात है साहब! कोई बात नहीं होगी। लो, निशा की टूटी साइकिल तो नई बनकर लौट आई। वाह, कितनी अच्छी है न?"
और उसने घंटी टुनटुना दी। पापा जी को घंटी बजाते देख सहमी-सी वह भी बढ़ी और हौले-हौले शरमाते हुए हाथ बढ़ा उसने भी टुनटुना दी। कमरे की निस्तब्धता में जैसे कोई छोटी बुलबुल गा गई हो। घंटी की चमक में निशा प्रतिछायित थी। राघव ने निशा को अपने से सटा लिया और उसके दोनों गालों पर अपने ठंडे हाथ हँसते हुए रख दिए। तभी गौरा आई। तंबाकू रंग में सज्जित होकर वह लौटी थी।
"हटाओ उसके गालों से अपने ठंडे हाथ। जाने क्या आदत है तुम्हारी कि बाहर से आओगे तो जरूर ठंडे-ठंडे हाथ उसे छलाओगे।"
"निशा के गाल हीटर हैं, क्यों निशा?"
“झूत बोलते हैं?"
और निशा, राघव के हाथों को अपने गालों से अलग करने में लगी थी।
“पापा जी! अंकल कहते हैं कि फेंकने से खलगोछ मल जाता है।"
“अंकल ठीक ही तो कहते हैं।"
अनायास निशा ने गोल मुँह बनाया और हँसते हुए हाथ से ढाँपते हुए बोली, जैसे झिड़क रही हो :
"हो ओऽऽ, बत्तों छे बी कोई झूत बोलता है? पली लानी नालाज हो जाती है।"
“अच्छा यह बताओ कि तुमने अंकल को पोएम्स वगैरह सुनाईं कि नहीं? अरे गौरा! देखा तुमने, तुम्हारी लड़की कितनी भाग्यवान है? इतनी सारी चीजें कार्तिक बाबू...."
“अच्छा रहने दो, कोसो नहीं लड़की को। खुद माँ-बाप की भी नजर लग जाती है बच्चों को।"
"तुम्हारा वश चले तो तुम किसी को भी अपनी लड़की न छूने दो। अच्छा अब चाय-वाय नहीं पिलानी है क्या?"
गौरा उठ गई। निशा खिलौने वाली अलमारी के पास खड़ी थी, बोली :
“पापा जी, अंकल को खिलौने दिखाएँ?"
"तुमसे कहा, पहले पोएम्स सुनाओ।"
निशा खिन्न हो गई।
"कौन छी?"
"वही हम्टी-डम्टी सेट ऑन ए वॉल।"
"वो नहीं।"
“अच्छा तो वोऽऽ बाबा ब्लेक शोप।"
“नहीं, वो नहीं पापा जी।"
"ठीक, वोऽऽ सड़क बनी है लंबी-चौड़ी।"
"जिस पल जाती मोतल दौली-वो?"
तब तक गौरा चाय लेकर आ गई।
"अरे, अभी यही तय नहीं हुआ कि कौन-सी सुनाई जाए!"
राघव कुछ चिढ़ा-सा लग रहा था, बोला :
"देख लो, शैतानी कर रही है।"
निशा ने जैसे विरोध किया :
“मम्मी जी! हम अंकल को खिलौने दिखाएँगे।"
मैंने निशा का पक्ष लिया :
"ठीक है, आप हमें खिलौने दिखाइए और फिर पोएम्स सुनाइएगा, है न?"
"नहीं, पोएम्छ नहीं छुनाएँगे, हमें छलम आती है।"
गौरा एकदम हँस पड़ी, बोली :
"अरे वाह रे शरम!"
हम लोग चाय पीते रहे और निशा अपना घंटी वाला हाथी, झबरा कुत्ता, बतख आदि फेंक-फेंककर दिखा रही थी। चाभी वाली नर्स की भाँति वह भी बच्चे को दूध पिलाने की नकल साथ-साथ करती जा रही थी। ड्रमर के साथ वह भी मुँह फुलाकर कमर हिलाती, ढोल पीटती गोल-गोल घूमने लगती। जब उसने बागबानी के औजार दिखाए और पूछने पर मैंने अनभिज्ञता दिखाई तो वह खूब हँसी कि अंकल इतने बड़े हो गए और इन्हें कुछ नहीं मालूम। मैंने कोने में बने पहाड़ की ओर संकेत कर पूछा :
“वह क्या है?"
“उछ पहाल पल पली लानी का महल है।"
"अच्छा ?"
"हाँ, वो मिथाई लाती हैं, पोएम्छ लाती हैं। खूब अच्छी-अच्छी चीजें लाती हैं।"
उपरोक्त बातें वह कभी आँखें बंद कर, कभी जैसे दूर देखते हुए कह रही थी।
“तो अंकल को पोएम्स नहीं सुनाना?"
गौरा ने टोका उसे। निशा हँसते हुए मुझे देखने लगी और अस्वीकृति में सिर धीरे से शैतानी में हिलाती रही।
"तो फिर जाओ। घूमने के लिए आया से कहो, तैयार कर दे।"
पोस्टऑफिस की तरफ हम लोग निकल आए। बड़े अच्छे शेड्स हैं। बेंचे हैं। बड़ी घुमावदार सड़क है। एक अजीब सन्नाटे वाली शांति, देवदारों की छतनारी छाया और एकांत पहाड़ी मार्ग। जो है, विपुल है।
हम लोगों के पहुंचने पर सामने के पहाड़ों, बँगलों पर अपराह की अंतिम धूप प्रशस्त थी। देवदार की झरती पत्तियाँ तक अबोले नहीं झर रही थीं। निशा अपनी उसी परिचित जूतों की नन्ही खटखट करती मोड़ों, ढलानों, चढ़ाइयों पर चल रही थी। एक शेड की बेंच पर हम लोग बैठ गए। निशा के कनटोपे के फुदै हवा में झूल-झूल पड़ रहे थे। बीच में बैठी 'यह क्या है' पूछती हुई उसकी जिज्ञासा तलहटी, पहाड़, पेड़ सबके प्रति उत्सुक थी। इस बीच मैंने देखा कि उसे बहुत कम गोदी चढ़ना सुहाता है।
उसके बाद-
उसके बाद खाने की मेज पर अभी हम बैठे ही थे कि वह अपने गले का नेपकिन खोलती आई और खाना खा चुकी थी, इसलिए सोने जा रही थी। पापा, मम्मी तथा अंकल को प्यार देकर 'गुडनाइट' करती जूते बजाती चली गई।
रास्ते-भर उसके कनटोपे के उड़ते फुदे तथा लाल जूतों की बुलबुली आवाजें सुनता आया, जैसे वह मेरी अंगुली पकड़कर अँधेरा चीरती चल रही है, तारों के ठंडे मंद प्रकाश के नीचे, नील कुहासे में।
मौसम अनायास ही बहुत खराब हो गया था दूसरे दिन । बादलों को जैसे छंटना ही नहीं था। सर्दियों में बरसात, दिन-भर टिपटिप। उस पर तेज सर्द हवा। एकदम मन घबरा उठा। होटल में घिरे बैठे रहने से तो अच्छा था कि दिल्ली लौट जाया जाए और लौट पड़ा। बस चलने को हुई तो एक बार ध्यान भी आया कि क्यों नहीं निशा को देख आया, और तब तक बस गूं-गूं करती गहराइयों और मोड़ों में सरकती जा रही थी।
अगले बरस अपनी कंपनी के काम से दूर असम चला जाना पड़ा और वह भी दो महीनों के लिए। डलहौजी, निशा, गौरा, राघव सभी याद थे, लेकिन-बस। इसलिए जनवरी में जैसे ही छुट्टियाँ मिलीं कि यहाँ चला आया। इस बार मनपसंद एक एक्वेरियम निशा को भिजवा सका। उत्तर में उसने कैसे बच्चों के-से मुलायम प्यारे अक्षरों में धन्यवाद भेजा। निशा के ही धन्यवाद की तो अब जरूरत रह गई है मुझे-मूर्ख; और लिखा कि पिछली सर्दियों में क्यों नहीं आए? कब आने वाले हैं?
अपराह्न था। राघव घर कैसे हो सकता था? निशा भी स्कूल में होगी, तभी तो एकदम निर्जन शांति थी। दरवाजा उढ़का पड़ा था। बच्चों के स्कूल से लौटने का भी तो यहो समय होता है। निशा भी अब लौटने ही वाली होगी। तभी पल्ला खड़का और एक खरगोश ने सिर निकाला। बाहर की हवा में उसकी गर्दन के बाल हिले पड़ रहे थे। खरगोश के बाद निशा के 'तुए' भी स्वागत करने दरवाजे पर आ रहे होंगे। सहसा वह बात याद आ गई गौरा की, कि निशा उससे कह रही थी कि अंकल जिस तरह 'निशाऽऽजी' पुकारते हैं, वैसे ही वह भी पुकारेगी-'अंकल जी!' समझ नहीं पा रहा था कि किसे पुकारूँ?"
राघव, गौरा या निशाऽऽजी?
और तभी खुले बालों में काली शॉल ओढ़े गुड़हली आँखों में, अत्यंत टूटी-टूटी, बीमार-सी पीली गौरा बाहर निकली। पहचानने में एक क्षण लगा कि कहीं यह गौरा की कोई बीमार बड़ी बहन तो नहीं? वह भी चौंकी :
"अरे, आप?"
"हाँ, मैं! लेकिन, क्या आप बीमार हैं?"
और गौरा की आँखों की सफेदी जैसे बढ़ गई। सहसा बुढ़ा गई लगती थी। मन शंकालु हो उठा। तो क्या कुछ अघटित घटा है? राघव तो ठीक है न? निशा...वह कभी बीमार नहीं हो सकती है।
गौरा पीठ किए ‘आइए' का आदेश देती लिवा ले गई। उसी मुद्रा में 'बैठिए' कहकर भीतर चली गई।
क्या समझू इसे?
निशा का ही कमरा था । यथावत् था। मेंटलपीस के ऊपर निशा का वही तैलचित्र टॅगा था, जिसे एक 'पेंटर अंकल' ने बनाया था, जो कि कभी इसी 'देवदास' में आकर रुका था। खिलौने, अलमारी, अलगनी, शेल्फ, पलंग, नीली मसहरी, ‘पली लानी' का महल, सब, सभी कुछ तो यथावत् था। कोने में एक खरगोश आँखें मीचे झपकियाँ ले रहा था। दो सफेद चूहे जरूर रेल की पटरियों पर शैतानी करते कूद-फाँद रहे थे।
एक्वेरियम खिड़की के पास रखा गया था, जिसमें मछलियाँ कितनी शांत तैर रही थीं। साँझ की धूप में ये मछलियाँ कितनी रँगा उठती होंगी। हालाँकि इस समय तो मौसम बड़ा खराब हो रहा था। बादल घिरकर नीचे उतरने लगे थे। जनवरी में प्रायः बादल नीचे आ जाते हैं और मनमाने टहलने लगते हैं तथा आपके घरों में घुस पड़ते थे।
तभी गौरा वैसी ही निष्प्रभ बुझी-बुझी-सी सामने आ खड़ी हुई, रुकी और फिर बैठ गई।
"कब आए आप?"
“आज ही, बल्कि अभी ही।"
"रुकिएगा?"
जैसे जल की अज्ञात सतहों में से पूछा जा रहा हो।
“सब ठीक तो है न गौरा जी?"
क्या कहूँ कि उस गौरा-मुख पर क्या हुआ।
हवा तेज हो आई थी। बादल एक-दूसरे में गुंथते हुए, घुलते हुए नीचे उतरकर घाटियाँ भरने लगे थे। अब तो वे लंबे फैलते एक-एक देवदार के ऊपर से होते बढ़ आए हैं। लाल-पीली छतों से तैरते मकानों, बारजों, बालकनियों और खिड़कियों में भी घुसने लगे हैं। बस, जहाँ निशा का पलंग था, उसी खिड़की के बंद शीशों के पार टहलने लगे हैं। उन झाँकते बादलों की गीली भाप कैसे शीशों पर झलक आई है।
"राघव कहाँ हैं?"
“क्या ऑफिस का समय हो गया?"
उसने चौंकते हुए उलटे मुझी से प्रश्न किया। स्पष्ट था कि राघव ऑफिस गया है और समय से लौट ही आएगा। लेकिन तब, यह गौरा क्यों ऐसी बुझी-बुझी-सी, उदास बादल-सी...
"निशा तो अब स्कूल से लौटने वाली होगी?"
मैंने किससे यह प्रश्न किया? गौरा से? लेकिन वह थी कहाँ?
"गौरा जी! क्या बात है?"
मुझे लगा कि 'गौरा जी' सुनकर कमरे में टहलते, घिरते बादल तक एक क्षण को चौंके. लेकिन गौरा"उसकी बड़ी-बड़ी आँखें और बड़ी हो गई। मुझे खटका हुआ। मेरी चेतना जैसे सारा हिमालय एक साथ छू आई।
"निशा कहाँ है गौरा?" मैं नहीं जानता कि यह मैंने पूछा या पुकारा।
खुले बालों में फटी आँखों की गौरा, कमरे में घिर आए इन बादलों में विभास रही थी। कमरे में टहलते बादल निशा के बिस्तर पर, खिलौनों की अलमारी पर, तैलचित्र पर, एक्वेरियम की मछलियों के चारों ओर स्वेच्छाचारी थे।
तो क्या-
तो क्या निशा अब-
कमरे के ये जनवरी के टहलते बादल, गीले बादल मेरी स्नायुओं में, चेतना में भी सायास घिर रहे हैं या अनायास ही यह सब घट चुका है?
निशा के वे लाल-लाल जूते, हवा में हिलते कनटोपे का फुदा, पहाड़ी सुनसान मोड़ों पर मुलायम-सी वह बुलबुली पदाहट-
खट खट, खट खट खट...
निशा का खरगोश जो ऊँघ रहा था, टहलते बादलों के नीचे फुदकता गौरा के पैरों के पास बादलों-भीगा काँपता बैठ गया।
मेरे सामने बैठी उदास बादल-सी इस गौरा को क्या कहूँ?
स्वयं मेरे पास कहने को क्या है? केवल लौट जाने के मार्ग पर एक यात्रा है, जबकि यहाँ एक ऐसा दुःख है, जो दुःख है, बादलों-डूबा, गौरा-भीगा-एक दुःख!