निर्मम (कहानी) : जैनेंद्र कुमार
Nirmam (Hindi Story) : Jainendra Kumar
1
अभी सिंहगढ़ चार कोस है। दस कभी के बज चुके। ठीक दस बजे तीनों घुड़सवारों को शिवाजी की हाजिरी में सिंहगढ़ पहुँच जाना चाहिए था ।
शिवा की बात टलती नहीं, टलती है तो अनर्थ हो जाता है। समय और कार्य का विभाग ही उसका ऐसा नपा-तुला होता है कि ज़रा से काम की ज़रा ढील और ज़रा देर सारी स्कीम को ढा देती है, कार्य-सिद्धि (Achievements) की श्रृंखला को ही विशृंखल कर देती है । और शिवा वह व्यक्ति है जो सब कुछ सह सकता है, असफलता नहीं सह सकता। जिसने फेल होना जाना ही नहीं। जिसके जीवन की डोर विजय-विजय-विजय के मनके पहनकर वह माला बनकर ही दम लेगी, जिसे इतिहास अनुशीलन करने वाले साहस - प्रार्थी व्यक्ति फेरफेरकर धन्य होंगे। जो चाहता है, जिसमें हाथ लगाया है, वही यदि पूरा होने से रह जाए तो शिवा शिवा नहीं। कौन है, जो पूरा होने से रोक ले । कहीं भी यदि उसे असिद्धि मिले, तो मानो वहीं उसकी मौत होगी। वह उस धातु का बना है जिसके अलौकिक वीर बने होते हैं। जिसका अलक्षेन्द्र बना था, जिसके अशोक, सीजर, शार्लमान बने थे, और जिसका नैपोलियन बना था। जो धातु मुड़ना नहीं जानती, टूट भले ही जाए ।
तीनों घुड़सवार जो घने जंगल, घने अँधेरे और घने कुहरे को, जमी हुई सन्नाहट और वैसी ही जमी हुई शान्ति को चीरते हुए तेजी से आगे बढ़ रहे हैं, शिवाजी के इस अकम्प शिवापन को मन-ही-मन अनुभव द्वारा खूब जानते हैं। थक रहे हैं, हाँफ रहे हैं, बढ़े चले जा रहे हैं, आपस में बोलने का भी अवकाश नहीं ले रहे हैं, यह देखने कि 'अब क्या बीतती है !' वह, और हम भी, आत्मा की शपथ खाकर कह सकते हैं कि उन्होंने पूर्ण तत्परता, चुस्ती और मुस्तैदी से अपना कर्तव्य निबाहा है। किन्तु दस तो बज चुके हैं।
बीजापुर की खबर लाने के लिए उन्हें भेजा गया था । त्र्यम्बक उनका नेता है, घोरपड़े और शिवराय उसके सहायक । त्र्यम्बक शिवा का बहुत ही अपना आदमी है। जोखिम और विश्वास की जगह उसे भेजा जाता है। उसे भेजकर शिवा मानों उस सम्बन्ध में बिलकुल निश्चिन्तता प्राप्त कर लेता है।
त्र्यम्बक बोला, "महाराज यदि न मिलें... ?"
यह सम्भावना तीनों ही के मनों में थी किन्तु इतनी अनिष्टकर थी कि जैसे वह उसे स्वीकार करने से डरते थे। शिवराय ने कहा - " ऐसा नहीं होगा।"
घोरपड़े ने भी कहा—“महाराज, हमारे संवाद के लिए अवश्य प्रतीक्षा करेंगे।"
किन्तु त्र्यम्बक को सन्तोष नहीं मिलता। इन मुसीबत के दिनों में जब चारों ओर फैले प्रत्येक क्षण और प्रत्येक पग में विपत्ति और विजय है, जब समय का ठिकाना नहीं है और ठिकाने का भी ठिकाना नहीं है, तब नियत दस बजे के बारह बज जाना कोई छोड़ी बात नहीं। वह इसी भारी भूल के बोझ और मनस्ताप के नीचे मानो पिसा जा रहा है। उसने कहा - " घोरपड़े, मालूम नहीं क्या हो गया है । सन्देह नहीं, दस बजे महाराज वहाँ अवश्य होंगे, पर अब - ?... बीजापुर में ही हमको समाचार मिला था कि सिंहगढ़ आशंका से खाली नहीं। न जाने किस पल धावा हो जाए ?"
घोरपड़े ने उत्तर में केवल घोड़े की चाल तेज कर दी ।
तीनों बढ़ चले। चुप-चारों ओर सन्नाटा - भरी चुपचुपाहट थी । मानो नीरव प्रकृति, इन तीनों के भीतर उबलती हुई आशंका को अपने व्यंग्य - मौन से और भी तीखी बना देना चाहती हो ।
सिंहगढ़ पास आ गया। अँधेरे में से उसके बुर्ज के कंगूरों का आकार धीमा- मा चिन्ह पड़ता था। तभी कोई उनकी राह में आया, जिसने पूछा - "कौन ?”
इस 'कौन' का स्वर और लहजा एकदम सशंक कर देनेवाला था। फिर भी त्र्यम्बक दहाड़ा - "ऊँ, हर-हर ! "
उस व्यक्ति ने झट से चिल्ला दिया - " मारो काफिरों को" और दल-के-दल दुश्मन उस अँधेरे में फट पड़े।
युद्ध छिड़ा। मराठे मराठे थे, शिवाजी के साथी थे - यानी वीर थे, और साथ ही होशियार भी थे । फिर अँधेरे का संयोग मानों भाग्य ने ही सामने ला धरा था । तीखी मार भी वे देते रहे, और पीछे अपना रास्ता भी बनाते रहे ।
अपनी हानि और मराठों के पीछे हटने को देख दुश्मनों ने सन्तोष ही मान रखना ठीक समझा । वे तीनों निरापद तो हुए, किन्तु सिंहगढ़ तक पहुँचने का इरादा अब भी उनका पक्का ही रहा। सन्देह नहीं उन्हें जगह-जगह ऐसी-ऐसी ही मुठभेड़ करनी होगी-
किन्तु क्या इससे वह शिवा की आज्ञा से मुड़ें?
मतलब कि कभी इधर और कभी उधर, इस तरह चारों ओर से सिंहगढ़ पहुँचने का यत्न करते रहे। बीसियों हमले उन्हें सहने पड़े, और बहुत आहत हो गये। इधर रात भी बीत चली। किन्तु यत्न छोड़ें] तो मराठे कैसे ?
अन्त में थकान से चूर हो गये थे, लहू-लुहान हो गये थे, फिर भी सिंहगढ़ पहुँचने की तदवीर में लगे थे - यद्यपि बड़ी हताशा के साथ और जीवन - विसर्जन के पूर्ण विश्वास के साथ। तभी एक खेतिहर से पता मिला, शिवाजी सिंहगढ़ में नहीं हैं।
रात होते ही गढ़ पर अचानक धावा हुआ था, दस, साढ़े दस, ग्यारह बजे तक कई गुनी शत्रु-शक्ति के सामने शिवा गढ़ को सँभाले रहे और ठहरे रहे थे। बहुतेरा कहा गया कि वह यहाँ से चलें । किन्तु ग्यारह बजे से पहले उन्होंने वहाँ से टलना कभी स्वीकार न किया । भेदिये चारों ओर तैनात रहते थे। जब ग्यारह बजे का यह समाचार लाकर उन्होंने शिवा को दे दिया कि एक मील तक त्र्यम्बक नहीं है, तब उन्होंने गढ़ छोड़ने में फिर क्षण भर देर न की ।
त्र्यम्बक और उसके साथी इस सूचना पर अपने को प्रत्येक अनिष्ट और हर तरह के दण्ड के लिए तैयार करके लौट चले ।
2
जंगल में एक ऊँची-सी टेकड़ी पर शिविर पड़ा है, किन्तु शिवा उससे अलग बहुत दूर आत्म- त्रस्त, आत्म-ग्रस्त और आत्म-व्यस्त भाव से कुछ सोचता हुआ टहल-सा रहा है। शिविर के काम से निबट चुका है, सब ताकीदें दे चुका है, – इस तरह अवकाश निकालकर अब अपने से निबटने का काम वहाँ सिर झुकाकर टहलता- टहलता कर रहा है। सिद्धियों, सफलताओं, और विजयों से ठसाठस भरे हुए, अपने व्यस्त जीवन में से वह इसी तरह, कभी-कभी कुछ घड़ियाँ चुराकर आत्म-निमग्नता पाया करता है! इन बहुमूल्य निठल्ली घड़ियों में, जो बड़ी कठिनाई से मिल पाती हैं, और बहुत थोड़ी देर ठहर पाती हैं, मानो उसके जीवन की सच्ची अनुभूतियाँ, कसक उठने वाली स्मृतियाँ और प्रज्वलित कर देने वाली चिन्ताएँ, - मानो जीवन की समग्र चेतनता, अपने डोरे समेटकर आ इकट्ठी होती हैं । तब वह डोरे फैलते हैं, उलझते हैं, और - सुलझते हैं, किन्तु उतने सुलझते नहीं जितने उलझ जाते हैं। उन उलझनों में फँसकर शिवा बड़ी व्यथा पाता है । सुलझा तो सकता नहीं, क्योंकि सुलझाने का अवकाश उसके पास बहुत थोड़ा है, इसलिए उलझते रहने में ही वह थोड़ा आनन्द ले लेता है। यह व्यथा जो मजे से भरी है और यह मजा जो टीस- सा चुभता है। यहीं, इसी में पड़कर, शिवा को ज्ञात होता है जैसे जीवन के रस का थोड़ा स्वाद मिल रहा हो। नहीं तो उस खोखले, कृत्रिम, कर्तव्यबद्ध, राजापन, – प्रसिद्धि और प्रभुत्व के जगमगे जर्कवर्क आवरण पहने रूखे जीवन से उसे रह-रहकर उकताहट छूटती है।
उसे बहुत कुछ स्मरण हो आती है, वह माँ की गोद, जो अब नहीं रह गयी है । उसके स्थान पर सिंहासन आ गया है। निर्जीव पत्थर का यह सिंहासन सजीव प्यार के माँ के उस घोंसले की मानों अपने मद में खिल्ली उड़ाता है - कमबख्त सिंहासन से शिवा के प्राण मानो एकबारगी ही चिढ़ उठते हैं । यह सारी प्रसिद्धि, और वैभव मनुष्यता का व्यंग्य करते दीखते हैं।
उसे स्मरण हो आता है वह रक्त, जो उसने बहाया है । वे जानें, जो उसने ली हैं। उससे भी अधिक वे जानें, जो उसके लिए गयी हैं। जिन्हें उसने मारा है, और जो उसके लिए मर गये हैं, उनके बिलखते हुए कुटुम्बी और उन कुटुम्बियों के अविरल ढुरकते हुए आँसू, इन सबकी कल्पना, स्मृति और चित्र भीतर से उमड़ते हुए और उसके जी को मरोड़ते हुए उठते हैं । उसे ज्ञात होता है, मानो उस सबकी हत्याओं और उन दुखियों के दुःखों को कुचलते हुए खड़ा है उसका राजापन ।
और स्मरण हो आता है वह हृदय का वेग जो बच्चों को देखकर उमड़ा पड़ता है । वह बाला, जो उसे बचाते-बचाते मर गयी, इसलिए कि वह उसे अपना हृदय और सर्वस्व देना चाहती थी । उसने उस हृदयोत्सर्ग के अर्ध्य के अर्पण को स्वीकार किया और कुचल दिया। और वह, जब औरंगजेब के यहाँ गया था, जो अचानक दीख गयी थी — और मिल गयी थी, जिसका प्रणय, वंश और धर्म, सभ्यता और समाज के सब बन्धनों को लाँघकर उस तक पहुँचता है और इतना कि जिसके रस में वह डूब जाए ! वह निसर्ग-शुद्ध प्रणय-रस की धारा उसे याद आती है, जिसे वह छू नहीं सकता!
और सामने दीखते हैं पेड़, जो लताओं को चिपकाए झूम रहे हैं, हँस रहे हैं मानो कह रहे हैं - 'तुम बड़प्पन की भूख में रहो, इधर हम तुम पर हँसते हैं।' और फिर मानो अपना मुकुट झुकाकर, फुसलाकर, चुपके से आह्वान दे जाते हैं- 'व्यर्थता में न पड़ो, आओ, हमारे साथ जीवन में निर्द्वद्व खेलो। हरी घास, छोटे पौधे, उभरा हुआ पहाड़, भागते-खेलते बादल, और उनके पीछे धूप की मुसकान से मुस्काता नीलाकाश, फुदकती चिड़ियाँ और चहकते पक्षी - सब, मानों अपने जीवन की चुहल दिखाते हुए व्यंग्य कर रहे हैं - " यह है जीवन !”
शिवा इस रस को देख रहा है। देख-देखकर, क्योंकि इसे वह चख नहीं सकता, बड़ा झुंझला और कुढ़ रहा है। कैसा बेलाग - बेदाम-बिखरा पड़ा है यह रस !
उसकी फतहों की सूची उसे निकम्मी जान पड़ती है । सफलताओं की लम्बी तालिका उसके मन को बोध नहीं दे पाती ।
जब उसका मन हार जाता है, स्मृतियाँ दबा लेती हैं, और ऐसी चिन्ताएँ अभिभूत कर लेती हैं, तब उसके एकमात्र त्राण समर्थ गुरु रामदास याद पड़ते हैं। वह उनकी शरण गहेगा। उनसे इस यश, वैभव, राजत्व, लड़ाई और हिंसा के मार्ग से मुक्ति पाने की प्रार्थना करेगा। साधारण बन जाने और प्रेम करने की छुट्टी अब के वह भी गुरु से माँग लेगा। व्यस्तता से वह तंग आ गया है, कहेगा - "गुरु, बहुत हो गया, अब मुझे छुट्टी दो । अब मैं स्नेह में नहाऊँगा और जीवन में खेलूँगा।"
मन के इसी ज्वार को जरा शान्त करने के लिए वह टहलता - टहलता एक शिला पर बैठ गया। सन्ध्या चुपचाप सरकी आ रही थी। मानो अपनी अँधियारी साड़ी में से थोड़ी स्निग्धता और शान्ति भी बिखराती आ रही हो ।
शिवा की गोद में एक टीडी आ पड़ी। शिवा उसे देखता रहा गया। मानो वह अपनी धुन में है, शिवा की उसे खाक परवाह नहीं। मानो किसी नये खेल की टोह में जा रही है।
शिवा ने पकड़ने को हाथ बढ़ाया कि वह फुदककर भाग गयी ।
सामने से एक चिड़िया उड़ी - टि टि हु ई टी । और गाकर बैठ गयी दूसरी चिड़िया के पास। और वे दोनों चोंच मिलाकर अभिन्न प्रेम सम्भाषण करने लगीं।
ऊपर एक बादल का टुकड़ा भागा जा रहा था - एक और को पकड़ने । देखते- देखते वे दोनों मिले और आपस में गुँथ गये ।
शिवा ने कहा- " अच्छा भाई, मिलो, मिलो। मैं भी अब तुम्हारे समाज में आता हूँ।”
उस समाज में उसकी प्रवेश प्रार्थना पर कैसा स्वागत मिल रहा है, यह वह समझ पाए ही कि उसने सुना - "महाराज !"
मुड़कर देखा - एक युवक है। वह युवक उसके चरणों पर आ पड़ा। वह युवक है, नया है, फिर भी नया नहीं। कुछ है उसमें, जो जाना-सा मालूम पड़ता है।
फिर सुन पड़ा - "महाराज ! "
इस वातावरण में और इस नये प्रकार के उठे हुए विचार-क्षेत्र में शिवा अपना सरदारपन भूल बैठा था। अभी उसे अपने में उस बू को लाने की जल्दी भी न थी । कहा - " कहो भाई !"
युवक ने कहा। क्या कहा, सो शिवा न समझ सका । जो कहा गया था उसका आशय नहीं, उसका स्वर उसने सुना-वही उसने समझा और तब उसने गौर से युवक को देखा।
युवक के सारे गात में एक सिहरन लहरायी, आँखें झपी-सी और मामूली- सा सिन्दूरियापन दौड़ गया। शिवा से वह छिपा न रहा, और उसके भीतर एक गुदगुदी - सी मच उठी ।
" तुम्हें भाई नहीं कहना चाहता, बहन भी नहीं कहना चाहता। क्या कहूँ ? "— शिवा ने हँसकर, कँपकर पूछा ।
युवक, जो युवती था, शरमा गया।
जंगल सूना था, पर शिवा मजबूत था। फिर भी उसकी मजबूती पिछले विचार- प्रवाह से, मानो पिघल उठी थी। यह हो नहीं सकता था कि वह मजबूती रिसकर बह जाती, तो भी शिवा ने उस पर विश्वास रखना उचित न समझा।
पूछा - "हाँ, क्या चाहती थीं?"
"नौकरी । "
" छिः । नौकरी किया करते हैं कहीं ! "
" सेना में नौकरी चाहती हूँ।"
"मारने का काम करोगी? वह काम क्या तुम्हारे बस का है ? तुम्हें तो जीने और जिलाने का काम करना चाहिए। क्यों ?"
"हाँ!”
"सेना में क्यों जाना चाहती हो?"
" मारने नहीं ।"
"फिर ?"
“बचाते-बचाते मरना चाहती हूँ । आपको मारने वाले बहुत हैं । "
इतने साहस की बात कहने के पश्चात् मानों युवती का साहस चूक गया। शिवा का जी पसीज आया। इस उत्कण्ठित उत्सर्ग की आकांक्षा को देख वह धन्य हुआ । किन्तु वह क्या इसके तनिक भी योग्य है ? उसे बस यही अधिकार है कि वह इस उत्सर्ग को ले, और इसी पर क्या अपने शरीर की रक्षा प्राप्त करे। उसे अपनी स्थिति पर आन्तरिक खेद हुआ।
उसने कहा—‘“बाई, यह क्या कहती हो ? क्या जाने वह नौकरी ही न रहे, सेना ही न रहे। और फिर मेरा शत्रु बनने की भी किसी को आवश्यकता न रहे । जाओ बाई, ऐसा ध्यान न करो। मेरी शपथ, जो ऐसी बात तुमने मन में रखी। शिवा का जीना अभी बहुत भारी है। फिर तो उस जीवन को उठाना ही कठिन हो जाएगा।"
युवती शिवा के पैरों में पड़ गयी। शिवा ने उसे उठाया, कुछ कदम उसके साथ गया, और विदा किया। कहा- "मेरा मार्ग न बाँध दिया गया होता, तो क्या मैं जान- बूझकर धन्य होने से बचता ? बाई जाओ, शिवा बड़ा अपात्र व्यक्ति है ।"
वहीं उसी शिलाखण्ड पर बैठा था कि त्र्यम्बक अपने साथियों सहित उपस्थित हुआ ।
"महाराज !"
"अरे, त्र्यम्बक!"
"क्षमा करें, महाराज !"
त्र्यम्बक ने अपनी पूरी कहानी कही । शत्रुओं के साथ मुठभेड़ की और अपने घावों की बात बहुत संक्षेप में बतलायी। फिर कहा - " क्षमा करें महाराज!”
शिवा ने कहा—“त्र्यम्बक, मैं वही मार्ग पकड़ना चाहता हूँ, जहाँ क्षमा-ही- क्षमा है। जहाँ क्षमा माँगने की आवश्यकता ही मिट जाती है। वह छोड़ना चाहता हूँ, जहाँ दण्ड-ही-दण्ड है। मैं थक गया हूँ। यह नित्य की नयी लड़ाई, खोने को रोज नयी जानें, और लड़ने को नई जानें। नये-नये अपराध और नये दण्ड- मैं इन सबसे घबरा गया हूँ। मैं चाहता हूँ, ये कुछ भी न रहें । हम-तुम भाई बनकर रहें, जैसे कि हम भाई-भाई हैं। "
त्र्यम्बक घबड़ाया - "महाराज ! "
शिवा ने कहा - " त्र्यम्बक, शिविर में जाओ ! बहुत कुछ करना है। पर अच्छा है यह सब करना - कराना शेष हो जाए। औरंगजेब की सेना इधर बढ़ी आ रही है। उधर कुछ अपने लोग भी चारों ओर से हमें घेरने के प्रयत्न में हैं। इन सबको झुकाने और इन सबसे बचने को क्या करना होगा, सो सब मैं कर आया हूँ । दक्षिण की ओर एक टुकड़ी भी जाएगी। बीजापुर की स्थिति सुनकर कुछ करने की जरूरत होगी। वैसे भी, अपनी हालत और वहाँ की हालत को देखते हुए, तुरन्त कुछ कर बैठना ठीक नहीं। जहाँ से सहायता का वचन है, उसकी भी उचित प्रतीक्षा करनी ही चाहिए। इस तरह परसों तक हम यहीं हैं। तब तक कुछ भी आँच यहाँ तक पहुँच सकेगी- यह असम्भव है। इसलिए मैं आज श्री समर्थ गुरु के पास जाता हूँ । परसों प्रात: ही यहाँ पहुँच जाऊँगा। कोई मेरे साथ नहीं जाएगा। तुम लोगों को तैयार रहना चाहिए। यदि श्री गुरु ने मेरी प्रार्थना स्वीकार न की, तो परसों दस बजते-बजते सबको पाँच टुकड़ियों में बँटकर यहाँ से कूच कर देना होगा।"
फिर हृदयाकांक्षा से भीने स्वर में कहा - " त्र्यम्बक, मैं गुरु के पास छुट्टी माँगने जा रहा हूँ। जिससे इस झंझट से हम सब मुक्त हों और प्रकृति के सच्चे प्राणी होकर रहें । यदि इच्छा स्वीकृत हुई तो तुम्हें सूचना दूँगा, – कोष में जो कुछ है वह सब लोगों में बाँट देना और उन्हें विदा देना। मैं कुछ दिन गुरु के पास ही, और फिर किसी खेड़े में रहूँगा।"
त्र्यम्बक ने कहा- "महाराज !"
शिवा ने कहा - " जाओ, जैसा कहा वैसा करो ।"
त्र्यम्बक चला गया।
3
श्री समर्थ गुरु के पास चरणों में ।
" क्यों शिवबा, क्या है ?"
"गुरुवर, बड़े क्लेश में हूँ ।"
" क्लेश ? कैसा क्लेश ? क्या फिर उकताहट उठती है ? मैंने तुम्हें बताया, उकताहट का यह स्थान नहीं । कर्म अनिवार्य है, और मनुष्य नितान्त स्वतन्त्र नहीं है। कर्म की परिधि में घिरा है, बस परिधि के भीतर स्वतन्त्र है। परिधि से बाहर भागकर वह नहीं जा सकेगा। इसे वह अपना दुर्भाग्य समझे या सौभाग्य, जगत का तन्त्र ही ऐसा है।"
शिवा ने कहा - " भगवन! कर्म की अनिवार्यता तो मैं स्वीकार करता हूँ । किन्तु हँसना - खेलना भी तो कर्म है। प्यार करना भी तो कर्म है, जीवन के विनोद में बह चलना भी तो कर्म ही है । पानी बहता है और खेलता है; चिड़िया उड़ती हैं और चहकती हैं; पेड़ फलते हैं और फूलते हैं, और झूमते हैं; सम्पूर्ण जगत ही मानो आनन्द के सक्रिय समारोह में तन्मय योग देता रहता है। फिर मेरे ही जिम्मे यह लड़ना-मारना क्यों है ? बहुत-सी जीवन की लहरों को बलात रोककर और अस्वीकार करके एक बनावटी कर्तव्य - शासन में बँधे रहना, जगत के और प्राणियों को छोड़कर, मेरे ही लिए क्यों आवश्यक है ? गुरुवर, मुझे इस निश्चल प्रकृति को देखकर ईर्ष्या होती है, और अपने बन्धनों पर बड़ी खीझ होती है ।"
स्वामी रामदास ने स्पष्ट देखा शिवबा की वितृष्णा सच्ची है, फिर भी मोह- जन्य है। जो सामने सरस दीख पड़ता है, उससे ललचाकर, अपने में यह विरागाभास उसने उत्पन्न किया है। वे बोले – “शिवबा, भूलते हो। जिसको जिस तरह देखते हो, वह वैसा ही नहीं है। जो हँसता दिखता है, क्या मालूम वह उसका रोना हो ! इसलिए दूसरों की हँसी पर मत लुभाओ। खुद हँसना सीखो, और वह तभी सीख पाओगे जब जो कुछ होगा उसी पर हँसोगे । दुःख पर वैसे ही हँस दोगे जैसे सुख पर। यह उकता उठना छोड़ दोगे। तुम, सम्भव है, मुझे मुक्त समझो। हाँ, मैं अपने को मुक्त समझता हूँ। पर तुम भी यदि मेरी ही तरह हो जाओ, कोपीन धार लो और संन्यासी बन जाओ, तो आत्मा का असन्तोष ही पाओगे। सबके मार्ग भिन्न-भिन्न हैं, यद्यपि सबका अन्त एक है। वह मार्ग किसी के लिए भी मखमल - बिछा नहीं है, वह तो दुर्धर्ष ही है । जो उस मार्ग पर चलना ही नहीं आरम्भ करते, उनकी बात छोड़ दो, वे तो सचमुच उच्छृंखल रहकर जो जी चाहा उसमें भूले रह सकते हैं। पर जो मार्ग पर चलने के अधिकारी हो गये, फिर उन्हें जी चाहे जो करने का अधिकार नहीं रहता है। उनका तो मार्ग खड्ग की धार की तरह एक- रेखा-रूप, निश्चित और संकरा बन जाता है। तुम्हारा मार्ग राजा का है, मेरा मार्ग साधु का है। हम दोनों की पूर्णता और आत्मोपलब्धि अपने-अपने मार्गों में है । राजा संसार का साधारण गृहस्थ नहीं है, वह बड़े दायित्वों से बँधा है। इसलिए उसके कर्तव्य - अकर्तव्य की परिभाषा गृहस्थ के पैमाने से नापकर नहीं बनेगी। उसे अधिकार नहीं, कि वह सहज प्राप्य अपनी आत्म-तुष्टि ढूँढ़े, अपने विलास का आयोजन करे, क्योंकि उसे बहुतों के सुखों और जीवनों की रक्षा का भार सौंपा जा चुका है। क्या अपने सुखों को दूसरों की सुविधा के लिए उत्सर्ग कर देने का यह अधिकार प्रत्येक को मिलता है ? इसके अधिकारी बिरले होते हैं। तो क्या तुम इस अधिकार से विमुख होगे ? तुम्हें कितना बड़ा उत्सर्ग करना पड़ रहा है, मैं जानता हूँ। जो चीज तुम्हें दुःख पहुँचाती है, हिंसा, वही करने पर तुम बाध्य हो । यश, प्रतिष्ठा जिससे तुम भागना चाहते हो, वे ही तुम्हें चिपटानी पड़ती हैं। यह महान उत्सर्ग है, मैं मानता हूँ । किन्तु मैं समझता हूँ, शिवबा, यह विराट उत्सर्ग का अवसर - जो तुम जैसे बिरलों को ही मिलता है- तुम खोओगे नहीं। "
शिवा की आत्मा को इन शब्दों से बोध तो हुआ, पर हृदय की व्यथा पूरी न मिट पायी । वह बोला-
“महाराज, मैं नहीं जानता, पर जी बेचैन रहता है। करता हूँ, पर अकुलाये मन से...।"
"ठहरो", गुरु ने कहा, "समझने में तुम्हें आयास और समय की आवश्यकता होगी। इस बीच मेरा आदेश समझकर ही मानो । आदेश में शंका न करो - पाप लगता है । जाओ - औरंगजेब की सेना बढ़ रही है। ब्राह्मणों का अपमान है, धर्म पर अत्याचार और गौओं की हत्या हो रही है। भारत की भारतीयता खोयी जा रही है। इसकी रक्षा करो!"
शिवा चरणों में पड़ा - " भगवन् !"
" जाओ, शिवबा ! कर्म करो। शंका न करो, आकांक्षा न करो। निःशंकित आस्था रखो, निःकांक्षित कर्म करो। "
शिवा पदधूलि लेकर चला गया।
4
टुकड़ियाँ बँट गयी हैं। शिविर उखड़ने को है । सब अपने-अपने काम पर कूच करने की तैयारी कर रहे हैं। वही 'परसों' आ गया है और वही शिवाजी - लड़ाई का उत्कट, उद्भट, चपला की तरह चपल शिवाजी - आ गया है।
तभी त्र्यम्बक का मुकदमा हाथ में लिया । त्र्यम्बक पेश हुआ ।
शिवा अब मानों कर्तव्य - ही - कर्तव्य है । हृदय, जो भावना का स्थान है, मानों शिवा ने उसे बिलकुल सुला डाला है। हाँ, मस्तिष्क, जो विचार और विवेचना का स्थान है, पूर्ण सजग है। बोला - " त्र्यम्बक, तुम्हारा अपराध अक्षम्य है। मेरे निकट क्षमा वैसे भी अक्षम्य है । तुम्हें सबसे बड़ा दण्ड जो मैं दै सकता हूँ, देता हूँ । तुम घर जाओ, रहो, तुमसे और सेवा मैं नहीं ले सकूँगा।"
सचमुच दण्ड त्र्यम्बक के लिए इससे बड़ा न हो सकता था । वह सब कुछ कर सकेगा, पर शिवा को छोड़ना ! - यह कैसे होगा ? मौत मंजूर होती, पर यह तो उस स्वामिभक्त के लिए बिलकुल असह्य ही है ।
उसने बहुत विनती की। पर शिवा की बात शिवा की बात है, झुकेगी नहीं।
वह, - वही युवक भी हाजिर हुआ। शिवा की आँखों में सरसता की झाई भी नहीं है। केवल एक वस्तु है, प्रभुत्व ।
"नौकरी चाहते हो ?"
" जी !"
"अच्छा।"
फौजदार को इस नये सिपाही को बाकायदा शपथपूर्वक भर्ती कर लेने का हुक्म हुआ ।
लड़ाई हुई। धावा अचानक का था। शिवा का बचना असम्भव था । पर भाग्य कहिए, बच गया। भाग्य को श्रेय देते हुए शर्म आती है। किन्तु एक छोटे से अनजाने सिपाही को श्रेय देने का कायदा इतिहास का नहीं है। कोई उत्सुक पूछे ही, तो इतना बता सकते हैं कि एक तलवार का भरपूर हाथ जो ठीक शिवाजी की गर्दन पर पड़ता, निश्चय पड़ता, और पड़ता तो कभी अकारथ न जाता, एक नये युवक सिपाही की पीठ पर पड़ा ! वह सिपाही फिर ज्यादा देर तक जीता न रहा और उसके साथी भी भली प्रकार उसके गाँव-पते का पूरा पता न चला सके। क्योंकि शिवा ने तुरन्त लाश अपने खास शिविर में मँगा ली थी, और फिर कोई बाहरी आँखें उस पर न पड़ सकी थीं ।
शिवा ने उस लाश का क्या किया? उसे आँसुओं से तो भिगोया ही, फिर क्या किया, नहीं कहा जा सकता ।