नील दर्पण (नाटक) : दीनबन्धु मित्र
Nila Darpana (Bangla Play in Hindi) : Dinabandhu Mitra
प्रख्यात बांग्ला नाटक दीनबन्धु मित्र रचित ‘नील दर्पण’
यद्यपि एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण नाट्यकृति है, जो अपने समय का एक सशक्त
दस्तावेज भी है। 1860 में जब यह प्रकाशित हुआ था। तब बंगाली समाज और शासक
दोनों में तीव्र प्रतिक्रिया हुई थी। एक ओर बंगाली समाज ने इसका स्वागत
किया तो दूसरी ओर अंग्रेज शासक इससे तिलमिला उठे। चर्चा मिशनरी सोसायटी
पादरी रेवरेण्ड जेम्स लॉग ने नील दर्पण का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया
तो अँग्रेज सरकार ने उन्हें एक माह की जेल की सजा सुनायी।
बांग्ला में ‘नील दर्पण’ का प्रकाशन पहले सार्वजनिक
टिकट-बिक्री से मंच पर 1872 में हुआ तो जहाँ एक ओर दर्शकों की भीड़ उमड़
पड़ी वहीं दूसरी ओर अंग्रेजी अखबारों ने उसकी तीखी आलोचना की। ऐसे नाटकों
में विद्रोही भावना के दमन हेतु अंग्रेजी सरकार ने 1876 में
‘ड्रेमेटिक परफॉर्मेन्सेज कन्ट्रोल एक्ट’ जारी किया।
अंग्रेज सरकार द्वारा रेवरेण्ड जेम्स पर चलाया गया मुकदमा ऐतिहासिक और
रोमांचक है। नेमिचन्द्र जैन के नील दर्पण के रूपान्तर के साथ ही उस मुकदमे
का पूरा विवरण पाठकों को दमन और विद्रोह का दस्तावेजी परिचय देगा।
भारतीय ज्ञान पीठ द्वारा प्रकाशित यह ऐतिहासिक कृति और दस्तावेज पाठकों को
समर्पित है।
नील दर्पण
बांग्ला नाटकार दीनबन्धु मित्र का 1860 में प्रकाशित नाटक ‘नील
दर्पण’ एक सशक्त नाट्य कृति ही नहीं, एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक
दस्तावेज भी है। इस नाटक में बंगाल में नील की खेती करने वाले अँग्रेजों
द्वारा शोषण, भारतीय किसानों के ऊपर अमानुषिक अत्याचारों की बड़ी भावपूर्ण
अभिव्यक्ति हुई है।
नाटक की बंगाली समाज और अँग्रेज शासक दोनों में अपने-अपने ढंग से तीव्र
प्रतिक्रिया हुई। यही नहीं, इस नाटक को पढ़कर उस जमाने की चर्च मिशनरी
सोसाइटी के पादरी रेवरेंड जेम्स लौंग बहुत द्रवित हुए है और उन्होंने
नीलकरों द्वारा शोषण के प्रतिवादस्वरूप नाटक का अनुवाद अँग्रेजी में
प्रकाशित किया तो उन पर अँग्रेजी सरकार द्वारा मुकदमा चलाया गया और उन्हें
एक महीने की जेल की सजा मिली।
बांग्ला के पहले सार्वजनिक, टिकट बिक्री से चलने वाले मंच पर यह नाटक जब
1872 में खेला गया तो एक ओर दर्शकों की भीड़ उमड़ पड़ी और दूसरी ओर
अँग्रेजी अखबारों में इस पर बड़ी तीखी टिप्पणी हुई। 1876 में अँग्रेज
सरकार द्वारा ड्रैमेटिक परफार्मेन्सेज नील दर्पण जैसे नाटकों की विद्रोही
भावना का दमन भी एक उद्देश्य था।
यहाँ इस नाटक के अनुवाद के साथ रेवरेंड जेम्स लौंग पर चलाए गये मुकदमे का
पूरा विवरण भी प्रकाशित है जिससे इसके ऐतिहसिक महत्त्व के अलावा तत्कालीन
अँग्रेजी शासन में न्याय के पाखंड और पक्षपातपूर्ण व्यवहार पर भी प्रकाश
पड़ता है।
पात्र
पुरुष
गोलोकचन्द्र बसु
नवीन माधव बसु
बिन्दुमाधव बसु : गोलोकचन्द्र बसु के पुत्र
साधुचरण : पड़ोसी किसान
रायचरण : साधुचरण का भाई
गोपीनाथ दास : दीवान
आई.आई.वुड : नीलकर
पी.पी रोज़ : नीलकर
अमीन, खलासी, मजिस्ट्रेट, मुख्तार, डिप्टी इन्सपेक्टर, पंडित, जेलर,
डॉक्टर, उम्मीदवार, ग्वाला, वैद्य, चार बच्चे, लठैत, चरवाहा
आदि।
स्त्री
सावित्री : गोलोकचन्द्र बसु की स्त्री
सैरिन्ध्री : नवीनमाधव की स्त्री
सरलता : बिन्दुमाधव की स्त्री
रेवती : साधुचरण की स्त्री
क्षेत्रमणि : साधुचरण की पुत्री
आदुरी : गोलोकचन्द्र के घर की नौकरानी
पदी : मिसरानी
प्रथम अंक
प्रथम गर्भांक
(स्वरपुर-गोलोकचन्द्र बसु के भंडारघर का
बरामदा। गोलोकचन्द्र बसु और
साधुचरण बैठे हैं।)
साधुचरण : मैंने तभी कहा था, मालिक अब यह देस छोड़िए, पर आपने सुना ही नहीं। गरीब की बात पर कौन कान देता है।
गोलोकचन्द्रः भैया, देश छोड़कर जाना क्या ऐसा ही आसान है ? हम लोग यहाँ
सात पीढ़ियों से रहते हैं। बड़े-बूढे़ जो ज़मीन-जायदाद बना गये, उसकी वजह
से कभी दूसरे की नौकरी नहीं करनी पड़ी जितना धान होता है उसमें बरस भर का
खाना-पानी चल जाता है, मेहमानदारी चल जाती है, और पूजा का खर्च निकल आता
है। जो सरसों मिलती है उससे तेल की ज़रूरत पूरी होने के बाद साठ-सत्तर
रुपये की बिक्री भी हो जा जाती है। समझते हो भैया, मेरे सोने के स्वरपुर
में किसी बात का दुख नहीं। खेत में चावल, खेत की दाल, खेत का तेल, खेत का
गुड़, बगीचे की तरकारी और तालाब की मछलियाँ। ऐसी सुख की जगह छोड़ते किसकी छाती नहीं फटेगी ? और कौन आसानी से छोड़ सकता है ?
साधुचरण : अब तो सुख की जगह नहीं रही। आपका बगीचा तो गया ही, ज़मीन-जायदाद
भी जाऊँ-जाऊँ हो रही है ! अरे ! तीन बरस भी तो नहीं हुए साहब को ठेका
लिये, इसी बीच गाँव बरबाद कर डाला। दक्खिन पाड़े के मुखिया के घर की तरफ
देखा तक नहीं जाता। हाय ! क्या था, क्या हो गया ! तीन बरस पहले दोनों बखत
साठ पत्त्तलें पड़ती थीं। दस हल थे, बैल भी चालीस-पचास तो होंगे ही। क्या
आँगन था, जैसे कोई घुड़दौड़ का मैदान हो ! हाय हाय ! जब दाँय के लिए धान
के ढेर लगाये जाते तो लगता मानो चन्दन वन में कमल खिले हों। गाय थी, जैसे
कोई पहाड़ हो। गये बरस गोशाला की मरम्मत न होने से आँगन में पड़ी
रहती है। धान की ज़मीन में नील नहीं बोया जाता, इसलिए दोनों छोटे भाइयों
की साहब साले ने एक साल कैसी पिटाई की थी। उन्हें छुड़ाकर लाने में कितनी
परेशानी हुई, हल-बैल बिक गये । उसी धक्के से दोनों गाँव छोड़कर चले गये।
गोलोकचन्द्रः बड़े मुखिया दोनों को लाने गये थे न ?
साधुचरणः उन लोगों ने कहा, झोली लेकर भीख माँग खाएँगें, पर उस गाँव में
नहीं बसेंगे। बड़े मुखिया अब अकेले पड़ गये हैं। हाँ, दो हल रखे हैं, जो
अक्सर ही नील की जमीन में लगे रहते हैं। ये भी भागने की फिकर में हैं।
मालिक आप भी देस की माया छोड़िए। पिछली बार आपका धान गया, इस बार इज्जत
जाएगी।
गोलोकचन्द्रः इज्जत जाने में और बाकी ही क्या है ? तालाब के चारों तरफ
ज़मीन जुत गई है। उसमें इस बार नील बोया जाएगा। फिर घर की औरतों का तालाब जाना बन्द। और साहब बेटा कहता है, अगर पूरब की कुछ धान वाली
ज़मीन में नील नहीं बोया तो नवीनमाधव की अकल दुरुस्त करूँगा।
साधुचरण : बड़े बाबू कोठी गये हैं न ?
गोलोकचन्द्रः कोई अपनी मर्ज़ी से गये हैं ? प्यादा ले गया है।
साधुचरणः पर बड़े बाबू में है बड़ी हिम्मत। उस दिन साहब ने कहा, अगर तुमने
ज़मीन-खलासी की बात न सुनी, और निशानवाली ज़मीन में नील न बोया, तो
तुम्हारा घर-बार उठाकर बेत्रवती के पानी में फेंक दूँगा और तुम्हें कोठी
के गोदाम में धान खिलाऊँगा। इस पर बड़े बाबू ने कहा, पिछले साल के पचास
बीघे नील के दाम मिले बिना एक बीघा भी नील नहीं बोऊँगा। इसमें चाहे जान
चली जाए, घर-द्वार की तो बात ही क्या है।
गोलोकचन्द्रः नहीं कहें तो क्या करें ? जरा देखो, पचास बीघा धान होता तो
मेरी गृहस्थी में कोई कमी रहती ? फिर अगर नील के दाम ही चुका दें तो भी
बहुत-कुछ तकलीफ़ मिट जाए। (नवीनमाधव का प्रवेश) कहो बेटे, क्या कर आये ?
नवीनमाधवः जी, माता के दु:ख की कहानी सुनाने से क्या काला साँप गोद के
बच्चे को डसना छोड़ देता है ? मैंने बहुत-कुछ कहा-सुना, पर उसकी कुछ समझ
में न आया। साहब को एक ही रट है। कहता है, पचास रुपये लेकर साठ बीघे नील
की लिखा-पढ़ी कर दो। बाद में दो बरस का हिसाब एक साथ चुका दिया जाएगा।
गोलोकचन्द्रः साठ बीघे नील करने पर दूसरी खेती में हाथ भी न लगा
सकोगे। भूखों मरना पड़ेगा।
नवीनमाधवः मैंने कहा, साहब, हम लोगों के नौकर-चाकर, हल-बैल, सब आप नील की
जमीन में लगा लीजिए। बस हमें बरस भर रोटी खिला दीजिएगा। हम वेतन नहीं
चाहते। इस पर हँसी उड़ाता हुआ बोला, तुम लोग तो म्लेच्छ का भात नहीं खाते।
साधुरचणः जो लोग पेट के लिए नौकरी करते हैं, वे भी हमसे ज्यादा सुखी हैं।
गोलोकचन्द्रः हल चलाना करीब-करीब छोड़ दिया है, फिर भी तो नील से पीछा
नहीं छूटता। जिद करने से क्या फायदा ? साहब के साथ बहस नहीं चलती। बाँधकर
मार लगाता है। इसीलिए मारने के सिवाय कोई चारा नहीं।
नवीनमाधवः आप जैसा कहेंगे, वैसा ही करूँगा। पर मेरा मन है एक बार मुकदमा
करने का।
(आदुरी का प्रवेश।)
आदुरीः माँजी बिगड़ रई एँ, कित्ती अबेर हो गयी। आप लोग न्हाएँगे-धोएँगे
नईं ? भात सूख के काठ हो गया।
साधुचरणः (खड़े होकर) मालिक, इसका कुछ-न-कुछ परबन्ध कीजिए, नहीं तो हम लोग
मारे जाएँगे। डेढ़ हल से नौ बीघे नील करना पड़ा तो खोपड़ी सिक जाएगी। मैं
चलूँ मालिक हुकुम दीजिए। बड़े बाबू, नमस्कार।
(साधुचरण का प्रस्थान)
गोलोकचन्द्रः भगवान इस जगह रहने खाने देंगे, ऐसा नहीं लगता। जाओ बेटा,
जाओ, नहा लो।
(सबका प्रस्थान)
द्वितीय गर्भांक
(साधुचरण का मकान। हल लिये रायचरण का प्रवेश।)
रायचरणः (हल रखकर) अमीन साला बिल्कुल बाघ है, कैसा मेरे ऊपर
झपटा।
बाप रे बाप ! लगा, मुझे खा जाएगा। साला किसी तरह नहीं माना। जबरदस्ती
निसान लगा दिया। साँपोलतला की पाँचों बीघे जमीन नील में चली गयी तो
बाल-बच्चे क्या खाएँग। रो-झींककर देखता हूँ। फिर भी न छोड़ी तो कल ही यह
गाँव छोड़ जाएँगे। (क्षेत्रमणि का प्रवेश।) भैया घर आ गये ?
क्षेत्रमणिः बापू जमींदार के घर गये हैं। आते ही होंगे। चाची को देखते
नहीं जाओगे ? तुम बड़बड़ा क्या रहे हो ?
रायचरणः बड़बड़ा रहा हूँ अपना सिर। जरा पानी तो ले आ। प्यास से गला सूख
गया। साले से इतना कहा, पर एक नहीं सुनी।
(साधुचरण का प्रवेश। क्षेत्रमणि का प्रस्थान।)
साधुचरणः रायचरण, इतने सबेरे कैसे ?
रायचरणः भैया, साले अमीन ने साँपोलतला की जमीन पर निशान मार दिया है।
खाऊँगा क्या ? बरस भर कैसे कटेगा ? अरे, धरती क्या है, सोनचम्पा है। एक
कोना काटकर महाजन को किनारे करता था। अब मैं क्या
खाऊँगा,
बाल-बच्चे क्या खाएँगे ? इतनी बड़ी गिरस्ती भूखों मरेगी। बाप रे बाप,
सबेरा होते ही दो सेर चावल का खरच है। सब भूखों मरेंगे। हाय रे फूटी तकदीर
! फूटी तकदीर ! नील से कैसे काम चलेगा ! हाय ! हाय !
साधुचरणः इस थोड़ी-सी जमीन का ही तो आसरा है। वह भी गयी तो फिर यहाँ रहकर
क्या करेंगे ? और जो दो-एक बीघे है उसमें तो फसल ही नहीं। फिर हल नील की
जमीन में रहेगा तो जुताई कब करूँगा ? तू रो मत ! कल हल-बैल बेच, इस गाँव
के मुँह पर झाड़ू मार बसन्त बाबू की जमींदारी से भाग चलेंगे।
(क्षेत्रमणि और रेवती का पानी लेकर प्रवेश।)
ले पानी पी, पानी पी। डर क्या है ? जिसने पैदा किया है वही अन्न भी देगा।
तू अमीन से क्या कह आया ?
रायचरणः क्या कहता ? ज़मीन में निसान मारने लगा तो जैसे मेरी छाती पे चिता
सुलगाता हो। मैंने पैर पकड़े, रुपया देना चाहा, पर उसने एक न सुनी। बोला
जा अपने बड़े बाबू के पास जा, अपने बाप के पास जा, फौजदारी करूँगा, यह कह
आया हूँ। (दूर से अमीन को आता देखकर) वह देखो, साला फिर आ रहा है, सिपाही
लेकर। पकड़कर कोठी ले जाएगा।
(अमीन और सिपाहियों का प्रवेश)
अमीनः बाँध लो, साले रइए बाँध लो।
(दोनों सिपाही रायचरण को पकड़कर बाँधते हैं।)
रेवतीः हाय मैया, यह क्या ! अरे, बाँधे क्यों हो ? हाय हाय ! (साधु से)
तुम खड़े-खड़े क्या देख रहे हो ? जमींदार के घर जाओं जमींदार को बुला के
लाओ।
अमीनः (साधु से) तू कहाँ जाएगा, तुझे भी चलना होगा। ब्याना लेना रअए के
बूते का नहीं। अँगूठा निशानी में बड़ा झमेला है तू तो पढा-लिखा है, तुझे
रजिस्टर में दस्तखत करने होंगे।
साधुचरणः अमीन जी, इसे नील का ब्याना कहते हो ? यह तो जोर जबरदस्ती है !
हाय री फूटी तकदीर, तुझसे छुटकारा नहीं ! जिसके डर से भागा था उसी में फिर
जा फँसा। पट्टे से पहले यहाँ तो रामराज था। पर बैरागी बना, देस में अकाल
पड़ा।
अमीनः (क्षेत्रमणि को देखकर स्वागत) यह छोकरी तो बुरी नहीं। छोटे साहब तो
ऐसा माल देखते ही लपक लेंगे। अपनी बहिन देकर बड़ी पेशकारी मिली, इसे देकर
तो....अच्छा माल है। देखते हैं।
रेवती छेत्तर बेटी तू भीतर जा।
(क्षेत्रमणि का प्रस्थान।)
अमीनः चल रे साधु, इस वक्त चुपचाप कोठी चला चल।
(जाने लगता है।)
रेवतीः इन्ने पानी माँगा था। अजी अमीन साहब तुम्हारे क्या बाल-बच्चे नहीं
? बस हल ला के रखा ही था। कि जे मारपीट। हाय मैया ! ज्वान लड़का, अब तक दो
बार खायै-पीयै। बिना खाये साहब कोठी जाएगा कैसे ? वह तो बड़ी दूर है।
दुहाई साहब की, दो कौर खा ले, फिर ले जाना। हाय हाय, बाल-बच्चों के लिए
दुखी हैं, अभी तक आँखों से आँसू टपके हैं, मुँह सूख गया....क्या करें,
कैसे जले देस में आये, जान-माल सब गया। हाय हाय हाय, जान-माल सब गया !
(रोती है।)
अमीनः अरी, अपना मिनमिनाना बन्द कर, पानी देना है तो दे, नहीं तो ऐसे ही
लिए जाता हूँ।
(रायचरण पानी पीता है और फिर सब जाते हैं।)
तृतीय गर्भांक
(बेगुनबाड़ी की कोठी, बड़े बँगले का बरामदा। आई.आई.वुड साहब और दीवान
गोपीनाथ दास का प्रवेश।)
गोपीनाथः हुजूर मेरा क्या कसूर, आप देखते ही हैं, बहुत सबेरे से भटकना
शुरू करके तीसरे पहर घर लौटता हूँ, और खाने-पीने के बाद ही फिर ब्याने के
कागज-पत्तर लेकर बैठ जैता हूँ। उसमें कभी आधी रात होती है, कभी एक बजता
है।
वुडः तोम साला बड़ा नालायक है। स्वरपुर, शामनगर, शान्तिघाटा इन तीन गाँवों
में कोई बेयाना नेहीं हुआ। हंटर के बिना तोम दोरुस्त होगा नहीं।
गोपीनाथः धर्मावतार ! मैं तो हजूर का चाकर हूँ। आपने ही मेहरबानी करके
पेशकार से दीवान बनाया है। हुजूर मालिक हैं। चाहे मारिए चाहे काटिए। इस
कोठी के कुछ बड़े कट्टर दुश्मन हो गये हैं, उनको दबाये बिना नील की तरक्की
मुश्किल है।
वुडः जानेगा नेहीं तो दबाएगा कैसे ? हमरा रुपया, घोड़ा, लठैत, बल्लमदार,
इतना है, इनसे दबेगा नेहीं ? पुराना दीवान दुश्मन का बात हमको बताता था-
तोमने नेहीं देखा, बदमाशों को कैसा कोड़ा लगाया, गाय-बैल छीन लिया, जोरू
पकड़ लिया,...जोरू पकड़ने से साला लोग बड़ा घबराता है। बदमाशी का कोई बात
हाम नेहीं सुना....तोम हरामजा़दा हामको कुछ नेहीं बताया.....तोम साला बड़ा
नालायक है। दीवानी का काम कायत का नेहीं...तोमको जूता मारकर निकाल देगा और
हाम किसी केवट को यह काम देगा।
गोपीनाथः धर्मावतार ! बन्दा जात का ज़रूर कायस्थ है, पर काम में केवट है,
केवट जैसा ही काम कर रहा है। मुल्लाओं से धान छुड़ाकर नील की खेती कराने
में, गोलोक बोस के खानदानी बगीचे और राजा के ज़माने की जमा-पूँजी निकलवा
लेने में, मैंने जैसे-जैसे काम किये हैं, उन्हें केवट तो क्या चमार भी
नहीं कर सकता। मेरी तो तकदीर ही खराब है। इसलिए इतना करके भी जस नहीं।
वुड : साला नवीनमाधव सब रुपया चुकती चाहता हाय, ओसको हाम एक कौड़ी नेहीं
देगा। ओसाका हेसाब दोरुस्त करके रक्खो। भेंचो, बड़ा मुकदमाबाज़। हाम
देखेगा साला किस तरह रुपया लेता हाय।
गोपीनाथः धर्मावतार ! वह एक आदमी, कोठी का ख़ास दुश्मन है। पलाशपुर का जलाना कभी साबित न होता, नवीन बोस उसमें टाँग न अड़ाता तो बेटा खुद ही दरखास्त का मसौदा बना लेता है। उसने वकील-मुख्तारों को ऐसा सलाह-मशविरा दिया कि उसके बल पर ही हाकिम की राय बदल गयी। इसी साले की चालाकी से पुराने दीवान को दो साल की सजा हुई मैंने मना किया था, नवीन बाबू, साहब के खिलाफ कुछ मत करो। साहब ने तुम्हारा तो घर नहीं जलाया। उस पर शैतान कहने लगा, ग़रीब रैयत को बचाने का ज़िम्मा लिया है। ज़ालिम नीलकरों के अत्याचार से अगर एक किसान को भी बचा सका तो अपने को धन्य समझूँगा। और दीवान जी को जेल भिजवाकर अपने बगीचे का बदला लूँगा। बेटा जैसे पादरी हो। साला इस बार क्या साजिश कर रहा है कुछ समझ में नहीं आता।
वुडः तोम डर गया हाय, हाम बोला नेहीं कि तोम बड़ा नालायक, तोमसे काम नेहीं
होगा।
गोपीनाथः हुजूर डरने जैसी बात आपने क्या देखी ? जब उइ पदवी पर पैर रक्खा
तो डर, शरम, लज्जा, मान-मर्यादा सबको घोलकर पी लिया। गोहत्या,
ब्रह्म-हत्या, स्त्री-हत्या, आगजनी तो अब बदन के गहने हो गये हैं और
जेलखाने में तो एक पैर ही डाल रखा है।
वुडः हाम बात नेहीं चाहता, काम चाहता हाय।
(साधुचरण, रायचरण, अमीन और दो सिपाहियों का सलाम करते-करते प्रवेश।)
वुडः इन बज्जातों का हाथ में रस्सी क्यों हाय ?
गोपीनाथः धर्मावतार, यह साधुचरण एक इज्जतदार किसान है, पर नवीन बोस के
कहने से नील की बर्बादी में लग गया है।
साधुचरणः धर्मावतार, नील के खिलाफ कोई काम न मैंने किया, न करता हूँ और न
करने की ताकत है। मर्जी से, बेमर्जी से नील ही बोया है, इस बार भी बोने को
तैयार हूँ। पर हर बात की हद होती है, आधे अँगुल की नली में आँठ अँगुल
बारूद भरने से फटेगी ही। मैं बहुत ही मामूली किसान हूँ, डेढ़ हल मेरे पास
है, कुल आबाद जमीन बीस बीघे है, जिसमें से नौ नील में चली जाए तो दिल
दुखता ही है। पर दिल दुखने से मैं ही मरूँगा, हुजूर क्या है।
गोपीनाथः साहब को डर है कहीं तुम उन्हें बड़े बाबू के गोदाम में क़ैद न
करवा दो।
साधुचरणः दीवान जी साहब, मरे को क्या मारते हैं ? मैं एक कीड़े से भी
गया-बीता साहब को क्या क़ैद करूँगा, प्रबल प्रतापशाली...
गोपीनाथ : साधु, अपनी लच्छेदार बातें बन्द कर । किसान के मुँह से अच्छी नहीं लगतीं, जैसे कोई झाडू मारता हो....
वुड : भैंचो, बड़ा पंडत हो गया हाय!
अमीन : यह शैतान किसानों को कानून कायदे समझाकर आसमान सिर पर उठाये है। भाई तो हल खींचता है और आप बोलते हैं, 'प्रतापशाली'....
गोपीनाथ : मेढकी को जुकाम! धर्मावतार, देहातों में स्कूल बनने से किसानों में सरकसी बढ़ गयी है।
वुड: गवर्नमेंट में इस बारे में दरखास्त का वास्ते हाम लोगों का सभा को लिखना होगा। स्कूल बन्द कराने का कोशिश करेगा।
अमीन : बदमाश मुकदमा चलाना चाहता है।
वुड : (साधुचरण से ) तोम साला बड़ा बज्जात हाय । तोमरा बीस बीघा ज़मीन में से नौ में नील बोने को बोला तो तोम बाकी में धान क्यों नहीं करता ?
गोपीनाथ : हुजूर, कुल जितना नुकसान हुआ है, उसे देखते नौ क्यों बीसों बीघे का पट्टा कर लीजिए न ?
साधुचरण : (स्वगत) हे भगवान! चोर का भाई गठकटा! (जोर से) हुजूर, जिस नौ बीघे पर नील के लिए निशान लगाया गया है उसमें अगर कोठी के हल-बैल और आदमी से खेती करा ली जाए तो मैं बाकी में नये सिरे से धान कर सकता हूँ । धान की जमीन में जितनी मेहनत चाहिए उससे चार गुनी नील में लगती है। इसलिए नौ बीघे में नील करने से बाकी ग्यारह बीघे भी पड़े ही रहेंगे, नयी जमीन आबाद करने की तो बात ही क्या।
वुड : साला बड़ा हरामजादा बेमाने का रुपया लेगा तू, खेती कराएगा हाम! साला बज्जात कहीं का! ( जूता मारता है।) हंटर का साथ मुलाकात होने से सब हरामीपना छूट जाएगा। ( दीवार से चाबुक उतारता है।)
साधुचरण : हुजूर, मक्खी मारकर हाथ काला करने के बराबर है, हम लोग...
रायचरण: (क्रोध से) ए भैया, तुम चुप रहो, जो चाहता है करने दो। भूख के मारे दम निकला जा रहा है। दिन भर हो गया, न माया मिली न राम !
अमीन : क्यों बे साले, फौजदारी नहीं की? (कान मलता है।) रायचरण : (हाँफते हुए) मर गया, हाय मैया ! मर गया ! वुड. : ब्लडी निगर, मारो भैंचो को !
( चाबुक मारता है।)
( नवीनमाधव का प्रवेश ।)
रायचरण : बड़े बाबू, मर गया मैं तो! कोई पानी दो! मार डाला रे!
नवीनमाधव : धर्मावतार, इन लोगों का अभी नहाना खाना कुछ नहीं हुआ। इनके घरवालों ने अभी सबेरे से पानी तक नहीं पिया। हंटर की मार से किसानों को खत्म कर डालेंगे तो फिर आपके नील की खेती कौन करेगा? इस साधुचरण ने पिछले बरस कितनी मुसीबत से चार बीघे नील किया था। अगर ऐसी मारपीट से और ज्यादा ब्याना थोपने से यह फरार हो गया तो आप ही का नुकसान होगा। इन लोगों को आज छोड़ दीजिए। कल सबेरे मैं सबको लाकर जो आप कहेंगे वही करवा जाऊँगा ।
वुड : तोम अपना चरखा में तेल दो। दूसरा का मामला में टांग अड़ाने का क्या ज़रूरत? साधू घोष, तेरा क्या कहना है, बोल ? हमरा खाने का वक्त हो गया।
साधुचरण : हुजूर, मेरे कहने से क्या होता है? आप खुद जाकर अच्छे- से-अच्छे चार बीघों पर निशान लगा आये हैं। जो थोड़ी-बहुत अच्छी जमीन बाकी थी उस पर आज अमीन साहब ने निशान लगा दिया। जैसे मेरी बेमाली जमीन तै हो गयी, वैसे ही नील भी हो जाएगा। मैं मंजूर करता हूँ बिना ब्याने नील लगाऊँगा ।
वुड : हमरा बेयाना साब झूठा है! हरामजादा, बज्जत, बेईमान ! ( चाबुक से मारता है।)
नवीनमाधव : (साधुचरण की पीठ को हाथ से ढँकते हुए) हुजूर, बेचारे गरीब आदमी को मार ही डाला हाय, हाय! उसके घर में बहुत-से खानेवाले हैं। इस मार से महीने भर बिस्तर से न उठ सकेगा। ओफ ! उसकी घरवाली कितनी दुखी होगी, साहब! आपकी भी घरवाली है। खाने के वक्त आपको कोई ऐसे पकड़कर ले जाए तो मेमसाहब को कितना बुरा लगेगा !
वुड : चोप रहो ! साला, भँचो, पाजी, गायखोर । यह अमरनगर का मजिस्ट्रेट नेहीं कि बात-बात में शिकायत करेगा और कोठी के लोगों को पकड़कर जेल भेज देगा । तोमारा इन्द्राबाद का मजिस्ट्रेट मर गया। रैस्कल आज ही साठ बीघा जमीन का बेयाना लिख देगा तभी तेरा छुटकारा है। नेहीं तो यह हंटर तेरा सिर पर टूटेगा ! बदमाश! तेरा वजह से दस गाँव का बेयाना बन्द है।
नवीनमाधव : (लम्बी साँस लेकर) हे धरती माँ! तू फट जा, मैं उसमें समा जाऊँ! ऐसा अपमान मेरे जीवन में कभी नहीं हुआ... हे भगवान !
गोपीनाथ : नवीन बाबू, बात बढ़ाने से क्या फायदा? आप घर जाइए!
नवीनमाधव : साधू, भगवान को पुकार, वही गरीब का रखवाला है।
( नवीनमाधव का प्रस्थान ।)
वुड : गोलाम का गोलाम! दीवान, दफ्तर में ले जाओ और दस्तूर माफिक बेयाना दे दो।
(वुड का प्रस्थान ।)
गोपीनाथ : चल साधू, दफ्तर चल! साहब बातों में नहीं भूलते। तुम्हारे चावल पर तो राख पड़ गयी। नील के यम का तुम पर आक्रमण हुआ। अब तुम नहीं बच सकते।
( सबका प्रस्थान ।)
चतुर्थ गर्भाक
[ गोलोक बसु का दालान । सैरिन्ध्री चोटी गूँथती हुई दिखाई पड़ती है । ]
सैरिन्ध्री : मेरे हाथों ऐसी चोटी एक भी नहीं हुई। छोटी बहू बड़ी
भागवान है। उसके नाम से जो भी करूँ अच्छा होवै है । जैसे घने बाल, वैसी ही चोटी भी हुई। अहा ! बाल क्या, काली माता के केश हैं। चेहरा भी तो कमल का फूल है, सदा खिला ही रहै है । लोग कहे हैं जेठानी देवरानी को देख नहीं सकै। पर मुझे तो कभी ऐसा नहीं लगा। छोटी बहू का मुँह देखकर मेरी तो छाती ठंडी हो जाये है। मेरा तो जैसा विपिन वैसी ही
छोटी बहू । छोटी बहू भी मुझे माँ की तरह प्यार करै है।
(छींका हाथ में लिये सरलता का प्रवेश ।)
सरलता : जीजी, देखो न, मैंने छींके का तला बुन लिया ।... ठीक नई है ?
सैरिन्ध्री : (देखकर) हाँ, अब बिल्कुल ठीक है। ए भैन, यहाँ तुम चूक गयीं, लाल के बाद पीला नहीं खिलै ।
सरलता : मैंने तो तुम्हारा छींका देखके बुना था ।
सैरिन्ध्री : उसमें लाल के बाद पीला है ?
सरलता : नई, उसमें तो लाल के बाद हरा है। पर मेरा हरा डोरा निबट गया, तो मैंने यहाँ पीला लगा दिया।
सैरिन्ध्री : तुम्हें हाट के दिन तक का सबर नहीं हुआ। तुम्हें तो हर काम में जल्दी रहै है।
सरलता : वाह, इसमें मेरी क्या गलती ? हाट में कहाँ मिलै ? पिछली हाट के दिन अम्मा जी ने बाबू जी से लाने को कहा था, पर मिला ही नहीं।
सैरिन्ध्री : तो जब देवर जी को चिट्ठी लिखी जाएगी तब पाँच रंग के डोरे की बात भी लिखवा दूँगी।
सरलता : जीजी, इस महीने में और कित्ते दिन हैं....
सैरिन्ध्री : (हँसकर) जहाँ दरद हो, हाथ वहीं जाए। कालेज बन्द होने पर देवर जी के घर आने की बात है... इसी से तुम दिन गिन रही हो। मन की बात निकल पड़ी, बहन ।
सरलता : राम कसम जीजी, मैंने यह सोचकर नहीं पूछा था... राम की सौगन्ध !
सैरिन्ध्री : हमारे देवर जी भी कैसे भले हैं, कैसी मीठी बातें लिखे हैं । ये लोग जब उनकी चिट्ठियाँ पढ़ें तो जैसे अमरित बरसै। भाई के लिए ऐसी भक्ती कभी नहीं देखी। भैया के पिरेम का भी क्या कहना। बिन्दुमाधव का नाम सुनते ही मुँह लाल हो जावै है और छाती गजभर की। जैसे मेरे देवर जी, वैसी ही मेरी छोटी बहू... ( सरलता का गाल दबाकर सरलता तो सरलता ही है। मैं क्या तमाकू की डिबिया नहीं लायी ? घंटे भर भी तमाकू बिना चैन नहीं पड़ै, पर डिबिया जाने कहाँ भूल आयी। (आदुरी का प्रवेश ।) अरी आदर, तमाकू की डिबिया तो ले आ बहन।
आदुरी : कहाँ ढूँढूँ ?
सैरिन्ध्री : अरे, रसोईघर के बरामदे में दाहिनी तरफ छप्पर की कड़ी में अटकी है।
आदुरी : तो फिर खलिहान से सीढ़ी ले आऊँ, नहीं तो छप्पर पर चहूँगी कैसे ?
सरलता : ठीक समझी !
सैरिन्ध्री : क्यों, अम्मा जी की बात तो वह खूब समझ लेवै। तू बरामदा नहीं समझै ? दाहिनी तरफ नहीं जानै ?
आदुरी : मैं डाइनी क्यों होने लगी? सब मेरी तकदीर का दोस है, गरीबनी बूढ़ी हुई और दाँत गिरे कि वह डाइनी हो गयी। माँजी से कहूँगी, मैं क्या डाइन कहने लायक बूढ़ी हो गयी हूँ ।
सैरिन्ध्री : मरे हम तो ! ( उठते हुए) छोटी बहू, बैठ, मैं अभी आयी, विद्यासागर की बेताल सुनूँगी।
( सैरिन्ध्री का प्रस्थान ।)
आदुरी : वही सागर जिसमें राँड़ का ब्याह होवै है ?... दो मंडलियाँ हो गयी हैं न, मैं आजाद की मंडली में हूँ ।
सरलता : हाँ आदुरी, तेरा भरतार तुझे प्यार करै था ?
आदुरी : छोटी बहू, उस मुँहजले की बात मत करो। उसकी याद आते ही आज भी मेरा जी भर आवै। मुझसे बड़ा पिरेम करै था । मुझे बाजूबन्द पहना था। कहै था, पोंची की क्या बात, मन मिल गया तो बाजूबन्द पहना दूँगा। मुझे सोने नहीं देवै था, झपकी आयी कि कहै, 'अरी, सो गयी क्या ?'
सरलता : तू भरतार का नाम लेकर पुकारै थी !
आदुरी : राम, राम! भरतार तो बड़ा होए, उसका कहीं नाम लेते होंगे !
सरलता : तो फिर क्या कहकर बुलाये थी ?
आदुरी : मैं कहूँ थी, अजी, एजी, सुनो हो जी....
(सैरिन्ध्री का प्रवेश।)
सैरिन्ध्री : फिर पगली को चेता दिया ?
आदुरी : मेरे आदमी की बात पूछी, इसी से कहने लगी ।
सैरिन्ध्री : (हँसकर) छोटी बहू भी एक ही पागल है। इतनी चीजें होते हुए भी आदुरी के भरतार की कहानी खोद-खोदकर सुनी जा रही है।
(रेवती और क्षेत्रमणि का प्रवेश ।)
सैरिन्ध्री : आ घोष जीजी, आ, तुझे तो कई दिन से बुला रही हूँ, पर तेरा तो निकलना ही नहीं होवै। छोटी बहू, लो, आ गयी तुम्हारी छेत्तरमनी इतने दिनों मुझे पागल कर छोड़ा। कहै थी, 'जीजी, छेत्तरमनी ससुराल से लौटने के बाद हमारे घर नहीं आयी।'
रेवती : हमारे ऊपर बड़ी किरपा है। छेत्तर अपनी चाचियों के पैर छू ।
( क्षेत्रमणि प्रणाम करती है।)
सैरिन्ध्री : जीती रहो, दूधो नहाओ, पूतों फलो ।
आदुरी : मेरे आगे तो छोटी बहू के मुँह से फूल झरा करें, छोरी ने पैर छुये तो जीओ-मरो एक बात भी नहीं कही।
सैरिन्ध्री : काली मैया रच्छा करें... आदुरी, जा, अम्मा जी को बुला ला । (आदुरी का प्रस्थान ।) जलमुँही क्या कहते क्या कह बैठे, कुछ नहीं समझै... कितने महीने हुए ?
रेवती : वह बात, जीजी, मैंने आज तक जाहिर नहीं की। मेरी फूटी तकदीर, सच या झूठ, यह भी कैसे पता चले। तुम लोग तो अपनी ही हो, इसी से कहूँ हूँ... इस महीने के और कुछ दिन पीछे चौथा लगेगा।
सरलता : अभी तो पेट नहीं दिखाई पड़ा।
सैरिन्ध्री : यह भी एक ही पगली है। अभी तीन महीने पूरे नहीं हुए और यह पेट देखने लगी।
सरलता : छेत्तर, तुमने 1पट्टे क्यों निकाल दिये ?
1. पट्टे बालों के कुंडल
क्षेत्रमणि : मेरे पट्टे देखकर मेरे जेठ बड़े बिगड़े। सास से कहा, 'पट्टे कस्बियों और बड़े घरों की औरतों के ही भले।' मैं तो सुनकर सरम से मर गयी, उसी दिन पट्टे निकाल दिये।
सैरिन्ध्री : छोटी बहू, जाओ बहन, कपड़े उठा लाओ, संझा हो गयी ।
(आदुरी का फिर से प्रवेश ।)
सरलता : (खड़े होते हुए) चल आदुरी, छत पै साड़ी उठाएँ । आदुरी छोटे बाबू पहले घर ही आएँ, हा हा हा हा!
(जीभ काटते हुए सरलता का प्रस्थान ।)
सैरिन्ध्री : (क्रोध से हँसते हुए) चल कलमुँही, हर बात में ठट्ठा... अम्मा जी कहाँ हैं... (सावित्री का प्रवेश) ये आ गयीं।
सावित्री : घोषबहू आयी है, अपनी बेटी को भी लायी है? बड़ा अच्छा किया... विपिन मचल रहा था, उसे चुप कराके बाहर देकर आयी हूँ।
रेवती : माँजी, पैरों पड़ूँ । छेत्तर अपनी नानी जी के पैर छू ।
( क्षेत्रमणि प्रणाम करती है ।)
सावित्री : सुखी रहो, सात पूत की माँ हो... ( नेपथ्य से खाँसी सुनाई देती है।) बड़ी बहू, भीतर जाओ, बेटे की नींद खुल गयी दीखै । हाय हाय ! बिचारे का न बखत से नहाना, न खाना, सोच- फिकर में नवीन मेरा सूखकै काँटा हो चला... (नेपथ्य में 'आदुरी' को पुकारने की आवाज सुनाई देती है।) जाओ बेटी, शायद पानी माँगे हैं।
सैरिन्ध्री : (बाहर आदुरी से ) आदुरी, तुझे बुला रहे हैं।
आदुरी : बुलाये हैं मुझे, पर चाहे हैं तुम्हें !
सैरिन्ध्री : कलमुँही !... घोष जीजी, फिर किसी दिन आना।
( सैरिन्ध्री का प्रस्थान ।)
रेवती : माँजी, यहाँ कोई और तो नहीं है ?... मैं तो बड़ी मुसीबत में पड़ गयी हूँ। पदी मिसरानी कल हमारे घर आयी थी....
सावित्री : राम राम राम, उस छिनाल कुटनी को कौन घर में आने दे है... उसने कसर ही क्या छोड़ी है, नाम क्यों नहीं लिखा लेवै ....
रेवती : माँजी, मैं क्या करूँ, हमारा तो कोई बन्द घर-दुआर है नहीं, मरद खेत-खलिहान चले गये तो फिर घर क्या और बजार क्या । छिनाल क्या कहै थी... माँजी, मेरा तो दिल धड़कै है... मरी कहै थी, छोटे साहब घोड़े पे जावै था । उसने छेत्तर को देखा तो पागल हो गया, और एक बार उसके साथ कोठी आने को कहा है।
आदुरी : थू थू थू... बदबू ? प्याज की बदबू !... साहब के पास क्या हम जा सकें हैं, बदबू, थू ! प्याज की बदबू !... मैं तो अब कहीं अकेली नहीं जाने की सब सह सकूँ, प्याज की बदबू नहीं ... थू-थू, बदबू ! प्याज की बदबू !
रेवती : माँजी, गरीब का धरम क्या धरम नहीं है? हरामजादी कहै थी, रुपया मिलेगा, धान की जमीन छूट जाएगी, और जमाई को काम मिल जाएगा... चूल्हे में गया ऐसा रुपया । धरम क्या बेचने की चीज है... या इसका कोई दाम हो सकै है ? क्या कहूँ, छिनाल साहब के मुँहलगी है, नहीं तो लात से मुँह तोड़ देती । बिटिया को तो काटो तो खून नहीं। कल से रह रहकै चौंक उठे है।
आदुरी : मैया री, कैसी दाढ़ी है। बात करै जैसे कोई पागल बकरी मुँह मारै! दाढ़ी और प्याज न छोड़ै तो मैं तो कभी न जाऊँ । थू- थू-थू ! बदबू, प्याज की बदबू !
रेवती : माँजी, वह हत्यारी बोली, मेरे संग नहीं भेजा तो जबरदस्ती पकड़वा मँगवाएगा।
सावित्री : कोई अन्धेर है!...इंगरेज के राज में कोई घर में घुसकर जबरदस्ती लड़की ले जा सकै है ?
रेवती : माँजी, किसान के घर में क्या नहीं हो सके ? औरतों को पकड़कर मरदों को काबू में करै हैं। नील के ब्याने के लिए कर सकें तो नजर पड़ने पर नहीं कर सकें? माँजी, नहीं जानतीं? नैदावाले राजीनामे को तैयार नहीं भये तो उनकी मँझली बहू को घर में घुसकर उठा ले गये ।
सावित्री : बड़ा अन्धेर है! साधू को बतायी यह बात ?
रेवती : नहीं माँजी, वह वैसे ही नील के धक्के से पागल से हैं, उस पर यह बात सुनकर तो फिर खैर ही नहीं गुस्से में क्या से क्या कर बैठें, कुछ ठीक है ?
सावित्री : अच्छा, मैं बड़े मालिक से यह बात साधू से कहलवा दूँगी, तुम्हें कुछ कहने की जरूरत नहीं कैसी आफ़त है! ये नीलकर साहब जो करें थोड़ा है। पर लोगों का तो कहना है, गोरे लोग बड़ा इंसाफ करें हैं। मेरा बिन्दु तो गोरों की कितनी बड़ाई किया करें है...क्या ये लोग नहीं हैं गोरे, या ये लोग गोरों के चंडाल हैं ?
रेवती : मिसरानी छिनाल एक और बात कह गयी। वह स्यात् बड़े बाबू ने सुनी हो...। कोई एक नया हुकम निकला है, जिससे ये साहब लोग मजरेट साहब से मिलकै चाहे जिसे छह महीने की सजा करा सके हैं। बड़े मालिक को ही इस फन्दे में फँसाने की कोसिस में लगे हैं।
सावित्री : (लम्बी साँस लेकर) माँ काली को यही मंजूर है, तो यही होगा ।
रेवती : माँजी, वह कितनी बातें कह गयी, मैं तो सब समझ ही नहीं । कहै थी, इस सजा की कोई अपील नहीं....
आदुरी : सजा मरी का पेट नहीं, भट्टी है!
सावित्री : आदुरी, तू जरा चुप भी रह।
रेवती : कोठी की मेम ने मुकदमा चलाने के लिए मजरेट साब को चिट्ठी लिखी है। मेम की बात हाकिम बहुत सुने हैं....
आदुरी : मेम को मैंने देखा है, न लज्जा, न सरम... जिले के हाकिम मजरेट साब, कित्ती लाल पगड़ी, तलवार वाले घूमे हैं, मैया री, नाम लेते ही दिल धड़धड़ करे है... उस साहब के संग घोड़े बैठ के घूमने आयी। औरत जात होकर घोड़े पै बैठे !... किसन की काकी ने घर के जेठ से हँस के बात करी, इसी पर लोगों ने उसे कित्ता भला-बुरा कहा। जे तो फिर जिले का हाकिम ठैरा |
सावित्री : तू अभागी किसी दिन मरेगी, मैं जानूँ। संझा हो गयी, घोषबहू, तुम लोग घर जाओ। माँ दुर्गा सब भली करेंगी।
रेवती : चलूँ माँजी, तेली से तेल लेकर जाऊँगी तब घर में दिया - बत्ती होगी।
(रेवती और क्षेत्रमणि का प्रस्थान ।)
सावित्री : हर बात पर कुछ न कुछ कहे बिना तेरा काम नहीं चलै ?
( सिर पर साड़ियाँ रखे सरलता का प्रवेश ।)
आदुरी : ये लो, धोबन कपड़े ले आयी।
( सरलता जीभ काटकर कपड़े रख देती है।)
सावित्री : धोबन क्यों होगी री? मेरी सोने की बहू, मेरी राजलक्ष्मी ।
(पीठ पर हाथ रखकर) हाँ, बेटी, तुम्हारे सिवा क्या हमारे यहाँ कोई कपड़े लानेवाला नहीं रहा? तुम क्या कहीं घंटे भर चुपचाप नहीं टिक सको? ऐसी पगली के पेट से जनमी हो !... साड़ी में खोंता कैसे लगा ? बदन में भी खरोंच लगी है ? ... हाय! बिटिया का लाल कमल जैसा रंग है, जरा-सी खरोंच से खून निकला पड़े है। तुम बेटी, अँधेरी सीढ़ी से मत आया- जाया करो।
(सैरिन्ध्री का प्रवेश।)
सैरिन्ध्री : चल छोटी बहू, घाट चलें।
सावित्री : जाओ बेटी दोनों बहनें इस बखत दिन रहते-रहते हाथ-पैर धो आओ।
( सबका प्रस्थान ।)
द्वितीय अंक :
प्रथम गर्भांक :
[ बेगुनबाड़ी कोठी का गोदाम। तोराप और चार किसान बैठे हैं।]
तोराप : चाहे मार क्यों न डालें, मैं नमकहरामी नहीं करूँगा...जिन बड़े बाबू की वजह से जान बची है, जिनकी जमींदारी में खेती करता हूँ, जो बड़े बाबू हल-बैल बचाने को परेशान हैं, झूठी गवाही देकर उन्हीं बड़े बाबू के बाप को कैद करा दूँ? मुझसे कभी न होगा, चाहे जान चली जाए।
पहला कि. : मार के आगे भूत भागे श्यामचन्द की चपेट आसान नहीं । हमारी आँखों पै क्या चमड़ा नहीं, या हमने बड़े बाबू का नमक नहीं खाया... पर करें क्या? गवाही नहीं दी तो जिन्दा न छोड़ेगा...वुड साहब मेरी छाती पै चढ़ गया... देखो अभी तक खून गिर रहा है... शैतान का पैर है या किसी साँड़ का खुर !
दूसरा कि. : कीलों की चोट होगी... साहब कीलों के तलेवाला जूता पहने है, नहीं जाने ?
तोराप : (दाँत पीसकर) धत्तेरे की, कीलों की मारपीट! खून देखकर मेरे बदन में आग लग गयी है। ओफ ! क्या कहूँ, साला कभी भातारमारी के मैदान में मिल जाए, तो ऐसी मरम्मत करूँ ! साले का जबड़ा आसमान में उड़ा दूँ, उसकी गिटपिट सब निकल जाए....
तीसरा कि. : मैं तो मजूर आदमी ठहरा... मेहनत करके पेट पालूँ हूँ। मालिक के कहने से नील नहीं बोया, यह मेरे लिए नहीं चलने की । फिर मुझे गुदाम में क्यों बन्द कर रखा है? ताना के जापे के दिन पास हैं, सोचा था इस बार मेहनत करके कुछ बचा लूँगा और जापे के बखत चार सगों को बुलाऊँगा । पर पाँच दिन से यहाँ गुदाम में सहूँ हूँ, अब वहाँ अन्दराबाद ढकेलेगा।
दूसरा कि. : अन्दराबाद मैं एक बार गया था... वही भावनापुरी की कोठी, जिस कोठी के साहब को सब लोग भला कहे हैं... उस साले ने मुझे एकदम फौजदारी में फँसा दिया। मैंने सहर की कचैरी में बड़ा तमासा देखा। ओफ, मेज के पास बैठ मजरेट साब ने जैसे ही आवाज मारी, वैसे ही दो साले मुखतार रौ-रौ करते हुए झपट पड़े। आपस में ऐसी खींचातानी हुई कि मुझे लगा मैना के मैदान में सादखाँ के सफेद बैल और जमादार के साँड़ में लड़ाई लग गयी है।
तोराप : तेरी गलती क्या निकली ? भावनापुरी का साहब तो झूठा गोलमाल नहीं करै। सच्ची बात कहना, घोड़ा चढ़के जाना। सब साले अगर उस साले जैसे ही होते तो सालों की इतनी बदनामी नहीं होती।
दूसरा कि. : क्या कहने! अब साले का इस्कूल करना सब निकल गया। साले के गुदाम में सात आसामी निकले। एक छोटा लड़का भी था। सालों ने गाय-बकरी गुदाम में भरे थे। साला ऐसा गोलमाल मचा है, बाप रे बाप!
तोराप : साले भला आदमी देखते ही खाने को दौड़ें, मजरेट साहब को भगाने की कोसिस में लगे हैं।
दूसरा कि. : इस जिले का मजरेट नहीं... उस जिले के मजरेट ने गलती क्या कर दी, यह भी पता नहीं चलता।
तोराप : कोठी पर खाने नहीं गया। हाकिम को बस में करने के लिए खाना पकवाया, पर वह चोरी की गाय की तरह भाग गया, खाने नहीं गया...। वह बड़े आदमी का बेटा है, नील के भूतों के घर क्यों जाए! मैं इनकी असलियत समझ गया हूँ। ये साले विलायत के नीच जात हैं।
पहला कि. : तो फिर यहाँ के गरनल साब क्यों कोठी कोठी भात खाते फिरे ? देखा नहीं, साले जलूस बनाकर उन्हें दूल्हे की तरह हमारी कोठी में लाये थे ?
दूसरा कि. : उनका भी हिस्सा होगा।
तोराप : अरे, नहीं लाट साब नील का हिस्सा ले सकें? वह नाम कमाने आये थे। इन गरनल साब को अगर खुदा ने जिन्दा रखा, तो दाल-भात में कोई खटका नहीं। और साले नील के भूत भी छाती पै मूँग न दल सकेंगे....
तीसरा कि. : ( डरकर ) मैं तो मरा, ये भूत एक बार पकड़ ले तो फिर छोड़ै ही नहीं। बहू कहती थी।
तोराप : इस बीबी के भैया को क्यों ले आये हैं? कोई बात इसकी समझ में ही नहीं आवै। साब लोगों के डर से जब रैयत गाँव छोड़ने लगी, तो बसीरुद्दीन ने एक छन्द रच दिया।
चौथा कि. : हाय! मेरे घर क्या हो रहा है कुछ पता नहीं। मैं तो तीनगाँव का रहनेवाला हूँ, मुझे स्वरपुर से क्या सरोकार जो बोस भैया की सला से ब्याना लौटाता ? मेरे छोटे बच्चे का बदन गरम हुआ था तब एक बार बोस बाबू से दवाई लेने स्वरपुर आया था। अहा ! कैसे रहमदिल थे, कैसा चमकीला चेहरा, कैसा अनोखा रूप, जैसे खुद देवी माता बैठी हों।
तोराप : इस बार कै बीघे की है ?
चौथा कि. : पिछली बार दस बीघे बोया था, उसके दाम में हील हुज्जत हुई... इस बार पन्द्रह बीघे का ब्याना थमा दिया। जो कहें वही करूँ फिर भी तो पीछा नहीं छोड़ें।
पहला कि. : मैंने दो बरस से हल चलाकर एक परती जमीन तोड़ी थी। इस बार त्यार थी, सोचा था इसमें तिली बोऊँगा। उस दिन छोटा साब घोड़े पै चढ़ा आया और खड़े-खड़े जमीन पर निशान मार गया। किसान का रखवाला कौन है ?
तोराप : यह अमीन साले की बदमासी है। साब को सब जमीन की क्या खबर ? वही साला सब ढूँढ़-ढूँढ़ कर पता बतावै है । साला पागल कुत्ते की तरह चक्कर काटै है, जैसे ही अच्छी जमीन पै नजर पड़ी कि साब का निसान मारा। साब के पास तो रुपये की कमी नहीं, उसे तो महाजन का मुँह नहीं ताकना पड़े, साला फिर इस तरह क्यों मरे है। नील करना है तो कर, बैल जोड़ी खरीद, हल बनवा, खुद खेती नहीं होवै तो मजूर रख तुझे जमीन की क्या कमी, गाँव के गाँव क्यों नहीं खेती कर लेवै? हम लोगों को कुदाली देने में तो कोई ऐतराज नहीं। तो फिर दो बरस में ही नील के ढेर लग जाएँ। पर साला सो नहीं करेगा, साले को रैयत का वह बड़ा मीठा लगा है, इसी से चूसे है, इसी से चूसे है... (नेपथ्य में 'हो-हो, हाय मैया, हाय मैया' का शब्द सुनाई पड़ता है।) गाजी साब, गाजी साब, अरे राम का नाम लो। यहाँ कोई भूत है। चुप रह, चुप रह...
(नेपथ्य से ) : हाय नील! तुम हमारे सत्यानास के लिए ही इस देश में आये थे... हाय, हाय ! यह दुख अब और नहीं सहा जाता, इस कम्पनी की और कितनी कोठियाँ बाकी हैं, पता नहीं, डेढ़ महीने में चौदह कोठियों का पानी तो पी चुका। इस वक्त कौन-सी कोठी में हूँ यह भी तो नहीं मालूम और मालूम भी कैसे हो, रात के वक्त, आँखें बाँधकर एक कोठी से दूसरी में ले जाते हैं। ओह! हे माँ, तुम कहाँ हो ?
तीसरा कि. : राम, राम, राम, काली, काली, दुर्गा, गनेश, असुर !....
तोराप : चुप चुप!
(नेपथ्य से ) : हाय, पाँच बीघा जमीन का ब्याना लेने से ही इस नरक से छुटकारा मिल सकता है...हे मामा! ब्याना लेना ही ठीक है। खबर देने का भी कोई रास्ता नहीं दीखता। जान होठों पर है, बात कहने तक की ताकत नहीं है माँ! तुम्हारे चरन डेढ़ महीने से नहीं देखे !
तीसरा कि. : लौटकर बहू को यह बात सुनाऊँगा...सुन तो लिया, मर कै भूत हो गया पर ब्याने से पीछा नहीं छुड़ा सका।
पहला कि. : तू आदमी ऐसा सिड़ी है....
तोराप : सरीफ खानदान का है, मैं बात से समझ गया... परान चाचा, मुझे कन्धे पै चढ़ा ले तो मैं खिड़की में से पूछें उसका घर कहाँ है.....
पहला कि. : तू तो मुसलमान है।
तोरा : तब तू मेरे कन्धे पर चढ़कै देख ( बैठ जाता है।) चढ़ जा... (कन्धे पर चढ़ जाता है।) दीवाल पकड़ ले, झरोखे के पास मुँह ले जा... (दूर से गोपीनाथ को आता देखकर) चाचा उतर, चाचा उतर, गोपी साला आ रहा है।
(पहला किसान धरती पर गिर पड़ता है। गोपीनाथ और
रामकान्त1 हाथ में लिए हुए रोज़ साहब का प्रवेश)
1. रामकान्त पीटने के डंडे का नाम
तीसरा कि. : दीवान जी साब, इस घर में भूत है। अभी-अभी रो रहा था।
गोपीनाथ : मेरे कहे जैसा न बोलेगा तो तू भी ऐसा ही भूत होगा ( रोज़ से अलग) मजूमदार की बात ये लोग जान गये हैं, इस कोठी में अब और उसे रखना ठीक नहीं। यहाँ रखना ही गलत हुआ।
रोज़ : यह बात पीछे सुना जाएगा। कौन राजी नेहीं है, कौन बज्जात है ? (पैर पटकता है।)
गोपीनाथ : सब सीधे हो गये। यह बेटा मुसलमान बड़ा हरामजादा है, कहता है नमकहरामी नहीं कर सकता।
तोराप : (स्वगत) बाप रे बाप! कैसी मोटी लाठी है, अभी तो राजी हो जाऊँ, पीछे देखा जाएगा। (जोर से) दुहाई साहब की, मैं भी सीधा हो गया हूँ।
रोज़ : चोप रह, सूअर का बच्चा ! रामकान्त बड़ा मीठा है। (रामकान्त से पीटता है और ठोकर लगाता है।)
तोराप : अल्ला ! मैया री, मर गया, परान चाचा, जरा पानी दे, मैं तो प्यासा मरा, बाप रे बाप, बाप रे बाप...
रोज़ : पानी ? तेरे मुँह में पेशाब नहीं? (ठोकर मारता है।)
तोराप : जो कहेंगे वही करूँगा... दुहाई साहब की दुहाई साहब की, खुदा कसम !
रोज़ : बदमाश का हरामीपन चला गया। आज रात ही सबको चालान करो । मुखतेयार को लिखो, गवाही बिना कोई बाहर न जाने पाए। पेशकार साथ जाएगा... (तीसरे किसान से) तोम रोता है क्यों ? ( ठोकर मारता है।)
तीसरा कि. : बहू तू कहाँ है री, मुझे मार डाला रे, मैया री, बहू री, मैया री, मार डाला रे, मार डाला रे (धरती पर चित गिर पड़ता है।)
रोज़ : बदमाश बावला है।
(रोज़ का प्रस्थान ।)
गोपीनाथ : क्यों तोराप, अब तो दिमाग ठीक हो गया न ?
तोराप : दीवान जी साहब, मुझे जरा-सा पानी देकर बचाइए, मैं मरा।
गोपीनाथ : भैया, नील का गुदाम है। यहाँ पसीना भी छूटता है, पानी भी
मिलता है। चलो, तुम सभी चलो, तुम्हें एक बार पानी पिला लाऊँ ।
(सबका प्रस्थान ।)
द्वितीय गर्भांक
[बिन्दुमाधव का शयनगृह। चिट्ठी हाथ में लिये सरलता बैठी है।]
सरलता : सब आशाओं पर पानी फिर गया। प्राणेश्वर की प्रतीक्षा में नवसलिल सीकर की आकांक्षी चातकी से भी अधिक व्याकुल थी। दिन गिन रही हूँ, जीजी कहती थीं। यह झूठ नहीं, मेरा एक-एक दिन एक-एक बरस जैसा बीता है। (दीर्घ निश्वास) इस समय स्वामी के आने की आशा नहीं। वे जिस महान कार्य में लगे हैं, उसमें सफल होने पर ही उनका जीवन सार्थक होगा। प्राणेश्वर, मैं नारी हूँ, हम पाँच सखियाँ एक साथ भी बाग में नहीं जा सकतीं, नगरभ्रमण में अक्षम हैं, अपने मंगल के लिए सभा स्थापना सम्भव नहीं, हमारा कालेज नहीं, कचहरी नहीं, ब्राह्म समाज नहीं... स्त्री का मन कातर होने पर बहलाने का कोई उपाय नहीं। मन नहीं मानता तो उसे दोष कैसे दूँ ? स्वामी ही हम नारियों का एकमात्र सहारा है... स्वामी ही ध्यान, स्वामी ही ज्ञान, स्वामी ही अध्ययन, स्वामी ही उपार्जन, स्वामी ही सभा, स्वामी ही समाज, स्वामी ही सती का सर्वस्व है। हे चिट्ठी, तू मेरे हृदय - वल्लभ के हाथों से आयी है, तुझे प्यार करूँ। (चिट्ठी को चूमती है।) तुझमें प्रियतम का नाम लिखा है, तुझे अपने जलते हुए हृदय से लगा लूँ। (हृदय से लगाती है।) आहा ! प्राणनाथ के वचन कैसे अमृत समान हैं, पत्र को जितना पढ़ती हूँ, उतना ही मन मोहित होता है। और एक बार पहूँ। (पढ़ती है।)
"प्राणप्रिय सरला,
तुम्हारा मुखारविन्द देखने को मेरे प्राण कितने व्याकुल हैं यह पत्र द्वारा नहीं बताया जा सकता। तुम्हारे चन्द्रमुख को हृदय से लगाकर मुझे कैसा अनिर्वचनीय सुख मिलता है। सोचता था उस सुख की घड़ी आ गयी है। पर हर्ष में विषाद हुआ। कालेज तो बन्द हो गया पर मैं बड़े संकट में हूँ। यदि परमेश्वर की कृपा से अपने काम में सफल न हो सका तो मुख न दिखा सकूँगा। नीलकर साहबों ने चुपके-चुपके पिताजी पर झूठा मुकदमा चला दिया है और बड़े यत्न में हैं कि उन्हें जेल हो जाए। भाई साहब को पूरा समाचार लिखा है और मैं यहाँ प्रबन्ध के लिए ठहरा हूँ । तुम कुछ चिन्ता न करना, करुणामय की कृपा से अवश्य सफलता मिलेगी। प्रिये, मैं तुम्हारे लिए बांग्ला भाषा में शेक्सपीयर के नाटक लाने की बात भूला नहीं हूँ। इस समय बाजार में नहीं मिलते, पर प्रिय बन्धु बंकिम ने उसका पता दिया है, घर लौटते समय लेता आऊँगा। विधुमुखी, लिखना पढ़ना कितने सुख का साधन है जो इतने दूर रहकर भी तुमसे बात कहना सम्भव हो सका ! अहा! माता जी को आपत्ति न होती तो तुम्हारे पत्रामृत का पान करके मेरा चित्त- चकोर कृतार्थ होता । इति ।
तुम्हारा बिन्दुमाधव "
मेरे ही...इसका मुझे पूरा विश्वास है। प्राणेश्वर, तुम्हारे चरित्र को अगर दोष छू जाए तो फिर अच्छे चरित्र का आदर्श कौन होगा ?... मैं स्वभाव से ही चंचल हूँ, घंटे भर भी कहीं स्थिर नहीं बैठ सकती, इसीलिए अम्मा जी मुझे पगली की बेटी कहती हैं। अब वह चंचलता कहाँ गयी? जहाँ बैठकर प्राणपति का पत्र खोला था, एक पहर से वहीं बैठी हूँ। चंचलता अब बाहर से भीतर चली गयी है। उबलते भात के फेन को चलाने से ऊपर तो स्थिर हो जाता है पर भीतर ही
भीतर उफनता रहता है। मेरी भी इस समय वैसी ही दशा है। अब मेरी वह हँसी नहीं रही। हँसी तो सुख की साथिन है, सुख के साथ ही मर जाती है। प्राणनाथ, तुम्हारी सफलता में ही सबकी रक्षा है। तुम्हें उदास देखते ही मेरे लिए चारों ओर अँधेरा छा जाता है। ए नादान मन, तू समझेगा नहीं? पर तेरे नासमझ होने में भी इतनी बुराई नहीं, तेरा रोना न कोई देख सकता है न सुन सकता है। पर आँखें, तुम्हीं मुझे लज्जित कराओगी। (आँखें पोंछकर ) तुम्हारे शान्त हुए बिना मैं घर से बाहर नहीं जा सकती
(आदुरी का प्रवेश।)
आदुरी : तुम करने क्या लगीं ? बड़ी बहू जी अभी तक घाट नहीं गयी हैं। क्या हुआ है? जिसे देखूं, उसी का मुँह सूजा है।
सरलता : (लम्बी साँस लेकर) चल, चलूँ।
आदुरी : अरे, अभी तक तेल से हाथ नहीं लगाया। बाल कीचड़ जैसे हो रहे हैं। चिट्ठी अभी तक नहीं छोड़ी... छोटे बाबू हर चिट्ठी में मेरा नाम लिखते हैं।
सरलता : बड़े दादाजी नहा लिये ?
आदुरी : बड़े बाबू तो सहर गये, जिले में मुकदमा चल गया है न । तुम्हारी चिट्ठी में नहीं लिखा... बड़े मालिक तो रोने लगे।
सरलता : (स्वगत) प्राणनाथ, सफल न हुए तो सचमुच मुँह न दिखा सकोगे। (ऊपर से ) चल रसोईघर में चलकर तेल लगा लूँ । (दोनों का प्रस्थान ।)
तृतीय गर्भांक
[ स्वरपुर का तिराहा । पदी मिसरानी का प्रवेश । ]
पदी : इस अमीन के बच्चे ने ही सब आफत मचा रक्खी है। मुझे क्या भला लगै, नन्ही नन्ही छोरियाँ सा 'बों को थमाकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना? हे भगवान, उस लाठी की बात तो सोचते ही पसीना छूटता है जिसको रायचरण ने उस दिन मुझे मारने के लिए उठाया था, अगर साधू दादा पकड़ न लेते तो अपना तो राम नम सत हो जाता। हाय! छेत्तरमनी का मुँह देखकर तो छाती फटै है। और मरद कर लिया तो क्या मेरे मन में दया नहीं रही ? – मुझे देखते ही मिसरानी बुआ कहती हुई पास आ है। ऐसे सोने के हिरन को माँ जान रहते बाघ के मुँह में दे सकै? पर छोटे सा'ब का काम ही नहीं चलै। मैं हूँ, कली है...! मैयारी, कैसी बुरी बात है, रुपये के लिए जात गयी, इन गोरों का बिस्तर छूना पड़ा। मरीपीटा बड़ा साब भौत पीछे पड़ा है, कहै है नाक-कान काट लूँगा... मरे की बुढ़ापे में मत मारी गयी है। खसमखानी का खसम, लुगाइयों को गुदाम में रखें, लुगाइयों को लात मारै, मुए में वह बात तो कभी नहीं देखी। जाऊँ, अमीन कलमुँह से कहूँ, मुझसे नहीं होगा। गाँव में बाहर निकलना दूभर हो गया है। मुहल्ले के लड़के हरामी मुझे देखते ही ऐसे पीछे पड़ें जैसे कौवे के पीछे फिंग ।
(नेपथ्य में गीत सुनाई पड़ता है। एक चरवाहे का प्रवेश।)
चरवाहा : सा'ब, तुम्हारे नील के चारे में क्या कीड़ा नहीं लगा ?
पदी : तेरी माँ-बहन को लगै न। मरीपीटा, माँ की गोदी छूटै, जम के घर जाओ, मुर्दघटे जाओ -
चरवाहा : मैंने दो चूड़ियाँ गढ़ने को दी हैं-
(एक लठैत का प्रवेश । )
चरवाहा : बाप रे बाप! कोठी का लठैत !
( जल्दी से भाग जाता है ।)
लठैत : चन्द्रमुखी! मिस्सी महँगी कर दी तुमने तो !
पदी : (लठैत के कमरबन्द पर नजर डालकर) तेरे चन्द्रहार पर तो है बहार !
लठैत : जानती नहीं प्यारी, प्यादे की पोशाक, और नटी का भेस कहाँ से आता है ?
पदी : तुझसे एक काली बछिया माँगी थी, जो तूने आज तक नहीं दी। अब कभी तुझसे कोई चीज नहीं माँगूँगी ।
लठैत : कमलनैनी, रूठो मत। कल श्यामनगर लूटने जाएँगे, वहाँ अगर
काली बछिया मिली तो वह तेरी गोशाला में ही बँधेगी। मैं मछली लेकर लौटते वक्त तेरी दुकान पर होता जाऊँगा ।
(लठैत का प्रस्थान ।)
पदी : साबों को लूटपाट के सिवाय और कोई काम नहीं। काम में लगाने से किसान भी बचें, और उनका भी नील हो। श्यामनगर के मुंशियों ने दस बीघा जमीन बचाने के लिए कितनी मिन्नतें कीं। पर चोर को क्या राम नाम सुनाना! बड़े साहब अपना कालामुँह और भी काला किये बैठे रहे ।
( पाठशाला के चार बच्चों का प्रवेश ।)
बच्चे : (बस्ते रखकर ताली बजाते हुए)
लो मिसरानी आयी। नील छिपाकर लायी।
लो मिसरानी आयी। नील छिपाकर लायी।
लो मिसरानी आयी। नील छिपाकर लायी।
पदी : राम राम, भैया केसव, बुआ से ऐसी बात नहीं कहें।
बच्चे : ( नाचते हुए)
लो मिसरानी आयी। नील छिपाकर लायी ।
पदी : नहीं भैया अम्बिका, जीजी से ऐसी बात नहीं बोलें-
बच्चे : (पदी के चारों ओर चक्कर काटते हुए)
लो मिसरानी आयी। नील छिपाकर लायी।
लो मिसरानी आयी। नील छिपाकर लायी।
लो मिसरानी आयी। नील छिपाकर लायी।
( नवीनमाधव का प्रवेश ।)
पदी : हाय मैया, कैसी सरम की बात है। बड़े बाबू ने मुँह देख लिया।
(घूँघट निकालकर प्रस्थान ।)
नवीनमाधव : दुराचारिणी, पापिनी... (बच्चों से) तुम लोग सड़क पर खेल रहे हो! घर जाओ, बहुत देर हो गयी....
(बच्चों का प्रस्थान ।)
नवीनमाधव : आह! नील का अत्याचार कम हो तो मैं पाँच दिन के भीतर इन बच्चों की पढ़ाई के लिए स्कूल खोल दूँ। यहाँ के इंस्पेक्टर साहब बड़े सज्जन हैं। विद्या से आदमी कितना सुशील होता है! ये साहब उम्र में जरूर छोटे हैं, पर बातचीत में बड़े चतुर हैं। उनकी बड़ी इच्छा है, यहाँ एक स्कूल खुले। मैं ऐसे भले काम में रुपया खर्चने में नहीं हिचकता। मेरे बड़े दालान में स्कूल खुल सकता है। गाँव के बालक मेरे घर में बैठकर विद्या पढ़ें, इससे बड़ा सुख और क्या होगा ? धन और परिश्रम दोनों इससे सुफल होंगे। बिन्दुमाधव इंस्पेक्टर साहब को साथ लाया था। बिन्दुमाधव की इच्छा है गाँव के सभी लोग स्कूल खुलवाने में हाथ बँटाएँ। पर गाँव की दुर्दशा देखकर भैया के मन की बात मन ही में रह गयी... हमारा बिन्दु कितना धीर, कितना शान्त, कैसा सुशील, कैसा विद्वान है! छोटी उम्र की विद्या छोटे पेड़ के फल की भाँति सुन्दर लगती है। भाई ने पत्र में जैसी खेद की बात लिखी है उसे पढ़कर पत्थर भी फट जाए, नीलकरों के दिल भी पिघल जाएँ... घर की तरफ पैर नहीं उठता। कोई रास्ता नहीं दीखता । पाँच लोगों में से एक भी हाथ न आया। उन्हें कहाँ ले गये हैं कुछ ठिकाना नहीं। तोराप तो लगता है, कभी झूठ न बोलेगा। पर बाकी चार ने भी गवाही दे दी तो खैर नहीं। अभी तक मैं कोई खास इन्तजाम नहीं कर सका। और फिर मजिस्ट्रेट साहब वुड साहब के बड़े मित्र हैं ।
(एक किसान, दो फौजदारी के सिपाही और कोठी के कारिन्दे का प्रवेश ।)
किसान : बड़े बाबू, मेरे दोनों बच्चों को देखना, उन्हें खिलानेवाला और कोई नहीं। पिछले साल आठ गाड़ी नील दिया था, उसका एक पैसा नहीं मिला। ऊपर से बकाया के बहाने पकड़ लिया है। अन्दराबाद भी ले जाएँगे...
कारिन्दा : नील का बयाना धोबी का निशान है, एक बार लगने पर छूटता नहीं। तू बेटा चल, दीवानजी के पास होकर जाना पड़ेगा। तेरे बड़े बाबू का भी यही हाल होनेवाला है।
किसान : चल, चलता हूँ। डरता नहीं। जेल में सड़कर मरूँगा, पर नील नहीं करूँगा । हे भगवान, हे भगवान, गरीब का कोई रखवाला नहीं! (रोता है) बड़े बाबू, मेरे दोनों बच्चों का पेट पालना । मुझे खेत से ही पकड़ लाए, उन्हें एक बार देख भी नहीं सका।
( नवीनमाधव के सिवाय सबका प्रस्थान ।)
नवीनमाधव : कैसा जुल्म है। मादा खरगोश बहेलिये के हाथों पड़ जाए तो उसके बच्चे जैसे बिना खाये सूखकर मर जाते हैं, वैसे ही इस किसान के दोनों बालक भूखों मर जाएँगे।
(रायचरण का प्रवेश ।)
रायचरण : भैया न पकड़ते तो बदमाश की लड़की का गला घोंट देता। मार तो डालता ही, फिर ज्यादा से ज्यादा छह महीने की सज़ा होती, साली....
नवीनमाधव : ओ रायचरण, कहाँ जा रहा है ?
रायचरण : माँजी ने भैया को बुला लाने भेजा है। पदी हरामजादी कह गयी है साब का प्यादा कल आएगा।
(रायचरण का प्रस्थान ।)
नवीनमाधव : हाय भगवान! इस वंश में जो कभी न हुआ था वही हुआ। मेरे पिता इतने शान्त, इतने सरल, इतने निष्कपट हैं, लड़ाई-झगड़ा किसे कहते हैं यह जानते तक नहीं। कभी गाँव के बाहर नहीं जाते, फौजदारी के नाम से ही काँपते हैं। चिट्ठी पढ़ते ही तो उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। इन्द्राबाद जाना पड़ा तो पागल से हो जाएँगे और जेल हो गयी तो पानी में डूबकर प्राण दे देंगे। हाय! मेरे जिन्दा रहते पिता की ऐसी दुर्गति ! मेरी माँ पिता की तरह डरतीं नहीं। उनमें हिम्मत है, वह उम्मीद नहीं छोड़तीं। वे एक मन से देवी का ध्यान कर रही हैं। मेरी मृगनैनी पत्नी तो जंगल की आग से घिरी हिरनी जैसी हो रही है, डर और चिन्ता से पागलों की-सी हालत है। नीलकोठी के गोदाम में उसके पिता का देवलोक हुआ था; उसे सदा यही चिन्ता है कहीं पति की भी वही गति न हो। मैं किस-किस को दिलासा दूँ ? सारे परिवार को लेकर भाग चलना ठीक नहीं? नहीं, परोपकार ही परम धर्म है। इस तरह पीठ नहीं दिखाऊँगा । श्यामनगर का कोई उपकार नहीं कर सका। कोशिश करने से क्या नहीं हो सकता? देखें, क्या सम्भव है-
(दो अध्यापकों का प्रवेश ।)
पहला : हे भाई, गोलोकचन्द्र बसु का भवन इसी ग्राम में अवश्य है... पिताजी से सुना है, बसु महाशय बड़े सज्जन पुरुष हैं - कायस्थ - कुल-तिलक ।
नवीनमाधव : (प्रणाम करके) भगवन्, मैं उनका बड़ा पुत्र हूँ।
पहला : अवश्य, अवश्य! अहा, हा! साधु-साधु ! ऐसी सुसन्तान साधारण पुण्य का फल नहीं, जैसा वंश...
अस्मिंस्तु निर्गुणं गोत्रे नापत्यमुपजायते
आकरे पद्यरागानां जन्म काचमणेः कुतः
शास्त्र का वचन व्यर्थ नहीं जाता। तर्कालंकार भैया, श्लोक पर ध्यान दिया ? हा हा हा । (सुँघनी लेता है।)
दूसरा : हम लोग सौगन्धा के अरबिन्द बाबू द्वारा आमन्त्रित हैं। आज गोलोकचन्द्र के भवन में निवास होगा, तुम लोगों को कृतार्थ करेंगे।
नवीनमाधव : बड़े सौभाग्य की बात है, इस ओर चलिए ।
( सबका प्रस्थान ।)
तृतीय अंक
प्रथम गर्भांक
[ बेगुनबाड़ी कोठी के दफ्तर के सामने । गोपीनाथ और एक खलासी का प्रवेश । ]
गोपीनाथ : जब तक तुम्हारे हिस्से में कमी नहीं आती मेरे कान तक कोई बात पहुँचाने की तुम परवाह नहीं करते ।
खलासी : अजी सा'ब, अकेले हजम हो सकै है? मैंने कहा, खाना है तो दीवानजी को देकर खाओ। तो कहने लगे, 'बड़े आये तेरे दीवानजी । यह कोई केवट का पूत नहीं कि साहब के बन्दरों को खिलाता फिरै। '
गोपीनाथ : अच्छा, तू अब जा । कायस्थ बच्चा कैसा होता है यह मैं दिखाऊँगा । ( खलासी का प्रस्थान ।) छोटे साहब के बल पे साले को इतना घमंड हो गया है। मैं यह भी कहूँगा कि अगर मालिक ही बहिन का आदमी हो तो गाड़ी क्यों न सीधी-सीधी चलती जाए। वह बात भी कहूँगा... बड़े साहब को उससे तो आग लग जाती है। पर बच्चू मेरे ऊपर बड़ा नाराज है, मुझे बात-बात में श्यामचन्द दिखाता है। उस दिन मोजा पहने लात मारी। कुछ दिन से जरा ठीक-ठीक दिखाई पड़ता है। गोलोक बसु पर मुकदमा चलने के बाद से मेरे ऊपर मेहरबान हुआ है। लोगों का सत्यानाश करने से साहब खुश होते हैं। सौ को मार वैद्य बनता है। (वुड को आता देखकर) यह लो, आ रहे हैं। पहले बसु चर्चा करके मन को नरम करूँ। (वुड का प्रवेश।) धर्मावतार, अब नवीन बोस को चाँद-तारे नजर आये। बेटा की ऐसी अक्ल दुरुस्त पहले कभी न हुई थी। बेटा का बाग छिनवा लिया गया, जमीन-जायदाद तहस-नहस हो गयी, खेती बर्बाद हुई, बेटा की अनाज की खत्तियाँ खाली हो गयीं, दो बार फौजदारी सुपुर्द हो चुका। तिस पर भी अभी तक सिर ताने था, पर अब एकदम चित पड़ा है।
वुड : साला श्यामनगर में कुछ नहीं कर सका।
गोपीनाथ : हुजूर, मुंसी उसके पास आये थे, तो बेटा बोला, 'मेरा मन ठीक नहीं, पिता के रोने से हाथ-पैर ढीले पड़ गये हैं, मुझे कुछ नहीं सूझता।' नवीन बसु की दुर्गत देख श्यामनगर के 7- 8 किसान फरार हो गये हैं और बाकी सब हुजूर ने जैसा हुक्म दिया है वही करते हैं।
वुड : तोम अच्छा दीवान है, अच्छा तरकीब निकाला।
गोपीनाथ : मैं जानता था गोलोक बसु बड़ा डरपोक आदमी है। फौजदारी में जाना पड़ा तो पागल हो जाएगा। नवीन बसु की पिता पर • जैसी भक्ति है उससे वह बेटा भी काबू में आ जाएगा। इसीलिए बुड्ढे को फँसाने के लिए कहा था । हुजूर ने जो चाल चली है उसके भी क्या कहने! बेटा के तालाब के किनारे जुताई हो रही है। उनके दिल पर साँप लोट रहा होगा ।
वुड : एक ढेला से दो चिड़िया मरा। दस बीघा नील हुआ, भैंचो को तकलीफ पहुँचा। साला बड़ा रोना पीटना मचाता था, कहता था तालाब में नील होने से घर छोड़ जाएगा। हाम बोला घर की जमीन पर नील बड़ा अच्छा होता है।
गोपीनाथ : वह जवाब पाकर ही बेटा ने नालिश की है।
वुड : मोकदमा कुछ नहीं होगा। यह मजिस्ट्रेट बड़ा अच्छा आदमी है दीवानी करने से पाँच बरस में भी मोकदमा खतम नेहीं होगा । मजिस्ट्रेट हमारा बड़ा दोस्त है। देखो, हमारा गवाही मान कर नया कानून में चार बदमाश लोग को जेल भेजा। यह कानून तो श्यामचन्द का भी बाप निकला।
गोपीनाथ : धर्मावतार, उन चारों किसानों की फसल बचाने के लिए नवीन बसु अपने हल-बैल और नौकरों से उनकी जमीन जुतवा रहा है और उनके घरवालों को तकलीफ न हो, इसका भी इन्तजाम कर रहा है।
वुड : साला ब्याना का जमीन जोतने का बखत कहता है मेरा हल- बैल नेहीं। बड़ा ही बदमाश आदमी है। अच्छा चंगुल में फँसा दीवान, तोम अच्छा काम किया, तोमसे काम बेहतर चलेगा।
गोपीनाथ : धर्मावतार की कृपा मेरी इच्छा है हर बरस बयाने में बढ़ती हो। पर यह काम अकेले का नहीं। इसमें भरोसे के अमीन- खलासी चाहिए। जो आदमी दो रुपये के लिए हुजूर के तीन बीघा नील का नुकसान करता है उसके हाथों काम में तरक्की हो सकती है?
वुड : हाम समझ गया, अमीन साला ने गोलमाल किया।
गोपीनाथ : हुजूर, चन्दू गोलदार यहाँ नया आया है। अभी तक उस पर कोई बयाना नहीं था। अमीन ने उसके आँगन में कायदे के मुताबिक एक रुपया बयाना कहकर डाल दिया। वह रुपया लौटाने के लिए बड़ा रोया-पीटा और खुशामद करता-करता रथतला तक अमीन के साथ-साथ आया । रथतला में नीलकंठ बाबू मिल गये, वही जो कालेज से एकदम वकील होकर निकले हैं।
वुड : हाम जानता है उसे । वह बदमाश हमारा बात अखबार में छपाता है।
गोपीनाथ : आप लोगों के अखबार के सामने उनका अखबार नहीं टिक सकता, कोई मुकाबला ही नहीं। जैसे सूरज के सामने दीपक । पर अखबारों को हाथ में करने में हुजूर का बड़ा खरच हुआ है। बड़ा बुरा वक्त है।
वुड : नीलकंठ ने क्या किया ?
गोपीनाथ : नीलकंठ बाबू ने अमीन को बहुत डाँटा-फटकारा। अमीन इससे दबकर गोलदार के घर लौट गया और दो रुपयों के साथ बयाने का रुपया वापिस ले आया । चन्दू गोलदार शैतान है, तीन-चार बीघे नील आसानी से दे सकता था। नौकर का क्या यही फरज है? मैं दीवानी अमीनी दोनों कर सकूँ तभी यह नमकहरामी मिट सकती है।
वुड : बड़ा बदमाशी है, साफ नमकहरामी है।
गोपीनाथ : धर्मावतार, बेअदबी माफ हो... अमीन अपनी बहिन को छोटे साहब के कमरे में लाया था।
वुड : हाँ-हाँ, हाम जानता है। वह बदमाश और पदी मिसरानी ने छोटे साहब को खराब किया। बदमाश को हाम जरूर सबक सिखलाएगा। उस हरामी को हमारा बैठने का कमरा में भेज दो।
(वुड का प्रस्थान ।)
गोपीनाथ : अब देखो, किसके हाथ में बन्दर ठीक खेलता है। कायत धूर्त और कौवा धूर्त !
अबकी है कायत का वार
जिससे दुनिया माने हार !
द्वितीय गर्भांक
[ नवीनमाधव का शयनगृह। नवीनमाधव और सैरिन्ध्री बैठे हैं।]
सैरिन्ध्री : प्राणनाथ, गहने पहले हैं या ससुर जी पहले ? तुमने जिसके लिए दिन-रात एक कर रखा है, जिसके लिए तुमने खाना- पीना छोड़ दिया, तुम्हारी आँखों से दिन-रात लगातार आँसू बह रहे हैं, तुम्हारा खिला हुआ चेहरा मुर्झा गया है, जिसके कारण तुम्हें सिरदर्द रहने लगा है... हे नाथ, उसके लिए मैं क्या ये नाचीज गहने नहीं दे सकूँ ?
नवीनमाधव : प्रिये, तुम तो आसानी से दे सकती हो, पर मैं किस मुँह से लूँ? स्त्री को गहने पहनाने के लिए पति को कितनी मेहनत करनी होती है। तेज नदी में तैरना, डरावने समुद्र में स्नान, युद्ध में प्रवेश, पहाड़ की चढ़ाई, जंगल में निवास, बाघ का सामना... पति इतने कष्ट उठाकर पत्नी को गहने पहनाता है। मैं क्या ऐसा गया- बीता हूँ कि पत्नी के उन्हीं गहनों को छीन लूँ? हे कमललोचनी, धीरज रखो। आज देखूं, अगर किसी तरह भी रुपये का प्रबन्ध न हो सका तो कल तुम्हारे गहने ले लूँगा ।
सैरिन्ध्री : हृदयवल्लभ ! ये हमारे बड़े बुरे दिन हैं। इस वक्त कौन तुम्हें भरोसे पर पाँच सौ रुपये उधार देगा? मैं फिर मिन्नत करूँ हूँ मेरी और छोटी बहू के गहने महाजन के यहाँ रखकै रुपये का प्रबन्ध करो। तुम्हारा कष्ट देखकै मेरी सोने के कमल जैसी छोटी बहू मुरझा गयी है।
नवीनमाधव : हाय, चन्द्रमुखी! तुमने कैसी कठोर बात कह दी। मेरे हृदय में जैसे कोई अग्निबाण आ लगा हो। छोटी बहू तो हमारी बच्ची है। अच्छे कपड़े, अच्छे गहने ही उनके खिलौने हैं। उन्हें क्या समझ ? वह घर-गृहस्थी की बात क्या समझेंगी ? खेल-खेल में विपिन से गले का हार छीन लेने से वह जैसे रोता है, छोटी बहू के गहने ले लेने से वह भी वैसे ही रोएँगी। हा ईश्वर ! मुझे ऐसा कायर बनाया ! मैं ऐसा निर्दयी डाकू हूँ। मैं बच्ची से गहने छीनूँगा? ऐसा जीना वृथा है। नराधम निष्ठुर नीलकर भी ऐसा काम नहीं कर सकते। प्रिये, ऐसी बात फिर मुँह पर मत लाना।
सैरिन्ध्री : प्राणनाथ, मैंने छाती पर जैसा पत्थर रखकर यह कठोर बात कही, वह मैं ही जानूँ और अन्तर्यामी परमेश्वर जानें। उसके अगिनबान होने में क्या सन्देह ! उसने मेरे दिल के टुकड़े किये, जीभ जला दी, बाद में होठ भेदकर तुम्हारे हृदय में प्रवेश किया। प्राणनाथ, बड़े कष्ट से ही मैंने छोटी बहू के गहने लेने की बात कही। तुम्हारा पागलों जैसा भटकना, ससुर जी का रोना, सासूजी की लम्बी साँसें छोटी बहू का उदास चेहरा, जाति - भाइयों का नीचा मुख, प्रजा किसानों का हाहाकार, यह सब देखने के बाद भी खेलकूद, आमोद-आनन्द में मन लग सकै ? इस मुसीबत से किसी तरह पीछा छूटे तो सबकी जान में जान आये। हे नाथ, विपिन के गहने देने में मुझे जो कष्ट होगा, वही कष्ट छोटी बहू के गहने देने में है। पर छोटी बहू से पहले विपिन के गहने उतारना छोटी बहू के साथ निष्ठुरता होती। वह सोचती जीजी ने शायद मुझे पराया समझा। मैं क्या ऐसा करके उसके सरल मन को ठेस पहुँचाती ? क्या यह माता समान जेठानी के योग्य काम होता ?
नवीनमाधव : प्यारी, तुम्हारा दिल बड़ा साफ है। तुम्हारी जैसी सरल स्त्री दूसरी नहीं होगी। हाय ! मेरी ऐसी गृहस्थी क्या से क्या हो गयी! मैं क्या था क्या हो गया। मेरी सात सौ रुपये मुनाफे की पूँजी, मेरा पन्द्रह खत्ती धान, सोलह बीघे बाग, मेरे बीस हल, पचास नौकर-चाकर! पूजा के समय कैसा समारोह होता था, लोगों से घर भर जाता था ! ब्राह्मण भोजन, गरीबों को अन्न, नाते-रिश्तेदारों का आहार, वैष्णवों का गान, खुशीभरे जुलूस - मैंने कितना धन खर्च किया है। पात्र खोजने में सौ रुपये दान किये हैं! हाय! ऐसा ऐश्वर्यशाली होकर अब मैं पत्नी और भाई की बहू के गहने छीनने जा रहा हूँ। कैसी विडम्बना है। परमेश्वर ! तुम्हीं ने दिया था, तुम्हीं ने ले लिया, उसका दुख कैसा...
सैरिन्ध्री : प्राणनाथ, तुम्हें दुखी देखते ही मेरा दिल रोने लगता है। (सजल नेत्रों से) मेरे भाग में इतना दुख बदा था, स्वामी की ऐसी दुर्गति देखनी पड़ी!... अब और न रोको... ( बाजूबन्द खोलती है।)
नवीनमाधव : तुम्हारी आँखों में आँसू देखकर मेरा हृदय फटता है। (आँसू पोंछते हुए) चुप हो जाओ, हे चन्द्रमुखी, चुप हो जाओ । (हाथ पकड़कर) ठहरो, एक दिन और देख लें।
सैरिन्ध्री : प्राणनाथ, और कोई चारा नहीं... जो कहती हूँ वही करो। भाग में होंगे तो बहुत गहने हो जाएँगे। (नेपथ्य में खाँसी का शब्द ) सच, सच, आदुरी आ रही है।
(दो पत्र लिये हुए आदुरी का प्रवेश ।)
आदुरी : दो चिट्टियाँ हैं, कहाँ से आयीं, मुझे नहीं पता, माँजी ने तुम्हारे हाथ में देने को कहा है ।
(चिट्ठियाँ देकर चली जाती है।)
नवीनमाधव : तुम लोगों के गहने नहीं लेने पड़ेंगे, शायद इन दोनों चिट्ठियों से यही पता चले। (पहला पत्र खोलता है।)
सैरिन्ध्री : जोर से पढ़ो।
नवीनमाधव : (पढ़ता है) 'आशीर्वाद स्वीकार करें। आपको रुपया देना उपकार का बदला चुकाना भर है। पर मेरी माता जी का कल स्वर्गवास हो गया है। उनके कृत्य के दिन बहुत कम हैं। यह खबर श्रीमान जी को कल ही लिख चुका हूँ... तम्बाकू अभी तक नहीं बिकी है। भवदीय श्री घनश्याम मुखोपाध्याय।'- कैसा दुर्दैव है। मुखोपाध्याय महाशय की माता के श्राद्ध में मेरा क्या यही कर्तव्य है । देखूँ, तुमने कौन-सी तलवार छिपा रखी है। (दूसरी चिट्ठी खोलता है।)
सैरिन्ध्री : प्राणनाथ, आशा करके निराश होने में बड़ा कष्ट है... यह चिट्ठी ऐसे ही रहने दो....
नवीनमाधव : (पत्र पढ़ता है।)
'प्रतिपाल्य श्री गोकूल कृष्ण पालितस्य,
विनयपूर्वक नमस्कार निवेदनंच ।
आपके मंगल में ही मेरा मंगल है। पत्र मिला, समाचार विदित हुए। मैंने तीन सौ रुपये का प्रबन्ध कर लिया है। कल उनके साथ आपके पास पहुँचूँगा। बाकी एक सौ रुपया अगले महीने चुका दूँगा। आपने जो उपकार किया है, उसके लिए मैं थोड़ा- सा सूद देने का अभिलाषी हूँ।'
सैरिन्ध्री : शायद भगवान ने सुन ली। जाऊँ, जाकर छोटी बहू से कहूँ ।
( सैरिन्ध्री का प्रस्थान ।)
नवीनमाधव : (स्वगत) मेरी प्रिया सरलता की पुतली है। यह तो उमड़ती हुई नदी में तिनके के समान है। इसके सहारे पिता को इन्द्राबाद तो ले जाऊँ। बाद में जो भाग्य में होगा सो होगा। डेढ़ सौ रुपया हाथ में है। तम्बाकू महीने भर रोकी जा सकती तो पाँच सौ रुपये में बिकती। पर क्या करूँ, साढ़े तीन सौ में ही निकालनी पड़ी। अमले का बहुत खर्च लगेगा, आने-जाने में भी बड़ा खर्च है। ऐसे झूठे मुकदमे में भी सजा हुई तो समझँगा इस देश में प्रलय होने वाली है। कैसा निष्ठुर कानून बना है। पर कानून की क्या गलती है ? कानून बनाने वालों की भी क्या गलती है ? जिन लोगों के हाथों में कानून सौंपा गया है वे अगर ईमानदार हों तो फिर देश की दुर्दशा ही काहे को हो ? हाय! इस कानून से कितने लोग बेकसूर जेलखाने में सड़ रहे हैं। उनके घरवालों का दुख देखकर दिल फटने लगता है। चूल्हे की हाँड़ी चूल्हे पर ही पड़ी है। आँगन का धान आँगन में ही सूखा जाता है, गोशाला के जानवर वहीं बँधे हैं। खेत में जुताई पूरी नहीं हुई, सब खेतों में बीज नहीं बोया जा सका, धान के खेतों की घास नहीं निकाली जा सकी। बरस भर का क्या सहारा है ? 'कहाँ नाथ, कहाँ भात' की पुकार के साथ धूल में पड़े बिलख रहे हैं। कोई-कोई मजिस्ट्रेट इन्साफ भी करते हैं। उनके हाथों यह कानून यमदंड नहीं बना। अहा ! अगर सभी अमरनगर के मजिस्ट्रेट की तरह न्याय करनेवाले होते तो क्या किसानों के पके धान में घुन लगता, अनाज भरे खेतों में कीड़े गिरते ? तो क्या मुझे इस भारी मुसीबत में पड़ना होता? हे लेफ्टिनेंट गवर्नर ! जैसा कानून बनाया था, वैसे ही सज्जन लोगों को नियुक्त भी करते तो यह सत्यानाश न होता ! हे देशपालक! अगर एक ऐसी धारा भी जोड़ देते कि मुकदमा झूठा साबित होने पर मुद्दई को सजा होगी, तो अमरनगर की जेल नीलकरों से भर जाती, और वे लोग इतने प्रबल न हो पाते। हमारे मजिस्ट्रेट की बदली हो चुकी है, पर यह मुकदमा खत्म होने तक यहीं रहेंगे। ऐसा हुआ तो हम लोगों की खैर नहीं।
(सावित्री का प्रवेश।)
सावित्री : नवीन, सब हल अगर छोड़ दो, क्या तो भी ब्याना लेना पड़ेगा ? हल-बैल सब बेचकर व्यापार करो, उससे जो आमदनी होगी उससे आराम से कट जाएगी। यह मुसीबत अब और नहीं सही जाती।
नवीनमाधव : माँ, मेरी भी यही इच्छा है। बस बिन्दु का काम लगने की राह देखता हूँ। अभी खेती छोड़ देने से गृहस्थी चलना कठिन हो जाएगा। इसीलिए इतनी परेशानी में भी कुछेक हल रख छोड़े हैं।
सावित्री : ऐसा दुखता सिर लेकर कैसे जाएगा, बता? हाय परमेश्वर ! ऐसा नील यहाँ पड़ा था ! (नवीन के माथे पर हाथ मलती है।)
(रेवती का प्रवेश।)
रेवती : माँजी, मैं कहाँ जाऊँ, क्या करूँ? क्या किया, क्यों मरने के लिए बुला लायी ? दूसरे की चीज घर में सँभाल कर न रख सकी! बड़े बाबू, मुझे बचाओ, मेरे तो प्रान निकल चले... मेरी छेत्तरमनी को ला दो, मेरी सोने की गुड़िया को ला दो ।
सावित्री : क्या हुआ ? हुआ क्या है?
रेवती : मेरी छेत्तरमनी संझा को पेंचा की माँ के साथ दास दीघी से पानी लाने गयी थी। बाग में होकर आते बखत चार लठैत बिटिया को पकड़ ले गये। पदी कलमुँही दिखाकर भाग गयी। बड़े बाबू दूसरे की अमानत है, मैंने क्या किया? क्यों बुलाया ? बड़े चाव से बिटिया का कारज करूँगी, सोचा था।
सावित्री : सत्यानाश हो गया। ये हत्यारे सब कुछ कर सके हैं...लोगों की जमीनें छीनें, धान छीनें, गाय-बैल छीनें। लाठी के जोर से नील कराएँ। लोग चाहे रोकर चाहे झींककर करें ही हैं। पर यह क्या? भले आदमियों की जात लेना ?
रेवती : माँजी, आधा पेट खाकर नील कर रहे हैं, जिस खेत में निसान लगाया, उसी में नील बोया रायचरण जमीन जोतता जाए और हिलकियों से रोता जाए। खेत से लौटते ही वह तो यह बात सुनकर पागल हो जाएँगे।
नवीनमाधव : साधु कहाँ है?
रेवती : बाहर बैठे रो रहे हैं।
नवीनमाधव : सतीत्व, कुलीन महिलाओं का सबसे मूल्यवान मणि! सतीत्व भूषण से सुशोभित रमणी कितनी सुन्दर लगती है ! स्वरपुर के भीम के जीवित रहते कुलकामिनी का अपहरण! अभी जाऊँगा... कैसा दु:शासन है, देखता हूँ। सतीत्व के श्वेत उत्पल पर नीलमंडूक कभी न बैठ सकेगा।
( नवीन का प्रस्थान ।)
सावित्री : सतीत्व भगवान का दिया हुआ रतन है। इससे कंगालिनी भी रानी हो जाती है। अगर नील बन्दरों के हाथ से पवित्र रतन के अपवित्र होने से पहले ही ला सके, तभी तुम्हें मेरा गर्भ में धारण करना सार्थक होगा। ऐसा अत्याचार आज तक कभी नहीं सुना। चल, घोषबहू, बाहर चलें।
(दोनों का प्रस्थान ।)
तृतीय गर्भांक
[ रोज़ साहब का कमरा। रोज़ बैठा हुआ है। पदी मिसरानी और क्षेत्रमणि का प्रवेश ]
क्षेत्रमणि : मिसरानी बुआ, मुझसे ऐसी बात न कहो। मैं जान दे सकती हूँ, धरम नहीं । मेरे काटकर टुकड़े-टुकड़े कर दो, मुझे जला डालो, बहा दो, बाँध के रखो। मैं पराये मर्द को नहीं छू सकती। मेरा आदमी क्या सोचेगा ?
पदी : तेरा आदमी कहाँ और तू कहाँ? यह बात किसी को न पता चलेगी। आज रात को ही मैं तुझे अपने साथ तेरी माँ के घर पहुँचा आऊँगी।
क्षेत्रमणि : आदमी को पता न भी चले... ऊपर के देवता तो जान जाएँगे! देवता की आँखों में तो धूल न झोंक सकूँगी। मेरे भीतर जो दिन-रात, आग सुलगती रहेगी। मेरा पति सती समझकर मुझे जितना प्यार करेगा, उतना ही मेरा जी जलेगा। कोई जाने या न जाने, मैं कभी किसी दूसरे मरद को न छू सकूँगी।
रोज़ : पद्मा, पलंग पर ले आ न ।
पदी : आ बेटी, साहब के पास आ जा । तुझे जो कहना हो उन्हीं से कह । मुझसे कहना तो जंगल में रोने के बराबर है।
रोज़ : हमको बोलना सूअर के पंजे से छूटने का माफिक ! हा-हा- हा! हम नीलकर है। हम दूसरा जम है। खड़ा खड़ा कितना गाँव जला दिया, बेटा को दूध पिलाता हुआ कितना माँ लोग जलकर मर गया। वह देखकर क्या हमको तरस आता ? तरस आता तो क्या हमारा कोठी रहता ? हाम लोग बुरा आदमी नेहीं, नील का काम में हमारा सुभाव ही ऐसा हो गया। एक आदमी को मारने में दुख होता था, अब हम दस औरतों को बेदम करके रामकान्त से पिटाई करता है और फिर तभी हँसते-हँसते खाना खाता है। हमको औरत लोग बड़ा प्यारा लगता है। कोठी का काम में इसका बड़ा सहूलियत होता है। समन्दर में सब मिल जाता है। तेरा बदन में जोर नहीं... पद्मा, खींच ला ।
पदी : छेत्तरमनी, मेरी रानी बिटिया, पलंग पर आ जा, साहब तुझे एक मेम की पोशाक देंगे, कह चुके हैं।
क्षेत्रमणि : मेम की पोशाक में आग लगे। टाट पहनना पड़े वह भी अच्छा है पर मेम की पोशाक न पहननी पड़े। मिसरानी बुआ, मुझे बड़ी प्यास लगी है। मुझे घर पहुँचा दे। पानी पीकर चैन आएगा। हाय, हाय! मेरी माँ ने तो अब तक गले में फाँसी लगा ली होगी, बाप ने सिर पर कुल्हाड़ी मार ली होगी, मेरा चाचा जंगली भैंसे की तरह इधर से उधर झपट रहा होगा। मेरी माँ के और कोई नहीं, बाप और चाचा दोनों के बीच मैं अकेली लड़की हूँ। मुझे छोड़ दे, मुझे घर पहुँचा आ, तेरे पैरों पड़ती हूँ। पदी बुआ, तेरा गू खाऊँ मैया री, मर गयी, प्यासी मर चली।
रोज़ : कूंजा में पानी है, दे दो।
क्षेत्रमणि : हिन्दू की बेटी होकर साहब का पानी पी सकती हूँ? मुझे लठैतों ने छुआ है, मैं घर लौटकर नहाये बिना तो भीतर भी न जा सकूँगी।
पदी : (स्वगत) मेरा तो धरम भी गया और जात भी (जोर से) तो बेटी मैं क्या करूँ? साहब के चंगुल में पड़कर छूटना कठिन है। छोटे साहब, छेत्तरमनी आज घर चली जाए, फिर किसी दिन आ जाएगी।
रोज़ : तो तोम हमारा साथ मजा लूटो ! तू कमरा में से जा, हमको जोर होगा तो नरम कर लेगा, नेहीं तो तेरे साथ घर भेज देगा.... डेम्नेड व्होर ! हमको लगता है तूने ही रोका होगा, तभी भले घर की लड़की को लठैतों की मदद से लाना हुआ। नील के लठैत इस काम के लिए कभी नेहीं देता। हरामजादी, पदी मिसरानी !
पदी : अपनी कली को बुलाओ। वही तुम्हें बड़ी प्यारी लगने लगी है, यह मैं समझ गयी हूँ।
क्षेत्रमणि : मिसरानी बुआ, जा मत मिसरानी बुआ, तू मत जा (पदी का प्रस्थान ) मुझे काले साँप के बिल में, अकेला छोड़ गयी है। मुझे डर लगता है, कँपकँपी आ रही है, डर से सिर चकरा रहा है, प्यास से गला सूख रहा है....
रोज़ : डियर, डियर (अपने दोनों हाथों से क्षेत्रमणि के दोनों हाथ पकड़कर खींचता है) आओ, आओ....
क्षेत्रमणि : ए साहब, तुम मेरे बाप हो, ए साहब तुम मेरे बाप हो। मुझे छोड़ दो, पदी बुआ के साथ मुझे घर भेज दो। अँधेरी रात है, मैं अकेली न जा सकूँगी। (साहब हाथ खींचता है) ए साहब जी, तुम मेरे बाप के समान हो, ए साहब जी, तुम मेरे पिता के समान हो। हाथ पकड़ने से जात चली जाती है, छोड़ दो, तुम मेरे पिता हो।
रोज़ : तेरा बेटा का बाप होने चाहता। हम किसी तरह धोखे में नहीं आएगा। पलंग पर आ जाओ नहीं तो लात से पेट फाड़ देगा ।
क्षेत्रमणि : मेरा बच्चा मर जाएगा, दुहाई साहब, मेरा बच्चा मर जाएगा। मैं गरभवती हूँ ।
रोज़ : तुझे नंगा किये बिना तेरा शरम नहीं जाएगा।
(कपड़े खींचता है।)
क्षेत्रमणि : ओ साहब, मैं तुम्हारी माँ हूँ, मुझे नंगा मत करो। तुम मेरे बेटे हो, मेरी धोती छोड़ दो... (रोज़ के हाथ में नाखून गड़ा देती है।)
रोज़ : इन्फर्नल बिच ! (बेंत उठाकर) अब तोमारा छिनालपना निकालता है ।
क्षेत्रमणि : मुझे बिलकुल मार डालो, मैं कुछ नहीं कहूँगी। मेरी छाती पर तलवार चला दो, मैं सुरग चली जाऊँ... ओ गूखानी के बेटे, ओ कलमुँही के बेटे, तेरे सब घरवाले मर जाएँ। फिर मेरे बदन को हाथ लगाया तो दाँतों से तेरे हाथ चींथकर टुकड़े-टुकड़े कर दूँगी। तेरे माँ-बहन नहीं है, जाकर उनकी धोतियाँ उतार । खड़ा क्यों है, ओ बहन के खसम, मार न मेरी जान ले ले। और अब मुझसे सहा नहीं जाता।
रोज़ : चुप रह हरामजादी। छोटे मुँह बड़ी बात ।
(पेट में घूँसा मारता है और बाल पकड़कर खींचता है।)
क्षेत्रमणि : मैया, कहाँ गयी ? पिताजी कहाँ गये ? देखो तुम्हारी छेत्तर मर चली। (काँपती है)
(खिड़की की चटखनी तोड़कर नवीनमाधव और तोराप का प्रवेश)
नवीनमाधव : (रोज़ के हाथ से क्षेत्रमणि के बाल छुड़ाते हुए) रे नराधम, नीच नीलकर, यही तुम्हारा ईसाई धर्म है ? यही तुम्हारी ईसाइयों की दया, विनयशीलता है ? हाय, हाय ! बालिका, अबला, गर्भवती स्त्री के साथ ऐसा निर्दय व्यवहार !
तोराप : साला ऐसे खड़ा है जैसे काठ की मूरत... शैतान की जबान बन्द हो गयी। बड़े बाबू, इस साले का कोई ईमान है जो धरम की बात सुनेगा । इसके जैसे कुत्ते के लिए डंडा चाहिए। साला कैसे देख रहा है! इसे मेरे हाथ के थप्पड़ की जरूरत है। (गर्दन पकड़कर थप्पड़ मारते हुए) चिल्लाया तो जहन्नुम भेज दूँगा। (गला दबाते हुए) पाँच दिन चोर की, एक दिन साह की। पाँच दिन खिलाया, अब एक दिन खा। (कान मलता है।)
नवीनमाधव : डर क्या है, अच्छी तरह साड़ी पहन लो। (क्षेत्रमणि कपड़े पहनती है।) तोराप, तू बदमाश का गला दबाये रख, मैं छेत्तर को लेकर चलता हूँ। गोरों के मोहल्ले से बाहर हो जाऊँ तब तुम इसे छोड़कर भाग निकलना। नदी के किनारे से जाने में बड़ा कष्ट है, मेरी सारी देह काँटों से छिद गयी है। अब तक सब गोरे सो गये होंगे, खासकर यह बात सुनकर भी कुछ न कहेंगे। तुम उसके बाद हमारे घर आना। तू इन्द्राबाद से कैसे भागा और कहाँ रहता है यह मैं सुनना चाहता हूँ।
तोराप : मैं आज रात ही नदी तैरकर घर पहुँचूँगा। मेरी कहानी और क्या सुनेंगे? मैं साले मुख्तार के अस्तबल का झरोखा तोड़कर भाग निकला और सीधा बसन्त बाबू की जमींदारी में जा पहुँचा। उसके बाद रात को बालबच्चों को घर से ले आया । इस साले ने ही तो निकाला, खेती करके पेट भरने का कोई रास्ता बाकी नहीं छोड़ा है? नील ने जान आफत में कर रखी है... और ऊपर से नमकहरामी करने को कहता है। क्यों बे साले, गिटपिट करके जूते की ठोकर अब नहीं मारता ?
( घुटने से ठोकर मारता है ।)
नवीनमाधव : तोराप, मारने की क्या जरूरत है? ये लोग बेरहम हैं इसलिए हमारा भी निर्दयी होना ठीक नहीं। मैं चलता हूँ।
( क्षेत्रमणि के साथ नवीनमाधव का प्रस्थान ।)
तोराप : ऐसे आदमी को भी बेघरबार करना चाहता है? अपने बड़े बाप से कह और समझा-बुझाकर काम करा ले, जोर- जबरदस्ती कितने दिन चलेगा ? छोड़कर चले गये तो कुछ न कर सकेगा? राँड़ से ज्यादा कोसा क्या ? साली सब रैयत भाग गयी तो कोठी कबर में पहुँच जाएगी। बड़े बाबू के पिछले रुपये चुका दे और इस साल जितना नील बोना चाहते हैं उतना ही मान ले। तेरी वजह से ही वे लोग इतने दुखी हैं। ब्याना लेने से ही तो कुछ नहीं होता, जुताई भी तो करनी पड़ती है। छोटे साहब, सलाम, मैं चला।
( रोज़ को चित पटककर भाग जाता है।)
रोज़ : बाइ जोव! बीटन टू जैली !
(प्रस्थान ।)
चतुर्थ गर्भांक :
[ गोलोक बसु के भवन का दालान । सावित्री का प्रवेश]
सावित्री : (दीर्घ निश्वास छोड़ते हुए) ओ निर्दयी हाकिम ! तूने मुझे भी क्यों नहीं तलब कर लिया? मैं भी पति-पुत्र के साथ जिले के शहर चली जाती। इस श्मशान में रहने से वही अच्छा होता। हा! मेरे पति को तो घर के बिना आराम नहीं, कभी दूसरे गाँव दावत तक में नहीं जाएँ। उनके भाग में इतना दुःख बदा था। फौजदारी में पकड़कै ले गये, उन्हें जेल जाना पड़ेगा। हे भगवती ! तुम्हारी यही इच्छा थी, माता? हाय, हाय! वह कहे हैं, अपने ओसारे के सिवाय उन्हें नींद नहीं आवै, बस आतप चावल का ही भात खावें, और वह भी बड़ी बहू के हाथ का न हो तो नहीं खावें । हाय! छाती पीट-पीटकर खून निकाल लिया, रोते-रोते आँखें सूज गयीं। जाते समय कहने लगे, 'यही मेरी गंगायात्रा है'... ( रोने लगती है)। नवीन कहै है, 'माँ अपनी भगवती को पुकारो, मैं अवश्य जीतकर उनके साथ लौटूँगा।' मेरे बेटे का सोने का सा मुँह स्याह हो गया है। रुपए का इन्तजाम करने में ही कितनी परेशानी हुई, चक्कर काटते- काटते घनचक्कर हो गया। मैं कहीं बहुओं के गहने न देने लगूँ, इस डर से मुझे तो हिम्मत बँधाया करै 'माँ, रुपये की क्या कमी है? मुकदमे में ऐसा क्या खरच होगा?' जायदाद के मुकदमे में मेरे गहने गिरवी रखकर पिता जी को कितना दुःख हुआ था। कहे थे, कुछ रुपया हाथ में आते ही सबसे पहले बिटिया के गहने छुड़ाकर लाऊँगा।' पिताजी के मुँह पर साहस और आँखों में आँसू होवे थे। उन्होंने रोते-रोते ही प्राण छोड़े ।... मेरा नवीन इस धूप में इन्द्राबाद गया और मैं घर में बैठी हूँ... महापापिनी ! यही तेरी माँ की ममता है!
(सैरिन्ध्री का प्रवेश।)
सैरिन्ध्री : अम्मा जी, बड़ी देर हो गयी, नहा लीजिए। हमारी ही तकदीर फूटी है, नहीं तो ऐसी बात होती ही क्यों ?
सावित्री : (रोते-रोते) नहीं बेटी, मेरा नवीन जब तक घर लौटकर नहीं आता मैं अन्न-जल नहीं लूँगी। मेरे लाल को कौन खिलाएगा?
सैरिन्ध्री : वहाँ देवर जी रहते हैं, रसोइया है, कोई तकलीफ नहीं होगी । आप नहा लीजिए। (तेल का बर्तन लिए सरलता का प्रवेश ।) छोटी बहू, तुम माता जी को तेल लगाकर नहलाकर रसोईघर में ले आओ। मैं खाने का बन्दोबस्त करूँ ।
( सैरिन्धी का प्रस्थान । सरलता तेल मलती है।)
सावित्री : मेरी मैना चुप हो गयी, बिटिया के मुँह से कोई बात नहीं निकलती। मेरी बेटी बासी फूल की तरह मुरझा गयी है। हाय, हाय ! बिन्दुमाधव को कितने दिन से नहीं देखा ! कॉलेज बन्द होगा तो बेटा घर आएगा, यही आशा लगा रखी थी। सो यह मुसीबत खड़ी हो गयी। (सरलता की ठोढ़ी छूकर ) बिचारी का मुँह सूख गया है, अभी तक स्यात् कुछ खाया नहीं। ऐसी मुसीबत में पड़ी हूँ, कि बच्चों का खाना-पीना हुआ या नहीं, यह भी कब देखूँ? मैं आप ही नहाये लेती हूँ, तुम जाकर कुछ खा लो, बेटा । चलो, मैं भी चलती हूँ ।
(दोनों का प्रस्थान ।)
(अनुवाद : नेमिचन्द्र जैन)