नेतिहास (गुजराती कहानी) : चंद्रकांत बख्शी
Netihas (Gujrati Story) : Chandrakant Bakshi
सरकारी कंट्राक्टर जैसे लग रहे एक दुर्जन ने पूछा- ‘क्या करते हैं आप?’ मीटर गेज ट्रेन की खड़खड़ाहट में उसने कुछ मोटी आवाज़ में जवाब दिया- ‘प्रोफेसर हूं!’
‘किस विषय के?’
वह मुस्कराया। बोला- ‘इतिहास का।’
‘अहमदाबाद में?’ दुर्जन को व्यंग्यात्मक आनंद आने लगा- जैसा सफल आदमी को असफल आदमी के साथ बात करते समय आता है, अथवा किसी स्कूली-मास्टर के साथ बात करते समय...
‘ना!’ उसने दुर्जन को आंखों से नाप लिया। फिर कुछ मुंह बनाया, जैसे झूठ बोलने की तैयारी में हो, बोला- ‘आक्सफोर्ड में था...’
दुर्जन दुनियादारी में माहिर था। तुरंत हार मान लेने वाला बिजनेसमैन वह नहीं था। पूछने लगा- ‘कहां... विलायत में?’ आंखों के कोनों में जरा-सी इज्जत की चमक।
‘विलायत में लंदन नाम का शहर है। वहां से करीब चालीस-पचास मील की दूरी पर है आक्सफोर्ड। वहां की यूनिवर्सिटी में मैं प्राचीन भारत का इतिहास...’
‘अच्छा इन्कम है वहां?’
‘पाउंड मिलत हैं वहां। एक पाउंड यानी... तीस रुपये?’ (छीना-झपटी। चक्रव्यूह।)
‘हमारे गांव का एक दर्जी भी वहीं है। अफ्रीका गया था। बाद में विलायत चला गया। कहते हैं, अपना मकान बना लिया है पट्ठे ने।’ (वन-अपमैनशिप!)
‘मैं भी यहां आया हूं।। मकान खरीदने के सिलसिले में। एक पालनपुर में खरीदना है। एक माउंट आबू में खरीद लेंगे।’ (हुकुम का इक्का!)
दुर्जन की आंखों में धंधेदारी की चमक आ गयी- ‘वाह भई, आपने तो विलायत का अच्छा फायदा उटाया। चलो, पहचान हो गयी। किसी रोज हवा खाने आबू आयेंगे और जगह नहीं मिलेगी तो... दुर्जन हंसने लगा- ‘आप ही के यहां आ धमकेंगे!’ ह...ह...ह...’
‘जरूर। माउंट आबू में सर्वेन्ट्स क्वार्टर्स वाला एक बंगला खरीदना है! फिर जगह की सुविधा हो जायेगी।’ इतिहास का प्रोफेसर खिड़की के बाहर ताकने लगा। (ब्लाइंड!)
‘इस समय आप आबू जा रहे हैं?’
‘नहीं। पहले पालनपुर। वहां मकान-वकान का फैसला कर लें, फिर आबू।’ (शह और मात!)
उंझा का स्टेशन! रेस्तरां कार वाला बैरा- ‘साब, थाली पालनपुर स्टेशन पर आयेगी। ले आऊं?’
‘नहीं। हम पालनपुर उतर जायेंगे।’
इतिहास के प्रोफेसर ने बटुए में से कड़कड़ाते नोट निकालकर बांये हाथ से, लापरवाही से बैरे के हाथ में थमा दिये। बैरे ने बाकी पैसे लौटा दिये! दुर्जन मानपूर्वक देखता रह गया। ट्रेन चली। दुर्जन ने नाश्ते की पोटली खोली और बोला- ‘लीजिये साहब...’
उसने चेहरे पर कृत्रिम घृणा लाते हुए देखा- ‘नहीं। आप खाइये। मुझे यह सब सूट नहीं करेगा...’ फिर जरा रुककर- ‘मैं रेस्तरां कार में ही खाता हूं।’ दुर्जन ने मक्खियां उड़ाते हुए डिब्बियां, शीशियां खोलनी शुरू की। एक कौर चबाते-चबाते वह पूछने लगा- ‘प्रोफेसर साहब, विलायत में मक्खियां होती हैं क्या?’
इतिहास का प्रोफेसर जरा रुककर हंस दिया- ‘मक्खियां तो सभी जगह होती हैं। मगर वहां की मक्खियां कानों में इतना सारा गुनगुन नहीं करतीं। एक बार आप उन्हें भगा दीजिये, बस, फिर गुनगुनाहट बंद।’
दुर्जन विलायती मक्खियों के बारे में सोचने लगा। इतिहास का प्रोफेसर भूगोल के विषय में सोचने लगा। वह गुजरात और राजस्थान की सीमा के पास आ गया था। तब तो इस ओर बाम्बे प्रेसिडेन्सी थी और उस पार था राजपूताना और उसके ‘देश’ के लोग, सीमावर्ती लोग कुछ विचित्र-सी मिली-जुली गुजराती-राजस्थानी बोलते थे।
पालनपुर का स्टेशन! गुजरात का अंत। राजस्थान का आरम्भ... करीब-करीब। तांगे वाले ने पूछा- ‘कहां जाना है?’
‘टूटे नीम।’
कितने वर्षों बाद! यहां बचपन गुजरा था, अतीत गुजरा था, इतिहास गुजरा था। जब छत के छप्पर पर सोते-सोते दस के फास्ट की सीटियां सुनी थीं, वह बचपन, जब अहमद भिश्ती अपने बूढ़ें बैल पर मोटे चमड़े की मशक डालर आता था और वह दौड़कर दोनों तरफ दो बाल्टियां रख आता था, वह अतीत, जब मिडिल स्कूल से लौटते समय रास्ते में कुंए में झांककर वह अपना नाम बोलता था और नाम की प्रतिध्वनि फैल जाती थी, पुरे शरीर में खुशी की कंपन के करेंट की तरह, वह इतिहास...
जरा खांसी-सी आ गयी।
दिल्ली दरवाजे के बाहर एक ग्राम्य स्त्राr सूखी घास बेच रही थी। तांगे वाले ने इतिहास के प्रोफेसर से कहकर तांगा रोक लिया और देहाती लहजे में घास का मोल-भाव करने लगा-
‘दस आना!’
‘चल-चल।’
‘नहीं काका...’
‘अच्छा जा, डाल आ। भीतर जाकर पूछ लेना। कहना, हालभाई ने भेजी है।’
इतिहास का प्रोफ्रेसर देखता रह गया। शहरों का अविश्वास अभी तक यहां नहीं आया था...
तांगा चला। सिगरेट पियोगे, हालाभाई? दीजिये, साहब! दो सिगरेट। हाला भाई की खुलती बातें। घोड़ा बहुत अच्छा है, हालाभाई। हां साहब, यह घोड़ा...
फिर वही देहाती लहजा- ‘दो बरस पहले मैंने दो सौ में मांगा था। चार बरस का है। जसराज मारवाड़ी का है। भूखों मार डाला है बेचारे को। सत्रह रोज पहले मैंने खरीदा इसे। साहब, गाड़ी में लगाये तीन रोज ही हुए हैं। दो घोड़े हैं मेरे पास। असबाब भी मंगाना था घोड़े का, मगर बरसात हो गयी... छापी के पास पानी भर आया, इसलिए अब दो दिन बाद...’
वर्षों के बाद वह भाषा टकरा रही थी कानों से। उसके इतिहास की भाषा। अतीत की भाषा। बचपन की भाषा। सुसंस्कृत होने के बाद आयास करके भूली गयी उसकी अपनी भाषा। पितृभाषा।
सामने नीम का बूढ़ा पेड़ खड़ा था, जिसे वह ‘टूटे नीम’ के नाम से पहचानता था। इतिहास का प्रोफेसर तांगे वाले को पैसे देकर उतर पड़ा।
पितृभूमि।
पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण यह पूरब यह पश्चिम, चकोरों की दुनिया। मेरा नीलगूं आसमां बे किनारा। पितरों की भूमि को चूम लेने की इच्छा हुई। एक वृद्धा उसे घूरती हुई गुजर गयी। पहचाना नहीं। मेना काकी। जी रही है अब तक? इतिहास का प्रोफेसर घर की गली में मुड़ गया।
घर में जाकर, खिड़की खोलकर उसने टूटे नीम की ओर देखा।
उसके दादा नीचे हमीद खां को घोड़े की रास पकड़ाकर, ऊपर आकर, साफे को मेज पर रखकर, इसी तरह खिड़की खोलकर नीम की ओर देखते होंगे। उसके पिता ने मद्रास से आकर इसी तरह खिड़की खोली होगी और इसी तरह नीम को देखा होगा। और वह आक्सफोर्ड से आकर ठीक उसी तरह खिड़की खोलकर नीम को देख रहा था। बूढ़ा दरख्त पीढ़ियों पुराना था। पचासों वर्ष पुराना। कहते हैं, जब दादा छोटे थे, एक रोज बिजली गिरी थी और नीम आधा टूट गया था और तले बैठे हुए दो ऊंट मर गये थे। तभी से शायद उसे टूटा नीम कहते थे।
उसकी दृष्टि गैसलाइट के लोहे के खम्भे की ओर गयी। लड़ाई के दिन थे और बिजली बचाने के लिए बत्तियां बंद रहती थीं। गांव-भर में चार-पांच ही मोटरकारें थीं और किसी एक मोटर के पीछे अन्य लड़कों के साथ वह भी दौड़ा था और लोहे के खम्भे से टकरा गया था। अनायास उसने उंगलियां कपाल पर उभरे घाव पर फेरी। घाव बालों में था, पर... अब तो बाल झड़ चुके थे। गाव का निशान बाहर आ गया था।
याद्दाश्त की आंधियां। धुंधली-सी स्मृतियां।
घर से घंटाघर दिखायी पड़ता था, एक जमाने में। अब तो बीच में एक पीपल का पेड़ उग आया था। घंटाघर के घंटे शायद अब भी सुनाई पड़ते होंगे। शायद। या... घड़ी में तपे हुए छप्परों पर से सूखे कपड़े उतार लेते थे हम। नीम के नीचे एक नकटी औरत चिल्ला-चिल्लाकर शहतूत बेचती थी। शहतूत में से इल्लियां निकलती हैं। मां हमेशा शहतूत लेने से मना करती थी। पैरों में बेड़ियां डालकर पुरानी जेल की ओर ले जाये जाते हुए कैदी। दोपहर को बारह बजे किले की दीवार पर से छूटती तोप। रवारी लकड़ियां बेचकर ऊंट को खड़ा करता और ऊंट पिछली टांगों के बल गले की घंटियां हिलाते हुए खड़ा होता। बेढंगा दृश्य... ट्यूबलाइटों से पहले की दुनिया।
शाम को गर्म राख से लालटेन के कांच के गोले साफ होते थे। रात दीवारों की छायाओं में थिरकती। अंधेरे-अंधेरे मुर्गे की बांगें और सब्जियां सजाती सब्जी वालियों की कर्कश गालियां। सोते समय आंखों के ऊपर तुले हुए सितारे सुबह के झुटपुटे में निस्तेज होकर ऊंचे मकानों के पीछे लुढ़क जाते। जब आंखों पर चश्मे नहीं थे। जब बुद्धि की पर्त्तें जमी नहीं थीं। जब आत्मा पारदर्शक थी, जब बिना दांव-पेंच हंस डालना स्वाभाविक था, जब साथ पढ़ती लड़की की खुली कमर पर फैली अम्हौरियां देखकर सिर्फ अम्हौरियों के ही विचार आ सकते थे, जब...
इतिहास का प्रोफेसर बाल्कनी की रेलिंग पर झुक गया और इतिहास में से नेतिहास की बादबाकी करने लगा।
शाम को आंधी आ जाती थी, कच्छ के छोटे रन की तरफ से। अब कच्छ का छोटा रन ही आ गया था। बरसात कम हो गयी। छुटपन में बहुत होती थी। स्कूल में छुट्टी हो जाती थी। टूटे नीम के पास पानी बहता हुआ मिडिल-स्कूल तक जाता था। और वह भी बहते पानी में दौड़ता-कूदता दोस्तों के साथ मिडिल-स्कूल तक चला जाता था। तब स्कूल में टेलिफोन नहीं था। और वापसी। मार्ग में खेतों के किनारे से चुराई हुई हरी सौंफ चबाते-चबाते। जार्ज फिफ्थ क्लब पर होती बारिश क्लास-रूम की खिड़की से दिखाई पड़ती।
टाइफाइड होता था, तो इक्कीस या अट्ठाईस या पैंतीस दिन बिछौने में लेटे रहना पड़ता था। तब मायसेटीन औषधियां नहीं थी और तांगे में बैठकर आया हुआ डाक्टर सिर गंजा करवा देता था। चिरायते का काढ़ा पेनिसिलीन और सल्फा औषधियों से ज्यादा काम देता था। और हड्डी टूट जाती या बिजली के सामान की जरूरत पड़ती, तब आबू वाली दोपहर ढाई की लोकल में बैठकर अहमदाबाद जाते थे। अहमदाबाद ‘बड़ा शहर’ था, जहां बिजली का सामान अच्छा और सस्ता मिलता था। पुरानी जेल के पास वाले उबड़-खाबड़ मैदान में छुट्टी की हर दोपहर को स्टम्पें गाड़कर एक इनिंग्स वाले क्रिकेट के मैच खेले जाते थे और जीतने के बाद तीन बार ‘हिप...हिप... हुर्रे’ चिल्लाते थें। जेल में पंडित जवाहरलाल नेहरू को खून की उल्टी होने की अफवाह पर हफ्ते भर सभाएं होती थीं।
नवाब साहब-खुदाबंद खुदा-ए-खान, फैजबख्श, फैजरसान, श्रीदिवान महाखान जुब्द-तुल-मुल्क... और नाम के बाद में जी।सी।आई।ई।, के।सी।सी।वी।ओs।, ए।डी।सी। वाले नवाब साहब की सालगिरह के दिन स्कूल में बंटने वाले बताशे लेने के लिए छोटे भाई को लेकर, दो बड़े रूमाल लेकर, नयी कमीजें पहनकर जाया करते थे। चुराई हुई बर्फ चूसते समय या कटी पतंग लूटते समय चंगेज खां जैसा दिग्विजय का उन्माद हो जाता था...
और बचपन की इतिहास-यात्रा के कुछ सहयात्री... नीम के नीचे मुनीर मिल गया था, लाल लुंगी पहने हुए। दो रोज से स्कूल नहीं आ रहा था। उसी रोज पता चला कि उसने सुन्नत करवाई थी... मीरा के दरवाजे के बाहर उसके काका की बीड़ी की दुकान थी। दुकान के ऊपरी हिस्से में ही बैठकर वह तीन कर्मचारियों के साथ बीड़ियां बनाता था। दाने चुगते कबूतरों की तरह उनके सिर हिलते थे। एक सिर शंकर का था। तीसरा कक्षा तक वह साथ था। फिर उसे टाइफाइड हुआ और...छठी में ही प्राणलाल ने स्कूल छोड़ दिया। लड़के कहते थे, बहुत गरीब थे उसके पिता। रियासत के किसी देहात में एक्साइज के क्लर्क थे। एक दिन प्राणलाल पोस्टमैन की वर्दी पहनकर चिट्ठी देने शर्माता-शर्माता आया था... कचहरी में भीगे कौवे जैसे एक जज के सामने उसके एक अफीमी आत्मीय ‘मच आब्लाइज्ड’ रटते थे, रटा करते थे और बार-बार उसे स्वभाव के बारे में सलाह दिया करते थे...
इतिहास का प्रोफेसर बाहर आ गया।
‘कहो, मास्टर?’
मास्टर अगर रास्ते में मिल गया होता तो वह पहचान नहीं पाता, लेकिन दुकान, वही थी। जर्जरित अर्गला पर दो-चार अधसिले कपड़े लटक रहे थे। अभी कालर और आस्तिन बाकी थे। दुकान खाली-खाली लग रही थी।
मास्टर उसे घूरने लगा- ‘अरे, सूर्यकांत? तू?’
मास्टर हंस दिया। दो रोज की बढ़ी हुई दाढ़ी में शिकने पड़ गयीं। चेहरे पर झुर्रियां, मटमैली हंसी, झड़े हुए केश, बुझी हुई आंखें, गाल की हड्डियों पर तनकर स्याह हो चुकी चमड़ी, कान के दोनों ओर फूटे हुए लम्बे बाल... मास्टर लक्ष्मणराव... जो स्कूली दिनों में हाफ-शर्टें सीता था, जब स्कूली यूनिफार्मों का जमाना नहीं आया था और जब हाईस्कूल में प्रवेश के बाद ही फुल-शर्टें पहनने का ‘अधिकार’ प्राप्त होता था।
लक्ष्मणराव एक ही महराष्ट्रीय था पूरे गांव में। तब महाराष्ट्रीय महाराष्ट्रीय नहीं, बल्कि दक्षिणी कहे जाते थे।
‘कब आया?’
‘आज ही।’
‘अकेला आया है?’
‘हां, अकेला ही हूं!’ वह प्रसन्न-गम्भीर हंस दिया- ‘कैसा हैं मास्टर, तुम्हारे बाल-बच्चे?’ उसे पता था कि मास्टर की दो लड़कियां थीं।
मास्टर का चेहरा लटक गया। उसे लगा, जैसे कुछ अपराध-सा कर डाला है। मास्टर ने धीरे से सिलाई-मशीन की दराज से एक तस्वीर निकाली- मास्टर की जवानी का ग्रुप-फोटो। मास्टर, एक स्त्राr, दो लड़कियां, एक लड़का। सभी चेहरों पर तसवीर खिंचवाने से पहले का आतंक। लड़के के चेहरे पर कुतूहल। वह सबसे छोटा था।
‘तूने तो यह दुकान देखी है, सूर्यकांत, कैसी चलती थी? रात बारह-बारह बजे तक मैं छह आदमियों से काम कराया करता था...’ थकान का निश्वास- ‘अब जमाना खराब हो गया है, भाई। मुश्किल से पेट भरता है। पुराने बूढ़े-बूढ़े ग्राहक ही आते हैं। काम भी होता नहीं है अब। दुनिया बदल गयी। मैं कहता हूं, सूर्यकांत, पाप किये होंगे मैंने, मेरी स्त्राr ने, पर इन बच्चों ने दुनिया का क्या बिगाड़ा है? बच्चों के ये दिन...’ मास्टर और कुछ कहने जा रहा था कि आंखें छलछला आयीं।
‘लड़कियां तो बड़ी हो गयी होंगी?’
मास्टर कुछ संयत-सा हुआ- ‘क्या कह रहा है? तीन ही साल पुराना है यह फोटो। शारदा बारह साल की हुई और संध्या दस की। लड़का पिछले साल गुजर गया। स्कूल से आया, तब तो अच्छा-भला था। हैजा हो गया। दो दिन में भगवान ने उठा लिया। लुट गया सब, सूर्यकांत, सब लुट गया। घरवाली की तबीयत भी अब ठीक नहीं रहती। लड़कियों के बढ़ने में समय नहीं लगता। शादी-ब्याह... भाई, सब इकट्ठा होगा कैसे?’ मास्टर का गला रुंध गया। आगे बोल नहीं पाया वह। रो पड़ा। पुरुष के आंसू...
उसने महसूस किया, बहुत गलत हो गया सब कुछ। उसके अविचारी शहरी सौजन्य ने पुराने घाव छील डाले थे। यह आदमी दुख की परम्पराओं में से जी रहा था, टिक रहा था। कितने समय से?
उससे आश्वासन के स्वर में कहा- ‘मास्टर, तुम तो मर्द हो। भगवान है ऊपर सभी का देखता है वह। सच्चे आदमी को वह निश्चय ही पार उतारता है।’
‘ना, वह सब झूठ है। अब भगवान में श्रद्धा नहीं रही है मेरी। मैंने किसी का कुछ भी नहीं बिगाड़ा है और मुझे ही इतने सारे दुख, सूर्यकांत? अच्छा मान ले, मैंने कुछ बिगाड़ा भी होगा, पर इन बच्चों ने क्या अपराध किया है तेरे भगवान की दुनिया में?’ बोल, तू तो पढ़ा-लिखा आदमी है- बोल।’
उसे एकाएक कंपकंपी आ गयी। मास्टर पागल हो गया है क्या?
धीरे से सांत्वना की औपचारिक बातें करके वह भाग निकला। वापस, घर की ओर। विचारों में उलझा हुआ। नवाबी गयी, प्रजा का शासन आ गया, प्रजातंत्र आ गया। क्या कर डाला है प्रजातंत्र ने? अहर्निश भगवान की पूजा-भक्ति करने वाले, डरने वाले, अटल श्रद्धा रखने वाले, सीधे-सादे गरीब, प्रामाणिक रोटी कमाकर खाने वाले श्रमजीवियों के हृदय में से भगवान के प्रति श्रद्धा हिला डाली। और वह भी बुढ़ापे में, जीवन किनारे लगने अया तब!
बाइबल के ओल्ड टेस्टामेंट में एक पात्र है। उसका नाम है जॉब। जॉब अच्छा आदमी था, सच्चा आदमी था, सज्जन था, कुलीन था। भगवान ने उसी के ऊपर सब दुख ढा दिये। उसके बच्चे मार डाले, उसकी सम्पत्ति का नाश कर डाला, उसके शरीर को तोड़ दिया। जॉब ने प्रश्न किया- प्रभु, मुझ निर्दोष को तूने इतने सारे दुखों में क्यों फेंक दिया। शायद मैं सम्पूर्ण नहीं हूं, मगर मैंने ऐसा क्या किया है कि मुझे ही इतने सारे दुख सहने पड़े?
जॉब के प्रश्न का उत्तर भगवान ने अभी तक नहीं दिया है।
अन्याय सृष्टि का सबसे बड़ा रहस्य है। जॉब एक सर्वमनुष्य का नाम है, जो दो हजार वर्षों से यह प्रश्न कर रहा है। जॉब क्रांतिकारी नहीं है, जॉब सीधा चारित्र्यवान मनुष्य है। जैसा मास्टर...
तीन वर्ष में मास्टर कितना वृद्ध हो गया है। शोषित का वृद्धत्व और शोषित का नेतिहास...
वह घर में घुस गया। अब मिलना नहीं था किसी से।
पुराने घर में घुस गया। अब मिलना नहीं था किसी से।
पुराने लोगों के पास एक ही रसिक बात है- मृत आत्मीयों की। नये उसे पहचानते नहीं हैं। पीढ़ियां बहुत जल्दी बड़ी हो जाती हैं। गांव ने शायद... कायाकल्प ही कर लिया है। किले की रांग तथा मुख्य द्वार गिरा दिय गये हैं। स्टेशन पर ओवर ब्रिज बन गया है, सामने गुड्ज-साइडिंग। बरसात के पहले बिना प्लेटफार्म-टिकिट स्टेशन पर घूमने जाते थे, तो आसपास के पेड़ों में कभी-कभार नीलपंखी दिखाई पड़ते थे... आज, वैगनों की शंटिंग लगातार चल रही है। स्कूल में टेलिफोन आ गया है। स्टेशन रोड पर सिंधी शरणार्थियों (उन दिनों रेडियों वाले ‘विस्थापित’ शब्द नहीं जानते थे) की कच्ची दुकानें अब गायब हो गयी हैं।
लोग बूढ़े हो गये हैं। मर गये हैं। पक्की दुकानों के मालिक हो गये हैं... या उसी की तरह गांव छोड़कर दूर-दूर चले गये हैं। रेलवे कालोनी काफी फैल गयी है और राजस्थानी कर्मचारियों से खचाखच भरी हुई है। कीर्ति-स्तम्भ के उजाड़ बगीचे के गिर्द पास के मिलिटरी कैम्प के जवान घूमते दिखाई पड़ते हैं। आइसक्रीम के होटलों पर भीड़ है। बैंकें और वेश्याएं भी आ गयी हैं। गांव शहर बन गया है...
शाम का मेल... साढ़े पांच बजे का मेल, अब रात आठ बजे आता है। अंतर वही है, सिर्फ समय बढ़ा दिया गया है।
एक ही चीज कायम है। पूर्ववत। ट्रेनों का लेट होना...
ट्रेन चली। दूर झाड़ियों के झुंड के ऊपर कीर्ति स्तम्भ का शिखर दिखाई दिया, पहली गुमटी, एक्साइज की नयी कलैक्टोरेट, नवाब के महल का जर्जरित द्वार, सिग्नल,दूसरी गुमटी, फुटबाल का शांत मैदान, मेहसाना जाता हुआ बस-मार्ग, अरहर के खेतों पर फैली हुई रात, पितृभूमि के आकाश में मुरझाये फूलों के तोरण जैसी झुकी हुई धुंधली आकाश-गंगा, अंधकार की पर्तों में विलीन होता जा रहा नेतिहास...