नीम का पेड़ और वाक्यपदीयम् (निबंध) : केदारनाथ सिंह
Neem Ka Ped Aur Vakyapadiyam (Hindi Nibandh) : Kedarnath Singh
कुछ सवाल हैं, जिन्हें अब कोई किसी से नहीं पूछता—यहां तक कि स्वयं से भी नहीं। जो गांव से शहर आता है, उसे कुछ दिन उस नए माहौल में अटपटा जरूर लगता है, पर धीरे-धीरे वह उसका हिस्सा बनने लगता है और रिटायर होने-होने तक वह उसका इतना अभिन्न हिस्सा बन चुका होता है कि लौटने के लिए उसके पास दूसरी कोई जगह नहीं होती। जो होती है, उसके साथ स्मृति का एक पतला-सा धागा उसे जोड़े रखता है, जो इतना जर्जर होता है कि किसी भी क्षण टूट सकता है। इसलिए अब किसी से यह पूछना कि रिटायर होने के बाद आप कहाँ जाएँगे, एक निरर्थक सा सवाल बनता जा रहा है। बहुत पहले कभी ग्रीक कवि कबाफी की एक कविता मैंने पढ़ी थी, जिसमें एक पंक्ति आती थी—‘यदि तुमने किसी शहर में अपने जीवन के बीस बरस गुजार दिए, तो समझ लो तुम दुनिया के बाकी तमाम शहरों के लिए बेकार हो चुके हो।’ यह पंक्ति इस सदी के दूसरे या तीसरे दशक में कभी लिखी गई थी और तब से शहरों का जीवन काफी बदल चुका है और उनकी वह मीठी-सी मारक शक्ति भी अधिक असरदार हो गई है जो आदमी के स्नायुतन्तुओं को धीरे-धीरे सुन्न कर देती है।
पर एक सुखद आश्चर्य तब होता है, जब हम पाते हैं कि अब भी कुछ लोग हैं, जो अपने जीवन का अधिकांश किसी शहर को सौंप देने के बाद, उस कस्बे या गांव में लौट जाने की इच्छा अन्त तक बचाए रखते हैं, जहाँ से वे आए थे। ऐसे अक्सर छोटे लोग होते हैं—छोटे-छोटे काम करने वाले, जिन्हें शहर तभी तक स्वीकार करता है, जब तक उनकी उपयोगिता होती है और उसके बाद उस सीठी की तरह जो गन्ने से रस के निचुड़ जाने के बाद मशीन से बच जाती है, उसे बाहर फेंक देता है। पर मैंने देखा है कि कुछ दूसरे प्रकार के लोग भी ऐसे होते हैं, जो एक निश्चित आर्थिक सुरक्षा के बावजूद, शहर के सारे ताम-झाम को छोड़कर अन्ततः अपने मूल स्थान को लौट जाते हैं और ऐसे लोग अक्सर वे होते हैं जिन पर आधुनिकता का दबाव जरा कम होता है। इससे कोई यह निष्कर्ष निकालना चाहे कि मूल स्थान से विच्छिन्नता का सम्बन्ध उस संस्कृति से है, जिसे हम आधुनिकता कहते हैं तो शायद उसे नकारना आसान न होगा।
हिन्दी की दुनिया में पंडित रघुनाथ शास्त्री का नाम कदाचित् बहुत जाना-पहचाना न हो, पर वेदान्त और व्याकरण-दर्शन के क्षेत्र में अखिल भारतीय ख्याति के विद्वान थे, जिन्हें अब पश्चिम के भारतविद् भर्तृहरि के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘वाक्यपदीयम्’ के भाष्यकार के रूप में जानते हैं। लम्बे समय तक यह ग्रंथ अध्येताओं के बीच एक चुनौती की तरह रहा है। रघुनाथजी शायद पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने उसका भाष्य लिखने का बीड़ा उठाया और वह भी तब जब वे वाराणसी से सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के आचार्य-पद से अवकाश ग्रहण कर चुके थे। प्रचलित धारणा यही है कि बड़ा बौद्धिक कार्य वहीं सम्भव है, जहाँ बडे़ पुस्तकालय हों और जाहिर है कि यह सुविधा बड़े शहरों में ही सुलभ होती है। पर यह रघुनाथ जी का विलक्षण साहस ही कहा जाएगा कि उन्होंने ठेठ गाँव को अपने कर्मक्षेत्र के रूप में चुना और यह आज अविश्वसनीय-सा लगता है कि पकी उम्र में ‘वाक्यपदीयम्’ जैसे जटिल ग्रंथ के भाष्य लेखन का सारा काम वहीं रुककर पूरा किया।
शहर में लम्बा जीवन बिताकर जब कोई गाँव लौटता है तो वह अपनों के बीच स्वयं को बहुत कुछ अजनबी की तरह पाता है। पर रघुनाथजी गाँव के जीवन में खूब रस लेते थे और वहाँ इस तरह रहते थे जैसे उस परिवेश से बाहर कभी गए ही न हों। कहते हैं, वहां रहते हुए उनके तीन ही काम थे-जिन्हें वे पूरे धर्माभाव से करते थे—गंगा, स्नान, मुकदमा लड़ना और ‘वाक्यपदीयम्’ का भाष्य लिखना। मुझे कई बार लगता है कि भाष्य लेखन के लिए ‘वाक्यपदीयम्’ के चुनाव और अवकाश प्राप्ति के बाद गाँव में बसने के उनके निर्णय के बीच एक सहज सम्बन्ध था। यह अकारण नहीं है कि ‘वाक्यपदीयम्’ उत्तर आधुनिक विचारकों के बीच खासा चर्चित रहा—यहाँ और पश्चिम में भी।
मैंने रघुनाथजी को एक पेड़ के नीचे बैठकर लिखते हुए देखा था और वह दृश्य मेरे लिए अविस्मरणीय है। यह शायद सन 73-74 की बात होगी। मुझे बलिया कचहरी में किसी काम से जाना पड़ा था। उस परिवार में घुसते ही जो पहला व्यक्ति दिखाई पड़ा वे थे परशुराम चतुर्वेदी। उन्हें मैंने उनकी बड़ी-बड़ी मूंछों से पहचाना। वे वकालत से अवकाश ले चुके थे, लेकिन फिर भी बिना नागा कचहरी जरूर जाते थे। उनसे मिलकर जब आगे बढ़ रहा था तो उन्होंने एक नीम के पेड़ की ओर इशारा किया, जिसके नीचे एक आदमी बैठा हुआ कुछ लिख रहा था। उन्होंने बताया कि वे रघुनाथजी हैं और उस पेड़ के नीचे बैठकर वाक्यपदीयम् का भाष्य लिख रहे हैं। कचहरी में ‘वाक्यपदीयम्’ ? पहले मैं चौंका। फिर लगा कि निकट से देखना चाहिए। पहुँचा तो देखा कि वे उस सारे माहौल से निरपेक्ष और तन्मय लिखे जा रहे थे। मैंने प्रणाम किया तो उन्होंने पोथी से सिर ऊपर उठाया और पूछा, ‘आप’ ? मैंने गाँव के हवाले से अपना परिचय दिया और फिर अपने कुतूहल को रोक न सका।
मैंने पूछा—‘पंडितजी, कचहरी के इस शोरगुल के बीच आप कैसे लिख लेते हैं ?’ उन्होंने कचहरी के मैदान के एक सधे हुए खिलाड़ी की तरह उत्तर दिया—‘क्यों, इसमें कठिनाई क्या है ? मेरी आँखें पोथी पर लगी हैं और कान जज साहब की पुकार की ओर और दोनों में कोई विरोध नहीं है।’
उस दिन मुझे पहली बार पता चला कि संसार को असार मानने वाले उस वेदान्ती में अद्भुत कुतूहलवृत्ति भी है और एक ऐसी जिन्दादिली को असारती की अवधारणा को ध्वस्त करती है। बोले, ‘सुनो, अभी कुछ दिन पहले डॉ. राघवन मेरे गाँव आया था।’ मैंने पूछा, ‘कौन राघवन ?’ तो बोले—‘अरे वही मद्रासवाला अंग्रेजी ढंग का संस्कृत विद्वान।’ जब मैंने पूछा कि किसलिए आए थे तो बोले, ‘‘वाक्यपदीयम् की एक कारिका में उलझ गया था, सो स्पष्टीकरण के लिए आया था।’ फिर भी हंसते हुए जोड़ा—‘‘मैंने उसे तो समझा दिया और वह पूर्ण संतुष्ट होकर चला भी गया। पर मैं अब तक उस कारिका से उलझ रहा हूं—लग ही नहीं रही है।’ इस तरह की स्वीकारोक्ति के लिए जो नैतिक साहस चाहिए, वह रघुनाथजी में था और उनके गहरे पांडित्य के भीतर से पैदा हुआ था। मैं सोचने लगा—यह जो वृद्ध व्यक्ति मेरे सामने है—जो कचहरी के निरर्थक कोलाहल के बीच एक नीम के नीचे बैठकर ‘वाक्यपदीयम्’ की एक कारिका से अपने निपट एकान्त में घंटों से उलझ रहा है, उसे कैसे समझा जाए ? क्या संगति है उस सारे ऊलजलूल की, उस गहन चिन्तन की प्रकिया के साथ जो उस मस्तिष्क में चल रही है और फिर भी कान हैं कि जज साहब की पुकार की ओर लगे हैं।
शायद उस पूरी स्थिति का सम्बन्ध उस बड़े परिवेश से हो, जिसमें गंगा नदी भी थी और नीम का पेड़ भी और चारों ओर से घिरे हुए वह भरपूर गहमागहमी भी जिसे जीवन कहा जाता है। आधुनिक मनुष्य की, अपने मूल से विच्छिन्नता का यह एक समाधान था, जिसे ‘वाक्यपदीयम्’ के भाष्यकार ने अपने लिए खोज लिया था। पर क्या यह सचमुच आज के नागरिक मनुष्य के लिए कोई समाधान है ? शायद हो, शायद न हो। पर यदि चुनाव की छूट हो (जो कि दिनों दिन कम होती जा रही है) तो ‘हो’ के पक्ष में मतदान करूँगा।
('कब्रिस्तान में पंचायत' में से)