नीली झील (कहानी) : कमलेश्वर

Neeli Jheel (Hindi Story) : Kamleshwar

बहुत दूर से ही वह नीली झील दिखाई पड़ने लगती है। सपाट मैदानों के छोर पर, पेड़ों के झुरमुट के पीछे, ऐसा मालूम पड़ता है, जैसे धरती एकदम ढालू होकर छिप गया हो, लेकिन गौर से देखने पर ऊँचे-ऊँचे पेड़ों के बीच से एक बहुत बड़ा शीशा झलकता दिखाई पड़ता है।
यही वह झील है।

और इसी झील पर जल-पक्षियों के शिकार के लिए आए हुए अँग्रेज-कलक्टर ने कहा था, “कितनी खूबसूरत है यह झील ! जैसे जमीन में हार जड़ा हो-झील तक पहुँचने के लिए पक्का रास्ता होना चाहिए।”
यह तीस साल पहले की बात है।

और तब बस्ती से झील तक रास्ता बनाने के लिए आए मजदूरों की टोली में वह भी आया था और अँग्रेज साहब की मेम की आखों को देखकर उसने कहा था, 'कित्ती खूबसूरत है मेम ! इसकी आँखें नीली झील की तरह लगती हैं।'

तगड़े और बदसूरत मजदूरों ने तब आँखें बचाकर गन्दे इशारे किए थे। और गहरी और भीगी जमीन में कार के पहिए फँसते ही वह सबसे पहले दौड़कर उस ओर धक्का लगाने के लिए जुट गया था, जिधर मेम बैठी थीं...उसका मन होता था कि बहाने से हाथ डालकर फूल-सी मेम को छुए, पर हिम्मत नहीं पड़ती थी। और मजदूरों को उसकी इस सीनाजोरी पर बड़ा गुस्सा आया था और वे भीतर-ही-भीतर चाहते थे कि उसकी मरम्मत हो जाए।

रात को जब पेड़ तले बीनी हुई लकड़ियों के साले चूल्हे जले और उस वीराने में मजदूरों के मुँह आग की ली में शैतानों की तरह चमकने लगे, तो भजनू ने काँख से तमाखू का बटुआ निकालते हुए कहा, “इस साले को मेट से कहकर निकलवाया जाए ! मेम जान पाती तो चमड़ी उतर जाती !...साला आशिक बनता है !”

“बनने दो, तुम्हारा का लेता है?” भूख से क्लान्त और जल्दी-जल्दी बाटियाँ सेंकते हुए होरी ने बात तोड़ देनी चाही।
“हम सबकी रोज़ी जायेगी।” आग कुरेदते हुए एक और ने जोड़ा ।
तभी दूसरे पेड़-तले से बड़ी भद्दी और मोटी आवाज़ में एक गीत का बोल उभरा-
“होए मेमिया तोरी अँखियाँ बड़ो जुलुम ढायो री...”

और पीतल की धाली ठनक उठी थी और महेसा शैतान की तरह नाच रहा था। बाटियाँ पकाते साथियों की हँसी और वाहवाही से शोर मच गया था। भूखे और थके मज़दूरों की आँखों में एक वहशी चमक आ गयी थी और एक क्षण के लिए वे जैसे तन की पीड़ा भूल गये थे। महेसा गा-गाकर कुछ देर तक नाचता रहा। ...पेड़ों की पत्तियाँ आग की दमक में ताँबे की तरह लग रही थीं और उनके काले, पपोटेदार तने अजगरों की तरह झिलमिला रहे थे। आसमान सीप की पीठ की तरह धुँधला और काला था और झील की ओर से अजीब तरह के सूने-सूने स्वर आ रहे थे।

इसी समय तीखी आवाज़ में चीखता एक सारस गुज़र गया। उसके बड़े-बड़े पंखों से निःश्वास-सा निकल रहा था। सारस की चीख़ की प्रतिध्वनि कुछ क्षण तक आती रही और महेसा का स्वांग रुक गया।

“अब सीधा होके बैठ, रोटी खा ले!” काने मेट की आवाज़ थी यह। नाराज़ साथियों को मेट का इस तरह अपनेपन से बोलना अच्छा नहीं लगा। भजनू ने धीरे से कहा, “बदमाश ने मेट को खुस कर लिया है! काना भी ऐबी है न, उसे भी मज़ा आता है!”

गुदारी बाटियों और उड़द की पकी हुई दाल की महक से सबकी भूख चमक आयी थी। बड़ी रात तक बतकही के बीच खाना चलता रहा। धीरे-धीरे चूल्हों की आग मझाकर राख में दुबक गयी और पेड़ों का अँधियारा घना हो गया। सुबह काम शुरू होते ही सैलानियों की एक पार्टी वहाँ आकर रुक गयी। कुछ हिन्दुस्तानी साहब थे और साथ में कुछ अच्छी-अच्छी औरतें। औरतों के कन्धों पर कैमरे लटक रहे थे और साहबों के कन्धों पर एयरगन और कारतूसों की पेटियाँ। खाने-पीने का सामान कंडियों में था और वह बोझ उनसे चल नहीं रहा था। औरतों के खूबसूरत चेहरों पर पसीने का पनीलापन था और साड़ियों के छोर कमर में खुँसे हुए थे। धूल से बचाने के लिए साड़ियाँ एक तरफ़ से कुछ ऊँची कर ली गयी थीं। उन्हें देखते ही मज़दूरों ने रुकने का मतलब भाँप लिया था और वे अपने काम में इतने मशगूल हो गये थे जैसे उन लोगों की उपस्थिति का उन्हें एहसास ही न हो। पर महेसा हाथ रोककर, फेंटा कसने के बहाने कनखियों से उन्हें ताक रहा था। वही इसी इन्तज़ार में लगता था कि अभी उनमें से कोई औरत सामान उठाने के लिए कहेगी और वह मेट की मर्ज़ी देखकर निश्चय ही उनकी सहायता के लिए तैयार हो जायेगा।

साहब लोग भी किसी मज़दूर से आँखें मिलने की ताड़ में थे। बाक़ी सब आँख बचा रहे थे, सिर्फ़ महेसा आँख मिलाने के लिए उतावला था; पर साहबों से नहीं। जैसे उसने यही तय किया था कि नीली साड़ी वाली औरत अगर कहेगी तो वह फावड़ा छोड़कर सामान उठा लेगा। वह बार-बार उसे ही हैरत से ताक रहा था कि नीली साड़ी वाली औरत ने ही मौका पाकर बड़ी मीठी आवाज़ में कहा, “कोई मज़दूर मिल जायेगा यहाँ?”

महेसा को यह बात नहीं जँची । “मज़दूर ही चाहती हैं तो खोज लें!” उसने ठसक से कहा, “हम लोग सरकारी गैंग के आदमी हैं!” कुछ इस तरह जैसे सरकार से रुपया पाकर मज़दूरी करना कुछ ऊँची बात हो।

“अरे, ज़रा-सी मदद के लिए चाहिए। ...यह सामान झील तक पहुँचाना है।” उसी नीली साड़ी वाली की मीठी आवाज़ थी।

महेसा का दिल बहक उठा। बड़प्पन और शान से बोला, “मदद मिल सकती है, ऐसे बोलिए!”

महेसा के तुच्छ-से गर्व को लक्ष्य करके वह धीरे-से हँसी। और महेसा एक क्षण के लिए अपलक उसके साफ़ दाँतों को देखता रहा। फिर दौड़कर मेट के पास पहुँचा और सामान उठाने की इजाज़त माँगकर चला आया।

आते ही उसने गर्व से उनका सामान उठाया और नीली साड़ी वाली के कन्धे में लटके थरमस को माँगने के बहाने बोला, “यह बोतल भी दे दीजिए।”

मीठी आवाज़ वाली औरत ने कुछ जवाब नहीं दिया। पर वह ऐसे मानने वाला नहीं था। चलते-चलते उसने फिर पूछा, “आप लोग शिकार के लिए आये हैं? कहाँ से आये हैं?

लेकिन वह नीली साड़ी वाली औरत एक आदमी से मुस्करा-मुस्कराकर बातें कर रही थी। महेसा को यह अच्छा नहीं लग रहा था। एक अजीब तरह की परेशानी उसे हो रही थी। कुछ दूर तो उसने बर्दाश्त किया, फिर उसका मन हुआ कि सामान पटककर उसी आदमी से कहे कि उठाइए अपना तामझाम! मैं मजूर नहीं हूँ! पर उनके साथ चल सकना भी उसे कम भला न लग रहा था। उसे बोलने का फिर मौक़ा मिला, गलत रास्ते पर मुड़ते देख वह लपककर नीली साड़ी वाली के पास पहुँचा और एकदम उनके अज्ञान पर जैसे चीख़ पड़ा, “आप लोगों को रास्ता नहीं मालूम, हमारे साथ आइए! इधर से दलदल पड़ेगा"

“दलदल! ओह !” नीली साड़ी वाली कुछ ज़्यादा चौंक गयी थी। उसका यह चौंकना महेसा को बहुत अच्छा लगा था। उसे अनिर्वचनीय सुख-सा मिला था। ...कानपुर में मिल से छुट्टी पाते ही वह चौराहे वाले कोने पर रुककर इसी तरह औरतों को देख-देखकर खुश होता था...

झुरमुट के पास पहुँचते ही सब लोग रुक गये। सामान वहीं उतरवा लिया गया। सभी औरतें हवा की ठण्डक में अपने बालों की लटें ऊपर करती हुई या साड़ियाँ सँभालती हुई बेफिक्री से बैठ गयीं।

हलकी-हलकी हवा झील की ओर से आ रही थी और छाया में कुछ सर्दी भी थी। झील के पानी के भीतर बादल तैर रहे थे और नरकुल धीरे-धीरे काँप रहे थे। ...दूर से जिधर पानी उथला था, देवहंसों, मुर्गाबियों और पतारी के झुण्डों के चुगने की और पंख फड़फड़ाने की आवाज़ें आ रही थीं। देवहंस शायद सिवार खा रहे थे और मुर्गाबी घोंघे या केकड़े खोजने में मशगूल थे। पेड़ों पर चिड़ियाँ चहक रही थीं।

सहसा नीली साड़ी वाली ने झील के पानी की ओर इशारा करते हुए हैरत से कहा, “पानी का साँप! साँप तैर रहा है!”

सभी कौतूहल से देखने लगे। महेसा खिलखिलाकर हँस पड़ा | कैसे समझाये इन साहबों को, वे इतना भी नहीं जानते! वह सिर्फ़ नीली साड़ी वाली को ही बताना चाहता था। एकदम बोला, “पनिया साँप नहीं है, एक चिड़िया है वह!”
“चिड़िया? बकता है!” नीली साड़ी वाली ने प्यार से कहा।

“न मानें तो देखती रहें!” फिर इधर-उधर नज़र दौड़ाकर बोला, “वह उस पानी में उगे ठूँठ को देख रही हैं? ...वह...उस पर जो काली चिड़िया बैठी है, उसी का साथी है यह, सरपपच्छी।”

“वह काली चिड़िया!” नीली साड़ी वाली उससे बात कर रही थी और वह तन्मय होकर बता रहा था, “हाँ-हाँ, वही! सरपपच्छी तैरने का बहुत शौकीन होता है। बस, भाले-सी काली चोंच निकालकर तैरता रहता है।”
“खाता क्‍या है?” उसने उत्सुकता से पूछा।

“मछली!” उसकी आँखों में चमक आती जा रही थी। और बात करने के लिए उसने बात जोड़ दी, “अभी जब थक जायेगा तो किसी ठूँठ पर पंख और दुम फैलाकर सुखायेगा।”
“अभी निकलेगा?” नीली साड़ी वाली का मुख खुला रह गया।

और उसके सफेद दाँतों को महेसा निहारता रहा... नकबा के सफेद पंखों की तरह धुले हुए व चमकदार! उसका मन जाने को नहीं हो रहा था, पर मेट ने कहा था जल्दी लौटना और फिर साथियों के कलेजे पर साँप लोट रहे होंगे!

तभी एक साहब को बन्दूक सँभालते देख उसका मन उचाट हो गया। वह नीली साड़ी वाली भी अब बन्दूक की ओर ज़्यादा ध्यान दे रही थी।

उनके साथ के एक साहब ने उसे कुछ पैसे दिये और अभी एक क्षण पहले का महेसा अपना सारा आकर्षण भूलकर चल पड़ा। उसका मन भारी हो आया था। रह-रहकर उसकी आँखों के सामने वह बन्दूक घूम रही थी और कानों में चिड़िया का शोर समाया हुआ था। हर आवाज वह पहचानता था-उन पक्षियों की भी, जो सालभर इसी झील के किनारे रहते थे और उनकी भी, जो इस ऋतु में दूर पहाड़ों से उतरकर कुछ दिनों के लिए मेहमानों की तरह आते थे। उनकी हर आवाज़ का अर्थ वह समझता था-वे लड़ रहे हैं, या आनन्द से भरकर गा रहे हैं, या साथियों को ख़तरे का बिगुल सुना रहे हैं। झील के पानी में किलोलें करते हर पक्षी के पंखों की सरसराहट का एहसास है उसे, चाहे वह मुर्गाबी हो, सुरखाब, जंगली बत्तख, चाहे बगुला, सारस, नकटा, रेती, सरपपच्छी या सोनापतारी! उनकी सीटियों की मधुर आवाज़ें उसके कानों में बसी हुई हैं...और तभी उसका मन उस बन्दूक की याद से धड़कने लगा।

उधर बन्दूक चली थी और गोली की टूटती हुई आवाज़ बादलों में गूँज गयी थी। और उसके बाद पक्षियों का कातर शोर' मन पर चोट-सी लगी थी। उसका मन उदास हो आया था। दूरी पर साथी मज़दूर काम में लगे दिखाई पड़ रहे थे। एक क्षण ठिठककर उसने पीछे देखा, दलदल ख़ामोश था और ऊपर से उड़कर भागती हुई चिड़ियों की भयातुर आवाज़ को शालीनता से पीता जा रहा था। ...मुड़कर वह तेज़ कदमों से लौट आया और अपने काम में जुट गया।

रात को जब पेड़ों के नीचे साँझे चूल्हे जले, तो महेसा नहीं था। गाँव से प्याज और मसाला लाने वाले चरनसिंह ने बताया, “वह तो बदमास घी की चुपड़ी रोटी खायेगा आज।"
कहाँ? गाँव में है?” भजनू ने आश्चर्य से पूछा।

“वहीं पण्डिताइन के घर है। चबूतरे पर बैठा मिसकौट कर रहा था लुगाई से। ...और वह नासमारी मुस्करा-मुस्कराकर बतिया रही थी, पत्तीदार बाल काढ़े, और ज़ेवर पहने साथ बैठी थी। ...मरा साला!” कहकर चरनसिंह ने पिच्च से थूका और प्याज की गाँठ छीलकर खाने लगा।

“उससे कैसे आसनाई हो गयी?” भजनू ने तसले में आटा सँभालते हुए रहस्य-भरी आवाज में पूछा।

“तू चाहे तो तू कर ले! कौन मुस्किल है! ...लेकिन उस नरक में कूदे कौन? ...बखत था जब हमारे पीछे लग गयी थी...” आदत के मुताबिक चरनसिंह बात अपने से जोड़ रहा था।

“कुबड़ा न होता तो शायद ब्याह रचा लेती!” होरी ने जैसे चरनसिंह के कुबड़ेपन पर गहरा वार किया। “बैठ जा सीधी तरह, हूँ! ...तेरे पीछे लग गयी थी! गाँव के ठाकुर ने जान दे दी, पर नज़र नहीं मिलायी उसने!”

“असल में उसे पैसे का गरूर है!” भजनू ने रोटी गरम तवे पर डालते हुए कहा, “दस गाँव में ऐसी औरत नहीं मिलेगी! का रूप है और का काठी है! रामकसम !”

चरनसिंह ने सिसकारी भरी और भजनू की बात का मतलब साफ़ हो गया। चूल्हे की आँच में उसका कूबड़ कद्दू की तरह लग रहा था। होरी की आँख के नीचे लटका हुआ बड़ा-सा मांस का लोथड़ा सूजा हुआ था। “कीड़े ने काट लिया”, कहते हुए उसने सने हाथ से आँख के नीचे सहलाया और बोलता गया, “घी-मेवा खाती है, ठसक से रहती है पण्डिताइन!”

“चालीस की लगती नहीं,” भजनू ने रोटी पलटी । “महेसा की उमर कितनी होगी?” उसने दरयाफ़्त किया।
“होगा पच्चीस-छब्बीस का!” चरनसिंह बोला।
“फिर तो...” कहकर होरी शैतानी से हँस पड़ा।

झील तक वह सड़क तो पूरी नहीं बन पायी, पर महेसा गैंग से बिछुड़ गया। विधवा पण्डिताइन ने उससे शादी कर ली थी। लोगों ने तरह-तरह की बातें कहीं किसी का कहना था कि जवान देखकर पण्डिताइन ने फाँस लिया और कोई कहता था कि महेसा रुपया-पैसा देखकर ढरक गया... । जो भी हो, दोनों तरह से लोगों को यह अच्छा नहीं लगा था, क्योंकि किसी को बुरा देखकर लोग बर्दाश्त नहीं कर पाते और अच्छा बनते देखना उनसे सहा नहीं जाता। लेकिन महेसा ने किसी की परवाह नहीं की। पण्डिताइन फिर से सुहागिन हुई थी और इतने दिनों बाद जब उसकी माँग में सेंदुर और गोरे माथे पर पत्तीदार बालों के बीच बिंदिया चमचमायी, तो उसका रूप दुगुना हो गया। दुहरे बदन की पण्डिताइन जब चाँदी की करधनी बाँधकर चलती और पैरों में झाँझें जब झन्‍न-झन्‍न बोलतीं तो लोगों के कलेजे दरक जाते। राह में साथ चलते महेसा से पारवती पण्डिताइन कहती, “तुम्हें तो जरा भी सऊर नहीं है! मरद घरवाली के आगे-आगे चलता है, साथ नहीं! ...लोग क्या कहेंगे? ...आगे चलो!”

और सर पर साफा बाँधे महेसा कहता, “बड़ी सरम आय रही है! सहर में मेम लोग इसी माफिक चलती हैं, बल्कि न बाँह में हाथ फँसा के"” और बस्ती के बाज़ार से ख़रीदा, चमकदार केलासन का जम्फर झिलमिलाता देख उसका माथा गर्व से उठ जाता। पारबती कित्ती खूबसूरत है।

और एक दिन देवियों की पूजा के लिए जब पारबती ने महावर लगाया, तो चमचे में घुला लाल रंग उँगली में लेकर उसने पारबती के होंठों पर लगा दिया। पारबती छुटाने लगी तो उसने अपनी कसम दे दी और नुमाइश से लाये शीशे को उसके सामने कर दिया। पारबती ने लजाते हुए अपने लाल होंठों को देखा, पर अपनी खूबसूरती की शोखी से भरकर बोली, “तुम तो मेम से सादी करते! लाली-पौडरवाली से ।” और वह अपने को खुद किसी मेम से कम नहीं लगी थी!

तभी महेसा ने उसकी गुदारी कलाई पकड़ते हुए कहा, “तुम किधर से कम हो! और हँसती पारबती के उजले दाँतों को देखकर उसका मन खिल गया। -पारबती के दाँत ठीक वैसे ही थे, जैसे उसने कभी देखे थे, हंस के पंखों की तरह धुले हुए!

पारबती के कहने से उसने कलमें बड़ी-बड़ी रखवायी थीं, चोटी में मोटी-सी गाँठ बाँधता था और मूँछें छोटी करवा ली थीं। मेले-तमाशे पर जाने के लिए बैलों की एक गोई और छोटा-सा रब्बा भी खरीद लाया था। बैलों को खूब सजाकर रखता था। उनके गलों में चालीस घुँघरुओं की माला थी और सींगों में पालिश । रब्बे की छत के लिए रंगीन झालर पारबती ने सी थी और गछियाँ वह दर्ज़ी से बनवा लावा था। पहियों के ऊपर रथ की तरह हाथा लगवाया था और सन की नहीं, सूत की रंगीन डोरियों से किनारे बुनवाये थे। सतरंगी रब्बा था महेसा का! एक दफ़ा दौड़ में दाँव लगा आया था और पारबती के पीछे पड़ गया था, “तुम साथ नहीं बैठोगी तो दौड़ में नहीं जाऊँगा।” उसने बहुत समझाया था, “हमारा तमासा दिखाओगे? ...बहुत लड़कपन है तुममें।”

महेसा हँस पड़ा था, “और तुम बूढ़ी हो गयी हो न! सरम नहीं आती हमारे सामने कहते? ...बतिया-बछरी-से दाँत हैं अभी, बात बड़ी-बूढ़ियों की तरह करोगी !”

और मेले की दौड़ के लिए जाते-जाते जब ऊसर से रब्बा गुज़र रहा था, तो पारबती ने चतुराई से उसे मना लिया था और मन में कोई मलाल लाये बिना महेसा मेला दिखाकर बगैर दौड़ में हिस्सा लिए लौट आया था।

बस्ती में हरदम महेसा और पारबती की बात होती, पर दोनों को किसी की चिन्ता नहीं थी। पारबती रुपये का लेन-देन करती और सबकी चोटी अपने पाँव के नीचे रखती। बस्ती में कौन ऐसा था, जिसे वक्‍त-बेवक्त चार पैसे की जरूरत नहीं पड़ती! इसलिए वे लोग भी जो पीठ-पीछे पारबती और महेसा को कोसते, सामने आकर चिकनी-चुपड़ी बातें करते।

इसका एहसास दोनों को था, पर दोनों इतने मुक्त थे कि कभी उन्होंने मन नहीं जलाया। महेसा अब निश्चिन्त हो गया था। काम-धाम करने की उसे ज़रूरत नहीं रह गयी थी। पर अब भी, जब वह सैलानी लोगों को झील की ओर जाते देखता और उनके साथ कोई सुन्दर औरत होती, तो वह अपने को रोक न पाता; पीछे-पीछे चला ही जाता और चाहता कि वह औरत उससे बात करे। और जब वह औरत उससे बात नहीं करती, तो वह चिड़ियों में मशगूल हो जाता, शान्त झील के किनारे-किनारे चक्कर काटता, नरकुलों के बीच साबुदाने की तरह फैले हुए मछलियों के अण्डों को देखता और नीलपक्षी के जोड़ों को निहारता...बगुले को ध्यानावस्थित खड़ा देखकर वह साँस रोककर ठहर जाता और उसके शिकार करने की प्रतीक्षा करता; देर हो जाती तो घर की याद आते ही लौट पड़ता।

एक बार वह दिन-भर नहीं आया, आधी रात को लौटा | पारबती ने नाराज़ होकर पूछा, तो सीधेपन से कह दिया, “जंगल तक गया था।”

“झील पर घूमके मन नहीं भरता?” पारबती ने उलाहना दिया, तो बड़ी सफ़ाई से उसने बता दिया, “जंगल में तीतर देखने गया था, ससुरे धूल से नहाते हैं!”

“तीतर-वीतर नहीं, तुम कहीं और गये थे। सच-सच बताओ मुझे !” पारबती कुछ कड़ी पड़ गयी, “तीतर देखना था तो बलदू के घर देख लेते, वह तो तीतर लड़ाता है।”

“पिंजरे में बन्द तीतर का क्‍या देखना!” महेसा ने कहा, “मुझे कोई पालना तो है नहीं, पता नहीं लोग कैसे चिड़ियों को पालते हैं!”

तभी ऊपर आकाश में कुछ पक्षियों का झुण्ड उड़ता गुज़र गया। उसकी आँखें आसमान में टँग गयीं। एकदम बोला, “यह वाक का झुण्ड है...देख पारबती, अब रात-भर ये मछली का शिकार करेंगे।”
पक्षियों के नरम पंखों की रेशमी आवाज़ दूर चली गयी थी।
“वो कुछ भी करें, तुम हमारी बात का जवाब दो। सच-सच बताओ कहाँ गये थे?”
“ईमान से बता दिया ।”
“लेकिन इत्ती रात तक तीतर ही देखते रहे?” पारबती के स्वर में शंका थी।
“हाँ-हाँ, पारबती माना करो! ...देखो, पैरों में कितने काँटे चुभ गये हैं। लड़ना है तो सवेरे लड़ेंगे।” कहकर वह आराम से टाँगें फैलाकर लेट गया।

पारबती ने बात बदल दी, “रुपया बहुत फैल गया है, वसूल नहीं होता, तुम ज़रा लोगों को डाँटो-डपटो ।"
“यह हमसे नहीं होगा ।”

“अच्छा सुनो! मेरा मन है कि कुछ रुपया लगा के यहाँ चबूतरे पर एक मन्दिर बनवा दिया जाये...और बन सके तो मुसाफ़िरों के लिए दो कोठरियाँ भी बन जायें। हारे-थके लोगों को आराम मिलेगा और कुछ रुपया धरम के कारज में लग जायेगा।”
“यह धरम-करम तुम्हें कब से सताने लगा?”

“बहुत दिन की साध है मन में! मिस्त्री को बुला के ज़मीन भी दिखायी थी, फिर कुछ हो नहीं पाया। ...मर जाऊँगी तो नाम का एक मन्दिर तो रहेगा, दस दिलों से असीस निकलेगी!” पारबती ने बड़ी सच्चाई से बात कही।
“बेबखत यह बात कैसे सूझ गयी तुम्हें?” महेसा ने पूछा।
“आज दिन-भर यही सब सोचती रही।”

महेसा ने ग़ौर से देखा पारबती को। चाँदनी उसके चेहरे पर पड़ रही थी। सचमुच पारबती बहुत बदली-सी लगी। आज उसे लगा कि सचमुच पारबती उससे बहुत बड़ी है। ...और उसके चेहरे पर नीली लकीरों का जाल बनना शुरू हो रहा है। बाँहों का खिंचाव ढीला पड़ गया है, कूल्हे पर भारीपन आ गया है। लेकिन फिर भी उसके पत्तीदार बाल उसे अच्छे लग रहे थे।...
“का देख रहे हो?” पारबती ने आँचल का खूँट ऊपर सरका लिया।

महेसा चुपचाप देखता रहा, बोला कुछ नहीं। पारबती ने फिर टोका तो महेसा ने यों ही कह दिया, “मन्दिर बनना ज़रूरी है?”

पारबती समझ गयी कि उसके मन की बात यह नहीं है। महेसा की आँखों में अभी जो सूनापन उसने देखा था, वह कुछ और ही कह रहा था। पारबती ने कुछ उदास स्वर में पूछा, “हमसे सादी करके पछताते तो नहीं हों?”
“ऐं ?” महेसा इस सवाल के लिए तैयार नहीं था।

“आज सोच-सोच के बड़ा दुःख हुआ। ...अपने सुख की ख़ातिर हमने तुम्हें ख़राब कर दिया।” पारबती की आँखों में पनीलापन था, “पछतावा तो होता होगा, सच-सच बताना!”

“काहे का पछतावा पारबती ?” महेसा ने कहा, “हमने कभी यह सब सोचा ही नहीं, जरूरत ही नहीं पड़ी।”

“तुमने कभी कुछ नहीं सोचा? सादी की बाबत भी नहीं सोचा था?” पारबती ने जैसे उसे कुरेदा, “अभी तुम अपने को आज़ाद समझते हो, बाल-बच्चे होते तो समझते!” कहते-कहते उसकी आवाज़ भारी हो आयी। चाँद पर बादल आ जाने से चाँदनी मटमैली हो गयी थी और पारबती का चेहरा धुँधला पड़ गया था। लालटेन चौखट में कुण्डी से लटकी थी और उसकी रोशनी में खाट की अरदावन परछाइयों की सलाखें बना रही थी।

महेसा को एकाएक लगा कि शादी के बाद सब घरों में बच्चे होते हैं, उसके घर में अभी तक कुछ नहीं हुआ। उसने गहरी नज़रों से पारबती को देखा। इस समय की बात वह समझ नहीं पा रहा था। आख़िर पारबती कहना क्या चाहती है? घर में चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। ऐसे सूनेपन में उसने पारबती के साथ कभी अकेलापन नहीं महसूस किया, पर आज वह इतनी अलग-सी क्‍यों मालूम हो रही है? हमेशा, रात हो या दिन, अकेलेपन में उसके मन में प्यार ही उमड़ा है, और उसने भी कभी ऐसी उखड़ी बातें नहीं कीं।

“तुम्हें हुआ का है?” महेसा ने शायद आज पहली बार इतना सोचकर कुछ पूछा था।

“पता नहीं का हुआ है! बस्ती का अस्पताल बहुत छोटा है, यहाँ मेरी देखभाल नहीं हो पायेगी |"
“अस्पताल! लेकिन अस्पताल की का ज़रूरत है?” महेसा और उलझ रहा था।

“तुम्हारी नासमझी के लिए का कहूँ! यहाँ घर पर मेरी देखभाल कौन करेगा? सगे-सम्बन्धी भी नहीं, जो ज़रूरत-बखत पर आ जाते। ...सुना है अस्पताल में तकलीफ़ भी नहीं होती, ऐसी दवा देते हैं डाकदरजी ।”

महेसा हँसा। अब समझ पाया था वह। उत्साह से भरकर बोला, “जिला अस्पताल में चली चलना! पैसा सब देखभाल करा देगा, भगवान का दिया सब-कुछ है!”

लेकिन पारबती उसकी ख़ुशी में हिस्सा नहीं बँटा पायी। उसके मन में जैसे डर समाया हुआ था। बोली, "एक बात कहूँ? ...हमें बड़ा डर लगता है, लगता है जान चली जायेगी ।”
“बेकार डरती हो तुम!”

“बेकार नहीं, न जाने मन में कैसी-कैसी बातें व्यापती हैं! बड़े डरावने सपने दिखाई पड़ते हैं! साँस रुकने लगती है!” पारबती ने बाँहें छाती पर कस ली थीं।
“तो हमारे साथ लेटा करो,” महेसा ने उपाय बता दिया।
'कुछ तो सोचा करो!”

“हम कहें कि आजकल तुम कतरायी-कतरायी काहे रहती हो! ...बेकार की बातें मन में मत लाया करो पारवती! आ, खाट टीन में कर लें।”
पारबती ने उठकर खाट पकड़ते हुए कहा, “अब इतना बाहर मत रहा करो, न जाने कब क्या हो जाये!”

महेसा ने खटिया से खटिया मिला ली और पाटी के पास सरककर हाथ उसकी बाँह पर रख दिया, “अब डर नहीं लगेगा तुम्हें।”

कुछ देर बाद पारबती सो गयी, पर महेसा को नींद नहीं आ रही थी। पारबती का पैर एकाएक हिला और साँस तेज़ हो आयी, जैसे वह डर रही हो। महेसा ने उठकर उसके माथे पर हाथ फेरा। बड़ी देर तक बैठा देखता रहा और जब उसे नींद आने लगी, तो लोहे का एक चाकू लाकर उसने पारबती के सिरहाने रखा और लेट गया, जैसे पारवती नन्‍हीं-सी बच्ची हो!

इन दिनों उसका मन बहुत भरा-भरा रहता। पारबती इस लायक नहीं थी कि उसे झील तक ले जाता, ख़ुद भी बैठता और उसे भी दिखाता वहाँ की सुन्दरता। इसलिए वह आसपास ही कुछ देर के लिए चला जाता। हाफ़िज़जी की बिसाती की दुकान पर अगर बैठ जाता, तो पारबती के लिए नाखूनों की लाली, कोई छोटा-सा शीशा या और कोई ऐसी चीज़ खरीद लाता जिसे हाफिज़जी नयी चाल की बता देते ...एक दफ़ा हाफ़िज़जी ने उसे फ़ोटो-फ्रेम दिखाकर कहा, “इसमें मियाँ-बीवी की तस्वीर लगती है। बड़े घरों में लोग इसे रखते हैं।” फ़ोटो-फ्रेम तो वह ले आया, पर तस्वीर नहीं थी। तीसरे ही दिन उसने पारबती को तैयार कराया, सारे गहने उसे पहनने को मजबूर किया और ख़ूब तेल लगाकर रामा फ़ोटोग्राफ़र की दुकान पर जा पहुँचा।

साथ-साथ बैठते हुए उसने पारबती के सर का पल्ला कानों के पीछे कर दिया और अपनी कमीज़ की जेब में सतरंगा रेशमी रूमाल रख लिया। अपने गले का तावीज़ भी खींचकर ऊपर कमीज़ पर निकाल लिया, ताकि तस्वीर में सब-कुछ दिखाई पड़े। अपने पीछे बाग का पर्दा लगवाया, जिसमें दो चिड़ियाँ चोंच से चोंच मिलाये बैठी थीं। पारबती को भी वह पर्दा पसन्द आया था।
लेकिन तस्वीर में और सब तो ठीक आ गया, अफ़सोस सिर्फ़ बालों का था।
“ससुरे ने हमें बूढ़ा बना दिया! काहे, पारबती ?”
“तुम्हें ही बड़ा शौक चर्राया था। एक रुपया ख़राब कर दिया!”

पर महेसा को इस बात का मलाल नहीं था। उसने तस्वीर को फ्रेम में लगाकर बरामदे वाली घरोंची पर सजा दिया। ऐसी तस्वीर मुश्किल से किसी के घर निकलेगी...मुख़्तार साहब के घर ही हो सकती है!

उस दिन भी वह हाफ़िज़जी की दुकान पर बैठकर लौट रहा था। पारबती के बालों में लगाने के लिए विलायती पिन लाया था। पिन के पत्ते पर बनी मेम को वह ताक रहा था कि पारबती ने पूछा, “मन्दिर के लिए मिस्त्री से बात हुई?”
“मिस्त्री तो नहीं मिले, पर एक नयी बात सुनने में आयी है।”
“का?” पारबती ने उत्सुकता से जानना चाहा।
“अपनी बस्ती में बिजली लग रही है; चुंगी वाले बड़ी कोशिश में हैं, पर पैसा पास नहीं है चुंगी के ।”
“तो बिजली का लगेगी?”

“सुना, चुंगी अपनी कुछ ज़मीनें बेचने की बात सोच रही है, ऐसी ज़मीनें जो उसके लिए बेकार हैं!” महेसा ने कहा तो पारबती एकदम बोली, “चुंगी अगर बेचे तो अपने चबूतरे के पास वाला कूड़ाख़ाना हम ख़रीद लें! ...चबूतरे पर मन्दिर हो जायेगा और उधर मुसाफ़िरों के लिए छोटी-सी धरमसाला! तुम ज़रा सच्ची बात पता लगाओ!”

“बात तो सच्ची है। हाफ़िज़जी का रोज़ चुंगी में आना-जाना लगा रहता है, गलत ख़बर नहीं लायेंगे, वो ही बता रहे थे।” महेसा ने जैसे उसे इत्मीनान दिलाया, “मौका लगा तो ख़रीद लेंगे।”
“का पता कब तक हो!”

झील की ओर से तभी चिड़ियों का कातर शोर सुनाई पड़ा और उसका मन बहक गया। एकदम बोला, “शायद शिकारी आये हैं।”

ऊपर आसमान से “आंग-आंग' करते चक्रवाकों के जोड़े गुज़र रहे थे। महेसा का मन ग्लानि से भर आया। बोला, “इन्हें मारने से फ़ायदा! इत्ती सुन्दर चिड़िया है, पर मुर्दा खाती है!”

“आजकल नयी-नयी चिड़ियाँ बहुत दिखाई पड़ती हैं, पहचान में भी नहीं आतीं,” पारबती ने कहा, “न जाने कहाँ से इतनी आ जाती हैं!”

“ये चिड़ियाँ मेहमान हैं। ...कातिक ख़त्म होते आती हैं और फागुन-चैत तक चली जाती हैं।” महेसा पारबती को बता रहा था, “हमने चिड़ियों के अंडे भी जमा किये हैं, तुझे नहीं बताया, नहीं तो घर से निकाल देती।”

“अब भी निकाल सकती हूँ।” पारबती कह ही रही थी कि 'दिखाऊँ' कहता हुआ महेसा उठकर गया और तरह-तरह के सफ़ेद, चितकबरे, हरियाले-से अंडे उठाकर ले आया।

“देख पारबती, यह वाक का अंडा है, यह सारस का और यह सोनापतारी का!” महेसा एक-एक अंडा उठाकर दिखाने लगा। वैसे तो पारबती नहीं छूती, पर उसने सोनापतारी का अंडा हाथ में ले ही लिया। घुमाकर देखते ही हाथ से छूटकर वह गिर पड़ा और टूट गया, तो पारबती के मुँह से चीख़ निकल गयी, “हाय दइया !!”
“टूट गया तो कया हुआ?” महेसा ने सरलता से कह दिया।

पर पारबती के चेहरे पर काले बादल-से छा गये थे, उसका दिल धक्‌-से रह गया था, बहुत धीमे स्वर में बोली, “असगुन हो गया,” और आँचल में मुँह छिपाकर रो पड़ी।

और पारबती उस दिन भविष्य के आशंकामय परिणामों को सोचकर रोयी थी “बिल्कुल वैसे ही करुणापूर्ण और असहायता से भरी उसकी आवाज़ जच्चा-बच्चा अस्पताल में थी...

महेसा को सब कुछ याद आता है। यह कैसे होता है कि आदमी हमेशा एक ही तरह से रोता है! ...पारबती की वह आवाज उसे भूलती नहीं, जब उसने अस्पताल के पलँग पर पड़े हुए महेसा को अपने पास बुलाया था, “इतने दिन चढ़ गये हैं, डॉक्टरनी कहती है कि चीरा लगाना पड़ेगा!” पारबती का रोम-रोम जैसे काँप रहा था चीरे का नाम सुनकर। आँखों में आँसू भरकर उसने महेसा की बाँह पकड़ ली थी और बड़े ही दर्द-भरे स्वर में कहा था, “अब मेरा कोई ठिकाना नहीं, पता नहीं ईश्वर को क्‍या मंजूर है!”

“दिल छोटा क्‍यों करती हो पारबती? तुम जीती-जागती घर पहुँचोगी। ...मैं मन्दिर बनवाऊँगा और मुसाफ़िरों के लिए धरमसाला!”

लेकिन पारबती जीती-जागती घर नहीं पहुँची। बच्चा पेट में मर गया था और ऑपरेशन के बाद भी उसकी बिगड़ती हालत को अकेली डॉक्टरनी संभाल नहीं पायी थी। ...सारा शरीर नीला पड़ गया था, पारबती के शरीर में ज़हर फैल गया था।

और महेसा को पारबती का हलका नीलापन लिये शरीर ठीक वैसा ही लगा था, जैसा कि उस दिन चाँदनी में उसने देखा धा। पारबती की साँसें धीमी पड़ती जा रही थीं, वह एकदम निश्चिन्त लग रही थी, और उसने महेसा को पास बुलाकर कहा था, “अब मन्दिर ज़रूर बनवा देना, पारबती मन्दिर!”

मन्दिर! सोचकर महेसा का कलेजा फट गया था। आख़िरी आस थी उसे, चीख़कर बोला था, “ऐसा मत कहो पारबती! बच्चा मर गया तो क्‍या हुआ, तू तो जीती-जागती है!”

“मुझे देख लो, अच्छी तरह देख लो!” पारबती की आँखों से आँसुओं की धार बह-बहकर कानों के पास से होते हुए नीचे गिर रही थी। ...फिर...फिर उससे नहीं देखा गया, जैसे पारबती के प्राण खिंच रहे थे और फिर पारबती के निचले होंठ सूखकर चटक गये थे।...
महेसा की दुनिया वीरान हो गयी और वीरानापन देखकर आदमी पगला जाता है।

बस्ती के आदमियों का यही कहना था कि महेसा पगला गया। जो आदमी, आदमी का ख़याल नहीं करता, वह पागल नहीं तो और क्‍या है? आदमी के दुःख-दर्द को जो नहीं समझता, उसे और क्या कहा जाये? महेसा, वह मुक्त और निश्चिन्त महेसा, एकदम बदल गया था!

उसे सिर्फ़ पैसे की फ़िक्र थी। पारबती का फैला हुआ रुपया वह बड़ी कड़ाई से वसूल कर रहा था। ...घर का अकेलापन उसे काटने दौड़ता। ...इतना प्यार पाकर अब जैसे उसकी आदत बिगड़ चुकी थी।

लोगों ने कहा, “महेसा पण्डित, दूसरी शादी कर लो। इतना रुपया-पैसा किस काम आयेगा? आस-औलाद भी तो नहीं!”

महेसा ने जवाब दे दिया, “पारबती के बराबर कोई मेरा ख़्याल करे तो सोचूँ भी...नहीं, तो भी न सोचूँ। ग़लत बात बोल गया। ...बेकार का मखौल मत किया करो! अब बूढ़ा हो चला ।”

यों पारबती से दस बरस छोटा था महेसा, पर पारबती की मौत के बाद वह उससे दस बरस बड़ा लगने लगा। कनपटियों पर तीन ही बरस में सफ़ेदी आ गयी और गरदन के नीचे की खाल झुर्रियों से भर गयी। सचमुच, आदमी बूढ़ा नहीं होता, वक़्त उसे बूढ़ा बना जाता है।

सूने घर में महेसा आठ-आठ आँसू रोता और उसे पारबती की एक-एक बात याद आती...चीज़ें देखता तो आँखों में आँसू भर आते...वह टीन का बक्सा, जिसमें उसके कपड़े रहते थे...और जिसमें पारवती अपने रुक्के और रुपये भी रखती थी...सन्दूक के ऊपर वाली कील में किनारी में बँधी चूड़ियों का लच्छा देखकर वह उस दिन रो पड़ा था। ...एक-एक चूड़ी उसने पहचानी थी...कौन-सी किस मेले में पहनायी थी उसने...और दूसरा जोड़ा पहनने के वक़्त उसने कब-कब इन चूड़ियों को उतारा था...भरी आँखों से वह देखता रहा। ...घर का सूनापन उसे अब काटने दौड़ता। ...दीवार पर सगनौती की लकीरें देखकर उसे फिर कुछ याद आया...जब एक बार वह दो दिन के लिए कहकर चार दिन बाद लौटा था, शायद तभी पारबती ने गेरू से यह सगनौती उठायी होगी...वह जो कुछ करती थी उसमें सिर्फ़ उसी के लिए तो सब कुछ था, और कौन था उसका? न पारबती का कोई था और न अब महेसा का कोई रह गया है!...

और जब वह जगन नाई के घर धरना देकर बैठ गया कि आज हिसाब मय मूल-व्याज के चुकता करके उठेगा, तो उसकी औरत ने भीतर से उकराकर कहा, “पण्डित, तुम जो इतने जालिम हो कि किसी की पत नहीं देखते! ...पारबती चाची मुँह से चाहे जितना बिगड़ें, पर आदमी की मरजाद और इज़्ज़त का तो ख़्याल करती थीं.”

“ये सब हम नहीं जानते! हम रुपया लेके उठेंगे आज! पूरा सौ रुपया है मय व्याज के!” महेसा ने कड़कती आवाज़ में कहा और चोटी की गाँठ खोल ली।

जगन नाई बहुत गिड़गिड़ाया, “महाराज, घर की नींव खुदवा लो तो भी इस बखत पच्चीस से एक पाई ज़्यादा नहीं निकलेगा। ...थोड़ी सी मोहलत और मिल जाये!”

आख़िर चार भले आदमियों ने आकर जब बहुत समझाया तो महेसा किसी तरह राम-राम करके उठा।

कुछ दिनों बाद महेसा, जो अब महेस पांडे के नाम से पुकारा जाता था, बस्ती से चला गया। सुना, चुनार-मिर्ज़ापुर की तरफ़ पत्थर की तलाश में गया है। कर्ज़दारों ने सुख की साँस ली थी, पर वह पन्द्रह दिन के भीतर-भीतर लौट आया। चौधरी के बाग़ में बैठकर बता रहा था, “पारबती मन्दिर के लिए सामान देखने गया था। सूरत-जयपुर से बनवाऊँगा ।”

लोगों का कहना था कि सोना-चाँदी मिलाकर कुल आठ-दस हज़ार की पूँजी है उसके पास। और जो दबा-दबाया हो सो अलग । इस बीच उसने काफ़ी बकाया रुपया वसूल कर लिया था।

धीरे-धीरे रुपये की उसकी तृष्णा भरती-सी लगी। हाफ़िज़जी की दुकान से गुज़रता तो आवाज़ सुनकर कह देता, “अब क्‍या करूँगा बैठके हाफ़िज़ मियाँ? -पहनने-ओढ़ने वाली तो चली गयी।”

एक दिन हाफ़िज़जी ने उसे हाथ पकड़कर बैठा लिया। बैठे-बैठे बात चल निकली, “सुना, मन्दिर बनवाने की फिकर में हो!”

“बस, यही एक काम करना है हाफिज़जी! किसी तरह मन्दिर और एक छोटी-सी धरमसाला बन जाये, तो मन को शान्ति मिले। पारबती यही कहती-कहती मरी थी।”

“यह तो धरम का काम है। बनाने खड़े होंगे तो दस आदमी हाथ बँटायेंगे। तुम शुरू तो करो ।” हाफ़िज़जी ने उसकी उदास नज़रें देखकर तसल्ली दी, “कभी ज़रूरत पड़े तो दस-बीस रुपये हमसे भी ले लेना।”

“रुपया पूरा नहीं है। लोग समझते हैं मेरे पास खत्ती खुदी है। पर सच हाफिज़जी, कुल चार हज़ार हैं, इतने में तो सीमेंट भी नहीं आयेगा ।”

ग्राहक आया देख हाफ़िज़जी भी उधर उलझ गये और महेस पांडे उठकर चल दिया । ऐसे ही एक दिन वह बस्ती की तरफ़ से घर जा रहा था कि झीलवाले रास्ते पर कुछ लोग दिखाई पड़े। उसके पैर उधर ही उठ गये। कुछ सैलानी थे, चार मर्द और दो औरतें। औरतें सुन्दर तो नहीं थीं, लेकिन फिर भी वह उनके पीछे-पीछे चल दिया। काफ़ी दिनों बाद आया था वह इधर।

नीली झील ख़ामोश थी। किनारों पर गीली आँखों की तरह नमी थी और घास की टहनियाँ हवा के साथ धीरे-धीरे पानी को सहला रही थीं। नरकुल की लम्बी पत्तियाँ, पक्षियों की कलगी की तरह काँप रही थीं और पानी में डूबी सिवार के सूतों से मछलियों के बच्चे कतरा-कतराकर निकल रहे थे। वह किनारे आकर बैठ गया। पानी के नन्‍हे-नन्‍हे बबूले नीचे से ऊपर सतह तक आये, तो लगा किसी मछली ने मोती उगल दिये हों। जलचरों की बारीक आवाजें झील के पानी में गूँज रही थीं और ऊपर पेड़ों पर पक्षियों के पंखों की सरसराहट और सीटियों की मद्धम आवाज़ें थीं।

काले सिर और श्वेत वक्ष वाली गंगाकुररी की हल्की-सी सीटी उसके कानों में पड़ी। आँखें उधर अटक गयीं। झील के ऊपर वह चक्कर काट रही थी, कुछ इस तरह, जैसे उसे चक्कर में उड़ाने वाली अदृश्य डोर किसी के हाथों में हो और वह बस घूमती ही जा रही हो। वह जानता है कि गंगाकुररी पेड़ पर नहीं बैठेगी। तभी वह तीर की तरह पानी के ऊपर गिरी और चमकदार मछली उसकी लम्बी चोंच में थी।

तभी संगीत की आवाज़ उसके कानों में पड़ी। आये हुए सैलानी लोग कुछ गा-बजा रहे थे। नीली झील के शान्त पानी पर उनके स्वर तैरते हुए दूर तक जा रहे थे। उसे बड़ी शान्ति मिली।

फिर सवनहंसों का एक झुण्ड अपने राग का स्वर मिलाता हुआ झील के दूसरे किनारे पर उतर पड़ा और दो-चार हंस गेहूँ और चने के खेत में घुसकर अंकुर खाने लगे। गरदन उठा-उठाकर वे ऐसे देख रहे थे, जैसे अजनबी हों, और सचमुच वे अजनबी ही हैं। महेस पाण्डे का मन न जाने क्यों भर आया! वे सवनहंस अब आये हैं, चार-पाँच महीने रहकर पारबती की तरह चले जायेंगे, या फिर किसी शिकारी का शिकार हो जायेंगे, जैसे पारबती हो गयी। इनके धूसर पंख ख़ून की लकीरों से रंग जायेंगे और इनके पंखों को पकड़कर शिकारी ऐसे लटका ले जायेगा जैसे मुर्दा पारवती को अस्पताल के भंगी पलँग से उठाकर उस सूने बरामदे में ले आये थे।...

तभी करकर्रा बोला, सफ़ेद कलगी की शान में वह गरदन लपकाता हुआ चला जा रहा था। शायद आरामदेह, रेतीली ज़मीन खोज रहा है करकर्रा। ...फिर एक भयंकर धड़ाके की आवाज़ से वह चौंक उठा। बायीं ओर फैले दलदल से सारसनी की तुरही-सी तेज़ चीख़ आयी और गूँजती रही। वह बार-बार चीख़ रही थी और सारस अकुलाया-सा कुछ ऊपर चक्कर काट रहा था। कभी वह दलदल में उतरकर चीख़ता, कभी लम्बे-लम्बे डग भरकर इधर-उधर लपकता और वैसी ही तेज़ आवाज़ में चीख़ने लगता। गिरी हुई सारसनी की आवाज़ फट गयी थी और उसकी गरदन कुचले हुए साँप की तरह फड़फड़ा रही थी।

सवनहंसों का झुण्ड तट से भागकर खेतों में चला गया। ...अभी-अभी कुछ क्षण पहले का स्वप्निल वातावरण एकदम भयानक हो उठा था। झील का पानी सीमा में बद्ध जैसे थर्रा रहा था और भीगे किनारों पर निर्जीव स्वर टकरा रहे थे। पेड़ों में अभी-अभी सनसनाहट भर गयी थी। दलदल में घायल पड़े सारस को उठाकर लाने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी किसी की।

महेस पाण्डे ने पास आकर उन सैलानियों को देखा। उसे उम्मीद थी कि पारबती की तरह ऐसे क्षण में इन औरतों की आँखों में पानी डबडबा आया होगा, पर उनमें तो शिकारी के निशाने की प्रशंसा भरी थी।

यह घर लौट आया। रात-भर उस अकेले घर में उसे बार-बार वही तेज़ आवाज़ सुनाई पड़ती रही। फिर जाने कहाँ से अस्पताल में चीख़ती पारबती की आवाजें आने लगीं। ...सुबह होते ही उससे रुका नहीं गया। वह सीधा झील पहुँचा । झील के ऊपर का धुआँ धीरे-धीरे साफ़ हो रहा था। कांद का जोड़ा किनारे पर बैठा काई खा रहा था। झील के शान्त सौन्दर्य ने उसे इस क्षण बिल्कुल प्रभावित नहीं किया। उसके पैर दलदल की ओर बढ़ रहे थे। उसे सारस दिखाई दिया। वह मृत पड़ी सारसनी के पंखों में चोंच गड़ा-गड़ाकर उसे जगा रहा था शायद, और जब सारसनी नहीं जगी, तो वह विलाप करता झील की ओर चला आया।

वहीं पेड़ के नीचे बैठकर वह देखता रहा-मानसरोवर और कैलास से आये देवहंसों को, जो गन्धर्वों के देश से आये थे, प्रवास के लिए...कोमल और पवित्र पक्षी! ...हलकी किरणों में सोनापतारी के स्वर्णपंख चमचमा उठे। उसका मन उदासी से भर गया । इन परदेसी पक्षियों से क्या नाता जोड़ना! बैठे-बैठे जब वह ऊब जाता, तो बस्ती की ओर चला आता।

बस्ती में नाप-जोख होने लगी तो लोगों को विश्वास हुआ कि अब बिजली लग जायेगी। महेस पाण्डे ने भी हाँ में हाँ मिलायी, “सुना, उत्तर की तरफ़ बहुत बिजली पैदा की जा रही है, वहीं से यहाँ आ रही है।”

तभी मुनादीवाला ऐलान करता सुनाई पड़ा, “ब-हुकुम चियरमन साहब के चुंगी की कुछ ज़मीनों का नीलाम ब-तारीख चार जनवरी सोमवार को चुंगी अहाते में सवेरे आठ बजे से होगा... । ज़मीनों के नकसे दफ़्तर चुंगी में ख़रीदारों के लिए लगे हैं! ...हर ख़ास व आम को ख़बर दी जाती है कि...” और मुनादी वाले ने तबले पर बाँस की खपच्चियों से चोट की और आगे बढ़ गया।

चार जनवरी में अभी बीस दिन थे। महेस पाण्डे के दिमाग़ में चबूतरे के पास वाली ज़मीन घूमने लगी। चुंगी को बिजली के लिए रुपये की ज़रूरत है और उसे धर्मशाला के लिए उस ज़मीन की।

मन्दिर और धर्मशाला की बात को लेकर वह सभी के पास पहुँचा, “धरम का काम है। सबसे ज़्यादा रुपया हम लगायेंगे, कुछ मदद आप लोग करें। धरमसाला पंचायती कर दी जायेगी। आप लोग दस-दस, बीस-बीस रुपये से भी मदद करें तो यह कारज हो सकता है।”

मारवाड़ी मिलवालों ने एकमुश्त पचास रुपया दे दिया, लेकिन उसका खाता डाकखाने में खुलवा दिया। महेस पाण्डे ने तीन हज़ार रुपया भी उसी खाते में जमा कर दिया। इन बीस दिनों के बीच वह घर-घर घूमा। मुख़्तारों के पास गया, हलवाइयों और वैद्यों के पास गया, कपड़े के आढ़तियों से लेकर अंग्रेज़ी डॉक्टरों तक पहुँचा और कुल मिलाकर एक हज़ार रुपया और जमा हो गया।

सबकी आँखों में महेस पाण्डे का रुतबा और सम्मान एकाएक बढ़ गया था। अब सिर पर वह गेरुआ साफ़ा बाँधने लगा था और हाथ में लाठी लेकर चलता था। शरीर कुछ शिथिल हो रहा था।

लेकिन इस ढलते शरीर के साथ भी वह दिन-भर घूमता और अपने साफे में किसी चिड़िया का गिरा हुआ सुन्दर-सा पर कलगी की तरह खोंस लेता। चुंगी दफ़्तर में जाकर वह नक्शे भी देख आया था। नीलाम का दिन पास आ रहा था, और जैसे-जैसे वह दिन निकट आता जाता, महेस पाण्डे की उदासी और बढ़ती जाती।

झील पर शिकार खेलने के लिए आदमियों की बहुत-सी टोलियाँ इस बीच आयीं और गयीं, और अपने घर पर बैठे या बस्ती में घूमते हुए उसने जब-जब चीत्कारें सुनीं और साहब शिकारियों को नरम पंख वाली चिड़ियों को लटकाये ले जाते देखा, तब-तब उसे पारबती की याद आयी बेतरह। उसकी हालत भी तो उस सारस के जोड़े की तरह ही थी...

घर में लेटता तो उड़ते पक्षियों के नरम, कोमल पंखों की सरसराहट उसे महसूस होती, जैसे पारबती केलासन की धोती पहने अदृश्य रूप से गुज़र गयी हो। ...पर्वतों से आये मेहमान पक्षियों के सफेद और सेमल की रूई-से सजीले पंख और पारबती के सफ़ेद दाँत!

सुबह उठा तो मन नहीं लगा और वह शान्ति पाने के लिए झील की ओर चला।

झील पर पहुँचकर अपनी लाठी से वह काई को छितराता रहा। सिवार के सूतों को उलझाकर उसने निकाला, नन्हे-नन्हे बीज चुनकर मुँह में डाल लिए और उठकर उधर चला गया, जिस ओर जलमंजरी खिली हुई थी। जलमंजरी के पास से ही दलदल शुरू हो जाता था। नारी की बेल पानी में तारों की तरह बिछी हुई थी और गाँठों के पास नन्हे-नन्हे घोंघे चिपके हुए थे। सूत-सी सफ़ेद नन्ही-नन्ही जड़ें मछली के उजले पंखों की तरह धीरे-धीरे काँप रही थीं। दलदल में घुसकर उसने जलमंजरी के फूल तोड़े और गुच्छा बनाकर लौटने लगा।

सोनापतारी का झुण्ड रात-भर चारा खाकर उड़ने ही वाला था कि एक गोली उस पार से छूटी और उड़ते सोनापतारी के झुण्ड में से एक पक्षी बिलबिलाकर छप्प-से झील के बीचोबीच गिर पड़ा। उसके सोने से पंख पानी पर छितरा गये और नीली झील के ख़ामोश पानी पर एक हलचल हुई। एक क्षण बाद ही लाल ख़ून की एक पतली-सी लकीर पानी पर खिंची और सोनापतारी तैरती हुई उस पार जाने की कोशिश करने लगी। उसके नरम पंख फड़फड़ा रहे थे और पानी पर ख़ून की लकीर उसका पीछा कर रही थी।

झुरमुट में से शिकारी निकले। उन्होंने देखा, पर वह पक्षी, तैरता हुआ उस किनारे निकलकर किसी झाड़ी में दुबककर ख़ामोश हो गया। शिकारियों ने बहुत खोजा पर पक्षी नहीं मिला। झील पर मिटती हुई लकीर के बीच एकाध पंख पड़ा था।

उसका मन उचाट हो गया । जलमंजरी के फूलों को वहीं फेंककर वह लौट आया।

पारबती की याद उसे फिर आयी और नीलामी वाले दिन उसने तीन हज़ार की बोली लगाकर चबूतरे के पास वाली ज़मीन नहीं, दलदली नीली झील ख़रीद ली। लोगों की आँखें फट गयीं। इसका दिमाग़ तो नहीं ख़राब हो गया?
“मन्दिर का नाम लेकर इसने धोखा दिया है। रुपया हजम कर गया है।”

लेकिन उसने किसी को कुछ भी जवाब नहीं दिया, और मन में लगता कि अब तो वह पारबती को भी जवाब नहीं दे सकता । उसके पास जवाब है ही क्या?

फागुन आते-आते मेहमान पक्षी उड़ गये। सवनहंस चले गये, सफ़ेद सुरखाब अपने पुराने घरों में लौट गये। मुअर, सन्‍द, करकर्रा और सरपपच्छी भी चले गये। ...झील बहुत सूनी हो गयी थी, पर महेस पाण्डे को विश्वास था कि ये फिर हमेशा की तरह अपने झुण्डों के साथ कातिक-अगहन तक वापस आवेंगे।

महेस पाण्डे लिखना-पढ़ना तो जानता नहीं था, बस झील वाले रास्ते के पहले पेड़ पर उसने एक तख्ती टाँग दी थी, जिस पर उसने लिखा था, 'यहाँ शिकार करना मना है।' और नीचे की पंक्ति थी, 'दस्तखत नीली झील का मालिक, महेस पाण्डे!'

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