नयी व्यवस्था (कहानी) : जैनेंद्र कुमार
Nayi Vyavastha (Hindi Story) : Jainendra Kumar
बीसवीं शताब्दी के चतुर्थ दशक के अन्त की ओर आरम्भ होने वाले इस युद्ध ने जगत की आँखें खोल दीं। जन संख्या आधी रह गयी । स्त्रियों का अनुपात पुरुषों से दुगुना बढ़ गया। युद्ध की समाप्ति पर लोकदक्षों ने सोचा कि ऐसे नहीं चलेगा। जगत की कुछ नयी व्यवस्था करनी होगी। विश्व अब राष्ट्रों में बँटा नहीं होगा। राष्ट्र यदि मूल इकाई रहते हैं तो मिलना न मिलना उन पर निर्भर हो रहता है। इस तरह जगत अखण्ड होने में नहीं आता। अब इस स्थापना से चलना होगा कि विश्व एक है। अतः अब देश नहीं होंगे। सोचा गया कि विभाग चार हों-उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम । यही नैसर्गिक है। ये चार विभाग एक अन्तरविभागीय संस्था से संयुक्त हों। भूमध्य रेखा के उत्तर में तैंतीस अंश की देशान्तर रेखा से ऊपर का भाग उत्तर और मकर- रेखा से नीचे का भाग दक्षिण ठहराया गया। बीच के अंश में पूर्व-पश्चिम की पहचान के लिए जो अक्षांश रेखा वर्तमान लाल सागर के मध्य से जाती है उसको विभाजक रेखा करार दिया गया । अन्तरविभागीय केन्द्र में तीन सर्वाधिकारी नियन्ता सदस्य हुए और विभागों के चार अलग-अलग अध्यक्ष नियत हुए।
नीति स्थिर हुई। नक्शे बने और नयी व्यवस्था शुरू हुई। चारों विभागीय अध्यक्षों ने तीन केन्द्रीय सदस्यों के साथ मिलकर व्यवस्था सम्बन्धी सब समस्याओं पर विचार किया और यथावश्यक निर्णय किया। अन्त में पूर्व के विभागाध्यक्ष ने कहा, "ईश्वर के बारे में हमारी नीति स्पष्ट होनी चाहिए। यह संज्ञा किसके लिए है, यह तय हो जाना चाहिए। ईश्वर व्यक्ति नहीं, वर्ग नहीं, फिर भी सब कहीं इस संज्ञा का प्रवेश है। इससे सुविधा भी होती है और असुविधा भी होती है। इस विषय में विश्व - व्यवस्था की दृष्टि से हमें एक और स्पष्ट नीति बना लेनी चाहिए। "
बात संगत थी । अतः उस पर काफी विवेचन हुआ । प्रतीत हुआ कि ईश्वर नामक संज्ञा सुव्यवस्था में सहायता तो अवश्य देती है। व्यवस्था का सार है बँटवारा, जिसका अर्थ है श्रेणी । श्रेणी में तरतमता आ ही जाती है। इस कारण किंचित घट - बढ़पन का भाव आना भी अनिवार्य है। 'ईश्वर' की मदद से इस अनिवार्य विषम भाव का विष निवारण हो जाता है और श्रेणी विभाजन में एक औचित्य आ जाता है। ईश्वर न हो तो भाग्याधीन भाव व्यक्ति में से नष्ट हो जाए और सब में परस्पर स्पर्द्धा बुद्धि जगी रहे। इस तरह व्यक्ति सदा असन्तोष में ही धधकता रहे ।
चर्चा में इतिहास की ओर भी दृगपात हुआ। उस इतिहास पर फैला हुआ दिखाई दिया कि शासन ने सदा देवता की सहायता ली है। वह देवता अधिकांश प्रजा की मान्यता में से लिया गया है। विजय या कूटनीति के बल पर राज्य - विस्तार हुआ है तो एकाधिक देवताओं के समुच्चय-रूप में नये-नये राजदेवताओं का आविर्भाव हुआ है । क्रान्ति हुई है तो पुरातन को पदाक्रान्त करके मूल से कोई नया ही देवता गढ़ डाला गया है। इस देवता के मान- पूजा की सरकार ने चिन्ता और व्यवस्था की है। उसके अधिवास का नाम मन्दिर रखा है, जिसका महल से भी अधिक महत्व है। एक पूरा विभाग उस देवता की सुरक्षा, सेवा, प्रतिष्ठा और प्रचार के लिए नियुक्त हुआ है । देशों में, जातियों में, अपने देवता को लेकर एकता आयी है। जिन्होंने कुछ बदलना चाहा है, यदि समझदार थे तो उन्होंने आरम्भ उस देवता से किया है। नयी व्यवस्था यानी नया देवता। एक व्यवस्था यानी एक देवता । सचमुच दुनिया यदि एक है तो यहाँ ईमान भी एक होना चाहिए। एक देवता, एक पूजा, एक मन्दिर, एक मुद्रा ।
लेकिन दूसरा दृष्टिकोण था कि क्या देवता होना ही चाहिए ? देवता सम्प्रदायों में दरक्षा के लिए बने । एक गिरोह ने अपने संगठन के लिए अपना देवता बनाया, पर संगठन दूसरे गिरोह से मोरचा लेने के लिए बनाया। इस तरह देखा जाए तो देवता की वहीं जरूरत है जहाँ अनेकता हो । दुनिया जब एक है, तब देवता अनावश्यक है।
इस भाँति बहुत देर तक विवाद रहा और निष्कर्ष पर पहुँचना सम्भव नहीं हुआ । पूर्व के विभागाध्यक्ष ने कहा, "देवता का प्रश्न ईश्वर से भिन्न है। देवता अनेक हैं, ईश्वर एक है। लड़ने वालों के देवता अलग-अलग होते हैं, पर दोनों एक ईश्वर को मानते हैं। इस तरह लड़ते हुए भी उनके बीच जमीन रहती है। जहाँ वे सन्धि पर आ सकें।"
इस पर पश्चिमाधिकारी ने कहा, “ठीक यही जमीन है जहाँ खड़े होकर अपनी लड़ाई को वे धर्म युद्ध का रूप दे पाते हैं। यह धर्म युद्ध को विकराल बनाता है।"
खैर, यह तय हुआ कि तीन व्यक्तियों की एक तत्व - समिति बैठायी जाए जो निम्नांकित बिन्दुओं पर अपना मन्तव्य उपस्थित करे-
1. ईश्वर होना चाहिए कि नहीं ?
2. यदि हाँ, तो किस रूप में, किस मात्रा में ?
3. व्यवस्था और शासन के साथ ईश्वर का क्या सम्बन्ध हो ?
4. ईश्वर केवल मान्यता हो कि संस्था भी हो ?
5. यदि संस्था हो तो विश्व - व्यवस्था के व्यूह में उसे कहाँ किस पंक्ति में किस प्रकार हल करके बिठाया जाए ?
समिति को इस शोध के लिए तीन वर्ष का अवकाश मिला।
दुनिया के पास अब लड़ाई नहीं थी । इसलिए एक उत्साहप्रद विषय की आवश्यकता थी । शान्ति में उत्साह नहीं होता। संघर्ष उर्वर है। समिति के सदस्यों ने बैठकर आपस में आरम्भिक बातचीत की तो उसमें गर्मी विशेष नहीं आयी । गर्मी तत्व में नहीं, राग-द्वेष में है । इसलिए एक लम्बा प्रश्न-पत्र तैयार किया गया जो तमाम विद्वानों के पास भेजा जाए और सब अखबारों में भी छपे ताकि गर्मी-गर्मी उपजे और विचार प्रबलता के साथ किया जा सके।
लड़ाई के बाद थकान थी और अध्यक्षों के पास रचनात्मकता के अतिरिक्त शासन दमन का विशेष काम न था । यह उनके राजकीय दायित्व के लिए अपर्याप्त था। अब ईश्वर को लेकर सब जगह खासी सरगर्मी दिखाई देने लगी । और अध्यक्ष सचेत हो गए।
धीमे-धीमे गर्मी के फलस्वरूप विश्व की अखण्डता में दरार हो गयी।
दक्षिण-पूर्व विभाग का लोकमत पश्चिमोत्तर विभागों से मिलता नहीं दिखाई देता। क्यों ऐसा होना चाहिए, इसका कारण ऐतिहासिक और भौगोलिक हो तो हो, दूसरा कोई तर्क - शुद्ध कारण नहीं है। शिक्षा अब एक है, मुद्रा एक है, सरकार एक है। फिर भी यदि परिणाम में अन्तर है तो उसे अवैध और अनुचित कहना चाहिए। जो हो, प्रस्तुत स्थिति है कि समानता का तल अतल में धँस रहा है और मतभेद ही उभरता चला आ रहा है।
दो वर्ष बीतते- न-बीतते अन्तर्विभागीय केन्द्र के सदस्यों को इस समस्या पर विचार करने के लिए एकत्र होना पड़ा। वातावरण क्षुब्ध था। किन्तु देखा गया कि अन्तर उनमें भी वैसा ही बना है ! एक ही मान्यता है कि ईश्वर की सर्वोपरि सत्ता स्वीकार करके और सब कहीं उसी के नाम पर शासन चलाने के प्रयत्न और आश्वासन से ही हम विश्व की एकता को कायम और मजबूत रख सकेंगे। दूसरे का कहना है कि ईश्वर-तत्व मानव-व्यापार में असंगत है। यदि वह फिर भी लाया जाता है तो अहितकर है। असमर्थ ईश्वर का नाम लें तो समझ में आ सकता है। उसकी असमर्थता ही उसे सत्य बनाती है। पर सोच-विचार कर ईश्वर को बीच में लाना तो निश्चय ही अपने बीच एक ऐसे अनिष्ट तत्व को प्रवेश करना है कि जिसको लेकर बुद्धिपूर्वक हम योजना ही नहीं चला सकते ।
दोनों ओर दो ऐसे व्यक्ति थे जिनको मानव जाति की व्यवस्था का पूरा अनुभव था। उनको केवल सिद्धान्तवादी ही नहीं कहा जा सकता था, वे व्यवहार और वर्तमान के भी पुरुष थे। उन दोनों में गहरा अन्तर देखा गया। विवाद में वह अन्तर और भी प्रशस्त दिखाई दे आया। जान पड़ा दोनों दो तटों पर हैं और अपनी जगह से च्युत होकर कोई एक-दूसरे के पास आने को तैयार नहीं है। तब केन्द्र के तीसरे सदस्य ने कहा कि इस प्रश्न को यहीं बन्द कर देना चाहिए। किन्तु प्रश्न नामक वस्तु बन्द नहीं होती, दबती ही है। और जब प्रश्न स्वयं विवेक के शीर्षस्थान पर जा पहुँचा हो तो वह दबे भी तो कहाँ से और किससे ? अतः केंद्र की बैठक कई दिनों तक चलती रही । अन्त में दो सदस्यों ने त्यागपत्र दे दिया और तीसरे ने घोषणा की— केन्द्र भंग हो गया।
अब चारों दिशाओं में चार अध्यक्ष रहे। वही शेष थे, वही सब थे । तीन व्यक्तियों की मूल-तत्व- समिति की वैधानिक स्थिति कुछ न थी । प्रश्न को सुलगा दिया, यह उनका काम काफी था । वह दहक चला। ऐसे समय अध्यक्ष लोकतन्त्रीय अभ्यास और नीति के कारण परस्पर की व्यक्तिगत मित्रता पर विशेष नहीं अटक सकते थे। पूर्व-वर्ग पक्ष एक ओर अटल था। वह पक्ष था कि ईश्वर - पूर्वक ही रहा जा सकता है, अन्यथा जीवन वृथा है। ऐसे जीवन का मोह हमें नहीं है। पश्चिम की नास्तिकता प्राण रहते हम नहीं चलने देंगे। इस प्रकार का लोकमत प्रबलता के साथ पूर्व के पत्रों में हुंकार उठाने लगा ।
पश्चिम उधर जागृत था। ईश्वर उसे सह्य हो सकता है, लेकिन शासन का अंग और साधन होकर ही । यहीं तक उसकी सार्थकता है । आगे उसे बढ़ने दिया जाए, यह तो अब तक हुई उन्नति से हाथ धो लेना है। वे नहीं जानते जो ईश्वर को मानते हैं । विकास ऐसे के लिए नहीं ठहरेगा । और यदि यही होना है तो भविष्य की ओर दृष्टि रखकर हम एक और रक्त स्नान के लिए तैयार हैं। मानव - मेधा के स्वर्णोदय में हमारी निष्ठा है। अंधकार के युग को अब हम किसी कोने में भी बचा नहीं रहने देंगे। सभ्यता का दीप स्तम्भ हमारे हाथ है और हम उसके आलोक को लेकर पूर्व की जड़ता को ध्वस्त करके ही छोड़ेंगे।
ऐसे ही समय वक्तव्यों और विज्ञप्तियों से ज्ञात हुआ कि दिग्विभागों के अध्यक्ष यद्यपि जगत को अखण्ड मानते हैं, लेकिन अपने खण्ड की परम्परा और संस्कृति की रक्षा को भी परम कर्तव्य मानते हैं। वह भी विदित हुआ कि (पूर्व की दृष्टि में) पूर्व की परम्परा एक ओर अपूर्व है, और (पश्चिम की दृष्टि में) पश्चिम की परम्परा उतना ही निजी और अद्वितीय है।
इस अवसर पर दक्षिण भाग के एक पत्र ने याद दिलाई कि अमुक दिन तो लाल सागर की अक्षांश रेखा मानकर पूर्व-पश्चिम की हमने की सृष्टि ही थी । तब क्या स्पष्ट न हो गया था कि पूर्व-पश्चिम नाम की कोई वस्तु नहीं है। फिर यह झगड़ा क्या है ? क्या पिछले युद्ध के बाद हम सबने नहीं पहचाना था कि देशों की सीमा- रेखाएँ झूठी हैं और उनकी संस्कृतियों की निजता भी तब तक दम्भ है जब तक उनकी अपनी विशिष्ट संस्कृति का मान जगत की निखिलता में आत्म-सात होने की ही प्रेरणा उन्हें नहीं देता ? ये चार विभाग उसी दिन क्या सब प्रकार की अहंताओं को मिटाकर मात्र व्यवस्था की सुविधा के लिए ही नहीं बनाए गए थे ? क्या स्वयं विभागाध्यक्षों को उस घोषणा-पत्र की याद दिलानी होगी जो उन्हीं के हस्ताक्षरों से प्रचारित हुआ था? उसकी स्याही भी नहीं सूखी है और यह हम क्या देखते हैं ?
इस तरह की भावना अन्य तीनों विभागों के छुट-पुट पत्रों में भी प्रकट होती देखी गयी। पर यह लिखने वाले आदर्शवादी थे, विचारक थे, दार्शनिक थे, लेखक थे। ये यथार्थ से दूर कल्पना में रहनेवाले लोग थे। इनकी सुनना स्वप्न पर उड़ना था।
व्यवहार दक्षों ने सभा मंच से कहा कि तीन वर्ष से क्या स्थिति नहीं बदली है ? व्यवहार क्षण-क्षण बदलती स्थिति को ध्यान में रखता है। वस्तुजगत में सीधी रेखा कहाँ है ? कौन कहता है कि दिग्विभाजन काल्पनिक है ? उसका मूल सहस्राब्दियों गहरा और ठोस है । और वे भी भ्रम में हैं जो मानते हैं कि किन्हीं अक्षांश अथवा देशान्तर रेखाओं को विभाजन रेखा बनाना किसी कल्पित सिद्धान्त पर हुआ था। उसके पीछे वैज्ञानिक और ठोस शास्त्रीय कारण थे । पूर्व और पश्चिम दो हैं और रहेंगे। लोक दक्षों ने कहा कि अखण्डता भ्रम है और खण्डन शाश्वत है, उससे डरना नहीं होगा ।
इस प्रकार ईश्वर के स्वरूप से चलकर प्रश्न पूर्व और पश्चिम की अर्थात अपनी-अपनी विशिष्टता का हो रहा है। तब इतिहास में से अतीत गौरव का पुनराविष्कार हुआ । अपने-अपने विजेता, नेता और पराक्रमी पुरुष काल के गर्भ से निकलकर चेतावनी देते हुए जाग खड़े हुए। पूर्व की महिमा का उदय हुआ और उसके उन्नत भविष्य के चित्रों की अवतारणा हुई । इसी प्रकार पश्चिम को भावी निर्माण के प्रति अपने दायित्व के सम्बन्ध में सचेत होना पड़ा। उसने पहचाना कि वही तो मूर्धन्य है, उसी के हाथों में तो विज्ञान का विद्युत प्रकाश है, जो आगे के मार्ग को आलोकित करेगा। पूर्व !... वह सदा से जड़ता का गढ़ रहा है। इस बार आगे बढ़कर उसके कोने- कोने में हम अपना प्रकाश लेकर पहुँचेंगे। भविष्य का सन्देश लेकर हमें आगे बढ़ना होगा। हम मानवता के अग्रदूत हैं।
सारांश, तैयारियाँ हो रही हैं और नयी व्यवस्था तीन वर्ष में दूसरी नयी के लिए जगह करती दीखती है !