नया भोर (रूसी कहानी) : सेर्गेइ अन्तोनोव

Naya Bhor (Russian Story) : Sergei Antonov

हम पुल के पास बैठे थे। अलेक्सेइ एक लट्ठे पर और मैं अपने टियोडोलाइट यंत्र के डिब्बे पर। मैं अपनी दिशा की तरफ जाने वाली कार पकड़ना चाहता था इसलिए सड़क पर से नजर नहीं हटा रहा था।

सुबह से लगभग पाँच बजे थे। पौ फट रही थी। भोजपत्र के वन के ऊपर आकाश में हल्की लालिमा छायी हुई थी लेकिन सूर्य अभी उदय नहीं हुआ था। चिड़िया अभी सो रही थीं। कगारों के किनारे छितरे बसे हुए गाँव के अन्तिम घर में आग जल रही थी और धुएँ के महीन रेशे शान्तिपूर्वक आसमान में घुमड़ रहे थे।

समय-समय पर हमेंं बाँध की ओर से जहाँ बर्फ को डाइनामाइट से उठाया जा रहा था हल्के धड़ाके सुनायी दे रहे थे। बहुत साफ सुनायी दे रही थी रेल के पहियों की घड़घड़ाहट। मानो रेलवे स्टेशन निकट ही उस नीची पहाड़ी के पार हो। वास्तव में वह दूर था और पहाड़ी के पार तो बिल्कुल नहीं, बल्कि उसकी विरोधी दिशा में जंगल के पास था वहाँ उच्च व्यक्ति की बिजली के तारों के खम्भे और ईंट के कारखानों की नयी चिमनी दिखायी देती थीं।

रेल की घड़ाघड़ जारी थी। नन्हे झरने ढलाव पर गड़गड़ाते बह रहे थे दूर पर घड़ाके गूँज उठते थे। लेकिन इन आवाजों के बावजूद सारे वातावरण से भोर की शान्ति छायी हुई थी।

नदी, खेत, गाँव के छप्परों, जंगल की वृक्षावलि और अलेक्सेइ तथा मुझ तक पर यह शान्ति छायी हुई थी और सूर्योदय को सूचित करने वाली इस विचित्र, निष्पन्द नीरवता को भंग कर सकने वाला एक भी स्वर इस संसार में नहीं था।

अलेक्सेइ तेईस वर्षीय युवक था-भूरी आँखें, सुनहरे केश, चौड़े कन्धे और चेहरे का रंग इतना निर्मल और उज्ज्वल, मानो वह अभी ही अपना चेहरा ठण्डे पानी से धोकर उठा हो। बड़े धीरे-धीरे अपनी गैंती को लकड़ी की बेंट में फँसाते हुए वह कभी-कभी एक नजर नदी की बर्फीली सतह पर डाल लेता था जिसका श्वेत सौन्दर्य अब काले धब्बों से नष्ट हो गया था। उसे इस पुल की देखभाल करने के लिए भेजा गया था। रात में उसने लोहे की मुण्डेर हटा दी थी ओर कोई पाँच सौ गज दूर एक ऊँचे स्थान पर उसने खम्भे और दूसरे हिस्से रख दिये थे ताकि नदी में बाढ़ आये तो ये निशान बह न जायें। इस वर्ष नदी में पानी बहुत ऊँचा उठने की आशंका थी।

इस क्षण कोई काम न होने के कारण अलेक्सेइ अपनी गैती के लिए बेंट छीलने बैठ गया और काम इतने धीरे कर रहा था कि देर तक चले। लकड़ी के मुड़े हुए छीलन के टुकड़े उसके पाजामे में उलझे हुए थे। उसकी टोपी एक कान पर तिरछी झुकी हुई थी और रूई की बंडी के बटन खुल हुए थे।

‘‘कोई कार नहीं आती’’ नदी की ओर बेचैनी से निगाह फेंक कर मैंने कहा।

‘‘नहीं’’ अलेक्सेइ ने अति-विश्वास के साथ सहमति प्रकट की।

‘‘अगर बर्फ पिघल गयी तो मैं इस नदी को पार भी नहीं कर पाऊँगा। क्यों, है न?’’

‘‘नहीं। तुम नहीं कर पाओगे।’’

‘‘अगर कार आने से पहले ही बर्फ पिघल गयी तो क्या होगा। मुझे यहीं बैठे रह जाना पड़ेगा और दो दिन तक यहीं सड़ना पड़ेगा।’’

‘‘हो सकता है तीन दिन तक।’’

‘‘लेकिन मैं नहीं रुक सकता।’’

‘‘चिन्ता मत करो। दो कारें तो जरूर गुजरेंगी। ‘पहली पाँच साला योजना सामूहिक फार्म’ से सुपरफास्फेटस की खाद के लिए वास्का जरूर अपनी खड़खड़िया लेकर निकलेगा। वे बस आखिरी दम पर काम करते हैं। और ट्रैक्टर स्टेशन का डायरेक्टर भी तेल के लिए कार भेजता होगा। बड़ा सख्त आदमी है वह डायरेक्टर। अगर उसे कोई चीज चाहिए तो फिर चाहे बर्फ पिघले या न पिघले, वह तेल लाने के लिए हुक्म दे देगा और फिर कोई टाल नहीं सकता।’’

अलेक्सेइ धीरे-धीरे बोल रहा था मानो वह बात करना नहीं चाहता और उसके एक-एक शब्द के बाद मुझे अप्रैल के प्रातःकाल की खामोशी सुनायी दे जाती थी। नमी और सर्दी थी। अभी सूरज उठा नहीं था और भूरे आसमान में तनिक-सा चाँद गलता जा रहा था।

यकायक अपना काम रोक कर अलेक्सेइ ने कहा: ‘‘वह आ रही है।’’

‘‘कौन?’’

‘‘मेरी पत्नी।’’ इतने अलस सुबह यहाँ और कौन आ सकता है?’’

मैंने कान लगाये। रेल गुजर चुकी थी। डायनामाइट के घड़ाके बन्द हो चुके थे। सिर्फ ढलाव पर बहकर नदी में मिलने वाले झरनों की बलबलाहट सुनायी दे रही थी।

‘‘और वह बड़ी तेजी से आ रही है।’’ यह कह कर अलेक्सेइ स्नेहपूर्वक हँसा।

‘‘तुम सिर्फ कल्पना कर रहे हो।’’

‘‘जरा ठहरो। एक क्षण के भीतर तुम भी कल्पना करने लगोगे। वह दूस्या ही है।’’

और सचमुच पहाड़ी के पीछे से एक लड़की आती दिखाई दी जो कमर पर भेड़ की सफेद खाल का चुस्त कोट और फेल्ट बूट पहने हुए थी और बूटों के ऊपर लाल रबर का एक और जूता चढ़ाए हुए थी। वह रूमाल में बाँधे कोइ चीज लिये चली आ रही थी। मैं देख रहा था कि अलेक्सेइ यह देखकर आनन्दित हो उठा था कि वह इतनी सुबह उठकर उसके लिए नाश्ता ला रही है लेकिन इस भाव को वह त्योरियाँ चढ़ाकर मुझसे छिपाने का प्रयत्न कर रहा था।

‘‘मैंने समझा कोई और होगा। लेकिन निकली तुम’’, उसने अपनी पत्नी से कहा।

दूस्या को जरा भी बुरा न लगा।

‘‘तुम्हे ठण्ड लग जाएगी। कम से कम कालर के बटन तो लगा लो।’’

‘‘नहीं। मैं नहीं लगाऊँगा। बर्फ पिघलने के वक्त हवा बढ़िया होती है। उससे मुझे कोइ नुकसान नहीं होगा। बस जरा मजबूत ही बनायेगी’’ अलेक्सेइ ने कहा, लेकिन इतने पर भी उसने कालर के बटन लगा ही लिये। ‘‘तुम क्या लायी हो।’’

‘‘तुमने जो कहा था। जरा उधर को हटो।’’

‘‘ऐसे ही ठीक है। तुम्हारी टाँगें अभी जवान हैं। तुम खड़ी रह सकती हो’’ अलेक्सेइ ने कहा और खिसक कर बैठ गया।

दूस्या उसके बगल में बैठ गयी, रूमाल खोला और अपनी जेब से नमक की पुड़िया निकाली जो इस तरह बँधी थी जैसे डाक्टर के यहाँ से कोई पाउडर बँधकर आया है।

उसके सिर से लिपटे हुए शाल के कारण उसकी ऊँची उठी हुई नाक और बच्चों-जैसी कौतूहल से भरी आँखों के अलावा मुझे और कुछ नहीं दिखाई दे रहा था।

एक बर्तन और कुछ अन्य सामान निकाल कर उसने कहा: ‘‘देखो यह दूध है और यह रोटी और कुछ खूब उबले हुए अण्डे हैं। ध्यान रखना, अण्डों के खोल यहीं जमीन पर मत फेंक जाना घर लेते आना।’’

‘‘भला मुझे अण्डे के खोल लेते आने की याद भी रहेगी।’’

‘‘और जल्दी करना, घर जल्दी आना।’’

‘‘तो तुम्हें मेरा अभाव खटकता है, क्यों?’’

‘‘मानो सोचने-विचारने के लिए मेरे पास और कुछ है ही नहीं। तुम बाहर होते हो तो कम से कम सिगरेट का धुआँ तो घर में नहीं मंडराता।’’

‘‘अच्छा भाई’’ अलेक्सेइ ने गम्भीर बनते हुए कहा। ‘‘लेकिन आशंका यही है कि मुझे यहाँ दो दिन और रुकना पड़ेगा।’’

‘‘क्यों?’’ दूस्या ने घबराकर कहा।

उसकी घबराहट इतनी आकस्मिक और हार्दिक थी कि अलेक्सेइ हँसे बिना न रह सका।

‘‘तुम और तुम्हारे से मजाक,’’ दूस्या ने हाथ नचाकर कहा। ‘‘तुम जरा भी पुरमजाक नहीं हो। और यह मत समझना कि तुमने मुझे डरा दिया हैं मेरी बला से तुम यहाँ हफ्ते भर रहो। तुम सर्वेयर जी को खाने के लिए कुछ क्यों नहीं देते। वे भी शायद भूखे होंगे।’’

यह बात का रुख बदलने का प्रयत्न था लेकिन अलेक्सेइ हँसता ही रहा। मुझे भी इसमें मजा आया।

‘‘क्या पाला पड़ा है,’’ दूस्या ने किंकर्त्तत्यविमूढ़ दशा में कहा। ‘‘जाहिर है, मैं अब अकेले रात बिताने की आदी नहीं रह गयी हूँ और मुझे डर लगता है। अच्छा अब मैं जा रही हूँ।’’

उसने मुझे अभिवादन किया और घर की ओर चल पड़ी। शीघ्र ही पहाड़ी के उस पार उसकी पदचाप विलीन हो गयी।

‘‘हमारी शादी हुए बहुत दिन हो गये। लगभग एक साल। लेकिन वह अभी भी एक मिनट अकेले रहना बर्दाश्त नहीं कर पाती।’’

मैंने देखा अलेक्सेइ कुछ और भी कहना चाहता था लेकिन वह निश्चय नहीं कर पा रहा था। मैंने भी अपनी सैंडविचें निकाली और हमने खाना शुरू कर दिया।

चीड़ के वन के ऊपर लाल सूरज का गोला लुढ़क आया था और हर चीज गुलाबी कुहरे में नहा गयी थी, जिसमें दूर पर खड़े खम्भे और ईंट के कारखाने की चिमनी भी डूबी हुई थी।

‘‘वह एक वीरांगना है’’ यकायक अलेक्सेइ ने कहा।

‘‘मालूम तो मुझे भी ऐसा ही हुआ’’ मैंने उसकी बात का मतलब समझे बिना ही कहा।

‘‘नहीं, मेरा मतलब यह नहीं है कि वह बड़ी वीर या दुस्साहसी है। वह असली वीरांगना है। समाजवादी श्रम की वीरांगना यह उसका सितारा और पदक है।’’

उसने इलास्टिक डोर से बँधी हुई थैली खोली और मुझे ‘‘सोने का सितारा’’ दिया।

‘‘मेरे पास यह हिफाजत से है। दूस्या हर रोज इसे अलग-अलग जगह छिपा देती थी और फिर जब उसे जरूरत होती थी तो मिलता ही नहीं था। एक बार उसने इसे एक खाली डिब्बे में रखा, डिब्बे को टूटे ग्रामोफोन में रख दिया और ग्रामोफोन को एक बड़े संदूक में बिल्कुल तल में रख दिया। फिर जब उसे एक सम्मेलन में भाग लेने जाना पड़ा तो यह उसे कहीं भी ढूँढ़े न मिल सका। उसने सारा घर उलट-पुलट कर एक कर दिया। इसके बाद उसने उसे सम्भालकर रखने के लिए मुझे दे दिया।’’

‘‘यह उसे किस बात के लिए मिला था।’’

‘‘मोथे के लिए। तुमने कभी मोथे की खीर खायी है? नहीं खाई। खैर, तो इसी के लिए। इसी मोथे के लिए उसे यह मिला था। मोथा एक नाजुक पौधा होता है.. न गर्मी बर्दाश्त कर सकता है और न सर्दी। ठण्ड में जम जाता है और गर्मी में मुरझा जाता है। इसकी फसल कैसे बढ़े इसके लिए हमने तमाम दिमाग लड़ा मारा। साल में तीन बार बोया, एक बार जब कि बर्फ पिछलने लगी, दूसरी बार थोड़े दिनों बाद और तीसरी बार जब कि गर्मी लगभग आ गयी। कभी जल्दी बोने का नतीजा अच्छा निकलता कभी देर से... हर हालत में मौसम पर दारोमदार था। त्योरस साल हमारे खेत को योजना के अनुसार आम पैदावार से पाँच गुना अधिक मोथा पैदा करना था। हम सभी, यानी बोर्ड के हम सभी सदस्य... हैरान थे कि कैसे किया जाएगा। दूस्या हम सब पर हँसती थी। तब मैं उसकी तरफ कोई खास ध्यान नहीं देता था। उसे महज एक नन्हीं बच्ची मानता था जो हमेशा चपल दिखायी देती थी और कोम्सोमोल की बैठकों में बदहवास की तरह बोलती थी। तो उसी दूस्या ने मोथा पैदा करने का ऐसा तरीका निकाला जिससे कि वह धूप बर्दाश्त करने लगा। उसने टहनीदार मोथा खोज निकाला। अब तुम्हें कैसे समझाऊँ कि वह क्या होता है। लोम्बार्डी चिनार कैसा होता है। तुम्हें पता है। ‘उक्रइनी रात’ नामक एक तस्वीरवाला पोस्टकार्ड है और उस पर लोम्बार्डी चिनार का वृक्ष बना हुआ है। तो साधारण मोथा लोम्बार्डी चिनार जैसा लगता है। लेकिन दूस्या का टहनीदार है जैसे बलूत का पेड़। उसकी टोपी पर छातानुमा पत्तियाँ होती हैं और उस छाते की साया में नीचे बालें लगती हैं।’’

‘‘यह कोई नयी किस्म है क्या?’’

‘‘बिल्कुल नहीं। वह उगता उसी बीज से है। हम राई या गेहूँ की तरह इसकी बुआई घनी करते थे और इससे उसकी बाढ़ मारी जाती थी। लेकिन अगर उसको एक या डेढ़ फुट की दूरी पर पाँत में बोया जाए तो उसमें टहनी फूट निकलती हैं। ओर तब उसको हर मौसम में तीन बार बोने की जरूरत नहीं रह जाती। धूप से उस कोई नुकसान नहीं होता। जब अपनी नयी योजना के बारे में हम लोग एक मीटिंग में चर्चा कर रहे थे तो दूस्या उठ खड़ी हुई और उसने अपने नये तरीके के अनुसार सिर्फ एक बार जरा देर से फसल बोने की इजाजत माँगी। उसने एक एकड़ में इक्कीस बुशल पैदा करने का दावा किया।’’

‘‘मेरा ख्याल है तुम लोगों ने बड़ी खुशी के साथ उसे यह इजाजत दे दी होगी।’’

‘‘तो भाई मामला यह था। उस समय तक मैंने उसके मोथे के प्रयोगों के बारे में कुछ नहीं सुना था और किसी की लम्बी चौड़ी बात पर यकीन कर लूँ, यह मेरी आदत नहीं। ज्योंही वह बात कह कर बैठी मैं उठ खड़ा हुआ और उस पर बौछार करने लगा। मैंने कहा हम लोग तो लोगों को यह सिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि बुआई जल्दी की जाय और यह इजाजत माँग रही है देर से बुआई करने की। हर आदमी जानता है कि मोथे को कितनी ही दूर-दूर बोओ, तीन फुट दूर तक बोओ, तब भी वह धूप खाकर मुरझा जायेगा। आज इसने टहनीदार मोथे की कल्पना की है कल यह छः पैरोंवाली बकरी की कल्पना कर बैठेगी और हमसे कहा जाता है कि इस बकवास के लिए हम उसकी पीठ ठोंकें।

‘‘यकायक मेरा ध्यान गया कि लोग हँस रहे हैं। इसलिए मैंने अपनी बात और जोर से कही। भाषण देते वक्त अक्सर मैं अपना हाथ सीने पर कोट के अन्दर चिपटा लेता हूँ ताकि उसे हिलाने डुलाने न लगूँ लेकिन इस बार मैं भूल गया और ताकत भर जोर से हाथ हिलाने लगा। ‘टहनीदार मोथा नाम की कोई चीज नहीं है।’ मैंने कहा।

‘‘लोग और भी जोरों से हँस पड़े! माजरा गड़बड़ जरूर था। क्या ये लोग मुझ पर हँस रहे हैं। मैंने अपनी तरफ देखा। हर चीज ठीक थी। लेकिन वे लोग हँसते ही जा रहे थे, खासतौर से बूढ़ा स्तेपान। मैंने सोचा कि उसे ठीक करना पड़ेगा।

‘‘मैं इतना हैरान हो गया था कि मैं चुप हो गया और यह सोचता किंकर्त्तव्यविमूढ़ खड़ा रह गया कि माजरा क्या है। पता चला कि दूस्या ने अपने घर के बगीचे में डेढ़ फुट की दूरी पर मोथे के पौधे लगाकर देखा था कि नतीजा क्या होता है और इस तरह टहनीदार मोथा उसके हाथ लग गया था। और जब मैं भाषण दे रहा था तब वह उनमें से एक पौधे को गुलदस्ते में रखकर ले आयी थी और उसको मेरे पीठ के पीछे मेज पर रख दिया था। मैं कह रहा था कि टहनीदार मोथा जैसी कोई चीज नहीं होती और उधर वह गुलदस्ता रखा हुआ था जिसे मेरे अलावा सभी देख रहे थे। यकायक मैं पीछे मुड़ा और तुम कल्पना भी नहीं कर सकते कि मेरी आँखें किस तरह फट कर रह गयीं।

‘‘हमारे फार्म का अध्यक्ष इवान निकीफोरोविच हर आदमी की तरह अट्टहास कर रहा था लेकिन उसने शान्ति के लिए मेज ठोंकी और कहा: ‘कहे जाओ अलेक्सेइ, बोले जाओ, इन लोगों की तरफ ध्यान मत दो।’

‘‘दूस्या ने मुझे एक तरह से बेवकूफ बनाया, इस पर मुझे उससे कुढ़ जाना चाहिए था, लेकिन न जाने क्यों बात उल्टी ही हुई। उस शाम के बाद से मेरी नजरें उसी पर लगी रहतीं। लेकिन यह सब सुनते-सुनते तुम ऊब गये होगे। वैज्ञानिक ढंग से खेती करने में तुम्हें क्यों दिलचस्पी होगी।’’

मैंने उसे अपनी कथा जारी रखने के लिए कहा।

‘‘अच्छा तो। इसके पहले भी मैं उसे हर रोज देखता था। कभी नाचते हुए और कभी हमारे खरबूजा उत्पादक पवलूश्का के साथ उसकी साइकिल पर बैठ कर घूमने जाते हुए, लेकिन मुझे उन सब से कोई मतलब नहीं रहता था। लेकिन इसके बाद से तो मैं उसके लिए पागल हो उठा। हालाँकि शुरू में मैंने उसे यह महसूस न होने दिया।

‘‘हमने उसके तरीके से बुआई शुरू की। जब कभी मुमकिन होता मैं उसकी सहायता के लिए जाता। मैंने उसके खेत पर सबसे बढ़िया घोड़े भिजवाये। टैªक्टर स्टेशन के लोगों से कह कर सबसे पहले उसके खेत पर मशीनें भिजवायीं आदि-आदि। और मैंने नाचना सीखा। शाम को जब हम लोग गाने के लिए इकट्ठे होते तो मैं थोड़ी देर उसके साथ नाचता और फिर उसे घर छोड़ने जाता लेकिन अपने मन के भाव उस पर प्रकट नहीं होने दिये। पता नहीं उसने कैसे पता पा लिया लेकिन वह जान गई थी। जब कभी हम लोग अकेले पड़ जाते तो वह चौकन्नी हो उठती और एक शब्द न बोलती। मेरे साथ उसे एक बेचैनी-सी महसूस होती। और फिर जब उसे मालूम ही हो गया था तो मेरे चुप रहने में ही क्या सार्थकता थी इसलिए मैंने उससे साफ-साफ कह दिया जैसे कि एक कोम्सोमोल के सदस्य को कह देना चाहिए। और उसने कहा: ‘मैं तुमसे घबराती हूँ अलेक्सेइ, तुम अपने विचारों के पक्के हो और मैं अपने। हमारी कभी नहीं निभ सकती।’ और वह चली गयी। और उस इतवार को पवलूश्का फिर अपनी साइकिल पर चढ़कर उसे घुमाने ले गया।

‘‘मैंने सोचा कि मामला खत्म हो गया। अगर वह मुझे पसन्द नहीं करती तो मैं कर ही क्या सकता हूँ? मैंने नृत्य समारोहों में जाना बन्द कर दिया। शाम को मैं घर ही बैठता और पढ़ता। सारा समय पढ़ता ही रहता और मुझे ऐसा लगता कि दूस्या मेरे बगल में बैठी हुई है और वही पुस्तक पढ़ रही है। एक तरह से मैं बावला हो गया। बार-बार मैं शीशे में अपना मुँह देखता। इतनी जिन्दगी में मैंने कभी शीशा नहीं देखा था लेकिन अब मैं कभी अपनी नाक देखता, कभी आँखें और कभी होंठ और सोचता: ‘अलेक्सेइ तुम अपनी बात के पक्के हो सकते हो लेकिन बस यही तो है तुम्हारे पास।’ यह बात मेरी माँ ने देख ली। ‘बेटा इस तरह शीशे में तुम अपना मुँह बार-बार क्यों देखते हो?’ उसने पूछा। ‘क्या मुहासे हो गये हैं?’ गाँव की दूकान से मैंने एक टाई खरीदी। टाईयों का शौक मुझे कभी नहीं था... गले में क्या फाँसी पड़ जाती है। लेकिन फिर भी मैंने खरीद ली। और शिक्षक के पास भी गया तथा उस मनहूस से बाँधने की कला सीखी। आखिर मैंने टाई पहनी और फिर शीशे में देखा और मुझे लगा कि कोई खास सुधार नहीं हुआ: मुझे याद है कि एक दिन हम कोम्सोमोल की बड़ी सभा में भाग लेने शहर गये थे और जब हम लारी में बैठे जा रहे थे तो मैं हर साइकिल पर नजर दौड़ाता जाता था और जहाँ कहीं मुझे साइकिल दिखाई दे जाती तो मैं दाँत पीसने लगता। साइकिल की झलक देख लेना भी मुझे बर्दाश्त नहीं होता। उस लड़की ने मेरी यह हालत कर दी थी।

‘‘ग्रीष्म ऋतु आयी। मौसम गरम हो उठा। मैं सुबह उठता, खिड़कियाँ खोल डालता और हाथ बाहर फैला देता। मुझे ऐसा लगता मानों वह हाथ मैंने गरम पानी में डाल दिया हो। दूस्या का मोथा लहलहाता हुआ दिखाई देता। और जब वह फूल उठा तो सारा खेत दूधिया नजर आता। चौंधिया देने वाली सफेदी। और तितलियाँ मण्डराती हुई। देखकर दिल बाग-बाग हो जाता।

‘‘एक दिन मैं वहाँ उस समय गया जब दूस्या और उसकी साथी खेत में घास-पात निकाल रही थी।

‘‘तुम यहाँ रोज-रोज किसलिए आते हो?" दूस्या ने पूछा।

‘‘आस्तीनें समेटे दोनों हाथों में घास-पास लिये वह मेरे सामने खड़ी थी और मुझको और मेरी टाई को देख रही थी। मैंने देखा वह मुझ पर हँस रही है। ‘अच्छा तो यह बात है’ मैंने सोचा। ‘जब अकेले में मिलती है तो एक बोल नहीं फूटता और दूसरों के सामने मजाक उड़ाती है। अच्छी बात है। मैं बता दूँगा कि मैं इस खेत पर रोज-रोज क्यों आता हूँ। कोई जान जाये इसकी मुझे चिन्ता नहीं है।’ और मैंने उसे अपनी बाहों में खींच लिया और चूम लिया। वह मुझसे जूझ उठी। उसने अपना सिर फेर लिया लेकिन मेरी गिरफ्त से निकलने में तो आदमी को भी लाले पड़ जाते।

‘‘लड़कियाँ ठीक मारतीं और हँसती रहीं और मैं उसे चूमता ही गया। जब मैंने देखा कि वह रो ही देगी तो मैंने उसे छोड़ दिया। उसका चेहरा लाल हो रहा था, बाल बिखर गये थे। उसका रूमाल पीठ पर गले से झूल रहा था। ‘देखोे तुमने कितने पौधे कुचल डाले हैं। तुमने कितना नुकसान किया है’ वह बोली। मैंने कहा: ‘कोई बात नहीं। जितना नुकसान किया है उससे ज्यादा फायदा भी किया है।’ सचमुच मैंने न जाने कितनी बार उनके काम में मदद दी है। हाँ, हाँ! बड़ी मदद की है! ज्योंही तुमने देखा कि हमारी फसल पिछले सब रिकार्ड तोड़ देगी तो अब तुम हमारी सहायता करने की डींग हाँक रहे हो! लेकिन भूल गये मीटिंग में तुमने क्या कहा था?’ मैंने उसका जवाब दिया होता लेकिन उसने मुझे बोलने ही न दिया। ‘हमें तुम्हारी मदद की उतनी ही जरूरत थी जितनी कि मछली को छाते की होती है। हम तुम्हारे बिना भी किसी तरह काम चला लेंगे। हमारी फसल देखते ही तुम हमारी खुशामद करने आ गये हो।’ पता नहीं यह बातें वह मुझे चोट पहुँचाने के लिए सुना रही थी या सिर्फ गुस्से में कह रही थी, लेकिन मुझे ऐसा लगा कि उसने मरे मुँह पर तमाचा मारा है। ‘जबान सम्भाल कर बोलो दूस्या। वरना मैं तुम्हारे पास भी न फटकूँगा।’ मैंने कहा। ‘चिन्ता न करो। मैं तुम्हें अपने खेत पर अब एक कदम भी न रखने दूँगी। दूसरों के काम का क्षेत्र खुद लेना चाहते हो!’ यह और भी बुरी चोट थी। मेरी जबान से ऐसी कोई बात न निकल जाय कि जिस पर बाद में मुझे पछतावा हो इसलिये मैंने अपने होंठ इतने जोर से भींच लिए कि उनसे खून बह निकला। मैंने उसका कन्घा उठाया और उसके हाथ में रखकर चल दिया। ‘अब सचमुच सारा किस्सा खत्म हो गया और अब मैं इन लोगों की सहायता के लिए कभी कुछ न करूँगा।’ मैंने सोचा।

‘‘किस्मत की बात कि उसी दिन लड़कियों को पता चला कि मोथे पर पराग छिड़कने के लिए उनके पास काफी मधुमक्खियाँ नहीं हैं और वे नदी के उस पर ‘‘विजय फार्म’’ से कुछ छत्ते माँगने के लिए गयीं। विजय फार्म वालों ने छत्ते देनेसे इनकार कर दिया। हमारे अध्यक्ष खुद माँगने गये थे, पवलूश्का अपनी साइकिल पर चढ़कर गया था और दूस्या भी गयी थी, लेकिन फल कुछ न निकला। मैंने देखा कि मामला काफी संगीन है। अध्यक्ष बक-झक रहे थे और दूस्या रो रही थी। लेकिन मैं खुद कैसे जा सकता था। दूस्या समझती कि मैं उसकी निगाहों में फिर ऊँचा उठने की कोशिश कर रहा हूँ। लेकिन दूसरे दिन मैंने स्वयं जाने का निश्चय कर ही लिया। मैंने एक छोटी लारी ली और शाम को निकल गया। मेरे एक चाचा फ्योदोर निकीतिच मधुमक्खियाँ पालते हैं। उनके पास बारह छत्ते हैं। मैं उनको रात के ग्यारह बजे तक यह समझाता-बुझाता रहा कि हम को छत्ते उधार देने में खुद उनका लाभ है। मोथे का शहद सबसे ज्यादा मीठा होता है। कभी वे सहमत हो जाते और कभी फिर मुकर जाते और उन की पत्नी पेलगेया स्तिपानोवना तो बस एकदम खिलाफ मोर्चा जमाये हुए थी। अन्त में वे सोने चली गयीं और मैंने अपने चाचा को फुसला ही लिया। ड्राइवर ने और मैंने मिलकर छत्तों को लारी में लादा उन्हें लाये ओर उसी रात छत्तों को खेत में रख भी दिया। मैंने ड्राइवर को चेतावनी दी कि इन छत्तों को लाने वाला मैं हूँ, यह बात वह किसी को भी न बताये खासतौर से दूस्या को तो बिल्कुल न बतावे। इसके बाद मैं घर आया। मैं इतना थक गया था कि कपड़े उतारे बिना ही चारपाई पर लेट गया और सो गया। मैं कुछ ही देर सो पाया था कि कोई मुझे बुलाने आ पहुँचा। मैं आँखें मलकर उठ बैठा। कमरे में रोशनी थी। माँ चली गयी थी लेकिन दूस्या मेरी चारपाई के बगल में खड़ी थी। और जिस तरह देख रही थी उस तरह उसने आज तक मेरी ओर नहीं देखा था।

‘‘उसने कहा: ‘अलेक्सेइ ये मधुमक्खियाँ कौन लाया था?’

‘‘मैंने करवट लेते हुए कहा: ‘मुझे भला क्या मालूम।’

वह बोली: ‘अलेक्सेइ नाराज मत हो। पेलगेया स्तिपानोवना आयी है’।

‘‘ ‘क्यों?’

‘‘ ‘अपने छत्ते वापस लेने, वह गुस्से से उफन रही है।’

‘‘ ‘उसे मत ले जाने दो। वे उसके नहीं हे, वे फ़्योदोर निकीतिच के हैं।’

‘‘ ‘फ़्योदोर निकीतिच भी आये हैं। वह भी खेत में हैं।’

‘‘ ‘तो?’

‘‘ ‘तो क्या, वह उन्हें लारी में लाद रहा है और वह गुस्से में उफन रही है।’

‘‘ ‘मेरा ख्याल है कि वसीलि इवानोविच इन छत्तों को लाया होगा। उसे पकड़ लाओ और देखो कि वह कुछ कर सकता है या नहीं।’

‘‘ ‘वह कुछ नहीं कर सकता। उसने कोशिश कर देखी।’

‘‘मैं चारपाई से उछल पड़ने वाला ही था कि दूस्या झुकी और अपने ठण्डे कपोलों को मेरे कपोलों पर रख दिया। और उसने मेरे कानों में फुसफसाया: ‘तुम बहुत शानदार व्यक्ति हो अलेक्सेइ और बहुत ही सुन्दर, लेकिन इतने लोगों के सामने तुम्हें वह सब नहीं करना चाहिए था।’ और फिर वह द्वार पर माँ से टकराते हुए बाहर भाग गयी।

‘‘मैं चारपाई पर उठ कर बैठ गया। ‘कम से कम आज उसे मेरी शक्ल अच्छी लगी।’ मैंने सोचा। माँ दूध लेकर आयी और मेरी तरफ यों देखने लगी मानो उसने कोई प्रेत देखा हो। ‘अलेक्सेइ तुझे क्या हो गया है?’ माँ ने कहा। ‘क्यों,’ मैंने पूछा। ‘जरा शीशा देखो’, माँ ने कहा। मैंने शीशा देखा और अवाक रह गया। ऐसा गोरखधन्धा भला तुमने क्या देखा होगा। मधुमक्खियों ने जहाँ-तहाँ काट खाया था। मेरा होंठ सूज आया था स्याही जैसा काला-काला। दूस्या ने यह सब देखकर ही भाँप लिया होगा कि मधुमक्खियाँ कौन लाया था। लेकिन वाह री चालाक लोमड़ी। एक शब्द भी नहीं कहा। मैंने मुँह धोया और खेत पर चला गया। फ़्योदोर निकीतिच थोड़ी देर पहले ही अपनी मधुमक्खियाँ लेकर चले गये थे और लड़कियाँ वहाँ किंकर्त्तव्यविमूढ़ होकर सोच रही थीं कि अब क्या होगा। उन्होंने तदबीर निकाली-मोथे पर कृत्रिम तरीके से पराग फैलाने का फैसला किया। उन्होंने चीथड़ों को एक डोर बाँधकर फूलों के ऊपर हल्के-हल्के फेरते हुए खींचा। इसका नतीजा ऐसा अच्छा हुआ मानो कि मधुमक्खियों ने ही किया हो। लेकिन वैज्ञानिक खेती की इन सब बातों से तुम ऊब रहे होगे।’’

अलेक्सेइ चुप हो गया और अण्डे के खोल बीन कर उन्हें कागज के टुकड़े में बाँधने लगा। इस समय तक सूरज काफी चढ़ आया था। ईंट बनाने के कारखाने की चिमनी छिली हुई गाजर की तरह चमकती दिखाई दे रही थी और दूर तार के खम्भे आसमान पर कढ़े हुए लग रहे थे। नदी में बाढ़ आ रही थी।

‘‘लो कार आ रही है। यह वास्का है’’ अलेक्सेइ ने कहा। कार की आवाज मुझे अभी तक सुनायी नहीं दी थी। लेकिन फिर भी मैं सामान समेटने लगा। और शीघ्र की कार नजर आ गयी। दुर्भाग्य से ड्राइवर के बगल में आगे की सीट पर कोई पहले से ही बैठा था इसलिये मैंने अपना साज सामान पीछे पटका और अलेक्सेइ को सलाम कह कर पीछे चढ़ गया। वसन्त के खेतों और वनों से गुजरते हुए जब हम जा रहे थे तो बरबस मुझे यह ख्याल आया कि हमारे लोगों में कैसी विशेषतायें विकसित हो रही हैं..

(1949)

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