नवाब ननकू (कहानी) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री

Nawab Nanku (Hindi Story) : Acharya Chatursen Shastri

‘नवाब ननकू’ एक भावकथा है, जिसमें चरित्र और आचार का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण है। कहानी में कुल तीन मुख्य पात्र हैं। राजा साहब, एक शराबी, कबाबी, वेश्यागामी, लंपट रईस, जिन्होंने इसी काम में अपनी सम्पत्ति फूंक दी और अब दारिद्रय और रोग का भोग भोग रहे हैं। दूसरी है एक विगलितयौवन वेश्या, और तीसरे हैं एक रईस के औरस से उत्पन्न वेश्यापुत्र, जो अपने को नवाब समझते हैं। कहानी में तीनों दोस्तों की एक मुलाकात का रेखाचित्र है। मुलाकात में जीवन के आगे-पीछे के समूचे जीवन की स्पष्ट झाँकी अंकित करने में लेखक ने अपनी अपरिसीम कथा-निर्माण कला का परिचय दिया है। इससे भी अधिक अपनी उस विश्लेषणसामर्थ्य को मूर्त किया है-जब कि वह चरित्र को आचार से पृथक् मानता है। तीनों ही पात्र हीन-चरित्र हैं। परन्तु उनके हृदय की विशालता, विचारों की महत्ता, भावों की पवित्रता ऐसी व्यक्त हुई है कि बड़े-से-बड़ा सदाचारी भी उसकी समता नहीं कर सकता। पूरी कहानी पढ़कर तीनों में से किसी भी पात्र के प्रति मन में विराग और घृणा नहीं होती, आत्मीयता और सहानुभूति के भाव पैदा होते हैं। आचारहीन व्यक्ति भी उच्च चरित्र वाले होते हैं। तथा आचार और चरित्र में मौलिक अन्तर क्या है-यह गम्भीर मनोवैज्ञानिक और आचार-शास्त्र-सम्बन्धी नया दृष्टिकोण लेखक ने कहानी में व्यक्त किया है।

सरदी के दिन और सनीचर की रात, कल इतवार। न दफ्तर जाने की फिक्र, न किसी काम की चिन्ता। बस, बेफ़िक्री से खाना खाकर जो रजाई में घुसे तो अंबरी तमाखू का कश खींचते, खींचते ही अंटागफील हो गए।

मगर उस मीठी नींद में शुरू में ही विघ्न पड़ गया। नीचे कोई कर्कश स्वर में चिल्ला रहा था-बाबू साहब, अजी बाबू साहब। उस वक्त आराम में यों खलल पड़ने से तबीयत झल्ला उठी। क्या मजे की झपकी आई थी। मैंने उठकर खिड़की से सिर निकालकर कहा-कौन है भई; इस वक्त?

“अजी हम हैं नवाब साहब। गज़ब करते हैं आप भाईसाहब, अभी लम्हा भर हुआ है सूरज छिपे: और आपके लिए आधी रात हो गई, चीखते-चीखते गला फट गया। मुहल्ला-भर सिर पर उठा डाला।”

बड़ा गुस्सा आया उस नवाब के बच्चे पर। जी आया, कच्चा ही चबा जाऊँ। परन्तु जब्त करके कहा-कहिए नवाब साहब, इस वक्त कैसे?

“अजी दरवाजा तो खोलिए, या गली में खड़े-ही-खड़े राग अलापूँ।”

मन-ही-मन दाँव-पेंच खाता नीचे उतरा और कुंडी खोली। नवाब साहब चुपचाप पीछे-पीछे जीना चढ़कर ऊपर आए; आते ही मसनद पर बेतकल्लुफ़ी से उठंग गए। कहने लगे-खुदा की मार इस सरदी पर। हड्डियाँ तक ठंडी पड़ गईं। मगर उस्ताद, खूब मजे में आप मीठी नींद ले रहे थे।

मैंने कहा-आपके मारे कोई सोने पाए तब तो। कहिए, इस वक्त कैसे तकलीफ की?

नवाब साहब ने बेतकल्लुफ़ी से हँसकर कहा-यों ही, बहुत दिन से भाभी साहिबा के हाथ का पान नहीं खाया था, सोचा-पान भी खा आऊँ और सलाम भी करता आऊँ।

गुस्सा तो इतना आ रहा था कि मर्दूद को धकेल दूँ नीचे। मगर मैंने गुस्सा पीकर कहा-पूरे नामाकूल हो तुम। कल इतवार था। कल यह सलाम की रस्म पूरी नहीं कर सकते थे, जो इस वक्त मेरे आराम में खलल डाला?

नवाब साहब खिलखिलाकर हँस पड़े। जेब से सिगरेट का बक्स और दियासलाई निकालकर एक होठों में दबाई। दूसरी मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा-खैर, सिगरेट तो पिओ और गुस्सा थूक दो। हाँ, चालीस रुपये मेरे हवाले करो और इसे रक्खो संभालकर।

उन्होंने बगल से एक पोटली निकालकर मेरे आगे सरका दी।

मैंने कहा-यह क्या बला है, और इस वक्त रुपयों के बिना कौन कयामत बरपा हो रही थी?

नवाब साहब को भी गुस्सा आ गया। कहने लगे-कयामत नहीं बरपा हो रही थी, तो मैं यों ही झख मारने आया हूँ इस वक्त? हजरत, यह मेरी भी पीनक का वक्त था।

“मगर इस वक्त रुपये तुम क्या करोगे?”

“फेंक दूंगा सड़क पर, तुमसे मतलब?”

“रुपये नहीं हैं।”

“रुपये न होने की खूब कही, बुलाऊँ भाभी को?”

“भाभी तुम्हारी क्या तोप से उड़ा देंगी, बुलाओ चाहे जिसको, रुपये नहीं हैं।”

“समझ गया, बेहयाई पर कमर कसे हुए हो। लाओ चुपके से रुपये दे दो, अभी मुझे सदर तक दौड़ना होगा।”

“सदर तक क्यों?”

“एक बोतल ह्विस्की और गजक लेने, और क्यों।”

“अच्छा, तो हजरत को शराब के लिए रुपये चाहिए।”

“जी हाँ, शराब के लिए, और कबाब के लिए भी, निकालो जल्दी-से।”

“कह तो दिया, रुपये नहीं हैं।”

“तुमने कह दिया, पर हमने तो सुना नहीं।”

“नहीं सुना तो जहन्नुम में जाओ।”

“कहीं भी हम जाएँ तुम्हारी बला से, लाओ तुम रुपये दो।”

“रुपये नहीं दूंगा, अब तुम खसकन्त हो यहाँ से नवाब।”

“चे खुश। रुपये तो मैं खड़े-खड़े अभी लूँगा तुमसे।”

“क्या तुम्हारा कर्ज चाहिए मुझ पर?”

“कर्ज ही तो माँगता हूँ।”

“मैं कर्ज नहीं देता!”

“देखता हूँ कैसे नहीं दोगे, बुलाओ भाभी को भी अपनी हिमायत पर।” नवाब ने गुस्से से आस्तीन चढ़ानी शुरू की।

मुझे बुरी तरह हँसी आ गई। कहा-क्या मार मीट भी करने पर आमादा हो?

“मारपीट। तुम मारपीट की कहते हो, मैं तुम्हें गोली न मार दूं तो नवाब ननकू नहीं।”

मैंने हँसकर कहा-“गोली मार दोगे तो फिर रुपया कहाँ से वसूल करोगे नवाब साहब?

“बस इसी बात को सोचकर तो तरह दे जाता हूँ, निकालो रुपये।”

“लेकिन नवाब, तुम तो कभी नहीं पीते थे, आज यह क्या बात है?”

“तो क्या मैं अपने लिए माँगता हूँ। मैंने कभी पी है?”

“फिर किसके लिए?”

“राजा साहब के लिए।”

“अच्छा-यह बात है, अब समझा। कोई नई चिड़िया आई है क्या?”

“राजेश्वरी आई है बनारस से।”

“तो तुम क्यों उस शराबी के लिए झख मारते फिरते हो?”

“तब कौन झख मारे। तुम चाहते हो, राजा साहब खुद तुम्हारे दरवाजे पर आकर चालीस-चालीस रुपल्ली के लिए जलील होते फिरें।”

“वे कुछ भी करें, तुम्हें क्या। जो जैसा करेगा, भोगेगा। जिसने लाखों की ज़मीन-जायदाद, ज़र-जवाहरात, सब शराब और रंडी-भड़ुओं में फूंक दी, तुम उससे क्यों इतनी हमदर्दी रखते हो?”

“क्या मैं हमदर्दी रखता हूँ?”

“तब?”

“मैं मुहब्बत करता हूँ उनसे, उनकी इज्जत करता हूँ।”

“किसलिए? सुनो, पहले तो वे मेरे बड़े भाई, दूसरे ऐसे दाता, ऐसे प्रेमी, ऐसे बात की धनी, ऐसे दिलवाले...कि दुनिया में चिराग लेकर ढूँढो तो कहीं मिल नहीं सकते।”

“शराबी और रंडीबाज़ भी क्यों नहीं कहते?”

“वह तुम कहो। वे शराब पीते हैं और रंडियों से आशनाई करते हैं, इसमें किसी का क्या लेते हैं? उन्होंने अपनी लाखों की जायदाद उन्हें दे दी, जिन्हें उन्होंने प्यार किया। आज उनका हाथ खाली है, मगर दिल बादशाह है। वे जीते जी बादशाह रहेंगे। मैं उन्हें पसन्द करता हूँ, प्यार करता हूँ, इज्जत करता हूँ। मैं नहीं बर्दाश्त कर सकता कि वे दुनिया के आगे हाथ फैलाए।”

“और तुम उनके लिए भीख माँगते फिरते हो।”

“किससे मैंने भीख माँगी है, कहो तो,” नवाब ने तैश में आकर कहा।

“यह अभी तुम चालीस रुपये माँग रहे हो?”

“और यह क्या?”

नवाब ने सामने की पोटली की ओर इशारा किया।

उसे तो मैं भूल ही गया था। मैंने देखा-वह एक जरी के काम का कीमती लहंगा है।

नवाब ने कहा-बेचना चाहूँ तो खड़े-खड़े दो सौ में बेच दूँ। तुमसे तो मैं चालीस ही माँग रहा हूँ।

“लहंगा क्या राजा साहब ने दिया?”

“वे क्यों देने लगे? अम्मीजान का है। राजेश्वरी आज आई थीं। मुझे बुलाकर राजा साहब ने कहा-नवाब, हाथ में इस वक्त कुछ नहीं है, राजेश्वरी के लिए कुछ खाने-पीने का बन्दोबस्त कर दो। आँखें उनकी शर्म से झुकी थीं, और लाचारी से भीग रही थीं। बस इतनी ही तो बात है।”

“अच्छा और तुम चुपके से घर आए, यह लहंगा उठाया और यहाँ आ धमके।”

“जी हाँ, और तुम्हारी नींद हराम कर दी। बहुत हुआ अब, बस अब लाओ रुपये दो।”

मैंने चुपके से दस-दस के चार नोट नवाब के हाथ पर रख दिए। मेरी आँखों में आँसू आ गए, और मैंने वह लहंगा उसी तरह लपेटकर नवाब की ओर बढ़ाते हुए कहा-इसे लेते जाओ।

नवाब ने आपे से बाहर होकर चारों नोट फेंक दिए। लाल होकर कहा-अच्छा, तो हजरत मुझे भीख देने की जुर्रत करते हैं।

“नहीं भाई, ऐसा क्यों सोचते हो, मगर यह लहंगा मैं नहीं रख सकता।”

“तो तुम्हारे रुपये भी नवाब नहीं ले सकता। आज राजा कामेश्वर प्रसादसिंह खाली हाथ हैं, और नवाब ननकू अपनी अम्मीजान का लहंगा गिरवी रखने पर लाचार हैं, मगर आप यह मत भूलिए कि वे दोनों सलीमपुर के राजा महाराज नन्दनसिंह के नुतफे से पैदा हुए हैं, जो तीन बार सोने से तुले थे, और जिन्होंने ग्यारह हाथी ब्राह्मणों को दान दिए थे। जिनकी दी हुई जागीरों को सैकड़ों शरीफ़ज़ादों की आस-औलाद आज भोग रही है। इलाके भर में जिनके पेशाब से चिराग जलते थे।” मैंने खड़े होकर खुशामद करते हुए कहा-वह ठीक है नवाब साहब, मगर ये रुपये तुम मेरी तरफ से राजा साहब को नज़र करना।

“हरगिज़ नहीं, राजा साहब कभी किसी की नज़र कबूल नहीं करते। तुम यह लहंगा गिरों रखकर चालीस रुपये देते हो तो दो।”

लाचार मैंने हामी भर ली। मैंने लहंगे को उसी तरह लपेटकर रख लिया और नवाब रुपये जेब में रखकर खड़े हुए।

मैंने कहा-यह क्या नवाब, भाभी का पान बिना खाए और बिना सलाम किए चले जाओगे?

“हरगिज़ नहीं,” नवाब ने बैठते हुए कहा-बुलाओ तो उन्हें।

“मैंने पत्नी को नीचे से बुलाया। वे बच्चों को दूध पिलाने और सुलाने की खटपट में थीं; नवाब को एक लफंगा आदमी समझती थीं। मेरे पास उसका आना-जाना और चाहे जब रुपये-पैसे ले जाने को वे हमेशा नापसन्द करती थीं। उन्होंने आकर कहा-इस वक्त मेरी तलबी क्यों हुई है?

“यह इन नवाब साहब से पूछो।”

“यही कहें?”

“पान खिलाइए तो कहूँ।”

“कहो, पान भी मिल जाएगा।”

“वादे की सनद, झपाके से दो बीड़ा बढ़िया पान ले आइए।”

पत्नी चली गईं और एक तश्तरी में कई बीड़े पान लेकर लौटीं। उसमें से दो बीड़े उठाकर नवाब ने हाथ में लिए, अदब से मेरी पत्नी के सामने खड़े हुए और ज़मीन तक झुककर कहा-सलाम बड़ी भाभी, आपका यह गुलाम नवाब ननकू आपको सलाम करता है, और आपकी दुआ की इस्तिजा रखता है।

पत्नी मुस्कराई। उन्होंने कुछ झेंपते हुए कहा-कभी बच्चों को भी नहीं भेजते नवाब साहब; एक बार भेजो।

“जो हुक्म बड़ी भाभी, सलाम।”

नवाब साहब ने और एक सलाम झुकाई और चले गए।

मेरी नींद बहुत रात तक गायब रही। मैं अन्दाज़ा न लगा सका कि यह व्यक्ति संसार के सब मनुष्यों से कितना ऊँचा है?

कमरे में एक ओर अंगीठी जल रही थी। राजा साहब पलंग पर लेटे थे और एक खिदमतगार धीरे-धीरे उनके पाँव सहला रहा था। राजेश्वरी नीचे फ़र्श पर बैठी छालियाँ काट रही थी। चाँदी का पानदान सामने खुला रखा था। राजा साहब गंगा-जमुनी काम की गुड़गुड़ी पर अंबरी तम्बाकू पी रहे थे और धीरे-धीरे राजेश्वरी से बातें कर रहे थे।

राजेश्वरी की उम्र चालीस पार कर चुकी थी। बदन उसका कुछ भारी हो चला था, और माथे पर की लटों में चाँदी की चमक अपनी बहार दिखा रही थी। फिर भी उसकी पानीदार आँखों और मृदु मुस्कान में अभी-भी मोह का नशा भरा था।

राजेश्वरी ने कहा-सरकार ने यों नजरें फेर लीं, मुद्दत हुई पैगाम तक न भेजा, सुनती रहती थी, हुजूर के दुश्मनों की तबीयत खराब रहती है। आखिर जी न माना, बेहया बनकर चली आई।

“मुझे निहाल कर दिया तुमने इस वक्त आकर राजेश्वरी दिल बाग-बाग हो गया। क्या कहूँ, बहुत याद करता हूँ तुम्हें-मगर...”

“हुज़ूर की नजरें इनायत पर मैंने हमेशा फ़ख्र किया है, और मरते दम तक करूँगी।”

“तुम जिओ राजेश्वरी, ईश्वर तुम्हें खुश रखे। यह मूज़ी बीमारी-क्या कहूँ, अब तो हिलने-डुलने से भी लाचार हो गया हूँ। पर अब यह सब उस भगवान् की दया है। फिर मुझे अपनी लाचारी का क्या गम है, जब तुम दुनिया की तमाम खुशी लेकर यहाँ आ जाती हो।”

राजेश्वरी ने चार बीड़ा पान बनाकर राजा साहब को अदब से पेश किए। राजा साहब ने मुस्कराकर पान लेकर मुँह में रखे।

खिदमतगार ने आकर अर्ज़ की-हुजूर, कुँवर साहब सलाम के लिए हाज़िर हुए हैं।

“आएँ वे”- राजा साहब ने धीरे-से कहा।

कुँवर साहब ने झुककर राजा साहब को सलाम किया और पैताने की ओर अदब से खड़े हो गए।

राजा साहब ने कहा-चाची को सलाम नहीं किया बेटे। कुँवर साहब ने आगे बढ़कर राजेश्वरी को सलाम किया, और दो कदम पीछे हट गए।

राजेश्वरी खड़ी हुई। आगे बढ़कर कुँवर साहब के पास पहुँची, उनके मुँह पर प्यार से हाथ फेरा, और दो अशर्फियाँ निकालकर उनकी मुट्ठी में जबरन थमा दी।

कुँवर साहब ने पिता की ओर देखा।

राजा साहब ने कहा-ले लो, और चाची को फिर मुकर्रर सलाम करो।

कुँवर साहब ने फिर झुककर सलाम किया। राजेश्वरी ने दोनों हाथ उठा कर आशीर्वाद दिया। राजा साहब ने इशारा किया और कुँवर साहब चले गए।

एक ठंडी साँस खींचकर राजा साहब ने कहा-इस निकम्मे बाप ने अपने बेटे के लिए भी कुछ न छोड़ा राजेश्वरी, मगर तसल्ली यही है कि ज़हीन है, पेट भर लेगा।

“हुजूर ऐसा क्यों फ़र्माते हैं। इन मुबारक हाथों से भीख पाकर लोगों ने रियासतें खड़ी कर ली हैं। दुनिया में दिल ही तो एक चीज़ है हुजूर, भगवान् भी यह सब देखता है। वह उस आदमी की औलाद पर बरकत देगा जिसने अपनी ज़िन्दगी में सब को दिया ही है, लिया किसी से भी कुछ नहीं।”

राजा साहब ने हाथ बढ़ाकर राजेश्वरी का हाथ पकड़ लिया। बहुत देर तक कमरे में सन्नाटा रहा। दो पुराने किन्तु पानी दार दिल मन-ही-मन एक-दूसरे को यत्न से संचित स्नेह से अभिषिक्त करते रहे।

आख़िर राजा साहब ने एक ठंडी साँस भरी, और गुड़गुड़ी में एक कश लगाया।

नवाब ननकू हाँफते हुए आ बरामद हुए। उनकी नाक पर की ऐनक नाक की नोक पर खिसक आई थी। आते ही उन्होंने खिदमतगार को एक डाँट दी-अरे कम्बख्त, बदनसीब, अंगीठी में और कोयले क्यों नहीं डाले, वह बुझ रही है। नवाब साहब जब तक हुक्म न दें, ये नवाब के बच्चे काम न करेंगे। राजा साहब को दौरा हो गया, तो याद रख कच्चा चबा जाऊँगा। उठ, जल्दी कोयले डाल।

खिदमतगार चुपके से उठ गया। नवाब ने ही-ही हँसते हुए कहा-देखा राजेश्वरी भाभी, खिदमतगार साले नवाब ननकू के आगे बन्दर की तरह नाचते हैं। मगर मुँह पर कहता हूँ, बिगाड़ दिया है राजा साहब ने, नौकरों को बहुत मुँह लगाना अच्छा नहीं।

“लेकिन नवाब, उन गरीबों को छह-छह महीने की तनख्वाह नहीं मिलती है, बेचारे मुहब्बत के मारे पड़े हैं।”

“तो इससे क्या? उनके बाप-दादों ने इतना खाया है कि सात पीढ़ी के लिए काफी है।”

“मगर उन्होंने खिदमत भी तो की है।”

“तो रियासतें भी तो पाई हैं।”

“अच्छा देखूँ तो, राजेश्वरी के लिए क्या-क्या चीज़ लाए हो।”

“देखिए और दाद दीजिए नवाब को?”

नवाब ने बोतल बगल से निकाली। और भी बहुत-सा सामान।

“अरे, यह इतनी खटपट किसलिए की नवाब साहब।” राजेश्वरी ने कहा।

“जी, जैसे आप चिऊंटी के बराबर तो खाती ही हैं। फिर आईं कितने दिन बाद हैं राजेश्वरी भाभी। जानती हैं; राजा साहब कितना याद करते हैं। जब राजेश्वरी जबान पर चढ़ती हैं, आँखें गीली हो जाती हैं। अम्मीजान कहती थीं, बड़े महाराज का भी यही हाल थे, ज़रा-सी बात पर दिल भारी कर लेते थे।”

“वे देवता था नवाब साहब।”

“और ये?”

“ये; इन्हें पहचाना किसने है अभी।”

“दुनिया ऐसों को कभी न पहचान पाएगी।”

खिदमतगार अंगीठी टंच करके रख गया। नवाब साहब ने खुश होकर कहा-यह बात है रामधन, मगर देखो, मैंने तुम्हें एक गाली दी है, और ये दो रुपये इनाम देता हूँ।

नवाब ने दो रुपये निकालकर रामधन की ओर बढ़ा दिए।

रामधन ने नवाब के पैर छूकर कहा-हुजूर, आपकी गालियाँ खाकर ही तो जी रहा हूँ। रुपया-पैसा सरकार का दिया हुआ बहुत है।

“मगर यह भी रख लो, महरिया को एक बढ़िया-सी चुनरी ला देना।”

“वह उस दिन हवेली गई थी सरकार, तो बेगम साहिबा ने जाने क्या-क्या लाद दिया था, गट्ठर भर लाई थी।” नवाब ने तैश में आकर कहा-अबे, रुपये लेता है या मंतिख छाँटता है, क्या लगाऊँ धौल? रामधन ने रुपये लेकर उन्हें और राजा साहब को सलाम किया।

राजा साहब ने हँसकर कहा-देखा राजेश्वरी, नवाब का इनाम देने का तरीका।

नवाब खिलखिलाकर हँस पड़े। उन्होंने कहा-झपाके से तश्तरियाँ ला, गिलास ला, पैग ला। जल्दी कर।

क्षण-भर में ही सब साधन जुट गए। राजा साहब तकिए के सहारे उठंग गए। शराब का दौर शुरू हुआ। नवाब ने गिलास में सोडा और शराब भरकर कहा-राजेश्वरी, राजा साहब की तंदुरुस्ती और बरकत के लिए। तीनों ने हँसती हुई आँखें मिलाई और शराब की चुस्कियाँ लेने लगे।

राजेश्वरी ने कहा-इस सरदी में बहुत दौड़-धूप की नवाब साहब! “मान गईं न आप नवाब को, लीजिए इसी बात पर दूसरा पैग।”

“नहीं नवाब, मैं तो कभी पीती ही नहीं। बहुत मुद्दत हुई, जब से महाराज की तबीयत नासाज़ रहने लगी। आज मुद्दत बाद मुँह से लगा रही हूँ।”

“तो पूरी कसर निकालिए राजेश्वरी भाभी, नवाब को इस ठंडी रात में उस साले ठेकेदार से बहुत मगज़पच्ची करनी पड़ी। साला वही रद्दी माल पटील रहा था। मैंने कहा : वह बोतल निकाल जो उस दिन हमारे सरकार की खिदमत में गई थी। और यह कबाब, सच कहता हूँ राजेश्वरी भाभी, कस्बे में दूसरा नहीं बना सकता।”

“वाकई बहुत अच्छे बने हैं, मगर आप तो खाते ही नहीं नवाब साहब।”

“वाह, खिलाने में जो मजा है, वह खाने में कहाँ ? देखा था अम्मी को, वही एक शौक उन्हें मरते दम तक रहा-एक-से-एक बढ़कर चीजें बनाना और खिलाना।”

“मुझे याद है नवाब, मैं तब बहुत बच्ची थी, आपा के साथ आती थी, वे छोड़ती ही न थीं-खींच ले जाती थीं। जितना खिलाती थीं; क्या कहूँ।”

“मगर अब अम्मी तो हैं नहीं, नवाब उनका नालायक लड़का है, उसने विरासत में अम्मी की वह आदत पाई है। लीजिए, यह पैग तो पीना होगा।”

“मगर उधर तो देखो नवाब, महाराज ने सिर्फ़ होठों से छूकर ही गिलास रख दिया है, पी कहाँ?”

“क्या कहूँ, राजेश्वरी, तकलीफ देती है, पी नहीं सकता। डॉक्टरों ने भी मना कर दिया। मगर तुम पियो राजेश्वरी, आज मैं बहुत खुश हूँ। लाओ नवाब राजेश्वरी को एक पैग मैं भरकर दूं।”

“और हुजूर, एक नवाब को भी।”

“ओ, यह कब से? तुम तो कभी पीते नहीं थे।”

“आज ही से, अभी-अभी एक पैग पिया है मैंने।”

राजा साहब ने दो पैग तैयार किए। गिलास में भरकर कहा-लो राजेश्वरी, और तुम भी नवाब।

“वाह, हुजूर, यों नहीं, ज़रा-सा जूठा कर दीजिए कि यह जाम पाक तबर्रुक हो जाए।” नवाब ने कहा।

राजा साहब हँस दिए। उन्होंने नवाब का हाथ पकड़कर और खींचकर छाती से लगा लिया। फिर आँखों में आँसू भरकर कहा-ननकू मेरे प्यारे भाई, हमारी माँ दो थीं, मगर वालिद एक थे। फिर भी तुम मेरे सगे भाई हो। ऐसे, जैसा दूसरा मिलना मुश्किल है। और ननकू, मैं सिर्फ प्यार की बदौलत ही जी रहा हूँ। उन्होंने प्याला होठों से छुआ कर नवाब को दिया और नवाब गटागट पी गए। उनकी आँखों में आँसू और होठों में हँसी बिखर रही थी।

नवाब ने कहा-राजेश्वरी भाभी, बहुत दिन से सूने-सूने दिन जा रहे थे। आज तो कुछ जँच जाए।

“मगर नवाब, गले में अब सुर तो रहे ही नहीं।”

“बेसुरा ही सही।”

महाराज ने हँसकर कहा-राजेश्वरी, आज नवाब को बहुत मेहनत करनी पड़ी है, उसकी बात रख लो।

“जो हुक्म, मगर मेरी एक अर्ज़ है।”

“कहो।”

“नवाब साहब को जो तबर्रुक बख्शा गया है, वही लौंडी को भी इनायत हो।”

“ओह, अच्छा ठहरो, सब्र करो।”

नवाब ने इशारा किया। रामधन तबला, हारमोनियम ले आया।

हारमोनियम नवाब खींच बैठे, और रामधन ने चारों ओर तकिए लगाकर राजा साहब को आराम से बैठाकर तबले उनकी गोद में रजाई में लपेटकर रख दिए। अंबरी की तमाखू की एक नई चिलम चढ़ा दी। तबले पर हल्की चोट देते हुए राजा साहब ने कहा-राजेश्वरी, अभी उँगलियों पर लकुए का असर नहीं है, काम दे रही हैं।

राजेश्वरी ने चुपचाप आँखों में प्यार भरकर राजा साहब पर उड़ेल दिया और आलाप लिया। हारमोनियम पर नवाब की अभ्यस्त उँगलियाँ नाचने लगीं, और तबले पर मृदु-मन्द ताल नृत्य करने लगा।

राजेश्वरी की प्रौढ़ स्वर-लहरी ने वातावरण में एक प्यास उत्पन्न कर दी। यह वैसी न थी, जैसी वासना और यौवन की आँधी के झोंकों में मिली रहती है। यहाँ तीन प्रेमी विश्वस्त, पुराने और ऊँचे हृदय, अपने भौतिक आनन्द की चरम अनुभूति ले रहे थे। वे लोग आप ही अपनी कला पर मुग्ध थे, आप ही अपनी तारीफ कर रहे थे, आप ही अपने में पूर्ण थे।

“तो हुजूर, अब कब?”

“जब मर्जी हो राजेश्वरी।”

“तबीयत होती है कि कुछ दिन कदमों में रहूँ।”

“मैं भी चाहता तो हूँ राजेश्वरी, पर तुम्हारी तकलीफ का ख्याल करके चुप रह जाता हूँ। देखती हो, मकान कितना गंदा है, सिर्फ दो ही खिदमतगार हैं। इन्हें भी महीनों से तनख्वाह नहीं मिलती, पर पड़े हुए हैं। तुम इन तकलीफों की आदी नहीं हो।”

“मगर हुजूर, क्या मैं उन खिदमतगारों से भी गई-बीती हूँ?”

“नहीं, नहीं राजेश्वरी, मैं तुम्हें जानता हूँ।”

“मगर हुजूर अपने को नहीं जानते, मेरी वह कोठी, जायदाद, नौकर-चाकर सब किसकी बदौलत हैं, हुजूर ने जो पान खाकर थूक दिया उसी की बदौलत। अब हुजूर गरीब हो गए तो पुराने ख़ादिम क्या बेगाने हो जाएँगे?”

राजेश्वरी की आँखें भर आईं। कुछ ठहरकर उसने कहा-शर्म के मारे मैं खिदमतगारों को नहीं लाई, इस टुटहे इक्के पर आई हूँ। मैं कैसे बर्दाश्त कर सकती थी कि मालिक जब इस हालत में हों तो उनकी बांदियाँ ठाठ दिखाएँ।

“नहीं नहीं, राजेश्वरी, यह बात नहीं। पर मैं अपनी आँखों से तुम्हें तकलीफ पाते देख नहीं सकता। कभी देखा ही नहीं।”

“इसी से हुजूर, मुझे अभी जबर्दस्ती भेज रहे हैं, मेरी नहीं सुनते।”

“इसी से राजेश्वरी।”

“और इस लौंडी का कभी कोई तोहफ़ा भी नहीं कबूल करते? उस बार जब जनाना महल नीलाम हो रहा था, मैंने कितनी आरजू की थी कि मुझे रुपया चुकता कर देने दीजिए। पुरखों की यादगार है, सब रियासत गई। मगर रहने का महल...आप मेरे आँसुओं से भी तो नहीं पसीजे हुजूर, आप बड़े बेदर्द हैं।”

राजेश्वरी फूटकर रो पड़ी, और राजा साहब के सीने पर गिर गई। राजा साहब, उसके सिर पर हाथ फेरते रहे। फिर कहा-तुम भी बच्ची हो गई हो राजेश्वरी, अब भला उतना बड़ा महल मैं क्या करता? अकेला पंछी। फिर उसमें अब खुल गया जनाना अस्पताल, कितने लोगों का भला होता है। बोर्ड ने खामख़ाह मेरा नाम अस्पताल के साथ जोड़ दिया है।

“जी हाँ खामख़ाह ही। वह लाखों की स्टेट जो कौड़ियों में दे दी। और अब हुजूर इस किराए के मकान में बहुत खुश हैं।”

“बहुत खुश, राजेश्वरी, बहुत खुश। न ऊधो का लेन, न माधो का देन। लेकिन बहुत देर हो रही है राजेश्वरी, गाड़ी पकड़नी है। स्टेशन काफी दूर है, और रास्ता बड़ा खराब है। तुम्हारा इक्का आ गया?”

“धक्के दीजिए मुझे, बुढ़िया जो हो गई हूँ, अब आप यही तो करेंगे।”

राजा साहब असंयत होकर पलंग से आधे उठ गए। राजेश्वरी को खींचकर छाती से लगा लिया। फिर प्यार से उसके गंगाजमुनी बालों की लटों को उँगलियों में लपेटते हुए कहा-बुड्ढा-बुढ़िया कौन होता है राजेश्वरी, मेरी आँखों में तुम वही-नए केले के पत्ते से रूपवाली, अछूते यौवन और अपार प्यार वाली, मेरे दिल और दिमाग की तरावट राजेश्वरी हो। तुम या मैं भले ही बूढ़े हो जाएँ, लेकिन इन आँखों में झाँक कर जिसने तुम्हें देखा है, वह बूढ़ा नहीं और तुम्हारे भीतर बैठकर जो एक-एक मोती तुम्हारी आँखों में सजाता जा रहा है, वह भी बूढ़ा नहीं।

राजेश्वरी धीरे-धीरे राजा साहब के मुँह के बिलकुल पास फर्श पर बैठ गई। रामधन अंबरी तमाखू चढ़ाकर गुड़गुड़ी रख गया। राजा साहब चुपचाप तमाखू पीने लगे। तमाखू की खुशबू ने कमरे को मस्त कर दिया।

राजेश्वरी ने कहा-हुजूर वादा-वक़्फ़ हो।

राजा साहब ने भौंहें सिकोड़ कर राजेश्वरी की ओर देखकर कहा-वादा?

“जी?”

“क्या?”

“तबर्रुक।”

“ओह, भूली नहीं राजेश्वरी।”

“भूलने की एक ही कही, कब से आस लगाए हूँ। नवाब के सामने फिर नहीं कहा।”

राजा साहब कुछ देर चुपचाप गुड़गुड़ी पीते रहे। फिर कहा-ज़रा और पास आओ तो राजेश्वरी।

राजेश्वरी बिलकुल राजा साहब के मुँह के पास खिसक आई।

राजा साहब ने गुड़गुड़ी की सोने की मूनाल उसके होठों से लगाकर कहा-एक कश खींचो तो राजेश्वरी।

“लेकिन, लेकिन हुजूर-”

“ऐन खुशी होगी, खींचो एक कश।”

राजा साहब की आँखों में प्यार का सारा ही रस उमड़ आया। राजेश्वरी ने आनन्द-विभोर होकर गुड़गुड़ी से कश खींचा।

“खुश हुई अब राजेश्वरी।”

“ओह, हुजूर, कहीं खुशी से मेरी छाती न फट जाए। हुजूर ने गुड़गुड़ी-खास इनायत करके मेरी सात पीढ़ियों को तार दिया।”

राजा साहब ने खिदमतगार से कहा-रामधन, चिलम ठंडी कर दे और गुड़गुड़ी उस अखबार में लपेटकर इक्के में रख आ।

राजेश्वरी का मुँह सूख गया। उसने कहा, यह आप क्या कर रहे हैं? “मेरा दिल बाग-बाग है, दुलखो मत।”

“मगर हुजूर...”

“मैं हुक्म देता हूँ-मत बोलो।”

राजेश्वरी का सिर नीचे को झुक गया। उसने खड़े होकर झुककर राजा साहब को सलाम किया और रोती हुई चली गई। राजा साहब चित्त अपने पलंग पर पत्थर की मूर्ति की भाँति निश्चल-निर्वाक् पड़े रहे।

“यह क्या तमाशा है रामधन, महाराज मिट्टी की गुड़गुड़ी में तमाखू पी रहे हैं? गुड़गुड़ी-खास क्या हुई?” नवाब ने कमरे में आते ही हैरान होकर पूछा। रामधन चुपचाप खड़ा रहा। उसे बाहर जाने का इशारा करते हुए राजा साहब ने मुस्कराकर कहा-यहाँ आओ नवाब, मैं बताता हूँ।

नवाब ननकू एकदम पलंग के पास जा खड़े हुए, राजा साहब ने हँसकर कहा-बैठो।

“मगर मैं पूछता हूँ गुड़गुड़ी-खास क्या हुई?”

“बैठो तो कहूँ।”

नवाब ने बैठकर कहा-कहिए।

राजा साहब ने रजाई से हाथ बाहर निकालकर नवाब का हाथ पकड़ लिया। कहा-नाराज़ न हो नवाब, राजेश्वरी को दे दी।

“क्या उन्होंने माँगी थी?”

“नहीं, मगर उसे खाली हाथ कैसे जाने देता। तुम देखते ही हो, खानदान की वही एक चीज़ मेरे पास बची थी।”

नवाब कुछ देर होंठ चबाते रहे, फिर बोले-मगर आप मिट्टी की गुड़गुड़ी में तमाखू नहीं पी पाएँगे। मैं गुड़गुड़ी लाता हूँ।

“कहाँ से?”

“घर से।”

“कहाँ पाई।”

“अम्मीजान की है, बड़े महाराज ने बख्श दी थी। मेरे पास यह अब तक पाक धरोहर थी। अब आज काम आएगी।”

राजा साहब ने कहा-बड़े महाराज ने जो चीज़ बख्श दी, वह मैं वापस कैसे ले सकता हूँ।

“तो अब हुजूर नवाब को जीने न देंगे?”

राजा साहब हँस दिए। मीठे स्वर से बोले-खैर, इस अम्र पर पीछे गौर कर लिया जाएगा। पर मिट्टी की गुड़गुड़ी में तंबाकू बहुत मीठा लगता है नवाब। हाँ, यह कहो-रात सामान कैसे जुटाया था। मैं जानता हूँ तुम्हारे पास छदाम न था।

“जुट गया यों ही, नवाब हूँ, कोई अदना आदमी नहीं।”

“मगर सच-सच कहो।”

“झूठ से क्या फायदा? चालीस रुपये बाबू साहब से लिए थे।”

“बड़ी तकलीफ दी उन्हें। अब ये रुपये दिए कैसे जाएँ।”

“जल्दी नहीं है सरकार, रहन पर लाया हूँ-यों ही नहीं, जब हाथ खुला होगा, दे देंगे।”

“रहन क्या रक्खा?”

“एक अदद था।”

“क्या अदद, बताओ।”

“आप तो धांधली करते हैं, आपको मतलब?”

“तुम्हें मेरी कसम नवाब।”

“ओफ़।”

“कहो-कहो।”

“अम्मी का लहंगा था।”

राजा साहब निश्चल पड़ गए। उनकी आँखों की दोनों कोरों से आँसू बह रहे थे और उनका काँपता हुआ हाथ नवाब के हाथ में था।

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