नर(क) लोक (कहानी) : रावुरी भारद्वाज

Nar(k) Lok (Telugu Story in Hindi) : Ravuri Bharadwaja

1.

सूत महामुनि शौनक आदि मुनियों को सावधान करते हुए आगे की कथा का यों बखान करने लगे।

त्रिलोक-संचारी महर्षि नारदजी एक बार समस्त भूलोक का विचरण कर, अधिक धूप के कारण थककर, एक जंगल में, एक बड़ के पेड़ के नीचे बैठकर, आराम करने लगे।

गुप्तचरों द्वारा उस अरण्य के अधिपति सिंहराज को इसका पता लगा। तुरन्त समुचित उपहार लेकर नारदजी की सेवा में पहुंचकर, भेंट-पुरस्कार समर्पित कर उसने अपनी भक्ति-प्रपत्तियों को प्रकट किया। वैसे ये भेंट-पुरस्कार पाकर नारदजी को बहुत प्रसन्न होना चाहिए था। क्योंकि, किसी भी अरण्य में नारदजी का इतना आदर-सत्कार नहीं हुआ। अगर दूसरा कोई होता तो हर्षपुलकित होकर, आनन्द-विभोर होकर, सिंहराज को मुंहमांगे वर प्रदान करता। इसी विचार से तो सिंहराज ने ऐसे अपूर्व उपहार नारदजी को समर्पित किये थे। लेकिन सिंहराज के विचारों का उल्टा हो गया। प्रसन्नता प्रकट करना तो दूर, नारदजी लम्बी साँस लेकर और भी उदास हो गये।

सिंहराज भयभीत हो गया कि कहीं उससे कोई गलती तो नहीं हो गयी। उसने कहा- "हे स्वामी ! जान-बूझकर मैंने कोई अपचार नहीं किया। यदि अनजाने में मुझसे कोई अपचार हो गया हो तो मुझे बताइये। आभारपूर्वक मैं अपने आप को सुधार लूंगा।"

नारदजी ने थोड़ी देर के लिए तीखी नजरों से सिंहराज को देखा । सिंहराज उन तीखी नजरों को सहन न कर सका, उसने सिर झुका लिया। नारद ने सावधानी से 'महती' (वीणा) को जमीन पर रख दिया, लम्बी साँस छोड़कर, धीमी-सी आवाज की । सुनकर सिंहराज थर-थर कांप उठा।

क्षण-भर के लिए नारद के मुख पर मुसकुराहट छा गयी।

सिंहराज के मन में आशा के अंकुर पनप उठे।

नारद ने खाँस कर स्वर साफ करके यों कहा-'हे सिंहराज ! तुम्हारे अतिथि सत्कार से हम प्रसन्न हुए। तुम्हारे दिये भेंट, पुरस्कारों ने हमें बहुत आनन्दित किया। लेकिन मैं सचमुच आनन्दित नहीं हो पा रहा हूँ। मुझे मालूम है कि तुम सोच रहे हो कि ऐसा क्यों ? मैं भी कारण बताना चाहता हूँ, लेकिन तुम्हारे कुशल-क्षेम को ध्यान में रखकर नहीं बता पा रहा हूँ।"

सिंहराज ने अतिविनय प्रदर्शित करते हुए कहा-“हे स्वामी ! आपकी बातें बहुत अजीब लग रही हैं। शायद यह मेरी बदकिस्मती हो। वरन् मेरे हितैषी होते हुए भी आप मेरे सन्देह को, पता नहीं क्यों दूर नहीं कर रहे हैं ? विज्ञ लोग कहते हैं कि अपने आप्तजनों से दिल खोलकर बात करना सत्पुरुषों का लक्षण है। अपनी उदासी का कारण बताकर मुझं अनुग्रहीत कीजिए।"

नारद ने यों कहा- "हे वत्स ! तुम्हारी विनय-भावना मेरे हृदय को कमजोर बना दे रही है । तुम्हें मालूम है कि सत्य को सह सकना मुश्किल है। गुरुजनों ने भी कहा है कि ऐसे सत्य को बोलना चाहिए जो प्रिय हो । फिर भी तुम पर वात्सल्य भाव के कारण सत्य को ही बता दूंगा।''मुझे मालूम है कि उससे तुम्हें तकलीफ होगी । न बताऊँ, तो और भी तकलीफ होगी। इन दोनों पर ध्यान देने से लगता है कि सत्य बताना ही उत्तम है। इसीलिए बता रहा हूँ।"

ऐसा कहकर नारदजी थोड़ी देर के लिए मौन रह गये। सिंहराज और उसके साथी आश्चर्यचकित हो गये और मुंह बनाकर नारद की तरफ देखने लगे।

नारद ने कहना शुरू किया-"हे सिंहराज ! अपने बड़प्पन को प्रकट करने के लिए तुमने हमें अपूर्व पुरस्कार समर्पित किये । तुम्हारा विचार है कि मैं उससे प्रसन्न हो जाऊँगा। और किसी समय मैं अवश्य प्रसन्न हो जाता। अब मेरे प्रसन्न न होने के बारे में तुम्हें अधिक विचार करने की जरूरत नहीं है। यह सब इसलिए बता रहा हूँ कि मैं अभी-अभी समस्त भूलोक का संचरण कर आ रहा हूँ। इस बीच अनेक कारणों से मैं भूलोक में नहीं आया। मेरे पिछली बार के दौरे के बाद और अब के भूलोक में काफी परिवर्तन आ गया है । भूलोक इतना बदल गया है कि मुझे स्व्यं विश्वास नहीं हुआ कि क्या यह वही भूलोक है । कुछ घण्टों तक मेरे मन में यही सन्देह बना रहा कि भूलोक समझकर मैं कहीं अन्य किसी लोक में तो नहीं आ गया। मानव अपूर्व और कल्पनातीत रूप से बदल गया है। किसी समय प्रकृति का दास बनकर, हर पल प्रकृति के सामने सिर झुकाने वाले मानव ने आज प्रकृति को अपनी दासी बना लिया है। मुझे स्वयं इस सचाई पर विश्वास नहीं हुआ।"

"क्या यह सच है स्वामी?" कहा सिंहराज ने।

"मेरी ही बातों पर विश्वास नहीं करोगे?" नारदजी कहने लगे-"सारे भूलोक का चप्पा-पप्पा छानकर कई चित्र-विचित्र विषयों को देखा है। उन सब का वर्णन करना मेरे बस की बात नहीं है। उन मानवों को छोड़कर आने की इच्छा ही नहीं हुई। सोचा, सदा के लिए उन्हीं के बीच रह जाऊँ। लेकिन..." इतना कहकर नारदजी रुक गये।

सिंहराज एक बार जोर से अयाल हिलाकर बैठ गया।

"ऐसे रह जाने में कुछ समस्याएं हैं। मुझे मालूम नहीं है, मानव की इस अपूर्व विजय के बारे में अन्य लोकवासियों को मालूम है या नहीं। इसका कारण यह है कि कई शताब्दियों से अन्य लोकवासी भूलोक की ओर ध्यान ही नहीं दे रहे हैं । ऐसी हालत में मैं यहीं रह जाऊँ तो इस विजय का पता उन्हें कैसे लगे। इसलिए मैं वहाँ न रह सका और चला आया । नहीं तो, वहाँ से आने की जरूरत ही क्या है ? यदि इस विजय के बारे में अन्य लोगों को बताना होगा तो मेरे भूलोक में ही रह जाने से काम नहीं चलेगा। अपने सुख को भी तजकर यह समाचार अन्य लोकवासियों को देना है। इसी विचार से मैं निकल पड़ा हूँ। थक गया था और सोचा था कि इस मार्ग में तुम हो-इसलिए यहाँ आया हूँ। अभी तक तुम्हें असली बात बतायी नहीं। ऐसे महत्तर विषयों को देखकर आ रहा हूँ न, इसीलिए तुम्हारे दिये इन उपहारों का मेरे लिए कोई महत्त्व नहीं रहा।"

सिंहराज अपने मन को काबू में करते हुए बोला- "हे स्वामी ! मेरे राज्य में इनसे बढ़कर मूल्यवान वस्तुएँ नहीं हैं। जो हैं उनमें से श्रेष्ठ वस्तुएं ही आपको समर्पित की हैं।"

नारदजी ठठाकर हंस पड़े, और बोले, "अरे पागल ! मैं तुम्हारे व्यक्तित्व पर सन्देह नहीं कर रहा है। और ऐसा कभी मत सोचो । भूलोक की वस्तुओं को देखकर चौंधिया गयी मेरी आँखों को साधारण स्थिति में आने में कुछ समय लग सकता है। लेकिन, विचित्रता इसमें है कि इस बीच मानव और प्रगति कर लेगा। तब तो मुझे चकाचौंध की इसी स्थिति में रहना होगा । यह भी कहा नहीं जा सकता कि मानव की प्रगति की इतिश्री कहाँ होगी, ऐसे कहने का भी मैं साहस नहीं कर सकता । खैर, अब मैं जा रहा हूँ।" नारदजी उठ खड़े हुए।

"आप की बातें विश्वास करने योग्य नहीं लग रही हैं। लेकिन आप पर असत्य दोष का आरोप लगाने का भी मुझमें साहस नहीं है। मैं ऐसा नीच' नहीं...।"

सिंहराज की बातों को टोकते हुए नारद ने कहा, "अरे नादान ! तुम्हारी हालत पर मुझे तरस आ रहा है। जब मुझे स्वयं अपने पर विश्वास नहीं हो रहा है तो मैं कैसे समझे कि तुम्हें मेरी बातों पर विश्वास होगा। एक बात बताऊँगा, ध्यान से सुनो। मरने से पहले एक बार मानव-लोक को देख लोगे तो जन्म सार्थक हो जायेगा।"

"महाराज, आपने मेरे मन में अनावश्यक इच्छा पैदा कर दी। जब आप इतना बल देकर कह रहे हैं तो आपकी बातों पर विश्वास न करना मेरी मुर्खता होगी। लेकिन मेरी एक बुरी आदत है । मैं प्रमाण के बिना किसी भी विषय पर विश्वास नहीं करता "क्षमा कीजिए, इस बुरी आदत से पिण्ड छुड़ाने के लिए लाख कोशिश करके भी मैं असफल हो गया । इतनी उम्र के बाद अब मैं अपने स्वभाव को बदल सकंगा, ऐसा सोचना भी आत्मप्रवंचन होगा...।"

नारदजी ने मुस्कराते हुए कहा, "मैं तुम्हारी प्रवृत्ति को समझ गया हूँ।"

"स्वामी, आप तो त्रिकालविद् हैं। आप से मेरे मन की बात कैसे छिपी रहेगी?" सिंहराज ने कहा।

"हाँ ! तुम्हारा एक बार मानव-लोक को देखना बहुत जरूरी है। उससे तुम्हारा भला होगा। तुम्हारे मन के नये झरोखे खुल जायेंगे। अपने बड़प्पन के बारे में तुम्हारा मिथ्या अहंकार जाता रहेगा। प्रशासन के विषय में तुम बहुत कुछ सीख सकते हो। अगर उस अनुभव से युक्त होकर तुम अपने राज्य का शासन करोगे तो तुम्हारे राज्य की दिन-दूनी रात-चौगुनी प्रगति होगी। उस हालत में तुम्हारी समस्त जीव-संतति अपने जीवन को पूरी तरह से उपभोग कर सकेगी। तुम अपने देशवासियों को ऐसा अपूर्व अनुभव क्यों नहीं देते ? उन्हें अज्ञान में रख, उन पर शासन करने की अपेक्षा, उन्हें ज्ञानवान् बनाकर शासन करते हुए तुम भी प्रगति कर सकते हो । लेकिन तुम पूछ सकते हो कि क्या अब मेरा शासन-विधान ठीक नहीं है ? लेकिन शासन-विधान के इससे उत्तम रहने में कोई बुरा नहीं है न ! ठीक है न?"

सिंहराज ने कोई जवाब नहीं दिया।

"मेरी बातें अच्छी नहीं लगीं तो उन्हें सुनना छोड़ दो। लेकिन यह मत भूलो कि उससे नुकसान तुम्हारा ही होगा । किसी अच्छे विषय का अनुकरण करना, अच्छाई के प्रति हमारी आसक्ति को प्रदर्शित करता है। उसमें अपमान की गुंजाइश नहीं है। मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि तुम सन्देह क्यों कर रहे हो?"

"स्वामी! आपने मुझे प्रोत्साहित तो किया है, लेकिन मार्गदर्शन नहीं किया। मानव के जीवन-विधान का अनुशीलन करने के लिए मेरे मन में उत्साह तो है लेकिन उसकी पूर्ति में अड़चनें भी बहुत हैं । ये सब अपने पूर्वजों के वचनों के आधार पर ही मैं कह रहा हूँ । एक समय हममें और मानवों में भारी शत्रुता थी। यह आपसे छिपी बात नहीं है। पता नहीं, इस बीच मानव के स्वभाव में कुछ परिवर्तन आया हो, वरन् मैं उसके जीवन का अनुशीलन और परिशीलन कैसे करूँ, उसके लिए अवसर ही कहाँ ? आप जानते हैं कि केवल इच्छा रखने से ही कोई लाभ नहीं। अगर मेरे प्रति आपके मन में वात्सल्य है तो आप मेरा मार्गदर्शन कीजिए। आपके ऋण से मैं कभी उऋण नहीं हो पाऊँगा। मेरे देशवासी भी जीवनपर्यन्त आपका आभार मानेंगे।"

"मुझे बुरी तरह फंसा दिया-सच है, तुम्हारे इस रूप में जाने में भला नहीं है। यही नहीं, मानव के तत्त्व को जानना मानव के लिए ही सम्भव होगा। यह सब सोचने पर लगता है कि तुम्हारे मानव-रूप को धारण करने के अतिरिक्त दूसरा कोई उपाय नहीं है।"

"स्वामी ! आपने तो मेरे मुंह की बात छीन ली।" सिंहराज ने कहा ।

'मैं यहीं तक कर पाऊँगा। तुम्हें मनुष्य रूप प्रदान करना मेरे बस की बात नहीं है । फिर भी तुम चिन्ता मत करो। तुम ब्रह्माजी के प्रति तपस्या करो। इतने में मैं तुम्हारे प्रयास की सफलता के लिए सारा इन्तजाम कर दूंगा । तुम अपना काम शुरू करो और मैं अपना प्रयत्न शुरू करता हूँ...बहुत समय हो गया, अब मैं जाता हूँ।"

सिंहराज ने अपने परिवार के साथ नारद जी को नमस्कार किया।

"ईष्ट फल सिद्धिरस्तु ।" आशीर्वाद देते हुए अपनी 'महती' को हाथ में लेकर नारद जी चल पड़े।

2.

पिछले कुछ दिनों से सरस्वती और ब्रह्मा के बीच झगड़ा चल रहा था। इस बात की जानकारी रखते हुए भी कोई बीच-बिचौवल करने को तैयार नहीं हुआ। एक-दो लोग सरस्वती को समझाने गये और अपमानित हुए। सरस्वती टस-सेमस नहीं हुई, अपनी बात पर अड़ी रही।

नारदजी को इस बात का पता लग गया। उन्होंने सोचा, इससे अच्छा मौका नहीं मिलेगा। सीधे सरस्वती के महल में पहुंच गये। साष्टांग दण्डवत आदि किया। सरस्वती ने आशीर्वाद नहीं दिया। क्षण-भर के लिए अपनी प्रसन्नता प्रकट की और चुप हो गयी। नारद को बात समझ में आ गयी। लेकिन न समझने का अभिनय करते हुए यों बोले, "हे माते ! किम्पुरुषों ने मुझे सारी बातें बतायी हैं । आप जैसे पुराण-दम्पतियों के बीच झगड़े की बात का देवलोक के कोने-कोने में फैल जाना आपकी प्रतिष्ठा के विरुद्ध है। माँ ! मुझे मालूम है कि इसमें आपका कोई दोष नहीं है और हो भी नहीं सकता। पिताजी ढलती उमर में हैं । इस बुढ़ापे में मन का ठीक तरह से काम न करना स्वाभाविक है। अव्यवस्थित स्थिति में पिताजी कोई ऐसी बात कह दें या ऐसा काम कर दें जो उन्हें कहना या करना नहीं चाहिए, त्रिलोक-पूज्या आपका इस प्रकार रूठ जाना क्या समुचित है ? क्या आप इसे ठीक मानती हैं ?"

सरस्वती चुप बैठी रहीं । कोई जवाब नहीं दिया ।

नारद ने फिर कहना शुरू किया। “यही नहीं, पिताजी को अभी आपकी शक्ति और सामर्थ्य के बारे में मालूम नहीं है । अगर जानते तो आपसे इस तरह झगड़ा नहीं मोल लेते। आपने पिताजी की समस्त सृष्टि को मुखर बनाया। वरन् इस गूंगी सृष्टि का क्या होता? इसी से आपकी प्रतिभा और शक्ति का अनुमान लगा सकते हैं।"

सरस्वती के मुख पर प्रसन्नता की रेखा झलक गयी। उन्होंने कहा, 'बेटे ! तुम्हारे पिताजी का विचार भी यही है । वे मेरी शक्ति और सामर्थ्य के बारे में जानते हैं। लेकिन इस बात को व्यक्त करना नहीं चाहते । इसलिए छोटी-मोटी बात को लेकर झगड़ा कर बैठते हैं। इतने दिनों से मैं सहती आयी। लेकिन उसकी भी एक सीमा होती है न ? तुम्हारे पिताजी यह भूल गये कि मेरा मौन मेरी भलमानसी का लक्षण है। यही इस झगड़े का मूल कारण है।"

"हे माते ! यह आप दोनों के बीच की बात है। चार लोगों में इस बात के फैल जाने से अनेक प्रकार की समस्याएं पैदा हो जाती हैं। सब लोगों को इस बात का पता चल गया कि बुढ़ापे के कारण पिताजी की मति नष्ट हो गयी है। इस कारण से उन्हें जो काम करने हैं, वे सब आपको करने पड़ रहे हैं, ऐसा सब लोग समझ रहे हैं।"

"सच ?" सरस्वती के स्वर में उत्साह था।

"इसमें सन्देह की बात ही क्या है ? पाषाण-सदृश जंगम सृष्टि को वाक्शक्ति प्रदान कर आपने उसे उत्तम स्तर पर पहुंचाया। ऐसी अपूर्व शक्ति आप में है। आप चाहें तो क्या ऐसी जंगम सृष्टि का निर्माण नहीं कर सकती हैं ! अवश्य कर सकती हैं। लेकिन पिताजी के प्रति आपके मन में जो समादर की भावना है, उसके कारण आप चुप बैठी हैं। यह आपकी असमर्थता का प्रमाण कदापि नहीं है।"

"यह भी सच है।"

"हे माँ ! मैं यह बात इसलिए कह रहा हूँ कि इतनी सामर्थ्य से युक्त होकर भी आपने इस प्रकार झगड़ा क्यों मोल लिया ?"हाँ, मैं असली बात ही भूल गया। भूलोक में सिंहराज मेरा एक मित्र है। आपके प्रति उसके मन में अधिक भक्ति और विनय की भावना है। आपके अनुग्रह की प्राप्ति के लिए वह तरस रहा है। उसे वाक्-शक्ति प्रदान कीजिए।"

“अरे ! पशु और वाक्-शक्ति ?"

"मैंने उसे बहुत समझाया। लेकिन मां, मेरे समान ही उसे भी आपकी सामर्थ्य पर दृढ़ विश्वास है।"

"फिर भी...?"

"आपकी इच्छा है । उसके दृढ़ विश्वास को आप व्यर्थ कर देंगी तो कल से वह आपकी निन्दा करना शुरू कर देगा । उसके लिए आप तैयार हैं तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है।"

"ठीक है उसे वाक्शक्ति प्रदान कर दूंगी। इससे मेरा क्या बिगड़ने वाला है।"

नारद ने सरस्वती से विदा ली। सरस्वती ने उसी क्षण सिंहराज को वाक्शक्ति प्रदान कर दी।

नारदजी तत्काल ब्रह्माजी के पास गये। द्वारपाल ने बताया कि ब्रह्माजी एकान्त में हैं और कुछ दिनों से किसी को दर्शन नहीं दे रहे हैं। तो नारद ने कहा, "तुम्हारी बात ठीक है। क्या मुझे इसकी जानकारी नहीं है ? मैं इतना मूर्ख तो नहीं है कि यह सब जानते हुए भी भीतर जाने का आग्रह करूँ। ब्रह्माजी मेरी ही प्रतीक्षा में बैठे हैं। उनके आदेश पर ही मैं यहां आया है। विश्वास नहीं है तो मेरे साथ चलो, नहीं तो मैं वापिस चला जाऊँगा। उसके बाद घुडकियाँ खाने की बारी तुम्हारी होगी।"

द्वारपाल बड़ी दुविधा में पड़ गया। उसने नारदजी को भीतर जाने दिया। नारदजी भीतर गये तो देखते हैं कि ब्रह्माजी चारों मुख लटकाकर एक कोने में बैठे हुए हैं। नारदजी ने दूर से ही प्रणाम किया। ब्रह्माजी ने अनमने ही उसे स्वीकार किया। नारद ने कहना शुरू किया-"हे महानुभाव ! इस संसार में सभी प्रकार की मुसीबतें अच्छे लोगों को ही घेर लेती हैं। धोखेबाज, चोर और पापी लोग सर्वसुखों का उपभोग करते रहते हैं । इस परिस्थिति का कारण क्या हो सकता है ?"

"मुझे नहीं मालूम ।" ब्रह्माजी के स्वर में ईषत् क्रोध था।

"ऐसा कहकर अपने को ही धोखा मत दीजिए। हे तात ! आत्म-प्रवंचन सेप्रारम्भ होने वाला यह रोग लोक-प्रवंचन तक परिव्याप्त हो जाता है। आत्मप्रवंचन से एक व्यक्ति का नुकसान होता है। लेकिन लोक-प्रवंचन से समस्त लोक की हानि होती है। क्या आप यह चाहते हैं कि आपकी अपनी सृष्टि को हानि पहुँचे ?"

ब्रह्माजी ने प्रश्नार्थक रूप से देखा।

"हे प्रभो ! मैं आपसे इस बात का निवेदन करने योग्य नहीं हूँ। लेकिन निवेदन किये बगैर मुझसे रहा नहीं जाता। इस लोक में नियम के बन्धन ढीले पड़ते जा रहे हैं । इसका बीज देवलोक में और वह भी हमारे परिवार में रहना खेद का विषय है । सब जानते हुए भी, पता नहीं आप चुप क्यों बैठे हैं। सुना कि आप शान्त स्वभाव वाले हैं। लेकिन यह नहीं जानता था कि आप इतने नादान भी हैं । अभी-अभी यह बात सुनी है और उसका प्रणाम भी अभी मिल गया है।"

इस बात को सुनकर ब्रह्मा चौंक पड़े। चारों मुखों से जम्हाई लेकर तन कर खड़े हो गये। नारदजी भीतर ही-भीतर-प्रसन्न हुए।

"क्या कहा ? मैं नादान है ? नादान होता तो इतनी बड़ी सृष्टि कैसे करता? इतने चित्र-विचित्र अंशों की कल्पना कैसे करता? यह बात तो किसी मूर्ख को कहना चाहिए। यह बात तुम्हारे मुंह से शोभा नहीं देती।"

भीतर-ही-भीतर प्रसन्न होते हुए नारदजी ने कहा, "बिना किसी प्रमाण के मैंने यह बात नहीं कही है । कोई दूसरा आदमी अपने कार्य में हस्तक्षेप कर रहा हो तो चुप बैठने वाला नादान नहीं तो और क्या होगा? आपकी शक्ति और सामर्थ्य के विरुद्ध गली-गली प्रचार हो रहा हो और आप चुप बैठे रहें तो आप नादान ही होंगे । आप स्वयं सोचकर कहिए।"

"कौन है वह धूर्त जो इस प्रकार का प्रचार कर रहा है ?"

"और कोई होता तो मुझे क्या ? लेकिन स्वयं पूज्य माता जी ने इस आन्दोलन का प्रारम्भ किया है।"

"सच ?" चौंक पड़े ब्रह्मा जी !

पिताजी को चकित होते देखकर नारद यों बोले, "इसमें चकित होने की बात ही क्या है ? हे तात ! आप के और माता जी के बीच वैर का बीज अंकुरित और पल्लवित होकर महावृक्ष बनता जा रहा है। सम्पत्ति आप माताजी के लिए शत्रुस्थान में हैं।"

"तो..!" ब्रह्माजी चिढ़-से गये।

"शत्रु को जीतने के लिए अनेक मार्ग हैं तात ! उनमें एक उपाय यह है कि यह प्रचार किया जाये कि विपक्षी एकदम मुर्ख है, उसे कुछ नहीं आता । विपक्षी के प्रति अगर जनता में कहीं कुछ आदर की भावना है तो वह इससे समाप्त हो जायेगी। इससे उसकी नींव ही हिलने लगेगी। उसके द्वारा किये गये कामों को भ्रष्ट बताने के लिए तीव्र प्रयत्न शुरू हो जायेंगे।"

नारद की बातें सुनते ही ब्रह्माजी व्याकुल हो उठे। लगा जैसे अपनी प्रभुता के विरुद्ध कुछ षड्यन्त्र रचा जा रहा है। यह भी विश्वास नहीं हो रहा था कि षड्यन्त्र रचा भी जा सकता है। नारद का स्वभाव उनके लिए अपरिचित नहीं था फिर भी उनकी बातें विश्वास योग्य लग रही हैं। उस समय लगा कि नारद सबसे बड़ा हितू व्यक्ति है। ऐसी अराजक परिस्थितियों में नारद जैसे व्यक्ति से भी सहायता प्राप्त की जा सकती है।

"हे पिताजी ! क्या सोच रहे हैं ? यदि मेरी बातों पर विश्वास नहीं है तो उधर भूलोक की तरफ एक नजर देखिए तो आप स्वयं सत्य-असत्य से अवगत हो जायेंगे।"

ब्रह्मा थोड़ा विवेक से सोचकर यों बोले, "बेटे ! तुम्हारी बातों पर विश्वास क्यों नहीं होगा ?" उन्होंने सोचा कि उसी क्षण भूलोक की ओर नजर दौड़ायेंगे तो अनेक समस्याएं पैदा हो जायेंगी। पहली बात नारद रुष्ट हो जायेगा । उससे शत्रु के रहस्यों से पूरी तरह अवगत नहीं हो सकेंगे। शत्रु के रहस्यों से अवगत न होना पराजय की पहली सीढ़ी है।

"पिताजी !" नारद के स्वर में कुछ विचित्र परिवर्तन था। "आप कुछ भी कहिए, आपकी सृष्टि में सबसे अधम प्राणी नारी है । उसके उदाहरण के रूप में माताजी का ही नाम लेते हुए मैं बहुत व्यथित हो रहा हूँ । नारी को अकल ही नहीं होती, अगर हो तो भी उसका उपयोग नहीं करती। माताजी को ही लीजिए-छोटी-सी बात को लेकर आप दोनों में झगड़ा हो गया। उस बात को लेकर आप के विरुद्ध बखेड़ा खड़ा करना क्या उन्हें शोभा देता है ? रूठ जाना तक तो ठीक है। लेकिन, उस बात को लेकर विष्णु और शिवजी को अपने पक्ष में लेकर आपके विरुद्ध संघर्ष करने में औचित्य कहाँ है ?" नारद ने हाथ आये अवसर का सदुपयोग कर लिया। उन्होंने आगे कहा, "विष्णु और शिव तो आप के शत्रु हैं ही। उन्हें माताजी का जो अवलम्ब मिला, उसके कारण वे आपको अपदस्थ करना चाहते हैं । समझ में नहीं आ रहा है कि माताजी की अकल पर पत्थर कैसे पड़ गया...।"

आँख और कान फैलाकर सुनते हुए ब्रह्माजी ने पूछा, "क्या किया उसने ?"

"छोटे-मोटे काम होते तो मैं परवाह नहीं करता । लेकिन वे आपकी शक्ति और सामर्थ्य को ही अपदस्थ करना चाहते हैं।"

"चाहते हैं. अभी किया तो नहीं है न?"

नारद ने लम्बी साँस छोड़ते हुए कहा, "किया क्यों नहीं ? हो गया, उसका श्रीगणेश हो गया। अभी उसे वश में नहीं करेंगे तो आगे चलकर बात हमारे बस की नहीं रह जायेगी।"

"अरे बेटे !! बताओ, असल में हुआ क्या ? सब कुछ करने को तैयार हूँ।" ब्रह्मा जी के स्वर में आत्मीयता थी।"

"आपने केवल मानवों को ही वाक्शवित प्रदान की थी न !"

"हाँ।"

"माताजी ने पशुओं को भी वाक्शक्ति प्रदान कर दी है। यदि पशु मानव-भाषा में बोलने लगे तो इससे बढ़कर आपके लिए अपमान की बात और क्या हो सकती है ? यह सारा षड्यन्त्र विष्णु और शिव का है । उन्होंने माताजी को अपने चंगुल में फंसाकर, माताजी द्वारा यह काम करवाया है। अब आप स्वयं इसकी प्रतिक्रिया के बारे में सोचिए।"

"अरे ! इसमें कौन-सी बड़ी बात है ? वाक्शक्ति का अपसंहरण कर दूंगा।"

"लेकिन..." नारद के मुख पर मुस्कराहट थी। उन्होंने कहा, "हमारे देवलोक के संविधान में यह नियम है कि जो देवता वर प्रदान करेंगे, उन्हीं को अपसंहरण का भी अधिकार है। उसमें दूसरा कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता।"

"तो...आज से पशु भी मानव-भाषा में बोलने लगेंगे ?"

"अवश्य । इसे रोकने के लिए माताजी से सहायता लेनी पड़ेगी। इन परिस्थितियों में वह उतना सरल नहीं दिखाई देता। अगर आप जाकर क्षमायाचना कर लें तो...।"

"हैं... 'इतनी देर से इसी बात के लिए इतनी भूमिका बांध दी। मैं सृष्टिकर्ता हूँ। एक स्त्री के पास और वह भी अपनी पत्नी के पास जाकर क्षमायाचना करूं? इसकी कल्पना तक मैं नहीं कर सकता।" कुद्ध होकर ब्रह्मा जी ने नारद को आड़े हाथों लिया। लेकिन नारदजी ने उन बातों की परवाह नहीं की। अपनी हँसी को रोके हुए उन्होंने कहा, "अगर यह पद्धति आपको मान्य नहीं है तो एक और काम किया जा सकता है। माताजी ने जिन पशुओं को वाक्शक्ति दी है, आप उन्हें मनुष्य रूप दे दीजिए । इसे छोड़कर कोई दूसरा उपाय मुझे नहीं सूझ रहा है। अगर आप को सूझ रहा है तो आप स्वयं बताइए।"

ब्रह्मा जी कुछ देर तक सोच में पड़ गये और कहा, "मुझे तो कुछ नहीं सूझ रहा है । खैर, ऐसा ही करेंगे इसमें कोई संवैधानिक बाधा तो नहीं है न?"

"नहीं। ऐसी कोई सम्भावना नहीं है।"

"नहीं, मेरी बात का मतलब है, उन्होंने जो वर प्रदान किया, हम उसमें अड़चन पैदा कर रहे हैं न ! तब संविधान में कुछ...?"

"अगर ऐसा देखें तो प्रथम दोष माताजी का है। उन्होंने देवलोक के संविधान के विरुद्ध काम किया। पशओं को वाकशक्ति प्रदान कर दी ! स्पष्टीकरण तो पहले उनको देना है।"

"यह कहीं उसके सामने सिर झुकाने के समान तो नहीं है न ?"

"नहीं, नहीं, इसकी यह तो प्रचण्ड प्रतिक्रिया होगी। देखें इसके लिए माता जी, विष्णु और शिव क्या जवाब देंगे।"

"वैसे ...मानव-जाति के प्रति मेरे मन में बड़ी घिन है। अनिवार्य होकर मानवों की सृष्टि कर रहा हूँ... "हुंह... पता नहीं...कुछ समझ में नहीं आ रहा है।" नारद जी चुप रह गये।

"स्वामी, आप कुछ अनमने लग रहे हैं।"

नारदजी चौंक पड़े। उस व्यक्ति को उन्होंने ऊपर से नीचे तक देखकर कहा, "कौन हो बाबू तुम ! पहचान नहीं पा रहा हूँ।"

"महर्षि होने पर भी आप हास्य-प्रिय हैं।"

"हास्य और तुम से !" नारद के स्वर में आश्चर्य का भाव था।

"और नहीं तो क्या ? बड़ा प्रेम और अनुराग दिखाकर आप ही ने तो मुझे यह मानव रूप प्रदत्त कराया है।"

"अरे तुम ! सिंहराज...सचमुच पहचान नहीं पाया।"

"यह सब आपकी कृपा है। यदि आप न चाहते तो मुझे यह सुअवसर प्राप्त नहीं होता । निवेदन है कि इस सुअवसर का सदुपयोग करूंगा। आपके वचन के अनुसार मानव के ज्ञान-विज्ञान से परिचित होकर, तदनुसार अपने राज्य के प्रशासन की व्यवस्था करूंगा। इतने वर्षों से मानव ने जिन दशाओं को पार किया है, उन्हें मेरी प्रजा अल्पकाल में पार कर दिखायेगी। मानव के द्वारा किये गये दोषों को न दुहरा कर, उनके जीवन के अनुभव का सार मैं अपनी प्रजा को प्रदान करूंगा । समस्त पशु-समूह सदा आपका ऋणी बना रहेगा।"

"अरे तुम तो बड़े बुद्धिमान निकले जो अनहोनी को करके दिखा दिया। और सारा श्रेय मुझे देना चाहते हो! भई, मैं तो केवल निमित्त मात्र हूँ, परिस्थितियों के कारण तुम्हारी अभिलाषा फलवती हुई।"

"पूज्य व्यक्ति प्रशंसा पसन्द नहीं करते। फिर भी मैं अपना आभार प्रकट किये बिना नहीं रह सकूँगा। मुझे आशीर्वाद दीजिए ।" सिर झुकाये सिंहराज ने कहा।

"आशीर्वाद जैसी बातों पर मुझे कोई विश्वास नहीं है। फिर भी तुम्हारी इच्छा को अस्वीकार नहीं कर सकता।"

"धन्य हो गया प्रभो !" कहा सिंहराज ने ।

3.

कुछ दिन तक लगातार चलते रहने पर भी सिंहराज अपने जंगल को पार न कर सका। उसे इससे पहले अपने राज्य की सीमाओं का परिचय नहीं था। राज्य की सीमाओं से परिचत न होना सफल राजा का गुण नहीं है। फिर भी विश्वस्त कर्मचारियों के द्वारा, उसका कार्य सुचारु रूप से चलता रहा। जो बीत गया सो बीत गया। उसके बारे में सोचने की जरूरत नहीं है । अब उसे मानव रूप प्राप्त हुआ है। इस रूप में रहकर वह युगयुगों से प्रगति-पथ पर अग्रसर होने वाले मानव-जीवन के अनुभव से परिचति होने जा रहा है। अब आगे से उसे सचेत रहना चाहिए । इस मार्ग पर अपने प्रयास का यह प्रारम्भ है यदि भगवान की कृपा से प्रयास सफल हो जाय तो...।

प्रयास में सफलता मिल गयी तो इसके बाद क्या होगा, इसकी कल्पना तक सिंहराज नहीं कर सका । इसे छोड़ उसके मन में कुछ निराधार विचार भी पनप उठे। इससे पहले उसके मन में कभी यह विचार नहीं आया था कि मैंने किसी के प्रति अन्याय किया है या कर सकता हूँ। सिंहराज को यह विश्वास था कि वह जो कुछ भी कर रहा है वह न्याय-सम्मत ही है। जंगल को पार करते ही सिंहराज के मन में यह विचार आया-शायद मैंने कुछ लोगों के प्रति अन्याय अवश्य किया होगा । इसका कारण तो बता नहीं सकता। हो सकता है, यह मानव रूप धारण करने का परिणाम हो । या फिर मानव को ही अपने ऊपर पूरा विश्वास नहीं होता होगा।

सिंहराज ने जंगल पार करते हुए कुछ घण्टे तक की यात्रा की। तभी दूर एक गाँव दिखाई पड़ा। लगा कि पहली बार मानव-सभ्यता के क्षेत्र में पग धर रहा है। इस विचार ने उसकी नस-नस को उत्तेजित कर दिया। उसके चरणों की गति यकायक तेज हो गयी । इसके अतिरिक्त उसके पेट में चूहे दौड़ रहे थे। भूख मिटाने के लिए एक बार प्रयास किया भी, लेकिन छोड़ दिया। निकट ही एक हिरनी लेटी-लेटी जुगाली कर रही थी। सिंहराज गरज उठा लेकिन हिरनी ने बस एक बार सिर उठाकर देखा और वैसी ही लेटी रही। सिंहराज का पारा चढ़ गया। मुझ जैसे महाराज के गरजने का कोई असर न हो, बड़ी शर्म की बात है। इसका मतलब, मेरा शासन-विधान ही ढीला है। हिरनी को उसके इस अनुचित व्यवहार का दण्ड देने के लिए जोर से गरज कर, उस पर कूद पड़ा। हिरनी झट से उठकर, एक लात मारकर निकल गयी। सिंहराज को बड़ी पीड़ा हुई । तब उसे यह ध्यान आया-अब मेरा आकार सिंह का नहीं, मानव का है। अब तक अपने को पशु ही समझता रहा ! कितनी गलत बात है।

और इस तरह सिंहराज को खाने के लिए कुछ भी नहीं मिला । इस आकार में जानवरों के शिकार करने की बात सोचना बुद्धिमानी नहीं है। यदि ऐसा चाहें तो भी शरीर के अवयव काम नहीं देते।

तब तक सूरज सिर पर चढ़ आया था। खूब चलने के कारण सिंहराज बहुत कमजोर पड़ गया। तिस पर भूख की पीड़ा ! पैरों में जते भी नहीं। आँखों के सामने अंधेरा छा गया। सिंहराज ने सोचा कि पहले बगीचे में पहुँचें, थोड़ी देर आराम करने के बाद, सूरज के ढलने पर गांव में जायें।

वह बगीचा सचमुच बड़ा था। तरह-तरह के पेड़ों की शाखाएँ फलभार से झकी हई थीं। बावड़ी में उतरकर सिंहराज ने हाथ-मुंह धोया। अंजुली भर पानी पीया तो जान में जान आ गयी । एक पेड़ के पास जाकर चार-पाँच फल तोड़कर खा लिये। भूख की पीड़ा कुछ कम हुई।

"कौन है वहाँ ?"

सिंहराज ने एक बार चारों तरफ देखा और चार और फल तोड़ लिये।

"अरे ! पुकाराने पर भी सुनाई नहीं दे रहा है ! कौन हो तुम?"

सिंहराज ने पल भर सोचा कि यह ध्वनि कहाँ से आयी । सिर उठाकर देखा तो हाथ में लम्बा लट्ठ लिये कोई आदमी खड़ा था । पहली बार उसने नजदीक से 'मानव' को देखा था। बड़ा खुश हुआ और कहा, "यह स्थान कितना सुहावना है।" वह और कुछ कहने जा रहा था कि उस मानव ने लम्बी गाली देते हुए कहा, "मुफ्त में सब कुछ मिल जाये तो सब सुहावना ही है।...बताओ कौन हो तुम? नहीं तो सिर फोड़ दूंगा।"

सच बोलने में सिंहराज को संकोच हुआ। कुछ तो जवाब देना चाहिए। इसलिए उसने कहा, "मैं दूर देश से आ रहा हूँ । यहाँ तक आते-आते धूप काफी तेज हो गयी । एक तो धूप में चल नहीं सका और फिर पेट में भूख की पीड़ा। बीच मार्ग में आपने यह बगीचा लगवाकर बड़ा अच्छा काम किया।"

"तुम जैसे लोगों के लिए..."

"हाँ, मेरा भी यही खयाल है। भर पेट पानी पी लिया, फल खा लिये, इतने में आप आ गये । भगवान आपका भला करे।"

बात खत्म होने से पहले ही सिंहराज के गाल पर ऐसा तमाचा पड़ा कि वह चकराकर नीचे गिर पड़ा । सिंहराज विस्मित रह गया । अपना अपराध न जान पाने से इधर-उधर देखने लगा।

"अरे भड़वे ! निकल भाग यहाँ से, नहीं तो टुकड़े-टुकड़े कर डालूंगा... बाप की जागीर समझ बैठ क्या ? हजारों रुपये खर्च कर यह बगीचा खरीदा। तम जैसे लोगों को खिलाने के लिए नहीं...।"

सुनते ही सिंहराज भौंचक्का-सा रहा गया। उसके मुंह से बात नहीं निकली। उसके मन में कई सन्देह उठने लगे और समाधान के लिए उसे विह्वल करने लगे।

खाने के लिए नहीं तो इस बगीचे के फल किस दिन के लिए ? बेकार फेंक देने के लिए हैं तो फिर इतनी मेहनत क्यों ? बिना मेहनत के इतना अच्छा बगीचा नहीं बनता और इतने फल नहीं लगते । किसी को तो ये फल खाने ही हैं और अभी यदि मुझे खूब भूख लगी है तो इन फलों को खाने में मेरा दोष ही क्या है ! अभी तो मुझे इन फलों की आवश्यकता है । अब यदि मैं नहीं खा सकूँगा तो इन पर और किसका अधिकार होने वाला है ? आदि-आदि सन्देह और समाधान ।

अपने सन्देहों को प्रकट करने पर वह मानव शान्त नहीं हुआ। बल्कि और भी आग-बबूला हो गया।

ऐसा है...तो शाम तक मेरे यहाँ पानी भरना होगा। एक यही तुम्हारे लिए सजा है।"

बेचारा सिंहराज शाम तक बावड़ी से पानी भरता रहा और पेड़ों को सींचता रहा । आदत न होने से हथेलियों में फफोले आ गये। सिर चकराने लगा। पानी ऊपर खींचने का अभ्यास न होने से एक दो-बार रुक गया तो उस मानव ने खूब गालियाँ सुनायीं और एक बार तो मार-पीट पर तुल गया।

शाम हो गयी और वह मानव चला गया । सिंहराज बगीचे से बाहर आया आगे नहीं चल सका और वहीं एक पेड़ के नीचे लेटा-लेटा सो गया।

उसकी नींद खुलने तक वाँदनी फैल गयी थी और ठण्डी हवा चल रही थी। मन स्वस्थ हुआ। लेकिन शरीर का अंग-अंग दुख रहा था। फिर भी उत्साह को ही आलम्बन बनाकर वह आगे बढ़ा। गाँव को देखकर उसके आनन्द की सीमा न रही। बहुत दिनों के उसके सपने आज सच बनने जा रहे थे । वह आज मानवसमाज में पैर रखने जा रहा है। वह सहृदयता से उन्हें समझ लेगा। और अपने इन अनुभवों को अपने राज्य में कार्यान्वित करेगा।

लेकिन उसके सपनों के टूट जाने में बहुत देर न लगी। उसने बड़े प्रेम से चार-पाँच लोगों से बातचीत करने का प्रयास किया लेकिन वे लोग ऐसे भाग गये मानो कोई उनका पीछा कर रहा हो । सिंहराज को सन्देह हुआ कि इन लोगों ने मेरे प्रेम भरे शब्दों का उत्तर तक क्यों नहीं दिया। खैर, हो सकता है, मुझसे भी अधिक प्रेम भाव उड़ेलने वाले और कोई होंगे।

इससे बढ़कर आश्चर्य सिंहराज को तब हुआ जब रात गुजारने के लिए उसे कहीं जगह नहीं मिली। उस गाँव में मकानों की कमी नहीं थी। बड़े-बड़े महल जैसे कई मकान दिखाई पड़े। लगता है, उन मकानों में दो-तीन लोगों से ज्यादा रहने वाले नहीं हैं। कई लोगों से निवेदन किया, फिर भी रात गुजारने के लिए उसे जगह नहीं मिली। अन्त में किसी दयालु ने सलाह दी-मन्दिर में जाकर सो जा । सिंहराज ने उसकी सलाह के अनुसार किया। सिंहराज मन्दिर में गया । मन्दिर दीपों की रोशनी में जगमगा रहा था । पुजारी भगवान् की आरती उतार रहा था। दूर खड़े कुछ लोग भगवान् के दर्शन के लिए धक्कम-धुक्की कर रहे थे। कुछ लोग बड़े आराम से भनवान् के निकट खड़े थे। सिंहराज को आश्चार्य हआ कि ऐसा क्यों हो रहा है। उसने अपने पास खड़े व्यक्ति से पूछा।

उस व्यक्ति ने कहा, "अरे,, निरे जंगली के समान क्या पूछ रहे हो ?...

इतनी उमर हो रही है, तब भी तुमको मालूम नहीं कि चाण्डालों को मन्दिर में नहीं आना चाहिए ?"

सिंहराज ने पूछा-"चाण्डाल कौन होता है ?" उसे जो जवाब मिला, उससे उसका सिर चकरा गया। "तब ऐसे ही लोगों को भगवान् के निकट पहुंचना चाहिए। भगवान की कृपा का पात्र बनने की आवश्यकता भी उन्हीं को ज्यादा है। जिन्हें कोई आवश्यकता नहीं, जिनके पास सब कुछ है, उन्हें भगवान् के पास जाने का कोई मतलब नहीं।" सिंहराज की इन बातों को सुनकर कुछ लोगों ने घेर लिया और ऐसी नौबत आ गयी कि वह पिटते-पिटते बचा।

रात हो गयी तो मन्दिर निर्जन-सा हो गया । सारी रात वहाँ गुजारने की बात सोचकर सिंहराज के मन में भय पैदा हुआ, लेकिन बेचारा करता ही क्या। गाँव भर में उसे कहीं जगह नहीं मिली। रात के समय गाँव में घूमना उचित है या अनुचित, उसे किसी ने नहीं बताया। यह रात तो इस मन्दिर में गुजारनी ही पड़ेगी। वह एक कोने में फर्श पर लेट गया। दिन भर का थकामाँदा होने पर भी उसे नींद नहीं आयी। मन में तरह-तरह के विचार उठने लगे। आँखें मूंदकर वह वैसे ही लेटा रहा। एक-दो मिनट के बाद उसके पास ही कुछ आवाज हुई । सिहराज ने सिर उठाकर देखा, मन्दिर के दीये के पास बैठा एक आदमी कुछ हरकतें कर रह था। सिंहराज ने ध्यान से देखा । वह आदमी अपने पैरों पर बंधी पट्टियों को खोल रहा था। बैसाखी पास ही रख दी है। दायीं आँख से कुछ निकालकर हिफाजत से रख लिया है।

सिंहराज यह सब देख रहा था लेकिन उसकी समझ में कुछ भी नहीं आया। जानने की इच्छा हुई तो उसने सीधे उसी आदमी से पूछ लिया।

"आपको क्या मालूम नहीं साब ! जीविका का यही कुछ तो साधन है।" "अर्थात् ?" सिंहराज ने आश्चर्य से पूछा।

उस व्यक्ति ने सिंहराज को गौर से देखा । उसे लगा यह नेक आदमी है। उसके बाद उसने अपने व्यापार का रहस्य खोल दिया।

"बाबू जी, इतने नाटक नहीं करेंगे तो पेट नहीं भरता...तब भी पालन पोषण न कर सका और बाल-बच्चों को भगा दिया। ...यह सब दिखावा है। मेरे पैरों में न कोई बीमारी है न मैं आँख का अन्धा ही हूँ।"

"तो यूँ ही जाकर माँग लेना था। असल में मांगने की ही क्या जरूरत है ... मैंने रास्ते में हरे-भरे खेतों को देखा है। फल-फूलों से लदे बाग-बगीचों को देखा है। चारों तरफ इतना पुष्कल आहार है तब भी पेट भरने के लिए तुम्हें इतनी परेशानी क्यों ?"

"बाबू जी, आप भी विचित्र बातें कर रहे हैं। दौलतमन्द लोगों के पास सब कुछ है लेकिन वह हमें मिले कैसे ?"

"जाकर जरूरत की चीजों को ले लेना चाहिए।"

"हड्डी-पसली तोड़ देंगे साब। आप मजाक कर रहे हैं। आपको मालूम नहीं है क्या ?"

सिंहराज को लगा कि इसमें कुछ रहस्य है। मानव समाज के विधान और नियमों के बारे में अभी तक उसे पूरी जानकारी नहीं हुई। इसलिए वह चुप रहा । वह आदमी बोलने लगा :

"मेहनत-मजदूरी कर पेट भरने के लिए बहुत प्रयत्न किया। आखिर भीख माँगने की नौबत आ गयी। शरीर के सभी अवयव ठीक-ठाक हैं तो भीख कौन देगा? इसलिए तो यह सब नाटक रचना पड़ रहा है।"

तब सिंहराज की कुछ समझ में आया कि इस मानव-लोक में सत्य के लिए कोई स्थान नहीं है । इस वास्तविकता को जानकर उसका दिमाग चकराने लगा। उसी बेचैनी में पता नहीं, उसे कब नींद आ गयी।

4.

अभी सूर्योदय नहीं हुआ था। तब भी कई लोग भीगे कपड़ों में मन्दिर का चक्कर लगा रहे हैं। एक मोटा-सा आदमी सिर्फ लंगोट पहनकर, एक कोने में बैठा जोर-जोर से भजन गा रहा था । मन्दिर की घण्टिया रुक-रुक कर बज रही थीं।

सिंहराज की नींद खुली। लेकिन उससे उठा नहीं जा सका, अंग-अंग में पीड़ा थी। पिछले अनुभवों को याद कर पेट सुलग उठा ।...भूख...भूख अब पेट में कुछ न कुछ नहीं पड़ेगा तो बेहोशी आ जायेगी। जंगल में जब था तब उसे इस प्रकार कभी भूख की पीड़ा की अनुभूति नहीं हुई।

इतने में एक कोने में कुछ शोरगुल सुनाई पड़ा। पकड़ो ... पकड़ो, चोर... चोर की आवाजें आने लगीं। एक हट्टा-कट्टा आदमी उस धुंधलके में उसी ओर भागा-भागा आ रहा था। उसके हाथ में एक गठरी-सी थी। वह सिंहराज के पास पल-भर के लिए खड़ा रहा, इधर-उधर देखा और गठरी वहीं छोड़कर दीवार लांघकर भाग गया।

सिंहराज की कुछ समझ में नहीं आया कि यह सब क्या हो रहा है। इतने में लोग उसी ओर आने लगे । उसने सोचा शायद उस गठरी के लिए आ रहे हैं। उसने गठरी अपने हाथ में ली, बस लोगों ने उसे घेर लिया । गालियाँ और मारपीट की बौछार में सिंहराज बेहोश हो गया।

जब उसे होश आया तो उसने अपने आप को एक कमरे में पाया। वहाँ कुछ खास लिबास पहने लोग इधर-उधर घूम रहे थे। हाथ-पैर हिलाना चाहा तो उनमें लोहे की सांकलें थीं।

"अरे तुम किस गांव के हो?" कुर्सी पर बैठे हुए आदमी ने पूछा। सिंहराज को समझ में नहीं आया।

"अरे माँ के...। बुला रहा हूँ तो इधर-उधर क्या देखता है बे ! अरे फोर फाइव, जरा इसको जगाओ।"

यह सुनते ही एक काला-दुबला-सा आदमी लाठी घुमाते हए आया। और जोर से लाठी पेट में घुसेड़ दी। उस चोट से सिंहराज तड़प उठा।

"अरे साब पूछ रहे हैं तो जवाब क्यों नहीं देता। इडिएट...फल... बता किस गाँव का है ?"

"जंगल का"-सिंहराज ने कह दिया।

कुर्सी पर बैठा आदमी जोर से हँस उठा, और बोला, "अरे यह तो पुराना ...है। बातों से लाभ नहीं। जरा सबक सिखा दो।"

वहाँ खड़े लोगों ने उसकी खूब मरम्मत की । हड्डी-हड्डी टूट गयी । मुंह से और कानों से खून बहने लगा।

"अरे हरामजादे ! बता कहाँ का है ? यहाँ कब आया? क्यों आया? तेरा नाम क्या है ? इससे पहले कहाँ-कहाँ चोरियाँ की? वह सारा माल कहाँ छिपा रखा है ? बता।"

सिर पर लाठी को नाचते देखकर सिंहराज भय से विह्वल हो गया। बोलने की कोशिश की, लेकिन जबड़े, दाँत और होंठ हिला नहीं पा रहा था । एक लाठी और पड़ी तो दो, चार, दस, हजार के रूप में आँखों के सामने नाचने लगी। वह धड़ाम से जमीन पर गिर गया।

"अरे...साला, इतने पर भी सच-सच नहीं बोल रहा है ! इसे उस कमरे में डाल दे। बाद में देखेंगे।"

फोर-फाइव ने सिंहराज को खींचते हुए ले जाकर एक कमरे में डाल दिया और दरवाजा बन्द कर दिया।

सिंहराज ने आँखें खोलीं। चारों तरफ अंधेरा था, जमीन नम थी, संडांध-सी आ रही थी। धीरे से वह उठ बैठा । लगा, नसें टूट रही हैं। सारा शरीर लचलचा हो गया। उसे लगा, उसे एक छोटे से कमरे में रखा गया है । लोहे के सीखों का दरवाजा था। उस दरवाजे में से देखा । वही आदमी कुर्सी पर बैठा टेबुल पर कुछ लिख रहा है। बीच-बीच में वह कमरे की तरफ देख लेता है। लगा जैसे कि किसी को ढूंढ़ रहा हो।

सिंहराज को सबेरे की बातें याद आयीं। वह भय से थर-थर काँप उठा। झट से एक कोने में जाकर दूबककर बैठ गया। उसे बड़ा दुख हुआ। आराम से जंगल में, चैन की बंसी बजाने वाले ने यह मानवाकार क्यों प्राप्त किया ? क्यों ये सारी तकलीफें मोल लीं?

इतने में आवाज करते हुए दरवाजा खुला और फिर बन्द हो गया। सिंहराज ने पहचाना, वही कुर्सी पर का आदमी है । भीतर आया है।

"अरे, इधर आ।"

सिंहराज थर-थर काँपते हुए उसके सामने गया ।

"सच-सच बताओ। मैं तुम्हें छोड़ दूंगा। तुम्हारी हालत देखकर मेरा मन विकल हो गया है।...तुम दूसरे चोरों के समान नहीं हो...ठीक है। क्या बाहर जाना चाहते हो?"

"जी हाँ।" सिंहराज ने कहा।

"बहुत अच्छे, मैं तुम्हें छोड़ दूंगा। लेकिन मेरी बात मानोगे?"

"जी हाँ।" उस व्यक्ति ने क्षण-भर के लिए कुछ नहीं कहा।

"क्या करना होगा साहब ?" सिंहराज के स्वर में उतावलापन था। वह कुछ न कुछ कर वहाँ से छूट निकलना चाहता था।

"मैं तुम्हें जरूर छोड़ दूंगा...कोई डर नहीं, चारों तरफ हमारे ही लोग पहरे पर हैं। देखो'"तुम्हें उस मकान में छोड़ देंगे।...भीतर जाकर जवाहरात, पैसा जो भी हाथ लगे, ले आना है।...तुम्हें भी कुछ मिल जायेगा। और तुम्हें छोड़ भी देंगे।"

सिंहराज स्तम्भित रह गया। यह कैसी बात है ! न किये हुए कसूर के लिए सजा पा रहा है। इससे बचने के लिए जानबूझ कर सचमुच एक कसूर करना पड़ेगा । ऐसा न करने पर उसे मुक्ति नहीं मिलेगी ?...फिर भी...वह यह काम नहीं कर सकेगा । उसने वही बात कह दी।

"तुम्हारी किस्मत, मैं कुछ नहीं कर सकता...खैर, एक और काम कर सकोगे ?"

सिंहराज चुप रहा।

"अपने लोगों को खबर करके थोड़ा-बहुत मॅगा दो। जैसे ही रकम मिल जायेगी, तुम्हें छोड़ देंगे। बता दो, हम ही खबर कर देंगे।"

"वहाँ आप लोग नहीं जा सकते । अगर जायेंगे तो जीते-जी वापस नहीं आ सकेंगे। सचमुच मुझे चोरी के बारे में कुछ भी नहीं मालूम । चाहे तो छोड़ दीजिए नहीं तो...।"

"तुम्हारा क्या नाम है ?"

"अब तक कई बार बता चुका है बाबू जी कि मेरा नाम सिंहराज है।"

"हूँ...तुम्हारा निवास जंगल है ना।"

“जी हाँ।" "पागल है।" लम्बी साँस छोड़कर वह आदमी वहाँ से चला गया।

सिंहराज उसी ओर आश्चर्य से देखता रह गया।

"भाई !"

सिंहराज चौंक उठा।

“मैं बाजू के कमरे से बोल रहा हूँ। तुम्हें दिखाई नहीं पडूंगा ।...अच्छा नाटक रचा ! बड़े नम्बरी हो।...खैर बताओ कितना मिला...वे लोग तो चले गये। यहाँ कोई नहीं है । मुझे तो सच-सच बताओ।"

"मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा । मिलना क्या ?"

उस ओर से जोर से हँसने की आवाज आयी। “मुझसे भी झूठ...मैं तो खूनी हूँ।"

"खूनी...क्या मतलब...?"

बाजू के कमरे के कैदी को लगा कि यह सचमुच पागल है। उसने समय काटने के लिए बात बढ़ायी।

"खून का मतलब, जिन्दा लोगों को मार डालना।"

"मार डालना ? क्यों ? मार कर उन्हें खा जाते हैं क्या ?"

"अरे तेरी...सचमुच नम्बरी हो।"

थोड़ी देर खामोश रहने के बाद उस कैदी ने फिर कहना शुरू किया-
मारकर खाते तो नहीं हैं लेकिन उतना काम करते हैं।"

"असल में आपको खून क्यों करना पड़ा।"

उस कैदी ने जोर से थूक दिया। और कहा, “इस स्त्री जाति से ही मुझे बड़ी घिन्न है। अपनी घरवाली से तो और ज्यादा नफरत है। फिर भी ऐसे ही काम चलता आ रहा था।"

सिंहराज कुछ कहना चाहकर भी चुप रह गया।

"एक दिन मैंने उसे कमरे में बुलाया। उसने इनकार कर दिया कि सर में दर्द है। मैंने मनाने की बहुत कोशिश की। उसने नहीं माना तो मैं गुस्से में आ गया। बाजू में चाकू रखा हुआ था। जोर से फेंक दिया। उसका गला कट गया। मैं सुन्नसा खड़ा रह गया। इतने में पुलिस आयी और उन्होंने मुझे गिरफ्तार कर लिया।" कहते-कहते उसका गला रूंध गया।

सिंहराज व्याकुल हो उठा। उसने कभी नहीं सोचा कि मानव इतने नीच हो । सकते हैं। दाम्पत्य धर्म परस्पर सहयोग से सम्पन्न होता है। बलात्कार तो हमारी जाति में नहीं है। जीवन के इस प्राथमिक सूत्र से अनभिज्ञ लोग हमसे कैसे बड़े हैं ?

"फिर भी कोई चिन्ता नहीं भाई । मैं तो पैसे वाला हूँ। पैसे खर्च करके साफ बच जाऊँगा। लेकिन तुम्हारा कैसे...?"

"तब...क्या तुम्हें दण्ड नहीं मिलेगा? सजा नहीं होगी?"

"मुझे ? सजा...वह कैसे ?...सबको पटा लिया है। चार बड़े-बड़े वकीलों को लगाया है।"

"फिर भी...?"

"मुझे निर्दोष बताने वाले पचास गवाह तैयार हैं । हर-एक को पाँच-सौ रुपये दे रहा हूँ। बाकी सब खर्च भी हमारा ही।"

"तो ये पैसे लेकर वे कहेंगे कि तुमने कसूर नहीं किया है ?"

"बिलकुल ठीक । फिर चारों वकील उनकी गवाही के आधार पर मुझे रिहा करा देंगे।"

"तब तुम्हारी पत्नी की मौत का कारण...?"

"उसका तो इन्तजाम हो गया...चार साल से पेट में दर्द है। दर्द को सह न सकी सो उसने आत्म-हत्या कर ली। दस डॉक्टरों ने उसके लिए सर्टीफिकेट दिया है।"

"बेचारी सचमुच बीमार थी क्या ?"

दूसरा कैदी जोर से हंस पड़ा और बोला, "तुम तो सचमुच पागल हो.. बीमारी कहाँ की? यह सब हमारा नाटक है । सौ-सौ रुपये लेकर डॉक्टरों ने सर्टीफिकेट दिया है। वकीलों ने ही यह उपाय बताया।''जज साहब भी हमारे पिताजी के पुराने मित्र हैं। कल ही मेरे पिताजी ने उनसे बात की है। जज ने आश्वासन दिया कि केस को चार बार मुलतबी कर के खारिज कर देंगे...।"

कैदी और कुछ कहता जा रहा था। सिंहराज आगे कुछ सुन नहीं पाया। लगा, सिर फट जायेगा। सिर पकड़कर बैठ गया।

5.

सिंहराज जेल से छूट गया लेकिन जेल से छूटने का आनन्द लेश मात्र भी नहीं रहा । जेल में रहते समय कई प्रकार के व्यक्तियों से उसका परिचय हुआ। महाखूनी, डाक, चोर, पियक्कड़, लुच्चे, लफंगे, जुआखोर, राजनीतिक नेता, देश-भक्त, विप्लवकारी, बेकसूर, नादान, सज्जन आदि-आदि कई प्रकार के लोगों से उसका निकट का परिचय हुआ। उनकी आत्म-कथाओं को सुनकर सिंहराज बिलख-बिलख कर रो उठा। उसकी समझ में नहीं आया कि मानव इतनी अधोगति में क्यों है और कैसे है। इतने अन्याय, अधर्म और अत्याचार को कैसे सहन कर रहा है !

जेल से छूटने के बाद कुछ समय के लिए सिंहराज का दिमाग खाली बना रहा। कहाँ जाना चाहिए और क्या करना चाहिए, उसकी समझ में नहीं आया । अब सबसे बड़ी समस्या भूख की है। जेल में रहते समय जो भी कूड़ाकरकट मिलता था, उससे पेट भर लेता था। लेकिन अब स्वयं पेट भरने का उपाय करना चाहिए । आहार को कहाँ ढूंढ़े ?

बदकिस्मती से उस समय देश में अकाल पड़ा था। अकाल की दुर्भर परिस्थितियों को एवं हाहाकारों को देख-सुनकर, सिंहराज की हालत पागल-सी हो गयी। उसे इतना क्रोध आया कि समस्त मानव-लोक को ही भस्म कर दे। इस आवेश के कारण वह ज्वर पीड़ित-सा थर-थर काँप उठा। उसी हालत में उसने सारे देश का भ्रमण किया । इस भ्रमण में उसे कई बातों का पता चला। इस साल पिछले वर्षों की अपेक्षा देश में फसल की पैदावार काफी अधिक हुई। यह अकाल जिसके कारण देश की बुरी हालत हो गयी है, अनाज के अभाव के कारण नहीं। कुछ स्वार्थी और धनपिपासु लोगों ने सारा अनाज खरीदकर अपने गोदामों में भर लिया और अनाज का भाव इतना बढ़ा दिया कि साधारण मानव उसे खरीद नहीं सकता। ऐसे संकट के समय सरकार को जनता की सहायता करनी चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से सरकार भी ऐसे चोर-डाकुओं के हाथ में है जो जनता का खून चूसने के आदी रहे हैं।

एक ओर जनता अनाज के अभाव में भूखों मर रही थी तो दूसरी ओर गोदामों में अनाज सड़ रहा था। चोर-बाजारी पर किसी की रोक नहीं। व्यापारी खुले हाथों लूटमार कर रहे थे। न कोई पूछने वाला और पूछने पर न कोई जवाब देने वाला था।

अचानक देश भर में युद्ध की विभीषिका की चेतावनी के कारण हलचल मच गयी। युद्ध की तैयारियों की गड़गड़ाहट से सारा देश गूंज उठा। "आक्रमण कारियों का सामना कीजिए। अपने देश को बचाइए" आदि नारे सब जगह सुनाई पड़ रहे थे । सर्वत्र यही सब दिखाई दे रहा था।

सिंहराज ने एक आदमी से पूछा, "आखिर यह युद्ध क्यों, कौन, किससे युद्ध कर रहा है !"

उस आदमी ने इधर-उधर देखकर डरते-डरते जवाब दिया, “यह खानों और कच्चे माल के मार्केट के लिए...।"

सिंहराज की समझ में नहीं आया कि वह यह बात कहने के लिए क्यों डर रहा है । उसे निकट आड़ में बुलाकर, बात को विस्तार से समझाने का निवेदन किया।

"महाशय, आप तो नये ढंग से पूछ रहे हैं! थोड़ा भी सोचेंगे तो बात किसी की भी समझ में आ जायेगी...आप कहीं सरकारी आदमी तो नहीं हैं न!"

"नहीं तो।"

उस आदमी ने एक लम्बी साँस छोड़कर यूं कहना शुरू किया, "वैसे इस हलचल का कोई वास्तविक कारण नहीं है। हमारे देश में, सम्भवतः आप भी . इसी देश के हैं, उद्योग-धन्धों का काफी विस्तार हुआ है । देश भर में कई कारखाने खोले गये हैं । नाम के वास्ते कई उद्योगपति हैं । किन्तु सारा व्यापार पाँचछ: लोगों की मुट्ठी में है। उन्हें कच्चा माल सस्ते-से-सस्ते दाम में मिला, और सस्ते दामों में मजदूर भी मिले। इसके कारण जरूरत से ज्यादा उत्पादन हो गया। लेकिन देशी लोगों के पास खरीदने के लिए पैसा नहीं है, क्योंकि उनकी आमदनी में ज्यादा हिस्सा सरकार ही कर के रूप में वसूल कर लेती है। इसलिए उत्पाद्य वस्तुओं का निर्यात होना चाहिए । इन वस्तुओं को खरीदने वाले देश चाहिए।

"तो इस छोटी बात के लिए युद्ध की क्या जरूरत है ?" सिंहराज ने पूछा।

"हाँ, बता रहा हूँ। धीरज धरिए । सारे संसार में यह काम चार-पाँच बड़े-बड़े देश ही कर रहे हैं। उन्हें सस्ते दामों में कच्चा माल चाहिए और उत्पाद्य वस्तुओं के लिए मार्केट । इसीलिए वे आपस में युद्ध करते रहते हैं।... अर्थात यह युद्ध करोड़पति व्यापारियों के बीच में हो रहा है।"

"तो करोड़पति आपस में लड़ मरें, सामान्य जनता में यह हलचल क्यों ?" सिंहराज ने कहा।

वह व्यक्ति क्षण भर के लिए हंस पड़ा । बोला, "आप तो बिल्कुल भोलेभाले लग रहे हैं ! यन्त्र के जन्म लेते ही नब्बे प्रतिशत लोगों का काम यन्त्र करता है । अर्थात् नब्बे प्रतिशत लोग बेकार हो गये । ये बेकार लोग कुछ-नकुछ आन्दोलन करते रहते हैं। पूंजीपतियों द्वारा संचालित सरकारें उनमें से कुछ लोगों को सेना में भर्ती कर लेती है और शान्ति और सुरक्षा के नाम पर सरकार का विरोध करने वालों का दमन करती हैं। इस काम के लिए अपार सुरक्षा-बल चाहिए । भयंकर हथियार चाहिए । हथियारों के उत्पादन के लिए कारखाने बनेंगे। फिर वही लोगों की बात । मुनाफा तो पूंजीपतियों के हाथ, सेना में भर्ती होकर प्राणों की आहुति देना सामान्य जनता के हाथ, यह विषचक्र यहीं नहीं, सभी देशों में है। सामान्य जनता युद्ध की ज्वाला में राख बनती जा रही है। उधर करोड़पति दिन-ब-दिन और धनवान बनते जा रहे हैं।"

सिंहराज चकित और अवाक् रह गया।

उस व्यक्ति ने कहा, "शायद आपको मेरी बातों पर विश्वास नहीं हो रहा है।"

"ऐसी बात तो नहीं...बात तो बिलकुल सच है।...अगर लोग सेना में भर्ती न हों तो?"

“यह तो संभव नहीं है। सामान्य जनता रोटी और कपड़े के लिए तरस रही है। अगर वे सेना में भर्ती हो जाते हैं तो उन्हें इन दो चीजों की कमी नहीं रहती है। और फिर कुछ देश तो सेना में भर्ती होने को अनिवार्य बना देते हैं। वे कहते हैं, ऐसा करना, देश की सुरक्षा के लिए आवश्यक है। जो इसका विरोध करते हैं, उन्हें देशद्रोही और विप्लवकारी कहकर खूब सताया भी जाता है। प्रचार के सभी साधन, नियम-विधान, न्यायालय-सभी सरकार के हाथ में होते हैं। ऐसी हालत में तुम या मैं क्या कर सकेंगे?"

सिंहराज का सारा शरीर आग-बबूला हो गया। उसके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला।

वह आदमी कहता जा रहा था-"देश कौन-सा है, युद्ध किन दो देशों के बीच में ओर क्यों हो रहा है, किसी भी सैनिक को मालूम नहीं। एक-दूसरे को मार रहे हैं, खुद राख बन रहे हैं और अपने ही साथी को राख बना दे रहे हैं । इस महा-विनाश से, इस मारण काण्ड से करोड़पति सोना बटोर ले रहे हैं।"

सिंहराज होंठ काटने लगा, उसकी मुट्ठियां कसने लगी और आँखों से अंगारे निकलने लगे।

दोनों के बीच में खामोशी छा गयी। दोनों ने एक-दूसरे की आँखों में झाँका । दोनों ने सिर झुका लिये।

6.

युद्ध की विभीषिका और सिर पर आ गयी। शत्रु सरहदों को पार कर भीतर आ गये । जनता झुण्ड बाँधकर नगर छोड़कर भागने लगी। नगर के नगर, गाँव-के-गाँव शत्रुओं की बम वर्षा के कारण अग्नि की आहुति बनते जा रहे थे। आकाश में युद्ध-विमान और नीचे भयानक टैंक दोनों एक साथ सारे देश को मटियामेट कर रहे थे।

इस भयानक मारणकाण्ड को सिंहराज नहीं देख सका।

वह नर-लोक के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त करने की उत्कण्ठा से इस लोक में आया था। उसने सोचा था, अति अद्भुत रूप से प्रगति करने वाले मानव से कुछ सीखेंगे और सीखकर उसे अपने यहाँ अमल में लायेंगे। लेकिन उसके सारे उत्साह पर पानी फिर गया-मानव जाति से सीखने के लिए कुछ भी नहीं है । उन्हीं को हम अरण्यवासियों से बहुत कुछ सीखना है । हमारे स्तर तक मनुष्य पहुंचे, तब देखा जायेगा । वह मानव-निर्मित स्वर्ग को देखने चला था, एक महानगर को देखते ही उबकाई आ गयी। वह अपने निवास की ओर लौट पड़ा।

सिंहराज को देखकर सभी जानवरों ने हर्ष प्रकट किया। अपूर्व रूप से सिंहराज का स्वागत किया गया। इतने दिन नरलोक में भ्रमण कर आने वाले अपने प्रभु के मुख से उनके अनुभवों को सुनने की इच्छा प्रकट की।

शाम को बड़ी सभा का आयोजन किया गया । अरण्य राज्य में रहने वाले सभी प्रकार के पशु-पक्षी उपस्थित हुए। सिंहराज ने अपने अनुभवों के बारे में विस्तार से बताया : “आज के मानव मानव नहीं हैं, कथाओं में वर्णित राक्षस हैं। उनके लिए न कोई नीति है, न कोई नियम । न दया है न धर्म-अधर्म का विवेक, न न्याय की चिन्ता है न अन्याय की । वहाँ केवल धन-पिपासा, विलासप्रियता, परस्पर प्रवंचन, षडयन्त्र, हत्याएँ, युद्ध, अकाल, रोग, जातिवाद, बन्धुवाद और कुर्सी के पीछे दौड़ने...।

"हम जिन कार्यों को करने का साहस तक नहीं करते, ऐसे कई दुष्ट कार्य मानव निस्संकोच भाव से कर डालते हैं। हम लोग भूख न लगे तो आहार प्राप्त करने के लिए प्रयास नहीं करते, लेकिन मानव दस वर्ष के लिए आहार सामग्री होने पर भी ग्यारहवें वर्ष के लिए प्रयास करता है। दूसरे सहयोगी की इच्छा के बगैर हम लोग रतिक्रीड़ा में भाग नहीं लेते। लेकिन मानव बिलकुल इसके विपरीत कार्य करते हैं । हम साथी प्राणी को अपने आहार में से हिस्सा देते हैं। हम सिर पर आफत आने पर ही क्रूर बनते हैं । लेकिन मानव तो सदा-तर्वदा क्रूर और हिंसक ही बना रहता है। वह हमेशा दूसरों को मार कर अपना पेट और खजाना भरना चाहता है । मानव से सीखने के लिए मुझे वहाँ कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा। हाँ, एक बात है-अपना विनाश कैसे किया जाय, यह मानव खूब जानता है । बस, सीखना हो तो यही उससे सीखा जा सकता है।"

सिंहराज ने अपना भाषण समाप्त किया। सभी जानवर हक्के-बक्के रह गये।

"तुम्हारा भाषण सुन लिया है।" नारद ने क्रोध से कहा।

सिंहराज ने कोई जवाब नहीं दिया।

"तुम मानव के दोष गिना रहे हो...क्या वे दोष तुम में नहीं हैं ?"

"हो सकता है । उससे क्या हुआ? अगर ये ही दोष मानव में हैं तो वह हमसे बड़ा कैसे हुआ ? अगर हम दोनों समान हैं तो आपने उसे जो बड़प्पन दिया उसे वापस लेना होगा।...खैर, मानव से मेरी तुलना क्या ? उसमें जो हजारों, लाखों दुष्ट बुद्धियाँ हैं, वे हममें नहीं हैं । मेरी तुलना मानव से करके मेरा अपमान मत कीजिए।"

नारद जी आग-बबूला हो गये, "जो मुंह में आया वह बोल दिया "मानवों को ऊपर उठाया और पशुओं को निम्न स्तर का बताया।"

"महाशय, मानवों के प्रति आपके मन में प्रेम है, उसी के कारण आप इस तरह बोल रहे हैं। यह नहीं कि आप सत्य और असत्य से अपरिचित हैं।...सिंह दूसरे सिंह को, कुत्ता दूसरे कुत्ते को, हाथी दूसरे हाथी को, भैसा दूसरे भैसे को मार कर नहीं खाता लेकिन मानव सहमानव को आराम से निगल जाता है। यह बहुत बड़ा भेद हम दो जातियों में है । फिर मानव की हमसे तुलना कैसे ? असम्भव है ?" कहा सिंहराज ने ।

लेकिन जवाब देने के लिए वहाँ नारदजी नहीं थे।

(अनुवाद : 'निर्मल')