नारंगी (उड़िया कहानी) : प्रतिभा राय

Narangi (Oriya Story) : Pratibha Ray

नारंगी उसका नाम है। किन्तु वह है रंगहीन। ।

हालाँकि कभी रंग था; जिस ऋतु में पौधों में फूल खिलते हैं।

लेकिन आज नारंगी के जीवन में सिर्फ एक ऋतु है, जिसका नाम है ग्रीष्म। पत्तेरहित निदाघ के अभाव, आवश्यकता, दुःख, गरीबी, यातना की तपिश से असमय ही अपने शरीर और मन की हरियाली खोकर वह चुक गयी है। लेकिन कुछ वर्षों पहले शहर की तलहटी वाली गन्दी बस्ती में वह मौसमी हवा थी, और थी वसन्त के सुरभित मलय का झोंका। किन्तु कुछ ही वर्षों के अभावग्रस्त दु:खदायी घर-गृहस्थी के कारण वह सूखी झाड़ियों-सी शुष्क हो गयी और गर्म आँधी-सा रुख अख्तियार कर चुकी थी।

वाकई नारंगी कभी खूबसूरत थी, इस बात पर आज वह कैसे विश्वास करे। चिकने जूड़े में चम्पा-फूल खोंसकर कभी वह इसी रास्ते से काम पर जाया करती थी अपनी माँ के साथ, उसकी आँखों में असंख्य सपनों की नीलिमा भरी होती थी। आज वह फुर-फुर रूखे बाल, विवर्ण चेहरा लिये मेरे घर काम करने आती है, अपने चार बच्चों के मुँह में कौर डालने के लिए, शराबी, लम्पट, क्रूर, निठल्ले पति का हाथ पकड़ने का प्रायश्चित्त करने।

मशीन की तरह वह काम करती है, बातें करती रहती है। बातें तो नहीं, बुरी बातें ही कहती अपने क्रूर, पाखण्डी पति के लिए। हर रोज नारंगी के विवर्ण शरीर और चेहरे पर पाखण्डी पति की निष्ठुर यातना के नये-नये निशान, सुबह के नित्यकर्म की तरह, रात्रि के विश्राम की तरह, नारंगी का पति नियमित रूप से नारंगी की पीठ पर अपने हाथ की खुजली मिटाता, पति होने का नगाड़ा बजाता। उतना, जितना कि कोई निकम्मा पुरुष कर सकता है।

मेरे घर काम करने आते ही अपनी पीठ और बदन खोलकर वह पति की निर्ममता का पिछली रात का उपहार दिखलाती। मेरी आँखों में करुणा के आँसू भर आते, जबकि नारंगी की आँखों में बिजली की लपलपाती ज्वलन्त अग्निशिखा। उसके होठों में अपने पति के लिए दुनिया-भर की बददुआएँ होती थीं। अकथनीय, असहनीय, बुरी-से-बुरी गालियाँ और बददुआएँ। मुझे ऐसा लगता कि नारंगी के पाखण्डी पति शंकरा की यातनाएँ कितनी ही बर्बरतापूर्ण क्यों न हों, नारंगी की अकथनीय गालियाँ, असहनीय बददुआएँ उससे बढ़कर थीं। दुनिया की किसी भी पत्नी के मुँह से किसी भी पति के लिए ऐसी बददुआएँ शायद सम्भव नहीं, सिर्फ नारंगी को छोड़कर। नारंगी अपने बदन के घावों को सहलाते हुए उसे बददुआएँ देती, "हरामी, भरी जवानी में रास्ते में गिरकर मर जाए, उसके सिर पर बिजली गिर पड़े, उसे साँप डंस ले। किसी बड़ी बीमारी से हाथ-पैर गल जाएँ। मेरे ही सहारे पड़ा रहे कोढ़िया। उसके मुँह में कीड़े पड़ें। आँखें फूटकर बाहर लटकने लगें, घर-भर छुछुआता फिरे। हरामी खून की उल्टी से मरे। जल्लाद पर ट्रक, गाड़ी चढ़ जाए, कलेजा कुचल जाए, अंतड़ियाँ निकल आएँ, अनजान बीमारी पकड़े, गन्धाती लाश-सा पड़ा रहे..."

मैं कानों में हाथ लगा लेती। शंकरा के प्रति अपनी तमाम घृणा और विद्वेष के बावजूद नारंगी के मुँह से निकली बददुआएँ मुझे सहन नहीं होती थीं। नारंगी के प्रति दिल के दर्द के ज्वार में भाटा पड़ने लगता। कभीकभी मुझे लगता कि मुँहफट पत्नी की असहनीय, अकथनीय गाली-गलौज की वजह से ही शंकरा पत्नी के प्रति इतना निष्ठुर और निर्मम हो गया है। लेकिन मेरी यह धारणा गलत थी। शंकरा जैसे अनेक हृदयहीन पुरुषों के लिए पलियाँ महज बच्चे पैदा करने वाली, पैसे कमाने वाली, सुख-सुविधा देने वाली मशीन हैं। मारने से दर्द नहीं होता, भूखे-उपासे दिन-रात खटने से उनकी जान नहीं जाएगी, बीमार हों तो उन्हें इलाज की जरूरत नहीं; एकएक करके बच्चे पैदा करने से वे थकतीं नहीं; ऊबतीं नहीं! शंकरा की बस्ती की अधिकतर नारंगियाँ नींद से उठते ही काम पर जाती हैं। तुरई के फूल की तरह एक ही रात में उनके कुँवारे जीवन का सुखी सपना टूटकर बिखर जाता है।

कभी-कभी नारंगी के बदन पर शंकरा की मार के निशान देखकर मैं सिहर उठती। मुझे लगता कि इसी तरह शंकरा के हाथ की मार खाते हुए एक दिन नारंगी की जान चली जाएगी। मैं संवेदना भरे स्वर में कहती, "क्या फायदा है ऐसे दुष्ट आदमी के साथ रहने में। उसे छोड़ क्यों नहीं देती? कौन-सा वह तुझे पालता है। बल्कि तेरे पैसों से ही मौज उड़ा रहा है, बच्चों का हक छीनता है। तू तो कमाती है, खाती है। फिर ऊपर से इतनी मार क्यों खाती है?"

नारंगी काम करते हुए कहती, "क्या साहब ने कभी गुस्से में आपको भला-बुरा नहीं कहा होगा मालकिन? आप लोगों का अपशब्द और हमारी मार दोनों एक जैसे हैं। हमारी बस्ती में किस औरत ने मार नहीं खायी होगी? फर्क सिर्फ इतना ही है कि कोई आठ दिन, पन्द्रह दिन में पत्नी की गलती देखकर उसे पीटता है, मेरा मर्द तो अपनी हाथ की खुजली मेरी ही पीठ पर मिटाता है। कोई बात हो, ना हो।"

"तो उसे छोड़ दे।" मैं कहती।

"यदि साहब ऐसा करें तो क्या आप उन्हें छोड़ देंगी मालकिन?" नारंगी ने सवाल किया।

मैंने अप्रतिभ हो कहा, "यह तब देखी जाएगी। हालाँकि यदि मैं साहब को छोड़ दूं तो मुझे और कोई दूल्हा नहीं मिलेगा। हम पढ़े-लिखे लोगों में यही तो दिक्कत है। पर तुझे दूल्हों की कमी नहीं होगी। तुम लोग तो दसदस के पास जा सकती हो। किसी अच्छे आदमी को देखकर उसके साथ रहने में हर्ज ही क्या है?"

नारंगी मुँह ऐंठकर कहती, "सभी जगह एक ही बात है। आज जो आशिक बने दिलोजान छिड़कते हैं, स्वर्ग से चाँद ले आने का वादा करते हैं, कल हाथ पकड़कर अपने घर ले जाने के बाद शंकरा हो जाते हैं। कौन कह सकता है कि वे लोग शंकरा से भी अधिक अमानवीय नहीं होंगे? बारबार कीचड़ में पैर डालने की क्या जरूरत है मालकिन? इसीलिए जान-बूझकर एक ही आदमी की मार और गाली-गलौज सहती हूँ, अब उससे नाराजगी या अभिमान कैसा? अब तो उससे प्यार और सुख पाने की आस तक भी दिल में नहीं रही। इसलिए मार खाने से बदन में चोट लगती जरूर है पर अब दिल नहीं दुखता। दूसरे पुरुष से फिर प्यार और सुख की आस लगाने के बाद हताशा हाथ लगे तो दिल दुखेगा, मन रोए-बिलखेगा, जिन्दगी बेजानसी लगेगी, जैसा कि शुरू-शुरू में शंकरा से मार-गाली खाने पर लगा करता था। घर बदल देने से, पति बदल देने से औरत का नसीब तो नहीं न बदल जाता मालकिन..."

मैं कुछ न कह सकी। शायद नारंगी का कहना सही है। चार-चार बच्चों को साथ लेकर नया घर बसाने पर उसे सुख नहीं मिलेगा। बल्कि फिर दुःख मिलेगा।

कभी-कभी नारंगी काम पर नहीं आती। मेरा काम ठप्प पड़ जाता। दूसरे दिन आते ही मैं उस पर बरस पड़ती। नारंगी नरम गले से कहती, "क्या करूँ मालकिन! वह हरामखोर कल रात घर नहीं लौटा। माँ-बच्चे रात-भर जागते रहे। सुबह-सुबह बड़े लड़के को साथ लेकर जगह-जगह ढूँढ़ती फिरी, शराब के ठेके के पास एक पेड़ के नीचे बेहोश पड़ा था। ट्रॉली रिक्शा में डालकर घर तक लायी। उसे होश में लायी। जिस रोज भी काम पर जाएगा, उधर होटल में खाना खाकर, माल चढ़ाकर, शराब पीकर रास्ते में ही कहीं लुढ़क जाएगा। एक बार भी नहीं सोचेगा कि घर पर चारों बच्चों ने खाया या नहीं। मेरी बात तो छोड़िए।"

मैं खीझकर कहती, "घर नहीं लौटा तो न सही। तू क्यों गयी थी ढूँढने। क्या तेरी पीठ खुजला रही थी? चाहे रोज भात खाने को न मिले, लेकिन मार रोज खाना शायद तेरे लिए आवश्यक हो गया है।"

उदासी भरी मुस्कान छोड़ते हुए उसने कहा, "उसे न धर्म-कर्म की परवाह सही, मुझे तो है। धर्म को साक्षी रखकर मैंने उसका हाथ थामा था। उसके मरे-मुँह में बूंद-भर गंगाजल डालूँगी तो नरक नहीं जाना पड़ेगा। मुझे तो बस इसी बात की चिन्ता है कि किसी दिन पिये हुए किसी कुलक्षणी 'छम्मक छल्लो' के चबूतरे के नीचे कहीं मरा न पड़ा हो। चार-चार बच्चों का बाप है। पर मरते समय मुँह में एक बूंद पानी डालने वाला कोई वहाँ नहीं होगा। बासी मुरदा बनेगा। मुनसीपालटी की मुरदा वाली गाड़ी में उठाकर ले जाएँगे। मुझे पता भी नहीं चलेगा। सूखी मछली और भात खाती रहूँगी, काँच की चूड़ियाँ पहनती रहूँगी..." नारंगी के रोज रूखे चेहरे पर करुणा उभर आती। उसकी रोज की जलती हुई आँखों में बारिश के गुप्त छींटे पड़ जाते।

मुझसे नजरें चुराकर काम के बहाने वह चली जाती।

कभी-कभी मुझे लगता कि परिस्थितियों ने ही नारंगी को मुँहफट, रुक्ष और नीरस बनाया है वरना वह कोमलहृदया, स्नेहमयी नारी ही तो है।

नारंगी एक जून हमारे घर खाना खाती, काम खत्म करके दोपहर बारहएक बजे अपने घर लौटते समय। यही उसके दिन-भर का खाना समझ लो। सुबह हमारे ही घर चाय पीती है। शाम का काम खत्म करके जब वह वापस आती है तब घर पर जो कुछ होता है, पति और बच्चों को परोसने के बाद वह खुद गिलास-भर पानी या थोड़ी-सी लाल चाय पीकर सो जाती है। उसकी रात की खुराक शराब के नशे में धुत् हो लौटे पति की मार और यातनाएँ होती हैं। अक्सर नारंगी अपने हिस्से के भात में से बचाकर अपने पल्लू में बाँधकर घर ले जाया करती, जिन दिनों घर पर खाने को कुछ नहीं होता। पूछने पर कहती, "पेट मरोड़ रहा है। बदहजमी हो गयी है।" व्रत-उपवास में उसके बच्चों के हिस्से का पकवान अलग से देने पर भी वह अपना हिस्सा पूरा नहीं खाती। मेरे बाध्य करने पर एक-आध टुकड़ा मुँह में डालते ही उसकी आँखें छलछला आतीं। मुँह सिकोड़ते हुए कहती, "पेट सूख चुका है मालकिन! आजकल तेल-घी की तली चीजें, इस शरीर में सधती नहीं हैं। उबकाई आने लगती है। छोड़िए, कंगाल बच्चे छीना-झपटी करके खा लेंगे। आप जितना भी देंगी उनके कुएँ-नुमा पेट में सारा-का-सारा समा जाएगा...ब्रह्म राक्षस है उनके पेटों में। जिस तरह बाप पूरा ब्रह्माण्ड खाने के लिए मुँह बाये घूम रहा है, बच्चे उनसे भी आगे हैं, मौत भी तो नहीं आती इन राक्षसों को, मेरा तो खूनमांस तक नोच-नोचकर खाने में जुटे हैं..."

नारंगी की मातृ-मूर्ति को अपलक देखती रही। माँ के मन की व्यथा मैं अच्छी तरह समझ सकती हूँ। मेरी नस-नस में उसके हृदय की करुण हाहाकार फैल जाती है। लेकिन उसके बच्चों के भरपेट खाने के लिए मैं पकवान नहीं दे पाती। जितना देती थी उससे भूख मिटने के बनिस्बत और अधिक भड़क उठती थी, पेट कुछ नहीं जानता, मुँह कुछ नहीं जानता। अपने बच्चों के लिए दो-तीन बार खाने-भर का पकवान अलग से निकालकर मैं सारा उसे दे दिया करती थी।

नारंगी को रोजाना जो तरकारी, साग-भाजी आदि खाने को देती, वह उन्हें एक साथ मिलाकर रसगुल्ले की खाली हण्डी में डालकर अपने पति और बच्चों के लिए घर ले जाया करती और खुद नमक के साथ भात खा लेती। उससे उसको आत्म-सन्तोष मिलता। उसकी जीभ को कभी तरकारी का स्वाद तक नहीं मिल पाता।

एक बार थोड़े-से चावल में कुछ महक-सी आने लगी थी। मैंने नारंगी को दे दिये। कम-से-कम रोज रात को एक-आध मूठी भात तो खा लिया करेगी, थोड़ी-बहुत महक से क्या फर्क पड़ता है। उसके बाद दो दिनों तक नारंगी काम पर नहीं आयी। पता चला कि उसकी तबीयत ठीक नहीं है। मैं घबरा गयी। नारंगी बीमार पड़ गयी तो मुझे काफी परेशानी होगी। मुँह-फट भले ही हो, इतनी मेहनती औरत मिलना बहुत मुश्किल है। शहर के बाहर हमारा नया मकान था। नारंगी का घर करीब ही था। उस दिन पति के दफ्तर चले जाने के बाद मैं रिक्शा लेकर नारंगी के घर गयी। उसकी तबीयत के बारे में पूछकर उसे दवादारू न देने से उसकी बीमारी बढ़ने के साथ-ही-साथ मुझ जैसी श्रम-कुष्ठ गृहिणी भी घर का सारा काम करते-करते बीमार पड़ जाएगी।

नारंगी के घर के आगे ठिठक गयी। झुके हुए फँस के घर में बैठी नारंगी भात खा रही थी। मेरे घर से लाये खराब चावल का भात। भात के साथ और कुछ नहीं। लेकिन भात का कौर मुँह में डालने के बाद हाथ पुनः नीचे जमीन में छुलाकर मुँह तक ले जाती है। उँगली का पोर जीभ से चाट लेती है। मैंने सोचा खटाई, भुनी हुई सूखी मछली या फिर नमक-मिर्च होगा। नीचे जमीन में डालकर वे लोग खाया करते हैं। लेकिन मुझे यह देखकर हैरत हुई कि नारंगी जमीन पर ही उँगली छुला रही है। नीचे चुटकी-भर भी नमक नहीं था। मुझे देखते ही जल्दी-जल्दी कौर मुँह में डालकर उसी तरह जमीन पर उँगली छुलाकर चाटते हुए वह मेरे पास आयी।

मैंने पूछा, "नारंगी, किस चीज के साथ भात खा रही थी?"

"कुछ नहीं, नमक लाने के लिए आज दस पैसे भी नहीं मिले। चुटकीभर नमक कुठलिया में पड़ा था। एक आलू पड़ा है। वह आएगा तो खाएगा। बिना नमक के साहबजादे का कौर गले से नीचे नहीं फँसेगा। मानो वाकई राजा महाराजा हों।" नारंगी ने हँसते हुए कहा, "सब उसी के पेट में जाए, जल्दी ही भस्म हो जाए।"

लेकिन मेरा मुँह नमकीन होने लगा था। मैंने पूछा, "जमीन से क्या लेकर चाट रही थी?"

"कुछ नहीं, मालकिन ! सिर्फ बच्चों की तरह अपने मन को बहलाने की बात है। खाली भात खाने की सोचने पर भात गले से नीचे नहीं उतरेगा। इस तरह झूठ-मूठ उँगली चाटने पर भात नीचे उतर जाता है। उसमें कुछ स्वाद हो या न हो। सब अपने मन पर निर्भर करता है। जिस दिन भात के साथ कुछ नहीं होता, मैं इसी तरह खाती हूँ। अपनी उँगली की पोर का भी तो कुछ स्वाद होता है। मेरा कौर नीचे धंस जाता है।" हालाँकि नारंगी खुद को ठगकर फीकी जिन्दगी से रोजाना स्वाद निकालने की बात कहकर मुस्करा उठी, लेकिन मेरी आँखें नम हो आयी थीं। रोज सब्जी काटते समय हमारी थालियों के इर्द-गिर्द जितनी सब्जी बिखर जाती है, उतने में तो नारंगी पिकनिक मना सकती है।

कभी-कभार नारंगी दाँत निपोरकर विनती करती, "मालकिन! साहब की कोई पुरानी कमीज हो तो दे दीजिए न। वह करमजला तो जो भी कुछ कमाता है, सब का सब पेट में डाल लेता है। पेट के अलावा पीठ की उसे चिन्ता ही नहीं। जाड़े में आधी रात को काँपते हुए लौटता है।"

मैं उसे एकटक देखती रहती। उसके बाद गम्भीर होकर कहती, "साहब का कोई गरम कोट ले जा। लेकिन याद रख, इससे उसे जाड़े में आधी रात को शराब पीकर घर लौटने में और आसानी होगी।"

नारंगी मुँह बिदकाते हुए कहती, "लो सुनो, मैं भला अपनी मर्जी से कमीज माँग रही हूँ? मुँहझौंसे ने कल रात मुझे यह कह-कहकर खूब पीटा है कि मैं आपसे पुरानी कमीज माँगकर क्यों नहीं लाती। उसने मेरे सारे कपड़े चूल्हे में झोंक दिये, जितना पहनी हूँ, बस यही बचा है। नाशपीटा कहता है, 'मालकिन से एक-एक करके इतनी साड़ियाँ पहनकर मटकने को माँग लाती है और मेरे लिए एक कमीज तक नहीं ला पाती?' ऐसे निर्लज्ज आदमी से क्या कहूँ? जब से उसका हाथ पकड़ा है, एक साड़ी तक नहीं खरीद सका मेरे लिए। बल्कि मेरी चार-चार साड़ियों को चूल्हे में झोंक दिया। उस आग में खुद भी जलकर क्यों नहीं मर गया!"

उसके बाद शुरू हो जाती उसकी अश्रवणीय-अकथनीय बद्दुआएँ हमेशा की तरह, जब तक कि शंकरा नहीं बल्कि नारंगी पर ही गुस्सा और खीझ न आ जाती।

उस रोज नारंगी मेरे घर आकर बेतहाशा रोने लगी। शंकरा का नाम ले-लेकर, आँसू बहाते हुए, सिर ठोंक-ठोंककर वह रोये जा रही थी। मैंने सोचा, शायद आज उसकी पिटाई अन्तिम सीमा लाँघ चुकी है। लेकिन नहीं, नारंगी के बदन और चेहरे पर मार का कोई निशान नहीं था। मन में यह बात भी आयी कि शायद नारंगी की कोई बद्दुआ असर कर गयी है शंकरा पर। तब तो नारंगी को मुक्ति मिल गयी है। मुझे तो लगता था कि शंकरा की मौत देखने के लिए ही नारंगी जी रही है। शायद वही इसके सुख का एकमात्र दिन होगा। इसके अलावा तो उसकी जिन्दगी में सुख नाम की और कोई चीज है ही नहीं, लेकिन नारंगी की यह हृदय-विदारक करुणा तो लोक-दिखावा नहीं है, यह रुलाई तो उसके अन्तर से निकल रही है। ये आँसू उसकी आँखों से नहीं, बल्कि कलेजा फाड़कर बह रहे हैं। कहीं नारंगी के किसी बच्चे को तो कुछ नहीं हो गया? नहीं...उसके चारों बच्चे तो माँ के साथ आये हैं। नारंगी ने विनयपूर्वक कहा, "मालकिन, आपके पैर पकड़ती हूँ, आप जरा मेरे घर चलिए। आपके सिवा मेरा और कौन है जिस पर भरोसा करूँ।"

मैंने सोचा शायद आज शंकरा ने घर में आग लगा दी है। मैं उसके साथ चल पड़ी। रास्ते-भर वह दुःखभरी सिसकियाँ भरती रही। मैं उसके घर पहुंची। वहाँ सब ठीक-ठाक था। शंकरा चबूतरे पर बैठा बीड़ी पी रहा था। उसमें कोई हलचल नहीं थी।

मैंने खीझ-भरी आवाज में पूछा, "क्या हुआ?" नारंगी ने रुक-रुककर कहा, "आपको कुछ नहीं लग रहा मालकिन?"

"क्या?" मैंने ऊँचे स्वर में कहा। आस-पड़ोस के सारे लोग नारंगी का रोना-गाना सुनकर वहाँ इकट्ठे हो चुके थे।

नारंगी जमीन पर सिर पटक-पटककर पुनः रोने लगी। अपनी रुलाई में सुर डालते हुए वह कह रही थी, "किसी डायन, चुडैल ने इसकी मति फेर दी है। किसी ने इस पर जादू-टोना कर दिया है। यह आदमी कल से गुमसुम बैठा है। मेरे बाप-दादा का नाम लेकर इसने गाली नहीं दी, मुझ पर एक बार भी हाथ नहीं उठाया। जहाँ बैठ जाता है, वहीं बैठा रहता है। जो कुछ परोस देती हूँ, सुधरे हुए बच्चे की तरह चुपचाप खा लेता है। 'और दे' कहकर बर्तन-भाँड़े नहीं पटकता। यहाँ तक कि कल बूंद-भर दारू भी नहीं पी इसने...हे भगवान! यह क्या हो गया। जिस रोज से इसके घर आयी हूँ ऐसा कभी नहीं हुआ। इस पर जादू-टोना न हुआ तो भला यह मुझ पर हाथ उठाये बगैर रह सकता था? किस चुडैल से हमारा सुख देखा नहीं गया, मेरे भलेचंगे आदमी को इस तरह बेढंगा और निठल्ला बना दिया। उसका वंश बूड़ जाए...वह मुझे मारता-पीटता था, काटता था, जो चाहे करता था। इसमें किसी के बाप का क्या जाता था..." पुनः ढू-दू सिर पटककर नारंगी रोने लगी। सभी अवाक् थे। मैं भी। लगता है इस औरत का दिमाग खराब हो गया है। इसे इलाज की जरूरत है।

अब शंकरा बीड़ी फेंककर उठ खड़ा हुआ। मेरे करीब आकर बोला, "कहिए तो मालकिन! क्या खून हमेशा गरम रहता है जो इसको मारता-पीटता रहूँ। अब उम्र बढ़ चली है, और कितना पी- इस औरत को? पीटते-पीटते मेरे हाथों में दर्द होने लगा है। इसलिए मैंने सोचा कि नहीं, अब अच्छे रास्ते पर चलना चाहिए, इस औरत को भी कुछ फुर्सत देना चाहिए। लेकिन यह भला ऐसा होने दे तब न? देखिए न किस तरह बिलख-बिलखकर रो रही है, मानो इसके बच्चे और घरवाला मरे पड़े हों..."

बड़ी-बड़ी आँखें फाड़कर शंकरा नारंगी पर गुर्राया। अपनी मुट्ठी बाँधते हुए कहा, “अब तू मार के बिना रह नहीं सकती। तेरे बाप-दादा स्साले सबके सब मार खा-खाकर जीते हैं। स्साले ठीक हो चुके हैं। हरामजादी चुप रहती है या नहीं?" शंकरा ने तड़ाक् से एक थप्पड़ उसके गाल पर जड़ दिया। होठ फटकर उससे खून की धार बह चली। नारंगी ने रोना बन्द करके शंकरा की ओर देखा। उसकी आँसुओं में डूबती-उतराती आँखें मुस्करा उठी थीं।

उसने कहा, "मुँहझौंसे को कुछ भी नहीं हुआ है रे! मुझे डराने के लिए कल से ढोंग रचाये बैठा है। सोचता है कि मर जाएगा तो मेरा घर और बच्चे बर्बाद हो जाएँगे। मैं डर जाऊँगी इसे कुछ होने से। भला इस पर कौन जादूटोना करेगा? इसे भला मौत कहाँ रखी है। मुझे खाये बगैर यह मरेगा?"

मैं मूर्ति बनी नारंगी को देख रही थी। उसका पति-प्रेम हृदयंगम कर रही थी। नारंगी ने अपने होठ से खून पोंछते हुए कहा, "घबराकर आपको बुला लायी थी मालकिन...इसे तो कुछ भी नहीं हुआ; इस अच्छे-खासे आदमी के बारे में कितनी अनर्गल बातें सोच चुकी थी...आप घर जाइए।"

शंकरा ने नारंगी को धकियाते हुए कहा, "तेरी इतनी हिम्मत हो गयी कि मालकिन को इस नरकपुरी में खींच लायी...लगता है तेरा दिमाग फिर गया है..."

नारंगी ने शंकरा का धक्का सँभालकर उसे चुप करते हुए कहा, "छि:, तेरे लिए ही तो मैं मालकिन को यहाँ बुला लायी थी। फिर कभी यदि ऐसा ढोंग रचाया तो मुँह में एक बूंद पानी भी नहीं डालूँगी। प्यासा छटपटाता रहेगा, समझ ले..."

लौटते समय रास्ते में मैं सोच रही थी, दोहरी जिन्दगी के ऐसे असहनीय उतार-चढ़ाव को इतनी सहजता से स्वीकार कर लेने वाली नारी सिर्फ नारंगी ही हो सकती है। यदि मैं नारंगी से इतना ही सीख लूँ, नहीं, यह कतई सम्भव नहीं, क्योंकि मैं नारंगी नहीं, मैं 'मैं' हूँ। नारंगी के अन्दर का 'मैं' शंकरा के अन्दर गहरे से गहरे डूबकर मर चुका है...अब नारंगी अपने अन्दर 'मैं' को नहीं ढूँढ़ पाएगी। इसलिए वह सिर्फ शंकरा की पत्नी नारंगी है, उसके अलावा और कुछ भी नहीं।

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