नर-नारी पात्र (व्यंग्य) : हरिशंकर परसाई

Nar-Nari Paatra (Hindi Satire) : Harishankar Parsai

पिछले दो अंकों में हिंदी उपन्यासों के पुरुष और नारी पात्रों की चर्चा हो चुकी है। गत अंक में गोरखनाथ ने अति आधुनिक उपन्यासों की नायिकाओं के संबंध में बड़े तीखे विचार प्रकट किए हैं। मेरा विश्वास है, उनका इरादा यह कहने का नहीं है कि हिंदी में नारी चरित्रों का निर्माण हुआ ही नहीं है। असल में जिस प्रकार के नारी पात्रों के रूपों से वे असंतुष्ट हैं, उनकी चर्चा उन्होंने की है। यह स्तंभ शिकायतों और आलोचनाओं से भरा रहता है, तो गलतफहमी हो सकती है कि हिंदी में कुछ अभिनंदनीय है ही नहीं। मैं सोचता हूँ, ऐसा समझने की भूल कोई समझदार आदमी तो नहीं करेगा ।

पात्रों की बात ही आगे बढ़ाता हूँ। पात्रों के सृजन में हमारे यहाँ कुछ लोग बने-बनाए 'फर्मे' (साँचे) से काम लेते हैं, याने कोई दर्शन, नैतिक सिद्धांत या राजनैतिक प्रयोजन उनके मन में पहले बन जाता है और तब उसे सिद्ध करने के लिए या उसका उदाहरण देने के लिए वे कुछ पात्र बटोर लेते हैं । गणित के सूत्र पर वे पात्रों को चलाते हैं। इस प्रकार के 'फर्मे' हमारे यहाँ हैं - एक है 'मार्क्सवादी फर्मा' जिसमें हर बार हलकू की माँ को कोई जमींदार ठोकर मारकर प्राण ले लेता है या हलकू की स्त्री की अस्मत लूट लेता है। इन कहानियों में न कहीं हलकू नजर आता है, न उसकी माँ, न उसकी स्त्री ! इनकी जगह एक ढाँचा दिखता है । न हलकू के साथ हम रो पाते हैं, न हम अत्याचारी पर क्रोध कर पाते हैं। इस साँचे पर केवल हँस पाते हैं।

दूसरा 'फ्रायडवादी ढाँचा' होता है। इस साँचे के कलाकार की दृष्टि में पुरुष केवल 'नर' है और स्त्री केवल 'मादा' और अगर वे पास आते हैं, तो पशुवर्ग की तरह केवल प्रजनन-क्रिया के लिए! इनकी नारियाँ मानवी नहीं होतीं, 'सेक्स' की गुड़िया होती हैं, जिन्हें लेखक मनमाना नचाता है।

तीसरा सह अस्तित्ववाला साँचा-याने मार्क्सवादी- फ्रॉयडवादी ढाँचा ! इसकी छटा आप यशपाल, कृश्नचन्दर, मुल्कराज आनंद और अहमद अब्बास तक में पा लीजिए। एक हाथ में ‘केपिटल' और दूसरे में 'कोकशास्त्र' लेकर इनके पात्र ऐसे घूमते हैं कि अचरज होता है, इन्हें आदमी कहें तो कैसे!

कुछ पात्र मनुष्य नहीं होते, वे चलते-फिरते 'एनसाइक्लोपीडिया' होते हैं- इन्हें न प्रेम की अनुभूति होती है, न करुणा की । इनके पास केवल बुद्धि होती है, तर्क होता है, और ये बेचारे इस बात का डंका पीटने का काम करते हैं कि देखें, हमारे निर्माता के पास इतना ज्ञान है।

एक दूसरे प्रकार के वे पात्र हैं जो मनोग्रंथियों और कुंठाओं के वैज्ञानिक 'इलस्ट्रेशंस' हैं, उन्हें आप जान गए, तो मनोविज्ञान की जानकारी आपकी अपटुडेट हो गयी। मनुष्य को आप न जान पाएँ, तो लेखक की बला से ।

साँचे का साहित्य इसी प्रकार दुर्गतिग्रस्त होता है। उसके लेखक एक खाली पिंजड़ा लिये रहते हैं, जिसके भीतर का तोता कभी का उड़ गया है। आप पिंजड़े को तोता नहीं समझेंगे, तो आपको नासमझ का खिताब मिलेगा ।

मानव चरित्र रचने के लिए मानव को देखना पड़ता है, मानव को समझना पड़ता है, उसके सुख, दुख, आशा, आकांक्षा, द्वंद्व, कुंठा सबको देखना होता है । जन-जीवन का बारीक अवलोकन करना होता है और साथ ही संवेदनात्मक दृष्टि रखनी पड़ती है। जिस समाज को, जिस जाति को, जिस वर्ग को चित्रित करना है, उसे सचाई से पहले समझकर तब उसका चित्रण करना होता है । उसी में से महती प्रवृत्तिवाले महान् पात्रों का जन्म सकता है। तीन महीने समुद्र के किनारे रहकर मछुओं के जीवन का सही चित्रण नहीं हो सकता, और 6 महीने सिनेमा स्टुडियो के आसपास चक्कर लगाकर सिनेमा-संसार का जीवन सच्चे रूप में कागज पर नहीं उतर सकता ।

इसका कारण है तपस्या की कमी। अपने कमरे में बैठकर समस्त समाज को नहीं देखा जा सकता । कालिदास ने रेल और मोटर से विहीन उस युग में भारत-भ्रमण किया था, अन्यथा मेघदूत में प्रकृति के वे विभिन्न रूप न उछलते । प्रेमचंद ने जाने-पहचाने किसान-मजदूर और मध्यवर्ग के चित्र अंकित किए थे। उच्चवर्ग के चित्र अंकित करने में वे भी सफल नहीं हो पाए। प्रो. मेहता और मालती के प्रेम के अंकन में भी प्रेमचंद उतने सफल नहीं हुए, क्योंकि इस वर्ग के प्रेम का अतिरंजित आदर्शवादी और बुद्धिवादी रूप ही वे प्रस्तुत कर पाए । महान् कलाकार भी जब जीवन का सच्चा रूप न जानने के कारण चित्रण में कमी ले आता है, तब साल में 4 दिन गाँव में 'पिकनिक' करके शहराती लेखक ग्रामीण जीवन का चित्र किस साहस से उतारता है? हार्डी 'वेसेक्स' के जिले से बाहर नहीं गया, पर उस स्थान के निवासियों का उसे इतना गहरा अध्ययन था, उनकी भावनाओं की उसे ऐसी परख थी, उनके जीवन का उसने इतने पास से निरीक्षण किया था कि उसका हर पात्र बोलता है । चेखव और गोर्की ने रूसी जीवन को आत्मसात किया था। हाल ही प्रकाशित रेणु के उपन्यास 'मैला आँचल' की सबसे बड़ी खूबी यह है कि उसका चित्र पूर्ण रूप से सत्य है। पूर्णिया जिले के उस अंचल के जीवन के कितने उजले 'स्नेपशाट्स ' हैं !

जीवन को न देख सकने के कारण लेखक की रचनाओं में एकरूपता आती है। एक लेखक 15 साल से एक ही प्रकार के आदमियों में रह रहा है, उन्हीं में उठता - बैठता है । ताजगी कहाँ से लाय? वही आदमी, वही दिनचर्या, वही क्रिया-प्रतिक्रिया । एक ही 'सेटअप' उसके भीतर संवेदना हमेशा उत्पन्न नहीं कर सकता। हाँ, अगर उसके पास विभिन्न अनुभवों का अक्षय भण्डार हो, तो बात अलग है। आजकल एक ही प्रकार की कहानियों और उपन्यासों के सृजन का यह बड़ा भारी कारण है ।

हमारे यहाँ लेखक को घूम-फिर सकने की, जीवन को देख सकने की सुविधा नहीं है। नौकरी करके पेट जिसे पालना पड़ता है, वह स्त्री - बच्चों को देखे या जीवन देखने जाय? माम के हर उपन्यास में एक ताजगी देखने में आती है। एक उपन्यास से बिल्कुल भिन्न स्तर के भिन्न प्रकार के पात्र दूसरे उपन्यास में मिलेंगे । यहाँ तक कि विभिन्न भू-भाग के निवासी मिलेंगे। उसे सुविधा है। पर यदि हमें देश-विदेश घुमाई की सुविधा नहीं है, तो हमारे समाज को संवेदनात्मक दृष्टि से देख सकने की सुविधा तो है ।

वसुधा, वर्ष 1, अंक 6 अक्टूबर 1956

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