नंदू भैया की कहानी (कहानी) : प्रकाश मनु
Nandu Bhayya Ki Kahani (Hindi Story) : Prakash Manu
1
नंदू भैया की कहानी भी कभी लिखूँगा या लिखनी पड़ेगी, कब सोचा था।
नंदू भैया थे तो बस, थे। हवा, पानी, आकाश की तरह मुझे चारों ओर से घेरे हुए। हवा को ढूँढ़ने कहीं जाना नहीं होता। वह है तो बस है, इसलिए कि हम उसे अपने आसपास सब जगह महसूस करते हैं। और महसूस करते हैं, इसलिए है—हवा है—पानी है, आकाश है। और हम सोच भी नहीं पाते कि एक दिन ऐसा भी होगा ऐसा कि...
इसलिए नंदू भैया का जाना इस कदर तोड़ गया कि वह एक रिसता हुआ घाव है मेरी जिंदगी का। मैं उस दोनों बाँहों में कसकर भींचे इस कदर छिपाए घूमता हूँ दोस्तों से, परिचितों से जैसे...जैसे कि मैं अपराधी हूँ—एक खतरनाक अपराधी! और मेरा पाप जाने-अनजाने कभी इधर, कभी उधर से खुलता-सा है। सब ओर से गाँठें लगाने के बावजूद! इस पाप की दुर्गंध छिपाए छिपती नहीं।
दुनिया के लिए मैं एक अच्छा-भला, पाक साफ आदमी हूँ। पर मैं खुद से यह बात कैसे छिपाऊँ...कि मैं हत्यारा हूँ नंदू भैया का!
हाँ नंदू भैया, हाँ! मैं कनफेस करता हूँ कि हत्यारा हूँ...कि मैं चाहता तो तुम्हें बचा सकता था। अगर थोड़ा-सा भी मैं खुद से बाहर आ पाया होता तो!
तुमने तो अपना मन परत-दर-परत मेरे आगे खोल देना चाहा था नंदू भैया! पर मैं था कि कुछ झूठे शब्दों का दिलासा दे-देकर उन पर ताले जड़ता रहा कि नहीं, नंदू भैया, यह सब तो चलता है जिंदगी में! हौसला रखो, सब ठीक है! आखिर तो सब ठीक हो जाता है एक दिन...
और यह सारा ‘ड्रामा’ इसलिए कि जब मैं छुट्टियों में कुछ दिनों के लिए घर आया हूँ, तो तुम कहीं अपने असली दुखों का पिटारा मेरे आगे खोलकर न बैठ जाओ। और चाय-पकौड़ों के लुत्फ और हँसी-कहकहों के साथ सस्ते भावुक शब्दों का पारिवारिक व्यापार चालू रहे।
मैं लेखक-फेखक जो भी था, मगर भीतर से एक स्वार्थी आदमी ही निकला नंदू भैया! मन में तुरत-फुरत लिखकर बड़े लेखकों की कतार में बैठ जाने की वासना ऐसी थी कि जीवन के असली दुखों के लिए वहाँ स्थान ही कहाँ था। मेरी दुनिया में हाड़-मांस के लोग कहाँ थे नंदू भैया? फिर भला तुम भी कहाँ रह जाते! और तुम मुझसे...एक ऐसे घटिया आदमी से संवेदना की अपेक्षा कर रहे थे नंदू भैया?
यों सच तो यह है, इतने बड़े हादसे की कल्पना मैंने भी नहीं की थी। मैं खुद भ्रम में था नंदू भैया, कि घरों में चलता है यह सब। थोड़ी सी उठक-पटक, थोड़ी-सी तड़-तड़ातड़, खींचातानी, ऊँच-नीच। कोई छोटा-मोटा ठंडा या गरम महाभारत! कि फिर सब ठीक हो जाता है। चीजें ‘सम’ पर आ जाती हैं...कि बाहर से चार दिन के लिए आया हुआ आदमी तो अपने ‘हस्तक्षेप’ से इस संतुलन को बिगाड़ेगा ही। लिहाजा चुप ही रहूँ!
यों मैं अपने आपको, अपनी निष्क्रियता को, कर्तव्यहीनता और स्वार्थपरता को न्यायोचित ठहराता रहा और जीवन आगे बढ़ता रहा, अपने पेट में अशांति का एक पूरा ज्वालामुखी समाए हुए। और जब वह फटा तो पूरा घर एकबारगी नंगा, लहूलुहान और क्षत-विक्षत हो चुका था।
शायद इसीलिए तुम्हारा जाना, जाना नहीं लगता नंदू भैया, बल्कि वह मेरे वजूद में एक घाव का होना है। एक इतना बड़ा घाव कि समय के साथ-साथ वह लगातार बढ़ता ही जाता है और उसका रिसाव आज तक रुका नहीं। गोकि दस बरस, पूरे दस बरस हो चुके हैं उस हादसे को...और आज भी अकेले में मैं रोता हूँ, छटपटाता हूँ। समय-असमय मेरी आत्मा कूकरी की तरह कू-कू करके क्रंदन करती है और मन होता है कि मैं दीवारों पर सिर पटक-पटककर जान दे दूँ!...तलाश! मेरी तलाश में तुम सदा-सदा के लिए समा गए हो नंदू भैया! पर तुम नहीं हो, तो नहीं ही हो।
हालाँकि कभी-कभी हैरत होती है कि तुम कहाँ नहीं हो नंदू भैया? अपने चौगिर्द देखता हूँ तो लगता है, मैं वही सब तो देख रहा हूँ, जो तुम अपनी बड़ी-बड़ी भावपूर्ण आँखों से दिखाना चाहते थे। और...और सच तो यह है कि मेरे रक्त में तुम बह रहे हो, नंदू भैया! गुस्से, प्यार और उत्तेजना की एक तीखी कसक के साथ, मेरे रक्त में इतने साफ...कि एक नहीं, कई दफा मैंने तुम्हें साफ-साफ पहचानकर चीखना चाहा है। कि यह मैं नहीं, मेरे भीतर से तुम बोल रहे हो, नंदू भैया! तुम बोल रहे हो, तुम...तुम...तुम कि यह तो मेरी नहीं, तुम्हारी आवाज है नंदू भैया!
और कभी-कभी जब मैं एक अलमस्त फक्कड़ हँसी हँसते अपने आपको पाता हूँ, तो फिर वही टेक शुरू हो जाती है कि यह तो मेरी नहीं, उधार की हँसी है नंदू भैया! इसलिए कि यह तो तुम हो, तुम! तुम्हीं ने मुझे सिखाया था कि जीवन दिलेरी से, शान से, मस्ती से हँसकर गुजारने का नाम है। और सच्ची कहूँ, गुस्सा क्या चीज है, यह मैंने तुमसे सीखा था नंदू भैया, तो हँसना क्या होता है, यह भी मैंने तुम्हीं से जाना। और ताज्जुब है, आज तुम याद आते हो नंदू भैया, तो या तो बच्चों जैसी भोली, गोलमटोल सूरत में बेफिक्र फुर-फुर हँसी हँसते हुए...या फिर बिलकुल उलट छोर पर गुस्से में तमतमाए हुए। ऐसा गुस्सा जिससे पूरा घर थरथराता था। घर की एक-एक ईंट काँप जाती थी। तुम घर के किसी कोने में गुस्से से थरथराते बैठे हो, तो उस गुस्से की ज्वाला और तपन घर के हर कोने, हर दिशा में, हर जगह महसूस की जा सकती है।...
शायद इसलिए कि तुम अपने वजूद को जानते थे और जिसे स्वीकार करने लायक नहीं समझते थे, उसे ‘न’ कहना भी तुम्हें आता था। फिर चाहे घर भर की जिदें और आग्रह ही क्यों न तुम्हारे पीछे लगे रहें! शायद इसलिए तुम मुझे बड़े लगते थे, बहुत बड़े कि जैसे पहाड़! तुम इतने बड़े थे कि तुम्हारे होते मैं सनाथ था और तुम्हारे जाते ही अनाथ हो गया।
आज सोचता हूँ तो हैरानी होती है, हँसी भी आती है। कितने बड़े थे तुम मुझसे नंदू भैया? यही कोई साढ़े तीन-चार बरस! इतनी बड़ी जिंदगी में क्या होते हैं तीन-चार बरस? मगर तुम बड़े इसलिए थे कि तुम बड़प्पन को धारण करना जानते थे और उस बड़प्पन को निभाना भी जानते थे। और मेरे बड़े होने, खाने-कमाने लायक होने पर भी तुम उसे निभाते रहे! छुट्टियों में मेरे घर पहुँचते ही तुम मुझे खुद में ऐसे समेट लेते थे, जैसे मैं तुम्हारा छोटा भाई नहीं, तुम्हारा पुत्र होऊँ! इतना बड़ा दिल जो एक पहाड़ का ही दिल हो सकता है!
यह क्या चीज है नंदू भैया, जो लेखक न हो हुए भी तुममें थी और लेखक होने के अहंकार वाले मुझ जैसे अदने आदमी में सिरे से गायब। तो फिर झूठ ही है न यह बात कि लेखक संवेदनशील होते हैं, ऐसे होते हैं, वैसे होते हैं...वगैरह-वगैरह। अगर ऐसा ही होता तो तुम कैसे इस खुदगर्ज दुनिया में अपना बस्ता इतनी जल्दी समेटकर गायब हो जाते? और मैं...! ढो रहा हूँ सिर्फ खुद को...ढो रहा हूँ सिर्फ अपनी उम्र! और भला क्या कर सका हूँ मैं?
2
अभी उस दिन अपने एक अभिन्न मित्र को सुना रहा था मैं बचपन का किस्सा। उसमें नंदू भैया, तुम बार-बार आते थे, जाते थे। मेरे मित्र वह सुन रहे थे और मुसकरा रहे थे।
वह लगातार सुनते रहे और मुसकराते रहे। किस्सा खत्म हुआ तो खिलखिलाकर हँसे। पान का बीड़ा मुँह में ठूँसा और थोड़ी पीक थूकने के बाद बोले, “अब मैं समझा कि तुम्हारे लेखन में ये जो बहुत आता है—क्या नाम है तंज, गुस्सा, खीज या कभी-कभी जरूरत से ज्यादा बोल्ड एक्सप्रेशंस, तो इसकी वजह क्या है?”
“क्यों? क्यों? कैसे...मैं समझा नहीं!” मैंने गोल-गोल चक्करदानी से बाहर निकलने की कोशिश की।
“तुम खुद सोच लो।” एक रंजित हँसी जिसमें पान का स्वाद हौले-हौले घुल रहा था। आँखें जरूरत से ज्यादा चमकदार, नुकीली।
“ओह!” अगले ही पल मेरी समझ में आ गया माजरा और यह भी कि उनका तीर किधर चल गया।
...अभी-अभी अपने मित्र को जो किस्सा सुना रहा था, वह मेरे झेंपूपन का किस्सा था। तब मैं अकेला-अकेला, सबसे डरा-डरा, सहमा-सहमा रहता था। किसी से दो बातें करनी होतीं तो मेरी जान निकल जाती। मुझे थोड़ा-बहुत दुनियादार बनाया मेरे नंदू भैया ने। (‘दुनियादार’ इस अर्थ में कि उन्होंने मुझे दुनिया के कुछ सच्ची-मुच्ची के रंग दिखाए, वरना तो तब भावुक था और अब बोहेमियन!) उनकी बाकायदा एक मित्र-मंडली थी। वे सब मिलकर दिन भर कुछ न कुछ करने, आजमाने, छेड़छाड़ और शरारतें करने के उपाय सोचा करते थे। और जीवन उनका मनोरंजक और दुस्साहसी कामों को समर्पित था।
नंदू भैया अनोखे इंसान थे। और यह बात छिपाऊँगा नहीं कि मुझे वे बहुत ज्यादा प्यार करते और मारते भी थे। कुछ लोग कहते हैं जो ज्यादा मारता है, वही ज्यादा प्यार भी कर सकता है। मैं ठीक-ठीक कह नहीं सकता, यह बात कितनी सच है, लेकन नंदू भैया के बारे में तो यह पूरी तरह सच है। घर में बल्कि पूरी दुनिया में उन्हीं से मैं सबसे अधिक डरता था, उन्हीं को सबसे अधिक चाहता भी था।
उन्होंने मुझे पतंग उड़ाना सिखाना चाहा। मैं जो नालायक था, सीख न सका। हाँ, हुचकी पकड़ने की मेरी ड्यूटी परमानेंट थी। तो चाहते न चाहते मैं बहुत से किस्से-कहानियों का गवाह हो गया। उन्होंने दोस्तों के साथ जो सात पतंगें एक साथ एक डोर में बाँधकर उड़ाने की योजना बनाई थी, उसकी मुझे अच्छी तरह याद है। कोई हफ्ते भर इस योजना पर बड़ी सीरियसली काम होता रहा। फिर इतवार को जब सात पतंगें एक साथ उड़ाई गईं, तो थोड़ी दूर जाने पर ही कैसे डोर कट गई और क्या-क्या झमेला हुआ, इस सबका प्रत्यक्षदर्शी मैं हूँ।
नंदू भैया ने ‘भाभी’ पिक्चर से यह आयडिया लिया था। यह दोस्तों से उनकी बातचीत से मुझे पता चल गया था। बाद में उन्होंने मुझे यह पिक्चर दिखाई भी। इसी के साथ उन्होंने एक और पिक्चर बड़े आग्रह से दिखाई थी—‘छोटी बहन’। अब ये दोनों पिक्चरें मेरे भीतर गड्डमड्ड हो गई हैं। हाँ, ‘भैया मेरे, छोटी बहन को ना भुलाना...’ गाने के बारे में जरूर कह सकता हूँ कि यह ‘छोटी बहन’ का ही रहा होगा। यह इसलिए कि मुझे आज तक याद है, इस गाने को सुनकर मेरी बुरी तरह रुलाई छूट गई थी और नाक बहने लगी थी, जिसे मैंने कमीज की आस्तीन से पोंछा था। इस पर गुस्साए हुए नंदू भैया ने वहीं टॉकीज में चपत लगाकर मुझे डाँटा था।
नंदू भैया पिक्चरों के बड़े शौकीन थे। लेकिन मजे के लिए पिक्चरें देखते थे, आँसू-वाँसू बहाने के लिए नहीं। और ज्यादातर वे अकेले नहीं, दोस्तों के साथ ही पिक्चर देखने जाते थे। यह अजीब बात है और मुझे आज तक इसकी वजह समझ में नहीं आई कि जब गाने आते थे और जितनी बार गाने आते थे, वे उठकर बाहर क्यों चले जाया करते थे?
घर में उन दिनों उनकी खासी पिटाई होती थी। वे डाँट खाते, इम्तिहान में फेल होते, मगर मजाल है जो उनकी शरारतें छूट जाएँ। वे शरारतें, जिन्हें बड़े भाई और पिता जी आवारागर्दी कहा करते थे। फिर भी नंदू भैया किसी न किसी तरह आँख बचाकर अपने ‘लक्ष्य’ तक पहुँच ही जाते। इस मामले में उनकी योग्यता और रहस्यात्मक शक्तियों का तो जवाब नहीं था। कभी-कभी तो ऐसा भी होता कि आधी पिक्चर आज देख ली, बाकी की बची हुई कल। गेटकीपर उन्हें जानते थे और मजाल है कि नंदू भैया से कोई कुछ कह सके।
दो-एक बार ऐसा भी हुआ कि इंटरवल में वे घर चले आए। घर में पानी पिया, इधर-उधर घूमकर सूँघा कि कहीं कोई खतरा तो नहीं? और सब ठीक-ठाक होने पर दौड़कर फिर पिक्चर हॉल में पधार गए। पिक्चर खत्म होने पर घर आए तो कहते, “मैं तो यहीं था। चंदर से पूछ लो। दो बजे मैंने इसके पास बैठकर अमरूद खाया और पानी पिया था। अंग्रेजी का एक लेसन भी याद किया था।...पूछो इससे!”
जाहिर है, मुझे ‘हाँ’ ही कहना पड़ता था (वरना उनका गुस्सा क्या मैं जानता न था!) और नंदू भैया की जीत हो जाती! ऐसे क्षणों में उनका चेहरा और अधिक लुभावना और गोलमटोल नजर आने लगता।
3
एक-दो बार नंदू भैया ने मुझे भी इस रपटीले रास्ते पर चलाने की हलकी-सी कोशिश की। लेकिन मेरा रुझान किताबों की ओर देखकर और कुछ शायद बड़े भाई की जिम्मेदारी का ख्याल करके छोड़ दिया। इस बारे में एक घटना मुझे अब भी याद है।
...उस दिन नंदू भैया पिक्चर देखकर इंटरवल में घर आए थे। अब राम जाने कौन सी पिक्चर थी, बिलकुल दिमाग से नाम उतर गया! पर...इस बीच घर पर उनकी बुरी तरह ढूँढ़ मची थी। उन्हें दुकान पर किसी जरूरी काम से जाना था और वहाँ से जल्दी मुक्ति असंभव थी। उनके पास पिक्चर की आधी टिकट थी जो उनकी सफेद मक्खन जीन की पेंट में सुरसुरा रही थी। चोरी से उसे मेरे हाथ में थमाते हुए बोले, “जा, जल्दी से चला जा। गेटकीपर को दे दियो, अंदर बिठा देगा। कह दियो नंदू भैया, मेरे भैया हैं—सगे भाई।”
“मगर...!” मैंने प्रतिवाद करना चाहा। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था, माजरा क्या है? बल्कि मेरी हालत उस बिल्ली जैसी हो रही थी, जिसे जबरदस्ती किसी हँड़िया में सिर फँसाने के लिए कहा जाए!
“मैंने आधी पिक्चर देख ली है। यह टिकट ले जा, बाकी आधी तू देख लेना। रात को मुझे स्टोरी सुना देना, शुरू की स्टोरी मैं तुझे सुना दूँगा। बस, पूरी पिक्चर तेरी भी हो जाएगी, मेरी भी।” नंदू भैया ने फिर उकसाया।
“मगर मुझे इंग्लिश ग्रामर की तैयारी करनी है, कल टैस्ट है।” मैंने झूठ बोला।
“तो क्या फर्क पड़ता है? कोई डेढ़ घंटे की बात है, बल्कि पंद्रह मिनट तो निकल ही गए।...जा, दौड़ जा।”
“मगर...वहाँ दिक्कत तो नहीं आएगी? गेटकीपर...!” मैंने अब ‘अगर-मगर’ की शरण लेनी चाही। लेकिन नंदू भैया के पास मेरी हर समस्या का समाधान था, “अरे, जा तो! तू कहियो, मैं नंदू का भाई!”
मैं बड़े भारी मन से उठा। बड़ी कातर आँखों से नंदू भैया की ओर देखता हुआ कि शायद अब भी मुझ पर तरस खाएँ। आखिर उनकी बड़ी-बड़ी आँखों से डरता हुआ बाहर आ गया। घूमता-घूमता प्रकाश टॉकीज में पहुँचा। स्कूल से आते हुए दूर-दूर से देखा था और शायद तब तक एकाध पिक्चर भी नंदू भैया के साथ देखी थी, मगर...ऐसे!
इधर से घुसकर देखा, डर लगा...गेटकीपर! (वह कोई मुच्छड़ सा बंदा था, चेहरे पर भरपूर गुंडापन!) उधर से घुसकर देखा, डर लगा—यहाँ से देखा, डर लगा...वहाँ से देखा, डर लगा। पहले तो यह अंदर घुसने ही नहीं देगा और घुस भी गया तो भीतर अँधेरे में सीट तक कैसे पहुँचूँगा?
अँधेरा मेरे मन में डर बनकर घुस गया और मैं दुम दबाकर भागा। शाम को नंदू भैया ने पूछा, “पिक्चर देखी थी...?”
“हाँ।”
“कैसी लगी...?”
“अच्छी।”
“वाकई कि ऐसे ही बोल रहा है...?”
“नहीं, वाकई...!”
मगर जाने क्या चोर था मेरे बोलने में कि वो समझ गए। मुझ पर आँखें गड़ाकर पूछा, “अच्छा! बता, क्या था उस पिक्चर में?”
अब मैं घबराया। सीधे-सीधे बता दिया, “नहीं देखी।”
“फिर...?”
“मैं गया तो था, लौट आया।”
“क्यों?”
“अंदर जाने का दिल नहीं किया।” कहते-कहते मेरी आवाज भर्रा गई।
“हूँ! बेकार करा दिए न पैसे। तू किसी काम का नहीं है चंदर, क्या करेगा जीवन में?”
मुझे डर लगा, अब जरूर पिटाई होगी। मगर नंदू भैया थोड़ी देर मुझे कड़ी निगाहों से देखते रहे, फिर सॉफ्ट-सॉफ्ट हो गए।
“तुझे पिक्चरें अच्छी नहीं लगतीं?” बालों में कंघी करते हुए अचानक उन्होंने रुककर पूछा। मैं चौंका, अरे! यह मेरे ही नंदू भैया की आवाज है? इतना बहता हुआ स्नेह!
“नहीं!” जाने क्या हुआ कि मैं रो पड़ा।
“पढ़ना अच्छा लगता है?” मेरी ठोड़ी पकड़कर उठा दी है उन्होंने।
“हाँ।” मैंने कहना चाहा, मगर सिर्फ एक मरी हुई फुसफुस निकली मेरे होंठों से।
“ठीक है, मैं किताबें ला दूँगा।” और मेरी पीठ थपथपाकर चले गए।
4
पता नहीं कब तक मैं बैठा रहा, क्या-क्या सोचता रहा। शायद यह कि मेरे नंदू भैया क्या हमेशा ऐसे ही नहीं बने रह सकते, जैसे कि आज...! लेकिन नंदू भैया बदले, थोड़े से तो जरूर ही बदल गए।
इसके बाद वे न सिर्फ मेरे लिए किताबें लाते, दोस्तों के बीच भी जमकर तारीफ करते और कम से कम उन्हें मेरा मजाक तो नहीं उड़ाने देते। उन्होंने जो किताबें लाकर दीं, उनमें चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह और विवेकानंद की जीवनियों की मुझे अब भी याद है। ये किताबें वर्षों तक मेरे पास रहीं! नंदू भैया उनके बारे में पूछते और दोस्तों के बीच गर्व से कहते, “देखना, चंदर एक दिन बड़ा आदमी बनेगा!” मुझे अच्छा लगता, लेकिन अगले ही पल मैं झेंप जाता। कुछ भी हो, नंदू भैया के दोस्त जो उम्र में मुझसे बहुत बड़े थे, अब मेरा सम्मान करने लगे थे। और इस बात से मैं दूनी झेंप महसूस करता था और कन्नी काटने लगा था।
मजे की बात यह है कि नंदू भैया ने ही मुझे प्रेमचंद से पहली दफा मिलवाया था। उन्होंने ‘प्रेमचंद की श्रेष्ठ कहानियाँ’ किताब लाकर दी थी। सारी कहानियाँ मैं कोई डेढ़-दो दिनों में चाट गया था और जब ‘बड़े भाईसाहब’ कहानी पढ़ी थी, तो मेरी हालत यह कि ऊपर की साँस ऊपर, नीचे की नीचे। अरे! यह तो मेरी और मेरे नंदू भैया की कहानी है! प्रेमचंद ने कैसे लिख ली? मेरा मन हुआ कि दौड़कर नंदू भैया के पास जाऊँऔर उन्हें बताऊँ कि देखिए-देखिए, यह जो प्रेमचंद के ‘बड़े भाईसाहब’ हैं न, बिलकुल...बिलकुल...जैसे आप!
पर उत्तेजना में, एकांत में खुशी से हाँफते हुए यह सोचना जितना आसान था, नंदू भैया के पास जाकर उसे कहना उतना ही मुश्किल! अगर खुदा न खास्ता उन्हें गुस्सा आ गया तो? मेरी हड्डी-पसली एक नहीं रहेगी।
...तो भी नंदू भैया जो थे, सो थे। उनसे डर और संकोच के बावजूद एक अंदरूनी गहरा-गहरा-सा प्यार था और मेरी जिंदगी मजे में चल रही थी। मन में कहीं एक गहरी आश्वस्ति-सी थी कि कहीं कुछ भी हो, नंदू भैया सब सँभाल लेंगे। वे परम समर्थ हैं, उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।
बचपन में मेरे ‘हीमैन’ थे नंदू भैया। और ‘हीमैन’ ही नहीं, सच्ची कहूँ तो गॉडफादर भी। हालाँकि उन्होंने होना चाहा नहीं था, यह मैं ही था जो प्रेम और आतंक से भरकर उनकी पूजा-सी करता था।
नंदू भैया थे ही ऐसे ग्रेट...!
5
फिर एक आँधी चली, एक काली आँधी। और उस हादसे ने हमारे घर की सुख-शांति को तिनका-तिनका कर बिखेर दिया।
बिलकुल अनपेक्षित दुर्घटना। बड़े भाईसाहब प्राणनाथ जी का हार्ट अटैक!
सिर्फ पैंतीस बरस की उम्र में वे गए। यह एक जवान, हरे पेड़ की मौत थी। पूरा घर स्तब्ध!
घर में सब रोए थे। फूट-फूटकर रोए थे। माँ छाती पीट रही थीं, पिता दीवारों से सिर मार रहे थे। अगर कोई नहीं रोया था, तो सिर्फ नंदू भैया! उनके आँसू एकदम सूख गए थे, आँखें पत्थर हो गई थीं। मानो वे कुछ देख ही नहीं पा रहे थे, समझ ही नहीं पा रहे थे।
माँ बार-बार उन्हें छाती से लगाकर कहती थीं, “तू रो ले पुत्तर, रो ले...अंदर का दुख निकल जाएगा।” पर नंदू भैया को तो जैसे कुछ सुनाई ही नहीं पड़ रहा था। वे हमारे देखते ही देखते पत्थर हो चुके थे।
माँ आखिर माँ थीं, सब समझ गईं। उन्होंने घर के लोगों से पुकार-पुकारकर कहा, “मेरा नंदू रो नईं रिया, उन्नू रुआओ। नईं ताँ कुज्झ हो जाएगा।”
और सचमुच वह हादसा ऐसा बैठा नंदू भैया के भीतर कि फिर वे कभी पहले जैसे नंदू भैया नहीं रहे। एक हादसा जो एक और बड़े हादसे की जमीन तैयार कर रहा था। उसे कोई और नहीं समझा, बस माँ समझीं।
अलबत्ता उस दिन के बाद से नंदू भैया कभी सहज नहीं रहे। वे खुश होते तो बहुत-बहुत ज्यादा खुश और नाराज होते तो बहुत-बहुत ज्यादा नाराज। हालाँकि खुश अक्सर कम ही होते, नाराज ज्यादा। अक्सर गुस्से से उनकी आँखें चढ़ी रहतीं और लाल-लाल नजर आतीं।...दुखी हम सभी थे, पर नंदू भैया की हालत घर के दुख को और बढ़ा रही थी।
‘नंदू भैया का गुस्सा आखिर किस पर है?’ डरा-डरा सा मैं सोचता था। ‘क्या उस विधाता पर जिसने बड़े भाईसाहब को छीनकर हम सब लोगों के साथ भारी अन्याय किया है? पर विधाता के अन्याय का कोई विरोध कर सका है? आखिर किससे लड़ने चले थे नंदू भैया...? पागल! एकदम पागल!!’
पढ़ाई में उनका मन नहीं लगता था और इस घटना के बाद तो और भी उचट गया। रात-रात भर वे जागते और छत पर अकेले टहलते रहते। उनके पैरों की आवाज आती थी और मैं सहमा-सा अपने बिस्तर में दुबका रहता था। मन ही ईश्वर से प्रार्थना करता हुआ, ‘हे भगवान, मेरे नंदू भैया को शांति दे।...उन्हें शांति दो भगवान!!’
मन होता, जाऊँ और प्यार से उनका हाथ पकड़कर ले आऊँ, ‘आओ नंदू भैया, बैठो मेरे पास। कुछ बात करो।’ और फिर ढेर-ढेर-सी उनसे बातें करता। पर नहीं, मैं हिम्मत ही कब कर पाया? नंदू भैया से अब ज्यादा डर लगने लगा था। पहले वाला नहीं, यह कुछ अलग-सा डर था। मुझे लगता था, कहीं कुछ ऐसा न कर बैठूँ कि नंदू भैया के भीतर सोया हुआ ज्वालामुखी जाग जाए और उनके भीतर ध्वंस शुरू हो जाए। इसलिए उन्हें जरा भी छेड़ते मुझे डर लगता था। मैं अक्सर सामने होने पर उनसे कन्नी काटता और बचता था। फिर आखिर सोचा यही गया कि नंदू भैया पढ़ाई छोड़ें, कपड़े वाली दुकान पर ही बैठें। इससे कम से कम उनका मन तो लगा रहेगा।
और थोड़े दिनों के अनमनेपन के बाद सचमुच नंदू भैया अपनी रौ में आ गए। दुकान में सचमुच उनका मन लगने लगा था। उनका व्यवहार और उनका बोलना-चालना ग्राहकों को प्रभावित करता था। हाँ, लेकिन उनके स्वभाव में एक विसंगति आकर बैठ गई। कभी वे उत्साह में आते, तो एकदम हवा में उड़ते हुए नजर आते और कभी सुस्त होते तो इस कदर कि अपनी जगह से थोड़ा हिलने में भी मानो उनके प्राण निकलते हों। वे हमेशा छोरों पर रहते थे और बीच में बहुत कम नजर आते थे। कभी-कभी किसी ग्राहक की उजड्डता या असभ्य व्यवहार पर उनका गुस्सा उबल पड़ता और तब उन्हें कोई होश नहीं रहता था। पिता जी समझाते, “देखो बेटा, दुकानदार को विनम्र होना चाहिए!”
पर भीतर गुस्सा उबल रहा हो और बाहर विनम्रता का महीन कवच धारण किए रहें, नंदू भैया को यह दुनियादारी कभी नहीं आई। अंत तक नहीं आई...! आती तो क्या वे इस तरह जाते, इतनी जल्दी चले जाते?
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पढ़ाई-लिखाई के सिलसिले में अपना शहर छोड़कर मुझे बनारस जाना पड़ा, तो मन में हमेशा यही खटका लगा रहता कि नंदू भैया कैसे होंगे? अब कुछ ‘सम’ पर आए होंगे या नहीं? मन ही मन यही प्रार्थना करता कि वे ठीक रहें, प्रसन्न रहें, क्योंकि उनकी प्रसन्नता से ही घर की प्रसन्नता लौट सकती थी। घर में हर हफ्ते चिट्ठी डालकर एक ही सवाल पूछता—नंदू भैया कैसे हैं? घर से कोई मिलने आता, तो भी मेरा पहला सवाल यही होता, नंदू भैया कैसे हैं? नंदू भैया का स्वस्थ होना ही मेरे लिए घर का स्वस्थ होना था। दोनों मानो एक-दूसरे के पर्याय हो चुके थे।
फिर मन बार-बार उनकी तरफ इसलिए भी दौड़ता था कि मैं जानता था कि घर में नंदू भैया के कद का कोई और नहीं है। नंदू भैया तो बस, नंदू भैया ही हैं। नंदू भैया ने खुद को खाक कर मुझे मेरे होने का अर्थ दिया था।
और सच तो यह है कि नंदू भैया ने एक तरह से खुद को खाद बना डाला था, जिस पर मैं गुलाब की तरह फूला, इतरा रहा था। कैपीटलिस्ट! एक सभ्य दुनिया का बाशिंदा—नफीस साहित्यकार!!
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साल में एक-दो दफा छुट्टियों में मैं कुछ दिन के लिए घर आता, तो सभी खुश होते, लेकिन नंदू भैया तो जैसे दिल का खजाना ही खोल देते। इतनी बातें, इतनी आवभगत, इतना स्वागत! मानो उल्लास से भरकर फूले-फूले-से सभी दिशाआों को सुना देना चाहते हों, ‘मेरा भाई...मेरा भाई!’ जैसे उनका भाई न हुआ, दुनिया का अनमोल हीरा हो गया।
बाद में विवाह हुआ तो गौरी भाभी ने भी बहुत जल्दी नंदू भैया की आदतें जान लीं और उन्हें रिझाने के गुर भी। नंदू भैया सचमुच विवाह के बाद एक नए रूप में ढल से गए। उनके इस नए रूप में गुस्सा कम, मस्ती कुछ ज्यादा थी और एक खानदानी किस्म का ऊँचा-ऊँचा, उन्नत आत्मगौरव तो था ही। कपड़ों में, चाल-ढाल में अजब-सी शान। सफेद कुरता-पाजामा, यही उनकी पसंदीदा पोशाक थी। पर शायद ही कभी किसी ने उनके इस्तिरी किए हुए झकाझक सफेद कुरते-पाजामे पर कोई दाग देखा हो। उनके विवाह के साल पीछे मुन्नू आ गया और उसके कोई डेढ़-दो साल बाद मीना। और सचमुच नंदू भैया गौरी भाभी के स्नेह और मुन्नू-मीना की जोड़ी के किल्लोल से बँध-से गए।
लिहाजा अब जब भी मैं मिलता, हँसने-गुदगुदाने वाले प्रसंग उनके मुँह से ज्यादा सुनाई पड़ते। कभी-कभी मस्ती में कोई तान भी छेड़ देते। एक छोटी-सी ढोलकी हमारे घर में थी, उसे गले में लटकाकर जब वे गौरी भाभी को रिझाने के लिए तरंग में आकर ताल देते, तो क्या खूब फबते थे! और ऐसे क्षणों में मेरे मुँह से निकलता कि नंदू भैया तो बस, नंदू भैया ही हो सकते हैं!
हालाँकि बीच-बीच में कभी-कभार उनका दुख भी प्रकट होता, जिसे कभी वे बहने देते, कभी बचा ले जाते। यह व्यापार-बुद्धि वाले एक बड़े खानदानी घर में उनके कुछ-कुछ ‘मिसफिट’ होने का दर्द था।
मजे की बात यह है कि नंदू भैया दुकान पर बैठते थे, दुकान का हिसाब-किताब भी देखते थे, लेकिन तबीयत से हिसाबी-किताबी बिलकुल नहीं थे। एक व्यापारी परिवार में जहाँ पैसे से बढक़र कुछ और नहीं होता, इस तरह बगैर हिसाब के जीने के अपने खतरे थे। मगर नंदू भैया थे कि अपनी मस्ती बचाए हुए थे।
वे एक मजबूत चट्टान की तरह थे, जिसके चारों ओर पानी था। पानी ही पानी! लगता था, उस विशाल चट्टान का हिल पाना मुश्किल है। लेकिन फिर बरस-दर-बरस बीते, अगली पीढ़ी आई, जो कहीं ज्यादा ‘कैलकुलेटिव’ थी। ऊपर से शांत लेकिन भीतर असंवेदनशील और दुनियादार। छोटे भाई-भतीजों ने आ-आकर व्यापार सँभाला और उसके मुख्य-मुख्य चक्कों पर कब्जा कर लिया। वे सफल थे, क्योंकि वे संपर्कों और फायदे का ‘गुर’ जानते थे और नंदू भैया के पास उनके घनघोर फायदे के तर्कों का कोई जवाब नहीं था।
नंदू भैया अब भी इन तर्कों के जवाब में क्रोध से गरजकर अपने होने का परिचय दे सकते थे। यही वे करते भी थे। और जब वे गुस्से से थरथराते हुए चिल्लाकर कहते, “खामोश, अब एक शब्द भी आगे कहा तो...!” तो उस समय आसपास के लोग ही नहीं, दीवारें तक थरथरा जाती थीं। तब किसी बड़े से बड़े सूरमा की हिम्मत नहीं थी कि कोई उनके आगे जरा ‘चुसक’ जाए।...
लेकिन नई पीढ़ी को आना होता ही है। वह आती ही है, और अपने पूरे तौर-तरीकों के साथ, बड़े रहस्यात्मक बल्कि हिंसक ढंग से अपने से पुरानी पीढ़ी को खारिज करके आती है। नंदू भैया ने बदलना नहीं सीखा था, लिहाजा व्यापार में उनका ‘बदल’ सोच लिया गया। ज्यादातर मामलों में उन्हें अब कुछ बताया ही न जाता, बल्कि उनसे जान-बूझकर छिपाया जाता। यह उन्हें दरकिनार करने की चाल थी, जिसमें पिता, छोटे भाई-भतीजे सब शामिल थे।
अब नंदू भैया अपना दुख कभी-कभार मुझे बताते थे और कई बार तो बहुत ज्यादा विचलित होकर बताते थे। एक-दो बार तो उन्होंने ऊबकर कहा, ‘तू अपने शहर में ही मेरे लिए कोई नौकरी ढूँढ़ना। अगर डेढ़-दो हजार की भी हुई, तो मैं चला लूँगा। कहीं भी किसी तरह की भी हो। कुछ और नहीं तो किसी बनिए के यहाँ हिसाब-किताब की ही सही। मुनीमगीरी तो मैं कर ही सकता हूँ!”
सुनकर मैं मर्माहत हो गया। जिस आदमी ने जिंदगी भर कभी हिसाब-किताब नहीं किया, वह कहीं हिसाब-किताब देखने की नौकरी कर पाएगा ही नहीं। जानता था, यह उनसे नहीं होगा। नौकरी उनके बस की नहीं। क्योंकि नौकरी का अर्थ किसी न किसी रूप में तो गुलामी है। उन जैसे शाही अंदाज वाले परम स्वाधीन आदमी के बस की यह बात नहीं, जिसने कभी झुकना सीखा ही नहीं! और फिर हजार-डेढ़ हजार की नौकरी में तो नंदू भैया और उनके परिवार की सूखी रोटी भी नहीं चल सकती थी। यहाँ तक कि खाली उनके और बच्चों के कपड़ों-लत्तों का खर्च हजार-डेढ़ हजार से कम न होगा। पर यह बात उनसे कहे कौन?
मैं सिर्फ झूठे शब्दों का झूठा दिलासा देकर दुख पर राख डालता रहा और कहता, “भैया, जैसे ही किसी नौकरी की खबर लगेगी, मैं चिट्ठी लिख दूँगा। वैसे घर में सब आपकी इतनी इज्जत करते हैं। थोड़ा-सा एडजस्ट करना सीख लीजिए, चीजें आपसे आप हल हो जाएँगी।”
लेकिन यह जो ‘थोड़ा-सा एडजस्ट करना’ था, यही उन्होंने नहीं सीखा। सीख नहीं पाए जीवन भर। जानता था कि मुझसे ये सारी बातें वे इस अपेक्षा के साथ ही करते हैं कि कहीं न कहीं एक नैतिक दबाव धन की ‘माया’ से अंधे हुए घर के लोगों पर डालूँ, ताकि हालात कुछ बदलें। नंदू भैया की हालत यह थी कि प्राण चाहे चले जाएँ, लेकिन आन-बान नहीं जानी चाहिए। वे मेरे सिवा किसी और से अपने दुख और अभाव की कथा कह ही नहीं सकते थे। और मैं इतना भीरु, इतना कायर था कि सोचता था, क्यों सबके आगे ये बखेड़े खोलकर घर का माहौल खराब करूँ? घर के हालात तो आज नहीं तो कल जैसे-तैसे सुलझ ही जाएँगेे। तो मैं जो महीनों बाद घर आया हूँ, क्यों न चार दिन सुख से बिताकर ही लौटँू!
ऐसा नहीं कि नंदू भैया यह बात समझते न हों। वे खुद भी अपनी सारी ‘भाप’ निकालने के बाद उदासी भूलकर अपनी सदाबहार अदा में हँसने-गाने और अपने निहायत मौलिक किस्म के चुटकुले सुनाने में लीन हो जाते।
माँ खुश थीं। घर के और लोग भी खुश होते कि मेरे आने से नंदू भैया खुश हो जाते हैं। लेकिन मैं भीतर-भीतर रोता था। नंदू भैया की कही हुई बातें भीतर ही भीतर दस्तक देती थीं। और मन कच्ची दीवार की तरह भीतर ही भीतर ढहता, भुरभुराता रहता। मैं चाहकर भी नंदू भैया के मुतल्लिक कभी कुछ कह नहीं पाता था। या कभी थोड़ी-बहुत हिम्मत की भी, तो परिवार का व्यापारिक गणित इतना सख्त और जड़ था कि मैं आगे बात बढ़ा नहीं पाया। ऐसे तर्कों-कुतर्कों से मेरा मुँह बंद कर दिया गया कि आगे कुछ कहने का मतलब ही था, सीधे-सीधे लड़ाई छेड़ना!
फिर जैसी कि आशंका थी, एक फौरी बँटवारे के तहत नंदू भैया को अलग कर दिया गया। जो कुछ उनके हिस्से में आया था, उससे उनका खर्च मुश्किल से चल पाता था। उन्हें यह इतना अन्यायपूर्ण लगता था कि भीतर ही भीतर सुलगते थे। एक ज्वालामुखी था जो सोया पड़ा था। बहुत दिनों से वह गरजा नहीं था और लोगों ने सोच लिया था कि अब ज्वालामुखी, ज्वालामुखी नहीं रहा।
लेकिन ज्वालामुखी कभी सोया करते हैं? वे सिर्फ अपने लिए मौका तलाशते हैं।
8
नंदू भैया से आखिरी मुलाकात भी ऐसी ही एक सीझी हुई मुलाकात थी जिसमें दुख और खुशी के मिले-जुले गाढ़े रंग थे। अपने दुख उन्होंने सुनाए थे और अपनी विपद-कथा सुनाकर कहा था, नौकरी नहीं तो कोई छोटी-मोटी दुकान ही उनके लिए मैं देखूँ। बाहर वे कोई भी छोटा-मोटा काम कर सकते हैं, मगर इस शहर में उन जैसे खानदानी आदमी के लिए कोई छोटा काम करना भी हतक होगी।...
मैंने हमेशा की तरह उन्हें एक झूठा उत्साहपूर्ण दिलासा दिया था। फिर मेरे दोस्त आ गए तो उनके साथ हलके-फुल्के मजाक और चुटकुलेबाजी में वे ऐसे रमे कि अपना सारा गम भूल गए। उन्हें इतने जोरों से अट्टहास करते देखकर कोई अंदाज भी नहीं लगा सकता था कि इस अट्टहास का कोई रिश्ता उस दुख से भी है, जो उनके भीतर ही भीतर जमकर पहाड़ हुआ जाता था।
दोपहर को मुझे गाड़ी पकड़नी थी, लेकिन दोस्त थे कि मुझे कुछ देर के लिए खींचकर बाजार ले जाना चाहते थे। तब देर तक और दूर तक नंदू भैया की आवाज मेरा पीछा करती रही, “जरा जल्दी लौट आइयो चंदर। मैंने खुद अपने हाथ से तेरे लिए बेल का शर्बत बनाया है—स्पेशल!”
लेकिन मैं लौटकर आया तो ऐन गाड़ी के टाइम पर। नंदू भैया लपककर गए, रिक्शा ले आए। मैं हड़बड़ी में सामान के साथ बैठा और उनसे दूर होता चला गया। लगातार दूर होता चला गया।
गाड़ी में याद आया—अरे! नंदू भैया ने मेरे लिए बेल का शर्बत बनाया था। कितने प्यार से आग्रह किया था, लेकिन मेरी हड़बड़ी के कारण वह तो छूट ही गया। न उन्हें याद आया, न मुझे। छोटी-सी बात थी लेकिन किसी ‘अशुभ’ की तरह मन में गड़ गई!
लौटकर बनारस आया, तो उदास था। रात अचानक एक दु:स्वप्न की चीख के साथ आँख खुल गई। नंदू भैया रेल की पटरियों पर दौड़ रहे हैं, दौड़ रहे हैं...दौड़ते जा रहे हैं और पीछे आँधी की तरह तेज भागती राजधानी एक्सप्रेस...कि अचानक खत्म, सब खत्म! नंदू भैया का शरीर चिथड़े-चिथड़े हो गया।
वह पूरी रात जागकर काटी। सुबह उठते ही घर चिट्ठी लिखी, ‘नंदू भैया की बड़ी याद आती है। कल एक बुरा सपना देखा। घर में सब खैरियत तो है?’
पर चिट्ठी का जवाब आए, इससे पहले ही घबराया हुआ भतीजा आ गया, “चलिए चाचा, नंदू चाचा की तबीयत ठीक नहीं...हार्ट अटैक!”
मैं पत्नी और बच्चों के साथ हड़बड़ाया हुआ घर गया तो अंतिम संस्कार हो चुका था।
मैं कुछ समझ पाऊँ, इससे पहले छोटा भाई हाथ पकड़कर मुझे एक ओर ले गया। बोला, ‘चलिए मेरे साथ...!’
थोड़ी देर में मैं नंदू भैया की जलती हुई चिता के सामने था और मन को यह विश्वास दिलाने की असफल-सी कोशिश कर रहा था कि यहाँ जो जल रहा है, वही नंदू भैया हैं।
“कल रात की बात...! उन्होंने कीड़े मारने वाली दवा की गोलियाँ खा ली थीं। पुलिस केस बनता, इसलिए जल्दी करना जरूरी था। शहर में दुश्मन भी तो कम नहीं हैं, हालाँकि किसी की हिम्मत नहीं पड़ी। असल में...पुलिस अफसर अपने गुप्ता जी का खास दोस्त...!” छोटा भाई समझा रहा था।
चिता जल रही है, जिसमें नंदू भैया की विशाल काया के साथ-साथ उनके भीतर के दुखों का पूरा पहाड़ भी धू-धू धधक रहा है।
“नंदू भैया, तुम इतने धोखेबाज निकलोगे, इतने धोखेबाज? मैंने नहीं सोचा था। तुम मुझे क्यों छोड़कर चले गए? क्यों! मुझे तो तुम्हारा ही सहारा था।” मैं फूट-फूटकर रो रहा था।
“चलो भैया, अब तो सब खत्म हो गया।” छोटा भाई बाँह पकड़कर मुझे सांत्वना दे रहा है।
“क्या गोलियाँ खाते ही तत्काल हो गई थी मृत्यु? तुम्हें पता कैसे चला?”
“वे आधी रात को बुरी तरह दरवाजा भड़भड़ा रहे थे। हम लोग दौड़कर पहुँचे, तो एकाएक जमीन पर लोट गए। उनके आखिरी शब्द थे, ‘मुझे बचा लो भाई...मुझे बचा लो, मैं जीना चाहता हूँ।”
“हम उन्हें बचा नहीं सके। हम गाड़ी में डालकर अस्पताल ले गए थे, लेकिन...” छोटा भाई हिलक-हिलककर रोने लगा।
“क्या कुछ दिनों से कुछ खास परेशानी में थे?”
“सुना है, कुछ कर्जा ले लिया था, दस-पंद्रह हजार। वह भी अपने लिए नहीं अपने किसी दोस्त के लिए! उसे चुका नहीं पा रहे थे। हमें बताया ही नहीं, नहीं तो...”
—तुमने क्या सचमुच कभी जानना चाहा, वे किस दुख-परेशानी मे थे? बड़े भाई होकर छोटे से कुछ माँगना उनके लिए हतक थी। मरते-मरते भी उन्होंने साबित कर दिया...कि वे झुकने के लिए नहीं पैदा हुए थे। तुमने उन्हें समझा नहीं!—कहना चाहता था, कहा नहीं गया।
9
छोटा भाई अब सीझा-सा खड़ा था और मेरे भीतर नंदू भैया के आखिरी शब्द गूँज रहे थे, ‘कोई छोटी-मोटी नौकरी मेरे लिए देखना चंदर! मैं इस घर में बहुत दूर चला जाना चाहता हूँ।...’
और सचमुच वे दूर, बहुत चले गए।
उन्होंने तो अपनी आन की रक्षा कर ली। लेकिन मैंने...? मैंने क्या किया उनके लिए, उनके सारे प्यार और विश्वास के बावजूद!...
अपने ही शब्दों की गूँज लौट-लौटकर फिर मुझ तक आती है। मन के भीतर कोई और मन है। वह सीधे-सीधे आँखों में आँखें डाल, मुझसे पूछ रहा है, “धोखेबाज कौन था चंदर? कौन था कृतघ्न? नंदू भैया...या...या...या?”