नकाब का नाटक : सर रिचर्ड बर्टन
(प्रख्यात अँग्रेज लेखक सर रिचर्ड बर्टन (1821-1890) एक हरफन मौला यात्री भी था। उसने कुछ समय तक ब्रिटिशकालीन भारत की सेना में भी काम किया था। यह कहानी उसकी अपनी है लेकिन एक गोवानी के मुँह से इस तरह कहलवायी है जैसे किसी अन्य अफसर की हो, उसने अपने नौकर का नाम भी बदलकर खुदादाद रख दिया है।)
करीब दस बरस पहले की बात है, साल्वाडोर ने कहा - मैं अपने मालिक लेफ्टिनेण्ट... के साथ गोवा वापस आया। मेरे मालिक बड़े चतुर और हरफनमौला थे। चाहे जितने लोग हों, वे सबसे अलग-अलग बातें कर लेने में माहिर थे, और वह भी अपनी जबान में, और मजा यह कि सब उनसे खुश होते और ताज्जुब करते रह जाते। एक मुसलमानी देश में उन्होंने एक लड़की से शादी की और हफ्ते भर बाद तलाक दे दिया। वे धड़ल्ले से कुरान भी सुना सकते थे और बेखतना कुत्ते उन्हें एक साधू भी समझते थे। सचमुच, वे बेहद शातिर साहब थे। कर्जा वसूलने वाला लाल-पीला होता हुआ आए और उनसे मिलकर गऊ की तरह लौट जाए, यह मामूली बात थी...
और फिर साहब गोवा पहुँचे तो इतने पवित्र ईसाई हो गये कि एक पादरी को उन्होंने घर में रख लिया-पुर्तगाली भाषा सिखाने के लिए और दिन में एक बार प्रार्थना में शामिल होने लगे... जब वह पुराना शहर देखने गये तो उन्हें सरकारी जाँच-पड़ताल की अव्यवस्था पर गहरा दुख हुआ। उन्होंने सेण्ट फ्रांसिस के पादरी को बार-बार दावत देना प्रारम्भ कर दिया, और वह सीधा-सादा व्यक्ति इन्हें ऋषि के समान मानने लगा। मुझे लगा कि मेरे मालिक कोई नयी चाल चल रहे हैं।
मेरे मालिक सन्त मोनिका की व्यवस्थापिका के साथ अपना फुरसत का समय बिताने लगे। वह बहुत अच्छी महिला थी। उस महिला को बताया गया कि मेरे मालिक की एक बहन नन बनना चाहती है। उसे एक अच्छी और सुविधाजनक देखभाल करने वाली सहेली की जरूरत पड़ेगी, तब उन्हें न सिर्फ कॅन्वेण्ट के आवास दिखाये गये बल्कि कुछ ननों से परिचित भी कराया गया। उन्होंने कॅन्वेण्ट की व्यवस्था, अनुशासन, धार्मिक शिक्षा आदि के प्रति काफी रुचि दिखायी और कई कल्याणकारी योजनाएँ बनायी। लेकिन व्यवस्थापिका को एक अँग्रेज लड़की के अतिरिक्त और किसी चीज की इच्छा नहीं थी, सिवा उसके सौ रुपये मासिक के, जो एक भाई अपनी बहन की देख-भाल के लिए आग्रहपूर्वक देना चाहता था।
कॅन्वेण्ट की दूसरी शिक्षिकाएँ भी सुन्दर थीं। वे भद्दे ढंग के सफेद कपड़े पहनती थीं, उनके बाल आदमियों के बालों की तरह कटे हुए थे। लेकिन वह लेटिन की प्रोफेसर... वह अच्छी, सुन्दर और गोरी लड़की थी। उसकी आँखें काली और बड़ी थीं, मुसकान आकर्षक थी और उसके नाक-नक्श भी बहुत तीखे थे। जैसे ही मैंने उस प्रोफेसर की सूरत देखी, मैं सारा मामला समझ गया।
मेरे मालिक को उस प्रोफेसर से मिलने में कुछ कठिनाई हुई, क्योंकि वह उन्हें देखती ही नहीं थी, दूसरे उसकी बड़ी बहन हमेशा उसके साथ रहती थी। लेकिन फिर भी मेरे मालिक ने मिलने की जुगत भिड़ा ही ली। मुझे भी उनकी योजना का हिस्सा बनना पड़ा।
मुझे काफी समझा-बुझाकर उन भिक्षुणियों के आवास पर भेजा गया। मैं अपने साथ अनेक उपहार ले गया, उनमें कुछ उस लेटिन की प्रोफेसर के लिए भी थे। मैंने उसे चमेली के फूलों का एक गुलदस्ता दिया, उसमें गुलाबी रंग का एक छोटा-सा पत्र भी था। उसका एक कोना फूलों के बाहर झाँक रहा था। मुझे भेद खुल जाने का डर था लेकिन उस समय मुझे सन्तोष हुआ, जब उसने वह पत्र धीरे से खींच लिया और कमरे में चली गयी। मैंने उन्हें बताया कि मेरे मालिक कुछ बीमार हैं। मुझसे मालिक के सम्बन्ध में अनेक प्रश्न पूछे गये, जैसे-वह कौन हैं, उनके माता-पिता कौन हैं, कितने पढ़े-लिखे हैं, कहाँ-कहाँ घूमे हैं, क्या करते हैं, पद क्या है, वह अपनी बहन को कितना प्यार करते हैं? आदि। मैंने उचित जवाब देकर उन्हें सन्तुष्ट कर दिया। जब वह प्रोफेसर अपने कमरे से लौटी तो उसके हाथ में सन्त ऑगस्तीन की जीवनी थी। वह उसने मुझे मालिक के लिए दे दी। मैं उन सबसे अपने मालिक के स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना करने का निवेदन करके लौट आया।
फिर एक नाटक रचा गया। मेरे मालिक ने उन सम्माननीय महिलाओं से बम्बई जाने के लिए विदाई ली। अपनी माँ और बहन से मिलकर जल्द ही लौट आने का वादा किया और बड़े ही स्वाभाविक ढंग से आँखों में आँसू भी भर लिये गये। मैं सामान बाँधने में व्यस्त हो गया, अपने सभी सेवकों को मालिक ने ड्रामा समझाया। रात होते ही सब डकैतों की वेश-भूषा में तैयार हो गये। मेरे मालिक एक मुसलमान डकैत की तरह दिखाई देने लगे।
इतनी तैयारी महिलाओं के उस असुरक्षित आवास पर धावा बोलने के लिए थी। रात को वहाँ कुछ पहरेदार नियुक्त होते थे। इसलिए सम्भावित दुर्घटना का सामना करने के लिए खुले चाकू लिये गये थे। यह तो मुझे बाद में पता चला कि उस प्रोफेसर लड़की ने पहरेदारों की तम्बाकू में धतूरे के बीज मिला दिये थे।
रात, ठीक बारह बजे सब लोग ननों के आवास के पिछवाड़े पहुँच गये। पिछवाड़े का दरवाजा नकली चाबी से खोला गया। एक आदमी ने गीदड़ की बोली बोलकर सभी साथियों को सचेत कर दिया, उसे उत्तर में भौंकते हुए कुत्तों का संकेत भी मिल गया। मालिक ने अपने एक सेवक खुदादाद को दरवाजे पर छोड़ दिया और वह कुछ लोगों के साथ अन्दर चले गये। लेकिन उनसे एक गलती हो गयी। वह प्रोफेसर के कमरे की जगह दूसरी नन के कमरे में पहुँच गये और धोखे से उसे उठा लाये। बाहर आकर दरवाजा बन्द कर दिया गया और चाबी फेंक दी गयी।
जैसे ही मालिक की नजर उस नन के चेहरे पर पड़ी, वह सन्न रह गये। वह एक बदसूरत और काला चेहरा था। अब मालिक को अपनी गलती का पता चला लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था। दरवाजा मजबूत था, बगैर चाबी के खुल नहीं सकता था और चाबी फेंकी जा चुकी थी। खुदादाद ने उस नन का गला काट देने की सलाह दी लेकिन मेरे मालिक ने ऐसा नहीं होने दिया।