Nai Kavita Ke Utthan Ki Rekhaein (Hindi Nibandh) : Ramdhari Singh Dinkar
नई कविता के उत्थान की रेखाएँ : रामधारी सिंह 'दिनकर'
एक मित्र ने पूछा–हिन्दी कविता इतनी पतली क्यों हो गई है? मैंने उत्तर दिया–विशिष्ट होते–होते। स्थूल और मोटी चीजों को जब हम विशिष्टीकरण की खराद पर चढ़ाते हैं, तब वे कुछ–न–कुछ पतली हो ही जाती हैंय क्योंकि पतलापन चुस्ती का ढाँचा है।
विशिष्टीकरण वर्तमान सभ्यता का सार है। आज तो हर मोटी चीज अपने को पतली बनाने के क्रम में है। केवल कविता ही नहीं, गृहनिर्माण, पोशाक और साज–सज्जा में एक प्रकार की सूक्ष्मता, एक तरह के पतलेपन या चुस्ती की माँग है। यह ठीक है कि इस सभ्यता के साथ बहुत–सी अनावश्यक आवश्यकताएँ भी लिपटी हुई हैंय किन्तु वे मुख्यत: औद्योगिकता की देन हैं। जहाँ तक मूल प्रवृत्ति का प्रश्न है, हम उन सामग्रियों को छोड़ देने के पक्ष में होते जा रहे हैं, जिनके बिना हमारा काम चल सकता है। औरतों ने भारी–भारी गहने छोड़ दिये, मर्दों ने पगड़ी, चोगा और फेटा छोड़ दिया और शस्त्रीकरण की प्रक्रिया में अब तोपों और टैंकों को छोटे–छोटे बम नीचा दिखा रहे हैं। प्राचीन काल के जड़ाऊ वस्त्रों को देखकर मन में श्रद्धा तो आज भी होती हैय किन्तु उन्हें पहनकर निकलने की हिम्मत अब बिरले ही लोगों में रह गई है। यहाँ तक कि अब राजे–महाराजे भी भारी–भरकम पोशाकों की अपेक्षा सीधी–सादी, हल्की पोशाक पहनने में ही सुविधा और सम्मान देखते हैं। एक बुश्शर्ट को ही देखिए। जिस तेजी से इसका प्रचार सभी श्रेणियों के लोगों में बढ़ रहा है, उससे यह साफ जाहिर होता है कि वर्तमान सभ्यता हल्केपन और चुस्ती को सबसे अधिक अंक देने के पक्ष में है।
जो अनावश्यक है, उसकी उपेक्षा और त्याग तथा जो कुछ अनिवार्य है, उसका अधिकाधिक विकास, विशिष्टीकरण के ये दो सामान्य लक्षण हैं। सड़कों की विशेषता उनकी समतलता और चिकनाई है। अतएव इन दोनों का हम अधिकाधिक विकास कर रहे हैं। मकानों की विशेषता उनका हवादार होना और आराम की सुविधा है। अतएव सबसे अधिक खयाल हम उन्हीं का करते हैं। और भोजन की विशेषता उसकी पौष्टिकता है। इसलिए विटामिनों पर आज सबसे ज्यादा जोर है। ‘छिलके नहीं, बीज’–यह विशिष्टीकरण का मुख्य नारा माना जा सकता है।
काव्य के क्षेत्र में भी वही हुआ, जो जीवन के अन्य क्षेत्रों में हो रहा है। एक तरह से देखिए, तो नई कविता का जन्म ही इस कारण हुआ कि लोग स्थूलता को छोड़कर बारीकी की ओर जाना चाहते थे। अलंकार, भाषा और छन्द–सभी काव्य के उपकरण माने जाते हैं। मगर उनके संयोग से कविता की केवल मूर्ति ही तैयार होती है, जान तो उसमें कवि की आत्मा, उसकी अनुभूति की सच्चाई और मनोदशा की उस विह्वलता से आती है, जो कवि को अकवि से भिन्न करनेवाला प्रधान गुण है। कविता के भीतर जो एक अनिर्वचनीय विलक्षणता है, वही कविता की असली जान होती है और उसी के संसर्ग में आने से भाषा, छन्द और अलंकार सजीव हो उठते हैं। यह विलक्षणता प्राचीन कविता में भी थी। किन्तु, तब उसके चारों ओर और भी अनेक सामग्रियाँ अपने को प्रधान मानकर जुड़ी रहती थीं। कालक्रम में कविता ने सोचा, वह उसी तत्त्व को लेकर जिएगी, जो उसकी जान है। बाकी सामान न भी रहें या कुछ कम भी हो जाएँ, तो कोई मुजायका नहीं। शरीर में आत्मा ही प्रधान है। और आज तो शरीर की मोटाई अवगुण ही मानी जा रही है। तभी तो लोग भोजन में नियंत्रण करके अथवा व्यायाम के द्वारा अपने बदन को हल्का, पतला, चुस्त और फुर्तीला बनाना चाहते हैं। जिसे हम आधुनिक कविता कहते हैं, वह भी ठीक, इसी तरह पतली, चुस्त और फुर्तीली होने की कोशिश में है। और जिस प्रकार, वर्तमान युग, जीवन में विषमता की सत्ता को नहीं मानना चाहता, खान–पान और कपड़े–लत्ते में एक प्रकार की समानता लाना चाहता हैय उसी प्रकार, नई कविता भी सामान्य उपयोग में आनेवाली भाषा को अपनी भाषा बनाना चाहती है। जमाना नहीं चाहता कि श्रोता एक भाषा बोले और कवि एक दूसरी भाषा में बात करे। अगर कविता की रूह अलंकार और काव्यात्मक भाषा से भिन्न वस्तु है, तो कवि को उनके ऊपर अपना दारोमदार नहीं रख के, रोज की बोली में अपनी मनोदशा का चित्र उपस्थित करना होगा। ऐसा नहीं चल सकता कि काव्यात्मक भाषा के प्रयोग के द्वारा कवि का अपना परिश्रम तो घट जाए और पाठक को चित्र तक पहुँचने के लिए आवरण तोड़ने को परिश्रम करना पड़े। कविता की भाषा भी बोलचाल की सामान्य भाषा हो, इस आन्दोलन का आरम्भ अंग्रेजी में वर्ड्सवर्थ ने किया था और हिन्दी में कदाचित स्वयं भारतेन्दु ने। किन्तु अब तक के प्रयोगों से काम पूरा नहीं हुआ। कविता बार–बार अपने लिए विशिष्ट भाषा उत्पन्न कर लेती है। फिर भी प्रयास जारी है कि कवि की भाषा सामान्य मनुष्य की भाषा से भिन्न नहीं हो।
तुलना और विश्लेषण करने से यह भी पता चलता है कि नई कविता प्राचीन काव्य से इसलिए भी भिन्न है कि उसमें आनेवाली तसवीरें कारण–कार्य के नियमों की अधीनता को नहीं मानकर, अक्सर, भावों की संगतियों और संसर्गों तथा विचारों की समता से ही उत्पन्न हो जाती हैं, कि जो कुछ परम्परा से काव्यात्मक माना जाता है, उसकी उपेक्षा करके नई कविता उसे भी काव्यात्मक मानती है, जो उपेक्षित रहा है अथवा जो सामान्य और साधारण है। वह उदात्त नायक और महापुरुषों को छोड़कर बहुधा जनसाधारण को भी अपना नायक चुन लेती है। छन्दोबंध और अनुप्रासों की झड़ी को वह अपना अनिवार्य गुण नहीं मानती। वह वस्तुओं के तद्गत रूप का वर्णन नहीं करके, उनके आत्मगत रूप का वर्णन करती है, यानी वह इसे नहीं देखती कि फूल स्वयं कैसा है, बल्कि वह यह दिखलाना चाहती है कि फूल देखनेवाले को कैसा लग रहा है तथा उसे देखने से उसमें किन–किन भावों की स्फुरणा होती है। वह अरूप का रूप और रूप का अरूप विधान करती है तथा अपने समय की शीतलता और उष्णता का चित्रण करने के लिए अपने अनुरूप नवीन भाषा, नये छन्द और दूसरी अनेक नई शैलियों को जन्म देती है।
मगर, इनमें से अधिकांश गुण तो सभी अच्छी कविताओं में पाए जाते हैं। इसीलिए मनोदशा की सच्चाई को लेकर सभी उत्तम कविताओं में एक प्रकार की समानता देखी जाती हैय क्योंकि सभी कवि एक ऐसी चेतना के वाहक होते हैं, जो काव्य की भूमि से अलग काम करनेवालाें में नहीं होती। यह वही चेतना है, जिसे देखकर लोग अक्सर ही कह उठते हैं कि यह तो कविता हो गई अथवा यह तो कवि के समान हो गया। कविता का जो मौलिक गुण है, उसे लेकर कितने ही प्राचीन कवि भी नवीन कवियों के समीप पड़ जाते हैं। तुलसी, सूर, विद्यापति, घनानन्द, मीरा और कबीर जैसे कवियों में हमें ऐसी पंक्तियाँ मिलती ही रहती हैं, जिन्हें देखकर हम सोचने लगते हैं कि ये तो बहुत–कुछ नवीन कविताओं के ही समान हैं। और, सच ही, ये पंक्तियाँ आनेवाली कविता की पूर्व कल्पना–सी लगती हैं :
जहँ बिलोकु मृगशावक नैनी, जनु तहँ बरसु कमलसित सैनी।
सुन्दरता कहँ सुन्दर करई, छबिगृह दीप–शिखा जनु बरई।
अथवा :
सब जग जलता देखिए, अपनी–अपनी आगि।
ऐसा कोई ना मिला जासों रहिए लागि॥
तुलसीदास जी की पहली अर्द्धाली में सीता जी की आँखों का वर्णन नहीं, बल्कि इस बात का वर्णन है कि उन आँखों से निकलनेवाली ज्योति कितनी कोमल लगती है। और दूसरी अर्द्धाली में भी अवयवों का चित्रण नहीं, बल्कि, अनिर्वचनीय प्रभाव का वर्णन है, जो सभी अवयवों के सम्मिलित योग से फूटनेवाले सौन्दर्य से उत्पन्न होता है।
और कबीर का यह दोहा भी उस समय के साहित्य के लिए एक नया स्वर मालूम होता हैय क्योंकि, इसमें संसार की वेदना प्रधान नहीं है, बल्कि, असर यहाँ कवि की उस आत्मगत विह्वलता का है, जो विश्ववेदना को देखकर उसके अपने हृदय में उत्पन्न हुई है।
किन्तु नई कविता का जन्म कब हुआ? क्या पंत और निराला की रचनाओं मेंय अथवा प्रसाद जी की उन कविताओं में, जो ‘प्रेम पथिक’, ‘चित्राधार’ और ‘झरना’ में संगृहीत हैं? या उससे भी पहले माखनलाल जी की इन पंक्तियों में, जिनकी रचना वर्तमान शताब्दी के पहले दशक के अन्त और दूसरे के प्रारम्भ में हुई थी?
मुझसे कह छल–छन्द बने जो शान दिखानेवाले,
मैं तो समझूँगा बाहर क्या? भीतर भी हो काले।
(1908)
मार पाँच बटमार साँवले, रह तू पंचवटी में,
छिने प्राण–प्रतिमा तेरी भी काली पर्णकुटी में।
(1911)
कुटिल कटाक्ष कुसुम–सम हाेंगे, यह प्रहार गौरव होगा,
पद–पद्मों से दूर स्वर्ग भी जीवन का रौरव होगा।
(1914)
मगर इतना ही नहीं, हमें और भी पीछे जाना होगा। सन् 1877 के लगभग भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र ने कितनी ही ऐसी कविताएँ लिखी थीं, जिनमें आनेवाली कविता की नन्ही किरणें जहाँ–तहाँ प्रक्षिप्त मिलती हैं। भारतेन्दु हिन्दी के गद्य ही नहीं, उसकी नई कविता के भी जनक सिद्ध किये जा सकते हैं। यह सिर्फ इसलिए ही नहीं कि खड़ी बोली में काव्य रचने का सचेष्ट प्रयोग उन्होंने आरम्भ किया और कविता के हृदय में समकालीनता के प्रति जो एक झिझक थी, उसे दूर करने की कोशिश कीय बल्कि इसलिए भी कि उनकी सम्पूर्ण दृष्टि नवीन थी तथा उसकी चेतना और मनोदशा में नवयुग की रश्मियाँ स्पष्ट रूप से जगमगा रही थीं। जब समाज में नई चेतना आती है, जब उसकी अनुभूति की दिशा में परिवर्तन होता है, जब मनुष्य में नये विकार उत्पन्न होते हैं और वह जीवन को पहले की अपेक्षा किसी भिन्न दृष्टिकोण से देखना चाहता है, तब साहित्य में क्रान्ति होती है और उसकी शैलियाँ परिवर्तित होने लगती हैं। कभी तो मूल्यों में परिवर्तन होने पर साहित्य की निन्द्रा टूटती है और वह नये मूल्यों की स्थापना की ओर अग्रसर होता है और कभी साहित्य ही जीवन में मूल्य–परिवर्तन का कारण बन जाता है। हिन्दी में मूल्य–परिवर्तन की प्रक्रिया पहले आरम्भ हुई और साहित्य उसके पीछे सँभला।
हमारे यहाँ छायावाद के नाम से जो आन्दोलन आया था, उसकी बीसों प्रकार की व्याख्याएँ की गई हैं और, प्राय:, अधिकांश कविताएँ ‘सान्त’ और ‘अनन्त’ के इर्द–गिर्द चक्कर काटती रही हैं। किन्तु ऐसी व्याख्याओं से समस्या का निदान नहीं होता। असल सवाल यह नहीं है कि छायावादकालीन रचनाओं में वह धुँधला–जैसा कौन–सा तत्त्व था, जो लोगाें को रहस्यवाद–सा दीख पड़ा, प्रत्युत समीचीन प्रश्न तो यही हो सकता है कि क्या कारण था कि हिन्दी के कवि परम्परा से दूर हटकर नये स्वर में बोलने लगे।
तो भी माखनलाल, प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी का स्वर आकस्मिक नहीं थाय क्योंकि उसका यत्किंचित् आभास भारतेन्दु बाबू की रचनाओं में पहले ही मिल चुका था। सच पूछिए तो, अंग्रेजी भाषा और साहित्य तथा यूरोपीय सभ्यता और विज्ञान के संसर्ग से भारतीय जीवन में जो एक नई चेतना उत्पन्न हुई थी, हिन्दी में उसकी अनुभूति सबसे पहले भारतेन्दु जी को हुई। और इसका कारण भी था। भारतेन्दु बाबू केवल संस्कृत और फारसी के ही नहीं, बल्कि अंग्रेजी, बंगला और मराठी के भी विद्वान थे, जिन भाषाओं का साहित्य यूरोपीय साहित्य से प्रभाव ग्रहण करके नया रूप धारण कर रहा था। इसके सिवा, देश के तत्कालीन कितने ही सुधारक और विद्वान उनके अपने मित्रों में से थे। यह भी ध्यान देने की बात है कि वे केवल विद्यारसिक ही नहीं थे, प्रत्युत् अपनी समस्त विद्या–बुद्धि और आन्तरिक जागरण के द्वारा वे समाज के रूप को प्रभावित करना चाहते थे। संस्कार में रस पहुँचानेवाली उनकी शिराएँ केवल प्राचीनता के गह्वर से ही लगी हुई नहीं थीं, बल्कि उनमें से अनेक का लगाव नवीनता के अनन्त उत्सों से भी था और वे नये फूलों का भरपूर रस ले चुके थे। यही कारण है कि परम्परा से आनेवाली सामग्रियों के ढेर में बैठे रहने पर भी वे भविष्य की ओर इंगित करते हैं। उनके एक ओर पद्माकर, द्विजदेव और पजनेस हैं तथा दूसरी ओर द्विवेदी, मैथिलीशरण, शंकर और पूर्ण की गोष्ठी पड़ती है। इन दो गोष्ठियों के बीच बैठे रहने पर भी उनका कंगूरा सबसे ऊपर दिखाई देता है और ऐसा लगता है कि इस कंगूरे की पगड़ी सिर्फ उसी चोटी में बाँधी जा सकती है, जिसे माखनलाल, प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी ने खड़ा किया है। प्राचीनता के भार से लदी हुई ब्रजभाषा में लिखते हुए भी उनका स्वर अपने पूर्वजों के स्वर से भिन्न था। इतना ही नहीं, बल्कि कहीं–कहीं तो ऐसा मालूम होता है, मानो आनेवाले युग की कविता के अंकुर उनकी रचनाओं के भीतर से झाँक रहे हों :
स्रवनन पूरो होइ मधुर सुर अंजन ह्वै दोउ नैन।
× × ×
बैन हूँ अथान लागै, नैन कुम्हिलान लागे,
प्राननाथ आओ अब प्रान लागे मुरझान।
× × ×
देख्यो एक बारहूँ न नैन भरि तोहि यातें,
जौन जौन लोक जैहैं तहीं पछितायँगी।
बिना प्रानप्यारे भये दरस तिहारे हाय,
देखि लीजो आँखें ये खुली ही रहि आयँगी।
ये पंक्तियाँ किसी भी प्रकार पद्माकर या द्विजदेव अथवा उनसे पूर्व के रीति–कवियों की रचनाओं में नहीं खप सकतीं। तीनों उद्धरणों में कवि की जो वैयक्तिक विह्वलता व्यंजित होती है, वह और किसी की भी अपेक्षा छायावादकालीन कवियों से समीपता रखती है और, निश्चय ही, इनमें हम उस कविता की पूर्व कल्पना पाते हैं, जो बहुत आगे चलकर निखरनेवाली थी।
यह भी ध्यान देने की बात है कि इन पंक्तियों की भाषा में न तो बहुत तोड़–मरोड़ है और न वह जटिलता, जिसे भारतेन्दु के पूर्वज कवियों ने पैदा किया था और जो उनकी कविताओं का एक खास अवगुण बन गई थी। भाषा तो उनकी भी ब्रजभाषा ही है, किन्तु कविता पर उसका तनिक भी रौब नहीं है। ऐसा लगता है कि भाषा की परम्परा–पूजित काव्यात्मकता का तिरस्कार करके कवि सीधी–सादी बोली में अपनी व्यथा दूसरों तक पहुँचाने को बेचैन है। अनुभूति की विह्वलता काव्य की असली प्रेरणा होती है। यहाँ हम सिर्फ उसी का चमत्कार देखते हैं। यह गुण तो हम भारतेन्दु की, प्राय:, सभी कविताओं में देखते हैं और यह देखकर हमें आश्चर्य भी होता है कि पजनेस तक आते–आते जब ब्रजभाषा इतनी जटिल और दुर्बोध हो गई थी, तब भारतेन्दु के हाथ में आते ही वह फिर से सरल कैसे हो गई? इसका एक प्रबल कारण उनकी समर्थता रही होगी। किन्तु वैसा ही दूसरा प्रबल कारण यह भी था कि भारतेन्दु सच्चे मानी में नये मूल्यों के निर्माता थे और एक सच्चे आधुनिक कवि की भाँति वे अपनी अनुभूति, वेदना और विश्वास को ही अपनी सबसे बड़ी पूँजी मानते थे, उसे सहारा देनेवाले टेढ़े–मेढ़े उपकरणों को नहीं। कविता हृदय की चीज है और उसे वे अपने हृदय से निकालकर दूसरों के हृदय में ही उँड़ेलना चाहते थे, उनकी आँखों या कानों में नहीं। मेरा विचार है कि हिन्दी कविता के विशिष्टीकरण की प्रक्रिया की नींव, इस प्रकार, भारतेन्दु ने ही डाली। भारतेन्दु ने कहा था :
भाव अनूठो चाहिए, भाषा कोऊ होय।
अगर वर्तमान व्याख्या के प्रसंग में हम इस टुकड़े के अर्थ की व्याप्तियों पर विचार करें, तो सम्भव है कि इसका एक अभिप्राय यह भी निकले कि कविता जिस गुण के कारण कविता कहलाती है, वह भाषा अथवा शैली की सजावट के अधीन नहीं है। महाकवि अकबर का भी एक शेर है, जो इसी से मिलता–जुलता अर्थ देता है :
मानी को छोड़कर जो हों नाजुक बयानियाँ,
वह शेर नहीं, रंग है लफ्जों के खून का।
मगर भारतेन्दु बाबू ने जो प्रयोग किया, उसे उठाकर आगे ले चलनेवाले लोग ठीक उनके बाद नहीं आए। ऐसा लगता है, मानो उनके गोलोकवास के बाद उनके उत्तराधिकारियों ने यह समझ लिया हो कि भारतेन्दु उनसे खड़ी बोली में देशभक्ति का राग अलापने को कह गए हों।
इस उत्तराधिकार का निर्वाह बड़ी ही भयंकरता से किया गया। सन् 1885 (भारतेन्दु के निधन का वर्ष) से लेकर सन् 1915 या 1920 तक हिन्दी कविता में खड़ी बोली का प्रयोग तो बड़े ही उत्साह और अध्यवसाय से किया जाता रहा। किन्तु भावपक्ष में इस काल की कविता, प्राय:, रसहीन हो गई। कहते हैं, स्वामी दयानन्द के पवित्रतावादी आन्दोलन के चलते इस काल की कविता में सौन्दर्य का आलोक नहीं रहा। तब भी नवीन कविता के हम सभी प्रेमी इस काल के कवियों के ऋणी हैंय क्योंकि 30 वर्षों तक उन्हीं के जोतते रहने से खड़ी बोली की भूमि इतनी चिकनी और नम हो सकी, जिसमें से छायावादकालीन कविता के द्रुम लहलहा उठे। खड़ी बोली को काव्यभाषा के रूप में विकसित करने का कार्य भी नवीनता के ही सन्देशों की स्वीकृति थी और समसामयिक जीवन को काव्य में अधिष्ठित करके भी ये कवि कविता की भाव–भूमि को ही विस्तृत बना रहे थे। इस दृष्टि से वे सब–के–सब क्रान्तिकारी माने जा सकते हैं। क्योंकि उन्होंने इस परम्परा को तो तोड़ ही डाला कि कविता सिर्फ ब्रजभाषा में हो सकती है। उन्होंने जिस दूसरी रूढ़ि का खंडन किया, वह यह भावना थी कि धर्म, स्त्री, प्रेम, विरह, पावस, वसंत, राजा और युद्ध के सिवा और कोई भी वस्तु या व्यक्ति कविता का विषय नहीं हो सकता है।
इन दो कारणों से, भारतेन्दु और छायावाद, इन दो युगों के बीच पड़नेवाले कवि भी क्रान्तिकारी थे और उन्होंने जो कुछ भी लिखा, उससे आगे आनेवाली कविता के लिए भूमि तैयार हुई। केवल माखनलाल और प्रसाद की ही पंक्तियाँ नहीं, बल्कि, 1912 या 1913 में स्वर्गीय लक्ष्मणसिंह ‘मयंक’ द्वारा पत्नी–वियोग पर लिखा गया यह पद भी बतलाता है कि नई कविता के जो बीज भारतेन्दु ने मिट्टी में गिराये थे, वे भली भाँति सिक्त होकर अब अंकुरित हो रहे थे :
गंगा माँ के वक्षस्थल पर, उस दिन शीतल निर्मल जल पर,
देखी थी तब स्वर्गीय छटा, फिर सघन घनों की घोर घटा।
गूँजा था स्वर झंकार नया, दीखा था सब संसार नया,
मानस को उथल–पुथल करके, गंगाजल को उज्ज्वल करके,
तू किधर गई? उड्डीन हुई? हा, किस दिगन्त में लीन हुई?
फिर भी आश्चर्य होता है कि नई चेतना के जो रूप माखनलाल, प्रसाद और मयंक की इन पंक्तियों में मिलते हैं, वे तत्कालीन अन्य कवियों में क्यों नहीं मिलते? इन तीन कवियों को हम छायावाद की आरम्भिक कड़ी कह सकते हैं, क्योंकि नवयुग की चेतना पहले इन्हीं की प्रतिभा पर चढ़कर हिन्दी–काव्य में पहुँची।
वैसे छायावाद का आविर्भाव हिन्दी में सन् 1920 ई. से माना जाता हैय जिस वर्ष को हम, शायद, असहयोग–आन्दोलन के कारण अधिक प्रमुखता देते हैं।
छायावाद–आन्दोलन पर हिन्दी में काफी लिखा गया है और मैं भी अपनी ‘मिट्टी की ओर’ नामक पुस्तक में उस पर अपना विचार प्रकट कर चुका हूँ। अब हम यह, प्राय:, मानने लगे हैं कि हमारे साहित्य में यह उसी प्रकार का आन्दोलन था, जिस प्रकार का आन्दोलन अठारहवीं सदी के अन्त में अंग्रेजी साहित्य में आया था तथा इसके पीछे केवल रवीन्द्र ही नहीं बल्कि अंग्रेजी के रोमांटिक कवियों के स्वर भी विद्यमान थे। यह भी ध्यान देने की बात है कि हिन्दी में जब छायावादी आन्दोलन जारी था, तब उसके कवि अपने समर्थन में घनानन्द, मीरा और कबीर की वैयक्तिक अनुभूतियों का भी उद्धरण देते थे। किन्तु उस समय किसी भी दिशा से यह आवाज नहीं आई कि जिसे तुम छायावाद कह रहे हो, वह और कुछ नहीं होकर राष्ट्र की एक नई मुद्रा की अभिव्यक्ति का प्रयास है–वह मुद्रा, जो अंग्रेजी साहित्य और यूरोपीय सभ्यता तथा विज्ञान के सेवन से उत्पन्न हुई है और जो अपनी पूर्ण अभिव्यंजना के अनुरूप विशिष्ट शैलियों का माध्यम खोज रही है।
छायावाद के विपक्ष में भी मतों का अभाव नहीं है और न मैं ही उसकी सभी बातों का समर्थक हूँ। सबसे बुरी बात तो मुझे यह लगती है कि छायावाद अत्यन्त सुकुमार था और अजबनहीं कि तितलियों के दंश से भी उसे पीड़ा होने लगती रही हो। किन्तु छायावादी कवियों का साहित्य के इतिहास में चाहे जो भी स्थान बननेवाला हो, एक बात है कि वे हर बात को बड़ी ही नजाकत से कहना चाहते थे और समकालीन अवस्थाओं की गर्मी को भूलकर वे काल्पनिक शीतलता के देश में बड़ी ही निश्चिन्तता से विचरण कर सकते थे।
इस आन्दोलन के अन्दर जो कुछ भी सुन्दर और सारवान था, वह मुख्यत: हिन्दी के चार कवियों में विभक्त हुआ। उसकी दार्शनिकता प्रसाद जी के हाथ लगी तथा उसका पौरुष निराला जी को मिला। इसके विपरीत, पंत जी ने उसकी प्रभाती अरुणिमा, गन्ध और ओस को ग्रहण किया एवं आदरणीय महादेवी जी के बाँटे उसकी धूमिलता आई, जिससे उनकी आध्यात्मिक विरह की कल्पना और भी गम्भीर हो गई है। हिन्दी में गीत की परम्परा भी छायावादकाल में ही सुदृढ़ हुई, यद्यपि ये गीत उन पक्षियों के कंठ से फूटे थे, जिनके चारों ओर तूफान चल रहे थे अथवा जिनके आस–पास गुजरे हुए तूफानों की छाया मौजूद थी। लेकिन तूफान में गाए जाएँ या तूफानों की छाया में, गीत फिर भी गीत ही होते हैं।
जब दो सभ्यताएँ परस्पर मिलती या टकराती हैं, तब उनसे प्राय: कोई नई चीज पैदा होती है। इस्लाम और हिन्दुत्व के मिलन से पठानों के समय में हिन्दी साहित्य में एक नवीनता उत्पन्न हुई थी, जिसे हम कबीर और दूसरे संत अथवा सूफी कवियों की रचनाओं में देखते हैं। इसी प्रकार, यूरोपीय साहित्य और भारतीय संस्कार के सम्पर्क से एक नई चेतना उत्पन्न हुई, जो अपनी सम्यक् अभिव्यक्ति प्राचीन कवियों के द्वारा निर्मित शैली में नहीं कर सकती थी। वैज्ञानिक चिन्तन की प्रक्रिया को ग्रहण कर लेने के बाद हम अपनी परम्परागत अनुभूतियों और विश्वासों में से अनेक को शंका की दृष्टि से देखने लगे और इस प्रकार, जन्मान्तरवाद और कर्मफलवाद की वह लक्ष्मण–रेखा विलीन होने लगी, जो हमारे चिन्ता–जगत को चारों ओर से घेरे हुए थी और जिसका अतिक्रमण हमारे यहाँ नास्तिकता का पाप समझा जाता था। किन्तु इस रेखा के विलीन होते ही भारतीय मनीषियों की युगों की वन्दिनी और सूखी जिज्ञासा मनचाही दिशाओं में उड़–उड़कर नई सनसनाहट और नवीन चेतना का सुख अनुभव करने लगी। छायावादकालीन कविता में जितने भी नये प्रयोग नजर आते हैं, वे सब इसी सनसनाहट और सुगबुगाहट को व्यक्त करने के प्रयास थे।
बारह–पन्द्रह वर्ष बीतते–बीतते लोगों ने सुना कि हिन्दी–कविता में एक और आन्दोलन आया है। इस दूसरे आन्दोलन को हम प्रगतिवाद के नाम से अभिहित करते हैं, जो आज भी समग्र विश्व–साहित्य में अपना झंडा उड़ाये चल रहा है। कुछ दिनों तक तो ऐसा लगा, मानो प्रगतिवाद के भीतर से राजनीति साहित्य पर चढ़ी आ रही हो। किन्तु यह उफान अब दब गया है और लोग मानने लग गए हैं कि प्रगतिवाद राजनीति नहीं, वरन् साहित्य में ही एक विशिष्ट प्रकार की नवीनता का द्योतक है, जिसका समाज की प्रगतिशील प्रवृत्तियों से पूरा सामंजस्य है।
किन्तु, भारतेन्दु ने जिस आन्दोलन का सूत्रपात किया था, वह अभी भी पूरा नहीं हुआ है। नई कविता इसलिए चली थी कि वह जनता की भाषा में बोले और अनावश्यक सामग्रियों को छोड़कर वह कवि की चेतना को आसानी से पाठकों तक पहुँचा दे। सभी तरह की अनुभूतियों को सरल भाषा में आसानी से जनता तक पहुँचा देना यह नई कविता का लक्ष्य था और इसी दलील का सहारा उन लोगों ने भी लिया, जो कवियों को यह उपदेश देते थे कि तुम्हें जनता के लिए साहित्य लिखना चाहिए। इस आन्दोलन से एक लाभ यह हुआ कि कविता के भीतर अद्यतनता की स्थापना दोष नहीं रह गई। किन्तु समाज के प्रति उठा हुआ विद्रोह इतनी प्रबलता से आया कि कविता के रूप में की जानेवाली क्रान्ति पीछे पड़ गई और आज तो भीड़ से अलग रहने की भावना और एक प्रकार की घरेलू भाषा के मोह से वे भी ग्रसित हैं, जिनके बारे में यह अनुमान किया जाता है कि वे जनता के लिए लिखते हैं।
एवोल्यूशन या विकास की दृष्टि से देखने पर हिन्दी की आधुनिक कविता चार सीढ़ियाँ पार कर चुकी है। आदि सोपान तो भारतेन्दु ने ही निर्मित किया, जबकि खड़ी बोली पहले–पहल प्रयोग में आई, ब्रजभाषा को अपनी जटिलता का त्याग करना पड़ा, समकालीनता काव्य के भीतर झाँकने लगी और कवि की वैयक्तिकता ने अपने अधिकारों की माँग की। दूसरा सोपान उन लोगों की रचना है, जिन्होंने खड़ी बोली को निश्चित रूप से काव्य की भाषा बना दिया और कविता के प्राचीन विषयों की उपेक्षा करके उसे नवीन विषयों की ओर प्रेरित किया, भले ही ये नवीन विषय शुष्क और नीरस रहे हों। तीसरा सोपान उन महाकवियों की देन है, जो कविता को लेकर उस स्वप्न–महल में चले गए, जिसे अंग्रेजी में ‘आइवरी टावर’ कहते हैं। इतिवृत्तात्मकता के दिनों में हिन्दी कविता जितनी ही सादी और स्थूल थी, आइवरी टावर में पहुँचकर वह उतनी ही सूक्ष्म और रंगीन हो गई और लोगों ने कहना शुरू किया कि कविता इतनी ऊँचाई पर जा पहुँची है कि हमें वह दिखाई भी नहीं पड़ती।
अतएव प्रगतिवाद ने जो सोपान बनाया, वह एक तरह से उतार का सोपान था। कामायनी, यामा और तुलसीदास की रचना करके हिन्दी कविता निश्चित रूप से आइवरी टावर से नीचे उतर आई है। यह उन लोगों के लिए दु:ख का विषय है जो आइवरी टावर में विश्वास करनेवाले हैं। किन्तु जो लोग कविता की अपार्थिवता में विश्वास नहीं करते, वे इस उतार को भी आधुनिक कविता की प्रगति का ही सोपान मानते हैं।
कविता को हम मिट्टी पर नहीं घसीटना चाहते और न यही चाहते हैं कि वह नीचे रहे। किन्तु उसे बराबर हमारे जीवन के बीच से उठकर ऊपर जाना चाहिए। यह फूलों, पादपों और पर्वतों का धर्म है। इससे विपरीत धर्म किरणों और नदियों का होता है जो ऊपर से जन्म लेकर नीचे आती हैं। और जीवन किरणों तथा नदियों के बिना भी नहीं चल सकता। इन दोनों वर्गों की चीजें जीवन से मिली होती हैं। पर्वत का मूल जीवन के कन्धे पर होता है और किरणों की उँगलियाँ आकाश से उतरकर मनुष्य के शरीर पर भ्रमण करती हैं। मगर साहित्य में इस मिलन का क्षेत्र कहाँ हो सकता है? क्या भावों और विचारों में अथवा भाषा और छन्द में? उत्तर किसी एक के पक्ष में नहीं दिया जा सकता। नई कविता विशिष्टीकरण को लक्ष्य मानकर चली थी। विशिष्टीकरण यानी चुस्ती। विशिष्टीकरण यानी अच्छा लगनेवाला हलकापन। विशिष्टीकरण यानी गहन–से–गहन मुद्राओं को भी सरल–से–सरल ढंग से लोगों तक पहुँचा देना। सादगी और प्रभावपूर्णता, इन्हीं के संतुलित योग से नई कविता अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकती है।
(इस लेख के प्रकाशित होने के बाद लेखक को अत्यन्त प्रामाणिक रूप से ज्ञात हुआ है कि इस कविता के संस्कार में राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण जी का भी हाथ था। असल में, छायावाद के आविर्भाव के पूर्व हिन्दी कविता में नवीनता की जो आभा झलकने लगी थी, उसके बहुत से उदाहरण मैथिलीशरण जी की ‘झंकार’, प्रसाद जी की ‘चित्राधार’ और ‘प्रेमपथिक’ और माखनलाल जी की ‘हिमतरंगिनी’ नामक पुस्तकों में तथा पं. रामनरेश त्रिपाठी और मुकुटधर पांडेय एवं बदरीनाथ भट्ट की स्फुट कविताओं में ढूँढ़े जा सकते हैं। –लेखक)
('अर्धनारीश्वर' पुस्तक से)