नहीं हारते पापा (कहानी) : भगवान अटलानी
Nahin Haarte Papa (Hindi Story) : Bhagwan Atlani
लगता ही नहीं है कि दिल्ली से वही पापा लौटकर आए हैं। अशांति और अनिश्चितता से भरी बेचैनी। बाहर से प्रतीत होनेवाले निर्विकार चेहरे के पीछे छिपी भविष्य की खौफनाक परछाइयाँ। कमजोरी के कारण बोलने में होनेवाली कठिनाई के बावजूद व्यंग्य और गुस्से से भरा तीखा लहजा। गोया एक तूफान है, जो तेज रफ्तार से पापा को झिंझोड़ रहा है।
शादी करके आए दस साल से अधिक समय हुआ है। इस बीच मेरी कई बातें पापा को पसंद नहीं आई होंगी। लेकिन मेरी किसी उलटी-सीधी बात या मूर्खता पर पापा को कभी इतना गुस्सा नहीं आया, जितना अब दिल्ली से लौटने के बाद पहाड़ के भीतर छिपे गरम लावे की तरह खदबदाकर बाहर आ रहा है। हर समस्या का समाधान ढूँढ़कर उसे अंतिम परिणति पर पहुँचाने में आस्था रखनेवाले पापा खुलकर कुछ बताते तो नहीं हैं, मगर जैसे दिखाई न देनेवाला एक जाल है, जिसमें उलझकर वे छटपटा रहे हैं। सामान्य आदमी को महसूस न होनेवाली कशमकश गुस्से के यहाँ-वहाँ बिखरे चकत्तों के अलावा कहीं से मुखर नहीं होती।
दो महीने पहले जब डॉक्टर ने पुष्टि की कि आँख का परदा फट गया है तो पापा एक पल के लिए भी मायूस नहीं हुए। दिल्ली में ऑपरेशन किस अस्पताल में होगा, ऑपरेशन कौन सा डॉक्टर करेगा, कब करेगा, ऑपरेशन पर होनेवाले खर्च का बंदोबस्त कैसे होगा, यहाँ से उनके साथ कौन जाएगा, जैसी हर छोटी-बड़ी व्यवस्था उन्होंने स्वयं की थी।
ऑपरेशन से पहले होनेवाली सभी जाँचें वे यहीं से करवाकर गए थे, ताकि दिल्ली में समय बरबाद न हो। ऑपरेशन से पहले या बाद में दिल्ली में बातचीत के दौरान पापा में कोई अंतर महसूस नहीं होता था। पहली बार ऑपरेशन करवाकर एक सप्ताह बाद लौटे तो उनके व्यवहार से लगता ही नहीं था कि इतना बड़ा ऑपरेशन करवाकर लौटे हैं। टेलीफोन पर बात कर रहे हों या आमने-सामने, महसूस होता था, जैसे अपने अनुभव बयान कर रहे हैं। कभी-कभी तो आगंतुक भी इशारों में उन्हें कम बोलने की हिदायत दे जाते थे।
दो कारण थे, जो बिना विचलित हुए उनके विश्वास को पुख्ता करते थे। न जाने कितनी कठिन बीमारियों के झटकों से पापा दो-चार हुए थे। ऐसे दौर कितने भी कष्टदायक क्यों न रहे हों, लेकिन एक बार निकल जाने के बाद उनमें से किसी ने पापा पर विपरीत स्थायी प्रभाव नहीं छोड़ा था। पापा को विश्वास था कि इस बार भी फटे परदे के ऑपरेशन के बाद आँख की रोशनी पूर्ववत् रहेगी, अंधकार में विलीन नहीं होगी।
दूसरी आँख की सलामती पापा की बड़ी शक्ति थी। खुदा न खास्ता अगर परदा फटी आँख की रोशनी नहीं लौटती, तब भी दूसरी आँख की मौजूदगी पापा को किसी का मोहताज बनने नहीं देगी। यही वजह थी कि भविष्य के खतरों से आगाह करनेवालों को आशा और आश्वस्ति से भरी भीनी-भीनी मुसकान होंठों पर बिखेरते हुए वे निरुत्तर करते, ‘‘अभी क्यों मात कहते हो, अभी तो घर निकलता है।’’
पहला ऑपरेशन हुए अभी डेढ़ महीना ही गुजरा था कि पापा की उसी आँख का परदा दूसरी जगह से फट गया। एक बार फिर दिल्ली। एक बार फिर ऑपरेशन। पिछली बार की तरह इस बार भी सारी व्यवस्था पापा ने खुद की। किंतु उनके हर कदम पर मँडराती हुई दुश्चिंताओं की घटाएँ थीं। भविष्य की दस्तक जैसे उन्हें सुनाई दे रही थी। पहली बार परदा फटने की तुलना में इस बार आँख की स्थिति ज्यादा खराब थी। दूसरी आँख की रोशनी की चमक भी धूमिल होने लगी थी।
इस बार पापा को अस्पताल में सोलह दिन लगे। हर दिन कुछ नए सवाल लेकर आता था। डॉक्टर स्पष्ट रूप से कुछ नहीं बता रहे थे। ऑपरेशन हुई आँख में रोशनी लगभग नहीं थी। दूसरी आँख के परदे में परिवर्तन आने लगे थे। विभिन्न अनुत्तरित प्रश्नों के साथ मिलकर ये दोनों बातें पापा के लिए अंधकारमय भविष्य की भूमिका के समान थीं।
डॉक्टर की ओर से समय के साथ आँख में रोशनी लौटने की उम्मीद, दिन भर में बत्तीस बार आँख में डालने के लिए बूँदों की शीशियाँ और निगलने के लिए मुट्ठी भर गोलियाँ साथ लेकर, जब पापा दिल्ली से लौटे तो उन्हें देखकर लगता था कि उनके अंदर हहराती हुई तेज झंझा जंगल की आग की तरह सबकुछ तहस-नहस करने पर तुली है। इस सर्वनाश में उनकी आस्था के सुगंधित फल, फूल और कोमल पौधे भी भस्मीभूत हो रहे हैं। धैर्यशील स्वभाव और परिपक्वता के कारण वे कुछ नहीं कह रहे हैं, लेकिन हर बात पर आनेवाला गुस्सा कम-से-कम मैं भलीभाँति समझ पा रही हूँ।
वैसे भी मिलने-जुलनेवालों के साथ उनका व्यवहार सौजन्यपूर्ण था। कमजोरी के कारण पापा जितना बोल पा रहे थे, उससे उनके अंदर मची उथल-पुथल का आभास नहीं मिलता था। घर के अन्य सदस्यों के साथ भी अतिरिक्त मौन के सिवाय उनके व्यवहार में कोई अंतर परिलक्षित नहीं होता था। उनका गुस्सा और व्यंग्य केवल मेरे व मम्मी के सामने मुखर होते थे। घटनाओं और बातचीत के यहाँ-वहाँ छितराए टुकड़े जरूर हमारे सामने थे, वरना उन्होंने अपनी ओर से हमें कुछ नहीं बताया।
लिखना-पढ़ना पापा की जिंदगी है। स्पष्ट है कि संवेदना के तत्त्व सामान्य लोगों की तुलना में पापा में अधिक हैं। पर निर्भर रहकर भविष्य का सामना करने की संभावनाएँ उन्हें दहशत से भर देती हैं। अपनी पसंद के अनुसार पढ़ने और लिखनेवाले पापा को जिस अजनबी दुनिया का वासी बनना पड़ेगा, उसकी कल्पना उन्हें ठीक तरह से साँस लेने नहीं देती, जिस व्यक्ति की लिखने और पढ़ने के अलावा कोई दूसरी वरीयता न रही हो, दृष्टि खो देने के बाद वह कैसे जीएगा? पापा के नाम आनेवाली डाक पर्याप्त होती है। सामाचार-पत्र, पत्रिकाएँ, पुस्तकें, चिट्ठियाँ एवं आमंत्रण-पत्र यदि पापा की जिंदगी से निकल जाएँगे तो उनके लिए यह बड़ी त्रासदी का रूप होगा। विवाह से पहले मैं भी गीत और कविताएँ लिखती थी। इसलिए लेखकों के प्रति सम्मान का भाव मन में हमेशा रहा है। अनेक पक्ष मिलकर पापा के व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। लेकिन मेरे लिए इतना ही बहुत है कि पापा लेखक हैं। अब तो पापा ने अपना गुस्सा केवल मुझ पर और मम्मी पर जाहिर करके एक तरह से घोषणा कर दी है कि मुझे वे बेहद अपनी मानते हैं।
आपके मन की तकलीफ को मैं अच्छी तरह समझती हूँ, पापा। जुबान खोलकर भले ही कह न सकूँ, किंतु एक अनुरोध करना चाहती हूँ। जो अपनत्व मेरे लिए महसूस करते हैं, वह आपको कुछ अधिकार भी प्रदान करता है।
वैसे तो जैसा डॉक्टर का कहना है, आपकी आँख की रोशनी जरूर लौटेगी। दूसरी आँख भी सलामत रहेगी। लेकिन आपको अधिकार है, आप जो पढ़ना चाहते हैं, मुझसे पढ़वाकर सुनिए। आप जो लिखना चाहते हैं, बोलकर मुझसे लिखवाए। हो सकता है आज तक मेरा व्यवहार आपकी अपेक्षाओं के अनुरूप न रहा हो। मगर यकीन रखें पापा, भविष्य में मैं आपकी हर मुराद पूरी करूँगी। आप क्यों सोचते हैं कि सभी रास्ते बंद हो गए हैं? मैं बार-बार आपकी वाणी से यही सुनना चाहती हूँ,‘‘अभी क्यों मात कहते हो, अभी तो घर निकलता है।’’
मैं आपको हारता हुआ नहीं देख सकती, पापा!