नदी, पेड़ और रास्ता (नेपाली कहानी) : आर्य लामिछाने

Nadi, Ped Aur Rasta (Nepali Story) : Arya Lamichhane

काफी दिनों की मेहनत से छोटे-छोटे तिनके और सूखे पत्ते अपनी चोंचों से चुनचुनकर एक जोड़ी पखेरुओं ने उस घने ऊँचे पेड़ पर अपना घोंसला बनाया। बेचारे घाम-पानी को तो क्या झेल पायेंगे...पर अपने एक जोड़ा बच्चों को अवश्य पालेंगे।

उसी पेड़ के किनारे से होकर एक पारदर्शी नदी बह रही है। नदी के ठंडे पानी में एक लम्बी ज़िन्दगी प्रवहमान है। चार-पाँच अर्द्धनग्न नन्हे बच्चे-बच्चियाँ पानी में एक-दूसरे पर छीटें मार रहे हैं "खिलखिलाकर हँस रहे हैं। पानी उनका इन्तज़ार किये बिना बह रहा है-निरन्तर उनके कोमल पैरों को धोता। कुछ देर तक पैरों से पानी उछालते रहते हैं वे, कुछ देर तक पानी में नज़रें गड़ाकर देखते हैं मानो वहाँ उनकी प्यास बह रही हो। पानी बह रहा है उनके जीवन की मानिन्द कभी वापस न आने के लिए।

ठीक इसी नदी के साथ आत्मसात हुआ है यह रास्ता भी। इस नदी के पानी ने इस रास्ते को रोक रखा है। उस पार के किनारे से ऊर्ध्वगामी टेढा-मेढा रास्ता रास्ते का दूसरा हिस्सा है। अचानक स्मृतियाँ ताजी हो उठीं किन-किन पैरों के तले बहा होगा इस नदी का एक-एक अंजलि-भर चोखा पानी? कितने कदम चढ़ चुके होंगे, उतर चुके होंगे इस रास्ते के ऊपर-नीचे! मन को रोक नहीं पाया, इच्छा बलवती हो उठी कि चलूँ खुद इस रास्ते, ऊपर ही ऊपर। पत्थर-पत्थर, पानी-पानी छप-छप पाँव रखते नदी पार करके उस पार पहुँचकर चढ़ाई वाले रास्ते पर चलते हैं हम। हमारे साथ ये बच्चे-बच्चियाँ भी हैं। वे हल्के नन्हे कदमों से चल रहे हैं,खूब मस्त और प्रफुल्लित खिले हुए हैं ये बच्चे। पसीना पोंछते एक प्रकार की स्फूर्ति अपने चेहरों पर समेटे चल रहे हैं। ये हमारे आगे-पीछे उछलते-कूदते चर रहे हैं हिरण के बच्चे। इन्हें आदमी से डर नहीं है। शायद यही प्रकृति है। सुहावना हरा वन है। वन के बीच से होता रास्ता कहीं-कहीं वन के बीच से सुरीले नारी-कण्ठ पहाड़ियों को झनझना रहे हैं-

"फाटिजाने बादलु की नफर्किने खोला
यस्तै लाग्छ जिन्दगी घाम हो कि छाँया।
धरतीको आगनमा आकाशको मुनि
व्यर्थे किन फाल्नु एकबारको जुनि।" ।

(फटने वाला बादल या वापस न आने वाली नदी, ऐसे ही, लगता है ज़िन्दगी धूप है कि छाँव। धरती के आँगन में आकाश तले व्यर्थ ही क्यों गँवाएँ एक बार की ज़िन्दगी।)

गीत की लय और भाषा ने हम सभी के मन को छू लिया। बच्चों ने इधर-उधर गौर से देखा। मैंने सबसे छोटी बच्ची के चेहरे पर देखा, वह ऊर्ध्वगामी उस रास्ते को ऊपर तक देख रही थी। वह कुछ थकी हुई लग रही थी।

"तुम थक गई हो, इतना चलते-चलते! अब जल्दी ही विश्रामस्थल आने वाला है। वह देखो ऊपर ही तो है।"

उसने मेरी ओर देखा और फटाफट चलने लगी।

ऐसे ही कई कदम चलते-चलते थककर सदा की नींद सो गये होंगे। कितने कदम चल न पाने से सदा के लिए गहरी नींद सो गये होंगे। यह रास्ता बुद्ध का अष्टम मार्ग है और इसी मार्ग से होते हम निर्वाण की खोज में चल रहे हैं शायद।

ऐसे घनघोर अरण्य में आ पहुँचने पर अन्दर-ही-अन्दर कहीं-कहीं डर भी लगता है। पर अन्य लोग निर्भय चल रहे हैं। ऐसे घनघोर अरण्य के बीच तो बाघ, भालू, तेंदुए होते हैं और यदि सामने आ जायें तो ये खूनी पंजों से हमें नोच-नोचकर हमारा खून चूस लेते हैं और खा जाते हैं-निर्वाण की खोज धरी रह जाती है क्या ? ए बच्चो ! तुम इस डरावनी जगह में क्या खोजने को निकले हो ? भय नहीं लगता तुम्हें ? ऐसा कहने की इच्छा हुई पर कुछ बोल नहीं पाया। रही होगी इन लोगों के अन्दर कोई तृष्णा?

इस अरण्य के बीच का रास्ता कितना भी घुमावदार है। गुस्सा आने लगता है अब तो ! फिर इन बच्चों की ओर देखता हूँ-पता नहीं किस पेड़ के दाने चुनकर खा रहे हैं मौज से। कुछ पेड़ की टहनियों से खेल रहे हैं। गुरु द्रोणाचार्य ने पाँच पाण्डवों को जिस उपवन में शिक्षा दी थी वैसा ही है यह वन भी।

"ऐ बच्चो ! तुम्हारे माँ-बाप तुम्हें कुछ नहीं कहते ऐसे घूमने पर।" पूछने की इच्छा हुई।

सबसे बड़ी बच्ची ने कहा, "हमारे माँ-बाप तो मैदानों की ओर गये हैं, क्या खोजेंगे ? कुछ दिनों के बाद हमें भी उसी तरफ जाना पड़ेगा।"

"क्यों ? पहाड़ अच्छे नहीं लगते ?"

"ठीक ही है, हमें पहाड़-मैदान सभी अच्छे लगते हैं। वैसे तो पहले की तरह पहाड में वन-जंगल अब कहाँ रहे? पहले तो इस जगह कितनी बारिश होती थी.सर्दियों में बर्फ पड़ती थी पर आजकल ये सब कहाँ ? रहा-सहा वन भी नष्ट हो गया तो यहाँ मरुभूमि हो जायेगी-एकदम शुष्क। और, तुम्हारे माँ-बाप तुम्हारी खबर नहीं लेते ?"

"उँहँ | मेरे माँ-बाप खेत जोतने गये हैं।"

"हमारे तो पौधे रोपने के लिए गये हैं।"

"हमारे पिता पड़ोसी का घर बनाने गये हैं। माँ तो नहीं है। काफी दिन हो गये। शाम तक तो हम सभी अपने-अपने घर पहुँच जायेंगे।"

"ऐसा है तो निडर होकर चलते हैं, है न?"

ऊपर कहीं से कुत्ते भौंकने, गाय रम्भाने और मुर्गे की बाँग सुनाई दी। हम वन का रास्ता तय कर चुके हैं। इधर काफी सर्दी पड़ती है नहीं तो वादी को सुन्दर बनाते ये चाँप-गुराँस कहाँ खिलते! लड़के-लड़कियाँ सब प्रफुल्लित दिखाई देने लगे। नीचे बहती नदी का मुहाना यहीं कहीं ऊपर होगा क्योंकि वह...व...हाँ कलकल करती यह नदी बह रही है। सभी को काफी सर्दी लगने लग गई है। नन्ही बच्ची को गोद में उठा लेती हूँ। रास्ते भर खिले हुए गुराँस के गुच्छे हम सभी के सिरों को छूते हिल रहे हैं। नन्ही बच्ची की इच्छा के मुताबिक उसके सिर पर एक गुच्छा गुराँस गूंथ देने पर वह फूलों की तरह खिल उठती है।

वन का रास्ता तय करने पर ऊपर सुन्दर बस्ती दिखाई दी। वन और बस्ती की विभाजन-रेखा से ऊर्ध्वगामी सड़क निकलती है। सड़क के नीचे की ओर समतल जगह पर कुछ नई-पुरानी बहुत-सी कब्रगाहें हैं। सड़क के ठीक किनारे पर एक सीमेन्ट का चबूतरा है जिसकी दीवार पर खुदी इबारत हमने पढ़ी है-'"हे यात्री ! इस रास्ते से होकर हमें श्राप मत देना क्योंकि हम, तुम जो कुछ पूछते हो, उसका उत्तर नहीं दे सकते। हम तो यहाँ अनन्त निद्रा में सोये हैं।"

हम सभी की आँखें आँसुओं से छलछला उठीं, मन रो उठा। इन कब्रगाहों के इर्द-गिर्द कल की तरह फूल खिले हैं फिर रास्ते के नजदीक की कब्रगाह पर संगमरमर से खुदे अक्षर हैं-जन्म सम्वत् और मृत्यु सम्वत् अस्पष्ट हैं, कुछ पुराने पड़ चुके हैं। सिर्फ इतना ही पढ़ पाये-"हमारी प्यारी बिटिया की अनन्त स्मृति में। प्यार करने वाले माता-पिता।"

इस वक्त मैंने अपनी गोद में उठाई नन्ही बच्ची की ओर देखा। उसके सिर पर गुँथा गुराँस का गुच्छा बहुत सुन्दर दिख रहा है।

कुछ ऊपर बौद्ध-विहार हैं। कुछ दूर से एक दल बौद्ध भिक्षु आ रहे हैं। इस वक्त हमने भगवान बुद्ध का स्मरण किया। जिस समय जिस आयु में उन्होंने राजमहल का त्याग किया था. उस समय का स्मरण किया। निर्वाण प्राप्त किये क्षण का स्मरण किया। उसके बाद सम्राट अशोक का स्मरण किया। इतिहास बहुत पुराना पड़ चुकने पर भी कितना नूतन, कितना नितान्त आवश्यक है हमारे इस युग के लिए। शायद बौद्ध धर्मप्रचारक यहाँ तक आ पहुँचे थे और आज भी हमारे कानों में ये शब्द प्रतिध्वनित हो रहे हैं-

बुद्धम् शरणम् गच्छामि!
धर्मम् शरणम् गच्छामि !!
संघम् शरणम् गच्छामि !!!

ये पवित्र शब्द हम सभी के दिलों में, दिमागों में, कानों में ऊपर पहुँचने तक गूंजते रहे। एक घर की मुंडेर पर बूढ़ा गाइने गले की नसों को फुलाते सारंगी रेटकर गा रहा है। उसके इर्द-गिर्द बच्चे-जवान घेरा बाँधकर गीत सुन रहे हैं-

"कैले पहाड़ कैले मधेस
गाउँदै हिंड्छ यो गाइने
आफ्नै गाउँ-घरले पनि भन्छन्
बूढो माग्ने
यही खोक्रो पेटले मलाई
माग्ने बनायो
हजूर गाइने बनायो।"

(कभी पहाड़ तो कभी मधेस गाते जाता यह गाइने/अपने ही गाँव-घर के भी कहते हैं बूढ़ा भिखारी/इसी भूखे पेट ने बनाया है मुझे।)

भूखे पेट के लिए गाते चलता है यह गाइने। कब तक यह गाते चलता रहेगा। और कहाँ जाकर मरेगा ? क्या उसकी स्मृति में कोई चबूतरा बनेगा? उसकी कब्र पर फूल खिलेंगे? हमने अपने पास रही कुछ रेजगारी उसकी सारंगी के ठीकरे में डाल दी। भीड़ के बीच से एक ने कहा, "और गाओ न गाइने दाइ।"

"अच्छा, हुजूर !" कहकर वह सारंगी की तारों को रेटने लग गया। ऊपर पहुँचते-पहुँचते भी हम बूढ़े गाइने और सारंगी मिश्रित स्वर सुनते रहे।

एक छोटे से बाज़ार में हम आ पहुँचते हैं। इसी सड़क से होकर आते बाज़ार के मध्य में एक सालिग स्थापित किया होता है-स्वतन्त्रता सेनानी का, राष्ट्रनिर्माता का। उस सालिग के चेहरे पर आँखें हैं निर्माण और बलिदान के आदर्श भाव से ओतप्रोत। ऐसे ही भावपूर्ण सपने हमने भी अपनी आँखों से देखने हैं-ऐसा अन्दर-ही-अन्दर महसूस हुआ। बच्चे थकित कदमों से आगे बढ़ रहे हैं। इतना थक जाने पर भी उनमें वह उत्साह, वह जोश पहले की तरह ताजा है। थकावट को भूल जाने के लिए वे एक स्वर में गा रहे हैं अब। पीछे-पीछे आते दो जनों की बातें-

"इस ऊपर की पहाड़ी पर हम क्यों जा रहे हैं ?"

"इस पहाड़ी के उस पार क्या है ? उसे देखने के लिए।"

पहाड़ी के ऊपर पहुँचने में अब देर नहीं है। जितना-जितना ऊपर चढ़ते जाते हैं उतना ही आकाश नजदीक होने का आभास होता है। बस्ती नीचे छुटती रही, हम चलते रहे।

रास्ते के अगल-बगल गुफाएँ जैसी जगहें हैं। इन गुफाओं के बड़े-बड़े पत्थरों पर कहीं आदमी के पैरों के, कहीं परिन्दों के और कहीं साँपों जैसे तो कहीं त्रिशूल जैसे आकार हैं। ऐसी गुफाओं के नजदीक तो बहुत पहले महान ऋषि-मुनियों ने वर्षों तक तपस्या की थी। ऐसा सोचने पर यह पहाड़ी वैसे ही पवित्र लगने लगी।

बच्चे-बच्चियाँ हमारे आगे-आगे हैं। सभी जल्दी-जल्दी उल्लास के साथ चल रहे हैं। इतनी ऊँचाई से देखने पर नीचे दिखता है वह घना पेड़, बहती वह पारदर्शी पवित्र नदी और ऊर्ध्वगामी वह रास्ता।

"पहुँच गये, पहुँच गये!" अचानक हमारे आगे-आगे चल रहे बच्चे खुशी से चिल्लाने लगे। सचमुच हम पहाड़ी के शिखर पर पहुँच गये होते हैं-पूर्व-जिज्ञासा को खुली आँखों से देखते। हम सभी ने एक बार उस पहाड़ी के उस पार देखा-वैसी नदी, वैसे पेड़, वैसा रास्ता, वैसी नदियाँ और रास्ते और हमारी तरह मनुष्यों की शान्त और पवित्र बस्तियाँ और शहर !!

  • नेपाली कहानियां और लोक कथाएँ
  • मुख्य पृष्ठ : भारत के विभिन्न प्रदेशों, भाषाओं और विदेशी लोक कथाएं
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां