नाथीबाई जाम-सलायावाली : गुजरात की लोक-कथा
Naathibai Jaam-Salayawali : Lok-Katha (Gujrat)
आज निर्जन पड़ा जाम-सलाया एक दिन चहल-पहल वाला बंदरगाह था। उस प्राकृतिक बंदरगाह के किनारे छोटे-बड़े वाहनों की मरम्मत होती थी। सुथार, लोहार, खारवा और वाघेर, जैसे अनेक कारीगर अपनी रोजी कमाते थे। इस बंदरगाह पर दूर-दूर से लंबा सफर करके आए जहाज लंगर डालते थे। अरब से खजूर की बोरी, स्याम से हाथीदाँत, मलय द्वीपों का गरम मसाला, मलबारी नारियल और बर्मा की उत्तम श्रेणी की लकड़ियाँ यहाँ खाली होती थीं। काडगरा के खलासी कच्छ का लोहा, पोरबंदर का पत्थर और मांगरोल की ताजा सागभाजी सायला के बंदरगाह पर खाली करते थे।
देश-परदेश के छोटे-बड़े व्यापारियों की बखारें पूरे वेग से वहाँ चलती थीं। उस सलाया के बंदरगाह पर विक्रम की 19वीं सदी के प्रारंभ काल में वर्षों तक सुबह एक स्त्री आकर रोजाना खड़ी रहती थी। नए आए वाहन के खलासियों से समाचार पूछती, उनकी पूछताछ करती। घूम-फिरकर आए नए खलासियों से मिलती है और पूछती है-
'तुम कहाँ से आ रहे हो, भाई? अंबोय से कोई आ रहा है क्या? कोई मेरे पति का समाचार लाए हो?'
'तुम्हारे पति का क्या नाम है, बहन?'
महिला उस सवाल से शरमा जाती है, चारों तरफ नजर दौड़ाकर लज्जा और मर्यादा को सँभाल लेती है, फिर जवाब देती है-
'उनका नाम जमनादास है। जब गए तब सब उन्हें जमना कहते थे।'
'नहीं बहन! हमें कोई पता नहीं है। हम तो बीच रास्ते में से आ रहे हैं।'
महिला लंबी साँस लेती है। आँख में आए आँसुओं को पोंछकर निराशापूर्वक सिफारिश करती है।
'भाई, तुम अंबोय जाओ, तब थोड़ी खोज करना न, अपने लोगों से सिफारिश भी करना। इस गरीब बहन का इतना काम करना।'
"हाँ बहन! इसमें क्या है?' इतना कहके आनेवाला निकल लेता है। महिला केवल दयनीय मुँह बनाकर दूसरे आनेवाले की राह देखते हुए सागर की ओर नजर गाड़े खड़ी रहती है।
फिर कोई नया आगंतुक किसी जमनादास को पहचानता है, वह जवाब देता है-
'बहन कौन सा जमनादास, सुमरीवाला?'
'नहीं भाई, वो नहीं।'
'तब खंभालियावाले भवानभीमजी वाले न?'
'नहीं भाई, वो नहीं हैं। वह तो सेठ आदमी पसा प्रेमचंदवाले हैं, हम तो पडाणा के नागौरी गरीब आदमी हैं । हमारा कोई व्यापर धंधा नहीं है।'
नवा आगंतुक महिला का कोमल और दयनीय चेहरा देखता रहता है। विवाहित होता है तो उसकी वेदना हृदय को छू जाती है। कुँवारों के लिए इस स्त्री को देखकर माता का प्यार याद आता है। अपना एक-एक सफर ताजा करके पूछता है-
'तो बहन! आपके पति कितने वर्ष से चले गए हैं?'
'भाई, आजकल करते-करते पंद्रह वर्ष हो गए। विवाह मंडप से उठते ही चले गए, अब नसीब में होगा तो आएँगे।'
'तो बहन फिर कोई बातचीत ही नहीं?'
'नहीं भाई, नहीं! कोई बात नहीं, कागज का एक टुकड़ा भी नहीं।'
'होगा बहन होगा! रत्नाकर तो देवता है, किसी को बहुत दिन नहीं रखता। कल आएगा। सागर पर श्रद्धा रखो।'
'तुम्हारे मुँह में घी-शक्कर भाई! परंतु बापू, तुम थोड़ा देखते रहना।'
'अरे, इसमें क्या है बहन ! परंतु है कैसा?'
महिला ने नीचे नजर की और जमीन को खुरेदते हुए बोली-
'शरीर से गोरे हैं और मजबूत हैं, इतना ही जानती हूँ और तो मैंने ध्यान से देखा भी नहीं है।'
'क्या कहती हो? ऐसा नहीं होता है, बहन?'
'मेरे साथ तो ऐसा ही हुआ है, भाई। आठ वर्ष की थी, तब विवाह हुआ। उनकी उम्र थी सोलह वर्ष की, फिर उनके बाप ने नई शादी की। घरेलू झगड़ा हुआ, इसलिए अलग घर बसाने के लिए कमाई करने परदेश के सफर पर निकल गए। मैं उनका घर सँभालने योग्य बनूँ, इतने में तो वे वापस आ जाने वाले थे, पर अभी तक आ ही रहे हैं।'
सागर यात्री बहुत दिलदार स्वभाव के होते हैं। सागर पर श्रद्धा रखते हैं। वह आश्वासन देता है, 'बहन, मैं नए सफर पर जाऊँगा, तब अवश्य खोज करते आऊँगा। बाकी तो बहन समय का फेरबदल है, आज का दुःख तो कल का सुख।'
'मैं भी अब कल की आशा पर ही जीवित हूँ, भाई।'
सलाया के बंदरगाह पर लगातार पाँच वर्ष से यह महिला इसी तरह पूछताछ करती हुई भटकती है। महिला का नाम है नाथीबाई।
सलाया के धनजी घेलाराम की पुत्री है। पडाणा के हरखचंद के पुत्र के साथ विवाहित है। घनजी घेलाराम अपुत्र ही मर गए। उनके पीछे नाथीबाई और उनकी विधवा माता अकेली बचीं। माँ-बेटी गाँव में अनाज-मजूरी करके जीविकोपार्जन करतीं। जमनादास तो विवाह करके परदेश चला गया। पुत्र को ब्याहने के बाद बाप ने स्वयं शादी की। घर में नई सासु आ गई। उसने सपत्नी के छप्पर को पुत्रवधू से आँगन को अछूता ही रखा।
बरसों तक राह देखने के बाद नाथीबाई बंदरगाह पर जाती है। नित्य नए मर्दो से बातें करती है। ऐसी बातें गाँव में फैल गईं। आखिर एक दिन नई सासू ने झगड़े के साथ नाथीबाई के माँ के कान में यह बात डाल दी। माँ का मुँह उतर गया। पुत्री को उलाहना दिया और दो दिन तक माँ-बेटी ने खाना नहीं खाया।
नाथीबाई अब पति की खोज-खबर लेने चुपके-चुपके सागर के किनारे जाने लगी। इसी तरह से दिन पर दिन बीत गए। महीना बीता और वर्ष भी बीतने आया। जमनादास को अंबोय गए पंद्रह वर्ष बीत गए थे। न कोई खबर न कोई खत, फिर तो आशा टूटी, धीरज कमजोर पड़ा, श्रद्धा नष्ट हुई और नयन के नीर भी सूख गए। जीवन का प्रवाह थम गया। माँ-बेटी का जीवन रण सा हो गया।
ऐसे जीवन के रण में अचानक एक मीठा फल आया। आशा की किरण जगी। एक दिन सुबह के पहर में एक वाघेर नाथीबाई का घर पूछते हुए आया-
'क्या बहन, अब तू सागर किनारे नहीं आती है ? दो दिन राह देखा। तू नहीं आई, इसलिए आज मैं आया हूँ।'
नाथीबाई ने वाघेर के सम्मुख देखा, इस वाघेर को उसने सात-आठ बार देखा था और पूछा था कि 'क्या भाई, है कोई समाचार?'
उसे याद रखकर वाघेर आज कहने आया है कि समाचार तो है बहन, परंतु अच्छा नहीं है। तू रोज कहती थी, इसलिए याद करके मैंने अंबोय में पूछताछ की। आखिरकार पता लग गया है। वह जमनादास तो कुरजी पारेख में था वही न? गोरा मोटा चेहरा, गोरा शरीर और दोहरी काठी का?
पुत्री को तो इतना बारीक अंदेशा याद नहीं था, परंतु माँ ने हामी भरी।
तब तो बहन, 'आज से सात वर्ष पहले अपने सुंदरजी का वाहन वतन वापस आ रहा था, उसे चीन के लुटेरों ने पकड़ा था, साथ में वह भी पकड़ा गया है। चीनियों ने आज से सात वर्ष पहले एक बयान खत अंबोय भेजा था, उसमें उसका नाम है। लगभग तीस आदमी पकड़े गए थे।'
'तो भाई, आबुवाला बंधक की रकम तो नहीं देंगे, पर यहाँ समाचार भी नहीं देंगे?'
'बहन! आबु में तो हमारा आना-जाना कम है। एक वाहन द्वारा खबर भेजा था, वह वाहन रास्ते में खो गया।'
'पेशगी कितनी है भाई? और वे अभी हैं कहाँ?'
'पेशगी तो सबकी मिला के 40 हजार कोरी। अकेले जमनादास का छह हजार कोरी जितना है। सभी को द्वीप पर रखा है। यह द्वीप अंबोय से डेढ़ सौ कोस दूर मध्य समुद्र में है, वहाँ समुद्री लुटेरों का ठिकाना है, ऐसा समाचार मिला है।' समाचार देकर वाघेर चल देता है।
बहुत मेहरबानी की है आपने भाई! आपने इतनी मेहनत करके समाचार प्राप्त किया है। वाघेर तो चला गया, परंतु माँ-बेटी को नए संताप की वेदना में डालता गया। इनके साथ में कोई मर्द नहीं है। अनाथ और असहाय इन दुखियों का कोई सहारा नहीं। कहाँ अंबोय, कहाँ समुद्री लुटेरे और कहाँ सलाया?
माँ ने कहा, 'जमनादास के बाप हरखचंद को समाचार तो दे दे-पडाणा!'
'अरे, बाप को परवाह होती तो ऐसे ही पंद्रह वर्ष बीतते क्या? यह आशा निरर्थक है, माँ!'
नाथीबाई पूरे दिन भटकते भूत की तरह घूमती रही, उसका हृदय किसी अनजान वेदना से विदीर्ण हो गया। कहाँ जाऊँ, किससे पूछु, समुद्री लुटेरों द्वारा पकड़े गए अपने पति के दर्द की कल्पना करने लगी। एक-एक कल्पना की तरंगों में नाथीबाई को अपना दुःख तुच्छ लगने लगा। उसके हृदय में हमदर्दी की आग प्रगट हुई। अरे, सात-सात वर्ष से समुद्र पर नजर बिछाए होंगे। कोई आएगा, कोई तो छुड़ाएगा इस तरह की आशा उनके हृदय में उठती होगी। उनके पैर में जंजीर बँधी होगी, परंतु उन्हें छुड़ाने कौन जाए। बाप तो नई औरत का बंदी है और 'माँ तो है नहीं।' अँधेरे आकाश में बिजली चमकती है, इस प्रकार नाथीबाई के दिमाग में एकाएक आत्मबल की कौंध हुई।
'क्यों नहीं है उनका कोई? मैं हूँ न, मैं ही जाऊँगी।' उसकी नसों में खून दौड़ गया। विचार ने दृढ़ता का रूप लिया। धीरे-धीरे अशक्ति कम हो गई। आत्मसंज्ञान जाग उठा। नाथीबाई के मन में दृढ़ निश्चय हो गया कि मैं ही आऊँगी, वैसे भी जीवन तो अस्त-व्यस्त हो ही गया है, फिर जिंदगी का तार सहेजने का प्रयत्न क्यों न करे? क्या ईश्वर मेरी श्रद्धा की तरफ नहीं देखेगा?'
नाथीबाई ने अपना विचार माँ को बताया। माता क्रुद्ध हुई। बेटी को मनाया, फुसलाया, धमकाया, अपने आँसू से नहलाया, पर नाथीबाई का मन नहीं बदला। आखिर माता ने कहा, 'तुम्हें जाना ही है तो मैं भी साथ में आऊँगी। मेरा यहाँ क्या है?'
माँ-बेटी ने सलाया का घर बंद किया। घरेलू चीजों-वस्तुओं को बेच डाला। उन्होंने स्त्रीधन को नकद में बदला। नाथीबाई ने तीन हजार कोरी का जुगाड़ कर ली। एक अगुआ सेठ के पास माँ-बेटी अपनी बात करने के लिए गईं। आबु का व्यापारी बात सुनकर बोला, 'बहन, तुम्हारे लिए तीन तो क्या, तीस हजार कोरी खर्च करने को तैयार हूँ, परंतु चीनी बेईमान हैं। विश्वास करने जैसा नहीं है। पहले हमारा एक वाहन उन्होंने पकड़ा था। पकड़कर वे पेशगी माँगे। पेशगी भेजा। पकड़े गए लोगों के लिए खर्ची भी भेजी, पर चीनियों ने पेशगी खा डाली और किसी को छोड़ा भी नहीं। अब तो हम पेशगी भेजते ही नहीं हैं। उनके अत्याचार से हमारे वाहन आबु और फरमास (फोर्मास) की ओर नहीं आते, इसलिए बहन, तेरा यह प्रयत्न व्यर्थ है। वे हरामखोर किसी को नहीं छोड़ेंगे और पैसा भी खा जाएंगे।'
यह बात सुनकर माँ की हिम्मत तो हिल गई, परंतु नाथीबाई का दिल नहीं डिगा। अंबोय में उस समय जाम खंभालिया के एक खोजा गृहस्थ की सराफा था। माँ-बेटी उनके घर अंबोय पहुँचे। परदेश में रहनेवाला खोजा व्यापारी बिना मर्द के दो हिंदू स्त्रियों को देखकर आश्चर्यचकित हो उठा। उसने माँ-बेटी के रहने और भोजन-पानी की व्यवस्था कर दी।
नाथीबाई ने खोजा गृहस्थ को अपनी सब बात बता दी। खोजा सेठ ने कहा, 'अरे बहन! इसके लिए यहाँ तक कष्ट उठाया, धन्य है तेरी कुलीनता को। पहले यहाँ पाँच-सात सराफा थे। उस समय वसूली करके रकम भी भेज दिया था, परंतु समुद्री लुटेरे दगाखोर निकले। पेशगी खा गए। किसी को नहीं छोड़ा। अब तो समय भी इतना अधिक बीत गया है कि उसका क्या हुआ होगा, वह भी कैसे कह सकते हैं।
नाथीबाई ने कहा, 'भाई, मैं जाऊँगी उन लुटेरों के पास। वे भी आदमी ही होंगे। उनकी भी बहू-बेटियाँ होंगी। उनके समक्ष आँचल फैलाऊँगी, पैर पड़ेंगी, विनती करूँगी और अपने पति को लेकर आऊँगी। मुझको श्रद्धा है, मेरे लिए एक वाहन की व्यवस्था कर दो।'
खोजा गृहस्थ की आँख में आँसू आ गए। बोला, 'माँ, तुम्हारी हिम्मत को धन्यवाद देता हूँ। पर लुटेरों के पास जाकर पकड़े जाने के लिए कौन वाहन देगा और कहाँ से मिलेगा?'
नाथाबाई ने कहा, 'मुझे कोई उपाय कर दो, काका! टूटा-फूटा, खोखा जैसा भी वाहन मुझे दिलवाओ। मैं आपको जिंदगी भर आशीर्वाद दूँगी। भगवान् आपका भला करेगा।'
'खोजा सेठ सिर पर हाथ रखकर सोचने लगे। थोड़ी देर में बोले-बहन तुझको देख सुनकर कैसे जाने दिया जाए, भगवान् न करें यदि तुझे कुछ हो जाएगा तो फिर मुल्क में मेरा मुँह दिखाने जैसा नहीं रहेगा।'
'मुझको तो क्या होगा? काका! जीतेजी मरने की अपेक्षा यह मौत कहीं खराब नहीं है। तुम्हें दोषित बनाऊँ, ऐसी मैं नाथीबाई नहीं। अगर होती तो एकदम सलाया से यहाँ अंबोय नहीं आती।'
खोजा सेठ विचार में पड़े। दूसरे क्षण बोले, 'जाओ मेरी माँ ! मैं तुझको नहीं रोकूँगा और तुम्हें अकेले जाने भी नहीं दूंगा। अपना एकमात्र पुत्र हासम को तुम्हारे साथ भेजता हूँ। अपने लोगों का वाहन तो नहीं मिलेगा, परंतु यदि कोई मलय या चीन का वाहन मिलेगा तो व्यवस्था करता हूँ।' सेठ वाहन की तलाश में निकले। एकदम साँझ को वापस आए।
सेठ बड़ी रकम के बदले में एक चीनी वाहन की व्यवस्था कर के आए। रात के प्रहर में नाथीबाई, उनकी माता और सेठ के जवान लड़के हासम, इतने मुसाफिरों को लेकर वाहन रवाना हुआ।
समुद्र के बीच मजबूत किलेबंदी वाले द्वीप में चीनी लुटेरे अपना समुद्री थाना जमाकर रहते थे। प्रतिकूल पवन से प्रेरित होकर वाहन तीन दिन में द्वीप के समीप पहुँचा। द्वीप के चारों तरफ लुटेरों का मजबूत पहरा था। पहरेदारों ने वाहन रुकवाया।
वाहन द्वीप पर जानेवाला है, यह जानकर किनारे लंगर करवाया। नाथीबाई, उनकी माता और हासम किनारे उतरे। दो औरतों को आया सुनकर बहुत अचंभित होकर लुटेरों का मुखिया वाहन के करीब आया।
हासम चीनी और मलायी दोनों भाषा जानता था। उसने दोनों औरतों के यहाँ आने का कारण विगतपूर्वक लुटेरों के मुखिया को कह सुनाया। पचास लुटेरों के बीच खड़ा मुखिया यह बात सुनकर और अधिक आश्चर्यचकित हुआ। मुखिया ने अपना राठोड़ी पंजा नाथीबाई के सिर पर रखकर बोला, 'यह एक सौराष्ट्र की लड़की कि जो अपने खाविंद की खोज के लिए यहाँ तक आई है। अद्भुत ! धन्य है तेरी पतिभक्ति बेटी, और धन्य है तेरी श्रद्धा को। तू लुटेरों के थाने में क्यों आई? क्या उसे मालूम नहीं कि हम लुटेरे हैं? हम उसे पकड़ लेंगे। उसकी दुर्दशा करेंगे, इस लड़की को इसका डर नहीं होगा?'
हासम ने नाथीबाई की बात मुखी के वतन की भाषा में समझाई। मुखी नाथीबाई की ओर देखता रहा। नाथीबाई बोली, 'हासम भाई! उसे समझाओ कि मनुष्य जाति में विद्यमान ईश्वर पर विश्वास को लेकर मैं यहाँ आई हूँ। तुम्हारी भी बहन-बेटी होंगी, उसे याद करके या तो मेरे पति को छोड़ो या मुझको पकड़ लो। मेरे लिए दोनों बराबर है। हम पति-पत्नी दोनों मुक्त या दोनों कैद। दोनों में से किसी भी दशा में रहने के लिए तैयारी करके आई हूँ। मैं तुम्हारी लड़की हूँ, जैसा तुम्हें ईश्वर कहे वैसा तुम करो।'
नाथीबाई की हिम्मत और भावना से भर प्रेम से मुग्ध बना लुटेरों का मुखिया ने हालारी (सौराष्ट्र के) कैदियों को हाजिर करने की आज्ञा दी। मुखिया की आज्ञानुसार जंजीर से जकड़े हुए पचीस वृद्ध और युवाओं को मुखिया के समक्ष प्रस्तुत किया गया। सभी एक ही साँचे से बने प्रेत जैसे दिख रहे थे।
मुखिया ने कहा, 'बहन देख लो! इसमें है, तेरा पति?'
नाथीबाई ने पचीसों अस्थि-पिंजरों पर नजर डालकर देखा। एक समान यातना ने सभी के चेहरों को पीला, सूखा और उजाड़ बनाकर रख दिया था।
मुखिया ने कहा, 'बहन, हमारे यहाँ गढ़ा हुआ आदमी तुरंत नहीं पहचाना जा सकता।' हुकुम हुआ, 'जमनादास है कोई, हो तो आगे आओ।'
तीस साल का होने पर भी साठ साल के वृद्ध जैसा दिख रहा सफेद बाल वाला और गहरी आँखों वाला एक आदमी आगे निकला। नाथीबाई ने पति को पहचाना। अपनी माता की तरफ देखा और माता की आँख से आँसू छलक पड़े।
'हाँ, भाई यही हैं।'
नाथीबाई इतना कहकर मुखिया के पैर के सामने बैठकर रकम की गठरी खोलने लगी। मुखिया ने नाथाबाई को रोककर कहा, 'बस बहन ! बहुत हुआ। हमारी बेईमानी और क्रूरता की बातें सुनकर मर्द काँपते हैं, फिर भी सुदूर मुल्क से हमें मनुष्य समझकर तू आई। तेरे जैसे पवित्र औरत की कुर्बानी मैं समझता हूँ। जानफिसानी मैं जानता हूँ। तेरे जैसी माँ होती, बहन होती या औरत होती तो मैं लुटेरा नहीं होता, इसलिए पुत्री, यह रकम अपने पास रख और ले जा अपने खाविंद को। मैंने उसे दुःखी किया है। तू उसे सुखी करना। बहन, तुझको नहीं देना है। मुझको तेरे जैसी नेकपाक बेटी का दर्शन हुआ। तू मुझसे कुछ माँग ले।'
नाथीबाई लुटेरों के मुखिया के सम्मुख झुक गई और सविनय माँग की कि 'ये सभी मेरे देशबंधु हैं। इन सभी को मुझे दे दो।'
'ले जाओ! माँ, ले जाओ। मेरा वाहन तुम सभी को पहुँचा आएगा। इसमें सभी की माताएँ और पत्नियाँ होंगी। उन्हें सौंप देना।'
मुखिया ने सभी कैदियों को बंधनमुक्त करने की आज्ञा दी। आँसू से भर, गद्गदित कंठ से नाथीबाई ने विदाई ली।
एक फौलादी राक्षस जैसे आदमी के हृदय को पिघलाकर तीन परदेसियों के साथ आया हुआ जहाज तीस मुसाफिरों को साथ लेकर नाथीबाई वापस हुई।
-नाजभाई वाणा