नाम याद नहीं (ओड़िया कहानी) : गोपीनाथ मोहंती

Naam Yaad Nahin (Oriya Story) : Gopinath Mohanty

हठात् एक दिन सुबह आठ बजे अशोक को आभास हुआ, उसकी याददाश्त में कुछ गड़बड़ी हुई है; नाम याद नहीं रहता। अशोक सभ्य समाज का एक सर्वव्यापी जीव है; बाहर निकलने पर शहर की सड़कों एवं गलियों में कम—से—कम छह बार उससे मुलाकात हो सकती है। कहीं खूब तेज गति से अपनी पुरानी हर्क्युलिस साइकिल पर बैठकर भीड़ कटाते हुए साँय से निकल रहा होता है। स्वस्थ और सुंदर नवजवान, साइकिल चलाने में निपुण, साइकिल की पुरानी हैंडिल पर एक सफेद चकचक, प्रकांड गोल घंटी, ताँगे की घंटी की तरह आवाज करती है ढणण—ढणण। पान की दुकान पर कहीं वह सिगरेट का नया पैकेट खरीद रहा होता है। कहीं रास्ता रोककर साइकिल पर पीठ टिकाकर कुछ दोस्तों को इकट्ठा करके अपने राज्य की विभिन्न समस्याओं पर मुक्तकंठ से तेज—तर्रार भाषण दे रहा होता है, लोगों की राय सुन रहा होता है, गोल—गोल चेहरे पर तितली—कट मूँछ के नीचे सफेद दाँतों के बीच से रह—रहकर सिगरेट का धुआँ निकालता रहता है, दूर से ही पहचाना जा सकता है उसे, क्योंकि एकत्र जनसमूह से वह कुछ लंबा है और उसका सीना चौड़ा है। कहीं वह साइकिल पकड़े हुए सीना तानकर मार्च करने की मुद्रा में एक छोटे समूह के साथ पैदल जा रहा होता है और सभी जगह बीच रास्ते में, किनारे, मकान के चबूतरे पर से, चलती मोटरों में से एक जैसी आवाज आती है—‘नमस्कार अशोक बाबू, नमस्कार, नमस्कार!’ इसलिए हठात् यदि ऐसे व्यक्ति की याददाश्त क्षीण पड़ जाए और उसे नाम याद न रहे तो निश्चय ही संकटपूर्ण स्थिति हो जाती है।

हालाँकि उसकी याददाश्त में और किसी तरह का परिवर्तन नहीं हुआ, सिवाय नाम भूलने के। परिस्थितियों को लेकर वह पूरी तरह सचेत था, उसका वैषयिक ज्ञान रत्ती भर भी नष्ट नहीं हुआ; पहले की तरह ही वह अपनी वकालत कर रहा है, थोड़ा—बहुत खरीद—बिक्री का व्यापार, कुछ राजनीतिक चर्चाएँ एवं उनसे संबंधित नाम भी नहीं भूला; पर्वत का नाम हिमालय, देश का नाम भारतवर्ष, नदी का नाम महानदी, उसी तरह देश के गण्यमान्य व्यक्तियों के नाम। बहस के दौरान अखबार में बड़े—बड़े हरफों में छपे नाम उसे खूब अच्छी तरह याद हैं। वह खेर और खरे इन दो नामों के दोनों व्यक्तियों के बारे में अलग—अलग सबकुछ बता सकता है, उसी तरह करिअप्पा और कुमारप्पा के बारे में। लेकिन भूल जाता है आम लोगों के नाम, परिचित, दोस्त—यार, रिश्तेदार, सहपाठी, सहकर्मी, किसी से रुपए उधार लिए हैं तो किसी को रुपए देने हैं, इन्हीं रोज मिलने—जुलनेवाले लोगों के नाम, जिनके बारे में वह सबकुछ जानता है। वे लोग उसके लिए खेर या खरे नहीं हैं, न ही हिमालय या भारतवर्ष हैं; लेकिन साँसों में ले रहे हवा की तरह, जीने के लिए अनिवार्य पानी की तरह वे लोग हर पल उसके आस—पास रहते हैं, पर उसे नाम याद नहीं।

सुबह आठ बजे का वक्त है। साग बेचनेवाला बूढ़ा आया है। चाय पीते हुए अशोक ने सिर उठाकर देखा। सिर पर तार—तार हुए कपड़े का साफा, छाती पर सफेद बाल, पेट पर ढेर सी दाद। यही तो है वह। क्या तो नाम है? गोपिआ? मछुआ? जगुआ? नहीं। बूढ़े के बारे में वह सबकुछ जानता है। जानने का कारण भी है। सोचते ही दिखने लगती है उसकी दो कमरे की झोंपड़ी, चारों ओर बना घेरा। मुहल्ले से अलग। बूढ़े की जवान बेटी को पति ने छोड़ दिया है। एक दिन बूढ़े ने कहा था—‘बाबू, जरा मेरी बात भी सुनिएगा? मार—पीट कर घर से निकाल दिया, एक और ले आया है। उधर वह अनाप—शनाप खा—उड़ा रहा है, इधर यह उपवास से मर रही है। कान ऐंठकर खुराक—पोशाक वसूल देते, बाबू तुम्हारा यश रह जाता, यह बूढ़ा दुआएँ करता।’

‘ठीक है, किसी दिन तुम्हारे घर चलेंगे; लड़की से सारी बातें पूछकर उसके बाद उपाय करेंगे।’

गया भी था। अभी तक याद है वह। भगवान् लापरवाही से सड़ने को देता है इतनी सुंदरता? अनपढ़ लोगों के मन में देता है इतनी चतुरता व इतनी कविताएँ? साल भर उनसे संबंध रहा। खुराक—पोशाक का इंतजाम हुआ, और भी कुछ—कुछ मिलता रहा, लेकिन चेचक की चपेट में आकर एक दिन असमय ही यह फूल मुरझा गया। लड़की चल बसी। बूढ़ा अब भी साग बेचता है। उसकी याद भुलाए नहीं भूलती। पर उसका नाम क्या है? उमा, रमा, मल्ली, याद नहीं?

‘‘अरे ए, ऐ बूढ़ा!’’

क्या उससे नाम पूछूँ? न जाने क्या समझेगा बूढ़ा। साफ—सुथरे जितने भी बाबू हैं, सबका मन ऐसा ही होता है; काम खत्म होते ही मन से बाहर। इतना स्नेह, आदर, इतने दिनों की सुख भरी यादें। मन के भीतर—भीतर आज भी वह है। उसके बारे में सोचते ही आँखें भर आती हैं। उसका नाम याद नहीं। मन कहता है, पूछने पर बूढ़ा माफ नहीं करेगा। पीली—पीली धँसी हुई आँखें फाड़—फाड़कर वह देखेगा, जिस तरह देखा करता है उसके दामाद की बात चलने पर।

‘‘क्या, बाबू?’’

बात कुछ बदलते हुए कुछ अतीत की यादों में बहते हुए अन्यमनस्क सा अशोक बोला, ‘‘पूछ रहा था, करौंदा बेचने लाए हो क्या?’’

‘‘करौंदा? करौंदा तो कभी नहीं लाता, बाबू! इन दिनों करौंदा कहाँ? अभी तो फल पकड़े ही नहीं होंगे।’’

आश्चर्य से देखता रहा बूढ़ा।

अशोक उठकर अंदर चला गया।

उसी समय से वह काफी बेचैन है, वाकई उसे नाम याद नहीं रहता। यह सिर्फ आज की बात नहीं है, सोचने पर लगता है, उसकी यह हालत पिछले कई दिनों से है। कल शाम किसी बड़े आदमी के घर पर पार्टी में आए किसी आगंतुक के आगे दो भद्र महिलाओं का परिचय कराते हुए उसने उन दोनों के पति का नाम उलट—पलट कर दिया था—‘ये हैं मिसेज विश्वनाथम्, ये मिसेस परीक्षितम्।’ ठीक उसके मुँह पर मिसेस विश्वनाथम् चिल्ला उठी थीं, ‘आपने गलत कहा, मिसेस परीक्षितम् वे हैं।’ आगंतुक उसी के चेहरे की ओर मुस्कराते हुए देख रहे थे, मानो वे उसे समझाना चाहते हों अपरिपक्व ज्ञान का अंजाम।

उसके बाद आज सुबह यह बूढ़ा।

सिर्फ इतना ही नहीं, रास्ते में आकर लोगों को देखते हुए नाम सोचता है, लेकिन नाम याद नहीं। जितना अधिक सोचता है, उतना ही अधिक भ्रम में पड़ता है। माधव बाबू खड़े हैं। पान खरीद रहे हैं। पाँच महीने पहले दो किताबें पढ़कर लौटा देने के लिए ले गए थे; उसके बाद फिर मुलाकात नहीं हुई। अशोक चिल्लाया, ‘‘शंकर बाबू ओ शंकर बाबू!’’ माधव बाबू ने नहीं सुना, तन्मयतापूर्वक पान लगवा रहे हैं—‘‘गलती से कत्था जो डाल दिया! दूसरा पान लगाओ। देखो, नकली जर्दा मत डाल देना।’’ बार—बार ‘शंकर बाबू, ‘शंकर बाबू’ कहकर बुलाने पर भी उन्होंने मुड़कर नहीं देखा। अशोक के पहुँचते—पहुँचते वे पान लेकर साइकिल के पैडल पर पैर रख चुके थे। आगे बढ़कर अशोक ने कहा, ‘‘क्यों साहब, बुलाने पर भी नहीं सुनते हैं? निश्चित ही कार्यव्यस्तता अधिक है?’’ मुस्कराते हुए माधव बाबू ने कहा, ‘‘काम की बात अब मत कहिए साहब, आप जैसा आजाद होता तो फिर बात ही क्या थी। चलिए, काफी दिनों के बाद मुलाकात हुई है। सब ठीक—ठाक तो है न?’

‘‘चल रहा है,’’ अशोक ने कहा, ‘‘बुलाते—बुलाते जब जवाब नहीं मिला, तो सोचा, आप भूल गए हैं।’’

‘‘मुझे बुला रहे थे आप?’’

‘‘हाँ, खूब जोर—जोर से।’’

‘‘हैरत है! तो फिर मेरे दोनों कान कहाँ गए थे? अभी थोड़ी देर पहले ही मैंने सुना आवाज देता हुआ एक आदमी गया कि ‘मुनिसपैलिटी के अहाते में गाय—बैल छोड़ने पर सरकारी बाड़े में डाल दिया जाएगा।’ उसके बाद सब्जीवाला आवाज देते हुए गया, ‘पतली—पतली मीठी तुरई।’ हाँ, भूल रहा हूँ, कोई ‘शंकर बाबू शंकर बाबू’ पुकारते हुए भी गया। शायद पीछे शंकर पानवाले की दुकान है; उसी को ढूँढ़ रहा होगा। आजकल तो सभी बाबू हैं, क्यों! पर आपने मुझे कब बुलाया?’’

अशोक के चेहरे पर पसीने की बूँदें उभर आईं। पता चल गया, ये शंकर बाबू नहीं हैं। कुछ आम नाम है।’’ छोड़िए, वह बोला, ‘‘मैं तो चिल्ला नहीं रहा था।’’ आहिस्ता—आहिस्ता बुला रहा था।’’

‘‘फिर भी सुनूँगा कैसे नहीं? कानों में असली सरसों का तेल डालता हूँ। जरा एक बार फिर बुलाइए साहब, आप किस तरह बुला रहे थे।’’

‘‘चलिए, जाने दीजिए। कुछ भी हो, आप कान में सरसों का तेल डालते हैं। नाक में तो नहीं डालते न? लीजिए सिगरेट। हाँ, क्या दोनों किताबें पढ़ चुके?’’

‘‘कौन सी किताबें?’’

फिर आफत। किताबों के नाम याद नहीं। ‘‘वे ही किताबें, जो आप मुझसे पढ़ने को ले गए थे—यदि पढ़ चुके हों तो लौटा दीजिए। यदि न पढ़ी हों तो सात—आठ रोज और रख लें, कोई बात नहीं।’’

‘‘बड़ी हैरत की बात है! अशोक बाबू, आप मेरा विश्वास कीजिए, मैं आपकी कोई किताब नहीं लाया। क्या नाम बतलाया आपने—मेरी सारी किताबें तो बैठक में होती हैं, फिर भी मैं ढूँढ़ूँगा।’’

‘‘खैर छोड़िए, आप किसी दूसरे काम से जा रहे हैं, काम भूल जाएँगे। आप किस वक्त घर पर रहेंगे?’

‘‘आज तो छुट्टी है, बाजार से लौटकर ग्यारह बजे के बाद से मैं घर पर ही रहूँगा। आप आइए। खुद भी ढूँढ़ लीजिएगा। शायद हों किताबें। लेकिन मुझे अच्छी तरह याद है, किताबें नहीं हैं। लाया ही नहीं, होंगी कहाँ से? फिर भी आप आइए। अच्छा, नमस्कार!’’

उनके चले जाने के बाद अशोक काफी देर तक उन्हें पीछे से देखता रहा। उसे गुस्सा आया, लोग बड़ी आसानी से चीजें दबा लेते हैं। दुनिया के उसूल के बारे में सोचकर मन—ही—मन क्रोधित होते हुए चला जा रहा था कि ‘अशोक बाबू, अशोक बाबू, की आवाज से उसकी अन्यमनस्कता टूटी। अति आग्रहपूर्वक दोनों हाथ आगे बढ़ाए हुए दौड़े चले आ रहे हैं बंधुवर। हँसी में सोने की तार से बँधे लंबे—लंबे कीड़े लगे दाँतों की छवि। सिर्फ एक हरी हवाई शर्ट, खाकी पैंट, सिर पर हलके हरे रंग की चिपटी टोपी, हाथ में चमड़े का बैग।

‘‘हलो...हलो...यू सी...यू सी...अशोक बाबू, क्या सब चल रहा है, दुनिया की खबर क्या है, हाउ डू यू डू, सब ठीक है न?’

जरा भी याद नहीं आ रहा। ये सज्जन कौन हैं; हालाँकि चेहरा पहचाना—पहचाना सा लग रहा है। अशोक का मन बुरी तरह सोचने लगा, ये कौन हो सकते हैं; याद नहीं आया।

इधर बंधुवर खाकी पैंट की जेब से सिगरेट केस निकालकर मेरी ओर बढ़ाते हुए बोले, ‘‘कैसे हैं? यू सी काफी अरसे के बाद। हैव वन, और सब ठीक—ठाक है न?’’

कौन है यह व्यक्ति? इतने अपनेपन से बातें कर रहा है। पहनावे, बातचीत करने की मुद्रा, चेहरे आदि से अशोक ने अंदाजा लगाया, ‘यह कोई ए.सी.एस.ओ. है, संभवतः किसी रियासत में पोस्टेड है। सी.एस.ओ. नहीं है, न ही सुपरवाइजर है, निश्चित ही ए.सी.एस.ओ. है। हठात् इस निर्णय पर पहुँचने का कोई ठोस कारण नहीं पा सका। किसी बात का अंदाजा लगाया जाता है, उसके बाद पूरे मन में हलचल मचती है; सोचता है, यही ठीक है, यही ठीक है।’

‘‘पहले आप अपनी सुनाइए, बहुत दिनों बाद मुलाकात हुई है।’’

‘‘बस, चल रहा है; बुरा भी नहीं, यू सी।’’

‘‘वह तो चलता ही रहेगा। उसके बाद?’’

‘‘यू सी—फादर इन लॉ एक्सपायर हो गए।’’

‘‘ह्वाट डू यू मीन? बूढ़े! पैंतालीस साल के व्यक्ति को बूढ़ा कहा जाता है, यू सी!’’

‘‘बूढ़ा आजकल सबको कहा जा सकता है, साहब; दुनिया की जो व्यवस्था है, मिलावटी तेल, मिलावटी घी, पनिया दूध पीकर स्वास्थ्य भी बिगड़ रहा है। अर्थ चिंता करते—करते मन टूट जाता है। हालाँकि ये सारी चिंताएँ आपको नहीं हैं।’’

वे बंधु कुछ अप्रस्तुत से बोले, ‘‘छोड़िए ये सब, हम लोग कुछ अधिक पर्सनल होते जा रहे हैं, यू सी।’’

‘‘ठीक है, तो अब इंपर्सनल होते हैं। कैसा चल रहा है आपका काम?’’

बंधु मुस्कराए, बोले, ‘‘हमारा काम तो आप अखबार में पढ़ते ही होंगे।’’

‘‘पढ़ते तो हैं। फिर भी? आप क्या सोचते हैं?’’

बंधु मुँह सिकोड़ने लगे। जरा गंभीर होते हुए बोले, ‘‘काम चल रहा है, जैसा चलना चाहिए, मैं भला और क्या सोच सकता हूँ?’’

‘‘आपके कलक्टर कैसे हैं?’’

‘‘कलक्टर? ह्वाट डू यू मीन? यू सी कौन कलक्टर?’’

यक—ब—यक अशोक का धैर्य टूट गया। ऐसा लगा, यह व्यक्ति ए.सी.एस.ओ. भी नहीं है! तो क्या कोई ऐरा—गैरा है? या कोई इंश्योरेंसवाला है, ‘हमारा काम तो आप अखबार में पढ़ते ही होंगे,’ हाथ में चमड़े का बैग है। आगे—आगे पड़कर बातें करना, हठात् सिगरेट बढ़ाना, अनाप—शनाप बातों का जाल बुनना। कुछ पल बीत गए। अशोक ने खीझते हुए कहा, ‘‘माफ कीजिएगा साहब, जरा अपना नाम बताइएगा? मुझे याद नहीं आ रहा है।’’

बंधु ने मुँह लंबा करके सू—सू आवाज करते हुए दो मिनट तक हवा सोखी। बड़ी—बड़ी आँखें अशोक बाबू के चेहरे पर स्थिर करते हुए बोले, ‘‘गुड हेबंस—यू सी! कितने ताज्जुब की बात है! भूल गए? आपके छोटे भाई को ट्यूशन पढ़ाया था एक साल।’’

‘‘कई लोग पढ़ाते थे।’’

‘‘हमने एक साथ लॉ की परीक्षा भी दी थी।’’

‘‘वह तो लगभग ढाई सौ लोगों ने दी थी।’’

‘‘आपके पिता के साथ मेरी इतनी घनिष्ठता...।’’

‘‘पिताजी के मित्रों की संख्या सुनेंगे तो आपको आश्चर्य होगा।’’

‘‘उसके बाद कचहरी की मुलाकातें—क्या कह रहे हैं आप, आपको कुछ भी याद नहीं?’’ उनका आत्माभिमान अपमान की वजह से चीत्कार कर उठा। लेकिन अशोक की खीझ बढ़ती जा रही थी। साइकिल को अपने और करीब खींचते हुए उसने कहा, ‘‘लंबी कहानी को संक्षेप करते हुए कहिए न साहब, आपका नाम?’’

‘‘ओ आई सी!’’ बंधु ने कहा, ‘‘मेरा नाम नील माधव दास है। आई.ए.एस. पाने के बाद इस वक्त कश्मीर कमीशन में हूँ। फादर इन लॉ अचानक एक्सपायर कर गए न, इसीलिए छुट्टी पर आया था, यू सी। लगता है, आप भूल गए हैं? खैर, आपकी दया है—नमस्कार।’’

शर्म से आँखें झुक गईं अशोक की। उसने कहा, ‘‘ओ हो, कितने दिन कितनी रातें हम एक साथ रह चुके हैं! आप समोसा खाना पसंद करते थे न, इसलिए पार्क होटल—नरीबाबू और खैर छोड़िए! सबकुछ याद है, साहब! आपको भला भूल सकता हूँ? यह सुनकर आपको दुःख होगा कि मेरा नर्वस ब्रेक डाउन हुआ है। कुछ भी याद नहीं रहता। कहिए, क्या करूँ?’’

लेकिन बंधु को मानो विश्वास नहीं हुआ, लौट पड़े; बोले, ‘‘अच्छा नमस्कार! कश्मीर पहुँचकर पत्र लिखिएगा, साहब!’’ न सुनने की तरह बंधुवर चले जा रहे हैं।

उसके बाद रास्ते में हर रोज चारों ओर से ‘नमस्कार, नमस्कार’, ‘कहिए अशोक बाबू कैसे हैं?’ आदतन उसकी ओर से भी प्रति—नमस्कार, सुख—दुःख। लेकिन आज वह नाम ढूँढ़ रहा है, नाम नहीं मिलता। इनके साथ इतना संबंध, इतने दिनों की हँसी—मजाक, सुख—दुःख की जीवन—यात्रा। लेकिन नाम याद नहीं आते! आशंका हो रही है, कहीं पुनः उस तरह की कोई समस्या न आ टपके, जबकि ‘क’ के नाम को वह ‘ब’ कह बैठे। इसलिए किसी को बुलाते समय वे नाम नहीं लेते, सिर्फ ओड़िया संबोधन भर से काम चला लेते हैं—‘ए’, ‘हे’, ‘साहब’।

किताबें दोनों लेनी हैं। शायद यही उन साहब का मकान है? दरवाजे पर खड़े—खड़े व्यग्रतापूर्वक सोचने लगा। संसार में कितने सारे लोग; बगैर जनता की छत्रच्छाया के आगे नहीं बढ़ सकता कोई। एक जैसे मनुष्य, एक ही आगाज—एक ही अंजाम, दावे को लेकर फर्क है; जितने भाई उतने घर, जितनी दुलहन उतने दूल्हे; किंतु नाम बिना याद रखे कैसे चलेगा? नाम तो याद रखना ही होगा, लगे उसके लिए जितना ब्राह्मी घी, जितना टॉनिक, जितनी दवाइयाँ। नाम—घूमती दुनिया के साथ, जनता के साथ एक ही बागडोर; उसे अटूट रखना होगा किसी भी उपाय से। लेकिन सोचते—सोचते यादें चटकने लगती हैं, भाप बनकर उड़ने लगती हैं व्यग्र केंद्रीयता। यही तो है शायद उन साहब का मकान।

उत्सुक निगाहों से कुछ देर इधर—उधर देखने के बाद अशोक ने सोचा, नाम क्या है? क्या नाम है उनका? किसी भी तरह दोनों किताबें उनसे वसूल करनी ही हैं। याद है—शहर के गण्यमान्य व्यक्ति हैं ये लोग; किताबें लेकर भूल जाना ही इनका स्वभाव है। इनसे दब गए तो व्यक्तिगत संपत्ति बचाकर रखना भी मुश्किल हो जाएगा। इसलिए खूब तेजी से सोचने के बाद अशोक भूल गया कि बड़े शहरों में किसी के मकान पर पहुँचकर उन्हें बुलाने पर नाम याद रखने की आवश्यकता नहीं पड़ती—केवल एक शब्द ‘बेहेरा’ या ‘रसोइया’। उसके बाद खुले बदन पर लुँगी पहने हुए कोई बाबू—स्वयं बेहेरा या रसोइए के रूप में आकर पूछेगा, ‘क्यों साहब, किसे ढूँढ़ रहे हैं?’

नेमप्लेट दिख रहा है, अंग्रेजी में लिखा है ‘एम.सी. महांति।’। अशोक आश्वस्त भरी मुस्कराहट बिखेरते हुए उस ओर देखता रहा। लेकिन नाम याद नहीं आ रहा है। जीभ तक आकर लौट जाता है। एम.सी. मनश्चंद्र, मोहनचरण, मानो एकाएक शून्य में रोशनी चमकी, ‘सही है, सही है—मार्कंडचरण—यूरेक्का। दंभ भरे गंभीर गले में अपनी पूरी आवाज समेटते हुए अशोक ने आवाज लगाई—‘‘मार्कंडबाबू, ओ मार्कंडबाबू! मार्कंडबाबू घर पर हैं?’’

खिड़की से किसी महिला की सूरत दिखलाई दी, वे आश्चर्यपूर्वक बाहर की ओर देखती रहीं। अंदर शायद किसी से कुछ कह रही थीं। कोई बाहर निकलकर आया, बगैर किसी औपचारिकता के कहने लगा, ‘‘यहाँ कोई मार्कंडबाबू—फार्कंडबाबू नहीं रहते, आगे देखिए।’’ ‘‘क्या? यह मार्कंडबाबू का घर नहीं है? तुम क्या समझते हो, मैं मार्कंडबाबू का घर नहीं पहचानता? अंदर जाकर बोलो, अशोकबाबू आए हैं।’’

‘‘कौन मार्कंडबाबू, साहब? आपको गलतफहमी हुई है। यहाँ वे नहीं रहते, कह जो दिया—जाइए, आगे जाकर पूछिए।’’ आगे और कुछ न कहकर रास्ते पर जा रहे मछली वाले को उस व्यक्ति ने आवाज दी, ‘‘ए मछलीवाले, ए इधर आ, इधर आ!’’ उसकी इस हरकत से अशोक खीझ उठा। शहरी लड़का है, शहर के लोगों की बदमाशी अच्छी तरह समझता है अशोक। साइकिल पीठ से टिकाते हुए सीना पूरी तरह फुलाकर सामने की ओर देखकर बोला—

‘‘ऐ!’’

‘‘क्या है?’

‘‘तुमसे कुछ बातें करनी हैं।’’

‘‘क्या बातें करनी हैं?’’

‘‘हाँ, तुम कौन हो जरा बताना?’’

‘‘मैं इस घर का नौकर हूँ।’’

‘‘हूँ, कितनी तनख्वाह पाते हो?’’

‘‘क्यों बाबू, मैं कितनी तनख्वाह पाता हूँ, उससे किसी को क्या मतलब?’’

‘‘मतलब है! गँवार नौकर रखने पर घर के मालिक का सबकुछ चला जाता है; बदमाश नौकर रखने से सर्वनाश होता है। सस्ता नौकर रखना अंत में महँगा पड़ता है आदमी को। इस घर की एक—एक चीज की जानकारी है मुझे, जानते हो तुम? मजाक किसके साथ कर रहे हो? मुझे ही पढ़ाते हो कि यह घर मार्कंडबाबू का नहीं, जानते हो तुम्हारा मुनीम मेरा पुराना मित्र है, मेरा दोस्त है, बीच में कुछ दिनों तक ही यहाँ नहीं आ सका; वरना इस घर में बराबर मेरा आना—जाना था। यहाँ खुले में न जाने कितनी बार उठा—बैठा हूँ, जिसका कोई हिसाब नहीं। क्या समझते हो तुम अपने को, मेरे ही साथ दिल्लगी?’’

मकान की खिड़की की ओर देखने पर उसे बातें सुनाने की मन—ही—मन प्रेरणा मिली। अभी तक वहाँ वह चेहरा था। गुस्से में सान्निध्य का परिचय देने के लिए मानो वह संकेत दे रहा हो। घर का नौकर चिढ़कर ‘बताऊँ अभी, दिखाऊँ अभी’ कहकर प्रत्याक्रमण करते ही उसी खिड़की की ओर से एक धीमी आवाज आई—

‘‘भेगिया, भेगिया—सुन इधर!’’

अंदर जाकर पलक झपकते ही बाहर लौटकर बोला, ‘‘आपके मित्र मार्कंडबाबू इस मकान में कब रहते थे, मालकिन पूछ रही हैं?’’

अपरिचित व्यक्ति के आगे ‘मालकिन पूछ रही हैं’ जड़ने में उसकी जुबान जरा भी नहीं लड़खड़ाई अपने आत्मसम्मान के लिए। कोई भी हों, मार्कंडबाबू उसका इसमें क्या जाता है?

‘‘यहीं थे, आज भी यहीं है।’’ अशोक ने कहा, ‘‘अभी नौ महीने पहले ही तो मुलाकात हुई थी उनसे इसी मकान में।’’

खिड़की से पिच्च से पान का पीक बाहर आकर गिरा। इस बार चेहरा बिल्कुल साफ दिखाई दिया। अंदर से आवाज आई, ‘‘भेगिया, कह दे—हम लोग इस मकान में पिछले पाँच साल से हैं। यहाँ मार्कंडबाबू—फार्कंडबाबू कोई नहीं है। यहाँ माधवचंद्र महांति रहते हैं, नेमप्लेट में नाम लिखा है, कह दे।’’

अशोक ने अब पल भर भी इंतजार नहीं किया; साइकिल पर बैठकर चल पड़ा। अब तक की धुँधली स्मृति में हठात् सच का सूरज निकला है! वाकई माधव बाबू ही हैं वे, एम. सी. महांति, हर रोज के परिचित माधव बाबू। कितना मूर्ख है वह स्वयं? माधव को मार्कंड! खिड़की के उस पार वाला चेहरा दिख जाता है। मन—ही—मन शर्म आने लगती है। मानो वह चेहरा दूर धकेल रहा हो—हटो, हटो, दूर हटो।

दूर से दीख रहा है जैसे माधवबाबू स्वयं उससे मिलने आ रहे हैं। मुलाकात हो गई होती तो शायद दोनों किताबें मिल सकती थीं। मित्रता की घनिष्ठता की वजह से वह मकान में घुस गया होता तो? वह खिड़की।

जाने दो किताबें, जःपलायति स जीवति।

अपने घर की ओर कुछ दूर जाने के बाद पुनः खिड़की के पीछेवाले चेहरे की याद आई और उसी के साथ एक और चेहरा—कमली का। कमली, पड़ोसी की लड़की, बचपन से भाई कहकर बुलाती थी, कमली की शादी हो गई है। इसके अलावा कमली की जाति अलग थी, वह एम. सी. महांति की सहधर्मिणी नहीं हो सकती।

लेकिन कितनी एकरूपता है! जैसे सचमुच कमली हो। सोचते—सोचते मन भर आता है; अतीत से फटकर मुरझाए हुए सभी पृष्ठ जैसे फिर से हरियाकर अपनी जगह व्यवस्थित हो गए हों। महक उठती है चेतना हू—बहू कमली ही!

खोए हुए मन को खुद—ब—खुद सांत्वना मिल रही है, गुण भुलाए नहीं जाते, अपनी चेतना के दर्पण में प्रतिबिंबित मार्मिक भावनाओं की छवि भुलाए नहीं भूलती। वैषयिक संबंध में भाटा आता है तो आने दो, जीवन जिया जा सकता है। एक शरीर कुछ भी हो, उसका नाम—मनुष्य का शरीर है, उसमें कुछ भी छुपा हुआ नहीं, सब विधाता की सृष्टि है। उम्र के अनुपात में जीने का वही एक सा व्यवहार, वही—वही सुख—दुःख की लहरें, लुका—छिपी का खेल। उसी जीवन का जल घट—घट में मन है, सिर्फ पात्र अलग—अलग हैं। दर्शन के तथ्य मन को आनंदित करते हैं, आँखों से अंतस दिख जाता है। उन्हीं आँखों से वह देखने लगा। वह स्वयं भी बन सकता था माधव बाबू।

और खिड़की के उस तरफ वह—हू—बहू कमली।

उसका विवाह अभी नहीं हुआ—न हो; बैठक में एक बच्चा इधर—उधर दौड़ा—दौड़ी कर रहा था। वह हो सकता था उसका आत्मज, उसकी संतान।

नहीं हो सका, न हो—नाम भूल जाने पर सभी चीजें समान हैं।

सोचते—सोचते मन भर आता है। दिन गुजर रहे हैं, वह उड़ते हुए चला जा रहा है, घर नहीं बसा। यौवन समाप्त होने से पहले ही विस्मरण उतर आया है, क्यों? क्या वह चिनगारी लगे मन की हूक, भूलने के लिए प्रकृति का अंजन है?

देखो, वह आदमी जा रहा है। तीस रुपए उधार लिये हैं उसने। आड़े समय में उधार ले गया था। उसके बाद सबकुछ भूल गया। अशोक ने सिर उठाकर देखा। नाम याद नहीं आ रहा। वह आदमी जल्दी—जल्दी नजदीक की गली में घुस रहा है। अशोक ने इंतजार नहीं किया। साइकिल की रफ्तार बढ़ाते हुए ट्रिं—ट्रिं घंटी बजाता हुआ उड़ चला उसी के पीछे—पीछे।

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