न मिटनेवाली भूख : फणीश्वरनाथ रेणु

Na Mitnewali Bhookh : Phanishwar Nath Renu

1.

आठ बज रहे थे। दीदी बिछौने पर पड़ी चुपचाप टुकुर-टुकुर देख रही थी-छत की ओर। उसके बाल तकिए पर बिखरे हुए थे, इधर-उधर लटक रहे थे। एक मोटी किताब, नीचे चप्पल के पास, औंधे मुंह गिरकर न जाने कब से पड़ी हुई थी। बुधनी की माँ, दबे पाँव कमरे के पास आती थी और झाँककर चुपचाप लौट जाती थी। आठ बजे तक बिछौने पर रोगिनी की तरह चुपचाप पड़ा रहना, मौन साधे, दयनीय मुद्रा बनाकर, टकटकी लगाकर देखते रहना आदि बातें कुछ ऐसे वातावरण की सृष्टि कर रही थीं कि बुधनी की माँ कुछ पूछने की हिम्मत नहीं कर पाती थी। बेचारी हाथ में झाड़ लेकर बार-बार लौट आती थी। अन्त में छोटी दीदी (मिस फ्लोरा) से जाकर वह बोली, “दीदी के का भैल है, अब ले पड़ल बाड़ी। आखिर..."

"बड़ी मुश्किल है बुधनी की माँ। कल से ही उनका यह हाल है। न खाती हैं, न पीती हैं और कुछ बोलती भी तो नहीं। पूछने पर कहती हैं कि कुछ हुआ ही नहीं। ज्यादे कुछ पूछने की हिम्मत भी तो नहीं होती।" मिस फ्लोरा ने बालों में कंघी चलाते-चलाते ही कहा।

“सुबहे से झाड़ देबे ले ठाढ़ हई। तनी चलिके..." बधनी की माँ बात पूरी भी नहीं करने पाई थी कि दीदी की प्रिय छात्रा-चंचला किशोरी 'मदालसा' मुँह लटकाए, आकर खड़ी हो गई और जिज्ञासु दृष्टि से मिस फ्लोरा और बधनी की माँ को देखने लगी। बुधनी की माँ खिलकर बोली, “एहे तो कल्ली! चल त रानी! देख तोहर दीदी के का भैल है!"

मदालसा चुपचाप दीदी के कमरे में दाखिल हई। दीदी अपलक दृष्टि से उसे देखती रही। बधनी की माँ चौखट के पास ही खड़ी रही।

“दीदी!" मदा ने बहुत देर तक चुप रहने के बाद पुकारा।

“हूँ।"

“कैसा जी है दीदी?"

“हूँ..." दीदी ने बिना हिले-इले ही उत्तर दिया।

बुधनी की माँ ने पहले बरामदे पर एक-दो बार 'छप-छप' झाड़ चलाया, फिर डरते-डरते कमरे में आकर हल्के हाथों झाड़ देने लगी। मदालसा, दीदी के टेबल पर बिखरी हुई किताबों को सजाकर रखने लगी। कलैंडर में तारीख बदलकर, दिन भी बदल डाला उसने-दीदी चूपचाप देख रही थी।

"क्यों आज सोमवार हो गया न?" दीदी ने अकचकाकर पूछा। मदालसा डरी, एक बार कलैंडर की ओर देखकर वह बोली, “जी नहीं।" वह दिन बदल रही थी कि फिर याद कर रुकी और बोली, “जी हाँ, आज सोमवार ही है। कल रविवार, आज सोमवार..."

“सोमवार हो गया?" दीदी उठकर बैठ गई, बोली, “तो बारातवाले चले गए?"

“हुँ, चार बजे भोर चल गैलन सब।" बुधनी की माँ झाडू के तिनकों को सजाती हुई बोली।

दीदी डरते-डरते बिछौने के पासवाली खिड़की को जो स्कूल की ओर खुलती थी-खोलने लगी। खिड़की खोलकर उसने देखा-स्कूल खाली पड़ा है। दो दिनों से बन्द खिड़की जो खुली तो कमरे में एक ताजी हवा आकर खेलने लगी। वह अंगड़ाई लेकर उठी, उसके चेहरे की गम्भीरता तत्क्षण ही दूर हो गई। मदालसा के होंठों पर भी मुस्कान की एक सरल रेखा दौड़ गई, बुधनी की माँ को कुछ हिम्मत हई, पूछ बैठी, “कैसन तबियत है दीदी?"

“अच्छी है, तू जल्दी से जाकर स्कूल के कमरों को झार-बहार दे। न हो तो फुलिया को भी बुला लेना। भगेलू से कह दो-गाड़ी पर आज सरजू जाएगा। भगेलू क्लासों में बेंच सजाकर रखेगा। जाओ!" कहती हुई वह तौलिया और साड़ी लेकर 'बाथरूम' की ओर चली। मदालसा ने टोका, “दीदी!'

"क्या है री!" दीदी ने रुककर मुस्कुराते हुए पूछा।

“आप नहीं गईं, इन्दु बहत रोती थी, कहती थी-दीदी से भेंट नहीं हो सकी।” पेंसिल-कटर में पेंसिल डालकर घुमाते हए मदालसा बोली। दीदी ने प्रत्युत्तर में सिर्फ एक लम्बी नि:स्वास छोड़ दी।

"आप तो उसे उपहार देने के लिए एक चित्र बना रही थीं न?"

“बना तो रही थी, पर अधूरा ही रह गया। अच्छा भेज दूंगी,...मुझसे बड़ी भारी गलती हो गई मदा, जाने के दिन उससे मिल नहीं पाई।" कहती हुई दीदी धीरे-धीरे चली गई।

मदा वहीं बैठकर दीदी का ‘एलबम' देखने लगी।

2.

श्रीमती उषा देवी उपाध्याय-उर्फ दीदीजी। शहर के गर्ल्स मि. ई. स्कूल की प्रधानाध्यापिका। मझोले कद की, दुबली-पतली, सुन्दरी विधवा युवती। जिस दिन से स्कूल में प्रधानाध्यापिका होकर आई, स्कूल की उन्नति में चार-चाँद लग गए। छात्राओं की संख्या चौगुनी हो गई। परीक्षाफल सुन्दर होने लगा। स्कूल को हाईस्कूल बनाने की चर्चा होने लगी। उस दुबली-पतली मुभाषिणी 'दीदी' की मीठी चपत जिस बालिका ने एक बार खा ली, वह उसकी चेरी हो गई। बालिकाओं और किशोरी छात्राओं की बात तो दूर, अध्यापिकाएँ भी उसके स्नेह की भूखी रहतीं। बधनी की माँ उसकी प्राइवेट-सेक्रेटरी थी। सदा प्रसन्न रहनेवाली दीदी के होंठों पर मुस्कुराहट सदा खेलती रहती। वह कभी-कभी सितार बजाकर मीरा की पदावली गा लेती थी, टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएँ खींचकर कलापूर्ण चित्र भी बना लेती थी। विधवा थी, ओढ़ने-पहनने, खाने-पीने की चीजों में सादगी के कड़े नियमों को मुस्तैदी से पालती थी, लेकिन अन्य अध्यापिकाएँ जो सधवा थीं, वे भी उनकी सादगी पर फिदा थीं।

स्नान-भोजन करके, दीदी अन्य अध्यापिकाओं के साथ जब स्कूल में दाखिल हुई तो बुधनी की माँ फुलिया को लेकर कमरों में झाड़ दे रही थी और बड़बड़ा रही थी। भगेलू चुपचाप बेंचों को उठा-उठाकर अन्दर कर रहा था। दीदी को देखते ही बुधनी की माँ जोर-जोर से चिल्लाकर बोलने लगी-“छी-छी! एक दिन में सूअर के खुहार बना देलन सब...राम-राम...!"

दीदी ने कमरे में जाकर देखा-दीवार पर स्थान-स्थान पर पान की पीक पड़ी हई थी। नीचे फर्श पर सिगरेट के अधजले टुकड़े, सिगरेट के खाली डब्बे और माचिस की जली हई तीलियाँ बिखरी हई थीं। दीदी ने किंचित नाक सिकोड़ते हुए कहा, “लो जल्दी साफ करो।" कहकर वह ऑफिस खोलने चली। वह ऑफिस खोल ही रही थी कि उसकी आँखें, दीवार पर लिखे सुन्दर अक्षरों पर अटक गईं-

“उठ सजनी खोल किवाड़ें, तेरे साजन आए दुआरे!"

दूसरी जगह-"खिड़कियाँ तुम्हारी बन्द रहीं पर मैंने तुमको देख लिया।"

लाल अक्षरों में-“रानी अब अध्यापन छोड़ो, मेरे दिल का राज सँभालो।"

नीले पेंसिल से-“प्रेम की भाषा सजनि मुझको भी पढ़ा दो।"

पढ़ते-पढ़ते दीदी तिलमिला उठी। ऑफिस खोलकर धम्म-से कुर्सी पर जा बैठी। उसके होंठों पर कुछ घंटे पहले जो स्वाभाविक मुस्कुराहट लौट आई, वह विलीन हो गई। वह उठी, फिर बैठ गई। एक कागज पर लिखने लगी-'चेयरमैन की सेवा में' फिर न जाने क्या सोचकर कागज को फाड़कर वह उठ खड़ी हुई।

“फ्लोरा!” दीदी ने पुकारा।

फ्लोरा और उर्दू अध्यापिका सलमा आईं, दीदी की गम्भीर मुद्रा को देखकर अवाक् खड़ी रहीं।

"क्या है दीदी?" फ्लोरा ने मौन भंग करते हुए पूछा।

दीदी ने, बाहर आकर दोनों को दीवाल की ओर दिखलाया। दोनों ने पढ़कर घृणा से मुँह विकृत कर लिया। सलमा बोली, “यह बारातियों का काम है!"

“हँ," दीदी ने कहा, “सभ्य बारातियों ने लिखा है।"

लड़कियाँ दल बाँधकर मुस्कुराते हए आ रही थीं। सरजू भी स्कूल की गाड़ी पर लड़कियों को लेकर आ गया था।

“प्रणाम दीदीजी, दीदीजी प्रणाम, प्रणाम...” कहकर, मुस्कुराती हुई लड़कियों की टोली ज्यों ही स्कूल की सीढ़ी पर पाँव रखने लगी, दीदी की गम्भीर वाणी सुनकर सब एक साथ रुक पड़ी।

"तब तक बाहर मैदान में खड़ी रहो।"

दीदी तथा अध्यापिकाओं के चेहरों को देखकर लड़कियाँ आपस में कानाफूसी करने लगीं-“देखो-देखो! दीदी की आँखें लाल हैं!"

“ऐसा तो कभी नहीं...”

“समझी, समझी...” मंजू खुश होकर बोली, “कोई बड़े आदमी मर गए हैं, फिर वही पाँच मिनट चुप..."

“फ्लोरा! रौलकॉल करके छुट्टी दे दो।” कहती हुई दीदी पुन: ऑफिस में जा बैठी।

छुट्टी दे दी गई। छात्राओं ने बुधनी की माँ से पूछा, मदालसा से दरयाफ्त किया, पर कुछ भी पता नहीं चला।

दीदी अपने कमरे में लौट आई और बिछौने पर लेट गई। उसके अन्दर एक आग-सी जल रही थी, सिर फटा जा रहा था और रह-रहकर प्यास लग रही थी।

3.

शनिवार को शहर के प्रतिष्ठित रईस श्री आनन्दी प्रसादजी के यहाँ बारात आई थी। उनकी एकमात्र पुत्री 'इन्दु' के शुभविवाहोपलक्ष में स्थानीय धर्मशाला में बारातियों के ठहरने का प्रबन्ध किया गया था। किन्तु सभ्य-असभ्य, साधारण-असाधारण और धनी-गरीब के वर्गीकरण की ओर प्रबन्धकों का ध्यान ही नहीं गया था। सभ्य और सुसंस्कृत बारातियों ने जब 'जेनरल बारातियों' के साथ रहना अस्वीकार कर दिया तो चेयरमैन साहब ने अनुमति लेकर 'गर्ल्स स्कूल' में ही ठहरने का प्रबन्ध कर दिया गया था-सभ्य, शिक्षित और सुसंस्कृत बारातियों के लिए।

स्कूल के कम्पाउंड में ही अध्यापिकाओं के 'क्वार्टर्स' थे। रविवार की शाम को अन्य अध्यापिकाएँ विवाह-गृह के समारोह में सम्मिलित होने चली गई थीं, स्कूल की ओर खुलनेवाली खिड़की को बन्द करके दीदी अपने कमरे में बैठी अधूरे चित्र को पूरा कर रही थी। खिड़की के उस पार-स्कूल में सभ्य बारातियों का भोजन-पान शेष हो चुका था। पत्तलों पर कुत्तों की लड़ाई, भिखारी और भिखारिनों की करुण पुकार सुनकर दीदी का ध्यान भंग हआ। चित्र को अपूर्ण ही छोड़कर-वह न जाने क्या सोचने लगी थी। धीरे-धीरे कुत्तों का भुंकना बन्द हआ तो भिखमंगों ने आपस में लड़ाई शुरू कर दी थी। लड़ाई जब शान्त हुई तो एक छोटे शिशु के रोने की आवाज सुनाई पड़ी थी। दीदी ने पहचान लिया था, अभागिन मृणाल के बच्चे के कोमल कंठ-स्वर को। “ओ बाबा एत झाल, ताई तो बोलि, छेले आमार काँदछे केन?" मृणाल खाते-खाते बोल उठी थी। 'मृणाल के छोटे-से शिशु ने जूठन का स्वाद लेना शुरू कर दिया।'...दीदी कुछ आश्चर्यित हुई थी। दीदी मृणाल को जानती थी, उसे प्यार करती थी, कभी-कभी बुलाकर भरपेट भोजन कराती थी और उसके प्यारे बच्चे को गोद में लेकर पुचकारती भी थी। बंगाल के भुक्कड़ों की जमात में मृणाल जब इस शहर में आई थी तब उसकी गोदी अथवा देह में यह शिशु नहीं था। रोज शाम को कुछ बासी रोटियाँ पाकर बदले में मृणाल ने दिया था, इस शहर को वही भोला-भाला शिशु...जो कड़वी तरकारी खाकर रो उठा था। मृणाल बंगाल के एक ग्राम के खुशहाल किसान की पुत्री थी।

तो, उस शाम को बैठी-बैठी दीदी बहुत-सी बातें सोच रही थी-कुत्ते, मनुष्य, मृणाल और उसके प्यारे बच्चे के सम्बन्ध में न जाने क्या-क्या सोचते-सोचते आरामकुर्सी पर थकी-सी लेट गई थी। स्कूल के बरामदे पर किसी ने, किसी सरोज नामक व्यक्ति को पुकारकर कहा था-"सरोजजी! ओ! सरोजजी, जरा इधर आइए।"

"क्या है?" सरोज अथवा किसी दूसरे ने पूछा था।

"देखिए! यहाँ की भिखारिनों की आँखों में भी एक अजीब जादू है।" पुकारनेवाले व्यक्ति ने दिखलाया था। दीदी की भौहें जरा तन गई थीं और कान सतर्क हो गए थे। देखनेवाले व्यक्ति ने देखकर कहा था, “ओहो!... जादू मत कहिए, 'मद' कहिए 'मद'।"

“अरे आप कवि ठहरे।" प्रथम व्यक्ति ने संशोधन को स्वीकार कर लिया था। एक तीसरी आवाज सुनाई पड़ी थी-“अच्छा कविजी! कल्पना कीजिए तो, जहाँ की सड़कों पर ऐसी परियाँ' मारी फिरती हैं, खिड़कियाँ बन्द कर बैठनेवाली मलकाएँ कैसी होंगी?"

इस पर जोरों से कहकहे लगे थे और वह व्यंग्य कहकहे के साथ, खिड़की की लकड़ियों को छेदकर 'दीदी' के अन्त:स्तल में घुस गया था।

उसी रात को तीन बजे तक स्कूल के बरामदे पर 'अंगूरीबाई' नाचती रही थी। घुघरू की छमछमाहट, दर्द-भरी आवाज और ‘वाह! वाह! क्या खूब!!' को सुनते-सुनते 'दीदी' तकिये में मुँह छिपाकर रोई भी थी। दूसरे दिन भी वह यों ही बिछौने पर निश्चेष्ट पड़ी रही थी। बिछौने पर से उठते ही उसका सिर चक्कर खाने लगता था। एक ही रात में न जाने कितनी दुर्बलता आ गई थी। रविवार की शाम को ही अंगूरीबाई कूक पड़ी थी-अँधेरिया है रात सजन...।'

“अरे भई! नेकी और पूछ-पूछ...” साजनों में से एक ने फरमाया था, शेष साजनों ने जबर्दस्त कहकहे लगाए थे।

“चुन-चुन कलियाँ सेज बिछाई..."

"मजेदार..."

कहकहों के बवंडर में 'दीदी' ज्ञानशून्य हो गई थी, अंगूरीबाई गाती ही रही। थी।

...सोमवार को 'रौलकॉल' के बाद छुट्टी देकर जब वह लौटी थी तो उसके अन्दर आग-सी लग रही थी, सिर फटा जा रहा था और उसे रह-रहकर प्यास लगती थी।

एक ही दिन में बुखार ने भीषण रूप धारण कर लिया। लेडी डॉक्टर आई, नुस्खा देकर चली गई और दवा होने लगी। मंगलवार को सुबह से ही प्रलाप' के लक्षण दिखाई पड़ने लगे। वह बिछौने पर चंचल हो रही थी और वह रहरहकर कुछ बड़बड़ाती भी थी। कभी-कभी चौंककर पास में बैठी मदालसा को उठकर पकड़ लेती थी और रो पड़ती थी-“मदा! छिप जाओ बिट्टी मेरी...वह बीड़ीवाला...बीड़ीवाला!!"... कहते-कहते वह बेहोश होकर बिछौने पर लुढ़क पड़ती थी।

हाँ, एक बीड़ीवाले को अक्सर 'मिस्ट्रेस क्वार्टर्स के पास आकर दिल में दर्द पैदा हो जाया करता था और वह इलाही से उस दर्द को न मिटाने के लिए आरजू करता हुआ चला जाता था।

दीदी आँखें खोलकर इधर-उधर देखती, मदा, फ्लोरा, सलमा और बधनी की माँ करुण नेत्रों से बैठी हुई हैं... नहीं वह खड़ी है, मृणालय उसकी गोदी में नन्हा शिशु है! वह बीड़ीवाला!!...उँह-हूँ-हूँ!"

“दीदी!" सलमा पुकारती। दीदी आँखें फाड़े दीवार की ओर देखती ही रहती-"मजेदार...पीली अंगूरी और वह गूंगी पगली...गर्भवती पगली हँस रही है-हेंह-हेंह उँह हेह उऐं...!!"

“हेह-हेंह उँह हेह उऐं”-गूंगी-सी, दीदी भी हँस पड़ी।

"दीदी"-प्राय: रोती हई फ्लोरा ने पुकारा। सलमा ने सिर पर आइसबैग रखा और मदालसा पंखा झलने लगी। दीदी आँखें बन्द किए सोचने लगतीवह पगली गर्भवती है। उस पर भी बलात्कार किए गए। छी: छी:! वार, वाइन एंड वीमेन-सुरा, युद्ध और नारी...सत्यानाशिनी चीजें हैं।...'उठ सजनी खोल किवाड़ें?'...वह फिर चौंककर उठ बैठती, बड़बड़ा उठती-'खोल दो खिड़कियाँ...याँ-याँ...।' बुधनी की माँ पकड़कर उसे लिटा देती।

"खिड़कियाँ तो खुली ही हुई हैं।" सलमा कहती।

दीदी चुपचाप आँखें मूंदें रहती...'भरी सभा में द्रौपदी चीरहरण...उसकी करुण पुकार, उसे नंगी देखने की वासना...ओह!' आँखें मूंदे ही अपनी साड़ी के छोर को पकड़ लेती और चिल्ला उठती-“मैं नंगी हो जाऊँगी...मैं नंगी हो जाऊँगी-गी-गी!!"

“दीदी"-फ्लोरा, मदा और सलमा तीनों प्राय: एक ही साथ पुकार उठतीं। दीदी घृणा से मुँह विकृत कर लेती।

भगेलू लेडी डॉक्टर के यहाँ गया था, लौटकर आया तो चुपचाप खड़ा रहा। बहुत पूछने पर भगेलू ने कहा, “डॉक्टरनी साहेब राजा रघुवीरसिंह के हिंया जाते थे। हम जाकर बोले तो बोलिन कि..." वह चुप हो रहा।

“क्या बोली?" फ्लोरा ने डाँटकर पूछा।

“बोलिन कि जाकर अपना दीदी को दूसरा विवाह कर दो, सब ठीक हो जाएगा।"

इधर बिछौने पर पड़ी-पड़ी वह दीवाल की ओर एकटक से देख रही थीस्कूल कम्पाउंड में वह मृणाल, नंगी अंगूरी और गूंगी पगली खड़ी है। चहारदीवारी के चारों ओर शहर-भर के लोग-सभ्य-असभ्य, शिक्षितअशिक्षित और गरीब-अमीर, अपनी-अपनी भाषा में हल्ला मचा रहे हैं-

"तनि हमरो देखद आज सुरतिया पतली कमरिया..."
"तेरे दर पे खड़ा हँ कब से...।"
“उठ सजनी खोल किवाड़ें..."
"तिरछी नजरियावाली रे!..."
“रे पगलिया..."
“री बच्चेवाली छोरी...”
“घूँघट हटाके चाँद-सा मुखड़ा..."

लोगों की भीड़ क्रमश: उत्तेजित हो रही है। सब फाटक पर धक्का दे रहे हैं। अंगूरीबाई आँचल से अपने को ढंक लेती है। मृणाल रो पड़ती है, उसकी गोद का बच्चा छाती में मुँह छिपाकर सिमट गया है। पगली हँस रही है-हेंह-ऐ-उँ अहअह हे-हे..., फाटक टूटने को है। ओह! दीदी चौंककर उठ बैठी। इस बार उसको देखकर मदा, फ्लोरा वगैरह घबरा गईं! दीदी अचानक बिछौने पर से उठकर भागी।

“दीदी! दीदी!! दीदी...अरी रोको, पकड़ो...” सब पीछे-पीछे दौड़ी। वह हेंह उँह ओय अह-अह' करके हँसती और भागती जा रही थी। फाटक के पास जाते-जाते दीवाल से टक्कर खाकर गिर पड़ी। जमीन पर रक्त की धारा बह चली।

4.

दीदी, अस्पताल में अन्तिम घड़ियाँ गिन रही थी। ‘एवरग्रीन रेस्ट्राँ' में चाय पीनेवाले नौजवानों को एक नया मसाला मिल गया। चाय की चुस्की लेते हए एक नौजवान ने कहा, “अरुण! तुमने कुछ सुना...उसकी हालत बड़ी नाजुक है यार!"

"आखिर ऐसा क्यों हुआ, कुछ पता चला?"

“भई, आखिर वह भी अपने पहलू में दिल रखती थी, किसी ने छीनकर बेमुरौवती से तोड़ डाला होगा, और क्या?"

"सुना है कि बारात में उसके कोई पुराने प्रेमी आए थे।"

"तब ठीक है"-एक कहानी-लेखक, जो अब तक चुपचाप बैठे हुए थे, बोल उठे, “मैंने भी ऐसी ही कल्पना की थी।"

हिं-हिं ऐह हे-हे ओय..." रेस्ट्रॉ के सामने सड़क पर गँगी पगली जो बहत निकट भविष्य में ही माता बननेवाली थी, खड़ी-खड़ी हँस रही थी- ऐह हेह हों...' हँसते-हँसते पेट में बल पड़ जाने की मुद्रा बना रही थी।

“अरी भाग, हट शैतान!"

“हेंह ऐं"...वह प्रत्येक डेग से धरती पर एक विशेष जोर डालती हँसती हुई चली गई।

अप्रैल, 1945

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