मुलाकात (गुजराती कहानी) : गिरीश भट्ट
Mulakaat (Gujrati Story) : Girish Bhatt
अलीबक्स के पदचिा का अनकुरण करते हुए वह एक अनजाने मार्ग पर चला जा रहा था। उसी नगर का होते हुए भी वह इस मार्ग से एकदम अनजान था। एक प्यास उसे इस ओर खिंच लाई थी।
वैसे तो वह रोज शाम को बाग में अलीबक्स से मिल ही जाया करता था। उससे कई प्रकार की बातें होती थीं, वर्तमान की। चंद्रवदन को यह नन्हीं उम्र का मित्र पसंद आ गया था। वैसे अलीबक्स एक भला आदमी था। उसकी चर्चा में गहनता और यदाकदा सूफीवाद की झलक दिखाई देती थी।
अपने इस नन्हे मित्र से चंद्रवदन ने दिल खोलकर बातें की थीं। वैसे दिल खोलने को दिल वाला चाहिए, और उसे ऐसा व्यक्ति अलीबक्स मिल गया। उसके सामने मानचित्र की तरह दिल खोल दिया था। लाहौर में चार साल बिताने की विस्तृत जानकारी दे दी थी। यह सत्रह से इक्कीस वर्ष की आयु का समय था; ज्ञान विकास का समय था और था अठारह की शारदा से मिलने का रोमांस—चंद्रवदन ने सबकुछ कहा था। अंततः कहा, अलीबक्स सबकुछ चला गया लाहौर, दलसुखभाई का फिल्मी स्टूडियो और शारदा। सब कुछ एक ही झटके में चला गया, देश का विभाजन हुआ और सब कुछ छिन्न-भिन्न हो गया।
एक दिन शाम के समय अलीबक्स ने समाचार दिया अपने चाचा-चाची के लाहौर से आने का और कहा, ‘क्या आपको मिलना है? सलीम चाचा लाहौर के एक रईस हैं।’
यह सुनकर वह खुशी से उछल पड़ा, ‘अलीबक्स, मुझे ले चल। मुझे ले चल। मुझे उनसे मिलना ही है।’
अलीबक्स ने उसकी आँखों में प्यास देखी। एक क्षण सोचा, क्या आकर्षण होगा चंद्रबदन को—इस ईंट, पत्थर, सीमेंट के बने नगर के प्रति। संभव है, उसे उस युवती के बारे में ज्ञात करना हो, पर ऐसा सोचना निरी मूर्खता ही है। निराशा ही मिलने वाली है। उसका यह प्रयास घास के ढेर में सुई ढूढ़ने सा ही होगा।
मुकाम आ गया। नीची छत का घर। दालान, जालीदार दरवाजा और एक आयताकार मकान। बैठक में गद्दे, तकिए, दूसरी ओर एक कोने में रेडियो पड़ा था, दीवार पर काबा का फोटू टँगा था, लोबान की मंद सुगंध महक रही थी, दालान के छोर पर बाँस की तिलियों का चिकना परदा लगा था। परदा लगभग अर्धपादर्थक था। हवा चलने के साथ ही तीलियों की खनखनाहट पैदा हो जाती थी।
एकदम खयाल आया, परदे की पीछे जनान खाने का। अब तक तो सुना ही सुना था, आज उसने प्रत्यक्ष रूप से जनानखाना देखा था। मन में विचार आया, परदे के पीछे कौन होगी? उत्तर मिला, अलीबक्स के परिवार की औरतें होंगी? जो किसी मर्द के आते ही परदे की ओट में हो जाती थीं, पर परदे के पीछे चहल-पहल थी और वह एक अनजान पुरुष था।
‘आइए जनाब—आप लाहौर में कब रहें?’ प्रश्न की गूँज कानों में पड़ते ही चंद्रवदन वर्तमान में आ गया और एक मंद मुसकान के साथ मुख मंडल पर मानो सारा शहर फैल गया।
‘उस समय में मैं अठारह-उन्नीस वर्ष का था।’ बात की शुरुआत हुई।
‘मूल फिल्म के स्टूडियो के मालिक दलसुखभाई ने मुझे बुलवाया था। उस समय लाहौर शहर मात्र भूगोल की पुस्तकों में ही था। पर रावी नदी यथावत् थी। इसके बाद चंद्रवदन ने जेब में पड़ा लाहौर का पुराना नक्शा निकाला और साइकिल की तरह उँगली नक्शे पर फिरने लगी। किसी समय मैं इस शहर में साइकिल से बहुत घूमा हूँ। मालिक द्वारा दी साइकिल से स्टूडियो से घर और घर से स्टूडियो घूमा करता था।
इस स्टूडियो के बारे में कई बातें हुई। सलीम ने बात में हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा, ‘जनाब, इस समय लाहौर में ऐसे चार स्टूडियो इसके आस-पास हैं।’
बात का सिलसिला बदला, ‘जनाब, मैं गुजराती जानता हूँ। एक गुजराती अखबार भी निकलता है।’ इससे चंद्रवदन को अपनी बात कहने में सरलता हो गई।
देखिए, सलीम भाई, यह रामगढ़ का विस्तार। यहाँ एक तीन मंजिला मकान था। तीसरी मंजिल पर मेरा कोटड़ी थी। यहाँ की खिड़की से देखने पर नीचे का सारा दृश्य स्पष्ट दिखाई देता था, नीची छतों के छोटे-छोटे मकान, विशाल कोठियाँ, फोर्ड गाड़ियाँ, जीपें और एक तोप। शाम को यहाँ सिंधियों का बैंड बजता था, जिसे सुनने का भीड़ जमा हो जाती थी। हर रविवार को चर्च में सुबह नगाड़े बजते थे, पास के कच्छी स्कूल में नित्य प्रार्थना होती थी; लोंगलिव दी क्वीन..., उसने यह सब एक ही साँस में कह दिया।
अलीबक्स के लिए ये सब बातें कोई नई नहीं थीं। संभवतः उसे मेहमान का स्वागत करने का ध्यान आया और इसकी तैयारी के लिए उसने धीरे से चिक उठाई और अंदर घुस गया। क्योंकि चंद्रवदन पहली ही बार घर पर आया था। फिर स्टूडियो की चर्चा। क्या वैमन था? सलीम मियाँ, मुझे अशोक कुमार, लीला चटनीस, नूरजहाँ, याकूब मियाँ आदि सभी पहचानते थे। मैं ही इस सबको वेतन देता था। चंद्रवदन के स्वर में एक नया उत्साह दिखाई दे रहा था।
अंततः अलीबक्स परदे में शरबत के दो गिलास लेकर लौटा तो सारा वातावरण गुलाब की भीनी सुगंध से महक उठा।
उसे शारदा ने ये सभी बातें विस्तार से बताई थीं। उन लोगों का घर एकदम सामने ही था। जब वह आता था तो वह दरवाजे पर खड़ी रहती थी। फिल्मों के विषय में जानने की बड़ी उत्कंठा होती थी। चंद्रवदन ने उसे स्टूडियो दिखलाने का वायदा किया था। शूटिंग से लेकर मैकअप, नायक-नायिका, कैमरामैन, सेट आदि सब कुछ।
‘शारदा, यह नगरी बड़ी अजब है। मेरे ऑफिस की अलमारी में दस-दस रुपयों के नोटों के बंडल रहते हैं और राणी छाप सिक्कों की थैलियाँ।’ चंद्रवदन अपने रुपए का बखान करता था।
‘शारदा! मैं सभी को वेतन का भुगतान करता हूँ और उनके रजिस्टर में हस्ताक्षर करवाता हूँ। पता है, अशोक कुमार हाथ में सिगरेट लिये कह रहा था, ‘चंद्रवदन तू बड़े काम का लड़का है।’
लड़की यह सुनकर बाग-बाग हो जाती। विस्मय होता, शरम आती और उसके मुख पर असीम आनंद झलक उठता।
परिवार में मात्र तीन प्राणी—भद्रा पतिपरायण सादी गृहणी और नरहरि बाबू अंग्रेज शिष्टाचारी। नायाब तहसीलदार पर छोटा पर अभिमान भारी। यदाकदा सरकारी वाहन घर छोड़ने आता तो जमीन पर पाँव रखते ही दूर खड़े व्यक्ति सुनें, इतनी तेज आवाज में ड्राइवर को हिदायतें देते रहते। नरहरि बाबू दृढ़ता से कहते थे, ‘चंद्रवदन, अंग्रेज इस देश को छोड़कर कभी नहीं जाएँगे और इसी में हमारी भलाई है। हमें भला राज करना कहाँ आता है?’
वह लाहौर के भीड़ वाले रास्तों पर बहुत घूमा था। पुराना बाजार, बड़ा मार्केट, बिलावल मस्जिद, सदर बाजार, सदर चौक, माता का मठ—सभी जगह घूमा था अपनी रुपहली साइकिल उसने शारदा को कहा था, ‘तूझे एक बार साइकिल पर स्टूडियो चलना है। क्या तुझे अच्छा लगेगा?’
और वह यह सुनकर शर्म से लाल हो जाती थी। क्या कोई लड़की इस तरह लाहौर के बाजार में निकली है? हाँ, अंग्रेज मेम साइकिलों पर जरूर निकलती थीं और लोग आश्चर्यचकित होकर इन मेमों को देखते रहते थे—उनके चेहरों को, उनके तंग कपड़ा को।
भद्रा कहती थी, ये लोग मर्यादाहीन हैं। बस, मात्र इतवार को चर्च में जाकर प्रेयर करते हैं।
शारदा का मन होता कि चंद्रवदन के साथ जाए और कभी कल्पना करती कि वह साइकिल की पीछे की सीट पर बैठी है, रास्ते पार हो रहे हैं और चंद्रवदन पैडल मार रहा है। पर बाद में चंद्रवदन ने सोचा कि यह संभव नहीं है। वह मात्र स्कूल जाने को ही घर से बाहर निकलती थी। भद्रा के साथ माँ के मठ तक जाती और वह निराश हो जाता।
स्टूडियों में नायिकाएँ कितनी स्वतंत्र होती थीं?, उसने यह देखा और अनुभव किया था। एक बार नूरजहाँ ने उसके गाल चिकोटी भरी, वह शर्म से पानी-पानी हो गया। वह स्थिति देख उसने चुटकी ली, ‘तू तो लड़कियों सा है।’
वह शाम को पहले से ही उत्सुकता से खड़ी थी हिसाब लेने को। और उसने ब्योरेवार सारी बातें शारदा को बता दीं। मेरी बात सुनकर वह भी नूर सी हँसी और तुरंत कहा, ‘देखिए, पुरुष ही स्त्री के गाल पर चिकोटी भरता है। पर अब तुम्हें भी नूर के गाल पर चिकोटी भरनी चाहिए।’ कंगन में ऐसा ही देखा था। पिताजी मिनरवा में यह पिक्चर दिखाने ले गए थे।
और वह यह सुनकर घबरा गया। ‘अरे, दलसुख सेठ उसे नौकरी से निकाल दे तो? नहीं, मैं ऐसा नहीं करूँगा।’
शारदा उसकी बात सुनकर खिलखिलाकर हँसी और हँसते हुए चल पड़ी। बाद में उसे विचार आया कि कहीं शारदा अपने गाल पर चिकोटी लेने को उसकी प्रतीक्षा नहीं कर रही है। और पूरी रात इसी विचार में ही निकल गई। भद्रा यदाकदा अकेले नवयुवक की कुशलता, दावे के खाने और रोटी पर ठीक से घी लगाने के बारे में पूछती ही रहती थी। अंततः कहती, ‘तनिक भी मत शरमाना। हम पडोसी हैं न?’
यह सुनना उसे अच्छा लगता। कितना सुख था यहाँ? घर की याद आ जाती, स्वजन याद आते, परंतु ये विचार जल्द ही बिखर जाते। शारदा थी न? उसे देखते ही मन फूल सा हलका हो जाता था। यदाकदा मात्र शारदा के लिए ही स्टूडियो से घर जाता।
चलचित्रों की शूटिंग के समय वह यदाकदा प्रेक्षक बनकर खड़ा रह जाता था। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। कैमरे वैसे ही इधर-उधर घूमते रहते थे। नायक-नायिकाएँ दलसुख सेठ के इशारों की प्रतीक्षा करते रहते थे। ऐसे समय में वह किसी नायक के स्थान पर होता और शारदा याद आ जाती।
प्रातःकाल नरहरि बाबू ने उसे विनम्रता से कहा, देखो, बाहर आते-जाते सावधान रहना। आजकल तूफानों का वातावरण है। कतिपय शरारती तत्त्व धमा-चौकड़ी करते ही रहते हैं। पर ये अंग्रेजी सरकार के सामने टिकने वाले नहीं हैं।’
भद्रा चंद्रवदन से उसकी जाति, गोत्र, स्वजनों के बारे में पूरी जानकारी लेना चाहती थी। शारदा ने उसे कहा था, ‘देखो, हमारी बात चल रही। समझते हो न?’
एक दिन चंद्रवदन ने एक सैनिक को प्रातः यह बड़बड़ाते सुना, देखना, अंग्रेज जाएँगे। चले जाएँगे, अबकी गोरी मेमों के साथ।
लाहौर की सड़कों पर सुरक्षा बलों की जीपें दौड़ रही थीं। सारे शहर का माहौल बड़ा विचित्र था। उसने पिछले चार सालों में इस शहर की ऐसी दुर्दशा कभी नहीं देखी थी। और उसी दिन शाम को चंद्रवदन अहमदाबाद जाने वाली गाड़ी में बैठ गया। अथाह भीड़ होने पर भी दलसुख भाई कई वेशकीमती चीजें अहमदाबाद भेज रहे थे। इसी लिए वे खुद ही स्टेशन पर आए थे।
उसे शारदा याद आई और आँखें नम हो गईं।
अलीबक्स ने ध्यान भंग करते हुए कहा, ‘जनाब, शरबत गरम हो रहा है।’
सलीम ने भी हँसते हुए चुटकी ली, ‘क्यों जनाब! क्या लाहौर में घूम रहे थे?’
‘हाँ वहीं था—लाहौर में, शारदा में। ट्रेन शारदा से पल-पल दूर होती जा रही थी। वह मन-ही-मन ट्रेन में बैठे-बैठे वह दृढ़ निश्चय कर रहा था कि दिलसुख की थाली सौंपकर वह लौटती ट्रेन से लाहौर लौट आएगा। घोड़ागाड़ी के किराए के दो आने देकर वह अपने कमरे पर पहुँचेगा और शारदा से मिलेगा। अरे हाँ, वह भी कोठरी के बाहर अपने घर के दरवाजे पर खड़ी होगी। बीच में ढाबे वाले को कहेगा कि वह आज से नियमित भोजन करेगा। पर ट्रेन अभी अहमदाबाद ही नहीं पहुँची थी कि आग की तरह यह खबर चारों ओर फैल गई कि देश का विभाजन हो चुका है—दो अलग-अलग देशों में। अंग्रेज अपनी गोरी मेमों लेकर जाने को हैं। यह सब सुनकर उसे बड़ा आघात लगा। सोचा, क्या शारदा दूसरे देश में? वह लाहौर गया? कभी नहीं मिल सकेगा? कल सुबह उसने क्या कहा था? मन में प्रस्फुटित हुए संबंधों का क्या? तार करने के अथक प्रयास किए। पर पोस्ट मास्टर का एक ही उत्तर था कि उसे उस देश में तार करने की आज्ञा ही नहीं है।
माँ भगवान् का आभार व्यक्त करते हुए सबको कहती, ‘भगवान् बड़ा दयालु है, उसने देश में तूफान उठने से पहले ही चंद्रवदन को सकुशल घर पहुँचा दिया।’
उन दिनों दोनों देशों में कई असंभव घटनाएँ हुई थीं।
वह भी शारदा के बारे में कहाँ किसी को कुछ भी बता सका था और मन में यह बात सहेजकर वह विगत चालीस सालों से जी रहा था। हाँ, अलीबक्स के पास मन की गाँठ जरूर खोली थी। शहर के साथ शारदा की भी गाथा गाई थी। अलीबक्स का दर्शनशास्त्र अलग ही था। वह कहता था, दोस्त, सब कुछ भूल जा। यादें ही दुःख देती हैं। वह नारी क्या तुझे याद करती होगी? व्यर्थ में उसे रटने से क्या लाभ? सब कुछ भूल जा।’
और वही अलीबक्स उसे एक लाहौर निवासी से मिलाने को ले आया था। वह चंद्रवदन की प्यास को जानता था। एक बार मिलेगा तो मन को शांति मिल जाएगी और संभव है कि इस बात को भूल ही जाए।
किसी भी शहर का इतिहास क्या होता है? मात्र ईंट, पत्थर, सीमेंट और इमारतें ही न? अंततः मानव की कहानी है न?
चंद्रवदन को अलीबक्स पसंद था। उसने दो-तीन घूँटों में शरबत पी लिया। इसी समय सलीम ने शायद यह सोचकर बोलना शुरू किया कि अतिथि के स्वागत में कुछ कहना चाहिए। तदुपरांत एक परिचय था, जानकारी भी मिल गई थी। उसने कहा, ‘महाशय, मैं आपको जानता हूँ।’
चंद्रवदन यह सुनकर चौंका।
‘आप चाँद मंजिल में रहते थे। मैं सामने ही अनार मंजिल में रहता था। जनाब, हम दोनों हम आयु हैं।’
चंद्रवदन क्षण-क्षण विस्मित हो रहा था। ‘जनाब, मुझे भली प्रकार याद है कि आप रोज हरक्यूलस साइकिल पर निकलते थे।’ वाह, कैसा संयोग? चंद्रवदन ने कहा।
जनाब, अब तो सारे शहर की काया ही पलट गई है। आप तो भुलावे में रास्ते ही भटक जाएँ। अब वह रास्ता फोर लेन हो गया है। नई-नई इमारतें बन गई हैं।
सदर बाजार एकदम ही बदल गया है। वहाँ अब सिने कलाकारों की भव्य कोठियाँ, बँगले बन गए हैं। जहाँ दलसुख सेठ का स्टूडियो था, वहाँ अब चार दूसरे स्टूडियो हैं। यह सब सुनकर चंद्रवदन की आँखें विस्मय से फटी रह गईं। विचार आया शारदा कहाँ होगी? क्या सलीम को यह मालूम है, शायद हो? वह भी इसी मोहल्ले में रहता था, अनार मंजिल में। मन में आया कि इन महोदय से पूछा जाए? शायद जानते हों?
अलीबक्स को लगा कि चर्चा पूरी हुई। यह मींटिग समाप्त होगी। नमाज कर हो रहा था। चाचा-चाची कट्टर नमाजी थे। पर इसी समय मानो चाचा को कुछ याद आ गया और वे बोले, ‘बिरादर! क्या आपको याद है कि आपके मकान में एक सरकारी बाबू भी रहता था, नरहरि बाबू? शायद आप जानते होंगे?’
यह सुनते ही वह चौंका। यह तो शारदा की ही बात। कैसे हुआ? उसी ने आगे होकर बात शुरू की ‘हाँ, सलीम भाई।’ चंद्रवदन ने उत्साहित होकर कहा, अलीबक्स भी चौंका। उसे भी ज्ञात था, चंद्रवदन कई बार यह चर्चा कर चुका था।
तत्पश्चात् यह परिवार सदर बाजार में रहने लगा था। यह मकान तोड़ दिया गया। सलीम एक-एक करके जानकारी दे रहा था। चंद्रवदन को अब शारदा बहुत ही समीप आई लगी। सलीम की बातों में वह आएगी ही। पर उसे प्यास छिपानी थी। वह कहाँ होगी?
वह श्वास रोककर ध्यानमग्न हो गया था। तत्पश्चात् उस परिवार ने ईसाई धर्म अपना लिया और चर्च में ही रहने लगा। सरकारी नौकरी छूट गई।
वह धैर्यपूर्वक सब सुनता रहा। पर इनमें शारदा कहाँ? नन हो गई होगी। सामने श्वेत वस्त्र पहने शारदा दिखाई दी और चर्च की घंटा ध्वनि सुनाई दी। मन क्षुब्ध हो गया।
फिर कुछ समय बाद पादरी सहित सभी ने इसलाम धर्म स्वीकार कर लिया। नए कस्बे में मस्जिद के पास ही घर था। सलीम कह रहा था और वह सुनता रहा। इतने सारे परिवर्तन किन कारणों से हुए? चंद्रवदन इन्हीं विचारों में खो गया। तत्पश्चात् शारदा सुकबुदाई तो वह बरबस बोला, ‘तो फिर शारदा?’
सलीम का ध्यान अभी पुराने लाहौर के नक्शे ही था। वह उसे ही देखता हुआ इस शहर की नई-नई जानकारियाँ दे रहा था। ‘जनाब, सदर बाजार में अब फिल्मी सितारों की कोठियाँ हैं। अब सारे बाजार की काया ही पलट गई है। सदर बाजार के पीछे ही क्या हवाई अड्डा है।’
चंद्रवदन ने यह कहाँ सुना था? पर बीच की बॉस की चिक में हलचल हुई, कंगन खनखनाए और पीछे से एक सिसकी सुनाई दी। भीतर एक स्पर्श छू गया और चंद्रवदन के मुँह से निकल पड़ा, ‘शारदा’।
सलीम कह रहा था, ‘जनाब, रावी के उस पार उस समय कुछ भी नहीं था न? वहाँ अब...।’
चंद्रवदन आर्द्र होकर बाँस की चिक के उस पार देख रहा था।
वापस लौटते समय अलीबक्स ने दार्शनिक भाषा में कहा, ‘चंद्रवदन, चलो मुलाकात तो हो ही गई। भले ही इसी प्रकार।’ दो क्षण रोकर कहा, ‘बाकी क्या किसी को कोई अंतिम श्वास तक मिल सकता है?’
उसकी दृष्टि में बाँस की चिक अभी तक हिल-डुल रही थी।
(हिंदी अनुवाद : शिवचरण मंत्री)