मुहब्बत और... (कहानी) : हाजरा मसरूर

Muhabbat Aur... (Story in Hindi) : Hajra Masroor

बाहर ख़ूब ज़ोर-शोर से आँधी चल रही थी। लैम्प की मद्धम सी रौशनी में कमरा ख़ौफ़नाक मा’लूम हो रहा था। माँ आहिस्ता-आहिस्ता क़दम उठाती बंद दरवाज़े की तरफ़ बढ़ी लेकिन अचानक पलट कर लैम्प की बत्ती ऊँची कर दी।

“मेरी बच्ची, मेरा तो कलेजा फटा जा रहा है... तुम इस तरह न सोचो, मैं फिर कहती हूँ, हाय मुझ जन्मजली के मुँह से अपनी बातें क्यों निकल गईं…”, माँ ने गिड़गिड़ा कर कहा, उसकी आँखों में जवानी की चमक के साथ एक-बार फिर आँसू उमड आए। वो शाम से ही अपनी बेटी के पास बैठी हुई थी कि अचानक उसने दुखों की लंबी दास्तान छेड़ दी थी। और अब आठ बजने वाले थे। इस दास्तान का उरूज आठ बजे होने वाला था, क्योंकि वो ठीक उसी वक़्त उसकी बेटी से मिलने आने वाला था। लड़की अभी तक बर्फ़ की सिल की तरह मुंजमिद बैठी थी मगर जैसे क़तरा-क़तरा कर के पिघल रही थी। लैम्प की सोनी रौशनी में उसे अपनी माँ का चेहरा ख़ूबसूरत और जवान लग रहा था, दहाने के गिर्द गहरी होती हुई क़ौसें और कनपटियों पर झुर्रियों के महीन जाल ग़ाइब से थे। किशमिशी रंगत के पपोटों तले कपकपाते हुए आँसू और ख़ुश्क होंट। उसे अपनी माँ एक ख़ूबसूरत नन्हे की मौत पर लिखे हुए मरसिए की तरह नज़र आ रही थी।

“मेरी बच्ची, मैं कहती हूँ। मैं ज़िंदा ही क्यों रही। मैं पैदा होते ही क्यों न मर गई, जो आज अपनी औलाद की ख़ुशीयों पर साँप की तरह कुंडली मार कर बैठी हूँ।”

माँ बैन करते हुए आवाज़ से रोने लगी... और फिर क़रीब की पुलिस चौकी पर आठ का गजर सुनकर पागलों की तरह भाग कर कमरे से निकल गई।

“हिना... पता नहीं मुझे आप कितना पत्थर समझती हैं, मैं अंधी हो गई थी। आपने मुझे आँखें दीं। मैं आप पर से क़ुर्बान, अम्मी सुनिए तो सही।” लड़की की मज़बूत आवाज़ चीख़ती-ग़ुर्राती आँधी में ज़र्रा-ज़र्रा हो कर बिखर गई। लेकिन माँ वापिस न आई... लड़की ने जैसे एक दम थक कर आँखें मूंद लीं। आँधी ब-दस्तूर ग़ुर्रा रही थी, बंद खिड़कियों पर नन्हे-नन्हे कंकर बज रहे थे और खुला हुआ दरवाज़ा भी धड़ से बंद हो जाता और कभी अचानक खुल कर ख़ाक, धूल और सूखते पत्तों का एक रेला अंदर बुला लेता। लड़की में हिलने तक की सकत नहीं थी, लेकिन उसे अपना रोआँ-रोआँ हस्सास और बेदार मा’लूम हो रहा था। उसे अपने तमतमाते हुए चेहरे पर ख़ाक के जर्रात तक का लम्स महसूस हो रहा था, ठंडे सोंधे, चमकते हुए ज़र्रात उसके जवान चेहरे को वहशियाना अंदाज़ से छूते और फिर बे-जान हो कर जिल्द पर गिर जाते।

पता नहीं कैसे तसव्वुरात की कड़ियाँ झनझना कर मिलती ही चली गईं, तमतमाया हुआ चेहरा नाज़ुक सी मोमबत्ती बन गया और ख़ाक के बे-वक़्त ज़र्रे जीते-जागते पतिंगे आँधी का जोश-ओ-ख़रोश बढ़ता ही गया और बिजली थी कि फटी पड़ती।

“अब शायद ही वो उस वक़्त घर से निकल सके, आँधी भी तो ग़ज़ब की है।”, लड़की ने अफ़यूनियों की तरह बे-दिली से सोचा, और फिर ख़ुद को आँधी के तिलिस्म में खो दिया। उसे आँधीयों में चलती हुई तेज़ हवाओं से इश्क़ भी तो था। वो हमेशा ऐसे गूँजते-गरजते, बोलते-गाते मौसम में बहक कर सोचा करती, बस ऐसे ही सुहाने समय मेरी ज़िंदगी में कोई बड़ी ख़ूबसूरत, कोई बड़ी ग़ैर-मा’मूली बात होगी और उस वक़्त एक ग़ैर-मा’मूली बात हो गई। तेज़ी से बंद होते हुए दरवाज़े के पट बीच ही में ठहर गए और वो ज़ोर करते हुए पट्टों के दरमियान तना हुआ खड़ा था। गुलाबी सा चेहरा और धूल से अटे हुए बाल।

“आँधी, तूफ़ान, जंगल, मंदिर, मौत और ज़िंदगी। मैं अपने रास्ते की हर रुकावट को ठुकराता तेरी आवाज़ की बाज़-गश्त बन कर तुझ तक पहुँचूँगा।”, एक भूली-बिसरी नज़्म के चंद मिसरे लड़की की याददाश्त से उभर कर कमरे की फ़िज़ा पर छा गए। लड़की ने जल्दी से अपने चेहरे पर निसार हो कर मरने वाले ख़ाक के ज़र्रों को रगड़ कर आँचल में दफ़न कर लिया। लेकिन फ़ुज़ूल ही तो? ज़रा देर पहले उसने अपनी माँ से वा’दा किया था कि वो अपने चेहरे पर लड़के की नज़र भी न पड़ने देगी। लड़की के दाँतों तले रेत सी आ गई। लड़के ने अपनी पीठ किवाड़ों से लगाए-लगाए हाथ ऊँचा कर के दरवाज़े की चटख़्नी चढ़ा दी। और उसका चौड़ा तंदरुस्त सीना इस अदा से और भी जाज़िब मा’लूम होने लगा। लड़की के सीने पर जैसे किसी ने उंगली रख दी। वो तेज़ी से पीठ मोड़ कर खड़ी हो गई। आँधी भपर-भपर कर दरवाज़ा खटखटाने लगी। कमरे में ख़ाक के ज़र्रे नाच रहे थे, लैम्प की बत्ती बस यूँही लरज़ रही थी।

“मैं आ गया” लड़के ने सियाह रोऊँ से भरा हुआ मज़बूत हाथ लड़की के कंधे पर रख दिया। भारी आवाज़, इतनी नर्म, इतनी गुदाज़ और इतनी धीमी भी हो सकती है? लड़की से जैसे किसी और ने पूछा और ये भी तो पूछा कि क्या तू ये हाथ सच-मुच झटक सकती है।

“चुप रहो। चुप रहो भई।” लड़की ने ख़ुद को डपट दिया।

“अरे क्या हुआ भई।”, लड़का घबरा कर हकलाने लगा।

लड़की घूम कर तेज़ी से कुर्सी पर बैठ गई। कमरे में ज़रा देर को ग़ैर-मुतवक़्क़े सी ख़ामोशी छा गई, “मैं तुमसे शादी नहीं कर सकती, मैं तुमसे सच्ची मुहब्बत नहीं महसूस करती, इसलिए तुम मुझसे कोई उम्मीद मत रखो, समझे!” लड़की ने पूरे सुकून से उसकी आँखों में आँखें डाल कर कहा।

“मैं... मैं…”, लड़के की ज़बान ऐंठ-ऐंठ गई, वो काँप रहा था।

“मैं कह चुकी, अब तुम जाओ।”, लड़की ने मज़बूत आवाज़ में फिर कहा, और मुँह फेर कर लैम्प की तरफ़ देखने लगी, जिसकी बत्ती किसी ख़राबी के बाइस मौहूम तरीक़े पर लरज़ रही थी।

“तुम्हें क्या हो गया है, मैं तुम्हारे बग़ैर ज़िंदा नहीं रह सकता, तुम्हें मेरे ख़िलाफ़ किसी ने भड़काया है? बताओ आख़िर बात किया है। मेरा दिमाग़ फट जाएगा। तुमसे छुट कर में अपनी जान दे दूँगा, अगर ऐसी ही बात है तो मैं एक लम्हा ज़िंदा नहीं रह सकता।”, लड़के ने बे-क़रार हो कर घुटने टेक दिए और अपना सर लड़की की गोद में डाल दिया। अचानक वो बच्चों की तरह सिसकने लगा।

“मैं कह चुकी भई।”, वो बेज़ारी से उठकर दीवार की धुँदली सफ़ेदी में कोई निहायत अहम तहरीर पढ़ने की कोशिश करने लगी। और ये इन्हिमाक उस वक़्त तक रहा जब तक कि आँधी के एक भीगे हुए झोंके ने उसे दीवार की तरफ़ एक पींग सा न दे दिया। खुले दरवाज़े के पट कभी धड़ा के से खुल जाते और कभी पुर-असरार तरीक़े पर बंद हो जाते।

“वो चला गया... वो मुझे छोड़कर चला गया?”, लड़की होंटों के ज़ाविए बिगाड़ कर मनमनाई। ठोढ़ी सिमट गई, जिस्म कपकपाया, और वो ठंडी-ठंडी मुट्ठियों से अपनी आँखें मिलने लगी, गर्म-गर्म आँसुओं से उँगलियाँ तर हो गईं। तब वो एक हल्की सी आवाज़ में रोने लगी। तेज़ हवाओं के साथ पानी की मोटी-मोटी बूँदें दरवाज़े के अंदर पुख़्ता फ़र्श पर बज रही थीं। लड़की का कलेजा कटा जा रहा था और वो बस रोए चली जा रही थी। ऐसे ख़ूबसूरत पुर-शोर रोमैंटिक मौसम में ये कुछ भी होना था? इस ख़याल से उसके सब्र-ओ-ज़ब्त का बूंद पारा-पारा हुआ जा रहा था।

एक ऐसे ही पुर-शोर मौसम और सुर्मगीं शाम को लड़की ने लड़के की तरफ़ पहली बार ग़ौर से देखा था। लड़का अपनी बॉलकनी की जाली पर झुका हुआ पीतल की लुटिया से चुल्लुओं पानी की कुल्लियाँ किए जा रहा था और रह-रह कर मुँह धोए जा रहा था। और इतनी गूंज गरज से खंकार और थूक रहा था कि वो अपने कमरे की खुली खिड़की पर झूमते हुए बूँदों के सहरे में से झाँक कर उसे देखने लगी।

“कैसा अहमक़ बोर आदमी है। भला ऐसे प्यारे ठंडे समय में बॉलकनी में खड़े हो कर बारिश का तमाशा देखने के ब-जाए कोई ये हरकत करता है।” और वो अपने नन्हे भाई को गोद में उठा कर हँसी तो नन्हा भी तालियाँ बजा-बजा कर लड़के की नक़ल करने लगा। लड़के ने उठा हुआ चुल्लू गिरा दिया, और दो हँसते हुए चेहरे देखकर बौखलाया हुआ अंदर भाग गया। लड़की को उसके भाग जाने से मौसम कुछ सूना सा लगने लगा। मगर नहीं, इस हल्के से वाक़ि’ए के बा’द मुतमइन और आसूदा हाल भोला नौजवान उससे भाग कर न जा सका। भला ऐसे गर्म मुल्क में, ऐसे भीगे-भीगे ख़ुनुक मौसम में मिली हुई नज़रों को दिल के पार होने में देर ही क्या लगती है। लड़का शर्मीला और कँवारा था और अपने ऊँचे अफ़्सर किस्म के चचा की वजह से एक बड़ी मुलाज़मत का उम्मीदवार। लड़की नौ-उ’म्र थी और घर का माहौल उदास-उदास। उसने मारा मारी में बी-ए करना चाहा मगर फ़ेल हो गई और अब एक सडे से प्राईवेट स्कूल में पढ़ाती थी। और स्कूल को तरक़्क़ी करते देखकर हमेशा इस डर से काँपती रहती कि देखो कब निकाली जाऊँ...

लड़की के अब्बा ने नन्हे मियाँ की पैदाइश से पहले ही उसकी माँ को तलाक़ देकर एक मोटी सी बेवा औरत से शादी रचा ली थी और अब एक बहुत मा’मूली सी रक़म अपने बच्चों के गुज़ारे के लिए हर माह भिजवा देते। जिसे लड़की के छोटे बेकार मामूँ अपने पास रखते और हर इतवार को सिनेमा से आकर सबको फुज़ूलखर्ची के ख़िलाफ़ लेक्चर दिया करते और सारी मुसीबत का ज़िम्मेदार बच्चों की बदक़िस्मती को क़रार देते। लड़की के भाई-बहन जब स्कूल चले जाते और जब वो अपने मुहल्ले के सडे से प्राईवेट स्कूल पहुँचने के लिए बुर्के की डोरियाँ कसने लगती, तो वो देखती कि माँ बावर्चीख़ाने से उठकर तख़्त पर रखी हुई सिलाई की मशीन पर जा बैठती, और दिन-भर शहर के दर्ज़ियों के तवस्सुत से आए हुए कपड़े सीती रहती। और रह-रह कर होंट भींच कर ज़मीन पर थूक देती और शाम को जब वो स्कूल से भेजा पच्ची कर के घर आती तो माँ सिलाई की मशीन से उठकर बावर्चीख़ाने में पहुँच जाती। ये सारे हालात, ये इतने बहुत से दुख लड़की को जैसे जन्म-जन्म के लिए चिलचिलाती धूप में खड़ा रखते और उसे हर वक़्त अपने गले पर एक गिरफ़्त सी और आँखों में नमी सी महसूस होती रहती

मगर जब यकसाँ से आ’म दिनों से अलग किसी दिन सूरज न दिखता और रात, सितारों का ग़ुबार न फैलता। तेज़-तेज़ हवाएँ चलतीं या आसमान से ज़मीन तक नमी ही नमी फैल जाती, बुँदियाँ गातीं, किवाड़ बजते और दिन सुर्मगीं होता या रात घोर अँधेरी, गूँजती गरजती हुई तो वो जैसे अपने गले की गिरफ़्त को झटक कर एक लंबी साँस ले सकती। उसकी मुट्ठीयाँ कस जातीं और जलते हुए चेहरे पर तेज़ और ठंडी फुवार इतनी अच्छी लगती कि बस... वो ख़्वाबों की झीलों पर कंवल की तरह खुल कर अंगड़ाइयाँ लेती... वो पहाड़ों पर हिरनियों की तरह कूदती उनकी चोटियों तक पहुँच जाती, जहाँ बारह माह बर्फ़ जमी रहती। वो घने जंगलों में जा कर गुम हो जाती, जहाँ ऊँचे-ऊँचे दरख़्तों की झुकी-झुकी शाख़ों तले ठिटक कर कुछ मज़े की बातें सोचने लगती...

वो दार्जिलिंग पहुँच जाती जहाँ चाय के ढलवान बाग़ों को ज़र्द-रू आसामी लड़कीयों को, और बाज़ारों में पड़े हुए अन्ननासों के ढेरों को बादल इतरा तर कर छूते और राहियोँ के साथ-साथ बे-तकल्लुफ़ दोस्तों की तरह चलते... और वो जुग़राफ़िया की लगाई बुझाई से मुतअस्सिर हो कर अपनी ज़िंदगी की सबसे पुरानी आरज़ू के मुताबिक़ चेरापूँजी भी पहुँच जाती। जहाँ की ख़ाक में बादल दुनिया के सारे बादलों से ज़ियादा पानी टपकाते रहते। जहाँ ये बादल बाँस की झोंपड़ियों में घुस कर दुन्द मचा देते। हाथ को हाथ न सूझता। और फिर कोई मज़बूत सा हाथ बढ़कर उसकी भींची हुई मुट्ठीयाँ खोल देता। और वो ख़्वाब ही ख़्वाब में यूँ महसूस करती जैसे उसका वजूद फैल रहा है और बह रहा है।

लेकिन आज तो जैसे लड़की का सारा वजूद हमेशा के लिए सिमट-सिकुड़ कर मैदानों में पड़ी हुई एक छोटी सी तन्हा चट्टान में तबदील हो गया था, और अब वो इस हादिसे पर सिसक-सिसक कर बच्चों की तरह रो रही थी। और उसका ख़्वाबों भरा मौसम अपने शबाब पर था। आज शाम ही की तो बात है कि लड़की के छोटे भाई के हाथ लड़के ने किताब में एक पर्चा रखकर भिजवाया। उसमें लिखा था, “अब हमें हमेशा इकट्ठे रहने के मुतअल्लिक़ सोचना है, आज पी,सी.एस. का नतीजा आ गया है, मैं कामयाब हूँ। मैं आज आठ बजे तुमसे और तुम्हारी अम्मी से मिलने आऊँगा।”

लड़की स्कूल से आकर ग़ुस्ल-ख़ाने में गुनगुना कर नहा रही थी। छोटे भाई ने घर में आकर आपा-आपा का शोर मचा दिया। और जब आपा नज़र न आई तो लड़के की दी हुई किताब एक तरफ़ डाल कर अम्माँ की मशीन में उंगल बेद करने लगा और जब काफ़ी देर बा’द लड़की ग़ुस्ल-ख़ाने से सीप की तरह निखरी सुथरी बालों से पानी टपकाती निकली तो माँ ने सिलाई की मशीन से उठकर किताब और पर्चा अलग-अलग उसे पकड़ा दिया। लड़की पर्चा पढ़ती रही और उसके भूरे बालों से टपकता हुआ पानी नीली तहरीर को काग़ज़ पर फैलाता रहा, माँ सुकून से सिलाई करती रही और बेटी उस नन्ही सी तहरीर को पढ़ ही न सकती थी।

और ताँबे की तरह तपते हुए आसमान पर रेंगते हुए सफ़ेद-सफ़ेद बादल कभी डूबते सूरज से दस्त-ओ-गिरेबान हो जाते, कभी शुआ’ओं के धक्के खा कर उफ़ुक़ से भी परे लाल-लाल हो कर धँस जाते। छोटी सी अंगनाई की दीवार पर उचकते हुए कव्वे के परों पर कभी सोने की चमक फिर जाती और कभी काजल से भी गहरी स्याही।

और जब लड़की अपने कमरे में पहुँच कर पलंग पर चुप-चाप पाँव लटकाए बैठी तो माँ को अपनी तरफ़ आता देखकर उसका चेहरा शर्म से लाल हो गया। लंबी-लंबी उँगलियाँ गदगदी हथेली में पैवस्त हो गईं। लड़की का जी चाहा कि रुख़स्त होती हुई दुल्हनों की तरह वो भी माँ के पहलू में मुँह छुपा कर हौले-हौले रोने लगे। माँ नाराज़ भी तो नज़र न आती थी। आख़िर उसने इतनी अच्छी माँ को ये बात ख़ुद ही क्यों न बता दी? माँ ने लड़की के क़रीब बैठ कर उसे कंधे से लगा लिया और लड़की सुर्ख़ पड़ कर रोने लगी थी।

“वो सामने वाले घर का लड़का है न?”, माँ ने पूछा था। लड़की ने झिजकते हुए इस्बात में गर्दन हिला दी।

“मैंने उसे कई बार देखा है, बहुत प्यारा लड़का मा’लूम होता है। तुम रो मत, इसमें रोने की क्या बात है, सारी लड़कियाँ एक दिन माँ को छोड़कर चली जाती हैं, मैं तो बहुत ख़ुश हूँ, बेटी तो पराया माल है।” इतना कह कर माँ की आँखों से आँसू बहने लगे, वो होंट भींच कर, काँपती हुई उँगलीयों से आँसू पोंछने लगी, जिनकी पोरें सूई की नोक ने उधेड़ कर रख दी थीं।

“अम्मी अब आप क्यों रो रही हैं?”, लड़की ने पूछा।

“मैं तो यूँही रो रही हूँ, आँखों को, आँसू बहाने की आदत जो है, मैं तो बहुत ख़ुश हूँ।” इतना कह कर माँ और भी फूट पड़ी। उसका छरेरा जिस्म सिसकियों से लरज़-लरज़ गया, “सब मर्द तुम्हारे अब्बा जैसे थोड़ी होते होंगे। वो लड़का तो बहुत मा’सूम मा’लूम होता है, वो तुमसे मुहब्बत करेगा, तुम्हारा दिल नहीं दुखने देगा। मैं तो ये सोच कर फूले नहीं समाती। वो तुम्हें अपने साथ ले जाएगा, तुम्हें हर किस्म का सुख देगा। अल्लाह ने चाहा तो सब ठीक ही होगा।” माँ ने रुक-रुक कर ये सब कहा और फिर हल्की-हल्की आवाज़ से रोने लगी।

“अम्मी जब आप ख़ुश हैं तो फिर रो क्यों रही हैं।”, लड़की ने हद दर्जा परेशान हो कर माँ से पूछा था और माँ के “कुछ नहीं” पर मिस्र रहने के बा-वजूद वो माँ से लिपटी रही और उसके रोने की वज्ह से पूछती रही। और आख़िर बड़ी देर बा’द माँ ने अँधेरे होते हुए कमरे में एक हनूत-शूदा लाश की तरह बैठ कर अपने दुखों की लंबी गंभीर दास्तान छेड़ दी। धुँदलके में लिपटे हुए कमरे में उसकी काँपती हुई आवाज़ बड़ी पुरसोज़ और गहरी मा’लूम हो रही थी। उसने अपनी नौ-उ’म्र बेटी को बताया कि वो पैदा ही बदनसीब हुई थी। उसकी माँ उसे जन्म देते मर गई और उसने बाप की सख़्तियों और सौतेली माँ की नफ़रतों के साए में बारह तेराह साल पूरे किए। अभी उसे मर्द के मुतअल्लिक़ सोचना भी न आया कि वो एक अट्ठाईस साल के मर्द से ब्याह दी गई... वो अट्ठाईस साल का मर्द जिसने इतनी उ’म्र औरत को सिर्फ़ कनखियों से देखा था। उसका शौहर तन्हाइयों में एक ख़ुदग़रज़ वहशी के रूप में नज़र आता। सास नंद उसे कम जहेज़ लाने के ताने उठते बैठते देतीं। और ये जलवतें, ये ख़ल्वतें आहिस्ता-आहिस्ता उसके दिल-ओ-दिमाग़ पर एक कनखजूरे की तरह अपने बेशुमार पाँव डुबोती ही चली गईं और बच्चों पर बच्चे होते चले गए। माँ ने ठंडी-ठंडी साँसों के दरमियान ये सारी बातें बड़ी दर्दनाक तफ़सील से बताएँ। और फिर मुजरिमों की तरह आँखें झुका कर बेटी से एक ए’तिराफ़ किया।

“मुझे ये नफ़रतों और हक़ारतों की पैदावार गंदे कीड़ों की तरह नालीयों में बहा देना चाहिए थी। मगर मैं ऐसा न कर सकी। मैंने हर तरफ़ से महरूम हो कर अपने बच्चों से मुहब्बत की और सिर्फ़ उनकी ख़ातिर सब कुछ सहा लेकिन इतनी आजिज़ी, सब्र-ओ-शुक्र के बावजूद तुम्हारा बाप मुझसे दामन छुड़ाकर भाग गया।”

ख़ामोश बैठे-बैठे लड़की का जी चाहा कि वो अपने बाप की गर्दन मरोड़ डाले, उसे अपना महबूब भी अपने बाप की सौत में नज़र आने लगा था... और माँ बोलती गई थी।

“लेकिन इतनी तवील अज़ीयत-नाक ज़िंदगी गुज़ारने के बा’द मुझे तुम्हारे बाप की यादगार में पाँच बच्चे और सौ रुपये माहवार की रक़म मिलती है... सौ रुपये...”

माँ ने अपनी उधड़ी हुई उंगलियाँ अपने रुख़्सारों पर फेरें और आँखें फैला कर कहा, “अब यही रक़म मिलेगी, इस में तुम्हारे मामूँ सिनेमा देखेंगे, इतने ही पैसों से पाँच पेटों की आग बुझेगी और इसी से तुम्हारे तीनों भाईयों और तुम्हारी बहन के मुस्तक़बिल के सारे घिरोंदों के लिए ईंट गारा मुहय्या किया जाएगा ये सारी बातें माँ ने उसी तरह बताईं थीं जैसे कोई क़रीब-उल-मर्ग अपनी औलाद को अपने पोशीदा ख़ज़ानों का पता दे रहा हो, उसके आँसू ख़ुश्क हो चुके थे, फटी-फटी आँखों, ख़ुश्क होंटों और उधड़ी हुई उँगलियों समेत वो अँधेरे होते हुए कमरे में एक आसेब की तरह नज़र आ रही थी।

और इस वक़्त लड़की ने पलंग से उठकर लैम्प जलाते हुए बड़े अज़्म से कहा था, “मुझे मुआ’फ़ कर दो अम्मी, मैं सब देखते हुए भी कुछ नहीं समझी थी, मैं अब उ’म्र-भर शादी नहीं करूँगी, मुझे मर्द ज़ात से नफ़रत हो गई…”

अम्माँ एक दम घबरा कर चीख़ने लगी, “नहीं नहीं, पागल न बनो।” लेकिन वो कहती रही, “मैं अपनी इतनी बेकस, इतनी दुखी अम्मी से जुदा हो कर कहीं नहीं जा सकती, मैं अपने भाईयों और बहन के लिए सब कुछ करूँगी... मैं अब तक झूटे ख़्वाब देखती रही, मैं ऐसे ख़्वाबों पर थूक दूँगी।

और अभी ज़रा देर पहले जब रसीले ख़्वाबों से लदी हुई ज़न्नाटेदार हवाएँ उसके कमरे का दरवाज़ा खटखटा रही थीं, तो उसने अपनी ज़िंदगी की सबसे ज़ियादा ख़्वाबनाक़ हक़ीक़त पर सच-मुच थूक दिया। एक ठोकर मार दी, और वो भोला सा लड़का दिल-शिकस्ता हो कर एक दम चला गया, गूँजते हुए अँधेरे के सारे ख़्वाब दर्दनाक चीख़ें मारते उससे दूर भाग गए और उसकी मुहब्बत जो ज़िंदगी की सबसे बड़ी हक़ीक़त थी, एक भयानक ख़्वाब बन गई और अब वो उस शेख़ी ख़ोर बच्ची की तरह रो रही थी जिसने अपनी गुड़िया को उधेड़ कर उसकी रुई बिखेर दी हो।

“पानी उसी धड़ाके से बरस रहा है और अब शायद वो मेरी ज़िंदगी में कभी वापिस न आएगा लड़की ने अपनी भीगी हुई मुट्ठीयाँ गालों से लगा कर कमरे से बाहर अँधेरे में घूरते हुए बिलक कर सोचा। और दौड़ कर बे-ताबी से पलंग पर गिर पड़ी जैसे यूँ पड़ कर, सोचने की सारी क़ुव्वतें मुअत्तल ही तो हो जाएँगी। मैले तकिए में उसने अपना चेहरा डुबो दिया और घुटने छाती से लगा लीए।

“छमाछम बरसता पानी आँगन के पुख़्ता फ़र्श पर कैसे चटाचट बज रहा है, साथ के कमरे में तीनों भाई बेफ़िक्री से बहन के साथ शोर मचा रहे हैं। छोटा भाई मिस्र है कि सबको मिलकर कोई अच्छा सा गीत गाना चाहिए। मामूँ शायद अभी तक घर नहीं पहुँचे, वर्ना वो बच्चों को इस तरह ख़ुश होने पर ज़रूर डाँटते... मशीन की आवाज़ नहीं आ रही। अम्मी शायद बावर्चीख़ाने में चूल्हे के पास पीढ़ी पर बैठी कुछ सोच रही होंगी। वो हर वक़्त कुछ सोचती रहती हैं। कहीं वो रो न रही हों... मैं उन्हें रोने नहीं दूँगी ख़यालात दबे क़दमों उसके दिमाग़ में घुसने लगे।

“और मैं जो रो रही हूँ।”, वो ख़ुद अपनी सोच के बीच में अकड़ कर खड़ी हो गई।

“तो रो, मना कौन करता है।”, हालात ने एक ठंडी साँस भर कर उससे कहा।

“और जो वो मर गया तो फिर।”, लड़की ने बिसूर कर सोचा, “वो मेरा आख़िरी जवाब सुनकर चुप-चाप चला गया। वो कहता था कि मेरे बग़ैर मर जाएगा, उसे मुझसे मुहब्बत थी, वो मुझसे मायूस हो कर मर जाएगा। सब मर्द, अब्बा जैसे थोड़ी हो सकते हैं।”

लड़की का कलेजा जैसे फटने लगा, और वो तकिया नोच-नोच कर अपनी सिसकियाँ ज़ब्त करने लगी। वो बार-बार कर्ब से अपने पाँव बिस्तर पर रगड़ रही थी। अचानक बिजली ज़ोर से चमकी और फिर देर तक कड़ाके की आवाज़ सुनाई देती रही... लड़की के कान में जैसे कोई फुंकारा, “हो सकता है तेरे ठुकराए हुए ने उसी वक़्त तीसरी मंज़िल से छलांग लगा दी हो या कुछ खा लिया हो... बड़ी बूढ़ीयाँ कहती हैं कि जब इतनी ज़ोर से बिजली कड़ के तो समझो कहीं गिरी ज़रूर है। और बिजली इस धरती पर जभी गिरती है जब किसी मज़लूम की आह अ’र्श को हिला दे...”

लड़की फड़फड़ा कर खिड़की की तरफ़ भागी और अपने ना-मुराद आशिक़ के घर की तरफ़ आँखें फाड़-फाड़ कर देखने लगी जहाँ हर कमरे में रौशनी थी।

“अरे इस घर के सारे लोग अब तक जाग क्यों रहे हैं? हो सकता है सब उसे बचाने की कोशिश कर रहे हों। हो सकता है, सब अभी ख़ून और पानी में भीगी हुई लाश गली से उठा कर अंदर ले गए हों, हो सकता है, उसने कोई तेज़ ज़हर पी कर अभी-अभी कलेजे के टुकड़े उगल कर आँखें बंद की हों... हो सकता है... ऐसा ही हुआ है!” उसके रोएँ-रोएँ से पुकार आई।

और उसने बे-ताबी से अपनी काँपती हुई बाँहें खिड़की से बाहर फैला दें और झुक कर गली में देखने लगी। इस वक़्त नीचे छलांग लगा दूँ तो...? उसने अपने आपसे पूछा... लेकिन मेरी बेकस माँ मेरे मा’सूम भाईयों और मेरी नौ-उ’म्र बहन को, मेरी सजी हुई डोली की तरह मेरी मय्यत भी तो कोई फ़ायदा नहीं पहुँचा सकती!

बिजली की चमक से लड़की की आँखें बंद हो गईं और वो बेचारगी से खिड़की की चौखट पर सर नहेवड़ा की रहगी। उसके बालों को नम-आलूद हवा तह-ओ बाला कर रही थी और मोटी-मोटी बूंदियों की छींटें हवा के तेज़ झोंकों में उसके जलते हुए चेहरे पर पड़ रही थीं और उसका दिमाग़ एक दम माऊफ़ हो चुका था। तेज़ बौछार पर बिजली फिर चमकी और खिड़की के माथे पर झूमते हुए बूंदीयों के सहरे के पार उसने अपने ना-मुराद आशिक़ के घर का दरवाज़ा खुलते देखा, और डेवढी में बहुत से लोगों के हाथों पर सफ़ेद-सफ़ेद कपड़ों से ढकी हुई एक लाश।

“यक़ीनन वो लाश है।” उसने अपनी आँखें ज़ोर से मीच लीं और फिर दीवानों की तरह दौड़ कर अपने पलंग पर गठरी बन गई।

“आख़िर वो मर गया न। मुझे न पा कर उसने ये दुनिया ही छोड़ दी। हाय ये क्या हो गया? ये क्यों हो गया।” लड़की पलंग पर लोट-लोट कर रोने लगी। उसका दिमाग़ फटा जा रहा था। उसकी मुट्ठीयाँ भिंच गईं, जैसे उसने अपने महबूब का दामन पकड़ रखा हो। लड़की बहुत देर तक बे-तहाशा रोती रही।

“हाय तुम क्यों मर गए। तुम मुझसे क्यों छुट गए, मैं तुम्हें दूर से भी देखकर जी लेती। अब कैसे कटेगी ये उ’म्र।” वो बार-बार मुँह ही मुँह में दोहरा रही थी, वो कभी अपने बाल खसोटने लगती और कभी गिरेबान को झटके देती। उसका जी चाह रहा था कि अपने जिस्म के परख़चे उड़ा कर गली में उछाल दे, अपनी बोटियाँ कुत्तों कव्वों को खिला दे। लैम्प की थरथराती रौशनी कम हो रही थी। लड़की की माँ लैम्प में तेल डालना भूल गई थी। लड़की रोते-रोते मुज़्महिल हो गई.... उसके आँसू बहना बंद हो गए और हाथ पांव सुन से हो कर पड़ गए। और अब उस के बोझल दिमाग़ में वो ख़ुद उभरी। एक ख़ूबसूरत नौ-उ’म्र बेवा! उसके कपड़ों में सियाह-रंग की बोहतात थी और बाल खुले हुए। एक हाथ सीने पर और दूसरा उड़ते हुए बालों पर।

माँ ने सिलाई की मशीन से सर उठा कर डबडबाई आँखों से पूछा, “मेरी बच्ची, मेरी लाडली मैं और तेरे बहन भाई तेरे ख़ता-वार हैं... मगर ये तो बता, तुझे मार कर हम क्यों जिएँ?”

“नहीं मेरी जान अम्मी... ये मेरा और उसका सौदा है। वो सच्चा था और मैं भी झूटी नहीं थी। वो मेरे बग़ैर नहीं रह सकता और में उसके साथ नहीं रह सकती थी... कुछ उसने मुझे दिया, अब मैं भी तो उसे कुछ दूँ, मैं मज़ार-ए-महबूब पर सारी मुस्कुराहटें नोच कर चढ़ा दूँ गी, अपनी ख़ुशीयाँ अपने आँसू सब उस पर से निछावर कर दूँगी। अब वही मेरा माज़ी है और वही मेरा मुस्तक़बिल!”

उसकी छोटी बहन ने ज़िंदगी में ग़ालिबन पहली मर्तबा फ़िक्रमंद हो कर रोते हुए पूछा, “आपा तुमको क्या हो गया है?” और लड़की ने भी ज़रा होंटों के गोशों में मुस्कुरा कर जवाब दिया, “तुम नहीं समझतीं... मैं क़दीम दास्तान-ए-इश्क़ की एक और हीरोइन हूँ। मैं शीरीं भी हूँ और लैला भी। लड़की की सहेलीयों ने हैरान हो कर कहा, “तुम तो जीते-जी मर गईं, तुम्हारे बालों को कंघी नहीं छू सकती। तुम्हारे जिस्म को शोख़ रंग मस नहीं कर सकते। तुम्हारे होंटों को मुस्कुराहट से बैर है, तुम्हारी आँखें कभी ख़ुश्क न देखें।”

“मैं... मैं तो अपने महबूब की लौह-ए-मज़ार हूँ।”

दिल-ओ-दिमाग़ के सफ़्हात पर एक अन्दोहनाक मर्सिया लिखा जाता रहा। और रात उतनी ही काली उतनी ही ख़ूबसूरत उतनी ही गाती और बरसती रही। और फिर जब बिजली एक-बार फिर ज़ोर से कड़की तो लड़की ने पलंग पर बैठ कर बिलकना रोना शुरू’ कर दिया।

“नहीं नहीं मैंने उसे कैसे ठुकरा दिया, मैं उसके बग़ैर ज़िंदा नहीं रह सकती, वो मेरे नाना और मेरे बाप के गुनाहों का ज़िम्मेदार क्यों हो? मैं भी मर जाऊँगी, मैं दीवारों से अपना सर टकराऊँगी, मैं अपना गला घोंट लूँगी। मैं अपना गला घोंट लूँगी वो नम हवा को अपने फेफड़ों में खींचने की कोशिश करने लगी। उसे अपना गला बंद होता मा’लूम हो रहा था। हाथ पाँव सनसना रहे थे और फूले-फूले सुर्ख़ पपोटे खुल भी न सकते थे। उसके कानों में जैसे कहीं बहुत दूर से पानी बरसने की सुहानी आवाज़ आ रही थी। उसने तक़रीबन बुझते हुए लैम्प की मद्धम रोशनी में ज़रा सी आँखें खोल कर अपने दुपट्टे का एक हल्क़ा बनाया और गर्दन में पहन लिया। दूसरे लम्हे वो बिस्तर पर गिर गई।

लैम्प बुझ गया। तेज़ हवा से दरवाज़े और खिड़कियाँ बजती रहें और आँगन के पुख़्ता फ़र्श पर बूंदीयाँ बजती रहीं...

उसने लंबा धुँदला, पुर-असरार सफ़र तय करने के बा’द अल्लाह मियाँ के हुज़ूर में अपनी बोझल आँखें उठाने की कोशिश की। वो अल्लाह मियाँ के सामने उसकी दुनिया के करोड़ों मजबूर इन्सानों की दास्तान कहना चाहती थी। उसकी भीगी-भीगी पलकें कपकपा कर उठीं और फिर गिर गईं। सामने नूर ही नूर था। ख़ूब चिलचिलाता। पसीना आवर नूर। बारिश, नमी और धुंद पर तंज़ करता हुआ मग़रूर नूर...

लड़की का जी जल गया कि वाह अल्लाह मियाँ, हम जिस मौसम में मरकर रह गए उससे तो तुझे मुस तक नहीं। और उसने अपनी आँखें चिंधीं कर के इस नूर को बेज़ारी से देखा। सफ़ेद दीवार पर रोशनाई से नूर के बड़े से चौखटे में “अनवर मियाँ ब-क़लम ख़ुद” लिखा साफ़ नज़र आया। इस तहरीर पर ही तो उसने ज़िंदगी में पहली बार अपने मँझले भाई अनवर के मुँह पर एक थप्पड़ मारा था कि तूने दीवार क्यों ख़राब की। बरसों से तो कमरों में सफ़ेदी नहीं हुई उस पर से ये रोशनाई के धब्बे।

लड़की ने अपनी ज़िंदगी पर थोड़ा मुतअज्जिब हो कर बेज़ारी से आँखें बंद कर लीं। और इस पर बेवाओं जैसा सोग दुबारा हमला-आवर हो गया। वो फ़ौरन ही एक सिसकी के साथ रोना शुरू’ करने वाली थी कि खाँसने खंखारने की गूँजती गरजती आवाज़ें सुनकर वो बे-तहाशा कूद कर खिड़की की तरफ़ दौड़ी। चमकीली धुली हुई धूप में पीतल की लुटिया सूरज की तरह चमक रही थी उसका ना-मुराद आशिक़ कुल्लियाँ पर कुल्लियाँ करते हुए अपनी सूजी हुई लाल-लाल आँखों पर पानी के छींटे मार रहा था। लड़की ने धड़ाके से खिड़की बंद कर दी और फिर बंद खिड़की से लग कर खड़ी की खड़ी रह गई।

उसके होंट काँपे, भिंची हुई मुट्ठीयाँ थरथराती उन्हें और आँखों को बेदर्दी से मिलने लगीं और फिर वो होंटों के ज़ाविए बनाकर बच्चों की तरह चिल्लाई, “कमीना बेवफ़ा मर जाए अल्लाह करे।” और दफ़अ’तन उसके पेट से कोई शय जैसे गले में आकर फंस गई और वो धड़ाम से ज़मीन पर कर गई।

“हिस्टीरिया का दौरा है।” किसी अजनबी आवाज़ के ये अल्फ़ाज़ सुनकर उसने एक दम आँखें खोल दीं और फिर फूट फूटकर रोने लगी। अपनी माँ और बहन भाईयों और डॉक्टर की मौजूदगी से बेपरवा।

“नहीं नहीं... नहीं...” वो सिसकियों के दरमियान कहती रही और रोती रही।

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