मोर, साहिब और मुसाहिब की कथा : मृणाल पाण्डे

Mor, Sahib Aur Musahib Ki Katha : Mrinal Pande

(यह लोक कथा मोर से जुड़ी है। यह कथा सबसे बड़े ठग की बाबत कुमाऊं की एक पुरानी लोक-कथा पर आधारित है। ऐसी कई बोधकथाओं का संकलन 19वीं सदी के अंत में किन्हीं गंगादत्त उप्रेती ने किया और उनका पुनर्प्रकाशन IGNCA ने किया है।)

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बहुत दिन हुए एक देश में एक महाज्ञानी राजा राज करते थे। अदब से सब उनको साहिब कहते थे। पुराने शास्त्रों में जो चौंसठ कलायें गिनाई गई हैं, उनमें से तिरसठ साहिब को हासिल हो चुकी थीं। बस आखिरी विद्या सीखने को बची थी। कौन सी विद्या? वह जो कहलावे ‘परकाय प्रवेश’, यानी जब जी चाहे सूक्ष्म रूप में किसी की भी प्राणहीन काया में प्रवेश कर सकना।

ये विद्या सीखने के लिये साहिब को बस एक अदद सही गुरु की तलाश थी। सही गुरु मिलना बडा ही कठिन होता है बालको, पर खोजते खोजते आखिरकार एक मुनि के बारे में जानकारी हाथ लग ही गई, जो साहिब को यह दुर्लभ कला भी सिखा सकता था।

मुनि की एक ही शर्त थी कि उनके आश्रम में साहिब के संग कोई शाही गुप्तचर, सिपाही या सुरक्षाकर्मी नहीं परवेस पावेगा। ‘बिलकुल नहीं आयेंगे,’ साहिब ने कहा, ‘हे मुनि जी आपकी शर्त मंज़ूर है।’

अब हुआ ये कि राजा साहिब का एक प्रिय मुसाहिब था, जो उनका महामंत्री भी था। उस पर उनको अपने दरबारियों में सबसे अधिक भरोसा था। साहिब जब भी, जहाँ भी जाते, एक परछांईं की तरह मुसाहिब भी साथ लग लेता। लाड़-लाड़ में राजा साहिब ने उसको तिरसठ विद्यायें सिखा दी थीं। उनके बूते वह बहुत पावरफुल्ल बन गया था। अब उसकी साध थी, कि किसी तरह वह यह चौंसठवीं विद्या भी हासिल कर ले।

सो इस बार जैसे ही साहिब का घोड़ा तैयार किया जाने लगा, वह भी अपने घोड़े पर काठी कस कर आ गया।

मुसाहिब को देख कर कुछ खुसुर पुसुर होने लगी। ये दुमछल्ला यहाँ भी साथ जायेगा क्या? बडा ही चंट है। साहिब की विद्या ये भी किसी न किसी तरह हासिल करके और भी ताकतवर बन गया तौ?’

पर प्रकट में सब खामोश रहे। सब जानते थे कि मुसाहिब के कान कित्ते तेज़ और उसका गुस्सा कैसा विकट था। अपने खिलाफ कुछ भी सुना तो बोलनेवाले को दौड़ा दौड़ा कर मारता था।

‘चल बे,’ राजा साहिब हँस कर मुसाहिब से बोले, ‘लंबा रस्ता है। तेरे साथ ठीक से कट जावेगा। मुनिवर ने सिपाही या सुरक्षाकर्मियों को ना बोला है, मुसाहिब को तो नहीं। फिर भी तू बाहिर ही रुका रहियो’।

‘जो आज्ञा’, मुसाहिब ने कहा।

सब चुप साधे रहे। नहीं जी, किसको अपनी जिनगी प्यारी नहीं होती?

शुभ मुहूर्त पर साहिब और मुसाहिब बिना तीसरे को साथ लिये घोड़े दौड़ाते वन को निकल गये। वन जा कर साहिब ने अपना घोड़ा मुसाहिब के सुपुर्द किया और उससे कहा ‘आश्रम तक मैं अकेला जाता हूं । तू दोनो घोड़े यहीं थामे रहियो। काम हो गया, तो लौट कर फिर साथ राजमहल वापिस चलेंगे।’

मुसाहिब साहिब से बोला, ‘जो हुकुम!’

साहिब के ओझल होते ही, घोड़ों को लंबी लगाम देकर उसने पास की नदी किनारे घास भरी जगह पर बाँधा और फिर दबे पैर आश्रम की तरफ चल दिया कि देखे और यह चौंसठवीं विद्या क्या है?

साहिब आश्रम पहुंचे तो मुनि जी सारी सामग्री लिये इंतज़ार में थे। ‘ तेरे साथ कोई आया तो नहीं?’ उन्होने पूछा ।

साहिब बोले, ‘नहीं मुनिवर!’ और शिक्षा तुरत शुरू हो गई।

साहिब तेज़ दिमाग तो थे ही, मुनि भी कम नहीं। सो कुल मिला कर दो दिन दो रात के भीतर उन्होने परकाय परवेस की वह चौंसठवीं विद्या भी सीख ली। पास की झाड़ी में छिप कर सब कार्यकलाप देख रहे मुसाहिब ने भी चरण दर चरण परकाय प्रवेश करना सीख लिया। फिर वह भागा और दौड़ लगा कर दोनो घोड़ों की रास थामे, भोली शकल बनाये उसी जगह पर आ कर खडा हो गया जहाँ साहिब उसे छोड़ कर गये थे।

साहिब के वापिस आने थोडी देर पेड़ तले दोनो मित्र सुस्ताते रहे। ‘वाह कितनी शांति है यहाँ, लौटने का जियु नहीं करता।’ साहिब बोले।

‘बिलकुल हुज़ूर’ मुसाहिब बोला।

तभी एक सुंदर सा मोर दो दो मोरनियों सहित इतराता हुआ वहाँ आ पहुंचा और राजा साहिब के सामने पंख फैला कर नाचने लगा। साहिब को लगा जैसे मोरनियों को रिझानेवाला नृत्य करता, कभी उनके सामने इंदरधनुष जैसे अपने पंख फैलाता, कभी अपना पिछवाड़ा हिलाता मोर उनका कोई बिछड़ा बंधु हो! उन्होने मुसाहिब को इशारा किया कि वह उनको घोड़ों के गले में टंगी रातिब की थैली से चने निकाल कर दे। मुसाहिब दौड़ कर चने ले आया।

साहिब ने जैसे ही वे चने अपनी राजसी हथेली पर धर कर मोर को दिखाये, तो वह बंदा बिना डरे मटकता हुआ उनको चुगने को साहिब के पास आ गया।

‘धन्य है साहिब आपजू का जीवप्रेम,’ कुटिल मुसाहिब बोला।

वह भली तरह जानता था कि साहिब को इतराना कितना सुहाता है। बोला, ‘हुज़ूर मैं तो मैं, यह मोर भी आपजी की सूरतिया पर बलिहारी हुआ। क्यों न हो? पंछियों का राजा ठहरा। और राजा ही राजा को जाने है। साहिब, मनुखों में तो यह अंतिम कला सीखने के बाद सात लोक चौदह भुवन में संपूर्ण चौंसठ कलाओं का आप सरीखा जानकार कोई राजा न होगा।’

साहिब पगड़ी का तुर्रा झटक कर बोले, ‘बिलकुल नहीं। हमारी टक्कर का कोई नहीं मनुख सत्ता में नहीं हो सकता। आज हम बहुत खुश हैं। हमारा विद्या का ज्ञान संपूर्ण हो गया। माँगो क्या मांगते हो!’’

मुसाहिब बडी विनय से बोला, ‘हुज़ूर क्या आप औरों से पहले मुझे अपनी चौंसठवीं विद्या के द्वारा इस मोर की सुंदर काया के भीतर प्रवेश करके दिखा सकते हैं? यानी जस्ट आस्किंग!’

साहिब मूड में थे। हंस के बोले, ‘क्यूं नहीं? चल तू भी क्या कहेगा। मैं अभी के अभी अपनी यह राजसी काया त्याग कर इस मोर के भीतर प्रवेश करता हूं।’

फिर कुछ सोच के बोले, ‘तुम लोग तो जानते ही हो कि मुझको जल, जंगल और जीव जंतुओं से कितना प्रेम है। पक्षी काया में घुस ही रहा हूं तो सोचता हूं कि तनिक जंगल के दूसरे वन्य जीवों से भी हिल मिल कर पहचान कर लूं। मेरी वापसी तक तू मेरी इस काया की हिफाज़त करियो, उसपर से मक्खी वक्खी उड़ाते रहियो, और साफ कपड़े से ढक दीजो।’

‘जी हुकुम,’ मुसाहिब बोला। पर उसके मन में तो कुटिलाई के कई लड्डू फूट रहे थे।

साहिब ने ध्यान लगाया, नई विद्या के सहारे देखते देखते वे मनुष्य का चोला त्याग कर मोर के भीतर प्रवेश कर मोर बन गये। एक बार देही हिला कर पंख फैला कर उन्ने तसदीक की, कि सब कलपुर्ज़े फिट हैं कि नहीं। बस इसके बाद वे मोरनियों के साथ दूसरे वन्य जीवों से मुलाकात करने को दोबारा वन की तरफ निकल गये।

इधर साहिब की पीठ फिरी नहीं, कि मुसाहिब ने भी ध्यान लगाया और अपनी देह त्याग कर सीधे साहिब की खाली काया में घुस गया। फिर अपनी देह को तो अपने घोड़े पर लाद कर उसने छुट्टा छोड़ दिया, और खुद साहिब के राजसी घोड़े पर सवार हो कर राजा साहिब के रूप में नगर में वापिस आ कर राजकाज संभाल लिया। मुसाहिब की बाबत उन्होंने आंखें नम बना कर यही कहा, कि रास्ते में कहता था कि अब वह सन्यासी बन कर जंगल में तप करना चाहता है। जब तक मैं लौटा मेरा यार जाने किधर निकल गया।

ओहो, सब बोले और मन ही मन बहुत खुश हुए।

अब असली साहिब की सुनो। मोर बन कर वे जंगल के भीतर पहुंचे तो पक्षियों की सभा में उनके राजा का चुनाव हो रहा था। अंधा क्या मांगे? दो आंखें। तुरत चुनावी प्रतियोगिता में घुस कर मोरनियों के पूर्ण समर्थन और अपनी नाना कलाओं की मदद से मोर रूपी साहिब पक्षियों के राजा का चुनाव भी जीत गये।

जंगल के पक्षियों का महामहिम राजा बन कर साहिब ने मोर के रूप में कई तरह के पशुओं से दोस्ती कर ली। इसके बाद अपनी बातों से रिझा कर साहिब ने अपनी मोरनियों के साथ वनराज शेर के खिलाफ धुंआधार प्रचार करना शुरू कर दिया। मोरनियाँ घर घर जा कर कहें कि शेर? यह तो वंशवादी है। आलसी लल्लू कहीं का। बस एक बार शिकार करता है, फिर सात दिन सोता रहता है। न जंगल की चौकीदारी करता है, न ही स्वच्छता और विकास की कोई पहचान या वन तथा वन्यजीव संरक्षण या विकास की कोई साफ सुथरी तरकीब उसके पास है। हमारे मयूर राजा तो जंगल के सबसे बडे चौकीदार हैं। घूम घूम कर घनघोर बरसात के बीच भी नाच नाच कर पहरा देते रहते हैं। मांसाहारी भी नहीं, कि किसी अन्य जीव को खा जायें।

वन्य जीवों के लिये यह सब प्रचार नया था। पर चौंसठ कलाओं के स्वामी मोर साहिब के पास ऐसी मीठी बोली और रंगारंग भाषणकला थी, कि जल्द ही सारे जंगल का मूड बदलने लगा।

वर्षा ॠतु के बाद जब नवरात्रि में पशु-पक्षी सहित सारे वन्यजीवों के एकल राजा का चुनाव हुआ, तो कई पीढियों से यह ओहदा जीतते रहे जंगल के राजा शेर को पटखनी मिल गई। बड़े चुनाव भी मयूर रूपी साहिब रिकार्ड बहुमत से जीत गये। उनको जंगल का एकछत्र राज सुहाने लगा। वे सारे जंगल के राजा थे। हुमकते हुए दिन–रात मोरनियों से घिरे हुए वन में घूमते रहते। मोरनियों, मादा बत्तखों और चकोरियों को नाच नाच कर रिझाते। शेष पशुओं को भी उन्ने कुश्ती के कई दांव पेंच दिखा कर चमत्कृत किया। हाथी, शेर, भालू, भेडियों से ले कर मासूम खरहों तक सब उनकी बुद्धि का लोहा मानने लगे।

पर कुछ समय बाद जंगल का मंगल साहिब को फीका लगने लगा। जो आनंद अपने मनुख समाज के बीच इतरा कर मिलता था वह यहाँ कहाँ? जब मुसाहिब को खोजने निकले तो उसे लापता पाया और उसकी कीड़े पड़ी देही उसके स्वामिभक्त घोडे सहित सरोवर के तट पर देख वे सब समझ गये।

फिर भी साहिब ने हार न मानी। निकल पड़े तो निकल पडे शहर की तरफ। शहर में एक बहेलिये की उन पर निगाह पड़ी। उसने उनको पकड़ लिया कि अब इसको हाट में अच्छे दामों पर बेचूंगा, मोरनियों पे भी डिसकॉन्ट।

उसकी नीयत भाँप कर चौंसठ कलाओं के जानकार साहिब मनुष्य की वाणी में उससे बोले, ‘देख मैं ऐसा वैसा मोर नहीं, चौंसठ कलाओं, सारे शास्त्रों-पुराणों का जानकार एक दुर्लभ पंछी हूं। और मैं तुम्हारी बोली में भी बोल सकता हूं। तू मुझे किसी गुणग्राही के हाथ बेच कर कम से कम नौ लाख तो कमा ही सकता है।’

बहेलिया चमत्कृत हो कर उसे नगर में हो रही विद्वानों की सभा में ले गया। वहां जाकर मयूर साहिब ने रंगारंग भाषण दे कर सबको इतना प्रभावित किया कि नगर सेठ ने उस मोर को, अपने राजा साहिब, जो दरअसल साहिब की काया चुरा के राजा बना मुसाहिब था, को नौ लाख रुपये में बतौर जन्मदिन भेंट खरीद लिया। उस बरस राजा साहिब के जन्मदिन का अतिरिक्त रूप से भव्य उत्सव मनाया जा रहा था। देश विदेश से चौंसठ कलाओं के आदरणीय ज्ञाता राजा साहिब के जलसे में बडे गुणी ज्ञानी आये हुए थे।

पण नगर सेठ था पक्का सूम। उसने साहिब के महामंत्री से संपर्क करके उनको इस चमत्कारी मोर की बाबत जानकारी दी और कहा कि वे चाहें तो वह उनको अठारह लाख रुपये में वह पक्षी बेच सकता है। महामंत्री जिनको पुराने मुसाहिब के लापता होने के बाद रखा गया था वैसे भी साहिब को खुश करने को तत्पर रहते थे। वे आये, मोर की बातें सुनीं, उसका नाच देखा और रीझ कर उसे अपनी तरफ से साहिब को देने के लिये मुंहमांगी कीमत देकर खरीद लिया।

जन्मदिन आया। राजदरबार में भेंट देने वालों की कतार और भेंटों का अंबार लग गया। अंत में महामंत्री की बारी आई और उन्होने अपना तोहफा साहिब के हाथों दे दिया, और बोले, ’मुझे तो अन्नदाता आपमें एक फकीरी सी नज़र आती है। जीव जंतुओं के प्रति आपकी ममता देकते हुए मैंने आपको यह बोलनेवाला मोर देना उचित समझा।’

मोर को देख सब एकै साथ बोल उठे ‘साधु साधु! क्या सुंदर जीव है!’

साहिब जो कि दरअसल चोर मुसाहिब था, भीतरखाने मोर को देख कर चौंका, लेकिन प्रकट में बोला, ‘मित्रो, मैं सचमुच ही तबियतन फकीर हूं। लेकिन यह तोहफा देख हम प्रसन्न हुए। शत शत धन्यवाद हमारे नये महामंत्री जी को, जो उनने मेरे मन की बात जानी।’

मोर मुसाहब की कुटिलता पर भीतर भीतर मुस्कुराता रहा। उसे पता था अब साहिब बना मुसाहिब डर गया है। जल्द ही उसे पटखनी देने को कुछ दांव चलेगा।

मोर ने आंख बंद कर गुरु का सिमरन किया: पहले सब निराकार था, फिर निराकार से ओम् हुआ। ओम् से निकला ओंकार, उससे जनमा फोंकार, फोंकार से जल, जल से कमल और कमल से निकले गुरू जी। गुरू जी की दोहाई जिन्ने चार वेद, अठारह पुराण और बाईस गायत्रियाँ दीं, चौंसठ कलायें बनाईं।

जै गुरू, इस छलिये गोलमालकर का ढोल बजवा, इसकी चमड़ी से दमड़ी निकलवा! जै गुरू चर्पटी, पर्पटी! ओंकार की फोंकार, बम! बम!

मोर को राजकीय उद्यान में भिजवा दिया गया। चार लोग उसकी तथा मोरनियों की देखभाल को नियुक्त कर दिये गये।

दशहरे की पूर्व संध्या पर साहिब के दरबार में घोषणा की गई, कि दशहरे के आयुध पर्व पर सबके मनोरंजन के लिये साहिब की तरफ से एक बड़ा भारी दंगल आयोजित होगा। इस दंगल में तरह तरह की कुश्तियाँ होंगी। सबसे आखिर में एक नये सर्वज्ञानी, मनुख की भाखा बोलनेवाले मोर को अपनी सभी कलाओं को सारी पबलिक को दिखाने का मौका मिलेगा। और फिर उसकी बडी कुश्ती राजा साहिब के पाले बेहद खतरनाक मेढे मोगैंबो के साथ होगी।

जिसने सुना सो हक्का बक्का! मोर की टक्कर मेढे से, वह भी मोगैंबो मेढा जिसके माथे की टक्कर से बड़े-बड़े कूबडोंवाले सांड भी पानी मांगने लगते थे!

खैर पबलिक जो थी दिल थाम के बैठी रही। सब देखा पर असिल टी.आर.पी. सबसे अंत की कुश्ती के लिये थीं, जो मोर और मोगैंबो के बीच होनी थी।

भिडंत शुरू हुई। मोर शुरू से ही भारी पड़ने लगा। नहीं पडता? अरे वह तौ चौंसठ कलाओं का मालिक जो था। देखते देखते उसने साहिब के मुंहलगे मेढे मोगैंबो को लहूलुहान कर दिया। फिर मोर साहिब के करीब गया और जा कर फुंकारा, ‘साहिब मेढा हारा, अब हिम्मत हो तौ अपना विरुद बचाइये!’

साहिब जो साहिब नहीं मुसाहिब था, को बात लग गई । आव देखा न ताव, आंख बंद कर मंतर पढा और सूक्ष्म रूप धर कर मोगैंबो के शरीर में प्रवेश कर गया। यह होना था, कि साहिब ने तुरत मोर की देही त्यागी और वापिस अपनी पुरानी देही में घुस गया। मोगैंबो दुम दबा के भागा, और मोर कें कें करता उपवन की तरफ!

सभा में सुई टपक सन्नाटा। पशु पक्षी का ऐसा पलायन सब देखते रह गये। किसी की समझ में कुछ न आया। हार कर सबने यही कहा की बड़े लोगन की बडी माया।

जभी साहिब हँसे। हँसे और बोले कि मोर जो है सो राजा पक्षी ठहरा। मोगैंबो उसके सामने कैसे टिकेगा? मोर अब हमारे वंश का प्रतीक हुआ। आज से हमारे भाषण के बाद जयजयकार की जगह सब कहेंगे वंस मोर!

‘क्या कहेंगे?’

वंस मोर! सब बोले।

इस मेढे की मेरे दिवंगत मित्र मुसाहिब की याद में देवी को बलि दे दी जावे, यह कह कर राजा साहिब सबको शुभरात्रि कह कर विदा हुए सभा विसर्जित हुई।

सो बच्चो परकाया में परवेस ने साहिब को क्या सिखाया? एक बात तौ ये कि जो लडाई में पिटा उसकी बलि चढ़ जाती है।

दूसरे फरेबी की सिखावन और उसपर बिना देखे परखे किया बिसवास राजा के वास्ते बहुत खतरनाक है, रे।

ओछा मंत्री राजा नासे ताल बिनासे काई,

फूट साहिबी शान बिगाडे, जैसे पैर बिवाई।।

वंस मोर भई वंस मोर!

तब से अब तलक बढिया नाटक या मुजरा देख के कहते हैं, ‘वंस मोर!’

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