मूर्ख भी विद्वान बन सकता है (उड़िया बाल कहानी) : अपूर्व रंजन राय/ଅପୂର୍ବ ରଞ୍ଜନ ରାୟ
Moorkh Bhi Vidvan Ban Sakta Hai (Oriya Children Story) : Apurba Ranjan Ray
एक बालक अपने जीवन से बहुत निराश हो गया था। उसकी निराशा का कारण यह था कि एक दिन उसके गुरु ने सबके सामने कह दिया कि उससे पढ़ाई होगी ही नहीं। गुरु ने यह भी कहा, 'मूर्ख पशु के समान होता है।' बालक उस दिन से हमेशा सोचता ही रहा कि वह पशु की तरह जीता ही क्यों रहे। इससे बेहतर तो होगा कि वह आत्महत्या कर ले। सचमुच एक दिन उसने आत्मघात करने का पक्का निश्चय कर लिया।
आत्महत्या के अनेक उपाय उसने सोचा । आत्महत्या का सबसे आसान उपाय कुएँ में कूद कर मरना था। भविष्य की सब आशाएँ त्यागकर आत्महत्या के लिए एक कुएँ के पास वह जा पहुँचा।
आत्महत्या के पूर्व उसने बहुत कुछ सोचा। गलती कहाँ है? वह तो खेलकूद में ज्यादा समय बरबाद नहीं करता। जो कुछ भी पढ़ाई होती है, उसे ध्यान से सुनता है। उसके सहपाठी गण पाठ याद कर लेते हैं, पर वह नहीं कर पाता। दूसरों की तुलना में वह मेहनत भी ज्यादा करता है। उसके सहपाठी उसके अनाड़ीपन के कारण उसका खूब मजाक उड़ाते हैं। पर वह करे भी तो क्या करे ? गुरु जी के मन में उसके लिए चिंता है। विद्यार्थी उसे गलत समझते हैं। गुरु जी ने कहा भी, 'वोपदेव जैसा सीधा लड़का लाखों में एक है। वह अध्यवसायी है। बाहरी दुनिया से उसको कोई सरोकार नहीं, केवल पढ़ाई पढ़ाई पढ़ाई। फिर भी दिमाग का कच्चा है।'
गुरुजी की नाराजगी कभी क्रोध में बदल जाती तो सबके सामने फूट पड़ती और वोपदेव शर्मिन्दा हो जाता। उसी के कारण गुरु जी का गुरुकुल बदनाम हो जाए, वोपदेव यह कभी नहीं चाहता था। रोज सुनते-सुनते वोपदेव पत्थर की मूर्ति बन चुका था । व्याकरण का एक-एक सूत्र वह हजारों बार रटता, नीति के श्लोक गुनगुनाता रहता पर दूसरे ही क्षण सब दिमाग से गायब ।
गुरु जी इतने निपुण अध्यापक थे कि उनके अध्यापन की वाहवाही की चारों ओर धूम मची हुई थी। गधे से गधा भी पण्डित बन जाता था । पर वोपदेव गधे से बदतर बालक था जिसके दिमाग में कुछ ठहरता ही न था ।
आत्महत्या के पूर्व वोपदेव ने फिर सोचा, 'धन्य हो गुरुदेव, आपको कोटि-कोटि प्रणाम। मेरे समान नाचीज विद्यार्थी के लिए आपने क्या कष्ट नहीं सहा ! अध्यापन की नई शैली का आविष्कार किया । पुत्र - सा स्नेह दिया। मुझ पर विशेष कृपा करके अन्न-वस्त्र भी दिये फिर भी मैं वही का वही रहा ।
वोपदेव के सभी सहपाठी आगे निकल गये। इसी बीच दस साल व्यतीत हो चुके थे । परन्तु पाषाण की तरह वह वहीं का वहीं पड़ा था। गुरु जी कई वर्षों से पढ़ाते आ रहे थे। उनके जीवन में कभी वोपदेव की भाँति शिष्य नहीं मिला जो इतना परिश्रम करते हुए भी कुछ स्मरण नहीं कर पाता।
आज तक वह गुरुजी के क्रोध पर नाराज नहीं हुआ। सहपाठियों के व्यंग्य सुनकर खिन्न नहीं हुआ। मांनो सब कुछ पी जाता था। पढ़ाई में ध्यान देता था और अपने भाग्य की रोता रहता था। अंत में एक दिन गुरुजी भारी गले से बोले, 'बेटा, मैं विवश हूँ। आज तक जो किसी शिष्य को नहीं कहा, वही कहने वाला हूँ। जब तुम्हारी भाग्य रेखा में लिखा ही नहीं तो तुम कैसे पढ़ सकते हो। तुम मेरी पाठशाला से चले जाओ।'
वोपदेव ने आत्महत्या का निश्चय किया।
वोपदेव ने कुएँ में झाँककर अंदर देखा । वह एक पुराना कुआँ था । पत्थरों से बँधा था। बड़े-बड़े पत्थरों पर निशान थे। सोचा, वह जरूर रस्सी के दाग हैं। यह कैसे ? कठार पत्थरों पर कोमल रस्सी के दाग ! उसने समझ लिया कि कठोर, कर्कश वस्तु पर कोमल - अति कोमल वस्तु के घर्षण से भी दाग पड़ जाता है । यदि पत्थर पर रस्सी का दाग पड़ सकता है तो मेरे कोमल मस्तिष्क पर निशान क्यों नहीं पड़ेगा ?
उसने आत्महत्या नहीं की।
वोपदेव ने बड़े उत्साह से नया प्रयास शुरू किया और पढ़ाई-लिखाई में जुट गया। विद्याभ्यास में इतना तल्लीन हो गया कि अपनी सुधि ही खो दी। एक दिन की घटना है - वह पढ़ाई और विद्याभ्यास दोनों साथ-साथ चला रहा था । किताब पर दृष्टि थी और हाथ थाली और मुँह पर । जाड़े की ऋतु थी। वह चूल्हे के पास बैठकर खाना और पढ़ाई दोनों काम कर रहा था, साथ ही आग भी ताप रहा था। हाथ थाल की तरफ न बढ़कर चूल्हे की तरफ चला गया। चूल्हे के मुँह में पड़ी ठण्डी राख को मुट्ठी में दे डाला । इतने में एक महिला आई और बोली, 'राख खाने से पेट नहीं भरता, खाना खाओ।' महिला ने उसका हाथ पकड़ा और राख झारते हुए बोली, 'वोपदेव, तुम जरूर एक विख्यात पण्डित बनोगे। तुम्हारी निष्ठा तुम्हारा पुरस्कार है।' वोपदेव ने कुछ पूछना चाहा, पर तब तक वह महिला अदृश्य हो गयी ।
वोपदेव की अध्ययन निष्ठा से प्रसन्न होकर सामान्य नारी के रूप में स्वयं सरस्वती आई थीं। क्योंकि माता सरस्वती परिश्रमी विद्यार्थी पर ही कृपा करती हैं।
सरस्वती माता की बात कैसे टल सकती है। उन्होंने वरदान दे दिया था। वोपदेव विश्वविख्यात पण्डित बना और उसने अनेक ग्रन्थों की रचना की। उसका यश चारों ओर फैल गया।
पण्डित वोपदेव का महान ग्रन्थ है, 'लघु सिद्धान्त कौमुदी'। यह संस्कृत का व्याकरण ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ ने उन्हें अमर बना दिया।
वोपदेव अपने परिश्रम और धैर्य से पण्डित बने। उनकी लगन उनका पुरस्कार था । परिश्रम कभी फलहीन नहीं होता। इसीलिए तो कहते हैं-
निपट मूर्ख भी बनता है विद्वान
परिश्रमी पाता है फल महान
(संपादक : बालशौरि रेड्डी)