मूर्ख चोर : असमिया लोक-कथा
Moorakh Chor : Lok-Katha (Assam)
किसी गाँव में आपांग नामक एक युवक रहता था। वह बड़ा मूर्ख और निकम्मा था। उसकी माँ उसकी मूर्खता के लिए उसे हर समय डाँटती रहती थी। लेकिन उसके कान पर तक नहीं रेंगती थी।
एक रात करीब दो बजे अपांग ने कुछ लोगों को आपस में कानाफूसी करते हुए सुना। वह बिस्तर से उठकर घर के बाहर आया, तो देखा दो लोग जा रहे हैं। उसने चुपके से उनका पीछा करना शुरू किया। मौका देखकर उसने एक आदमी का हाथ पकड़ा और पूछा- “इतनी रात को कहाँ जा रहे हैं?”
आदमी ने घबराकर जवाब दिया- “चोरी करने। क्या तुम भी साथ चलोगे? जो कुछ मिलेगा आपस में बाँट लेंगे।”
अपांग को चोरी क्या होती है, यह कुछ भी मालूम नहीं था फिर भी उसने सोचा कि यदि इस कार्य से कुछ मिल जाए तो उसकी माँ जरूर खुश हो जाएगी। माँ और नहीं डाँटेगी। यह सोचकर उसने तुरंत हामी भर दी।
कुछ दूर चलने के बाद एक बड़ी इमारत दिखाई दी। किसी धनवान का घर जानकर तीनों ने सेंधमारी करने का फैसला लिया। सबने मिलकर घर के पिछवाड़े से दीवार को तोड़ना शुरु किया। अपांग ने अपने हिस्से का काम जल्दी ही निपटाया। थोड़ी देर में दीवार में छेद हो गई। उसमें से होकर तीनों घर के अंदर दाखिल हो गए। दो चोर घर के चारों ओर से सामान बटोरने लगे। अपांग ने सोचा माँ को पीतल का बर्तन चाहिए। इसलिए वह रसोई में घुसकर पीतल के बर्तन उठाने लगा। मनचाहे बर्तन मिलने से वह खुशी से झूम उठा। वह आवेश में बर्तन को बजाने लगा। बर्तन टकराने से आवाज आने लगी। रात का सन्नाटा भंग हो गया। हालात प्रतिकूल होते देखकर दो चोर वहाँ से नौ दो ग्यारह हो गए। घर के मालिक और पड़ोसियों ने अपांग को धर दबोचा और उसकी ठीक से मरम्मत की। उसकी हड्डी-पसली एक हो गई।
इस मार के कारण अपांग कई दिनों तक बिस्तर पर पड़ा रहा। पड़ोस के दोस्तों ने उससे बात करना बंद कर किया। माँ ने उसका दाना-पानी बंद कर दिया। अपांग ने माँ के आगे कान पकड़कर और भगवान का शपथ लेकर कहा कि आज के बाद वह ऐसी गलती कभी नहीं करेगा।
ठीक हो जाने के बाद अपांग का चंचल मन घर में नहीं लगा। वह कुछ काम की तलाश करना चाहता था। उसने एक अमावस्या की अंधेरी रात में कुछ लोगों को उसके घर के सामने के रास्ते से गुजरते देखा। वह तुरंत उठकर उनके पास गया। देखा पहले वाले चोर हैं। उसने उनसे कहा- “अरे दोस्त, आप लोग कहाँ जा रहे हैं?”
चोरों ने अपांग को टालने के लिए कहा- “कहीं नहीं, यूँ ही टहल रहे हैं।”
अपांग ने साथ चलने को कहा तो दोनों ने पहले वाली घटना को याद दिलाया कि किस प्रकार उसकी नासमझी के कारण वे मुसीबत में फंस गए थे। अपांग ने उनसे माफी माँगी। वह अपनी माँ के साथ किया वादा भूल गया। वह चोरों को साथ चलने लगा। कुछ दूर चलने के बाद एक अमीर का मकान दिखाई दिया। दीवार में छेद करके तीनों चुपके से घर के अंदर घुस गए।
दो चोर घर के अंदर कीमती एवं बहुमूल्य वस्तु ढूँढने लगे। अपांग एक कमरे के अंदर गया तो देखा एक बूढ़ी औरत सो रही है। उसका मुँह खुला हुआ था। अपांग को लगा कि उसे भूख लगी है। अंधेरे में टटोलते हुए वह रसोई में गया। उसने देखा चूल्हे में एक पतीला चढ़ा हुआ है। उसके अंदर गरम खीर थी। उसने गरम खीर लाकर बूढ़िया के मुँह में डाल दिया। खीर इतनी गरम थी कि बुढ़िया सहन नहीं कर पाई और तत्काल उसकी मृत्यु हो गई। उसका मुँह खुला का खुला रह गया था। अपांग को लगा वह खुश होकर हँस रही है। उसे हँसते हुए लोग अच्छे लगते थे। इसलिए वह गाते हुए अपने दोस्तों को यह दृश्य देखने के लिए बुलाने लगा-
आमार बाइते आहेइरी
मनजारर तले मनेइरी
बहाजारर तले बहेइरी
हाबि खिरौ खेइरी चेइ चेइ चेइ—।
(भावार्थ- हमारी दादी हँस रही रही है। मन के पेड़ के नीचे सोती है। बाँस के नीचे बैठती है, खीर भी खा लेती है देखो, देखो—)
उसके साथी ने हालत की गंभीरता भाँप ली। मालिक के जगने से पहले वहाँ से दुम दबाकर भाग गए। मालिक और आस-पड़ोस के लोगों ने अपांग को दबोचा। पहले तो उसकी खूब धुलाई की। उसके बाद पंचायत बैठी। पंचायत ने उसे उम्र कैद की सजा सुनाई।
(साभार : डॉ. गोमा देवी शर्मा)