मानसून – प्लीज कम सून (व्यंग्य रचना) : डॉ. मुकेश गर्ग ‘असीमित’
Monsoon - Please Come Soon (Hindi Satire) : Dr. Mukesh Garg Aseemit
हे ! बादल भैया, कब तक छुप-छुप के मुस्कुराओगे, जरा बरस के तो दिखाओ रे ! देखो मेरे "मेरे शहर की सड़कों पर जो गड्ढे हैं, वो तुम्हें पुकार रहे हैं। देखो, वो बिल्कुल पुरानी जींस में जैसे फैशन के छेद झांकते हैं , ऐसे तुम्हारी राह तक रहे हैं | इस बार पडी गर्मी की तपिश से इनके हलक सूख गए हैं। ठेकेदार का मिलावट का कंकड़, बालू और नमक की तरह सामर्थ्यानुसार डाला गया सीमेंट ऐसे निकल रहा है जैसे गरीब किसान के खेत की अंतड़ियां निकल आयी हो ! इन्हें तुम्हारी बरसात की राहत सामग्री से लबालब कर दो। शहर के न जाने कितने ही दुपहिया और चौपाहिया वाहन सवार इन्हें रौंदकर गुजर जाते हैं।इन्हें भी फूटपथिया पर सोये हुए आम आदमी समझ रखा है ! कितनी ही बार ये गड्डे शहरवासीयों से औपचारिक मुलाकात की लिए हाथ मिलाते नजर आते हैं ,लेकिन ये निष्ठुर लोग अपनी फटफटिया को फुर्र से निकाल लेते है, और जालिम इनके मुंह पर पिछवाड़े से निकली धुआ की कालिख पोत कर जाते है ! होली का मौसम अभी दूर है ,लेकिन बादल भाई एक तुम ही हो जो छटे चौमासे इन गड्डों को होली खेलने का अवसर देते रहे हो , जब इनमें भरे हुए कचरे की गुलाल और तुम्हारे मीठे घाट का पानी मिलकर छपाक से ,बेगारी की मार में बेकार की बेखयाली से बेखबर राह चलते राहगीर को सरोबार करता है तो शहर की गलियों में हंसी की गूँज से माहौल रसिक हो जाता है ! ये झुग्गी झोंपड़ी के बच्चे तो कम से कम इन बिना सरकारी टेंडर के बने तरन तालों में छप-छप वाला खेल खेल लिया करते थे, वो भी अब नसीब नहीं हो रहा । कभी कभार कुलीन बच्चे भी इन प्राकृतिक जल स्रोतों में अपनी कागज की नाव चलाकर पेरेंट्स के द्वारा थोपी गई बचपन जीने की री री की इतिश्री करना चाहते हैं। ये पेरेंट्स भी न, पूछो मत ! अपने पुराने बचपन की दकियानूसी स्मृतियों को बूढी दादी के पिटारे की तरह संजोकर रखते हैं ,इन बच्चों के बचपन में उन यादों को रिवाइंड करना चाहते हैं। इन्हें पता नहीं जमाना कितना बदल गया है। इन्हें पता नहीं की गलियों में अब ‘इन्दर रजा पानी दे’ गाते हुए निठल्ले घूमें , पानी में’ छम छई छपाक ‘ खेलें या स्कूल के समुन्दर जैसे होम वर्क की वैतरणी पार करें, मोबाइल पर दिया दैनन्दिनी डाटा को भी समाप्त करना होता है, रात के १२ बजे ये अपने आप समाप्त हो जाता है, ये भी बिलकुल सरकारी महकमे को स्वीकृत बजट की तरह है,खत्म करो नहीं तो लेप्स हो जाता है ! बच्चे भी क्या करें उन्हें रील बनाकर , सोशल मीडिया में आँखे गड़ाकर इसे खपाना पड़ता है ! इन पर तरस खाओ ‘मानसून-प्लीज कम सून !’
हे नीरद नटखट नभ में नाच नाच कर रील तो बना रहे हो, पर मजाल जो अपने में से अंजुली भर पानी भी मेरे शहर के ऊपर गिरा दो !
मेरे शहर के इन आधे खड़े, आधे उखड़े टेलीफोन और बिजली के खम्बों को देखो ,सालों से संस्थाओं और पार्टियों के बेनरों को टांगते हुए इनकी कमर झुक गयी है, शहर के गुटखा प्रेमियों के लिय पीकदान बने हुए है ,ऊपर से गर्मी में इनके हलक सूख जाते है ,गली के कुत्ते भी इनकी प्यास बुझाते हुए थक गए है, इन पर तरस खाओ ‘मानसून-प्लीज कम सून ‘
हे श्याम वर्ण घन! क्यूँ अपनी घटाओं की जुल्फों को यूँ बिखेर कर हमें कुढा रहा है , मुझे मालुम है आजकल तुझे भी नेताओं की तरह गाल बजाना अच्छी तरहा आ गया है,मुझे विशवास है ,निश्चित ही तु कोई न कोई पार्टी ज्वाइन करने वाला है !
ये देख मेरे शहर की नालियां कब से अपने अंदर कचरा समेटे तुम्हारे बरसने का इंतजार कर रही हैं,ये भी कचरे की सडांध से घुट रही है ,ये चाहती है थोड़े दिनों के लिए तू भी इस कचरे को संभाल ले ।मेरा शहर भी झीलों की नगरी बनना चाहता है , शहरवासियों को पर्यटन की सुविधा घर के सामने ही उपलब्ध हो जाए। लोगों के घरों में भी पीपे में पड़े बेसन में कीलियाँ पड़ गई हैं, कनस्तर में भरा तेल महक देने लगा है। पतियों के मूड का भी कुछ ख्याल कर लो, कितने दिनों से तेरा इंतजार कर रहे हैं कि कब तू बरसे और वो कब पत्नियों से चाय के साथ बेसन के पकोड़े तलने की गुजारिश कर सके। तुम भी न फेमिनिस्ट श्रेणी में आ गए हो , सिर्फ महिलाओं की सुनते हो । पत्नियों से मिली भगत करके ऐसे गायब हो गये है जैसे चुनाव के बाद नेता जी। इन पर तरस खाओ ‘मानसून-प्लीज कम सून !’
जलधर जी, क्यों अपने अन्दर बारिश को ऐसे छुपाये बैठे है जैसे काले धन पर पूंजीपति कुण्डली मार के बैठा हो , अब तुझे भी कुछ ले दे के सेट करना होगा क्या, इस से पहले की ई डी और सी बी आई तेरे यहाँ आकर छापा मारे , में कहता हूँ थोड़ा तरस खाओ, देखो कितनी ही सरकारी स्कूल की दीवारें, नरेगा की घालम पेल से बने सामुदायिक भवन, ठेकेदारों और अधिकारियों की मिलीभगत से बने पुल, पलक पांवड़े बिछाए तेरा इंतजार कर रहे हैं कि तू आए और वो भरभराकर गिरें ताकि उनका भी नाम हो। अखबार वाले इंतजार कर रहे हैं की इस बार बाढ़ में मरने वालों की संख्या पिछली बार से अधिक होनी चाहिए, तभी न्यूज बन पाएगी। आम आदमी पुल के नीचे सो-सोकर थक चुका है, वो कुचलने के लिए तैयार है ताकि उसकी खबर छपे।
पयोद प्रभु, जनता तुम्हारे चचरनामृत की प्यासी व्याकुल हो रही है ,जनता के खून के प्यासे ये सरकारी महकमे वाले भी परेशान है, राहत कार्यों के लिए स्वीकृत बजट का पैसा विभागों की फाइल में अटका पड़ा है। पैसे की बन्दर बांट का प्लान सब कुछ तैयार हो गया, लेकिन राहत कार्य दिखाने के लिए तेरा आना जरूरी है। तू आएगा तभी तो बाढ़ आएगी, अति वर्षा से फसलें खराब होंगी। पिछली बार तूने क्या गजब का कहर ढाया, पूरा राहत बजट चुटकियों में ढब लगा दिया था ,प्लानिंग तो इस बार भी एडवांस में कर दी है, रहत कार्यों में धनराशी के आवंटन की एवज में बिलों और वाउचरों को एडवांस में ही फर्जी साइन करबा के रख लिये हैं , बस तेरे आने की देर है ,ऐसा नहीं हो,तू रूसे फूफा की तरह आये ही नहीं ,और इस बार ये रहत कार्य की मलाई हमारी आँखों के सामने से वापस चली जाए , हम जीभ चाटते रह जाएँ ,शेर के मुंह से शिकार और वापस गया बजट कोई नहीं छीन सकता !
हे तोयद ताऊ ! आपके आने की खबर से गर्मी भी डर के मारे काँपने लगी थी, उसका आतंक थोडा कम होने लगा था , अब ये वापस हिंदी सिनेमा के घायल विलन की तरह अपना मुह फनफना रही है , वारिद वीर, अपने वीर रस की बौछार से गर्मी के योद्धाओं को हरा दो।
तुम भी ना कितने नखराले हो गए हो, लगता है कुछ सांठगाँठ कर लिए हैं। जिस प्रकार से मेरे शहर में ना बरसकर कुछ खास जगह पर ही बरस रहे हो, बिल्कुल ऐसे जैसे नेता जी चुनावी रेवड़ीयां उन खास इलाकों में ही बरसाता है,जहाँ उसका वोट बैंक है ।
अभी पिछले दिनों आए भी तो दो-चार बूंदें ऐसे बरसाकर गए जैसे गरीब को मुआवजे की राशि का टुकड़ा।शहर की सूखी जमीन पर जब बूंदे पड रही तो ऐसे लग रहा था जैसे गरम तवे पर पानी के छींटे !
वैसे बता दूँ अब ये शहर मतलबी हो गया है, इसे तुम्हारे आने और ना आने में कोई फर्क महसूस नहीं होता। पिछली बार तुम आए थे तो क्या हुआ? बच्चे दुबक के कमरों में बंद होकर मोबाइल के वाई-फाई में खो गए, पत्नियों ने बगावत कर दी। किसी भी घर में बेसन के पकोड़े नहीं तले गए, सरकार ने पत्नियों के शोषण के खिलाफ तेल और बेसन महँगा कर दिया। प्याज महंगे कर दिए, बनाओ पकोड़े। किसी ने ‘इंदर राजा’ नहीं गया ।
किसी प्रेमी-प्रेमिका को तुम्हारे आने का जरूरत नहीं, बिना भीगे ही अपने नग्न प्रदर्शन से प्रेमी को लुभा रही हैं। राग मल्हार भी कोई नहीं गा रहा है । नल, कूप भर भी जाएंगे तो क्या? लोगों को तो बोतलबंद पानी की आदत पड़ चुकी है। वो क्यों तुम्हारा इंतजार करेंगे? किसान की सूखी फसल हरी भी हो जाए तो क्या? उसे क्या समर्थन मूल्य बाजार में मिल जाएगा ?सरकार ने सूखा और बाढ़ दोनों ही आपदाओं में राहत बजट तैयार कर रखा है। ऊंट किसी भी करवट बैठे क्या फर्क पड़ेगा?आपदा में अवसर की तलाश किसे नहीं होती भला ! आपदाए सरकारी खजाने की बंदरबांट के लिए उर्वरक जमीन मुहैया कराती है !
लगता है तुम भी अब नेता की तरह पांच साल में एक बार ही दिखोगे। वर्षा देवी, क्या आप भूल गईं कि छतरी और रेनकोट का भी कोई अस्तित्व है? दुकानों में रखे छाते और रेनकोट्स धूल फांक रहे हैं। मेरा पड़ोसी पिछले साल ही मेरी छतरी और रेनकोट ले गया,अब मैं उस से मांगू भी तो किस बहाने से, तुम बरोसोगे तो मैं मांगने लायक रहूँगा न !
अम्बुद महाराज, कृपा करके अपनी अमृत धारा से हमें नहला दो, ‘मानसून-प्लीज कम सून’ ।